Tuesday, December 28, 2010

“दोहा” लेखन और उसकी बारीकियों पर एक नजर – अजित गुप्‍ता


ब्‍लाग लिखने से पूर्व नेट पर हिन्‍द-युग्‍म जैसी कुछ साइट की पाठक थी। हिन्‍द-युग्‍म पर कभी दोहे की और कभी गजल की कक्षाएं चलती थी। मैं इन दोनों विधाओं की बारीकियां समझने के लिए इन कक्षाओं के पाठ नियमित पढ़ने की कोशिश करती थी। लेकिन टिप्‍पणी नहीं करती थी। दोहे की कक्षा आचार्य संजीव सलिल जी लेते थे। एक दिन उन्‍होंने दुख के साथ लिखा कि ऐसा लगता है कि इस कक्षा में किसी की रुचि नहीं हैं तो क्‍या इसे बन्‍द कर देना चाहिए? मुझे लगा कि इतनी अच्‍छी कक्षा यदि छात्रों के अभाव में बन्‍द हो जाएगी तो यह सभी के लिए दुखकारी होगी। मैंने तब उन्‍हें पहली बार टिप्‍पणी की कि आपकी कक्षाओं से हम सभी लाभान्वित हो रहे हैं और आप इसे जारी रखिए। क्‍योंकि मैं समझ गयी थी कि किसी भी विधा के लिए जितना ज्ञान मिल सके उतना ही कम है। मुझे भी तब समझ आने लगा था कि दोहों में भी कितनी पेचीदगियां हैं। यह केवल 13-11 का ही मात्र खेल नहीं है। हम भी मात्रायें गिनते थे लेकिन कहीं न कहीं चूक हो ही जाती थी। लेकिन सलिल जी ने छोटी से छोटी बात को भी समझाया और हमारी प्रत्‍येक गलती पर ध्‍यान आकर्षित किया। मैं उनकी सदैव ॠणी रहूंगी। हमें लगता था कि हमने बहुत अच्‍छा दोहा लिखा है लेकिन उसमें कोई न कोई दोष रह ही जाता था और वे हमें बताते थे कि इसमें यह दोष रह गया है।
कक्षा के समापन के दिनों में उन्‍होंने कहा कि जो कुछ भी सार-संक्षेप हैं उसे आप लिखिए। तब मैंने दोहा-सार लिखा। मुझे लगता है कि शायद यह संक्षिप्‍त जानकारी आप सभी के लिए उपयोगी हो सकती है तो यहाँ आप सभी के लिए प्रस्‍तुत कर रही हूँ।
दोहा - कक्षा - सार
1- दोहे की दो पंक्तियों में चार चरण होते हैं।
2- प्रथम एवं तृतीय चरणों में 13-13 मात्राएं होती हैं ये विषम चरण हैं तथा द्वितीय और चतुर्थ चरणों में 11-11 मात्राएं होती हैं और ये सम चरण हैं।
3- द्वितीय और चतुर्थ चरण का अन्तिम शब्‍द गुरु-लघु होता है। जैसे और, खूब, जाय आदि। साथ ही अन्तिम अक्षर समान होता है। जैसे द्वितीय चरण में अन्तिम अक्षर म है तो चतुर्थ चरण में भी म ही होना चाहिए। जैसे काम-राम-धाम आदि।
4- गुरु या दीर्घ मात्रा के लिए 2 का प्रयोग करते हैं जबकि लघु मात्रा के लिए 1 का प्रयोग होता है।
5- दोहे में 8 गण होते हैं जिनका सूत्र है यमाताराजभानसलगा। ये गण हैं-
य गण यमाता 122
म गण मातारा 222
त गण ताराज 221
र गण राजभा 212
ज गण जभान 121
भ गण भानस 211
न गण नसल 111
स गण सलगा 112
6- दोहे के सम चरणों के प्रथम शब्‍द में जगण अर्थात 121 मात्राओं का प्रयोग वर्जित है।
7- मात्राओं की गणना अक्षर के उच्‍चारण में लगने वाले समय की द्योतक हैं मात्राएं। जैसे अ अक्षर में समय कम लगता है जबकि आ अक्षर में समय अधिक लगता है अत: अ अक्षर की मात्रा हुई एक अर्थात लघु और आ अक्षर की हो गयी दो अर्थात गुरु। जिन अक्षरों पर चन्‍द्र बिन्‍दु है वे भी लघु ही होंगे। तथा जिन अक्षरों के साथ र की मात्रा मिश्रित है वे भी लघु ही होंगे जैसे प्र, क्र, श्र आदि।  आधे अक्षर प्रथम अक्षर के साथ संयुक्‍त होकर दीर्घ मात्रा बनेंगी। जैसे प्रकल्‍प में प्र की 1 और क और ल्‍ की मिलकर दो मात्रा होंगी।
8- जैसे गजल में बहर होती है वैसे ही दोहों के भी 23 प्रकार हैं। एक दोहे में कितनी गुरु और कितनी लघु मात्राएं हैं उन्‍हीं की गणना को विभिन्‍न प्रकारों में बाँटा गया है। जो निम्‍न प्रकार है - 
१. भ्रामर २२ ४ २६ ४८
२. सुभ्रामर २१ ६ २७ ४८
३. शरभ २० ८ २८ ४८
४. श्येन १९ १० २९ ४८
५. मंडूक १८ १२ ३० ४८
६. मर्कट १७ १४ ३१ ४८
७. करभ १६ १६ ३२ ४८
८. नर १५ १८ ३३ ४८
९. हंस १४ २० ३४ ४८
१०. गयंद १३ २२ ३५ ४८
११. पयोधर १२ २४ ३६ ४८
१२. बल ११ २६ ३८ ४८
१३. पान १० २८ ३८ ४८
१४. त्रिकल ९ ३० ३९ ४८
१५. कच्छप ८ ३२ ४० ४८
१६. मच्छ ७ ३४ ४२ ४८
१७. शार्दूल ६ ३६ ४४ ४८
१८. अहिवर ५ ३८ ४३ ४८
१९. व्याल ४ ४० ४४ ४८
२०. विडाल ३ ४२ ४५ ४८
२१. श्वान २ ४४ ४६ ४८
२२. उदर १ ४६ ४७ ४८
२३. सर्प ० ४८ ४८ ४८
दोहा छंद के अतिरिक्‍त रोला, सोरठा और कुण्‍डली के बारे में भी हमने जानकारी प्राप्‍त की है। इनका सार भी निम्‍न प्रकार से है -
रोला यह भी दोहे की तरह ही 24-24 मात्राओं का छंद होता है। इसमें दोहे के विपरीत 11/13 की यति होती है। अर्थात प्रथम और तृतीय चरण में 11-11 मात्राएं तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में 13-13 मात्राएं होती हैं। दोहे में अन्‍त में गुरु लघु मात्रा होती है जबकि रोला में दो गुरु होते हैं। लेकिन कभी-कभी दो लघु भी होते हैं। (आचार्य जी मैंने एक पुस्‍तक में पढ़ा है कि रोला के अन्‍त में दो लघु होते हैं, इसको स्‍पष्‍ट करें।)
कुण्‍डली कुण्‍डली में छ पद/चरण होते हैं अर्थात तीन छंद। जिनमें एक दोहा और दो रोला के छंद होते हैं। प्रथम छंद में दोहा होता है और दूसरे व तीसरे छंद में रोला होता है। लेकिन दोहे और रोले को जोड़ने के लिए दोहे के चतुर्थ पद को पुन: रोने के प्रथम पद में लिखते हैं। कुण्‍डली के पांचवे पद में कवि का नाम लिखने की प्रथा है, लेकिन यह आवश्‍यक नहीं है तथा अन्तिम पद का शब्‍द और दोहे का प्रथम या द्वितीय भी शब्‍द समान होना चाहिए। जैसे साँप जब कुण्‍डली मारे बैठा होता है तब उसकी पूँछ और मुँह एक समान दिखायी देते हैं।
उदाहरण
लोकतन्‍त्र की गूँज है, लोक मिले ना खोज
राजतन्‍त्र ही रह गया, वोट बिके हैं रोज
वोट बिके हैं रोज, देश की चिन्‍ता किसको
भाषण पढ़ते आज, बोलते नेता इनको
हाथ हिलाते देख, यह मनसा राजतन्‍त्र की
लोक कहाँ हैं सोच, हार है लोकतन्‍त्र की

दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान.
चंचल जल दिन चारि को, ठाऊँ न रहत निदान.
ठाऊँ न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै.
मीठे बचन सुने, बिनय सब ही की कीजै.
कह गिरिधर कविराय, अरे! यह सब घट तौलत.
पाहून निशि-दिन चारि, रहत सब ही के दौलत.

सोरठा सोरठा में भी 11/13 पर यति। लेकिन पदांत बंधन विषम चरण अर्थात प्रथम और तृतीय चरण में होता है। दोहे को उल्‍टा करने पर सोरठा बनता है।
जैसे - 
दोहा: काल ग्रन्थ का पृष्ठ नव, दे सुख-यश-उत्कर्ष.
करनी के हस्ताक्षर, अंकित करें सहर्ष.

सोरठा- दे सुख-यश-उत्कर्ष, काल-ग्रन्थ का पृष्ठ नव.
अंकित करे सहर्ष, करनी के हस्ताक्षर.

सोरठा- जो काबिल फनकार, जो अच्छे इन्सान.
है उनकी दरकार, ऊपरवाले तुझे क्यों?

दोहा- जो अच्छे इन्सान है, जो काबिल फनकार.
ऊपरवाले तुझे क्यों, है उनकी दरकार?



Sunday, December 26, 2010

बड़े लोग अपनी चलाते हैं, वे बदमिजाज होते हैं – अजित गुप्‍ता

एक वाकया याद आ रहा है। मेरे विवाह का अवसर था और मेरे पिताजी एक युवा डॉक्‍टर बराती से बहस कर रहे थे।
पिताजी मैं कहता हूँ कि बड़े लोग ज्‍यादा बदमिजाज होते हैं, छोटों के मुकाबले।
डॉक्‍टर नहीं, नहीं, आप यह क्‍या कह रहे हैं? बड़े तो बड़े हैं।
कुछ देर ऐसी ही बहस चलती रही। फिर अचानक ही पिताजी गरजे और गरजकर बोले कि मैं कह रहा हूँ ना कि बड़े लोग बदमिजाज होते हैं
एक मिनट का मौन छा गया, डॉक्‍टर चुप हो गया। फिर धीरे से पिताजी बोले कि मैंने क्‍या कहा था? अब समझ आया?।
कल से ही यह घटना मुझे बारबार याद आ रही है। भारत में बड़ों को बहुत सम्‍मान दिया जाता है इसलिए वे अपना अधिकार समझ लेते हैं छोटों को टोकाटोकी करने का। जहाँ भी गड़बड़ी देखी नहीं कि फटाक से टोक देंगे कि नहीं ऐसा मत करो। आज के दस पंद्रह वर्ष तक तो यह टोकाटोकी और बड़ों की बात मानने की परम्‍परा जायज थी लेकिन आज बदल गयी है।
दुनिया के ऐसे देश जिनसे नवीन पीढ़ी अनुप्राणित होती हैं वहाँ छोट-बड़े की परम्‍परा नहीं है। ऑफिस में 60 वर्ष के बॉस को भी नवयुवा कर्मचारी नाम लेकर ही पुकारता है। सभी की बात एक समान ही सुनी जाती है और वहाँ के बड़े, युवाओं की किसी भी बात पर टांग नहीं अड़ाते हैं। यही परम्‍परा आज भारत में भी आ गयी है। जब मेरी बेटी फोन पर अपने बॉस से बात कर रही थी और उसे नाम लेकर बुला रही थी तब मैं सन्‍न रह गयी थी। घर में भी यह अन्‍तर स्‍पष्‍ट दिखायी देता है। आज की युवा पीढ़ी से जब बात करते हैं तो वे बराबर की बहस करते हुए आपकी बात को खारिज कर देते हैं। उनकी मानसिकता में कहीं नहीं है कि आपकी बात मानेंगे। बल्कि हमेशा यही दृष्टिगोचर होता है कि वे आपकी बात कभी नहीं मानेंगे।
मैंने इस विषय पर कल बहुत मनन किया। मुझे लगा कि हम दोहरी जिन्‍दगी जी रहे हैं। एक तरफ अपने संस्‍कारों से लड़ रहे हैं जो हमारे अन्‍दर कूट-कूटकर भरे हैं और दूसरी तरफ उस पीढ़ी को अनावश्‍यक परेशान कर रहे हैं जिसने छोटे और बड़े का भेद मिटा दिया है। हमें अब विदेशी जीवन शैली का अध्‍ययन करना चाहिए और उसे ही अपने जीवन का अंग बना लेना चाहिए। यदि सुखी रहना है तो। पुराने जमाने में भी भारत में ॠषि-मुनियों ने यही कहा था कि पचास वर्ष के बाद वानप्रस्‍थी बन जाना चाहिए। अर्थात समाज की सेवा करो और परिवार में सारे अधिकार युवा पीढ़ी को दे दो। 75 वर्ष बाद तो संन्‍यास लेकर एकदम ही मोह माया छोड़ दो।
यहाँ ब्‍लाग जगत में हम जैसे लोग भी आ जुटे हैं। अपने बड़े होने का नाजायज फायदा उठाते रहते हैं और लोगों को टोकाटोकी कर देते हैं। किसी की भी रचना पर टिप्‍पणी कर देते हैं कि यह ठीक नहीं है, वह ठीक नहीं है। इसे ऐसे सुधार लो उसे वैसे सुधार लो। कहने का तात्‍पर्य यह है कि हम जैसे लोग अपनी राय का टोकरा लेकर ही बैठे रहते हैं। व्‍यक्तिगत जीवन में भी हस्‍तक्षेप कर देते हैं कि ऐसा मत करो, वैसा करो। जब सामने वाला पूछता है कि आप कौन? तब ध्‍यान आता है कि अरे काहे को पुरातनपंथी सोच को घुसाएं जा रहे हैं? इसलिए मित्रों फालतू की टोकाटोकी नहीं, सब स्‍वतंत्र हैं। अपने परिवार में सुखी रहना है तो अपने काम से काम रखो। पचास की आयु के बाद युवा पीढ़ी को स्‍वतंत्रता दो और अपना अधिकतर समय घर के बाहर निकालो। वे क्‍या पहनते हैं, क्‍या खाते-पीते हैं, ये उनका मामला है, तुम्‍हें इससे कोई लेना देना नहीं रखना चाहिए।
मैं तो मानती हूँ कि आज की पीढ़ी फिर भी बहुत शरीफ है जो आपको तमीज से उत्तर दे रही है। कल को ऐसा बोले कि रे बुढें/बुढियाओं अपना काम करो, हम क्‍या कर रहे हैं और क्‍या लिख रहे हैं इसपर हमें सीख मत दो। आदि आदि। इसलिए आज पचास के पार लोगों को अपनी हद में रहना सीखना चाहिए। उन्‍हें युवापीढ़ी के साथ रहना है तो उनके तौर तरीके सीखने ही होंगे नहीं तो उन्‍हें उपहास का पात्र बनकर किसी कूड़े के ढेर में डाल दिया जाएंगा। तो मित्रों मैं तो अब सीखने में लगी हूँ। आपका क्‍या ख्‍याल है, सीखेंगे या अपना अड़ियल रवैया जारी रखेंगे?  

