Sunday, November 28, 2010

दुख के सब साथी सुख में ना कोय - अजित गुप्‍ता


      सुख के सब साथी, दुख में ना कोययह कहावत जिसने भी ईजाद की होगी तब शायद यह कहावत चरितार्थ होती होगी। लेकिन आज के युग में यह कहावत मेरी समझ से परे है। मुझे तो हर ओर दुख के सब साथी सुख में ना कोय ही नजर आता है। फिर सुख और दुख का अर्थ भी व्यापक है जो आपके लिए सुख है वही दूसरे के लिए दुख बन जाता है। बचपन में जब पिताजी की मार पड़ती थी तब हम दुखी होते थे और पिताजी सुखी। तब हमारे भाई लोग हमारे दुख के आँसू पोछने आते और जिस दिन हमें डाँट भी नहीं पड़ती तो वे आँसू नहीं पोछने के दुख से दुखी होकर हमारी डाँट का बंदोबस्त करते थे। जब हम सायकिल पर सवार होकर कॉलेज जाते और कोई मनचला हमें छेड़ता तो रास्ते वाले हमारे दुख से दुखी होकर हमारे पास सांत्वना के लिए आ जाते। जिस दिन हम उस मनचले के जूते मारकर सुखी होते तब कोई भी हमारे पास नहीं होता उल्टे वे सब उस मनचले के आँसू पोछ रहे होते।
      नौकरी में जब अफसर ने हमको खेद पत्र पकड़ाया तो सारे मित्रगण अफसोस जताने को आए और जिस दिन पदोन्नति के कागज मिले उस दिन कोई भी बधाई देने नहीं आया और शर्म लिहाज के मारे आ भी गए तो वही दुख प्रगट करने वाले शब्दों का ही सहारा लिया गया। अरे आपका प्रमोशन हुआ अब आपको घर से बाहर अधिक रहना पड़ेगा तो आपके पति और बच्चे तो बेचारे कैसे रह पाएंगे?’ एक दिन सोचा चलो नौकरी छोड़कर घर का सुख ही ले लिया जाए और जो बेचारे हमारे नौकरी करने से यह कहकर दुखी थे कि आपके घरवाले तो कैसे सुखी रहते होंगे, तो हमने उनका दुख हलका करने के लिए नौकरी छोड़ दी। जैसे उठावणे में लोग आते है दुख प्रगट करने वैसे ही लोग चले आए। अरे आपने नौकरी छोड़ दी, अच्छी भली नौकरी को भला कोई इस तरह छोड़ता है? फिर धीरे से कान के पास मुँह ले जाकर पूछा कि कोई परेशानी थी क्या और थी तो हमसे कहते। भई हमें तो बहुत दुख हुआ सुनकर जो चले आए। मैंने कहा कि आपको दुखी होने की कतई आवश्यकता नहीं मैंने नौकरी सुख लेने के लिए छोड़ी है। मैं बहुत सुखी अनुभव कर रही हूँ। मेरे सुख का नाम सुनना था कि वह उठकर चले गए जैसे मरे की खबर सुनकर आए हों और मुर्दा जिन्दा हो जाए तो कहना पड़े अरे बेकार ही समय बर्बाद हुआ।
      हम लेखक ठहरे और उस पर तुर्रा सामाजिक कार्यकर्ता का। जैसे करेला और नीम चढ़ा। लेखक भी क्या है लिखता गम के फसाने है और सुनाता हँसके है। लेखक के फटे हाल को देखकर कोई दया करके उसकी रचना पर कुछ बख्शीश दे देते हैं। लेकिन यदि वह सुखी दिखता है तो उसे कोई लेखक ही मानने को तैयार नहीं होता। सामाजिक कार्यकर्ता की भी ऐसी ही नियति है। यदि झोला लटकाए टूटी सायकिल पे चप्पल घिसटते हुए आपको कोई मिल जाए तो तुरन्त आपकी सहानुभूति उसके साथ होगी। लेकिन यदि कोई पढ़ा लिखा मुझ जैसा व्यक्ति समाज का कार्य करे तो लोग मुँह फेर लेते हैं। आजकल समाज का दुख दूर करने का भी फैशन चल निकला है। एक दिन भरी सर्दी में हमारे एक मित्र बोले कि चलो ऐसे सर्दी में बेचारे जो बिना कम्बल के सो रहे हैं उनको कम्बल बांट आएं। थोड़ा पुण्य कमा आएं। मैंने कहा कि किसे कम्बल बाँटोंगे? उन्होंने कहा कि कैसे सामाजिक कार्यकर्ता हो, तुम्हे दिखायी नहीं देता