Monday, July 30, 2018

बड़प्पन की चादर उतार दीजिए ना

लोग अंहकार की चादर ओढ़कर खुशियाँ ढूंढ रहे हैं, हमने भी कभी यही किया था लेकिन जैसे ही चादर को उठाकर फेंका, खुशियाँ झोली में आकर गिर पड़ीं। जैसे ही चादर भूले-भटके हमारे शरीर पर आ जाती है, खुशियाँ न जाने कहाँ चले जाती हैं! अहंकार भी किसका! बड़प्पन का। हम बड़े हैं तो हमें सम्मान मिलना ही चाहिये! मेरी दोहिती है 9 साल की, जब मैं उसके साथ होती हूँ और मैं कहती हूँ कि मिहू मेरे पास आकर बैठ, वह कहती है कि आप मेरे साथ खेलोगी? यदि मेरा उत्तर ना हो तो वह कहती है कि मैं चली खेलने। लेकिन जब मैं कहती हूँ कि हाँ खेलूंगी तो उसकी पसन्द का खेल खेलना होता है। वह कैरम निकाल लाती है, मुझसे पूछती है कि आपको आता है खेलना? मैं कहती हूँ कि हाँ तो खुश हो जाती है और जब मैं उसे जीतकर बताती हूँ तब उसकी आँखों में सम्मान आ जाता है। अब तो मम्मी-पापा को भी खेलने का निमंत्रण दे दिया जाता है और कहा जाता है कि मेरी टीम में नानी रहेंगी। एक दिन कहने लगी कि नानी चलो मेरे कमरे में चलो। मेरा हाथ पकड़कर ले गयी। मुझे कहा कि बैठो, आज मैं टीचर हूँ और आप स्टूडेंट हैं। अब क्लास शुरू हो चुकी थी। मेरे हाथ में कॉपी-पेंसिल थमा दी गयी थी। पहले मेथ्स की क्लास है, टीचर ने कहा। वह बोर्ड पर सवाल लिख रही थी और मुझे वैसा ही करने को कह रही थी। सारे ही प्लस-माइनस के सवाल कराने के बाद कॉपी चेक की गयी और वेरी गुड के साथ पीरियड समाप्त हुआ। लेकिन अभी दूसरा पीरियड बाकी था, जिसमें कठिनाई आने वाली थी। टीचर ने कहा कि अब साइन्स की क्लास है, कॉपी में लिखिये। लाइट और शेडो के बारे में बताया जाएगा। किन वस्तुओं में लाइट होती है और किन में नहीं, परछाई कैसे बनती है, सभी कुछ पढ़ा दिया गया। हमनें हमारे जमाने में विज्ञान को इतने विस्तार से नहीं पढ़ा था। लगने लगा कि 9 साल की दोहिती हमसे ज्यादा ज्ञानवान है। खैर जैसे-तैसे करके हमने अपना सम्मान बचाया और वेरी गुड तो नहीं, कई हिदायतों के बाद गुड तो पा ही लिया। इसकी पीढ़ी हमारी पीढ़ी से न जाने किस-किस में आगे निकल गयी है, हम बात-बात में उनका सहारा लेते हैं। कभी मोबाइल में अटक जाते हैं तो कभी कम्प्यूटर में, फिर कहते हैं कि हमारे बड़प्पन का सम्मान होना चाहिये।
मैं बरसों से लिख रही हूँ, हमारी पीढ़ी पढ़ लेती है लेकिन नयी पीढ़ी को कुछ लेना-देना नहीं। अब मुझे तय करना है कि मैं अपने लेखन को लेकर किसी कमरे में कैद हो जाऊँ या इस पीढ़ी के साथ बैठकर कैरम खेलने लगूँ। वे मेरे पास नहीं आएंगे, मुझे ही उनके पास जाना होगा। मेरा पोता है 11 साल का। पोता है तो आउट-डोर गेम में ज्यादा रुचि होगी ही! मैं जब उसके पास होती हूँ तो वह मेरे पास नहीं बैठता, या तो कम्प्यूटर के बारे में कुछ पूछ लो तो बैठेगा या फिर बाहर घूमने चलो। एक दिन छुट्टी के दिन अपने स्कूल ले गया, वह बास्केट-बॉल खेलता है, मुझे कहा कि आप बैठो मैं प्रेक्टिस करता हूँ। मुझे लगा कि इसके करीब आना है तो इसके साथ खेलना होगा। लेकिन बास्केट-बॉल की बॉल भी कभी पकड़ी नहीं थी, तो? लेकिन मैं मैदान में आ गयी, उसे बॉल लाकर देने लगी, अब उसे खेल में ज्यादा मजा आने लगा क्योंकि अब उसे टीचर बनने का अवसर मिलने वाला था। कुछ समय बाद वह मुझे बास्केट में बॉल डालना सिखाने लगा और मैंने सफलता हासिल की। जो काम बेहद कठिन लग रहा था उसमें मैं एक कदम रख चुकी थी। पोता टीचर बन चुका था और खुश था, वह खुश था तो मुझे भी खुशी मिल चुकी थी।
हमारी खुशियाँ ऐसी ही हैं, हमें झुककर उन्हें पकड़ना होगा। अब बड़प्पन के सहारे जिन्दगी में कुछ नहीं पाया जा सकता है। हम बड़े होने को ज्ञान का भण्डार मान बैठे हैं, नयी पीढ़ी को सम्मान करने का आदेश देते हैं और अगले ही पल अपना मोबाइल उनके पास ले जाकर पूछ लेते हैं कि यह फेसबुक क्या होती है? नयी पीढ़ी हमारे बड़प्पन की परवाह नहीं करती, वे बराबरी का व्यवहार चाहती है। आप उनके साथ कैरम खेलते हुए जीतने का माद्दा रखते हैं तो वे आपको पार्टनर बना लेंगे नहीं तो आपको खारिज कर देंगे। टॉफी-चाकलेट का लालच भी ज्यादा दिन तक उनको डिगा नहीं पाता है, बस उनके साथ उनके बराबर का ज्ञान रखो तो वे आपको साथी मानेंगे ना की बड़ा। एक आयु आने के बाद हम खुशियाँ तलाशते हैं, नयी पीढ़ी हमें धकेलकर आगे निकल जाना चाहती है। हम अकेले पड़ते जाते हैं और धीरे-धीरे अपने कमरे में सिमटने लगते हैं। ऐसे ही पल यदि हम अपने बड़प्पन की चादर को उठाकर फेंक दें और तीसरी पीढ़ी के साथ सामंजस्य बिठा लें तो जीवन आसान हो जाता है। लेकिन तीसरी पीढ़ी हमारे साथ नहीं हैं, तब क्या करें? कोई साथ है या नहीं लेकिन अहंकार की चादर का सहारा तो बिल्कुल ना लें। जो भी मिल जाए, उसमें ही खुशियाँ ढूंढ लें और भूलकर भी वह मौका हाथ से जाने ना दें। जितना ज्यादा छोटों के साथ झुकोंगे उतनी ही ज्यादा खुशियाँ तलाश लोंगे। वास्तविक दुनिया ना सही, यह वर्चुअल दुनिया ही सही, खुशियाँ तलाशने में देरी ना करें। नयी पीढ़ी की दुनिया उस बगिया की तरह है जहाँ नाना प्रकार के फूल खिले हैं, हमें वहाँ जाना ही है और खुशबू का आनन्द तो लेना ही है। यदि वे टीचर बनना चाहते हैं तो मैं शिष्य बनने में परहेज नहीं करती, बस मुझे चन्द पल की खुशियाँ चाहिये। साहित्यकार के पास यह चादर बहुत बड़ी है, इसका उतारना सरल नहीं हैं लेकिन कठिन काम करना ही तो खुशियाँ देता है।
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Saturday, July 28, 2018

