Tuesday, June 28, 2011

विवाहित युवतियां आखिर अविवाहित क्‍यों दिखना चाहती हैं? - अजित गुप्‍ता



बहुत दिनों पूर्व एक कहानी पढ़ी थी, अकस्‍मात उसका स्‍मरण हो आया। कहानी कुछ यूँ थी एक व्‍यक्ति एक गाँव में जाता है, एक परिवार का अतिथि बनता है। उस परिवार में विवाह योग्‍य एक लड़की है लेकिन वह बहुत ही कमजोर और बीमार से थी इस कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा है। उस गाँव में एक प्रथा थी कि विवाह के समय लड़का जिस भी लड़की से विवाह करना चाहता था, वह उस लड़की को अपनी सामर्थ्‍य के अनुसार गाय भेंट में दिया करता था। जितनी गायें दी जाती थी समझो लड़की उतनी ही सुन्‍दर है। उस असुन्‍दर लड़की के भविष्‍य की चिंता करते हुए वह व्‍यक्ति गाँव से लौट आया। कुछ बरसों बाद वह व्‍यक्ति पुन; उस गाँव में गया। इस बार वह एक युवक के यहाँ अतिथि था। उस युवक ने कुछ समय पूर्व ही विवाह किया था और अपनी होने वाली पत्‍नी को 100 गायें भेंट में देकर विवाह किया था। निश्चित ही वह लड़की सुंदरता में सानी नहीं रखती होगी। युवक ने कहा कि मैंने इस गाँव की सबसे सुन्‍दर लड़की से विवाह किया है। उस व्‍यक्ति को उसकी पत्‍नी को देखने की उत्‍सुकता बढ़ गयी। कुछ ही देर में एक लड़की घर के अन्‍दर से उस अतिथि के लिए शरबत बनाकर लायी। वास्‍तव में वह बहुत ही सुन्‍दर थी। अतिथि ने उसे पास से देखा और देखकर उसे लगा कि इसे मैंने पहले कहीं देखा है। उसकी मुखमुद्रा देखकर उस युवक ने बताया कि यह वही लड़की है जिसे कभी असुन्‍दर कहा जाता था।
आखिर यह चमत्‍कार कैसे हुआ? अतिथि की जिज्ञासी बढ़ चुकी थी। युवक ने कहा कि मैं चाहता था कि मेरी पत्‍नी इस गाँव की सुन्‍दरतम लड़की हो इसलिए मैंने इस लड़की को पसन्‍द किया और उसे 100 गायें भेंट में दी। इस लड़की का आत्‍मविश्‍वास लौट आया और आज यह आपके समक्ष खड़ी है।
इसी संदर्भ में एक बात और ध्‍यान आ रही है कि आप देखते होंगे कि जब युवक और युवतियां शिक्षा ग्रहण कर रहे होते हैं तब अक्‍सर वे सामान्‍य ही दिखते हैं। बहुत ही कम युवा ऐसे होते हैं जो खूबसूरत दिखते हैं। साधारण परिवार के युवा अक्‍सर साधारण ही दिखते हैं। लेकिन जैसे ही उन्‍हें नौकरी मिलती है, उनके चेहरे पर एक चमक आ जाती है। विवाह के बाद तो यह चमक दुगुनी हो जाती है। ऐसा क्‍यों होता है? शिक्षा लेते समय हम परिवार के अधीन होते हैं और हमेशा हमारा आकलन कम ही किया जाता है। 90 प्रतिशत नम्‍बर आने के बाद भी कहा जाता है कि नहीं और मेहनत करो। हमारे जमाने में परिवार में अविवाहित बच्‍चों की कोई विशेष कद्र नहीं होती थी, आज अवश्‍य वे वीआईपी बने हुए हैं। लेकिन आज भी उनके परामर्श को बहुत गम्‍भीरता से नहीं लिया जाता इसलिए उनके अन्‍दर स्‍वाभिमान जागृत ही नहीं हो पाता है।
लेकिन जब ये ही युवा नौकरी पर जाते हैं और वहाँ बहुत सारे निर्णय स्‍वयं को करने होते हैं तब उनका आत्‍म सम्‍मान जाग उठता है और उनका व्‍यक्तित्‍व निखर उठता है। इसी प्रकार विवाह हो जाने के बाद लड़के और लड़की दोनों को ही कोई चाहने वाला मिल जाता है इस कारण उनका व्‍यक्तित्‍व निखर जाता है।
एक बात आप सभी ने गौर की होगी कि जब भी परिवार में या मोहल्‍ले में कोई भी नव-वधु आती है तब उसे बच्‍चे घेरे रहते हैं। कोई घूंघट के अन्‍दर झांकने के लिए नीचे झुकता है तो कोई समीपता पाने के लिए एकदम पास आकर बैठता है। हमने भी ऐसा ही किया था और हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ था। नव-वधु की कल्‍पना हमारे अन्‍दर बसी हुई है। साड़ी में लिपटी हुई, हाथ चूड़ियों से भरे हुए, माथे पर सिंदूर, गहने और चेहरे पर नवीनता। हमारे देश में एक लड़की का यही रूप बरसों तक रहता है। पुराने जमाने में तो जीवन भर यही रूप रहता था। पूरे घर में नवीनता रहती थी। शायद ही कोई वधु ऐसी हो जो दिखने में कुरूप लगती हो, सभी पहनने-ओढने के बाद सुन्‍दर ही दिखती थी।
लेकिन अब युग बदल गया है। नयी-वधु की सुन्‍दरता एक दो दिन से ज्‍यादा रहती नहीं। उसकी साड़ी, उसकी बिन्‍दी, चूड़ियां सभी गायब हो जाती है। एक साधारण सी लड़की में बदल जाता है उसका व्‍यक्तित्‍व। कई बार तो लगता है कि यह लड़की विवाह के पूर्व ही ज्‍यादा सलीके से रहती थी। एक बार मैंने एक लड़की से पूछ लिया कि बिन्‍दी क्‍यों नहीं  लगाती हो? तो कहने लगी कि मैं ही विवाहित क्‍यों दिखायी दूं जबकि लड़कों के भी तो कोई विवाहित होने का चिन्‍ह नहीं होता? बात तो उसकी जायज थी लेकिन अविवाहित क्‍यों दिखना चाहती हैं, इस बात का उत्तर नहीं था। क्‍या अवसर मिलते ही दूसरा विवाह करने की फिराक में है? या विवाह होने के बाद भी विवाहेत्तर सम्‍बन्‍ध बनाने में परहेज नहीं है? मुझे इस प्रश्‍न का उत्तर समझ नहीं आता कि आखिर लड़कियां विवाह के बाद भी अविवाहित ही दिखना क्‍यों चाहती हैं? वे साधारण सी लड़की क्‍यों बनी रहना चाहती हैं? मुझे तो पहनी-ओढी वधुएं बहुत अच्‍छी लगती हैं, जब मेरी बहु और बेटी किसी विवाह समारोह के लिए सजती हैं तो कितनी प्‍यारी लगती हैं लेकिन आम दिनों में? मैं मानती हूँ कि आजकल नौकरी का दवाब इतना है कि बस जेसे-तैसे काम चला लिया जाता है। लेकिन नौकरी तो हमारे जमाने में भी होती थी, फिर ऐसा क्‍या हो गया आज? इसका उत्तर मेरे पास नहीं है, शायद आप लोगों के पास हो। 