Thursday, December 23, 2010

लघु कथा के वर्तमान दौर में कैसे करे लेखन? – अजित गुप्‍ता


वर्तमान दौर लघुकथा लेखन का है। पूर्व में किसी भी पत्रिका में सद-विचार या चुटकुले प्राथमिकता से पठनीय होते थे। लेकिन आज इनका स्‍थान लघुकथाओं ने ले लिया है। लघुकथाएं जहाँ भारत में भी अपना स्‍थान बना रही है वहीं विदेशों में प्रतिष्‍ठापित हो चुकी है। आज इन्‍टरनेट पर विदेशी लघुकथाओं के अनुवाद प्रतिदिन पढ़ने को मिलते हैं। एक से एक बढि़या और नायाब। लेकिन जब भारत की स्थिति पर दृष्टि डालते हैं तब मायूसी ही हाथ लगती है। आज का लेखक लघुकथा का शिल्‍प जाने बिना ही लघुकथा लिख रहा है। इस कारण पाठक पर अपेक्षित प्रभाव नहीं दिखायी देता है। मैंने लघुकथा पर विद्वानों से परामर्श किया, उनके आलेख पढे और कार्यशाला भी आयोजित की। इस कार्यशाला का उल्‍लेख विकीपीडिया पर भी है।
मैं यहाँ अपनी बात सरल शब्‍दों में लिखने का प्रयास कर रही हूँ, जिससे पाठक और लेखक लघुकथा के बारे में आसानी से समझ सके। साहित्‍य में लघुकथा को परिभाषित करने के लिए मैंने गद्य में चुटकुले और पद्य में दोहे और शेर का प्रयोग किया है। यदि आप दोहे और गजल के एक शेर को देखेंगे तो पाएंगे कि एक दोहा और एक शेर अपने आपमें परिपूर्ण होता है। दोहे और शेर में चार चरण होते हैं लेकिन अन्तिम चरण सबसे उपयोगी होता है। कवि या शायर की बात अन्तिम चरण से ही स्‍पष्‍ट होती है और हमें चमत्‍कृत कर देती है। यदि दोह और शेर में चमत्‍कृत करने की क्षमता नहीं है तो फिर वह खारिज कर दिया जाता है। इसी प्रकार गद्य में हम अपनी बात चुटकुले के रूप में जब कहते हैं तब अन्तिम पंक्ति में हास्‍य उत्‍पन्‍न होता है। चुटकुले और लघुकथा में बस यही अंतर है कि चुटकुले के अन्‍त में हास्‍य पैदा होता है लेकिन लघुकथा के दर्शन से व्‍यक्ति चमत्‍कृत होता है जैसा कि दोहे और शेर में होता है।
लघुकथा में वर्णन की गुंजाइश नहीं है, जैसे चुटकुले में नहीं होती, सीधी ही केन्द्रित बात कहनी होती है। कहानी विधा में उपन्‍यास और कहानी के बाद लघुकथा प्रचलन में आयी है। उपन्‍यास में सामाजिक परिदृश्‍य विस्‍तार लिए होता है ज‍बकि कहानी में व्‍यक्ति, चरित्र, घटना जैसा कोई भी एक बिन्‍दु केन्द्रित विषय रहता है जिसमें वर्णन की प्रधानता भी रहती है लेकिन लघुकथा में दर्शन प्रमुख रहता है। लघुकथा का प्रारम्‍भ किसी व्‍यक्ति के चरित्र या घटना से होता है लेकिन अन्‍त पलट जाता है और अधिकतर सुखान्‍त होता है। व्‍यक्ति का जो चरित्र हम समझ रहे थे वह परिवर्तित हो जाता है और पाठक चमत्‍कृत हो जाता है कि इस व्‍यक्ति या समाज के चरित्र का यह एक रूप भी और विद्यमान है।  कभी-कभी लघुकथा का समापन व्‍यंग्‍य में भी होता है लेकिन इसे हास्‍य से पृथक स्‍थापित करना होगा।
मैंने कुछ उपयोगी बिन्‍दु आप सभी के लिए यहाँ प्रस्‍तुत किये हैं। लघुकथा मुझे हमेशा से ही प्रभावित करती रही हैं इसलिए जब मैंने इस विषय पर एक कार्यशाला का आयोजन किया तब संयोजक ने सभी को एक पेपर दे दिया और कहा कि अभी दस मिनट के अन्‍दर एक लघुकथा लिखनी है। मैंने इससे पूर्व कोई भी लघुकथा नहीं लिखी थी। मैं चाहती तो नहीं भी लिखती लेकिन मैंने सोचा कि इस कार्यशाला का उद्देश्‍य तभी पूर्ण होगा जब मैं भी इसमें एक लघुकथा लिखू। एकदम से कोई कथानक ध्‍यान में आना बड़ा ही कठिन विषय है। मैंने उस सुबह का चिन्‍तन किया कि सुबह क्‍या हुआ था और मुझे लघुकथा का विषय मिल गया। मैंने अपनी पहली लघुकथा लिख दी थी लेकिन डर था कि वह कही मापदण्‍डों पर खरी नहीं उतरी तो प्रतिष्‍ठा दांव पर लग जाएगी। मुझे तत्‍काल ही दूसरे कार्यक्रम में जाना था तो मैं बिना परिणाम जाने ही वहाँ से रवाना हो गयी। लेकिन मुझे सुखद आश्‍चर्य हुआ कि मेरी लघुकथा प्रथम आयी। एक बार तो मैंने समझा कि मेरे पद के कारण ऐसा हुआ है लेकिन जब मैंने अन्‍य लघुकथाएं देखी तो समझा कि नहीं पद के कारण ऐसा नहीं हुआ है। मुझे संतोष हुआ और फिर मैंने लघुकथा लिखना प्रारम्‍भ किया। उसी का परिणाम है कि मैं अपना लघुकथा संग्रह प्रकाशित करा सकी।
इसी संग्रह से एक लघुकथा प्रस्‍तुत है -
किसका नरक बड़ा