बातें हैं तो हम-तुम हैं


बातें – बातें  और बातें, बस यही है जिन्दगी। चुप तो एक दिन  होना ही है। उस अन्तिम चुप के आने तक जो बातें हैं वे ही हमें जीवित रखती हैं। महिलाओं के बीच बैठ जाइए, जीवन की टंकार सुनायी देगी। टंकार क्यों? टंकार तलवारों के खड़कने से भी होती है और मन के टन्न बोलने से भी होती है। झगड़े में भी जीवन है और प्रेम में भी जीवन है। मैं जब महिलाओं के समूह को पढ़ती हूँ तो वहाँ मुझे जीवन की दस्तक सुनायी देती है, कहीं चुलबुली हँसी बिखर रही होती है तो कहीं शिकायत का दौर, लेकिन लगता  है कि हम सब खुद को अभिव्यक्त कर रहे हैं। जहाँ अभिव्यक्ति नहीं वहाँ मानो जीवन ही नहीं है। महिला की अभिव्यक्ति बगिया जैसी होती है, भाँत-भाँत के फूल और भाँत-भाँत की अभिव्यक्ति। जीवन के सारे ही अनुभव का पिटारा लिये होती है महिला। उसका घर ही सृष्टि का पर्याय बन जाता है। बगिया के फूलों के रंग आपको सावचेत करते हैं कि आपके बिखरते और बेतरतीब हुए रंगों को आप सम्भाल लें नहीं तो हमारे बीच बदरंगी नहीं चलेगी। इसलिये जीवन में करीने से सजने का नाम भी है महिला। खुद सजना, औरों को सजाना और सबके मिजाज को खुशगवार बना देना।
अजी चुप सी क्यूँ लगी है, जरा कुछ तो बोलिये, यह कहते-कहते मेरी जुबान भी चुप रहना सीख गयी, लेकिन बातें तो अन्दर दफन हैं, उन्हें तो निकास चाहिये। जुबान का काम हाथों की अंगुलियों ने करना शुरू किया और बातें कागज पर अपने मांडने मांडने लगी। पुरुषों के साथ जीवन बिताते बिताते कब जीवन-रस से वंचित हो गयी पता ही नहीं चला लेकिन एक दिन बोधि-वृक्ष मिल गया और उसके नीचे बैठकर लगा कि जीवन को महिला की तरह जीकर देखना चाहिये। देर तो बहुतेरी हो चली थी लेकिन सोचा जब जागें तभी सवेरा। मुझे इतने रंग दिखायी दिये जिनका मेरी जिन्दगी से नाता ही टूट गया था, मैंने सारे रंगों का अपने पास बुलाया, उन्हें हाथों से सहलाया, दुलार किया और कहा कि मेरे जीवन में भी आ जाओ। लेकिन सूर्य और चन्द्रमा के बीच जैसे पृथ्वी आ जाए और चन्द्रमा अपनी रंगत ही खो दे वैसे ही मेरे और रंगों के बीच उम्र का तकाजा आ जाए और मन के रंग अपनी रंगत को बचाने में लग जाएं, ऐसी ही स्थिति मेरी है।
मैंने जिन्दगी में बहुत कुछ खो दिया है, महिला होने का सुख मैंने जाना ही नहीं क्योंकि जीवन ही पुरुषों के बीच निकला। घर में भी चुप लगी रहती है तो मेरा मौन मुखर कब हो? साक्षात जीवन में यौवन का साथ बामुश्किल मिलता है, क्योंकि यौवन तो उल्लास है और थके-हारे पैर उल्लास का साथ दें तो कैसे दें, बस पिछड़ जाते हैं हम जैसे लोग। जीवन को भरपूर जीना और भरपूर जीवन को महसूस करना, दोनों ही सुख हैं। कोई सा मिल जाए, बस जीना हो जाता है। कुछ लोग जीवन में जीते हैं और कुछ लोग सपनों में जीते हैं लेकिन अब दोनों व्यवस्थाएं विज्ञान ने साक्षात उपलब्ध करा दी हैं। सपनों में जीने के लिये आँख मूंदना जरूरी नहीं अपितु अब आँख खोलना जरूरी है, नेट खोलिये और महिलाओं के समूह को पढ़ने की लत लगाइए, जीवन आँखों में उतरता जाएंगा। मैं भी यही करने लगी हूँ, आप लोगों का साथ जीवन के सारे ही रंगों से परिचय कराने लगा है। हँसी अपने आप दहलीज पर आकर घण्टी बजाने लगी है, मुझे उठकर दरवाजा खोलना ही पड़ता है। बातें जो अपना स्वाद कभी जुबान को चखने नहीं देती थी अब आँखों के रास्ते रस बरसाने लगी हैं और जुबान की बेचैनी कम हुई है। मैं यौवन को नहीं कहती कि तू मेरे द्वार आ, बस मैं ही यौवन की हँसी अनुभूत कर लेती हूँ। बादल से एक बूंद गिरी थी, लेकिन सूर्य ने उस बूंद में इन्द्रधनुष के रंग भर दिये और सारा जीवन दौड़कर बाहर आ गया, इस सुन्दर रंगों के जादुई नजारे को देखने। आप बस खिलखिलाती रहें जिससे हमारा जीवन भी खिलखिलाने को उतावला हो जाए। बस याद रखना अपनी बातों का खजाना, इसे कम ना होने देना क्योंकि बातें हैं तो जीवन है, बातें हैं तो यौवन है और बातें हैं तो हम-तुम हैं।
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Tuesday, July 24, 2018

लेखक वहीं क्यों खड़ा है!


