Friday, May 27, 2011

राजा आज भी क्यों हैं लोकप्रिय?- अजित गुप्‍ता



भगवान के प्रति व्यक्ति की भक्ति और विश्वास कभी भी समाप्त नहीं होता। अच्छे से अच्छा नास्तिक भी कभी ना कभी भगवान के प्रति नतमस्तक होता ही है। मनुष्य ने कभी भगवान को नहीं देखा। जिन्दगी में अनगिनत दुख हैं और प्रत्येक व्यक्ति दुखों से सरोबार भी है। बहुत अधिक आघात उसे अकस्मात ही लगे हैं। सारे दुखों को झेलने के बाद भी व्यक्ति का भगवान से भरोसा नहीं उठता। मनुष्य भगवान में सुरक्षा ढूंढता है। भगवान सभी के लिए अंतिम सहारा होता है। जब सारे साधन व्यर्थ हो जाते हैं तब केवल भगवान का सहारा ही उसमें आशा का संचार करता है। सभी को सफल परिणाम नहीं मिलते लेकिन यदा कदा आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिलते हैं जिन्हें हम चमत्कार कह देते हैं। यही इक्की-दुक्की सुफलता समस्त मानवता के लिए प्रेरणा बन जाती हैं। जब दुखों के समय चमत्कार नहीं होता तब मनुष्य कहता है कि मेरे भाग्य में ऐसा ही था या मैं पूर्व जन्मों के कर्मों को भुगत रहा हूँ। लेकिन जब अचानक चमत्कार होते हैं तब वह भगवान की कृपा मानता है। यह मानव स्वभाव है। हजारों, लाखों वर्षों के संस्कारों के बाद हमारे मानस में यह बात स्थिर हो गयी है।
मनुष्य ने भगवान के बाद ऐसा ही विश्वास राजा के प्रति प्रदर्शित किया था। वह राजा के समक्ष भी अंतिम विकल्प के रूप में जाता था। ना जाने कितनों को निराश होना पड़ता था लेकिन कई फल भी पा जाते थे। इसी कारण प्रजा और राजा का पिता और पुत्र का सम्बन्ध माना जाता था। प्रजा राजा को पिता की तरह पालनहार मानती थी। प्रजा का अंतिम सुरक्षा कवच राजा ही होता था। भारत में स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र स्थापित हुआ और राजाओं का काल समाप्त हो गया। राजाओं के प्रति अनेक धारणाएं इस काल में निर्मित की गयी। जितना भी उनका कुत्सित स्वरूप हो सकता था प्रजा के समक्ष लाया गया। यह क्रम आज तक चल रहा है। जब भारत में प्रथम आम चुनाव हुए तब कई राजा भी चुनाव में खड़े हुए और प्रजा ने उन्हें भारी बहुमत से जिताया। तब एक प्रश्न सर्व सामान्य के मन में उदित हुआ कि जब राजा इतने अत्याचारी थे तब प्रजा का प्यार उन्हें कैसे मिला? लोगों ने कहा कि प्रजा के मन से अभी तब उनका प्रभाव नहीं गया है। लेकिन आज स्वतंत्रता के 60 वर्ष बाद भी राजाओं के प्रति प्रजा को मोह समाप्त नहीं हुआ है। क्या कारण है? एक तरफ राजाओं के प्रति दुष्प्रचार का अतिरेक है फिर भी प्रजा के मन से उनका मोह नहीं जाता, आखिर इसका क्या कारण है?
शाश्वत लेखन - राजाओं द्वारा निर्मित अनेक संग्रहालय देखें हैं। उनको देखने के बाद राजाओं की विलासिता ही उजागर होती रही है क्योंकि उनकी विलासिता के बारे में ही हमारी पीढ़ी ने पढ़ा है। इसलिए ही पुरानी पीढ़ी की भक्ति स्वतंत्रता के बाद जन्में व्यक्तियों के गले नहीं उतरती। लेकिन एक दिन अकस्मात ही मुझे उदयपुर महाराणा का पुस्तक संग्रहालय देखने का अवसर मिल गया। उदयपुर के पूर्व राजाओं द्वारा किए गए कार्यों का लेखा जोखा वहाँ शब्द रूप में संग्रहित है। एक एक मिनट का हिसाब लिखा गया है। राजा की दिनचर्या खुली किताब की तरह वहाँ संग्रहित है। उन्हीं पुरानी बही खातों को देखते हुए शब्द की ताकत का अंदाजा हुआ। जो भी शब्द लिखा जाता है वह एक दिन इतिहास बनता है और इतिहास बनकर वर्तमान को गुदगुदाता है। जब भी शब्द लिखा जाता है तब कितने लोगों को प्रेरणा देता है इसका अंदाजा शब्दों को अनुभूत करके ही किया जा सकता है। जब प्रजा राजा के बारे में जानती है तो अपनत्व का अनुभव करती है। जब मनुष्य भगवान के बारे में जानते हैं उन्हें साधारण मनुष्य की तरह किस्से कहानियों में पढ़ते हैं तब भगवान आत्मीय लगते हैं। हमने भगवान और राजा दोनों को ही अपने