Tuesday, June 14, 2011

दम्‍भ की दीवार - अजित गुप्‍ता


कई विद्वानों से मिलना होता है, उनका लिखा पढ़ने को मिलता है। कुछ विद्वान ऐसे हैं जिनके शब्‍द सीधे हृदय में उतर जाते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिनके शब्‍द मस्तिष्‍क में उहापोह मचा देते हैं। ऐसे जटिल और नीरस शब्‍दों का ताना-बुना बुनते हैं कि कुछ देर दिमाग माथापच्‍ची करता है फिर झटककर दूर कर देता है। अहंकार और दम्‍भ उनके शब्‍द-शब्‍द में भरा रहता है। वे हर शब्‍द से यह सिद्ध करने पर तुले होते हैं कि मेरे जैसा विद्वान दूसरा कोई नहीं। विद्वानों का सान्निध्‍य कौन नहीं चाहता, मैं भी सदैव चाहती हूँ, इसलिए यहाँ ब्‍लाग पर भी उन्‍हें ढूंढती रहती हूँ। लेकिन कुछ विद्वान अपने सामने एक दम्‍भ की दीवार तान लेते हैं। आप कैसा भी प्रयास करें लेकिन उस दीवार को ना भेद पाते हैं और ना ही जान पाते हैं। एक आलेख कुछ दिन पूर्व लिखा था, उसे ही यहाँ आप सभी के अवलाकनार्थ प्रस्‍तुत कर रही हूँ। आपकी प्रतिक्रिया की अभिलाषा में।
दम्भ की दीवार

