Tuesday, May 14, 2019

साम्प्रदायिकता बिल में और राष्ट्रवाद परचम में


मेरे देश में साम्प्रदायिकता कहीं खो गयी है, मैं उसे हर बिल में खोज चुकी हूँ, गली-मौहल्ले में भी नहीं मिली, आखिर गयी तो गयी कहाँ? यह तो छिपने वाली चीज थी ही नहीं, देश की राजनीति में तो यह शाश्वत बन गयी थी! भला ऐसा कौन सा चुनाव होगा जब यह शब्द ही ब्रह्मास्त्र ना बनो हो! सारे ही मंचों से चिल्ला-चिल्लाकर आवाजें आती थी कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ हमें एकत्र  होना है। एक तो नारा हमने सुना था – इस्लाम खतरे में हैं, एकत्र हो जाओ और दूसरा सुना था कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ एकत्र हो जाओ। साँप-नेवले सारे ही एक छत के नीचे आ जाते थे। लेकिन इस बार तो यह नारा सिरे से ही खारिज हो गया! हमने आजादी के पहले से ही इस नारे को गढ़ लिया था और संगठनों पर प्रतिबन्ध की परम्परा को जन्म दे दिया था। आजादी के बाद भी यह नारा खतरे की घण्टी की तरह चला, जैसे ही सरकारों पर खतरा मंडराता, साम्प्रदायिकता का नारा जेब से निकल आता और फिर प्रतिबन्ध की आँधी के कारण लोकतंत्र के दरवाजे  बन्द  हो जाते।
हम जैसों ने इस नारे का ताण्डव खूब झेला, हम सरकार का हिस्सा नहीं थे तो झेलना पड़ा। लेकिन जो खुद को सरकार का  हिस्सा मानते थे वे हमारे खिलाफ कभी भी इस बिच्छू को निकाल देते थे और एकाध डंक लगाकर वापस जेब में रख लेते थे। लेकिन अचानक ही इस चुनाव में यह बिच्छू जैसा नारा गायब हो गया। बस हाय तौबा सी मची रही कि मोदी हटाओ, मोदी हटाओ। हमारे लिये तो दोहरी खुशी लेकर आया यह चुनाव। एक तो बिच्छू गायब हो गया, हम डंक से बच गये, दूसरी तरफ मोदीजी ने राष्ट्रवाद का परचम लहरा दिया। कहाँ हम पीड़ित होते रहे हैं और कहाँ अब इस राष्ट्रवाद के परचम को लपेटे हम, इतराकर चल रहे थे। सामने वाले कह रहे थे कि नहीं हम भी राष्ट्रवादी हैं। जैसे पहले हम कहते थे कि हम साम्प्रदायिक नहीं हैं लेकिन वे कहते थे कि नहीं तुम हो, हमारी सुनते ही नहीं थे। अब वे कह रहे हैं कि हम भी राष्ट्रवादी हैं लेकिन उनकी कोई नहीं सुन रहा है। वे कहते थे कि तुम साम्प्रदायिक नहीं हो तो लो यह टोपी पहनो! जैसे ही हमने मना किया कि नहीं टोपी तो नहीं पहनेंगे, वे झट से उछल पड़ते, ताली बजाकर चिल्लाते कि देखो तुम साम्प्रदायिक हो। इस बार उनकी भी टोपी उतर गयी। अब हम कह रहे हैं कि बोलो – भारतमाता की जय, वे चुप हो जाते हैं और हम ताली बजा लेते हैं कि नहीं, तुम नहीं हो राष्ट्रवादी।
सारे ही धर्मनिरपेक्षता की चौकड़ी वाली चादर ओढ़े नेता, बिना चादर के ही घूम रहे हैं, कोई तिलक लगाकर घूम रहा है तो कोई सूट के ऊपर जनेऊ दिखा रहा है! राम नवमी धूमधाम से मनी, रोजे पर दावतें दिख नहीं रही हैं! हम तो बेहद खुश हैं कि हमारे ऊपर लगा साम्प्रदायिकता का दाग, राष्ट्रवाद की साबुन के एकदम धुल गया है। अब हमारी चादर झकाझक चमक रही है। मैं अक्सर कहा करती हूँ कि परिवर्तन की प्रकिया में समय लगता होगा लेकिन परिवर्तन पलक झपकते ही आ जाता है। गुलाब के पौधे पर फूल जब लगता है, तब ना जाने कितना समय लगता होगा लेकिन जब फूल खिलता है तो पलक झपकते ही खिल जाता है। मोदीजी ने पाँच साल तक कठोर तपस्या की, हमें पता ही नहीं चला की यह साम्प्रदायिकता वाला जहरीला बिच्छू कब बिल में चला गया, लेकिन जब इस चुनावी बरसात में बाहर नहीं आया तब पता लगा कि हमने क्या पाया है! मोदी-काल का सबसे बड़ा परिवर्तन यही है। साम्प्रदायिकता का दंश गायब और राष्ट्रवाद का परचम हमारे हाँथ में। कल तक हम सफाई दे रहे थे, अब वे सफाई दे रहे हैं। मैं हमेशा से कहती हूँ कि प्रतिक्रिया मत करो, हमेशा क्रिया करने के अवसर ढूंढो। प्रतिक्रिया सामने वाले को करने पर मजबूर कर दो। मोदीजी आपको नमन! आपने इतनी बड़ी गाली से हमें निजाद दिला दी। अब हम साम्प्रदायिक नहीं रहे अपितु राष्ट्रवादी बन गये हैं। साम्प्रदायिकता बिल में चले गयी है और राष्ट्रवाद परचम में लहरा रहा है।

