Monday, November 23, 2009

कविता - सिंह-वाली बाहर होगी

मैं विगत एक सप्‍ताह से उदयपुर के बाहर थी अत: इस ब्‍लोग जगत से बाहर थी। क्‍या नया पोस्‍ट करूँ इसी उधेड़-बुन में एक कविता कुछ दिन पहले की लिखी दिखाई दे गयी। आज राजस्‍थान में स्‍थानीय निकायों के चुनाव हो रहे हैं। इन चुनावों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण है। तब लगा कि अब महिलाओं का राज आ गया है। आप भी आनन्‍द लीजिए इस कविता का।

जन-गण में होगा लोकतंत्र
मन-चाही बोली होगी।
घर-घर में होंगे घर-वाले
घर-वाली बाहर होगी।

पेड़ों पर कुहकेगी कोयल
सावन की बरखा होगी
जब-तब ना लुटेंगी कन्याएं
सिंह-वाली बाहर होगी।

घोड़ी न चढ़ेगी बारातें
तोरण-टंकार नहीं होगी
हँस-हँसकर बोलेंगे दूल्हे
रण-वाली दुल्हन होगी।

खाली कर राजा सिंहासन
संसद में रानी होगी
कुरसी-कुरसी पर अब तो
झाँसी-वाली बोली होगी।

मैना बुलबुल कोयल चिड़िया
बगिया-बगिया नाचेंगी
घर-घर में थाली बाजेगी
बेटी-वाली पूजित होगी।

Thursday, November 12, 2009

पुत्र-वधु के आगमन पर - आज चिरैया आ पहुँची

मुझे आज वह दिन स्‍मरण हो रहा है, जब मेरी पुत्र-वधु मेरे घर में आ रही थी। बेटे के चेहरे पर खुशी फूटी पड़ रही थी। घर की दीवारे भी जैसे चहक रही हों। खामोश से पड़े घर में चहचहाट होने लगी थी। उन क्षणों में एक कविता मेरे मन से निकलकर कागज में समा गयी। आज आपको समर्पित करती हूँ।

एक सुबह मेरे आँगन, एक चिरैया आ बैठी
नन्हें पंजों से चलकर, मेरी देहली जा पहुँची
मैं पूछू उस से कौन बता, क्यूं मेरे घर में आती
वह केवल चीं-चीं करती घर के अंदर जा पहुँची।

ओने-कोने में दुबकी घर की खुशियाँ निकल पड़ी
दीवारों पे पसरा सन्नाटा झट से बाहर भाग गया
मैं पूछू सबसे कौन बता, क्यूँ मेरे घर को भाती
वे कहते तेरा यौवन ले के, आज चिरैया आ पहुँची।

जो बीने थे पल कल से इक-इक कर निकल पड़े
रंगो हमको फिर से, हम बदरंग पड़े थे कब से
मैं पूछू रब से कौन बता, क्यूँ मेरे घर को रंगती
रब बोला तेरे कल को रंगने आज चिरैया आ पहुँची।

मैं सुध-बुध खोकर खुश होते आँगन को देख रही
उसकी चीं-चीं अंदर तक, मेरे मन में समा गयी
मैं पूछू मन से कौन बता, क्यूँ मुझको दस्तक देती
मन बोला तेरी दुनिया ले के आज चिरैया आ पहुँची।