      तुम्हारे व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मुझे लगा कि विचार शून्य सी इस दुनिया में कुछ क्षण तुम्हारे शब्दों से अपने मन को भिगो लूं। फिर तुम इतने अप्राप्य भी नहीं थे कि मैं तुम तक नहीं पहुँच सकूं। तुम मेरे सामने थे, मैंने तुम्हारे सान्निध्य के लिए जैसे ही तुम्हें पुकारा, तुमने मेरी तरफ उपेक्षा से देखा। मैं फिर भी तुम्हारे शब्दों के जादू से खिंची हुई तुम्हारी तरफ बढ़ती रही। जैसे ही मैं और तुम संवाद की मियाद में आए, अचानक मेरा सिर लहुलुहान हो गया। मैं एक ऐसी पारदर्शी दम्भ की दीवार से टकरा गयी थी जिसने मुझे क्षत विक्षत कर दिया था। मुझे अपना व्यक्तित्व तुम्हारे सामने एकदम बौना लगने लगा। बौना इस मायने में नहीं कि मुझमें और तुम में बहुत बड़ा अंतर था, बौना इस मायने में कि मेरी सहजता और तुम्हारे दम्भ में बहुत फासले थे। मैं यह भी जानती हूँ कि तुम्हारी दीवार से केवल तुम्हारा ऊपरी शरीर आवृत्त है, तुम्हारे पाँव तो सबको मूक निमंत्रण देते हैं। उन्हें मैं आसानी से छू सकती हूँ। शायद उनको छूने के बाद ही तुम्हारा सान्निध्य मुझे मिल सके। मैंने एकाध बार कोशिश भी की यदि तुम्हारे दम्भ की दीवार पाँवों के स्पर्श से ही सरकती है तो क्या हर्ज है। लेकिन तब यह दीवार और मोटी होकर मेरे सामने आ गयी। मैंने फिर भी हठ नहीं छोड़ी, मुझे लगा शायद एक दिन यह दीवार पिघल जाएगी। तुम्हारे दम्भ की दीवार से तुमको अनावृत्त करने के लिए मैंने मौन धारण कर लिया और तुम्हारे सम्भाषण को एकाग्र मन से सुना। लेकिन जैसे जैसे मैं तुम्हारे सामने मौन होती चली गयी वैसे वैसे तुम्हारा दम्भ घटने की जगह बढ़ता चला गया। तब मुझे लगा कि मेरे मौन होने से तुम्हारा दम्भ नहीं घटेगा। ना मेरा मौन और ना मेरे सहज शब्द इस दीवार को पिघला पाए थे। मुझे दीवार के पीछे खड़े तुम भी प्यासे ही दिखायी दे रहे थे। मैं देख रही थी कि तुम्हारी प्यास बढ़ती जा रही है, तुम्हारे शब्द तुम्हारे अंदर घुट कर तुम्हें मानसिक त्रास दे रहे हैं। उन्हें चाहिए एक ऐसा मित्र जिसे वे अपना शिल्प बता सकें। लेकिन तुम्हारे दम्भ की दीवार के कारण वे भी घुट रहे थे।
      तुम ऐसे अकेले नहीं हो, जो शब्दों का भण्डार लेकर अपने आपको एक दीवार से आवृत्त करके बैठे हो। कभी तुमने आधुनिक कार्यस्थल देखें हैं? एक बड़े से कक्ष में सभी कर्मचारियों के लिए कांच के केबिन बने होते हैं जो नीचे और ऊपर से खुले होते हैं। बस सभी दीवारों से पृथक होते हैं। ऐसे ही आज, तुम जैसे बुद्धिजीवी अपने अपने केबिन में बैठे हैं। जब तुम्हारा मन करता है किसी से बतियाने का, तब तुम किसी केबिन वाले से ही बात कर पाते हो। तुम भी दीवार से आवृत्त और वे भी आवृत्त। मेरे जैसे व्यक्तित्व अपने साथ दीवारें नहीं रखते, बस रखते हैं एक झोला जिसमें कुछ शब्द होते हैं जो आम आदमी अपने सुख और दुख में बोल लेता है। मैं उन्हीं शब्दों को लोगों में बांटती रहती हूँ। तुम्हारी आँखों से जब कोई बूंद कभी लुढ़क जाती होगी तब तुम्हारी बच्ची के नन्हें हाथ और उसके तोतले शब्दों से ही तुम्हें सहारा मिला होगा। क्यों अपने आपको तुमने भारी भरकम शब्दों के आवरण में कैद कर रखा है? क्यों तुम्हें लगता है कि ये ही शब्द लोगों को सहारा देंगे? क्यों नहीं तुम आम जन की भाषा से अपने आपको भिगो पाते हो? आओं हम सब के साथ मिलकर बैठो, शब्दों की निर्झरणी को स्वतः ही बहने दो। उन्हें हिमखण्डों में मत बदलो। अपने आपको दम्भ की दीवार से अनावृत्त करो। मेरे जैसे अनेक लोग तुम्हारे पास शब्दों की पूंजी लेने आएंगे उन्हें दो, उनके लिए सहज सुलभ बनो तुम। तुम्हारी सहजता से हमारे हाथ ही नहीं हमारा मन भी तुम्हारे पाँवों को चूमेगा।