Sunday, May 12, 2019

तीन पीढ़ी की माँ


आज सुबह से ही मन अपने अन्दर बसी माँ को ढूंढ रहा है। ढूंढते-ढूंढते कभी अपनी माँ सामने खड़ी हो जाती है, कभी अपनी बेटी सामने होती है तो कभी अपनी बहु सामने आ जाती है। तीन पीढ़ियों की तीन माँ की कहानी मेरे अन्दर है। एक माँ थी जिसे पता ही नहीं था कि दुलार क्या होता है! बस वह काम में जुती रहकर, बेटी को डर सिखाती थी। पिता का डर, भाइयों का डर, समाज का डर, दुनिया का डर, हव्वे का डर, भूत का डर। जितने डर माँ ने सिखाए उतने डर तो समय ने भी नहीं सिखाए। इस डर में दुलार कहीं खो जाता था। बस हम ही कभी उसके पेट  पर तो कभी पल्लू से लिपट जाया करते थे और हो जाता था दुलार। वह दौर ही डर का था, पिता घर में आते और सारा घर अनुशासन में आ जाता। ऐसा पता ही नहीं चलता कि अभी कुछ समय पहले तक यहाँ कितनी धमाल हुई है, लेकिन पिता के आने पर सबकुछ शान्त। आज की माँ और तब की माँ में कोई समानता नहीं है। प्यार चुप था, मुखर नहीं था। लड्डू बनते थे, हलुआ बनता था लेकिन ढिंढोरा नहीं पिटता था कि तेरे लिये बनाया है। ना माँ रोटी का कौर लेकर हमारे पीछे भागती थी और ना ही सोते समय लौरी सुनाती थी, बस कहानियाँ खूब थी। कभी राजकुमार की कहानी तो कभी चिड़िया की कहानी तो कभी ढोंगी बाबा की कहानी। बस जो भी दुलार था, यही था।
एक पीढ़ी गुजर गयी, मेरी पीढ़ी आ गयी। कुछ ज्यादा शिक्षित। बच्चों का मन समझने की पैरवी करती शिक्षा और प्रयोगों से लैस। तब नौकरी करती माँ सामने खड़ी थी, कितना समय किसको देना है, हिसाब-किताब रखती माँ थी। बच्चों की दुनिया माँ के इर्द-गिर्द रहने लगी, अब माँ  ही दोस्त थी, माँ ही शिक्षक भी थी। मेरे जैसी माँ सबकुछ सुनती, बच्चे स्कूल से आते ही ढेर सारी बातों का पिटारा साथ लाते, एक-एक बातों को बताने की जल्दी करते, माँ चुपके से उनका मन पढ़ लेती। हमने माँ से कुछ नहीं मांगा था लेकिन अब मुझसे बहुत कुछ मांगा जाता था। यही अन्तर में देख रही थी। कितना देना है, कितना नहीं देना है, अब मुझे यह अघिकार मिलने लगा था। मेरी माँ के पास भोजन का अधिकार था, कितना मिष्ठान्न देना है, कितना नहीं देना लेकिन मेरी पीढ़ी के पास बाजार के अधिकार भी आ गये थे। पूर्ण अधिकार वाली माँ के रूप में मैं खड़ी थी। मैं खुश थी कि मैं बच्चों को संस्कारित कर रही हूँ, उनके पीछे माँ का साया खड़ा है, इसलिये कोई डर उनके जीवन में आ ही नहीं सकता। मेरी माँ डर से परिचय करा रही थी और मैं डर को भगा रही थी। शायद दो पीढ़ियों का यही मूल अन्तर है।