Saturday, November 7, 2009

हम अपनी छवि में कैद हैं

कभी आप बेहद उदास हैं, उदासी भी आपकी निजी है। मन करता है कि दुनिया को बता दें कि आप क्‍यों उदास हैं फिर लगने लगता है कि आपने तो दुनिया के सामने एक छवि बनायी थी कि आप बेहद सुखी हैं। उसका क्‍या होगा? हम अपनी छवियों में कैद हैं, कभी लगता है कि हम एक फोटो फ्रेम में कैद होकर रह गए है। जब फोटो खिचवाने जाओ, फोटोग्राफर कहता है कि जरा मुस्‍कराइए। हम मुस्‍कराने का प्रयास करते हैं और फोटो क्लिक हो जाती है। बरसो तक यही फोटो फ्रेम में चिपकी रहती है। हम भी उसे देख देखकर खुश होते रहते हैं कि वाह क्‍या हमारा चेहरा है? कितने ही मौसम आकर निकल जाते हैं, कभी दुख की पतझड़ पत्रविहीन कर जाती है कभी वर्षा से भीग-भीग जाते हैं और कभी सर्दी में अपने आप में ठिठुर जाते हैं लेकिन फोटो तो वैसी ही बनी रहती है। दुनिया के सामने हमारा अस्तित्‍व भी बस ऐसा ही होना चाहिए। हमारा सब कुछ शाश्‍वत है, बस यही दिखना चाहिए। कहीं मृत्‍यु दस्‍तक देती हैं तो हम कहते हैं कि नहीं यह दस्‍तक हमारे यहाँ नहीं होगी। कहीं संतान आँखे दिखाने लगती हैं, तब भी हम कहते हैं कि नहीं हमारी संतान ऐसी नहीं होगी।
हम सब ब्‍लाग पर अपने जीवन की इस छवि को सबके सामने उधेड़ते हैं। शायद लेखक ही ऐसा प्राणी हैं जो अपने जीवन को छिपा नहीं पाता। वह अपने दुख को अपने शब्‍दों के माध्‍यम से गति देता है, उसे बाहर निकालने का प्रयास करता है। फिर कुछ हल्‍का होता है। उसकी फोटो शायद पल-पल बदलती रहती है। कभी आँसू टपकने लगते हैं तो कभी मोती झरने लगते हैं। संवेदनशील मन पड़ोस की घटना से दुखी हो जाता है लेकिन वह किसी को कह नहीं पाता, क्‍योंकि वह उसकी पड़ोस की घटना है। उसे पता लगेगा तो वह व्‍यक्ति आहत होगा। लेकिन जब घर में ही कुछ अघटित होने की दस्‍तक सुनायी देने लगे तब तो आहत मन सुन्‍न सा हो जाता है। किसके कहे अपना दुख? क्‍यों कहे अपना दुख? बदले में उपदेश ही तो मिलेंगे। जीवन के सार तत्‍व का उपदेश, जिन्‍दगी के नश्‍वरता का उपदेश।
बस आप अपनी छवि में कैद हो जाते हैं। मुझे दिखायी दे रही है एक माँ। जिसने सारे सुखों को एकत्र किया अपनी विरासत को बड़ा करने में। लेकिन क्‍या है आधुनिकता की इस आँधी का सच? प्‍यार क्‍यों छोटा पड़ने लगा है, क्‍यों बड़े बन गए हैं अहंकार? क्‍यूं बेटे के मुँह से ये शब्‍द निकलने लगे हैं कि अब मैं बड़ा बन गया हूँ तो तुम मेरे अधीन रहो। जो मैं कहता हूँ वही सत्‍य है। तुम्‍हारा अस्तित्‍व अब कुछ भी नहीं। सब कुछ सुनती है माँ, बर्दास्‍त भी करती है। लेकिन शायद शरीर और मन की इस जंग में कहीं शरीर हार जाता है। अघटित की दस्‍तक आ जाती है। तब लगता है कि अहंकार का फण कुचल जाएगा और रह जाएगा निर्मल प्‍यार। लेकिन नहीं यह सर्प कुचलता नहीं। ऐसा लगता है कि और विकराल रूप धर कर सामने आ गया है। माँ को सम्‍भालने की ह‍ताशा ने उसे और विकराल बना दिया है। माँ का अस्तित्‍व पहले ही समाप्‍त हो गया था और शायद अब तो बिल्‍कुल भी उसका वजूद नहीं बचा है। अब आप ही बताइए, ऐसे में मन क्‍यों उदास ना हो? क्‍यों न रोए मन उस माँ के लिए? जो प्‍यार की भीख माँग रही हो, बोल रही हो कि अब तो बस कुछ दिन ही शेष हैं, लेकिन प्‍यार का वो निर्मल झरना न जाने कहाँ खो गया है? बाहर से सारे ही फोटो फ्रेम दुरस्‍त है, फोटो भी मुस्‍कराहट वाली लगी है, लेकिन अन्‍दर कितने आँसू हैं क्‍या कभी हम इसे दिखा पाएंगे, अपनी छवि की वास्‍तविकता को दिखा पाएंगे?