रोजमर्रा की जिन्दगी को जीना ही जीवन है और रोजमर्रा की जिन्दगी को लिखना ही लेखन है। रोज नया सूरज उगता है, रोज नया जीवन खिलता है, रोज नयी कहानी बनती है और रोज नयी विपदा आती है। पहले की कहानी में छोटा सा राज्य भी खुद को राष्ट्र कहता था लेकिन आज विशाल साम्राज्य भी राष्ट्र की श्रेणी में नहीं आते। दुनिया कभी विविधताओं से भरी विशाल समुद्र दिखायी देती है तो कभी एक सी सोच को विकसित करता छोटा सा गाँव। पहले के जमाने में हम थे और साथ था हमारा भगवान लेकिन अब ऐसा नहीं है, अब हम है और साथ में है हमारा नया संसार। इसलिये पहले लिखते थे खुद के बारे में और भगवान के बारे में लेकिन आज लिख रहे हैं नये संसार के बारे में। यह नया संसार अनोखा है, रोज नये पर्तों के अन्दर घुसने और समाने का अवसर मिलता है। पुरानी वर्जनाएं दम तोड़ रही है, क्योंकि अनावश्यक डर निकलता जा रहा है। दुनिया का विशाल वितान सामने ही छा गया है, सारे रंग ही एकसाथ हमारी नजरों में समा गये हैं, दोनों हाथ लूटने को तैयार हैं कि किस वितान को छूं लूं और किस रंग को अपनी मुठ्ठी में भर लूँ। पहले के जीवन में रोज मर्यादाएं गढ़ते थे लेकिन आज रोज मर्यादाओं को तोड़ते हैं। इसलिये लेखन भी बदल गया है, लेखक भी बदल गया है और जो नहीं बदला है वह बासी रोटी की तरह हो गया है जिसे कोई नहीं खाना चाहता।
परिवार में परम्परागत रिश्ते नहीं रहे, एक दूसरे का हाथ थामे कोई दिखायी नहीं देता बस अपने आप को दुनिया में फिट करने की होड़ मची है, कैसे भी हो दुनिया के सारे रंग अपनी झोली में भरने की दौड़ लगी है, इसके लिये कुछ भी मर्यादाहीन नहीं है। यदि आप प्यार में हैं तो आपके लिये सारी कायनात साथी बन रही है और दुनिया का यही सबसे बड़ा सच है। यदि आप किसी मुसीबत में हैं तो दुनिया का हर जुर्म जायज है। कैसे भी अकूत सम्पदा मेरी झोली में आनी चाहिये फिर मैं इसका उपयोग कर सकूँ या नहीं, लेकिन मेरा बस यही लक्ष्य है। परिवार में सब अकेले हैं, कोई किसी का साथी नहीं है, पूरी तरह जंगलराज की तरह है हमारा जीवन, जब शेर बूढ़ा हो जाता है तब एक गुफा में चले जाता है और वहीं अपने प्राण त्याग देता है। ऐसा ही मनुष्यों के साथ होता जा रहा है इसलिये लेखन के उद्देश्य बदल गये हैं।
लेखन में दो वर्ग बन गये हैं, एक दुनिया की रंगीनियां दिखा रहे हैं तो दूसरे अकेलापन। अब भगवान बहुत कम याद आते हैं, जीवन में जब साथ मिलता है तब भगवान भी याद आते हैं लेकिन जब अकेले हो जाते हैं तब जद्दोजेहद में कहाँ भगवान याद आते हैं! स्वर्ग और नरक जब यहीं दिखने लगें तब कहाँ भगवान का स्मरण शेष रहता है! कुछ लोग पीड़ित हो जाते हैं क्योंकि उन्हें दुनिया के चलन की खबर ही नहीं लगी क्योंकि वे पुरातन में ही खोये रहे,  लेकिन कुछ लोगों के कदम सद जाते हैं क्योंकि वे नवीन की खबर रखते थे। जमाने की हवा किस ओर बह रही है, यह तो पतंग उड़ाने वाले को भी मालूम रखना होता है, हम तो जीवन को उड़ा रहे हैं! पहले आदमी को सभ्य बनाया जाता था लेकिन आज आदमी को असभ्य बनाने की ट्रेनिंग दी जाती है क्योंकि उसे अकेले ही संघर्ष करना है। नजाकत दम तोड़ती दिखायी देती है और कठोरता बाजूओं सहित दिल में भी समा गयी है। दुनिया एकदम से बदल गयी है तो लेखक वहीं क्यों खड़ा है! लोगों के सर पर अचानक ही बादल फट गया है ऐसे में लेखक ने उसे सावचेत क्यों नहीं किया? क्यों लेखक ने नयी राह की ओर इशारा नहीं किया? आजकी सबसे बड़ा समस्या यही है कि हम पुरातन में खोये रहे और दुनिया आँधी के अंधड़ के साथ नये मुकाम पर आकर खड़ी हो गयी, जहाँ सबकुछ नया था। नये किशोर के सपने अलग हैं, वह सृजन से अधिक भोग करना चाहता है, उसकी दुनिया बहुत बड़ी है लेकिन उस बड़ी दुनिया में किसी भी रिश्ते को कोई जगह नहीं है। वह सैलानी बनना चाहता है, रुकना कहीं नहीं चाहता। रिश्ते रोकते हैं इसलिये अकेले ही रहना चाहता है। अकेली होती जा रही दुनिया का जानकार लेखक भी नहीं रहा, उसने भी पुरातन में ही धूनी रमा ली। इसलिये मैं कहती हूँ कि बाहर निकलो और दुनिया को बताओ कि अकेले रहकर कैसे सुखी रहा जा सकता है? इस दुनिया का चोला बदल रहा है, या तो नया धारण कर लो या फिर फटेहाल हो जाओ। लेखक ने हर युग की आहट को पहचाना है और लोगों को सावचेत किया है, वापस हमें यही करना होगा। सपनों की जगह सच्चाई को दिखाना होगा। क्रूर सच्चाई को। बताना होगा कि अब दिन का उजाला नहीं रात की रंगीनियाँ अधिक लुभाती हैं, हम एक-दूसरे के पूरक नहीं अपितु केवल जरूरत भर हैं। लेखनी उठाओ और करो सामना नयी पीढ़ी का और सावचेत करो पुरानी पीढ़ी को, दोनों के बीच पुल बनने का मिजाज तैयार करो। तभी तुम लेखक हो नहीं तो भजन गाते रहो।