दिल में बसा कर रखा। बसाने का माध्यम बने ये शब्द। एक भगवान है केवल इतना लिख देने से आत्मीय भाव कैसे बनता? भगवान विष्णु है, उनके साथ लक्ष्मी है। भगवान राम है, कृष्ण है उनका जीवन चरित्र हमारे सामने है और जीवन चरित्र सामने होने से आत्मीयता का निर्माण होता है। जब रामायण लिखी गयी और जब रामचरित मानस लिखा गया तब राम जन जन के प्रिय हुए। अतः राजा उतना ही लोकप्रिय होता है जितना वह जनता के समक्ष होता है। किसी कि जीवनी पढ़ते ही वह व्यक्ति हमारा आत्मीय बन जाता है अतः राजाओं की लोकप्रियता का एक कारण ये शब्द हैं।
दाता एवं रक्षक - राजाओं ने प्रजा को भगवान की तरह सुरक्षा भी दी। प्रजा का अंतिम सहारा राजा ही बनते थे। गाँव जलकर राख हो गए या बाढ़ में बह गए, राजा ही एक मात्र सहारा बनते थे। सुरक्षा का भार राजा पर ही था। युद्ध होते थे और हार जाने पर प्रभाव राजा पर ही पड़ता था। इसलिए भगवान के बाद राजा को ही प्रजा रक्षक मानती थी। उनके अत्याचारों को शैतान का रूप मानकर श्रेष्ठ राजा के आने का इंतजार करती थी। इसलिए भारत में जितने भी श्रेष्ठ राजा हुए प्रजा ने उन्हें भगवान का दर्जा दिया। अत्याचार होने पर प्रजा भाग्य का ही दोष मानती रही और कभी कभी राजा के द्वारा सहयोग देने को भगवान की कृपा के समान मानती रही। इसलिए आज तक प्रजा और राजा की आत्मीयता बनी हुयी है। वर्तमान में देखें तो लोकतंत्र में कोई भी स्थिर नहीं हैं आज एक राजनेता है तो कल दूसरा। देश में युद्ध जैसी कोई भी विपरीत परिस्थिति आने पर जहाँ राजा को ही परिणाम भोगने पड़ते थे वहीं वर्तमान में राजनेता सर्वाधिक सुरक्षित है। राजतंत्र उनके लिए उपभोग का साधन बन गया है। प्रजा आज राजतंत्र को भगवान की तरह अंतिम सहारा नहीं मानती। यही कारण है कि आज राजनेताओं के प्रति आत्मीयता का भाव उत्पन्न नहीं होता। वह दाता नहीं है अपितु भिक्षुक है। प्रतिदिन होने वाले चुनावों ने उन्हें भिक्षुक बना दिया है। देश का सारा समय राजनेता चुनने में ही व्यतीत हो रहा है। राजनेता के प्रति भावना निर्माण का समय तो आता ही नहीं। अतः राजाओं के प्रति आज तक चला आ रहा दाता का भाव प्रजा के मन से कम नहीं होता।
श्रेष्ठता का विश्वास - आज हम जिन्हें भगवान मानकर पूजते हैं वे सभी राजा थे। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि। हमारे यहाँ विश्वास की एक परम्परा थी कि यदि कंस हुआ है तो कृष्ण भी होंगे, हिरण्यकश्यप हुए तो प्रहलाद भी आएगा। लेकिन आज एक दूसरे के प्रति आरोप प्रत्यारोप के कारण सारे ही राजनेता शैतान की श्रेणी में आ गए हैं। कोई कृष्ण नहीं, कोई राम नहीं बस हैं तो केवल कंस और रावण। प्रसार माध्यमों ने व्यक्ति के छोटे छोटे अवगुणों को जनता के समक्ष अपराधों की तरह प्रदर्शित किया है और यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि सभी राजनेता अपराधी या चरित्रहीन हैं। आज यह क्रम चल निकला है। हम सभी की सम्भावित कमजोरियों को ही ढूंढते दिखायी देते हैं।
मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति - राजाओं का काल यदि हम तटस्थ भाव से देखें तो पाएंगे कि जितना निर्माण राजाओं के काल में हुआ उतना शायद अभी नहीं हुआ। उदयपुर की ही बात करें और केवल जल स्त्रोतों को ही देखें तो वे सब राजाओं के काल में बने और आज हम उन्हें संरक्षित भी नहीं रख पा रहे। इसी प्रकार कला और साहित्य पूर्ण रूप से राज्याश्रित था। उस काल में कितनी पेंटिग्स बनी, कितना साहित्य लिखा गया इसका तो पैमाना ही नहीं है। आज इतिहास को देने के लिए हमारे पास क्या है? साहित्य के नाम पर समाचार पत्र रह गए हैं और ये सारे राजनीति की गंदगी से भरे पड़े हैं। चित्र के नाम पर अश्लीलता परोसी जा रही है जो भविष्य में शायद हमारा मूल्यांकन करे। आज प्रजा असुरक्षित अनुभव करती है। आज देश में