Wednesday, November 4, 2009

अंग्रेजी खूनी पंजे-2

भारत में अकाल पड़ने का इतिहास हमेशा मिलता रहा है। लेकिन मृत्यु का इतना बड़ा आंकड़ा अंग्रेजों के काल में ही उपस्थित हुआ। गरीब जनता की मृत्यु इसलिए नहीं हुई कि देश में अन्न की कमी थी। जनता की मृत्यु इसलिए हुई कि अन्न इंग्लैण्ड जा रहा था। भारत में एक तरफ अकाल पड़ा हुआ है तो दूसरी तरफ किसानों पर लगान बढ़ा दिया गया, ऐसे कितने ही प्रकरण इस देश ने झेले हैं। बारड़ोली आन्दोलन जिसे सरदार वल्लभ भाई पटेल का नेतृत्व प्राप्त था और गांधी जी भी प्रत्यक्ष रूप से जुड़े थे, एक उदाहरण है। ऐसे आंदोलनों की भी एक सूची है जो शायद सैकड़ों में है। इसमें न केवल किसानों ने आंदोलन किया अपितु बहुत बड़ी संख्या में जनजाति समाज ने भी आंदोलन किया। आंदोलनकारियों को कहीं फांसी पर लटकाया गया और कहीं डाकू कहकर मार डाला गया। जो भारत में डाका डाल रहे थे वे तो साहूकार बन गए थे और जो किसान अन्न उपजा रहे थे वे डाकू बन गए थे।
अंग्रेजों के समय पड़े भारत के अकालों पर भी एक नजर डाल लें। 1825 से 1850 के मध्य भारत में दो बार अकाल पड़े, जिनमें 4 लाख लोग मरे। 1850 से 1875 के बीच 6 बार अकाल पड़े, जबकि 1875 से 1900 के बीच 18 बार अकाल पड़े। मृतकों की कुल संख्या 260 लाख थी। 1918 और 1921 के मध्य भी भयंकर अकाल पड़ा जिसमें मृतकों की संख्या 130 लाख थी। ये आकड़े दिए हैं ‘भारत का इतिहास’ के रचनाकार अंतोनोवा, लेविन और कोतोव्स्की ने, जो कि सरकारी आंकड़ों के आधार पर दिए गए हैं, वास्तविक आंकड़े तो महाविनाश की कहानी कहते हैं। इस काल में देश में अनाज की कमी नहीं थी, अपितु भारत का अनाज इंग्लैण्ड जा रहा था और भारत की जनता को भूखा मारने के लिए छोड़ दिया गया था। इन आंकड़ों से यह तथ्य निकलता है कि 1825 में पड़े अकाल में 4 लाख लोग मरे, वहीं 1918 के अकाल में 130 लाख लोग मरे। एक शताब्दी में भारत की आर्थिक स्थिति में इतना बड़ा अंतर आ चुका था कि मृतकों की संख्या 4 लाख से बढ़कर 130 लाख तक जा पंहुची।
एक और लूट का तथ्य प्रस्तुत करती हूँ। जब 1857 की क्रांति हुई तब इंग्लैण्ड से फौज बुलायी गयी और उस फौज के आने से छः महिने पूर्व का और जाने के छः महिने बाद का वेतन भी भारत के मत्थे मढ़ा गया। इतना ही नहीं प्रथम विश्वयुद्ध एवं द्वितीय विश्वयुद्ध का खर्चा भी भारत के माथे मढ़ा गया। युद्ध ही नहीं विलासिता के न जाने कितने खर्चों का कर्ज भारत से वसूला गया। द्वितीय विश्वयुद्ध तक 1179 करोड़ रूपयों का खर्चा भारत के मत्थे लिखा गया। भारत से 1931 से 37 के मध्य 24 करोड़ 10 लाख पौण्ड का सोना इसी कारण भारत से अंग्रेज ले गए।
अतः आज वर्तमान युग में प्रबुद्ध और समृद्ध वर्ग को चिंतन की आवश्यकता है। जिन्हें हम आदर्श मान रहे हैं, वे कितने घिनौने हैं? उनका वास्तविक स्वरूप क्या है? भारत में हर्षवर्द्धन के काल तक गरीबी और भुखमरी नहीं थी। लेकिन उसके बाद जब लूट की परम्परा प्रारम्भ हुई तब गरीबी का अभ्युदय हुआ। मुगलकाल में भी विदेशी आक्रांता बनकर आए बाबर के बाद हुमायूं और अकबर के आगे के मुगल राजा भारत में आत्मसात हुए और यहाँ का धन विदेश नहीं गया। यहाँ के कारीगर और उद्योगधंधों को चौपट नहीं किया गया। लेकिन अंग्रेजों ने भारत को बड़ी बेरहमी से लूटा। लूटा ही नहीं, यहाँ के एक-एक व्यक्ति को एक-दूसरे का दुश्मन बनाने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने भारतीय समाज को अपनी नजरों में ही गिरा दिया। जो देश सोने की चिड़िया कहलाता हो, जहाँ विदेशी आक्रांता बार-बार लूटने आते हो, उस देश की प्रजा को जाहिल की संज्ञा देना स्वयं की जाहिलता और अज्ञान की ओर इंगित करता है।