रात को फुटपाथ के किनारे बेचारे भिखारी सर्द में ठिठुर रहे हैं उन्हें ही देंगे। मैंने कहा वे तो व्यापारी हैं उनका भीख मांगना धंधा है वह बेचारे कैसे हो गए? फिर भी दुख में शामिल होने का उनका जोश कम नहीं हुआ और भरी ठण्ड में मुझे ले जाकर ही दम लिया। पूरे शहर के चक्कर काटकर पचासों सोए हुए लोगों के ऊपर कम्बल डालकर हम आ गए। वे भी किसी के दुख मंे शरीक हो कर तृप्त होकर सो गए। मैंने दूसरे दिन उनसे कहा कि उनके दुख को तो देख आए अब क्या उनके सुख को देखने नहीं चलोंगे? सर्द रात को फुटपाथ पर तुम्हारे कम्बल के सहारे सुख से सोते हुए लोगों का सुख क्या नहीं देखोंगे? उन्हें लगा कि चलो यह भी देख लिया जाए। वे दूसरी रात को हमारे साथ चल दिए। देखने के बाद वे दुखी हो गए और हम उनके दुख में शरीक होकर सुखी हो गए। एक भी भिखारी के तन पर कम्बल नहीं था। गुस्से में आगबबूला होकर उन्होंने एक को झिंझोड़कर उठाया और कहा कि कम्बल कहाँ है? कौन से कम्बल, पहले तो वह अनजान बना फिर कहने लगा कि अच्छा आपने ही रात को हमारे ऊपर डाला था क्या? वह तो हमने बेच दिया। भाईसाहब क्यों हमें दुखी करते हो हमें तो ऐसे ही रात गुजारने की आदत हैं। भीख मांगना हमारा पेशा है दिन में हाथ पसारते हैं और रात को भरी ठण्ड में खुली छत के नीचे सोकर मजबूत बनते हैं। बेचारे हमारे मित्र उनके सुख को देखकर दुखी हो गए और चुपचाप आकर सो गए।
      अब अपनी बात कहती हूँ कि जब मन का सुख लेने के लिए हम पति-पत्नी जोर शोर से लड़ते हैं और हमारी आवाजे खिड़कियों से पार हमारे पड़ोसी सुनते हैं तब झट से कोई ना कोई पड़ोसी आ जाता है। हमें समझाता है और हमारे दुख में दुखी होकर अपार सुख पाता है। लेकिन जब कभी भूले भटके से पतिदेव हमारी मान मनौवल कर रहे होते हैं और हमारे पड़ोसी की हम पर नजर पड़ जाती है, पड़ौसी की नजर तो हमारे हर काम पर ही रहती है इसलिए ऐसे मौके पर भी पड़ना लाजमी है, तब पड़ोसी गुस्से से अपनी खिड़की का पर्दा खींच लेते हैं और बुरा मुँह बनाकर कहते हैं कि अपने प्रेम का ढिंढोरा पीट रहे हैं कल ही तो लड़ रहे थे और देखो आज कैसे चोंचले कर रहे हैं।
      तो भाईसाहब आप ही बताइए कि लोग आपके दुख में कितने दुखी है और कितने आपके सुख को देखकर आपके साथ होते हैं? आप किस भ्रम में जीते हैं? आप यदि दुखी हैं तो चाहे कोई मित्र हो या शत्रु आपके आँसू पोछने चला आएगा और यदि आप सुखी हैं तो फिर चिड़ी का बच्चा भी पंख नहीं मारेगा। एक हमारी मित्र हैं, मित्र इसलिए कह रही हूँ कि हमारे दुख में वे सदैव दुख प्रकट करने आ ही जाती हैं और जब आ नहीं पाती तो फोन अवश्य कर देती हैं। उनमें इतना दुखों के प्रति संवेदना का भाव है कि वे केवल दुख के समय ही उपस्थित होती हैं। यदि आप भूले से सुखी हो जाए तो वे प्राणपण से दुख के स्रोत ढूंढने में लग जाती हैं। आपका सुख उन्हें फूटी आँख नहीं सुहाता और आपके सुख में वे बराबर की दूरी बनाकर रखती हैं। बस उनका मन हमेशा सहारा देने के लिए ही लालायित रहता है। एक दिन हमारे चोट लग गयी, कहीं से उनको भी खबर लगी। उन्होंने सांत्वना का कोई मौका नहीं छोड़ा था तो आज कैसे छोड़ती, तुरन्त फोन किया और हालचाल पूछा। मैंने कहा कि आपका इतने दिनों बाद फोन आने का कारण? उन्होंने कहा कि बहुत दिनों बाद मौका मिला, इसलिए फोन किया वरना आप तो मौका ही नहीं देतीं।