मोहन काका कच्ची बस्ती में घूम रहे हैं। वे एक घर के बाहर कुछ देर बैठ जाते हैं। घर के बाहर गन्दी नाली बह रही है, उसमें सूअर लौट रहे हैं। पास ही दो कुत्ते लड़ रहे हैं। अन्दर से औरतों के झगड़ने की आवाजें आ रही हैं। एक बूढ़ा व्यक्ति खाट पर लेटा है, वह चिल्ला रहा है अरे मुझे भी तो रोटी दे दो, सुबह से शाम हो गयी, अभी तक पेट में दाना भी नहीं गया है।
तभी सुरेश सायकिल चलाता हुआ मोहन काका के पास चला आता है। उन्हें देखते ही बोलता है कि काका आप यहाँ क्या कर रहे हैं? गन्दी बस्ती में घूम रहे हैं। क्या आप पागल हो गए हैं?’
नहीं रे वापस अपनी कोठी जाने पर मुझे वहाँ का नरक भी अच्छा लगने लगे इसीलिए ही घूम रहा हूँ।

Saturday, December 18, 2010

यादों के भँवर जब बनते हैं तो शब्‍द कहाँ-कहाँ टकराते हैं? - अजित गुप्‍ता


आज सुबह से ही मन में भँवर सा उमड़ रहा है। भावनाओं के तूफान में बेचारे शब्‍द तेजी से घूम रहे हैं। उन्‍हें कहीं कोई मार्ग ही नहीं मिल रहा कि बचकर किधर से निकला जाए? कभी यह भँवर गोल-गोल घूमता हुआ बचपन में ला पटकता है जहाँ कभी बस बालू के टीले ही टीले थे और उन्‍हीं टीलों पर चढ़ते उतरते जीवन में कैसे एक-एक पैर बालू रेत पर धंसाते हुए चढ़ा जाता है, सीख लिया था। तो कभी वर्तमान में हमारी यादों को ला पटकता है यह भ्रमर। जहाँ न‍हीं है मखमली बालू और नहीं है बालू जैसा स्‍वभाव, जब कोई भी मन का कलुष, दाग बनकर नहीं चिपकता था। कभी माँ का स्‍मरण हो जाता है तो कभी पिता का, इन्‍हीं के बीच एक जोरदार लहर आती है और यादों की सुई बच्‍चों पर आ अटकती है। कभी बचपन के संगी साथी याद आ जाते हैं और कभी भाई-बहन। दुश्‍वारियों में भी रोज ही इन्‍द्रधनुष निकल आया करते थे और आज कहीं दूर-दूर तक भी कोई रंग नहीं है।
एक-एक मौसम जीवन्‍त होने लगे हैं। बरसात में कौन से पेड़ पर कोयल आकर बोलेगी और कौन सी चिड़िया गाने लगेगी, सभी का हिसाब था। रेतीली धरती पर जैसे ही बरखा की बूंदे पड़ती बस शुरू हो जाता पहल-दूज का खेल। बरसते मेह में जैसे ही कहीं सूरज को खिड़की मिलती झट से अपना चेहरा दिखा जाता और हम सब ताली बजाकर नाच उठते कि सियार का विवाह हो रहा है। सर्दी आते ही सूरज कैसा तो प्‍यारा-प्‍यारा लगने लगता। सुबह से ही उसका इंतजार होता और शाम ढले तक उसकी चाहत रत्ती भर भी कम नहीं होती। तिल-गुड़, मूंगफली तो ऐसे खाये जाते जैसे अब दवाइयां खायी जाती हैं। दिन में तीन बार। पिताजी बोरी भरकर मूंगफली लाते और बोरी भरकर ही गुड़। अब तो आधा किलो ही पड़ा-पड़ा खराब हो जाता है। इन सबके बीच गर्मी भी क्‍या गर्मी थी? तपती रेत, यदि चने भी उसमें डाल दो तो भूंगडे बन जाए लेकिन हम तो उसी के बीच चलते रहे। मानो भगवान ने कहा हो कि तप लो जितना तपना है, जिन्‍दगी में इससे भी ज्‍यादा तपन है। तब ना कूलर थे और ना ही एसी। पंखा भी पूरे घर में एक। लेकिन बचपन ने कहाँ माना है गर्मी का कहना। बस जहाँ-जहाँ से धूप जाती वहाँ-वहाँ हम होते और गर्मी की राते तो इतनी हसीन थी कि भुलाए नहीं भूलती। हवा का पत्ता भी नहीं हिलता लेकिन न जाने कितने ही टोटके बता दिये जाते कि ऐसा करने से हवा चलेगी। कोई कहता कि सात काणों के नाम लो तो हवा चलेगी। अब हम सब लग जाते एकाक्षी को ढूंढने। रेत भी रात को ठण्‍डी हो जाती और हम उसमें लोट-पोट करते रहते। कैसी थी वह बालू रेत? हाथ से सर से सरक जाती, कुछ भी पीछे छोड़कर नहीं जाती। और अब? धूल, काली धूल, उड़ती है कभी कपड़े काले तो कभी मन काला। यह कार्बन वाली धूल ना दिन में ठण्‍डी होती है और ना रात को।
इन सारी यादों के बीच लग रहा है कि शायद यह उम्र यादों को समेटने की ही है। सारा वैभव आसपास फैला है लेकिन मन उस अभाव के चक्‍कर लगा रहा है। बच्‍चों का प्रेम भी टेलीफोन और नेट से खूब मिल ही जाता है लेकिन फिर भी पिताजी की डांट और मार क्‍यों याद आने लगती है? क्‍यों वो माँ याद आती है जिसने जिन्‍दगी में ह‍में केवल डरना ही सिखाया। अरे यह मत करो और वह मत करो बस यही हमेशा बोलती रही और हमें कभी पिताजी से कभी भाई से डराती रही। आज कोई नहीं है ना डराने वाला और ना डांटने-मारने वाला। समय के साथ वह डांट, वह डर कहीं दिखायी नहीं देता केवल अपने मन के अन्‍दर के अतिरिक्‍त। बच्‍चों को गुस्‍से में भी डांट दो तो वे सीरियसली नहीं लेते बस हँस देते हैं। जब डांट का ही असर नहीं तो डर तो कैसा? यहाँ जिन्‍दगी भर डांट और डर को दिल में बसाये रहे कि वसीयत आगे देकर जाएंगे लेकिन अब तो कोई इस फालतू चीज को अंगीकार ही नहीं करता। ओह मैं भी ना जाने किस भँवर में फंसकर बस यादों के बीच चक्‍कर काट रही हूँ, आप लोग भी सोच रहे होंगे कि हम भला क्‍यों उलझे इस भ्रमर में? लेकिन शायद हमें ऐसे ही भ्रमर जीने का मार्ग बताते हैं और कहते हैं कि दुनिया बदल गयी है सचमुच बदल गयी हैं। तुम तो अपनी नाव को पतवार से खेते आए थे लेकिन अब तो नाव का ही जमाना कहाँ रहा? 