जब 1498 में वास्कोडिगामा भारत आया था, तब उसने यही कहा था कि मैं यहाँ मसालों और ईसाइयत की खोज में आया हूँ। गांधीजी ने कहा था कि अंग्रेज न तो हिन्दुस्तानी व्यापारी का और न ही यहाँ के मजदूरों के मुकाबले में खड़ा हो सकता है। इसी कारण अफ्रिका, मॉरीशस, फिजी, गुयाना आदि देशों को खड़ा करने के लिए भारतीय मजदूरों को एग्रीमेंट पर ले जाया गया और इन बेरहम अंग्रेजों ने उन्हें गुलामों से भी बदतर जीवन दिया। जिन जंगलों को शहरों के रूप में बसाने के लिए अंग्रेज मजदूर उपलब्ध नहीं थे, तब भारतीय मजदूर वहाँ ले जाए गए, इस शर्त पर की वहाँ बेहतर नौकरी और बेहतर सुविधाएं मिलेंगी, लेकिन अंग्रेजों ने उनका जीवन नारकीय बना दिया। ऐसे अत्याचार तो कोई शैतान भी नहीं कर सकता था, जैसे उन्होंने किए। मजदूरों के साथ केवल 40 प्रतिशत महिलाओं को ही ले जाने की छूट मिली, उनमें भी काफी बड़ी संख्या में वेश्याएं थीं। परिणाम स्वरूप सभी महिलाओं को वेश्याओं के रूप में परिणित कर दिया गया।
आज का प्रश्न यह है कि क्या आज यह जाति सुधर गयी है? क्या अंग्रेजों की मानसिकता आज बदल गयी है? नहीं वे आज भी उतने ही क्रूर है, जितने कल थे। हमारी युवापीढ़ी यदि अंग्रेजों का अनुसरण करती है, तब ऐसा लगता है कि हम भी उसी क्रूरता के अनुयायी बनते जा रहे हैं। उनके पास अभी तक भी भारत की लूट का बहुत धन है अतः वे आज तक अमीर बने हुए हैं। लेकिन जैसे-जैसे उनकी लूट का धन कम होता जा रहा है, वे नवीन लूट के अनुसंधान में लगे हैं। उनकी निगाहें अब तैल पर लगी हैं और इसी कारण वे कभी ईरान पर और कभी कुवैत पर आक्रमण करते रहते हैं। उन्होंने भारत के प्रबुद्ध वर्ग पर पहले से ही कब्जा कर रखा है, वह और बात है कि अब भारतीय प्रबुद्ध वर्ग भी राष्ट्रीयता की भावना को समझने लगा है। पूर्व में भारतीय मस्तिष्क आध्यात्म या व्यापार में ही अपनी सार्थकता सिद्ध करता था लेकिन अब भारतीय मनीषा प्रत्येक क्षेत्र में अपने आपको सिद्ध कर रही है और दुनिया ने यह जान लिया है कि भारतीय बौद्धिक स्तर का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। यही कारण है कि आज भारत में बौद्धिक प्रतिभाओं के लिए नवीन सूरज निकलने लगा है और वह दिन दूर नहीं जब यूरोप और अमेरिका जैसे देश भारतीय प्रतिभाओं से रिक्त होकर पुनः अपने वास्तविक स्वरूप में होंगे। नवीन युवावर्ग सारी परिस्थितियों को देख रहा है, समझ रहा है अतः वे भारत के विकास में भी भागीदार बन रहा है। बस उसे कल का इतिहास पढ़ने की आवश्यकता है जिससे वे अंग्रेज, अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के खूनी पंजों की पहचान कर सकें। वे जान लें कि हमारे पूर्वजों पर नृशंस अत्याचार करने वाले कौन लोग थे और क्या ऐसे खूनी, लुटरे लोग कभी हमारे आदर्श बन सकते हैं? जिस दिन हमारे युवावर्ग ने अंग्रेजों के इतिहास की सच्चाई को जान लिया उस दिन कोई भी भारतीय अपने आपको अंग्रेजों की श्रेणी में रखना पसन्द नहीं करेगा। आज स्वतंत्रता के साठ वर्ष पूर्ण होने पर, गुलामी के दिनों में अंग्रेजी खूनी पंजों का स्मरण ही हमारी प्रगति का मार्ग प्रशस्त करेगा।