जितने भी संग्रहालय हैं वे सब राजाओं की देन है। जीवन की मूल भूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्होंने कार्य किए। अतः उस युग में उपलब्ध संसाधन जनता के लिए भी सुलभ कराए गए। सबसे बढ़कर कला और विज्ञान को जितना आश्रय राजाओं के काल में मिला शायद ऐसा अभी नहीं हुआ। इसीलिए आज हम प्रत्येक क्षेत्र में पुरातन के मुकाबले अविकसित दिखायी देते हैं। वास्तुशास्त्र, शिल्प, ज्योतिष, चिकित्सा, साहित्य, चित्रकारी, हस्तकला आदि में आज हम उस काल को छू भी नहीं पाएं हैं। ऐसे में यदि कुछ लोगों के मन में आज भी राजा को भगवान समझा जाता है तो शायद यह उनकी भूल नहीं है। इसलिए राजाओं का इस देश को क्या योगदान रहा है, यह बात जनता के समक्ष आनी चाहिए। लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप को देखकर आज प्रश्न खुद ब खुद निकल रहे हैं। लोग कहने लगे हैं कि यदि इसी का नाम लोकतंत्र है तो फिर ऐसे लोकतंत्र से तो राजशाही ही श्रेष्ठ थी। यह भी निर्विवादित सत्य है कि लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है लेकिन गैर जिम्मेदार नेतृत्व कभी भी हितकर नहीं होता। अतः आज भारत के प्राचीन स्वरूप और वर्तमान राज्य प्रणाली के बारे में विस्तार से बहस होनी चाहिए। राजाओं का उज्ज्वल कृतित्व जनता के समक्ष आना ही चाहिए। किसी भी शासन प्रणाली में अनेक कमियां हो सकती हैं लेकिन अच्छाइयां भी होती हैं। अतः आज अनेक पहलू हैं जो राजाओं की लोकप्रियता को जन जन तक पहुंचाते हैं। यही कारण है कि राजाओं का चरित्र हनन इतने व्यापक पैमाने से करने पर भी उनकी हस्ती मिटती नहीं। आज भी जनता उन्हें भगवान के बाद दूसरे संरक्षक के रूप में पूजती है। शहर के सुंदर परकोटे, बावड़िया, तालाब, मंदिर आज भी सभी को अभिभूत करते हैं। आज भी पर्यटक राजमहलों में सुरक्षित संग्रहालय देखने अवश्य जाता है। आज भी कलाकार राज परिवारों की तरफ ही आशा भरी निगाहों से देखते हैं।

Monday, May 23, 2011

मेरे एक नवीन ब्‍लाग की सूचना, कृपया अवश्‍य देखें - अजित गुप्‍ता

मैंने एक नवीन ब्‍लाग प्रारम्‍भ किया है, भारत विकास परिषद् । इस ब्‍लाग के भी आप पाठक बनेंगे, ऐसा मेरा विश्‍वास है। इसका लिंक है -  http://bharatvp.blogspot.com/
एक पोस्‍ट डाली है जिसमें भारत विकास परिषद् द्वारा घोषित उत्‍कृष्‍टता सम्‍मान की जानकारी दी गयी है, इसे भी आप देखें और यदि इस हेतु कोई प्रविष्टि हो तो वो भी अवश्‍य भेजें। 

Friday, May 20, 2011

गर्मियों की छुट्टियों में घूमने जाना क्‍या वास्‍तव में मन में ऊर्जा भरता है? – अजित गुप्‍ता


गर्मियों की छुट्टियो में पर्वतीय क्षेत्रों के भ्रमण की परम्‍पर हमेशा से ही रही है। पहले अंग्रेजों ने अपनी कोठियां पर्वतीय क्षेत्रों में बनवायी और गर्मी की राजधानी भी इन्‍हें ही बनाया। रईसों ने भी अपनी कोठियां बनवाना शुरू किया और फिर होटल व्‍यवसाय भी खूब फला-फूला। जैसे ही गर्मियों की छुट्टियां होती हैं, बच्‍चों का स्‍वर सुनाई देने लगता है कि चलो घूमने। पूर्व में तो एक ही स्‍वर था चलो नाना के घर। कहानियां भी तो कितनी थी नाना के घर की। लेकिन अब धीरे-धीरे पूरे दो महिने की नाना के घर की धमा-चौकड़ी कम होते जा रही है। बच्‍चों की रुचियां बदल गयी हैं, उन्‍हें खेत-खलियान, या घर में बैठकर केरमबोर्ड, चाइनिस चैकर, शतरंज आदि खेलना रुचिकर नहीं  लगता। अब उन्‍हें चाहिए कोई फन गेम। हैरतअंगेज, तीव्र गति वाला, धड़कनों को बढ़ाने वाला ऐसा ही कोई फन। एक कहानी याद आती है कि लड़का नाना के घर जाने को निकलता है, रास्‍ते में जंगल हैं और उसे शेर मिल जाता है। वह शेर से कहता है कि नाना के घर जाऊँगा, मोटा-ताजा होकर आऊँगा तब मुझे खाना, अभी तो मैं दुबला हूँ। शेर बात मान लेता है, अब शेर उसकी वापसी का इंतजार करता है। लड़का होशियार है, वह एक ढोलक बनवाता है और उसमें बैठकर शेर को गच्‍चा दे देता है। इस कहानी में रोमांच भी है और शिक्षा भी। ऐसी ही कितनी कहानियां और अनुभव हम सबके पास हैं। लेकिन यह सब पीछे छूटता जा रहा है।