Saturday, December 11, 2010

व्यंग्य - सतयुग का आगमन अर्थात कलियुग का अन्‍त - अजित गुप्‍ता

बड़े-बूढे़ कहते हैं कि कलियुग चल रहा है। लेकिन मुझे लगने लगा है कि हम सतयुग की दहलीज पर खड़े हैं। आपको विश्वास नहीं होता न? कैसे होगा? जब चारों तरफ घनी अँधेरी रात हो, तब कोई खिली-खिली सुबह की बात कैसे कर सकता है? बस हमारे देखने और समझने का यही अन्तर है। जैसे घर और सरकार दोनों में ही नारियों का राज कायम है लेकिन पुरुष अपने आपको ही सरदार मानकर चलते हैं। हम सब जानते हैं कि रात के बाद ही सुबह होती है। इसलिए मैं कहती हूँ कि सतयुग आने वाला है। अभी कलयुग की पराकाष्ठा है इसलिए अंधकार समाप्ति की ओर है। मेरी इस बात से  आप भी सहमत होंगे कि हजारों-लाखों वर्षों से मनुष्य इन्द्रिय निग्रह के प्रयास कर रहा है। लेकिन प्रयोग सफल होता नहीं। जिस युग में इन्द्रिय निग्रह नहीं हो सके वह कलियुग और जब हो जाए वही सतयुग। आपको मैं रोड शो के माध्यम से समझाने का प्रयास करती हूँ, क्योंकि आज राजनेता से भी जनता भाषण की मांग नहीं करती, बस उसके रोड-शो से ही खुश हो जाती है तो आप एक दृश्य देखिए, विश्वामित्र तपस्या में लीन हैं, उन्हें लग रहा है कि मैंने ज्ञान प्राप्ति कर ली है और मेरी इन्द्रियां अब मेरे वश में हैं, तभी स्वर्ग से मेनका उतरती है और अपने नृत्य प्रदर्शन से विश्वामित्र की तपस्या भंग कर देती है। वर्षों की तपस्या, एक अप्सरा ने क्षण भर में भंग कर दी! नारी के दो ठुमके भी तपस्वी पुरुष बर्दास्त नहीं कर पाए तो इसका अर्थ हुआ कि उस काल का मनुष्य आत्मबल क्षीण था। राम-राम घोर कलियुग।
काल आगे बढ़ा, ऋषि-मुनियों की तपस्या-परम्परा समाप्त हुई। शायद समाप्त भी इसलिए हुई कि कभी मेनका और कभी उर्वशी, तपस्वियों की तपस्या भंग करने में सफल हो जाती थी। लोगों ने सोचा कि अब गृहस्थ ही रहा जाए। अनावश्यक तपस्या का बोझ, ईमानदारी के भूत की तरह लोगों के मन से उतर गया और एक नए सत्य का आगमन हुआ। गृहस्थी में रहने से स्वतः ही इन्द्रियनिग्रह हो जाता है। पत्नी के साथ लगातार वर्षों तक रहने से व्यक्ति पर सवार कामदेव वैसे ही भाग छूटता है जैसे बिल्ली को देखकर चूहा। उसे चाँद सा मुख - जेठ का सूर्य, बलखाती मनीप्लांट सी जुल्फे - निरीह पेड़ पर चढ़ी अमरबेल सी लगने लगती हैं। लेकिन फिर भी कुछ लोगों ने संन्यास की परम्परा को जीवित रखा और जंगलों के स्थान पर मठों और मंदिरों में जाकर बैठ गए। इसका भी कारण था कि अब तपस्या के लिए वन में तो नहीं जाना था, अपितु घर के जंजाल से मुक्त होकर आनन्द से जीवन व्यतीत करना था। संन्यासी भी कहलाएं और समस्त भौतिक सुख भी उपलब्ध हों! इस कारण उनकी तपस्या में वह कशिश नहीं थी कि कोई अप्सरा उतर कर आए और उनका तप भंग कर सके। क्योंकि मठों और मंदिरों में तो वैसे ही देवदासियां और बाल विधवाएं रहती थी तो उनके तप भंग करने के लिए इंद्रदेव को कोशिश नहीं करनी पड़ती थी। न ही इंद्र का सिंहासन डोलता था, क्योंकि उनसे उसे कोई खतरा जो नहीं था। इन्द्र भी अब बार-बार धरती पर नहीं आता था, क्योंकि यहाँ के इन्द्रों ने राजनीति में दक्षता प्राप्त कर ली थी। खैर, धीरे-धीरे समय के साथ स्वर्ग के द्वार बंद होने लगे अब केवल वन वे ट्रेफिक ही स्वर्ग के लिए था, अर्थात पृथ्वी से लोग जा तो सकते थे लेकिन स्वर्ग से अप्सराएं आ नहीं सकती थी। अतः पृथ्वी से अप्सरा परम्परा का समापन हो गया।
चलचित्र की दुनिया प्रारम्भ हुई। स्वर्ग की अप्सराओं का ठेका समाप्त हुआ और न्यूनतम दरों के टेण्डर के कारण पृथ्वी की अप्सराओं को ही कार्य मिल गया। अब उन्होंने ही नृत्य कर पुरुषों को रिझाने का कार्य प्रारम्भ किया। ऋषियों की परम्परा भी शेष नहीं थी, तो आम व्यक्ति को यह सुविधा उपलब्ध होने लगी। वैसे भी सामन्तशाही समाप्त होकर आम व्यक्ति का राज आ गया था। फिल्मों के माध्यम से यह अपरोक्ष दर्शनीय सुविधा सभी को उपलब्ध करायी गयी। प्रत्यक्ष रूप से एवं स्पर्श के लिए अप्सराएं नायकों के लिए थीं। अप्सरा रूपी नायिका बुरका पहनकर, हाथ में किताबें लेकर, सड़क पर चली जा रही है, सामने से नायक अपने ख्यालों में खोया हुआ, बेसुध-सा चला आ रहा है। परिणाम - टक्कर। किताबें बेतरतीब सी सड़क पर। नायक किताबों को कम और बुरके से झांकती नायिका की आँखों को समेटने में लग जाता है। पहले मेनका को कितना नृत्य करना पड़ा था, तब कहीं जाकर कामदेव उपस्थित हुए थे और अब पलकों के झुकने-मुंदने से ही नायक के दिल में तीर उतर जाता है। तब घोर कलयुग था, राम! राम! लेकिन अब सतयुग आने लगा था। चलचित्र की यात्रा आगे बढ़ी। तंग सलवार सूट से लेकर जीन्स, स्कर्ट तक जा पहुँची। नायक और नायिकाओं के माध्यम से जनता, धीरे-धीरे कमनीयता से अभ्यस्त होने लगी। अब पाकीजा के राजकुमार की तरह केवल पाँव की एड़ी देखकर ही फिदा होना सम्भव नहीं था। अब तो पूरी खुली टांगे भी कामदेव को आमन्त्रित नहीं कर पाती थी।