      मेरे जैसे उदाहरण आपके जीवन में भी बिखरे पड़े होंगे। मेरी बात पर यदि गौर कर सको तो करना वैसे मेरा क्या है एक लेखक हूँ, जिसका कोई वजूद नहीं होता। बेचारा लेखक तो वह प्राणी है जिसके पास ना कोई दुख देखकर आता है और ना कोई सुख देखकर। क्योंकि वह बेवकूफ किस्म का व्यक्ति दुख में भी सुख ढूंढ लेता है। रुदन में भी हास्य ढूंढ लेता है तो फिर ऐसे सिरफिरों के पास भला कोई सांत्वना देने भी क्यों आए। आप तो बस दुख में शरीक होकर कहावत को झूठा सिद्ध करते रहिए और देश के संवेदना वाले नागरिक बनने का सौभाग्य पाइए। किसी को भी सुखी देखें तो उसे दुखी करने का मौका जरूर तलाशे। तभी आप इस देश के महान नागरिक बन पाएंगे।
व्‍यंग्‍य संग्रह - हम गुलेलची - लेखक- अजित गुप्‍ता

Friday, November 19, 2010

सास बनते ही एक डर दबे पैर क्‍यों चला आता है?- अजित गुप्‍ता

बेटे के विवाह के मायने क्‍या हैं? किसी भी माँ से पूछकर देखिए वह यही कहेगी कि जीवन का सबसे अनमोल क्षण है। शायद पिता के लिए भी ऐसा ही होता हो, लेकिन चूंकि मैं एक माँ हूँ तो पिता की अनुभूति का मुझे मालूम नहीं। आप उत्तर दे पाएंगे। घर में जब बहु के कदम पड़ते हैं तो लगता है कि हमारा घर पूर्ण हो गया। बेटे के चेहरे पर जो उल्‍लास दिखायी देता है, वह किसी भी शब्‍दों में नहीं समेटा जा सकता है। घर-परिवार में प्रत्‍येक सदस्‍य नवागत का स्‍वागत करने के लिए प्रफुल्लित हो रहा होता है। मुझे अमिताभ बच्‍चन का स्‍मरण आ रहा है। जब वे अपनी पुत्रवधु को लेकर स्‍वयं ही ड्राइविंग करते हुए घर आते हैं। इससे बड़ा उल्‍लास का उदाहरण मुझे दिखायी नहीं देता है। आज से लगभग पाँच वर्ष पूर्व जब मेरे घर भी बहु आने वाली थी तब मेरे अन्‍दर भी ऐसा ही उल्‍लास भरा था। बहु के आगमन पर कितनी ही कविताएं रच दी गयी थीं। कहीं भी चिन्‍ता या डर का नाम नहीं था। ना ही यह भाव था कि मैं सास बन रही हूँ तो एक बदनाम नाम मेरे साथ भी जुड़ जाएगा। लेकिन समय बीता, और जब हमउम्र मित्र एकत्र हुए तो ध्‍यान में आया कि इस प्‍यार भरे रिश्‍ते के बीच में एक भय भी साथ-साथ आकर घर करता जा रहा है। पहले यह भय बहु के मन में साथ चलकर ससुराल की चौखट तक आता था और कितने अन्‍तरद्वंद्वों से निकलकर कभी समाप्‍त होता था तो कभी नहीं। लेकिन आज दुनिया बदल गयी है, वास्‍तव में ही बदल गयी है। डर ने भी अपना पाला बदल लिया है। अब उसने सास के दिल में दस्‍तक दे दी है।
मैं आज ये बातें आपसे क्‍यों कह रही हूँ? अभी विवाह का मौसम चल रहा है। घर-घर में शहनाइयां बज रही हैं। मेरे पड़ोस में भी मेरी मित्र के यहाँ शहनाई की धूम रही। आज वे जानी-पहचानी हस्‍ती हैं तो चर्चा का बाजार भी गरम रहा। उम्र भी अधिक नहीं तो सास बनना कौतुहल का विषय हो गया। सभी कहने लगे कि अरे अब आप सास बन जाएंगी? जीवन में कई तब्‍दीली आएंगी। सभी ने उनके मन में एक अन्‍जाना सा भय डाल दिया। कुछ वर्ष पूर्व के प्रश्‍न बदल गए। मुझसे पूछा जाता था कि अरे आपकी बहु आ रही है? घर में रौनक हो जाएगी। लेकिन अब यह कहा जा रहा है कि अरे आप सास बन जाएंगी? गीत भी ऐसे ही गाए जा रहे हैं कि सासु अब सम्‍भलकर रहना, घर में बहु आ रही है। मुझे फिर एक आलेख का स्‍मरण हो रहा है, जिसे मेनका गांधी ने बहुत वर्ष पूर्व लिखा था। पता नहीं क्‍यों वे शब्‍द मेरी स्‍मृति में अंकित हो गए थे? उन्‍होंने लिखा था कि मैं उस दिन से सबसे ज्‍यादा डरती हूँ जिस दिन मेरे घर में बहु आएगी। वह आते ही कहेगी कि मम्‍मी को कुछ नहीं आता। कुछ ही दिनों में वह घर माँ का नहीं रह जाता। ऐसे ही कुछ भाव थे उस आलेख में।