14 मई को दिल्‍ली जाना था, ट्रेन में बड़ी भीड़-भाड़ थी। पूरे कोच में शोर-शराबा, धूम-धड़ाका मचा हुआ था। मैंने पूछ लिया कि कहाँ जा रहे हैं? मालूम पड़ा कि पूरे आठ परिवार हैं, संख्‍या पच्‍चीस से तीस रही होगी। याने पूरे डिब्‍बे में ही उनका राज था। शिमला घूमने जा रहे थे, जाने का उत्‍साह था तो सभी के अन्‍दर उत्‍साह का पेट्रोल फुल था। मेरे साथ मेरी मित्र भी थी, वे बोली कि अभी टंकी फुल है तो धमा-चौकड़ी रहेगी लेकिन वापसी में जब टंकी खाली हो जाएगी तब हवा निकले गुब्‍बारे की तरह लटके हुए होंगे। रात 12 बजे से भी अधिक समय तक उनकी उछल-कूद चलती रही। हम जानते थे कि उन्‍हें टोकने का भी कोई फायदा नहीं होगा। बस हमें चिन्‍ता थी कि नींद पूरी नहीं होगी तो दूसरे दिन की मीटिंग में झपकियां लेना ठीक नहीं होगा। लेकिन क्‍या कर सकते थे?
दूसरे दिन ही शाम को वापस लौटना था, वापसी में एक परिवार मिला। बुझा हुआ सा, चेहरा लटका हुआ। सब चुपचास अपनी बर्थ पर बैठे हुए, बस उनका 10 वर्षीय पुत्र ही शैतानी कर रहा था। वो उसी से परेशान हो रहे थे और बार-बार उसे मारने की धमकी भी दे रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि कहाँ से आ रहे हैं? वे बोले की वैष्‍णो देवी गए थे, लेकिन गर्मी के मारे बुरा हाल हो गया है। वे जल्‍दी से जल्‍दी सो जाना चाहते थे लेकिन उनके पुत्र को नींद नहीं आ रही थी तो अन्‍त तक तो उसने दो-चार थप्‍पड़ खा ही लिए। हम दोनों आँखों ही आँखों में कह रहे थे कि देखो इनके गुब्‍बारे की हवा निकल चुकी है, तो कैसे निढ़ाल पड़े हैं?
गर्मी के मौसम में घूमने जाना अपने आपको सजा देने से कम नहीं है। वैसे भी भारतीय व्‍यक्ति किसी भी पर्वतीय स्‍थल पर दो-तीन दिन से ज्‍यादा टिकता नहीं है और इतना ही समय उसे आने-जाने में लग जाता है। दो दिन ठीक से ठण्‍डक भी नहीं मिलती कि झुलसती गर्मी उसके सामने खड़ी होती है। सर्दी और गर्मी के कपड़े भी लादकर ले जाने होते हैं। आनन्‍द के स्‍थान पर थकान मन को घेर लेती है। इसलिए इस भरी गर्मी में दो-तीन दिन के लिए घूमने जाना समझ नहीं आता। या तो आप पुराने रईसों की तरह पूरे दो महिने ही पर्वतीय क्षेत्रों में रहें या फिर छुट्टियों में नाना-मामा के घर पर या स्‍वयं के घर पर ही उनके लिए योजना बनाएं। घूमने जाने के‍ लिए ऐसा मौसम चुने जब दोहरे मौसम की मार ना पड़े। वैसे भी एक सप्‍ताह घूमने से पूरे दो महिने का काम चलता नहीं है। आप सभी का इस बारे में क्‍या विचार है? क्‍या इस भरी गर्मी में घूमने जाना चाहिए या फिर घर में ही अपने परिवार के साथ अंतरंग होने का प्रयास करना चाहिए। क्‍या टीवी और कम्‍प्‍यूटर के अतिरिक्‍त अन्‍य खेलों से भी बच्‍चों को अवगत कराना चाहिए? हम तो यदि मामा के घर नहीं भी जाते थे तब भी हमारी दिनचर्या इतनी व्‍यस्‍त होती थी कि समय ही कम पड़ता था। सारे ही इन्‍डोर और आउटडोर गेम्‍स खेले जाते थे। अपने साथ प्रत्‍येक आयुवर्ग के व्‍यक्ति को जोड़ लेते थे और रात 10 बजे के बाद भी धमा-चौकड़ी चलती ही रहती थी। कभी बच्‍चे नहीं कहते थे कि हम बोर हो गए है। आज भी वे दिन आँखों में बसे हैं। वे महफिले भूले नहीं भूलती। कभी खयाल में ही नहीं आता था कि कहीं घूमने भी जाना है, बस सुबह से ही महफिल सजनी शुरू होती थी और रात जाते-जाते ही हँसी ठट्टा के साथ समाप्‍त होती थी। कितनी रात तक धीरे-धीरे फुसफुसाते रहते थे, ना गर्मी की चिन्‍ता थी और ना ही बारिश का डर। डॉट खाने का डर हमेशा बना रहता था लेकिन फिर भी बिंदास काम होते थे। क्‍या अब वो ही हमारे वाला बचपन का युग हम वापस नहीं ला सकते? 