राजकपूर जैसे शो मैन ने फिल्मी दुनिया में अपने जलवे बिखेरने प्रारम्भ किए और सत्यम्-शिवम्-सुंदरम्से लेकर राम तेरी गंगा मैली हो गयीजैसी धार्मिक नामों वाली फिल्मों में अप्सराओं को उतारने का प्रयास किया गया। दर्शकों की निगाहें अब आँखों और ऐड़ी से आगे बढ़ीं। अब उनकी आँखें अप्सरा के शरीर के और करीब पहुँच चुकी थीं। नारी को जानने और पाने की ललक के वे बहुत करीब पहुँच गए थे। अर्थात ज्ञान प्राप्ति के काफी नजदीक था आम दर्शक। इन्द्रिय भी वश में होने लगी थी। जहाँ राजेन्द्र कुमार, बुरके से झांकती आँखों से ही घायल हो गए थे और राजकुमार साड़ी से बाहर निकलती पैरों की एड़ियों से ही दिल गँवा चुके थे, वहीं अब टोप लेस, बेक लेस, तक का जमाना आ चुका था और नारी शरीर को देखने की आदत बन चुकी थी। फिर इन्द्रियों को वश में करने का नुस्खा फिल्मों से दूरदर्शन ने भी ले लिया। अब तो घर-घर में विश्वामित्र की तपस्याएँ होने लगी। जब भी कामदेव आते, व्यक्ति दूरदर्शन खोलकर उनका स्वागत करते और धीरे-धीरे उनसे पीछा छुड़ाने में अभ्यस्त होते गए।
फिर आया, रीमिक्स का जमाना। इसी जमाने से हुई सतयुग की शुरुआत। रीमिक्स गानों की अप्सराएँ इस तरह से उछल-कूद करती हैं जैसे रावण के दरबार की राक्षसियाँ। बेचारे व्यक्ति के दिल और दिमाग से अप्सराओं का भूत पूरी तरह से उतर गया और उनकी जगह सूर्पणखा ने ले ली। काफी हद तक जनता का इन्द्रिय वशीकरण यज्ञ सफल हुआ। लेकिन फिर भी यदा-कदा कामदेव का बाण चल ही जाता। अभी हाल ही में सूर्पणखा जैसी अप्सरा ने एक गायक कलाकार का तेज भंग करने का प्रयास किया और वह उसमें सफल भी हुई। जैसे ही गायक पर बाणों की बोछार हुई, साक्षात कामदेव उसके होठों पर आकर बिराजमान हो गए। एक जमाने में लक्ष्मणजी ने सूर्पणखा की ऐसी धृष्टता पर नाक काट दी थी लेकिन आज परिस्थितियां बदल गयी थी। गायक ने तत्काल बाण का प्रत्युत्तर, और भी तीक्ष्ण बाण से दे दिया था। फिर गायक लक्ष्मण भी नहीं था, वैसे वह भी छोटा भाई ही था लेकिन अब कहाँ हैं, राम और लक्ष्मण की परम्परा? सूर्पणखा को ऐसा प्रत्युत्तर नागवार गुजरा और उसने पुलिस रूपी रावण के दरबार में दस्तक दे दी। रावण बोला कि जब लक्ष्मण तुम्हारे बाणों से विचलित नहीं हुआ था और उसने तुम्हारी नाक काट ली थी, तब तुम आहत हुईं थी, लेकिन आज, जब एक बेचारा प्राणी, तुम्हारे बाणों से घायल होकर, तुम्हें बाहुपाश में जकड़कर तुम्हारा विष पी लेता है, तब तुम क्यों विचलित होती हो? सूर्पणखा बोली कि मुझे इससे आपत्ति नहीं, बस आपत्ति है, तो परम्परा के निर्वहन की। विश्वामित्र ने मेनका से विवाह किया था, तो मेरे भी प्रेम निवेदन पर उसे दयालुता के साथ, विवाह का प्रस्ताव रखना चाहिए था। जिसे में मौल-भाव करते हुए स्वीकार करती, या नहीं भी करती। सार्वजनिक रूप से प्रत्युत्तर देने से हम सूर्पणखाओं की परम्परा पर आघात हुआ है। इस सारे वाद-विवाद के कारण और गायक की दुर्दशा देखकर सारे ही दर्शकों ने सबक लिया। उन्हें फिर ज्ञान प्राप्ति हुई कि सूर्पणखा की बात मानो तब भी खतरा है। मनुष्य अपनी इन्द्रियनिग्रह में एक कदम और आगे बढ़ गया।
आज चल-चित्र ही नहीं दूरदर्शन और आम सड़क पर चलती टापलेस, बेकलेस, मिनी स्कर्ट वाली अप्सराएँ आँखों को अभ्यस्त हो चली हैं। अब वे दिन लद गए जब मेनका ने नृत्य किया और विश्वामित्र की तपस्या भंग हो गयी। यह ही कलयुग कहलाता था। सतयुग में कामदेव कम सक्रिय होते हैं, वे अप्सराओं के नर्तन या अल्प वस्त्रों से डगमगाते नहीं हैं। अब तो लगने लगा है कि कामदेव कहीं चरित्र की भांति कथनीय पुराण ही नहीं रह जाए। आज ऐसी अप्सराओं के कारण या सूर्पणखाओं के कारण व्यक्ति के मन का कामदेव शांत हो चला है, अतः सतयुग का आगमन होने लगा है। अब तो तपस्या के लिए जंगल में जाने की आवश्यकता नहीं, बस दूरदर्शन खोलकर बैठिए और तपस्या कर लीजिए। प्रात-काल रामदेवजी जैसे प्राणायाम के द्वारा शरीर को शुद्ध करा रहे हैं वैसे ही सायंकालीन सभा में मनुष्यों के मन को शुद्ध किया जा रहा है। धीरे-धीरे मनुष्य का मन दृढ़ होने लगा है, बहुत जल्दी विचलित नहीं होता। ऐसे लगने लगा है कि मनुष्य की स्थिरप्रज्ञता बढ़ी है। हम सब चल-चित्र निर्माताओं और दूरदर्शन के कलाकारों के आभारी हैं, जिन्होंने स्त्री-पुरुष के बीच समता भाव का निर्माण किया। हम इसलिए भी खुश हैं कि हमारे जीते जी, हम सतयुग देखने की ओर बढ़ रहे हैं। मेरी इस ठोस दलील के बाद तो आप मानेंगे न कि सतयुग आ रहा है। जैसे-जैसे हम प्रकृति के करीब पहुँचेंगे, वैसे-वैसे हम सतयुग के करीब पहुँचते जाएंगे। इसलिए इस सूर्पणखा युग को आप धन्यवाद दीजिए और बढ़ जाइए सतयुग की ओर। 
हम गुलेलची - व्‍यंग्‍य संग्रह - अजित गुप्‍ता

