अपनी पुस्तक का लोकार्पण के अर्थ क्या हैं? कोई कठिन प्रश्न नहीं हैं, बहुत सरल सा उत्तर है कि अपनी पुस्तक को लोगों को समर्पित करना। अर्थात अपने विचारों को पुस्तक के माध्यम से समाज में प्रस्तुत करना। ये विचार अब समाज प्रयोग में ला सकता है। लेकिन कई बार विवाद होता है या यूँ कहूँ कि अक्सर विवाद होता है कि मेरे विचार को समाज ने कैसे उद्धृत किया? यदि मेरा विचार था तो उसे मेरे नाम से ही उद्धृत करना चाहिए था। लेकिन समाज का कहना है कि जब आपने इसे लोकार्पित कर ही दिया है या सार्वजनिक कर ही दिया है तो ये विचार सभी के हो गए हैं। यह किसका विचार है उद्धृत करना बहुत अच्छी बात है लेकिन यदि कोई नहीं भी करे तो क्या यह गैरकानूनी की श्रेणी में आएगा? वर्तमान लेखकों या विचारकों के विचारों को हम उद्धृत भी कर देते हैं लेकिन प्राचीन विचारकों को तो हम अक्सर भुला ही देते हैं और सीधे ही उस विचार का प्रयोग करते हैं। कितनी लघुकथाएं, बोधकथाएं, मुहावरे, चुटकुले समाज में प्रचलित हैं लेकिन हम उनके लेखकों को नहीं जानते। इसलिए मैं सभी सुधिजनों से जानना चाहती हूँ कि क्या लोकार्पित विचार आपकी निजि सम्पत्ति हैं? क्योंकि मुझे किसी विद्वान ने कहा था कि जब तक आपकी पुस्तक लोकार्पित नहीं है तभी तक आपकी है, जिस दिन इसका लोकार्पण हो गया यह पुस्तक सबकी हो गयी है। जैसे कोई भवन, पुल आदि लोकार्पण के बाद सार्वजनिक हो जाते हैं।
लेखन के बारे में एक और प्रश्न है, हमारे लेखन का उद्देश्य क्या है? क्योंकि मेरा मानना है कि शब्द ब्रह्म है और इसे नष्ट नहीं किया जा सकता है। यह अपना प्रभाव समाज पर अंकित करता ही है। आपके लिखे गए शब्द से समाज प्रभावित होता ही है। बोले गए शब्द में और लिखे गए शब्द में भी अन्तर होता है। बोले गए शब्द का व्याप छोटा होता है लेकिन लिखे गए शब्द का व्याप भी बड़ा होता है और वह साक्षात सदैव उपस्थित भी रहता है। इसलिए जिसके शब्दों या विचारों से समाज को सकारात्मक ऊर्जा मिलती है वह लेखक या विचारक उतना ही महान होता है। जिस लेखन से नकारात्मक ऊर्जा मिलती है उसे समाज तिरस्कृत करता है। आज भी हम रामायण और महाभारत से ऊर्जा लेते हैं लेकिन ऐसे लेखक भी आए ही होंगे जिन्होंने समाज में नकारात्मकता की उत्पत्ति की हो, लेकिन वह शायद स्थापित नहीं हो पाए। परिष्कृत समाज की हमारी कल्पना है। मनुष्य और प्राणियों में बस इतना ही अन्तर है कि मनुष्य सदैव परिष्कृत या संस्कारित होता रहता है जबकि अन्य प्राणी प्रकृतिस्थ ही रहते हैं। लेखन इसी संस्कार की प्रवृत्ति को विस्तारित करने के लिए ही है।
साहित्य और पत्रकारिता में एक अन्तर दिखायी देता है। पत्रकार प्रतिदिन की घटनाओं को समाज के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, उसमें विचार नहीं होता लेकिन साहित्यकार के लिए आवश्यक नहीं है कि वह प्रतिदिन साहित्य की रचना करे। जब भी श्रेष्ठ विचार उसके अन्तर्मन में जागृत हों, उन्हें विभिन्न विधाओं के माध्यम से समाज तक विस्तार देने का प्रयास करता है। इसलिए साहित्यकार प्रतिदिन नवीन रचना नहीं कर पाता। समाज के मध्य जाकर प्रचलित विचारों से उसके नवीन विचार जन्म लेते हैं और वे उन्हें पुन: प्रांजल कर समाज को लौटाता है। इसलिए एक साहित्यकार के लिए लेखन से भी अधिक आवश्यक है उसका समाज के साथ एकाकार होना। या फिर भिन्न विचारों का पठन, जो समाज में पुस्तकरूप में विद्यमान है। इन्हीं संस्कारित विचारों को हम समाज को देते हैं।
इसलिए आइए हम इस बात पर चिंतन करें कि हमारे लेखन का उद्देश्य क्या है और जो लेखन लोकार्पित हो गया है वह क्या आपकी निजि सम्पत्ति है या फिर सभी के उपयोग के लिए उपलब्ध है?