तो क्‍या आज वास्‍तव में एक माँ के मन में डर समा गया है? पढी-लिखी माँ, समाज में उच्‍च स्‍थान रखने वाली माँ भी आज इस अन्‍जाने डर से भयभीत क्‍यों हैं? कैसा है यह भय? क्‍या केवल एक भ्रम है या वास्‍तव में ही माँ के ऊपर सास नाम का बदनाम उपनाम हावी होने को है। बहुत सारे खट्टे-मीठे अनुभव हैं हम सबके। समाज उन्‍नति भी कर रहा है, सास-बहु के रिश्‍तों में मधुरता भी आयी है लेकिन डर ने भी अपनी जगह बनायी है। मुझे लगता है कि यह डर हमारे अहम् का है। पहले परिवार में जो बड़ा होता था सब उसका सम्‍मान करते थे इसलिए बहु अपने साथ अहम् लेकर नहीं आती थी बस सास का अहम् ही रहता था। लेकिन आज बहु का अहम् भी प्रमुख हो गया है इस कारण बड़े-छोटे का भाव समाप्‍त होता जा रहा है। हमारी पीढ़ी ने हमेशा बड़ों का सम्‍मान किया है लेकिन जब यह सुनने और दिखने में आने लगा कि बड़ों का सम्‍मान अब सुरक्षित नहीं है तब ही डर नामके अजगर ने अपना डेरा डाल लिया। यह डर मेरी मित्र के ऊपर भी हावी हो गया और उन्‍होंने संगीत संध्‍या के दिन बहु के नाम पत्र लिखा और उसे पढ़कर सुनाया। बार-बार उनका डर झलक रहा था। मीठे से पत्र की जगह कहीं डर ने जगह बना ली थी।
आज की इस पोस्‍ट का केन्द्रित विषय है क्‍या है यह डर? यदि हम अपने विचार केन्द्रित करेंगे और विषय में भटकाव नहीं लाएंगे तो मेरे लिखने का श्रम सार्थक होगा। हम जान सकेंगे कि वर्तमान समाज किस ओर जा रहा है। आप सभी के विचारों का स्‍वागत है।  

Friday, November 12, 2010

बेरोजगारी दूर करने का सरल उपाय – क्‍या कम्‍पनियां ध्‍यान देंगी? – अजित गुप्‍ता

सारी दुनिया में बेरोजगारी अपने पैर फैला रही है और दूसरी तरफ अत्‍यधिक काम का दवाब लोगों को तनाव ग्रस्‍त कर रहा है। परिवार संस्‍था बिखर गयी है और विवाह संस्‍था भी दरक रही है। अमेरिका से चलकर ओबामा भारत नौकरियों की तलाश में आते हैं और मनमोहन सिंह जी कहते हैं कि हम नौकरी चुराने वाले लोग नहीं हैं। बेटा इंजिनीयर या मेनेजमेंट की परीक्षा देकर निकलता है और उसे केम्‍पस के माध्‍यम से ही नौकरी मिल जाती है। नौकरी भी कैसी लाखों की। पिताजी ने हजार से आगे की गिनती नहीं की और बेटा सीधे ही लाखों की बात करने लगा। आकर्षक पेकेज के साथ आकर्षक सुविधाएं भी। एसी और फाइव स्‍टार से नीचे बात ही नहीं। यहाँ अगल-बगल चार फाइव स्‍टार होटल हैं लेकिन अभी चार बार भी नहीं जाया गया और आजकल के बच्‍चे केवल उन्‍हीं की बात करते हैं। उनसे फोन से बात करो तो कहेंगे कि अभी समय नहीं, घर आने की बात करो तो छुट्टिया नहीं। सारे ही नाते-रिश्‍तेदार बिसरा दिए गए। चाहे माँ मृत्‍यु शय्‍या पर हो या पिताजी, बेटे-बेटी के पास फुर्सत नहीं। हाँ दूर बैठकर चिंता जरूर करेंगे और बड़े अस्‍पताल में जाने की सलाह देकर उनका बिल भी बढ़ाने का पूर्ण प्रयास करेंगे।