Wednesday, May 11, 2011

मिलिए एक व्‍यक्तित्‍व से – डॉ. राजेन्‍द्र नाथ मेहरोत्रा और हिन्‍दी-विश्‍व गौरव-ग्रन्‍थ के सम्‍पादक, प्रकाशक से – अजित गुप्‍ता



लगभग 4 वर्ष पूर्व की बात है, फोन पर एक व्‍यक्तित्‍व से परिचय हुआ। उन्‍होंने मेरे आलेखों की प्रशंसा की और अपनी पत्रिका के लिए कुछ आलेख भी मांगे। फोनों का सिलसिला चलता रहा और वे किसी न किसी जानकारी या आलेख के लिए बात करते रहे। कई बार फोन से बात होने पर नाम भी याद हो गया। कोई राजेन्‍द्र नाथ मेहरोत्रा हैं, विवेकानन्‍द एकादमी का संचालन करते हैं और ग्‍वालियर में रहते हैं, बस इतना भर परिचय मेरे मस्तिष्‍क में था। मैं भारत विकास परिषद के साथ काम करती हूँ तो एक बार ग्‍वालियर के प्रतिनिधि एक मीटिंग में मिल गए, मैंने जानकारी की दृष्टि से उनसे पूछ लिया कि आप किसी मेहरोत्राजी को जानते हैं। उन्‍होंने कहा कि बिल्‍कुल जानता हूँ, वे समाज के प्रतिष्ठित व्‍यक्तियों में से हैं और हमारा भी बहुत सहयोग करते हैं। अभी उन्‍होंने एक लाख रूपया परिषद के सेवाकार्यों के लिए दिया है और हम जो कार्यक्रम करने जा रहे हैं, उसमें भी उनका बड़ा सहयोग रहेगा। लेकिन वे सहयोग का प्रदर्शन नहीं करते। मेरा उनसे परिचय है, इस बात का विस्‍मय भी था उनको। कुछ दिनों बाद ही ग्‍वालियर जाने का अवसर मिल गया और मैंने तत्‍काल ही मेहरोत्रा जी को फोन किया कि मैं ग्‍वालियर आ रही हूँ। वे बड़े प्रसन्‍न हुए और कहने लगे कि आप मेरे निवास स्‍थान पर ही रूकेंगी। मैंने उनसे क्षमा मांगी और कहा कि मैं आयोजकों की व्‍यवस्‍था से ही रूकूंगी लेकिन आपसे मिलने अवश्‍य आऊँगी।
कुछ दिन पूर्व ही उन्‍होंने मुझे बताया था कि मैं एक हिन्‍दी-विश्‍व गौरव-ग्रन्‍थ का प्रकाशन करने जा रहा हूँ और उसमें आपका सहयोग भी चाहिए। मेरे ग्‍वालियर आने के समाचार से वे प्रसन्‍न हुए और मिलने का समय निश्चित हो गया। वे स्‍वयं कार्यक्रम स्‍थल पर आए, उन्‍हें देखकर विवेकानन्‍द का स्‍मरण हो आया। गैरूआ वस्‍त्र, धवल लम्‍बी दाड़ी और पूर्ण ओजमयी एवं गरिमामयी व्‍यक्तित्‍व। बडे ही स्‍नेहपूर्वक वे मुझे अपने घर ले गए। उनके सामने मुझे स्‍वयं का व्‍यक्तित्‍व बहुत ही बौना लग रहा था। हमने घर पहुंचते ही सबसे पहले गौरव-ग्रन्‍थ की ही चर्चा प्रारम्‍भ की। उनकी पूरी टेबल पत्रावलियों से भरी थी। हिन्‍दी साहित्‍य का ऐसा कोई हस्‍ताक्षर नहीं था जिससे उन्‍होंने पत्र व्‍यवहार नहीं किया हो। एक-एक अध्‍याय के बारे में हमने वार्ता की, उन्‍होंने विस्‍तार से अपनी पूरी योजना को मेरे समक्ष रखा।
हिन्‍दी का विश्‍व क्‍या है और विश्‍व में हिन्‍दी कहाँ खड़ी है इसका समग्र चिंतन उस ग्रन्‍थ की विषय-वस्‍तु थी। उनका संग्रह देखकर दंग हुए बिना नहीं रह सकी। हिन्‍दी क्षेत्र से इतर व्‍यक्ति जो कभी भारतीय सेना को अपनी सेवाएं देकर सेवानिवृत्त हुए हो, का हिन्‍दी साहित्‍य के प्रति इतना अनुराग देखकर आश्‍चर्यचकित रहने के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं था मेरे पास। मेरे सुझावों को उन्‍होंने बहुत ही स्‍नेह भाव से माना। इतने बड़े व्‍यक्तित्‍व के समक्ष