Wednesday, December 8, 2010

राजस्‍थान को मेरी आँखों से देखो, हमें मालूम है प्रेम के मायने – अजित गुप्‍ता

 राजस्‍थान की जब बात आती है तब लोगों के मन में एक दृश्‍य उभरता है, बस बालू ही बालू। बालू के टीले, अंधड़, भँवर, कहीं कहीं उग आए केक्‍टस। ऊँट की सवारी और पानी को तरसता सवार। राह भटकते राहगीर। लेकिन इन सबसे परे भी कुछ और है राजस्‍थान में। राजस्‍थान का सेठाना, रंग बिरंगी चूंदड़, तीज-त्‍योहार, मेले-ठेले, और केक्‍टस पर लगा सुन्‍दर सा लाल फूल। आज का राजस्‍थान कभी राजपुताना था और इससे पूर्व रेगिस्‍तान या मरु भूमि। आज के राजस्‍थान में मरूभूमि भी है तो अरावली पर्वत मालाएं भी हैं। रेगिस्‍तान में खिलने वाले केक्‍टस पर लाल फूल हैं तो वादियों में लहलहाते खेत भी हैं। सात रंगों से बना है राजस्‍थान। सारे ही रंग हैं यहाँ। जिस धरती पर मीरां ने शाश्‍वत प्रेम के गीत गाए हों वह भूमि प्रेमरस से पगी हुई है। हम राजस्‍थानी प्रेम क्‍या है, इसे समझते हैं।
यहाँ के नायक ने सीमाओं को तोड़ा है, अपने देश से दूर विदेश तक में स्‍वयं को ना केवल बसाया है अपितु उस देश को भी सदा-सदा के लिए उन्‍नत कर दिया है। हजारों-लाखों युवा दिल जब राजस्‍थान से कूच करते हैं तब पीछे छूट गए उनके प्रेम को प्रेम और विरह के शब्‍द यहीं से मिले हैं। राजस्‍थानी कभी दुखी नहीं हुआ, उसने संघर्षों में से अपनी राह बनायी है। रेतीले धोरों में भी पानी निकाला है और आँधियों के साथ अपने को खड़ा किया है। यहाँ का कर्मठ व्‍यक्ति पंख लगाकर उड़ा है और सारी दुनिया को उसने नाप लिया है।
राजस्‍थान के आँचल में अनेक सभ्‍याएं पलती हैं, कहीं शेखावाटी है, कहीं मेवाड़, कहीं मारवाड़, कहीं बागड़, कहीं हाड़ौ‍ती, कहीं मेवात। सभी के अपने रंग हैं। लेकिन पधारो म्‍हारा देश की तान हर ओर सुनायी देती है। शेखावाटी और मारवाड़ में पी कहाँ का राग मोर अपने सतरंगी पंख फैलाकर सुनाते हैं तो मेवाड़ में कोयलिया बागों में कुहकती है। बागड़, मेवात और हाड़ौती के घने जंगलों में आज भी बाघों की दहाड़ सुनी जाती है। न जाने कितने सुन्‍दर और सुदृढ़ किले आज भी अपनी आन-बान-शान से पर्यटकों को सम्‍मोहित करते हैं। कितनी ही हवेलियां और उनमें बने झरोखें, राजसी ठाट-बाट का चित्र उपस्थित करते हैं।
राजस्‍थान में क्‍या नहीं हैं? यहाँ शौर्य रग-रग में टपकता है, यहाँ प्रेम नस-नस में बहता है और यहाँ त्‍याग कण-कण के बसता है। तभी तो कहते हैं कि म्‍हारो छैल-छबीलो राजस्‍थान। कभी यहाँ की मिट्टी को मुठ्ठी में उठाइए, इसका कण-कण सोने की आभा सा चमक उठेगा, आपके हाथों में कभी नहीं चिपकेगा बस हौले से सरक जाएगा। जब हवा अपनी रागिनी छेड़ती है तब यहाँ के मरूस्‍थल में स्‍वर लहरियाँ ताना-बाना बुनने लगती हैं और मरूस्‍‍थल पर बन जाते हैं अनगिनत मन के धोरे। बस इस बालू रेत को आहिस्‍ता से सहला दीजिए, मखमली अहसास दे जाएगी लेकिन कभी इसे उड़ाने की भूल की तो आँखों में किरकिरी बन चुभ जाएगी। इस बालू रेत का आकर्षण सारे ही आकर्षणों को फीका कर देता है तभी तो कहते हैं कि मरूस्‍थल में ही मरीचिका का जन्‍म होता है।
यहाँ की पहाडियां वीरगाथाओं से भरी पड़ी हैं। न जाने कितने किले सर उठाकर भारत के स्‍वाभिमान की रक्षा कर रहे हैं? कहीं चित्तौड़, कहीं रणथम्‍भोर, कहीं लौहागढ़ तो कहीं बूंदी का तारागढ़। सभी में न जाने कितनी कहानियां छिपी हैं। कहीं रानी पद्मिनी जौहर करती है तो कहीं हाड़ी रानी अपना सर काटकर युद्ध में जाते हुए अपने राणा को सैनाणी के रूप में दे देती है, कहीं पन्‍ना धाय अपने ही पुत्र का बलिदान राजवंश को बचाने के लिए कर देती है। कही राणा सांगा है तो कहीं राणा कुम्‍भा और महाराणा प्रताप। न जाने कितना इतिहास बिखरा है यहाँ? गाथा पूर्ण ही नहीं होगी, सदियों तक चलती रहेगी, अनथक।
बस ऐसा ही राजस्‍थान और ऐसे हैं राजस्‍थानवासी। जिसने भी यहाँ जन्‍म लिया है उसने इन सारे ही रंगों को अपने अन्‍दर संजोया है। यहाँ तपते रेगिस्‍तान में भी जब शाम ढलती है तब लोग स्‍वर लहरियां बिखेर देते हैं और जब पहाड़ों पर आदिवासी नंगे पैर चलता है तब भी वह प्रेम की धुन ही छेड़ता है। राजपूत जब युद्ध में जाते हैं तो वीर रस सुनायी पड़ता है और जब रानियों को जौहर करना पड़ता है तब भी करुण रस कहीं नहीं आता। यहाँ तो बस यही गीत गूंजता है मोरया आच्‍छयो बोल्‍यो रे ढलती रात में।
और अन्‍त में इस पोस्‍ट लिखने की भूमिका। http://satish-saxena.blogspot.com
पर सतीश जी ने इंदुपुरी गोस्‍वामी पर एक पोस्‍ट लिखी।
 मैंने उस पर यह टिप्‍पणी की -  राजस्‍थान वाले ऐसे ही प्रेम करते हैं। इस प्रेम को अनमोल समझ कर झोली में बांध लीजिए।