इतनी लम्‍बी-चौड़ी भूमिका बाँधने का मेरा अर्थ केवल इतना सा है कि आखिर इन सारी समस्‍याओं का कोई हल भी है क्‍या? मेरे पास इस समस्‍या का एक हल है, आपको मुफ्‍त में बताए देती हूँ। जब हम नौकरी करते थे तब हमने कभी भी छ: घण्‍टे से अधिक की नौकरी नहीं की। हमारी छ: घण्‍टे की नौकरी हुआ करती थी और शेष जूनियर स्‍टाफ की अधिकतम आठ घण्‍टे की। हम अपना परिवार भी सम्‍भालते थे, बच्‍चों को भी पूरा समय देते थे और अपने जीवन को अपनी तरह जीते थे। इसके बाद भी हमें नौकरी रास नहीं आयी और हमने छोड़ दी। इसलिए ओबामा सहित मनमोहन सिंह‍ जो को यह बताने की आवश्‍यकता है कि आज जो घाणी के बैल की तरह आपने लोगों को नौकरियों में जोत रखा है उसे बन्‍द करो। अपने आप बेरोजगारी दूर हो जाएगी। आज प्राइवेट सेक्‍टर में प्रत्‍येक व्‍यक्ति 12 घण्‍टे की नौकरी कर रहा है। एक व्‍यक्ति के स्‍थान पर दो को नौकरी दो और इतने वेतन देकर आप क्‍यों उसे आसमान पर बिठा रहे हैं और माता-पिता से दूरियां बढ़ाने में सहयोग कर रहे हैं? अधिकतम वेतन निर्धारित करो। मेरे घर के सामने ही एक बैंक है, उस बैंक का मेनेजर सुबह नौ बजे आता है और रात आठ बजे के बाद ही जा पाता है। यह क्‍या है? कहाँ जाएगा उसका परिवार? आज यदि इन्‍फोसिस जैसी कम्‍पनी में एक लाख व्‍यक्ति काम कर रहे हैं तो इस नीति से दो लाख कर्मचारी हो जाएंगे और वेतन में भी वृद्धि नहीं होगी। क्‍या आवश्‍यकता है करोड़ों  के पेकेज देने की? इन पेकेजों ने ही मंहगाई को आसमान पर चढ़ाया है। जब एक नवयुवा को पचास हजार रूपया महिना वेतन दोगे तो वह सीधा मॉल में ही जाकर रुकता है और बाजार में जो कमीज 100 रू में मिलती है उसके वह 1500 रू. देता है। बेचारे माता-पिता तो रातों-रात बेचारे ही हो जाते हैं क्‍योंकि उनका लाड़ला लाखों जो कमा रहा है। इसलिए बेरोजगारी के साथ समस्‍त पारिवारिक और मंहगाई की समस्‍या से निजात पाने का एक ही तरीका है कि इन बड़ी कम्‍पनियों को अपनी नीति बदलनी होगी। समाज को इन पर दवाब बनाना होगा नहीं तो  प्रत्‍येक युवा तनाव का शिकार हो जाएगा। मेरी बात समझ आयी तो समर्थन कीजिए।  

Tuesday, November 9, 2010

आज स्‍वीट सिक्‍सटी में प्रवेश का दिन – अजित गुप्‍ता

इस दुनिया में तकरीबन सभी लोग अपने आने की सूचना देते हैं, तो उनका गाजे-बाजे और ढोल-नगाड़ों के साथ स्‍वागत भी होता है। लेकिन हम तो दबे पाँव ही इस दुनिया में चले आए। जब हमारी माँ को कई महिनों बाद पता लगा कि अरे कोई नवीन शायद आ रहा है तो घर भर में खलबली मच गयी कि अब और नहीं। कारण लड़की का होना नहीं था बस अब और संतान नहीं चाहिए थी क्‍योंकि पहले ही हमारे घर पर हाऊस फुल का बोर्ड टंग चुका था। लड़के सात हो चुके थे तो लड़कों से भी पेट भर गया था और एक लड़की भी अन्‍त में आ चुकी थी तो घर पूरा बन चुका था। लेकिन अब क्‍या कर सकते थे? हमारा भाग्‍य तो विधाता ने तभी लिख दिया था कि इस दुनिया में वाण्‍टेड नहीं हो। लेकिन हमने भी ठान ली थी कि अनवाण्‍टेड हैं तो क्‍या एक दिन लोगों के दिलों में राज करके बताएंगे। भगवान ने भेजा हमें अलटप्‍पू में ही था लेकिन भेजा था खास बनाकर। हम बचपन से ही खास बन गए, पता नहीं क्‍यों? जोर जबरदस्‍ती ही जब घर में घुसे थे तो जबरदस्‍त तो होने ही थे।