वैसे भी भला मैं क्‍या सुझाव देती? एक यादगार मुलाकात के साथ मैं ग्‍वालियर से लौटी। इसके बाद भी ग्रन्‍थ के बारे में फोन पर बातचीत होती रही। सौभाग्‍य से एक वर्ष बाद पुन: ग्‍वालियर जाना हुआ और फिर उनसे मिलने का सुअवसर भी। ग्रन्‍थ के बारे में भी रुचि बनी हुई थी क्‍योंकि उसका कार्य प्रारम्‍भ हुए काफी  लम्‍बा समय व्‍यतीत हो गया था। इस बार फिर उन्‍होंने मुझे प्रत्‍येक खण्‍ड के बारे में विस्‍तार से बताया और कहा कि इसका स्‍वरूप इतना वृहत हो चुका है कि समझ नहीं आ रहा कि कार्य कब पूरा होगा?
लेकिन अभी 17 अप्रेल को उनका फोन आया और उन्‍होंने बताया कि ग्रन्‍थ इतना विशाल हो गया था कि उसे तीन खण्‍डों में प्रकाशित किया है। उसका प्रथम खण्‍ड प्रकाशित हो चुका है और मैं उसे आपके पास भेज रहा हूँ। आप उसकी समीक्षा करके मुझे शीघ्र भेजें जिससे मैं दूसरे खण्‍ड में उस समीक्षा को प्रकाशित कर सकूं। मुझे दूसरे दिन ही दिल्‍ली के लिए निकलना था, मैंने उन्‍हे बताया कि कल दिल्‍ली जाना है तो वहाँ से आने के बाद ही आप भिजवाएं। लेकिन उन्‍होंने कहा कि मेरा एक परिचित आज ही उदयपुर जा रहा है उसके साथ ग्रन्‍थ भेज रहा हूँ, आप दिल्‍ली साथ ही लेकर जाएं। मेरे ट्रेन के समय से पूर्व मुझे ग्रन्‍‍थ मिल गया। 252 ग्‍लेज और रंगीन पृष्‍ठों का ग्रन्‍थ वजनी भी था, लेकिन उसका कलेवर देखकर वजन उठाने का दृढ़ संकल्‍प कर लिया। यात्रा अकेले ही करनी थी और किस्‍मत से मेरे आसपास मेरे कोच में दूसरा यात्री भी कोई नहीं था। तो पूरे तीन घण्‍टे मुझे ग्रन्‍थ को पढ़ने का समय मिल गया।  एक व्‍यक्ति का चिंतन इतना विस्‍तारमय होगा कल्‍पना नहीं की जा सकती। हिन्‍दी का कोई भी पक्ष छूटा नहीं है, यह तो अभी प्रथम खण्‍ड है, अभी दो खण्‍ड आने शेष हैं। मैंने अपनी समीक्षा में यही लिखा कि यह पुस्‍तक ना होकर हिन्‍दी साहित्‍य प्रेमियों और शौधार्थियों के लिए पुस्‍तकालय है। आप सब लोग भी ऐसे ग्रन्‍थ और ऐसे व्‍यक्तित्‍व से परिचय में आएं इसलिए मैंने यहाँ विस्‍तार से लिखा है। हमारे समाज में कितने ही ऐसे व्‍यक्तित्‍व हैं जो नि:स्‍वार्थ भाव से देशहित में कार्य कर रहे हैं। मैंने इस ग्रन्‍थ के आर्थिक पक्ष के बारे में जब उनसे पूछा तो उन्‍होंने कहा कि सब ऊपर वाला करेगा। एक बात और बताना चाहूंगी कि मेहरोत्राजी ने जो पत्र-व्‍यवहार और फोन से सम्‍पर्क किया है उसका मूल्‍य शायद इस ग्रन्‍थ से भी अधिक हो। उनका कक्ष ही उनका शयन कक्ष भी बन गया है, वे इतनी आयु होने के बाद भी दिन-रात साहित्‍य की सेवा में लगे हैं। उनसे मिलना, उनका सानिध्‍य पाना एक विलक्षण अनुभव है। इस ग्रन्‍थ का विमोचन सम्‍भवतया: दिल्‍ली में हो, आज इसीलिए वे दिल्‍ली गए हैं। दिनांक निश्चित होने पर आप सभी को सूचित करूंगी। यदि आपमें से किसी को भी इस ग्रन्‍थ को देखने और पढ़ने का मन हो तो आप डॉ. राजेन्‍द्र नाथ मेहरोत्रा, कर्मण्‍य तपोभूमि सेवा न्‍यास प्रकाशन, ग्‍वालियर से सम्‍पर्क कर सकते हैं। बस मेरा तो इतना कहना है कि इस अद्भुत ग्रन्‍थ को अवश्‍य पढ़ना चाहिए।   

Saturday, May 7, 2011