Monday, November 2, 2009

अंग्रेजी खूनी पंजे

अभी अदा जी की एक पोस्‍ट आयी, हमारी राष्‍ट्रपति के इंग्‍लैण्‍ड दौरे को लेकर। भाई प्रवीण शाह ने अपनी टिप्‍पणी में लिखा कि अंग्रेजों ने हमें बह‍ुत कुछ दिया है। मैं यहाँ अंग्रेजों ने हमें कैसे लूटा है उसका ब्‍यौरा दे रही हूँ। यह आलेख मेरी पुस्‍तक "सांस्‍कृतिक निबन्‍ध" से लिया है, उसके कुछ अंश यहाँ प्रस्‍तुत हैं।

अंग्रेजी खूनी पंजे
अंग्रेज, अंग्रेजी और अंग्रेजीयत इस देश की युवापीढ़ी को सदैव से ही आकर्षित करती रही है। जब अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाया था तब भी हमारे राजे-रजवाड़े और आधुनिक कहे जाने वाले युवा उनकी स्वच्छंदता से बहुत प्रभावित थे। व्यक्ति की जन्मजात आकांक्षा रहती है - स्वच्छंदता। उसमें कहीं एक पशु छिपा रहता है और वह सभ्यता के दायरे को तोड़ना चाहता है। भारत हजारों वर्षों से एक सुदृढ़ संस्कृति के दायरे में बंधा हुआ था, इसलिए भारतीयों ने इस प्रकार की स्वच्छंदता कभी न देखी थी और न ही अनुभूत की थी। अतः समृद्ध और प्रबुद्ध वर्ग इस स्वच्छंदता की ओर आकर्षित हुआ। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अधिकांश रजवाड़े अंग्रेजों की भोगवादी प्रवृत्ति के गुलाम हो गए। कल तक प्रजा के रक्षक कहे जाने वाले ये श्रीमंत लोग आज प्रजा से दूर हो गए। वे केवल मालगुजारी एकत्र करने और अंग्रेज शासक को खुश रखने में ही लगे रहे। जनता के ऊपर कितने अत्याचार हो रहे हैं और जनता गरीब से गरीबतर होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रही है, इस बात की चिन्ता किसी को भी नहीं थी। अंग्रजों ने भारत को किस तरह तबाह किया और लूटा इसके उदाहरण हमारे इतिहास में भरे पड़े हैं। उन्होंने भारत के व्यापार को चौपट किया, करोड़ों लोगों को भूखा मरने पर मजबूर किया। अयोध्या सिंह की पुस्तक ‘भारत का मुक्ति-संग्राम’ में भारतीय कपड़ा उद्योग के कुछ आंकड़े दिए हैं, उन्हें मैं यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ। ‘1801 में भारत से अमरीका 13,633 गांठ कपड़ा जाता था, 1829 में कम होते-होते 258 गांठ रह गया। 