साधारण बचपन में भी जीवन असाधारण था। पिता का कठोर अनुशासन था या यूं कहें कि उनका बनाया हुआ ही शासन था। घर में उनकी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिल सकता था। वे जो कहें केवल वही सत्‍य। उन्‍होंने ही जीवन का निर्धारण किया। हम कर भी क्‍या सकते थे? पिताजी के सामने अच्‍छे-अच्‍छों की नहीं चलती थी तो हमारी क्‍या बिसात थी? उन्‍होंने हमें लड़कों की तरह ही पाला तो स्‍वीट सिक्‍सटीन कब हुए पता ही नहीं चला। प्‍यार व्‍यार क्‍या होता है इस चिड़िया का तो कभी पंख भी नहीं फड़फड़ाया। जैसे सब की शादी होती है हमारी भी हो गयी, हाँ कुछ रोचक तरीके से जरूर हुई। ना ना करते शादी तुम्‍ही से कर बैठे वाले अंदाज में। महिला होने का फायदा शादी के बाद भी नहीं मिला। दिल विल प्‍यार व्‍यार क्‍यों होता है पता ही नहीं चला और दिमाग में कर्तव्‍य आकर बैठ गया। तब से अब तक कर्तव्‍य ही निभाते रहे। पाँच वर्ष पूर्व दोनों बच्‍चों का विवाह भी कर दिया और दोनों के एक-एक संतान भी हो गयी। मतलब अपनी ड्यूटी पूर्ण। अब जीवन में आनन्‍द ही आनन्‍द।
आज अंग्रेजी तारीख से हमारा जन्‍मदिन पड़ता है, भारतीय तारीख तो देव उठनी ग्‍यारस की है तब शुभ मुहुर्त्त प्रारम्‍भ होते हैं, अर्थात् हमारे जन्‍म के बाद से ही शुभ प्रारम्‍भ होता है। लेकिन 9 नम्‍बर भी बुरा नहीं था तो हमने एक सा और सरलता का चुनाव करते हुए अंग्रेजी तारीख को अपना ही लिया। घर में तो आज भी वही ग्‍यारस है। इतनी लम्‍बी चौड़ी बात लिखने का अर्थ यह है कि हमने जोर जबरदस्‍ती से 59 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं और अब स्‍वीट सिक्‍सटी में प्रवेश कर लिया है। स्‍वीट सिक्‍सटीन की याद नहीं तो स्‍वीट सिक्‍सटी ही सही। इस आयु को पूर्ण कर लेने के बाद बहुत सारे सरकारी प्रिविपर्स चालू हो जाते हैं तो एक वर्ष तो स्‍वीट सिक्‍सटी का उल्‍लास मनाएंगे और फिर सरकारी सुविधाओं का आनन्‍द उठाएंगे। आप सभी बधाई तो देंगे ही तो मैं पहले ही सभी का आभार मान लेती हूँ। आज प्रकृति भी मेहरबान है तो सुबह से ही उसने भी हमारे स्‍वागत के लिए वर्षा जल का छिड़काव कर दिया है तो भगवान का भी आभार। उसने हमें भेजा दबे पैर था लेकिन अब हम सबके सामने  प्रसन्‍नता से खड़े हैं उस प्रभु के आशीर्वाद से ही। आप सभी का स्‍नेह बना रहे, इसी आशा और विश्‍वास के साथ जन्‍मदिन पर आप सभी को मेरा नमन। 

Monday, November 1, 2010

राम के त्‍याग का स्‍मरण और सभी को दीपावली का नमन - अजित गुप्‍ता


लो फिर दीपावली आ गयी। मेरे घर को हर साल इंतजार रहता है प्रकाश का, और मुझे तो प्रतिपल। पिछले साल ही तो दीपावली प्रकाश लेकर आयी थी, मैंने उसे समेट कर क्‍यों नहीं रखा? आखिर कहाँ चला जाता है प्रकाश? कैसे अंधकार जबरन घर में घुस आता है? मैंने तो ढेर सारे दीपक भी लगाए थे और लाइट की रोशनी भी की थी।
प्रकाश बोला कि मैं तो रोज ही सुबह-सवेरे तुम्‍हारे दरवाजे पर दस्‍तक देता हूँ। लेकिन मेरी भी नियति है, मैं शाम के धुंधलके के साथ ही कहीं और जहाँ को रोशन करने चला जाता हूँ। पीछे छोड़ जाता हूँ चाँद और तारे। लेकिन तभी प्रकाश ने प्रश्‍न दाग दिया। आखिर तुम क्‍यों दीपावली के दिन मेरा दिवस मनाते हो?