आज तीसरी पीढ़ी मेरे सामने खड़ी है, मेरी बेटी के रूप में और मेरी पुत्रवधु के रूप में। माँ का गौरवगान बढ़ने लगा है, मातृदिवस भी मनने लगा है। मेरी माँ को पता ही नहीं था कि वही सबकुछ है, लेकिन मुझे समझ आने लगा था कि मैं भी कुछ हूँ, लेकिन आज माँ ही सबकुछ है, यह स्पष्ट होने लगा है। मेरी माँ से हम कुछ नहीं मांगते थे, मुझसे थोड़ा मांगा जाता था लेकिन अब मांग बढ़ गयी है। मांग बढ़ी है तो जिद भी बढ़ी है। डर जीवन से एकदम से रफूचक्कर हो गया है। अपने जीवन को अपने मन की इच्छाओं से मेल का समय है। संतान अपने मन के करीब जा रही है और माँ से दूर हो रही है। अब रिश्ते को बताना पड़ रहा है, पहले का मौन सा दुलार अब मुखर हो रहा है और मुखर होते-होते प्रखर वार करने लगा है।  माँ को बताना पड़ रहा है कि मैं तुम्हारी माँ हूँ, संतान से अपने रिश्ते की दुहाई देनी पड़ रही है। कभी लगने लगा है कि मनुष्य के बच्चे से अधिक अब गाय के बछड़े बन गये हैं, पैदा होते ही अपने पैरों पर खड़े हैं। अब बच्चे को माँ का पल्लू पकड़कर बैठने की फुर्सत नहीं है, वह कहानी भी नहीं सुनना चाहता, उसके पास मोबाइल है। मेरी माँ को याद करते-करते मैं खुद को देख लेती हूँ और फिर बेटी और पुत्रवधु को देख लेती हूँ। तीन पीढ़ियों की तीन माँ मेरे सामने हैं। कभी हम माँ से शिकायत करते थे कि माँ तुम हमें समय क्यों नहीं देती? फिर हम सीमित समय देने लगे लेकिन अब माँ पूछने लगी है कि बेटा क्या मेरे लिये कुछ समय है तुम्हारे पास! कल तक माँ के लिये कोई चर्चा नहीं थी लेकिन माँ परिवार में शीर्ष पर बैठी थी, आज मातृ-दिवस मनाती माँ, परिवार में कहीं नहीं है! कल दुलार मौन था और आज दुलार का दिखावा मुखर है! कल तक रिश्ते सहज थे और आज रिश्ते असहज हैं। फिर भी माँ तो है, संतान भी है, दुलार भी है, अनुशासन भी है, बस जो नाभिनाल से जुड़ाव के कारण संतान और माँ एकरूप थे आज मातृदिवस पर एक दिखायी देते हैं। लेकिन प्यार मुखर होकर खड़ा है, माँ भी खूब प्यार कर रही है और संतान भी मुखरता से कह रही है कि माँ मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। यह मुखरता कम से कम एक दिन तो मुखर होकर सुख दे ही जाती है, पहले तो एक दिन भी नहीं था।
बस आज मेरा मन ये सब ही देख पाया, तो आपको बता दिया। मैं खुश हूँ कि मैं माँ हूँ, मैं खुश हूँ कि जो भी स्त्री माँ है, वह जिम्मेदारी से पूर्ण है। यह जिम्मेदारी ही दुनिया को जिम्मेदार बनाती है। हे माँ तेरा वंदन है, अभिनन्दन है।