Friday, June 3, 2011

सुकून आता जाएगा - अजित गुप्‍ता


वर्तमान में हम सब प्रेम के लिए तरस उठते हैं, सारे सुख-सुविधाएं एक तरफ हो जाती हैं और प्रेम का पलड़ा दूसरी तरफ हमें बौना सिद्ध करने पर तुला रहता है। कुछ दिन पूर्व एक आलेख लिखा था, आज उसका स्‍मरण हो आया। कारण भी था कि कुछ पोस्‍ट ऐसी पढ़ी जिसमें उहापोह था, शायद मेरे मन में भी था, इसलिए वे पोस्‍टे मन को छू गयी और सोच में डाल गयी कि क्‍यों इंसान सब कुछ पाने के बाद भी प्रेम से वंचित क्‍यों रह जाता है? इस वंचना से बचने का भी कोई उपाय है क्‍या? अधिक भूमिका नहीं बांधते हुए सीधे ही आलेख पढ़ा देती हूँ।
सुकून आता जाएगा

      कई दिनों से मन में एक उद्वेग उथल पुथल मचा रहा है, लेकिन समझ नहीं आ रहा कि क्या है? तभी डॉक्टर पति के पास एक बीमार आया, उसे फूड पोइजनिंग हो गयी थी और वह लगातार उल्टियां कर रहा था। मुझे मेरी उथल पुथल भी समझ आ गयी। दिन रात मनुष्यता को समाप्त करने वाला जहर हम पीते हैं, शरीर और मन थोड़ा तो पचा लेता है लेकिन मात्रा अधिक होने पर फूड पोइजनिंग की तरह ही बाहर आने को बेचैन हो जाता है। मन से निकलने को बेचैन हो जाता है यह जहर। कुछ लोग गुस्सा करके इसे बाहर निकालते हैं, कुछ लोग झूठी हँसी हँसकर बाहर निकालने का प्रयास करते हैं और हम स्याही से खिलवाड़ करने वाले लोग स्याही को बिखेर कर अपनी उथल-पुथल को शान्त करते हैं। बच्चा जब अपने शब्द ढूंढ नहीं पाता तब वह स्याही की दवात ही उंडेल देता है। शब्द भी पेड़ों से झरे फूलों की तरह होते हैं, वे झरते हैं और सिमट कर एक कोने में एकत्र हो जाते हैं। अच्छा मकान मालिक उन्हें झोली में भरता है और अपने घर में सजा लेता है। लेखक भी शब्दों को अपनी स्याही के सहारे पुस्तकों में सजा देता है। जैसे ही कमरे में फूलों का गुलदस्ता सजा दिया जाता है स्वतः ही वातावरण सुगंधित हो जाता है। वहाँ फैली घुटन, सीलन झट से बाहर भाग जाती है। ऐसे ही जब हम शब्दों को मन में सजाते हैं उन्हें कोरे पन्नों में उतारते हैं तब मन की घुटन और ऊब पता नहीं कहां तिरोहित हो जाती हैं। जीवन फिर खिल उठता है।
      आज एक कसक फिर उभर आयी। बचपन से ही मेरे पीछे पड़ी है, कभी भी छलांग लगाकर मेरे वजूद पर हावी हो जाती है। मैं नियति का देय मानकर सब कुछ स्वीकार कर चुकी हूँ लेकिन फिर भी यह कसक मेरे अंदर अमीबा की तरह अपनी जड़े जमाए बैठी है। जैसे ही अनुकूल वातावरण मिलता है यह भी अमीबा की तरह वापस सक्रिय हो जाती है। आदमी सपनों के सहारे जिंदगी निकाल देता है। बचपन में जब नन्हें हाथ प्रेमिल स्पर्श को ढूंढते थे तब एक सपना