अरे तुम्‍हें इतना भी नहीं मालूम कि इस दिन प्रभु राम अयोध्‍या आए थे। पूरे 14 वर्ष वनवास काटने के बाद। अयोध्‍या फूली नहीं समा रही थी अपने राजा को पाकर। तो दीपकों से सजा डाला था हमने उनका राजपथ।
लेकिन राजा तो विलासी होते हैं, उनका ऐसा स्‍वागत? क्‍या प्रजा भी विलासी थी?
अरे तुम कैसी बातें कर रहे हो? राम और विलासी? वे तो त्‍याग की मूर्ति थे। तुम्‍हें पता है वे वनवास क्‍यों गए थे?
क्‍यों गए थे?
अयोध्‍या के राजा दशरथ के चार पुत्र थे, राम सबसे बड़े थे। राजा दशरथ ने उन्‍हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। लेकिन उनकी दूसरी रानी कैकयी ने दशरथ को कहा कि मेरा पुत्र भरत राजा बनना चाहि‍ए। भरत के मार्ग में कोई बाधा ना आए इसलिए राम को 14 वर्ष का वनवास भी दे दो।
तो क्‍या राजा दशरथ ने कैकयी की बात मान ली? एक सामर्थ्‍यशाली राजा का यह कैसा पतन?
नहीं राजा दशरथ ने कैकयी की बात नहीं मानी। लेकिन वे वचन से बंधे थे तो उनका राजधर्म उन्‍हें वचन पालन के लिए प्रेरित कर रहा था। एक तरफ राम थे और दूसरी तरफ वचन। राजा धर्मसंकट में थे, रानी हठ पकड़े बैठी थी। तभी राम ने निर्णय लिया कि मुझे पिता के वचन की लाज रखनी है और वे वन में जाने को तैयार हो गए।
यह तो बहुत बड़े त्‍याग की बात है। प्रकाश ने आश्‍चर्य के साथ कहा।
अब आगे सुनो त्‍याग की बात। पत्‍नी सीता को जब राम के वनवास जाने का समाचार प्राप्‍त हुआ तो वह भी वन में जाने को तैयार हो गयी। राम ने कहा कि तुम क्‍यों वन जाना चाहती हो? वनवास की इच्‍छा तो माता कैकयी ने मेरे लिए चाही है। सीता ने कहा कि नहीं पति के साथ रहना ही पत्‍नी का धर्म है।
ओह हो यह तो बहुत बड़े त्‍याग की बात कही सीता ने। प्रकाश ने फिर आश्‍चर्य प्रकट किया।
लेकिन अभी त्‍याग का प्रकरण पूरा नहीं हुआ है। लघु भ्राता लक्ष्‍मण को जब वनवास की भनक लगी तो वे भी वनवास जाने को तैयार हो गए। कहने लगे कि वन के अन्‍दर उनका एक सेवक भी होना चाहिए इसलिए मैं भाई और भाभी की सेवा के लिए जा रहा हूँ। माता सुमित्रा ने भी उन्‍हें आशीर्वाद दिया।
प्रकाश हैरान था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि लोग दीपावली को प्रकाश का पर्व क्‍यों कहते हैं? अरे यह तो त्‍याग का पर्व है। मनुष्‍यों को अपने अन्‍दर के प्रकाश को जगाना चाहिए जिससे उनके अन्‍दर सत्ता के मोह ने जो अंधकार की दीवार खडी कर रखी है, वह गिर जाए। अब प्रकाश की जिज्ञासा जाग चुकी थी। वह बोला कि मुझे भरत के बारे में भी बताओ।
तो सुनो, राम वनवास गए, उनके साथ सीता और लक्ष्‍मण भी गए। राजा दशरथ ने प्राण त्‍याग दिए। भरत उस समय अपने ननिहाल में थे। उन्‍हें तत्‍काल बुलाया गया और जब उन्‍हें सारा कथानक का पता लगा तो वे अपनी माता कैकयी पर आगबबूला हो गए। उन्‍होंने कहा कि यह राज्‍य राजा राम का है मैं तो केवल उनका सेवक हूँ। वे भैया राम को मनाने चले, लेकिन राम ने उन्‍हें वापस लौटा दिया। भरत राम की खडाऊ लेकर आए और सिंहासन पर खडाऊ को ही आसीन कर दिया।