मन से पंगा कैसे लूँ, यह अपनी ही चलाता है - अजित गुप्‍ता


यह मन भी क्‍या चीज है, न जाने किस धातु का बना है? लाख साधो, सधता ही नहीं। कभी लगता है कि नहीं हमारा मन हमारे कहने में हैं लेकिन फिर छिटककर दूर जा बैठता है। अपने आप में मनमौजी होता है मन। ना यह हमारी परवाह करता है और ना ही हम इसकी परवाह करते हैं। जीवन के घेरे में ना जाने कितनी बार मन को परे धकेल देते हैं! इस मन की कीमत हम कभी नहीं लगा पाते। नौकरी और व्‍यापार से कमाए धन की गणना हम खूब कर लेते हैं, लेकिन मन की खुशियों की कीमत का हम आकलन कर ही नहीं पाते। एक फकीर से पूछ बैठते हैं कि तुम फकीर क्‍यों हो? साधनों का अभाव खटकता नहीं है? लेकिन उसके मन की पूँजी जो उसके पास है उसकी गणना कोई नहीं कर पाता। उसे दुनियादारी से वंचित व्‍यक्ति मान लिया जाता है। जो तन के सुख के लिए लाखों कमाए, बस उसी की गणना होती है लेकिन जो मन के सुख के लिए लाखों गँवा दे उसे तो कभी गणना के लायक भी नहीं मानते।
लेकिन यदि इसी की सुनो तो दुनियादारी ऐसी छूटती है कि आप चारों तरफ से विरोध से घिर जाते हो। सुबह उठे, अभी चाय बनाने रसोई में घुसे ही थे कि इस मन ने न जाने कब का भूला-बिसरा गाना जुबान पर ला दिया और बस सारा दिन वही टेप चलता रहा। इन्‍टरनेट खोला तो बस उसी गाने के इर्द‍-गिर्द घूमता रहा मन। बड़ी अच्‍छी-अच्‍छी पोस्‍ट लगी हैं, ना जाने कितने विषयों पर लोगों ने लिखा है लेकिन आज तो आपका मन उसी गाने के चारों तरफ घूम रहा है तो बस उसे उसी के अनुरूप पोस्‍ट चाहिए और कुछ नहीं। ढूंढ मच गयी, सारी श्रेष्‍ठ पोस्‍ट रिजेक्‍ट हो गयी, बस जो मन को जँची उसी को पढ़ा गया। लेकिन इस मन के चक्‍कर में दुनियादारी पीछे छूट गयी। न जाने कितने लोग नाराज हो गए। हमने इतने अच्‍छे विषय पर पोस्‍ट लिखी लेकिन फला व्‍यक्ति ने पढ़ी ही नहीं, जरूर कोई नाराजी है। बस इस मन ने करा दिया लोगों को नाराज।
कभी इस मन का मन होता है कि गद्य पढे तो कभी मन होता है पद्य पढे। कभी मन होता है कि परिवार से सम्‍बंधित कोई बात पढे तो कभी मन होता है कि देश से सम्‍बंधी कोई पोस्‍ट पढे। कहने का तात्‍पर्य यह कि गलती यह करे और सजा मिले व्‍यक्ति को। लेकिन कुछ लोग हैं जो दुनियादारी खूब निभाते हैं और इस मन को परे धकेल कर रखते हैं। अब आप ही बताइए कि मन को परे धकेलकर केवल दुनियादारी ही निभानी चाहिए या फिर मन की सुननी चाहिए। मैं कई दिनों से उहापोह में हूँ। इस मन ने मेरी ऐसी की तैसी कर रखी है। लोग मुझसे नाराज होते जा रहे हैं और यह पठ्ठा मजे में है। लोग कह रहे हैं कि आप हमारे घर नहीं आते, ब्‍लाग पर लोग कह रहे हैं कि आप हमारी पोस्‍ट नहीं पढ़ते। सामाजिकता क्‍या होती है, इसने भुला दिया है। हमारा नाम भी लोगों की सूची से कटता जा रहा है।