Monday, July 23, 2018

मोदी को पकड़कर वैतरणी पार करना


लोकतंत्र में छल की कितनी गुंजाइश है यह अभी लोकसभा में देखने को मिली। कभी दादी मर गयी तो कभी बाप मर गया से लेकर ये तुमको मार देगा और वो तुमको लूट लेगा वाला छल अभी तक चला है, लेकिन शुक्रवार को नये प्रकार के छल का प्रयोग किया गया! प्यार का छल! हम सबसे प्यार करते हैं, दुश्मन से भी गले लग जाते हैं, हम प्यार के मसीहा हैं! सत्ता के लिये छल के तो लाखों उदाहरण राजशाही में देखे जाते हैं लेकिन लोकतंत्र में भी प्यार का छल यह नया प्रयोग था। इस छल से तो पीठ में छुरा ही घोंपा जाता है, दूसरी तो कोई बात हो ही नहीं सकती। लोकतंत्र में सत्ता की प्राप्ति तो जनता द्वारा होती है, राजाशाही में बल या छल से होती थी। मौत के सौदागर से लेकर सूट-बूट वाले चोर के गले में लटक जाना प्यार कैसे हो गया! यह तो निरा छल है। आपके द्वारा लगाए गये पोस्टर नफरत या प्यार, एक धोखा है। लोकसभा में ऐसा लग रहा था जैसे एक अफीमची अपनी ही पीनक में अनर्गल प्रलाप कर रहा हो और फिर नौटंकी करते हुए प्रधानमंत्री के गले जा पड़े। यह प्यार कैसे हो गया! मुझे अपनी शरण में ले लो, यह तो हो सकता है लेकिन प्यार तो कदापि नहीं।
लोकतंत्र में आप अपने कार्य प्रणाली की बात करिये और जनता का दिल जीतिये, लेकिन जनता को बेवकूफ मानते हुए छल मत करिये। जनता के सामने अब भोजन की थाली सजने लगी है, उसे बाप मरने की और दादी मरने का छल भी समझ आने लगा है तो कैसे अपनी थाली तुम जैसे छली को दे दे। बहुत भूखा मारा है तुमने, अब और नहीं। तुमने अपना घर भर लिया और अपने को बचाने के लिये 10 प्रतिशत लोगों को टुकड़े फेंक कर सुरक्षा दीवार खड़ी कर ली, इसका यह अर्थ नहीं कि शेष 90 प्रतिशत जनता हमेशा छली जाएगी! छलना बन्द करो और काम करो। पड़ोसी देश तक में नारे लग रहे हैं कि हम मोदी की तरह काम करके दिखाएंगे और तुम अभी भी नौटंकी से ही काम चलाना चाहते हो। 10 प्रतिशत अपने चाटुकारों से बाहर निकलो और जनता की आँखों में देखो, वहाँ सपने पलने लगे हैं। मोदी की आँख में आँख डालने से कुछ नहीं होगा, हो सके तो जनता की ओर देखो। जिस झोपड़ी में तुम गये थे, उसी झोपड़ी में तुम्हारे पिता भी गये थे, झोपड़ी झोपड़ी ही रही लेकिन तुम्हारे खानदान ने सत्ता हड़प ली। हमारे देश में तो सुदामा एक बार गया था कृष्ण के घर और उसकी झोपड़ी महल में बदल गयी थी। तुम तो झोपड़ी में खुद जा आए और झोपड़ी वैसी ही खड़ी है!
प्यार का नाटक बहुत हुआ, तुम्हारे पोस्टर से लग रहा है कि आखिर तुमने भी मोदी का सहारा ही लिया। मोदी गाय नहीं है जो उसकी पूंछ पकड़कर वैतरणी पार कर जाओंगे! एक काम करो,  राजनीति से संन्यास लो और मोदी के शरणागत आ जाओ, तुम्हें ओर कुछ नहीं तो जीने का तरीका जरूर आ जाएंगा। जीवन में छल और श्रेष्ठों के लिये तुम्हारे अन्दर जो गालियों का समन्दर लहराता रहता है उसका अवसान हो जाएगा। यदि यह मंजूर नहीं और मोदी का मुकाबला ही करना चाहते हो तो मोदी का सहारा मत लो, अपने ऊपर विश्वास करना सीखो। लोकतंत्र में छल की जगह नहीं होती है, लेकिन तुम्हारे पूरे खानदान ने छल से ही सत्ता हथियायी है बस अब और नहीं। तुम्हारा मोदी के गले पड़ना तुमको सत्ता से बहुत दूर ले गया है इसलिये अपने पादरी के पास जाकर प्रायश्चित कर लो, शायद कुछ पवित्रता का आभास हो जाए।
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Thursday, July 19, 2018

काले बदरा और पहाड़ का मन्दिर


आँखों के सामने होती है कई चीजें लेकिन कभी नजर नहीं पड़ती तो कभी दिखायी नहीं देती! कल ऐसा ही हुआ, शाम को आदतन घूमने निकले। मौसम खतरनाक हो रहा था, सारा आकाश गहरे-काले बादलों से अटा पड़ा था। बादलों का आकर्षण ही हमें घूमने पर मजबूर कर रहा था इसलिये निगाहें आकाश की ओर ही थीं। काले बादलों के समन्दर के नीचे पहाड़ियां चमक रही थीं और एक पहाड़ी पर बना नीमज माता का मन्दिर भी। कभी ध्यान ही नहीं गया और ना कभी दिखायी दिया कि यहाँ से नीमज माता का मन्दिर भी दिखायी देता है! दूसरे पहाड़ को देखा, वहाँ भी बन रहे निर्माण दिखायी दिये। जब आसमान घनघोर रूप से काला हो तब उसके नीचे की सफेदी दिखायी दे जाती है। काले बादल कह रहे थे कि लौट जाओ, हम कहर बरपाने वाले हैं लेकिन उनके अद्भुत सौंदर्य को देखने का मोह छूट नहीं रहा था और जब एकाध  बूंद हमारे ऊपर आकर चेतावनी दे गयी तब हम वापस लौट ही गए। लेकिन नाम मात्र की बारिश आकर रह गयी और वे काले-बदरा न जाने कहाँ जाकर अपना बोझ हल्का कर पाएं होंगे! लेकिन हमें तो सीख दे ही गये कि जब काले बादल आकाश में छाये हों और कुछ सूरज का प्रकाश पहाड़ों पर गिर रहा हो तब पहाड़ों पर बने मन्दिर चमक उठते हैं और दूर से दिखायी देने लगते हैं।
एक बार मैं पाटन (गुजरात) के इतिहास पर लिखे उपन्यास को पढ़ रही थी, वहाँ के राजा के मंत्री एक सपना देखते हैं कि गिरनार की पहाड़ियों पर मन्दिर की श्रंखला हो तो कितनी सुन्दर लगेंगी! यह कल्पना एक मंत्री की नहीं थी अपितु भारत के हर राजा और मंत्री की यही कल्पना रही है कि पहाड़ों पर दूर से चमकते मन्दिर हों और उन पर लहराता ध्वज भारतीयता का प्रतीक बनकर दूर से दिखायी देता रहे। न जाने कितने पहाड़ों पर कितने मन्दिर बने हैं, यह भारत की ही विशेषता है। शायद किसी भी अन्य देश में ऐसी परम्परा नहीं है। सौंदर्य को प्रकृति के साथ कैसे एकाकार करें यह बात हमारे शिल्पकार बहुत अच्छी तरह से जानते थे। समुद्र के किनारे आकाश-दीप बनाने की परम्परा भी शायद यहीं से आयी होगी! जैसे ही आकाश-दीप दिखायी देता है, नाविक चिल्ला उठते हैं कि किनारा आ रहा है, कोई नगर आ रहा है, ऐसे ही जब पहाड़ पर कोई ध्वजा लहराती दिखायी दे जाती है तब हम जान लेते हैं कि यह भारत है। कैसा भी काला अंधेरा हो लेकिन हमारे मन्दिर राहगीरों का पथ-प्रदर्शन करेंगे ही। हमारे सम्बल के लिये कोई सहारा होगा ही। जिन पहाड़ों पर वीराना पसरा हो, वहाँ भी मन्दिर और ध्वजा मिल ही जाती है, मतलब हम दूसरों को रास्ता दिखाने का काम हर हाल में करते ही हैं। शायद यही हमारी थाती है। कोई मार्ग ना भटके और भटक  भी जाए तो उसे ठिकाना मिल जाए, आसरा मिल जाए, हमारे भारत में यही परम्परा रही है। हजारों सालों से यही आकर्षण विदेशियों को भारत की ओर खींच लाता है, कुछ भारत को समझने चले आते हैं तो कुछ लूटने चले आते हैं। आज भी यह सिलसिला जारी है, समझने का और लूटने का भी। शायद बिजली की कृत्रिम रोशनी के कारण हमें पहाड़ों पर बने हमारे आकाश-दीप दिखायी नहीं देते, शायद किसी दिन ऐसे ही काले बादल जब घिरेंगे तब हमें ये आकाश-दीप ही रास्ता दिखाएंगे। फिर हमें समझ आने लगेगा कि कौन समझने चला आया है और कौन लूटने चला आया है। अभी तो सब एकाकार हो रहे हैं, हम लुटेरों को पहचान ही नहीं पा रहे हैं, हम उदारता का परिचय दे रहे हैं। लेकिन ये आकाश-दीप हमें मार्ग जरूर दिखाएंगे इसलिये इन आकाश-दीपों को सम्भाल कर रखिये।
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Wednesday, July 18, 2018