यह भी बहुत ही बड़े त्‍याग की बात है। किसी को राज मिल जाए और त्‍याग कर दे? आजकल तो ऐसा नहीं देखा जाता। अब तुम यह बताओ कि राम ने 14 वर्ष वहाँ कैसे बिताए? प्रकाश ने फिर प्रश्‍न कर दिया।
राम अपने वनवास काल में जंगल-जंगल घूमकर अपना वनवास काट रहे थे और जब उनका वनवास समाप्‍त होने ही वाला था तभी एक घटना घट गयी। लंका का राजा रावण सीता का हरण करके लंका ले गया। राम और लक्ष्‍मण के दुखों का कोई अन्‍त नहीं। उस समय वहाँ के वनचर एकत्र हुए और उन्‍होंने राम की योजना से लंका पर आक्रमण किया और रावण का वध कर दिया।
तब तो लंका पर भी राम का शासन स्‍थापित हो गया होगा। और वे सोने की लंका को पाकर बेहद खुश हुए होंगे।
यही तो राम का चरित्र है कि उन्‍होंने यहाँ भी त्‍याग का साथ नहीं छोड़ा। उन्‍होंने कहा कि मेरी जन्‍मभूमि ही स्‍वर्ग से बढ़कर है। उन्‍होंने रावण के छोटे भाई विभीषण का राजतिलक किया और अयोध्‍या वापस लौट आए।
प्रकाश ने कहा कि धन्‍य है यह भारत भूमि जहाँ ऐसे त्‍यागी राजा भी हुए। मैं तो सम्‍पूर्ण दुनिया के देशों में रोज ही घूमता हूँ मुझे तो आज तक ऐसा एक भी त्‍यागी राजा नहीं मिला। लेकिन एक बात और बताओ कि इस देश में आज इतना भोगवाद क्‍यों है? हम जब श्रीराम को आदर्श मानते हैं तो हमारा आदर्श त्‍याग होना चाहिए था लेकिन मैं तो यहाँ भोगवाद के ही दर्शन कर रहा हूँ। दीपावली पर यही कहा जाता है कि प्रकाश का पर्व है, रोशनी का पर्व है। मैंने तो कभी नहीं सुना कि किसी ने कहा हो कि त्‍याग का पर्व है।
यही तो रोना है इस देश का, हमारे अन्‍दर भोगवाद प्रवेश लेता जा रहा है और हमने अपनी सुविधा से और भोगवाद को प्रश्रय देने के लिए त्‍योहारों की परिभाषा बदल दी है। दीपावली के दिन हमें मन के अंधकार को भगाने की बात करनी चाहिए और हम रोशनी और पटाखों की बात करते हैं। सत्ता का मोह हमारे अन्‍दर ऐसे प्रवेश कर गया है जैसे माता के मन में संतान का मोह। राजनीति से लेकर धर्मनीति तक में सत्ता का मद चढ़ा हुआ है। संन्‍यासी भी अपनी गद्दी के लिए लड़ रहे हैं और राजनेता भी। दीपावली के दिन शायद ही किसी के घर में श्रीराम की पूजा होती हो, वहाँ तो लक्ष्‍मीजी आ विराजी हैं।
अब तो लग रहा है कि यह देश राम को भूलता जा रहा है। बस मैं तो तुम पर ही आशा लगाए बैठी हूँ कि तुम लोगों के जीवन में प्रकाश करोगे। उन्‍हें पारिवारिक प्रेम के दर्शन कराओगे और त्‍याग से ही लोगों के दिलों पर राज किया जाता है, यह सिखलाओगे। तो आओ हम भी दीपावली मनाए। अपने दिलों से बैर-भाव निकाले और राम और भरत जैसे भाइयों के प्रेम का स्‍मरण करें। लक्ष्‍मण और सीता के त्‍याग को भी नमन करें। तभी हम कहेंगे कि दीपावली सभी के लिए शुभ हो।