और अनामिका की सदाएं ने यह टिप्‍पणी की -
और डा.अजित जी क्या आप सच कह रही हैं ?

:):):):)
बस उसी प्रेम का उत्तर देने का प्रयास किया है कि राजस्‍थान वाले सदा प्रेम ही करते हैं।
   

Sunday, December 5, 2010

एक और लघुकथा - घर - अजित गुप्‍ता

आज किसी भी घर में दस्‍तक दीजिए, एक साफ-सुथरा सा बैठक खाना एकान्‍त में उदास सा बैठा हुआ मिलेगा। उसके सोफे को पता नहीं कि उस पर कितने दिन पहले कोई बैठा था और ना ही कालीन को पता होगा कि आखिरी पैर किसके यहाँ पड़े थे। बस नौकर ही रोज झाड़-पोछकर कमरे को बुहार देता है और दो जोड़ी बूढ़ी आँखे अपने साफ-सुथरे से करीने से सजे ड्राइंग रूम को देखकर कभी खुश हो लेते हैं और कभी दुखी। 
बरामदे में एक झूला लगा है, कभी-कभी कोई चिड़िया आकर चीं-चीं कर जाती है तब घर की मालकिन बड़े ही अरमानों से घर का दरवाजा खोलकर देख लेती है कि शायद कोई आया हो। बस यही है आज अधिकांश घरों की दास्‍तान। 
एक वृद्ध आदमी से एक दिन किसी ने पूछ लिया कि क्‍यों मियां घर में सब खैरियत से तो हैं। बस इतना पूछना था कि मियांजी भड़क गए। बोले कि क्‍या मतलब है तुम्‍हारा खैरियत से? पोते-पोती वाला आदमी हूँ, भरा-पूरा कुनबा है तो कभी कोई बीमार तो कभी कोई। क्‍या अकेला हूँ जो खैरियत पूछ रहे हो? परिवार वाला हूँ तो खैरियत कैसी?
परिवार में रहते हुए बच्‍चों की धमाचौकड़ी से कितना तो गुस्‍सा आता है लेकिन जब ये नहीं होते तब क्‍या घर, घर रह जाता है। एक लघुकथा पढिये और अपनी टिप्‍पणी दीजिए। 

घर
कमला ने आज अपनी सहेलियों को चाय पर आमंत्रित किया है। दिन में उसकी सभी अभिन्न सहेलियां समय पर ही घर आयी थीं लेकिन कमला का बैठक-खाना तितर-बितर देखकर उन्हें अजीब सा लगा।
अरे कमला ने अपना घर कैसा फैला रखा हैं? दोनों ही अकेले रहते हैं फिर भी इतना फैलावड़ा? सुमित्रा ने ताना कसा।
हो सकता है कि आज नौकरानी नहीं आयी हो, कुमुद बोली।
अरे क्या हुआ तो? जब हमें बुलाया है तो सफाई भी करनी ही चाहिए थी।
इतने में ही कमला इठलाती हुई, खुश-खुश बैठक-खाने में प्रवेश करती है। सभी उसे प्रश्नभरी निगाहों से देखती हैं।
देखो न बच्चों ने कैसा घर फैला दिया है, आज बहुत दिनों बाद इस घर में बच्चों ने उधम मचाया है। कितना अच्छा लग रहा है न यह घर। नहीं तो यह एक मकान ही बना हुआ था, एक होटल जैसा, सब कुछ सजा हुआ। कमला चहकती हुई बोले जा रही थी।
लघुकथा संग्रह - प्रेम का पाठ - अजित गुप्‍ता 

Thursday, December 2, 2010

लघुकथा - पूजनीय- अजित गुप्‍ता

पूजनीय
प्रसिद्ध साहित्यकार रामबल्लभजी का आज उद्बोधन है। मंच पर एक राजनेता, एक पूँजीपति भी बैठे हैं। रामवल्लभजी अपने उद्बोधन से पूर्व मंच को सम्बोधित करते हुए बोल रहे हैं कि पुज्यनीय नेता जी, पूज्यनीय सेठजी.......। लोग आश्चर्य में पड़ गए। रामवल्लभजी एक राजनेता और काली कमाई से बने सेठ को पुज्यनीय सम्बोधित कर रहे हैं! कार्यक्रम समाप्त हुआ, उनके शिष्य ने प्रश्न किया कि आप का सम्बोधन कितना उचित था? क्या आप भी राजनेता और पूँजीपतियों को पूजनीय मानते हैं?
हाँ। क्योंकि भारत में हम साँपों की भी पूजा करते हैं।