अनावश्यक नुक्ताचीनी से बचो


चटपटी खबरों से मैं दूर होती जा रही हूँ, डीडी न्यूज के अतिरिक्त कोई दूसरी न्यूज नहीं देखती तो मसाला भला कहाँ से मिलेगा। आप लोग कहेंगे कि नहीं, दूसरे न्यूज चैनल भी देखने चाहिये लेकिन मैं नहीं देखती। शायद यह मेरी कमजोरी है कि अनावश्यक नुक्ताचीनी मैं देख नहीं पाती। आप कभी अंधड़ में खड़े हो जाइए, कितना ही सर और चेहरे को कपड़े से ढक लें लेकिन कुछ ना कुछ धूल तो आपके शरीर पर चिपक ही जाएगी, यही बात झूठ का प्रसार करती दुनिया के साथ है। किसी न किसी बिन्दू को तो आप सच मान ही बैठेंगे और झूठ फैलाने वाले का काम हो गया। सोशल मीडिया पर भी यही है, हम विपरीत सोच वालों को तो नजर-अंदाज कर देते हैं लेकिन जब अपना ही कोई व्यक्ति अनावश्यक नुक्ताचीनी करने लगे तो कहीं ना कहीं असर जरूर होता है, आप अपने लोगों के ही दुश्मन बनने लगते हैं। देश में ढेरों बुराइयाँ हैं, यह बुराइयाँ देश की नहीं है अपितु हम व्यक्तियों की बुराई है। हम अपने ऊपर कम लेकिन दूसरे पर अधिक ध्यान देते हैं, दूसरे की बुराई को तूल देने में एक क्षण का भी विलम्ब नहीं करते फिर चाहे वह बुराई हम में भी हो।
मेरे फ्लश का नल खराब हो गया, अपने प्लम्बर के बुलाया, उसकी समझ में कुछ नहीं आया, फिर दूसरे को बुलाया वह भी सीट पर बैठकर ताकता ही रहा, लेकिन कुछ देर बाद हाथ खड़े कर दिये। तभी मेरे दीमाग ने झटका खाया कि कम्पनी में फोन करो। टोल-फ्री नम्बर ढूंढकर फोन किया, व्यक्ति आया और 100 रू. में सबकुछ दुरस्त। तब से निश्चय कर लिया है कि कुछ भी कठिनाई हो, कम्पनी में फोन करो। जो जिसका प्रोडक्ट है, उसे ही पूछो ना बाबा! इन दिनों राजस्थान की चिन्ता करने वाले कई लोग सोशल मीडिया पर दिखायी दे रहे हैं, वे कभी राजस्थान में आकर दस दिन नहीं रहे होंगे लेकिन दूर-परदेश में बैठकर नुक्ताचीनी करते हैं। माना कि आपका अधिकार बनता है नुक्ताचीनी का लेकिन बिना कोई जाँच-पड़ताल किये आप पूरे फ्लश सिस्टम को खोलकर बैठ जाएंगे क्या? एक पाना और एक पेचकस लेकर सारे ही प्लम्बर बने बैठे हैं। किसी के बारे में कुछ भी लिख रहे हैं! वे सोचते हैं कि हमने सिद्ध कर दिया कि हम विद्वान है और  दूर बैठकर भी खबरों की पकड़ रखते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि आपकी जो छवि पाठकों के  बीच थी वह एक गलत पोस्ट से धूमिल हो गयी है। चटपटी खबरे परोसने का शौक कई बार बहुत महंगा पड़ता है, आपकी बरसों की साधना एक ही झटके में नेस्तनाबूद हो जाती है। मैं जब भी दूर खड़े होकर रोटी सेकने वालों की ऐसी ही नुक्ताचीनी की खबर पढ़ती हूँ तब सोचती हूँ कि इसने जो आजतक लिखा है, उसमें भी शायद ऐसा ही चटपटापन हो और मैं उन सारी पोस्ट को एक ही क्षण में अपने मन से डिलिट कर देती हूँ। इसलिये ही मैं चटपटी खबरों से दूर रहती हूँ क्योंकि चटपटी के चक्कर में मेरा ही विश्वास खतरे में पड़ जाता है। मैं भ्रमित हो जाती हूँ कि किसके सत्य को सत्य मानूँ? तब चुपचाप डीडी न्यूज से काम चलाती हूँ और सोशल मीडिया पर ऐसे नुक्ताचीनी वाले खबरचियों से दूरी बनाकर रखती हूँ। मुझे लगता है कि हम अपने दीमाग से सोचें ना कि किसी के भ्रमित करने से झांसे में आएं। लिक्खाड़ बनने की चाह में कहीं हम अविश्वसनीय ना बन जाए, इस बात की चिन्ता अवश्य करनी चाहिये। पाठकों का खजाना जो हमारे पास है, वह पलक झपकते ही हमसे दूर हो जाता है, जब विश्वास नहीं रहता। इसलिये सावधान! अनावश्यक नुक्ताचीनी से बचो।  
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Thursday, July 12, 2018