जन्म लेता था। हम बड़े होंगे अपनी दुनिया खुद बसाएंगे और फिर प्रेम नाम की ऑॅक्सीजन का हम निर्यात करेंगे। जिससे कोई भी रिश्ते में उत्पन्न हो रही कार्बन-डाय-आक्साइड का शिकार ना हो जाए। लेकिन यह कारखाना लगाना इतना आसान नहीं रहा। हवा इतनी दूषित हो चली थी कि आक्सीजन का निर्यात तो दूर स्वयं के लिए भी कम पड़ती थी। जैसे तैसे करके काम चलाते रहे। बच्चे बड़े होने लगे, तब फिर सपना देख लिया। सपने में देखने लगे कि अब तो प्राण वायु का पेड़ बड़ा होगा और हमें भरपूर वायु मिलेंगी। लेकिन क्या? हमने पेड़ बोना चाहा लेकिन बच्चे पंछी बन गए। वे हमारे पेड़ से उड़कर बर्फ की धवल चोटी पर बैठ गए। जहाँ उष्मा नहीं थी, थी केवल ठण्डक। हम फिर आक्सीजन के अभाव में तड़फड़ाने लगे। अब तो सपने भी साथ छोड़ने को आमादा हो गए। वे बोले कि तुम जिंदगी भर हमारा सहारा लेते रहे, तुमने सच करके कुछ भी नहीं दिखाया। हम भला तुम्हारा साथ कब तक देंगे? और एक दिन उन्होंने बहुत ही रुक्षता के साथ हम से कह दिया कि नहीं अब नहीं होगा, बाबा हमारा पीछा छोड़ो।
      हमने भी जिद ठान ली कि देखें सपने कैसे नहीं आते? लेकिन सपनों ने नींद से दोस्ती कर ली। वे बोले सपने तभी देखोंगे ना, जब नींद आएगी? हम नींद को भी अपने साथ ले जाते हैं। हम फिर भी हताश नहीं हुए। हमने कहा कि कोई बात नहीं हम खुली आँखों से सपना देखेंगे। लेकिन इतना सुनते ही सपने फिर हँस दिए, वे बोले कि दिन में जब भी खुली आँखों से सपना देखने की कोशिश करोगे तो नींद झपकी बनकर उसे तोड़ देगी। अब तुम उस संन्यासी की तरह हो जिस का तप भंग करने के लिए अप्सरा जरूर आएगी। अतः भूल जाओ सपने और कठोर धरातल पर जीना सीखो। यहाँ रिश्तों में जहरीली हवा ज्यादा है और प्रेम की ताजगी से भरी प्राण वायु कम है। तुम ने जिस प्राण वायु का कारखाना लगाना चाहा था वह भी तुम्हारे लिए नहीं रहा। तुम्हें तो उसी जद्दो-जहेद में अपनी जिंदगी निकालनी है। यदि हिम्मत को बटोर सको तो फिर जुट जाओ। लेकिन इस बार ध्यान रखना कि सपनों की दुनिया बसाने का अब समय नहीं है, जो भी करना है ठोस धरातल पर खुली आँखों के सहारे करना है। रोज ही पीना है जहर और जब भी आत्मसात ना हो तब शब्दों के सहारे उन्हें उलट देना है। तुम्हारी बगियां की प्राण वायु शायद तुम्हारें लिए ना हो लेकिन उठो और खोजों शायद कहीं किसी की बगियां में थोड़ी प्राण वायु तुम्हारे लिए हो। विवेकानन्द की तरह हिम्मत मत हारो, जब तक प्रयत्न करते रहो जब तक कि मंजिल ना मिल जाए। बस शब्दों की निर्झरनी को बहाते रहो और अपने आप सुकून आता जाएगा, आता जाएगा बस आता जाएगा।