1800 तक भारत का कपड़ा प्रतिवर्ष लगभग 1450 गांठ डेनमार्क जाता था, वह 1820 में सिर्फ 120 गांठ रह गया। 1799 में भारतीय व्यापारी 9714 गांठ पुर्तगाल भेजते थे, 1825 में 1000 गांठ रह गया। 1820 तक अरब और फारस की खाड़ी के आस पास के देशों में 4000 से लेकर 7000 गांठ भारतीय कपड़ा प्रतिवर्ष जाता था 1825 के बाद 2000 गांठ से ज्यादा नहीं भेजा गया।’ पुस्तक में आगे लिखा है कि ‘ईस्ट अण्डिया कम्पनी के आदेश से जांच के लिए डाॅ. बुकानन 1807 में पटना, शाहाबाद, भागलपुर, गोरखपुर आदि जिलों में गए थे। उनकी जांच के अनुसार पटना जिले में 2400 बीघा जमीन पर कपास और 1800 बीघा में ईख की खेती होती थी। 3,30,426 औरतें सिर्फ सूत कातकर जीविका चलाती थी, दिन में सिर्फ कुछ घण्टे काम करके वे साल में 10,81,005 रू. लाभ कमाती थी। इसी प्रकार शाहबाद जिले में 1,59,500 औरतें साल में साढ़े बारह लाख रूपए का सूत कातती थी। जिले में कुल 7950 करघे थे। इनसे 16 लाख रूपये का कपड़ा प्रतिवर्ष तैयार होता था। भागलपुर मंे 12 हजार बीघे में कपास की खेती होती थी। टसर बुनने के 3,275 करघे और कपड़े बुनने के 7279 करघे थे। गोरखपुर में 1,75,600 स्त्रियां चरखा कातती थीं। दिनाजपुर में 39,000 बीघे में पटसन, 24,000 बीघे में कपास, 24,000 बीघे में ईख, 1500 बीघे में नील और 1500 बीघे में तम्बाकू की खेती होती थी। महिलाएं 9,15,000रू. का खरा मुनाफा सूत कातकर करती थीं। रेशम का व्यवसाय करनवाले 500 घर साल में 1,20,000 रू. का मुनाफा करते थे। बुनकर साल में 16,74,000रू. का कपड़ा बुनते थे। पूर्णिया जिले की औरतें हर साल औसतन 3 लाख रूपए का कपास खरीद कर सूत तैयार करती थी और बाजार में 13 लाख रूपये का बेचती थीं।’
इतना ही नहीं अंग्रेजों ने नेविगेशन एक्ट के कारण यूरोप या अन्य किसी देश से सीधे व्यापार करने का हक भारत से छीन लिया। 1890 में सर हेनरी काटन ने लिखा ‘अभी सौ साल भी नहीं बीते जब ढाका से एक करोड़ रू. का व्यापार होता था और वहाँ 2 लाख लोग बसे हुए थे। 1787 में 30 लाख रू. की ढाका की मलमल इंग्लैण्ड आयी थी और 1817 में बिल्कुल बन्द हो गयी। जो सम्पन्न परिवार थे वे मजबूर होकर रोटी की तलाश में गांव भाग गए।’
शेष अगली बार