बेगम जान


एक पुरानी फिल्म जो शायद दो साल पहले अपनी कहानी पर्दे पर कह रही थी, उसकी चर्चा भला मैं आज क्यों करना चाहती हूँ, यही सोच रहे हैं ना आप! बेगम जान जो नाम से ही मुस्लिम पृष्ठभूमि की दिखायी देती है, साथ में एक कोठे की कहानी बयान करती है। कल टीवी पर आ रही थी तो आखिरी आधा घण्टे की फिल्म देखी, बस उसी आधा घण्टे की  बात करूंगी, शेष फिल्म में क्या था, मुझे नहीं मालूम। बेगम जान का कोठा है, कई लड़कियाँ वहाँ रहती हैं लेकिन हुकुम मिलता है कि कोठा खाली कर दो। बेगम जान बन्दूक लेकर खड़ी हो जाती है और सामने थी गुण्डों की फौज। लड़कियों के हाथ में बन्दूक है, युद्ध हो रहा है लेकिन मुठ्ठी भर लड़कियां भला कहाँ ठहरती, कुछ मर जाती हैं और कुछ बच जाती हैं। गुण्डों का सरदार हवेली में आग लगा देता है और अपने हुक्मरानों से कहता है कि कोठा बर्बाद हो गया लेकिन मेरे लौण्डों को ईनाम के रूप में कुछ समय चाहिये जिससे यह कोठा कुछ देर के लिये आबाद हो सके। जलती हवेली का दृश्य है - बेगम जान सहित बची लड़कियां हँसते-हँसते हवेली का दरवाजा बन्द कर लेती हैं, अन्दर एक बुजुर्ग महिला सबको कहानी सुनाती है कि एक समय चित्तौड़ के किले पर खिलजी ने डेरा डाला था, जब सारे रास्ते बन्द हो गये तब राजपूज रानियों नें अपनी आबरू बचाने को 12 हजार की संख्या में जौहर किया था याने जलती आग में कूद गयी थी। हवेली जल रही है, कहानी कहने वाली का और सुनने वालियों का तन अग्नि में भस्म हो जाता है। बाहर खड़े गुण्डे और हुक्मरान सदमें में आ जाते हैं।
पद्मावती फिल्म पर बहुत विवाद किया गया, कुछ महिलाओं तक ने कहा कि जौहर गलत परम्परा है, बहुत खिल्ली उड़ायी गयी। कोई कह रहा था, युद्ध करके मरो और किसी का अर्थ था कि गुलाम बन जाओ लेकिन जीओ। बेगम जान कोठे की कहानी है वह भी मुस्लिम। आबरू को नीलाम करना ही उनका काम है लेकिन वे भी जानती हैं कि स्वतंत्रता का मतलब क्या  होता है? जब भेड़िये शरीर को नोचते हैं, उसका अर्थ क्या होता है? मरते समय मुस्लिम महिला का आग में जलना, धर्म विरोधी होता है लेकिन उस समय उन क्षत्राणियों ने रानी पद्मावती को याद कर जौहर किया।
मैं उन तथाकथित लेखिकाओं से पूछना चाहती हूँ कि बेगम जान के जौहर के लिये कुछ लिखना चाहेंगी या आपकी कलम हिन्दुस्थान की तहजीब का मखौल उड़ाने के लिये ही स्याही भरती है। जिन परम्पराओं का सदियों से सभी ने सम्मान किया, उन परम्पराओं का केवल इसलिये मखौल उड़ाया गया क्योंकि आपका लेखन मखौल उड़ाने के लिये ही पैदा हुआ है और जो समाज  हित में ना लिखकर केवल विद्रूपता के लिये ही लिखता है वह लेखक नहीं होता अपितु विनाशक होता है। मेरे पाठक मुझे क्षमा करेंगे जो बीती बात को यहाँ स्थान दिया। लेकिन यह रोजमर्रा की कहानी है कि हम हमारी परम्पराओं के विरोध में अपनी घृणित लेखनी लेकर खड़े हो जाते हैं। ना राम के आदर्श की लाज रखते हैं और ना कृष्ण के योगेश्वर स्वरूप की। एक बार पुन: क्षमा सहित।
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Tuesday, July 10, 2018

कहीं जीवित आवाज थम ना जाए!


अभी चार-पाँच दिन पहले एक फोन आया, अनजान नम्बर था तो सोचा कि कोई ना कोई व्यावसायिक हितों से जुड़ा फोन होगा तो अनमने मन से बात की लेकिन कुछ देर में लगा कि नहीं यह व्यावसायिक नहीं कुछ सामाजिक सरोकारों का फोन है। आवाज आयी की मैं आपको अपनी दो पुस्तकें भेजना चाहता हूँ, मैंने पूछा कि किस विधा की पुस्तके हैं। लेकिन मेरी बात कम सुनी गयी और सामने वाले को अपनी बात कहने की अधिक उत्सुकता थी, तो कहा कि मैं 92 साल का व्यक्ति हूँ, 82 वर्ष तक कुछ नहीं लिखा लेकिन उसके बाद 11 पुस्तकें लिखी। मैंने फिर कोई प्रश्न नहीं किया और कहा कि आप भेज दें। सोचा कि जहाँ इतनी पुस्तकें भेंट स्वरूप आयी हैं, वहाँ दो और सही। आखिर कल पुस्तकें भी आ गयीं और साथ में हाथ से लिखा एक पत्र भी। पत्र पढ़कर मन द्रवित हो गया, परिचय कुछ नहीं, बस कहीं से मेरा परिचय मिला और अनजान लेखक को पुस्तकें भेज दी। लिखा कि अनजान लेखक को परेशान कर रहा हूँ लेकिन हो सके तो प्राप्ति की सूचना देना। पत्र में ऐसा और भी कुछ था जो सामाजिक ढांचे की जर्जर होती अवस्था को दर्शा रहा था। खैर वह बात कभी और। पत्र हाथ में था, मैं थोड़ा सन्न सी थी तभी दो दिन पहले देखी एक बच्चों की फिल्म का ध्यान आ गया। कलकत्ता के एक गाँव के स्कूल में फुटबाल टीम बनी हुई है, एक कोच की आवश्यकता है। कोच आते हैं और नियुक्त हो जाते हैं। खेल के मैदान  पर स्कूल की टीम खेल रही है तभी एक गरीब बालक वहाँ आता है और बच्चों के साथ खेलने का प्रयास करता है। लेकिन बच्चे उसे नहीं खेलने देते। कोच देख रहे हैं कि इस लड़के में प्रतिभा है और यदि वह लड़का इस टीम का हिस्सा बन जाए तो उनकी टीम को कोई नहीं हरा सकता। लेकिन स्कूल इसकी आज्ञा नहीं देता, माता-पिता भी विरोध करते हैं।
कोच उस लड़के को दूसरे कोच के पास ले जाता है और कहता है कि तुम इसे खिलाओ। कोच लड़के को अपने पास रख लेता है और अपनी टीम में जगह देता है, आखिर उनके स्कूल की टीम जीत जाती है और पहले वाली टीम हार जाती है। स्कूल के हेडमास्टर कोच से कहते हैं कि तुमने हमारे साथ दगा किया, कोच कहता है कि मैं एक कोच हूँ, मेरा काम है खिलाड़ी को खोजना और उसे खिलाड़ी बनाना। जब आपने मना किया तो मैंने दूसरे को खिलाड़ी दे दिया, इसमें गलत क्या किया? साहित्य जगत में भी देखती आयी हूँ कि लोग ऐसे ही एक-दूसरे का हाथ थामते हैं। जहाँ-जहाँ भी कोई भी कला विद्यमान है वहाँ लोग एक-दूसरे की सहायता करते ही हैं। लेकिन मेरे पास जो पत्र था, वह नये उदीयमान लेखक का नहीं था, अपितु अस्त होते हुए लेखक का था। जो व्यक्ति 82 साल तक अपने आपको व्यक्त ना कर पाया हो, अचानक मुखर होता है और अपनी पीड़ा को शब्द देता है। अब कोशिश कर रहा है कि उसको कोई जाने। वह अपनी लेखनी का जोर बताने के लिये पत्र नहीं लिख रहा है, अपितु स्वयं से स्वयं को अभिव्यक्त कर रहा है।
बचपन में देखते थे कि घर में बड़े-बूढ़ों की खूब चलती थी, घर में उनकी आवाज गूंजती रहती थी। मतलब एक बार बोलते थे लेकिन दस बार प्रतिध्वनी बनकर वापस आती थी। बच्चे भी उनके पास मंडराते रहते थे, कि दादा-दादी की पोटली खुले और थोड़ा सा उन्हें भी मिले। जितने उपदेश उनके पास थे सारे ही बेटों-बहुओं को दे दिये जाते थे, जितनी कहानियाँ थी पोते-पोतियों या दोहते-दोहितियों को सुना दी जाती थी। मन खुद को अभिव्यक्त करके निर्मल हो जाता था और जब मृत्यु की पदचाप सुनायी देती थी तब हाथ थामते देर नहीं लगती थी। लेकिन अब? बड़े-बूढ़े चुप ही नहीं अपितु खामोश हैं, अपने मन को खोलना लगभग भूल गये हैं, अन्दर ही अन्दर ज्वालामुखी धधकता रहता है लेकिन कहीं रिसाव नहीं। ऐसे दो-राहे पर खड़े होकर कुछ लोग कलम का सहारा लेते हैं और कुछ अनबोले ही दुनिया से विदा हो जाते हैं। हम भी यही कर रहे हैं और न जाने कितने लोग यही कर रहे हैं। कुछ लोग खुद का भोगा हुआ यथार्थ प्रगट कर रहे हैं और मेरे जैसे लोग जनता से संवाद कर रहे हैं। कुछ उनका और कुछ अपना मिलाकर जो शब्दों का संसार बनता है, वह हम सभी को जीने का नया आयाम देता है। मैं नित नयी कहानी को अपने शब्दों में ढालने का जतन करती हूँ, जिससे दुनिया अनबोली ना रह जाए। चौकीदार कहता है – जागते रहो। मैं कहती हूँ कि बोलते रहो, कुछ कहते रहो और शब्दों के गूंजने से दुनिया को जगाते रहो। कहीं ऐसा ना हो जाए कि जीवित आवाज थम जाए और कल-कारखानों की आवाज से सृष्टि गूंजने लग जाए।
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Friday, July 6, 2018