मुझे एक घटना याद आ रही है, जब मैं कॉलेज में थी। एक बदमाश टाइप के छात्र ने विवाह कर लिया, बाहर कितना ही शेर बने लेकिन पत्‍नी के आगे गीदड़ जैसा। जब ज्‍यादा परेशान हो गया तो मुझे बुलाने आया, बोला कि मेडम एक बार मेरे घर चलो, मेरी पत्‍नी को देख लो। मैंने टालमटोल की लेकिन वो माना नहीं तो अपने राम भी चल दिए। मनोवैज्ञानिक समस्‍या थी, उसे समझाया और वापस आ गए। लेकिन कॉलेज में चर्चा का विषय बन गए कि ये बदमाशों के घर जा आती हैं। अब उन्‍हें कैसे समझाऊँ कि भाई मेरा उससे कोई लेना-देना नहीं, बस मानवता और चिकित्‍सक होने के नाते ही गयी थी। यहाँ ब्‍लाग-जगत में भी ऐसा ही है। आपके ब्‍लाग पर कौन आता है और आप किसके ब्‍लाग पर जा आते हैं, वह चर्चा का विषय बन जाता है। आप लोगों के साथ होता हो या नहीं लेकिन मेरे साथ तो बड़ा होता है। लोग लठ्ठ लेकर पीछे पड़ जाते हैं कि तुम्‍हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। कभी-कभी लगता है कि मैं कुछ खास हूँ क्‍या? जो मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। लोग कहने लगते हैं कि आप ऐसे लोगों से बात करें यह शोभा नहीं देता। अब मैं क्‍या करूँ? यह मन ऐसा है कि दूसरों के सामने बड़ी समझदारी और अपनेपन से बात करने लग जाता है तो कुछ लोग कहते हैं कि नहीं हमें आपकी मित्रता चाहिए। एक बार ऐसा ही हुआ, एक बहुत बड़े व्‍यक्ति आ गए, मन से कुछ असंयमित थे। हमारा मन बोला कि बेचारे दुखी हैं तो यहाँ सकून ढूंढ रहे हैं तो कुछ देर बात करने में क्‍या जाता है? हद तो तब हो गयी जब रक्षा-बंधन के दिन आ टपके। सारा घर मुझ पर हँस रहा और मैं दीवार कूदकर पड़ोसी के घर। लेकिन दुनिया आजतक मुझे चिढ़ाती है। अब इसका ईलाज है आप लोगों के पास?  
अब यह पोस्‍ट भी यह मन ही लिखा रहा है, मैंने कहाँ से शुरू की थी और कहाँ समाप्‍त होगी मुझे नहीं मालूम। इस मन से परेशान होकर ही इस ब्‍लाग-जगत में आयी थी कि यहाँ अपने मन की करने की पूरी छूट होगी। कोई टोका-टोकी नहीं होगी। लेकिन यहाँ भी पूरी दुनियादारी निकली। कभी कोई नाराज तो कभी कोई राजी। ऐसा भी नहीं है कि मेरे से ही लोग नाराज होते हैं, मेरा मन भी लोगों से दूर भाग जाता है। कई बार मैंने अनुभव किया है कि यह बड़ा डरपोक भी है। किसी ने कुछ ऊँचा-नीचा कह दिया तो अपनी चादर समेटने में देर ही नहीं करता। कहता है कि दुनिया में पत्‍थरबाजी क्‍या कम है जो यहाँ भी झेलने चले आए। जो बिना बात ही तुमपर पत्‍थर मार रहे हों, उनसे दूर ही रहो ना। यह समझो कि तुम्‍हारे और उनके गण नहीं मिलते बस। इसलिए आज इस पोस्‍ट के माध्‍यम से बस यही कहना चाह रही हूँ कि मुझे मेरा मन जहाँ ले जाता है बस उसी के इशारे पर चले जाती हूँ। जो पोस्‍ट पढ़ने को कहता है, बस उसे ही पढ़ती हूँ। आप लोग मुझसे नाराज ना हो, क्‍योंकि मैं किसी से नाराज नहीं हूँ। बस पत्‍थरबाजी से डरती हूँ, मेरी गलती हो तो प्रेम से बता दें कि आप यहाँ गलत हैं, मैं मान लूंगी। लेकिन यह कभी ना सोचे कि मैं किसी नाराजी के कारण आपकी पोस्‍ट पर नहीं आ रही हूँ। आपने यदि अपने मन को साध रखा है और दुनियादारी के अनुसार चलते हैं तो आपको मैं महान मानती हूँ लेकिन मैं अपने मन को साध नहीं पाती हूँ, बस इसके कहने में ही रहती हूँ। मेरा मानना है कि मन की मानो तो बात लाखों की है और ना मानो तो फिर खाक की है। अन्‍त में एक प्रश्‍न क्‍या आप भी मन की बात सुनते हैं या फिर दुनियादारी को महत्‍व देते हैं? इस पोस्‍ट को पढ़कर भी मुझसे नाराज रहेंगे?