I am in love


पहला प्यार! कितना खूबसूरत ख्वाब है! जैसे ही किसी ने कहा कि पहला प्यार, आँखे चमक उठती है, दिल धड़कने लगता है और मन कहता है कि इसे बाहों में भर लूँ। लेकिन प्यार की कसक भी अनोखी होती है, प्यार मिल जाए तो सबकुछ खत्म, लेकिन नहीं मिले तब जो घाव दे जाए वो कसक। प्यार पाना नहीं है अपितु खोना है, जो कसक दे जाए बस वही प्यार है। बचपन में जब होश सम्भाला तब प्यार का नाम ज्यादा मुखर नहीं था, चोरी-छिपे ही लिया जाता था और चोरी-छिपे ही किया जाता था। जिसने प्यार किया और कसक बनाकर मन में बसा लिया, उसके किस्से भी सुनाई देने लगे थे लेकिन जिसने प्यार किया और घर बसा लिया, उसके किस्से वहीं खत्म। 60 का दशक बीता, 70 का बीता, 80 का बीता और प्यार नामका शब्द स्थापित हो गया। सारे रिश्ते-नाते तोड़कर प्यार को केवल स्त्री-पुरुष के लिये पेटेण्ट करा लिया गया। मतलब लड़का-लड़की करे वही प्यार, माता-पिता करे वह प्यार नहीं। भाई इसका और कोई नाम दो, कन्फ्यूजन होता है। प्यार-मोहब्बत-इश्क सब लड़का-लड़की के लिये पेटेँट हो गये। लोगों ने कहा कि प्यार सभी के जीवन में होता है, हमने टटोला, हमें कहीं महसूस ही नहीं हुआ। अरे बिछोह हो तो कसक हो और कसक हो तो प्यार का नाम मिले! यह क्या कि शादी की, गृहस्थी बसायी और कहा कि पति-पत्नी में  प्यार है, खाक प्यार है! मैं नहीं मानती। प्यार तो वही होता है जिसमें कसक हो, एक तरफा हो। एक-दूसरे को पाने से अधिक एक-दूसरे की परवाह निहित हो।
लेकिन मुझे आजकल लगने लगा है कि मुझे प्यार हो गया है, चौंकिये मत, इसकी शुरुआत बहुत पहले ही हो गयी थी लेकिन कसक अब महसूस हो रही है तो प्यार अभी हुआ ना! प्यार में क्या होता है – दो जनों के रिश्ते में विश्वास होता है, एक-दूसरे का हाथ थामने का जज्बा होता है, जिन्दगी भर ख्याल रखने का भाव होता है। हम सभी महिलाओं का पहला प्यार, हमारा पहला पुत्र होता है, अब आप कहेंगे कि पुत्री क्यों नहीं! जो मिल जाए वह प्यार नहीं और जो कसक दे जाए वह प्यार है तो पुत्री कसक देती नहीं तो पहला प्यार बनती नहीं। पहले जमाने में पुत्र भी पहला प्यार नहीं बन पाता था क्योंकि वह कसक देता नहीं था, तभी तो प्यार नाम चलन में नहीं था। अब चलन में आया है लेकिन गलत संदर्भ में आ गया है। प्यार कोई बुखार नहीं है, जो पेरासिटेमॉल ली और उतर गया, प्यार तो खुशबू है जो दिल में समायी रहती है। असली प्यार तो माँ-बेटे का ही होता है, जिसमें कोई बुखार नहीं, बस एक-दूसरे के लिये मान और परवाह का भाव। तो प्यार तो मुझे पुत्र पैदा होते ही हो गया था लेकिन कसक बीते कुछ सालों से सालने लगी है तो अब कहती हूँ कि मुझे प्यार हो गया है। माँ-बेटे का रिश्ता क्या है? माँ अंगुली पकड़कर चलना सिखाती है और बुढ़ापे में सोचती है कि अब बेटा अंगुली थामेगा, बुढ़ापे में कोई कंधा मिलेगा जिसपर सर रखकर रोया जा सकेगा लेकिन नहीं मिलता। अंगुली और कंधा बहुत दूर जा बसे हैं, कोई उम्मीद शेष नहीं तो प्यार की कसक ने पूरी ठसक के साथ अपना अड्डा जमा लिया। सुबह सोकर उठो तो कसक भी जाग जाए कि काश बेटा सहारा बनता! दिन में थाली परोसो तो सोचो कि पता नहीं क्या खा रहा होगा! शाम हो तो बतियाने का सुख सामने आ जाए! रात तो काली अंधियारी बनकर खड़ी ही हो जाए! यह प्यार नहीं तो और क्या है? मेरा पहला और अन्तिम प्यार। प्यार के जितने भी पाठ अनपढ़े थे, उसने सारे ही पाठ याद करा दिये। लोग प्यार की कसक लेकर कैसे जिन्दगी में तड़पते हैं, सब पता लग गया। यही सच्चा प्यार है, माँ-बेटे का प्यार। जो कभी साक्षात मिलता नहीं और कसक भरपूर देता है। साँसों की डोर से बंधी रहती है यह कसक, अन्तिम इंतजार भी इसी कसक का रहता है, आँखें दरवाजे पर लगी रहती हैं और जब देह रीत जाती है तब भी एक इच्छा शेष रह जाती है कि अन्तिम क्रिया तो पुत्र ही करे। जो मरण तक साथ चले वही कसक सच्ची है और वही कसक प्यार  है। ऐसी कसक पुत्र से ही मिलती है, आज करोड़ो लोग इस प्यार में पागल होकर घूम रहे हैं, दिन काट रहे हैं। इसलिये मैं भी कहने लगी हूँ कि मुझे प्यार हो गया है, मेरे अन्दर भी कसक ने जन्म ले लिया है। क्या आपको भी हुआ है प्यार? प्यार को यदि अंग्रेजी में लव कहेंगे तो ज्यादा असर पड़ता है तो मैं चिल्लाकर कहती हूँ कि – I am in love.

Tuesday, July 3, 2018

जाएं तो किधर जाएं!


मेरी जानकारी के अनुसार देश भर में साधु-संन्यासी, मुल्ला-मौलवी, सिस्टर-पादरी आदि-आदि जो भी धर्म और समाज हित में घर-बार छोड़कर समाज के भरोसे काम कर रहे हैं, उनकी संख्या एक करोड़ से भी अधिक है। ये समाज के धन पर ही पलते हैं और फलते-फूलते भी हैं। दूसरी तरफ फिल्म उद्योग से जुड़े, कलाकार, संगीतज्ञ, लेखक आदि-आदि की संख्या देखें तो यह भी करोड़ के आस-पास तो है ही। ये दोनों ही प्रकार की प्रजातियाँ लोगों के मन को प्रभावित करती हैं और नये प्रकार के जीवन की ओर ले जाती हैं। साधु-संन्यासी वाला वर्ग एक स्वर्ग दिखाता है और इस दुनिया को निस्सार कहता है जबकि फिल्म जगत वाला वर्ग धरती पर ही स्वर्ग उतार देता है। दोनों में कोई अन्तर नहीं है, एक कहता है स्वर्ग में अप्सराएं हैं, मय है मयखाने हैं, बस जितना चाहे भोग लो। कोई कर्तव्य नहीं बस भोग। तो दूसरा कहता है कि इस दुनिया को भी मय और मयखाने के युक्त बना दो, जहाँ अप्सराएं विचरण करती हैं और बस भोग ही भोग है। एक कल्पना लोक में ले जाकर भोग की सम्भावना दिखा रहा है, दूसरा साक्षात सुख दिखा रहा है। दोनों ही वर्गों से लोग प्रभावित हैं, बस अन्तर इतना है कि स्वर्ग की कल्पना वाले भी धरती पर  ही साक्षात स्वर्ग की कल्पना में  कुछ देर जी लेना चाहते हैं और जो इस धरती  पर ही स्वर्ग के भोग खोज रहे हैं वे तो पूरी तरह से डूब गये हैं इस सिद्धान्त में। एक कल्पना का स्वर्ग दिखा रहा है दूसरा साक्षात स्वर्ग दिखा रहा है, लेकिन दोनों ही दिखाने वाले आनन्द में हैं, बस यदि कहीं कष्ट है तो देखने वालों को। दोनों वर्ग लुट रहे हैं, स्वर्ग की कल्पना के नाम पर एक करोड़ लोगों को समाज पाल रहा है, उनको स्वर्ग से भी अधिक सुख दे रहा है और जनता नरक सा जीवन जी रही है। इस दुनिया का त्याग करो, जो भी तुम्हारे पास है, सब दे दो और डूब जाओ स्वर्ग की कल्पना में। भूखे रहो, प्यासे रहो, लेकिन स्वर्ग का मार्ग मत बिसराओ। दूसरा कह रहा है कि मुझे देखो, मेरे ऊपर पैसा फेंको, मैं तुम्हें धरती के स्वर्ग में रहने की कला सिखाऊंगा। दोनों की दुनिया चल रही है, भक्त इधर भी हैं और उधर भी हैं।
स्वर्ग का साक्षात सुख लेने के लिये दिल्ली में 11 लोग मृत्यु को गले लगा लेते हैं तो दूसरी तरफ फिल्म "संजू" हिट हो जाती है। तुम मरकर स्वर्ग देखोगे और हम कलाकार बनकर यहीं स्वर्ग बना देंगे। इधर डाकू-गुण्डे-मवाली को कहा जाता है कि छोड़ दो यह सब, हमारा ताबीज बांध लो और स्वर्ग की राह पकड़ लो। उधर भी कहा जाता है कि तुम्हारे सौ खून माफ हो जाएंगे यदि कलाकार बन जाओ। लोग मचलने लगते हैं अपराधी को हीरो बनाने में, सिद्ध कर देते हैं कि यह अपराधी नहीं अपितु साक्षात स्वर्ग का बाशिन्दा है जो इसी धरती पर भोग कर रहा था। तुम वहाँ भोग कराओंगे और हम यहाँ भोग कराते हैं, अन्तर क्या है भाई! दो प्रकार के सोफ्टवियर फिट किये जा रहे हैं, लेकिन हम जैसे कुछ लोग भी हैं जिनके सिस्टम में ये दोनों प्रकार के ही सोफ्टवियर डाउनलोड नहीं होते। ना हम जीते-जी फांसी का फंदा लगाकर स्वर्ग जाना चाहते हैं और ना ही अपराधी को स्वर्ग की सैर कराना चाहते हैं। हम तो इस धरती को धरती ही रखना चाहते हैं, जहाँ केवल भोगने को अप्सराएं ना हो, मय ना हो और ना ही मयखाने हों। बस सृष्टि के प्राणी हों, उनमें संतुलन हो। हम कहते हैं कि यह धरतीनुमा सृष्टि ही सत्य है, इस धरती में जो कुछ है वही सत्य है, इसी सत्य को सुन्दर बनाना है। किसी के भी दिखाये स्वर्ग के पीछे हम नहीं भागते, ना पीर-फकीर के पैर पूजते हैं और ना ही किसी कलाकार के पीछे दीवाने होकर दौड़ते हैं। बस जो निर्माण कर रहा है उसके सहयोगी बनना चाहते हैं। इस धरती को जो हमारे लिये सहेज रहा है हम थोड़ा सा योगदान उसमें करना चाहते हैं। दुनिया को अपनी नजर से देखना चाहते हैं। इधर भी स्वर्ग है और उधर भी स्वर्ग है बस बीच में हम जैसे तुच्छ प्राणी पिस रहे हैं कि जाएं तो किधर जाएं! फांसी के फन्दे पर लटक जाएं और स्वर्ग पा जाएं या फिर संजू फिल्म देखकर कलाकार को महान बनाकर इसी धरती को स्वर्ग बनाने में जुट जाएं।
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