Friday, May 10, 2019

गाँधीजी का देश के साथ झूठ का प्रयोग!


सत्य के प्रयोग – गाँधी इन्हीं प्रयोगों के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे सत्य के प्रयोग अपने ऊपर करते रहे लेकिन वे देश के ऊपर झूठ के प्रयोग कर बैठे। मैं गाँधी की प्रशंसक रही हूँ लेकिन जब गाँधी उपनाम को लेकर चर्चा चली तब एक बात ध्यान में आयी कि यह गाँधीजी का उपनाम देने का प्रयोग तो झूठ और झांसा देने का प्रयोग था। इन्दिरा नेहरू फिरोज गंधी ( खान ) से निकाह करती है, कुछ लोग कहते हैं कि फिरोज पारसी मुसलमान थे और कहते हैं कि उनकी माँ के पीहर का व्यवसाय इत्र का था तो उनको गंधी कहते थे। लेकिन पिता का गोत्र क्या था? खैर मैं इस विवाद में नहीं पड़ती, बस फिरोज मुस्लिम थे, यह निर्विवाद सत्य है। इन्दिरा और फिरोज का निकाह हुआ, सभी जानते हैं कि मुस्लिम गैर मुस्लिम युवती से निकाह नहीं करते। इसके लिये वे पहले युवती का धर्म परिवर्तन कराते हैं. उसका नाम बदलते हैं फिर निकाह करते हैं। यहाँ भी ऐसा ही हुआ, इन्दिरा नेहरू का नाम बदल गया, मेमूना बेगम। जब गाँधीजी को इसकी खबर लगी, तब उन्होंने नेहरू को समझाया कि देश की आजादी सर पर है और तुम्हें प्रधानमंत्री बनना है, ऐसे में इन्दिरा का मुस्लिम हो जाना देश की प्रजा में असंतोष भर देगा। गाँधीजी ने फरेब किया, जनता को झांसा दिया और इन्दिरा व फिरौज का विवाह अपने समक्ष कराया। इतना ही नहीं उन्होंने अपना उपनाम भी उन्हें भेंट स्वरूप दिया। अब फिरोज गंधी या खान से बदलकर गाँधी हो गये और इन्दिरा जी भी मेमूना बेगम से हटकर इन्दिरा गाँधी हो गयी।
सत्य के प्रयोग करने वाले गाँधीजी ने देश के साथ इतना बड़ा झूठ का प्रयोग कर डाला। यह मुस्लिमों के साथ भी छल था और हिन्दुओं के साथ भी छल था। जो सच है उसे क्यों छिपाया जा रहा था? क्या गाँधीजी की नजर में मुस्लिम होना ठीक नहीं था? क्या गाँधीजी की नजर में देश में हिन्दू और मुस्लिम के बीच सौहार्द नहीं था? यदि वे इस कटु सत्य को जानते थे और उस पर पर्दा डाल रहे थे तो यह देश की जनता के साथ छल था। उन्होंने जो भ्रम की स्थिति बनाई उसका फायदा अनेक लोगों ने उठाया और लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ किया। अनेक अभिनेताओं ने यही किया, वे वास्तव में मुस्लिम थे लेकिन उन्होंने हिन्दू नाम रख लिया। लोग उन्हें श्रद्धा की नजर से देख रहे थे, उनकी पूजा कर रहे थे लेकिन वे देश को धोखा दे रहे थे। गाँधीजी का यह झूठ के साथ प्रयोग देश के लिये खतरनाक खेल  बन गया। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही एक दूसरे के प्रति बैर भाव रखने लगे क्योंकि गाँधीजी ने मुस्लिम को देशहित में छोटा सिद्ध किया था और हिन्दू के साथ छल किया था। अधिकांश हिन्दू समाज भी मुस्लिमों के साथ अविश्वास का भाव रखने लगा और जह किसी भी कौम पर अविश्वास पैदा होने लगे तब वह कौम भी आक्रामक बनकर खड़ी हो जाती है। मुस्लिम अपनी कट्टरता के कारण पहले ही देश के टुकड़े करवा चुके थे और अब अविश्वास का वातावरण उन्हें सुख की नींद नहीं लेने दे रहा था। परिणाम निकला कि वे कांग्रेस को ब्लेकमेल करने लगे। यदि तुम हमारे धार्मिक स्थलों पर जाकर सर झुकाओ तो तुम्हें वोट दें, नहीं तो नहीं दें। यदि तुम हमारी पहचान के परिधान पहनों तो तुम्हें वोट दें नहीं तो नहीं दें। ऐसे कितनी ही रोजमर्रा की ब्लेकमेलिंग  शुरू हो गयी।
इसलिये आज जो कुछ देश में हो रहा है वे सब गाँधीजी के झूठ के प्रयोग के कारण हो रहा है। उनके सारे ही श्रेष्ठ कार्य मिट्टी में मिल गये बस शेष रह गयी एक दूसरे के प्रति नफरत। जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करो, क्यों नाम बदलते हो, क्यों उपनाम बदलते हो और क्यों धर्म बदलते हो? मैंने कल भी यही कहा था कि यदि राहुल गाँधी खुद को ईसाई मानते हैं तो खुलकर कहें कि वे ईसाई हैं, यदि मुस्लिम मानते हैं तो खुलकर कहें कि मुस्लिम हैं और यदि हिदू मानते हैं तो खुलकर कहें कि हिन्दू हैं। लेकिन कभी नाम बदल लेना, कभी खुद को जेनुऊधारी बता देना, कभी टोपीधारी बता देना, यह उचित नहीं लगता। इस देश में अनेक धर्म के लोग रहते हैं, सभी को किसी भी पद पर आने का हक है तो यह छल क्यों! भावनाओं से खेलकर यदि आप गद्दी पर बैठ भी गये तो आप कैसे लोगों का दिल जीत पाएंगे! इसलिये गाँधीजी के सत्य के साथ प्रयोग ही कीजिये, झूठ के साथ प्रयोग मत करिये।

Thursday, May 9, 2019

यह ब्लेकमेलिंग नहीं तो क्या है?


यह ब्लेकमेलिंग नहीं तो क्या है? खुले आम हो रही है ब्लेकमेलिंग, सबसे ज्यादा मीडिया कर रहा है ब्लेकमेलिंग। कई दिन पुराना साक्षात्कार कल सुना, मीडिया की एक पत्रकार मोदीजी से प्रश्न करती है कि आपने मुस्लिमों के लिये क्या किया, क्यों आपसे मुस्लिम दूरी बनाकर रखते हैं?
मोदीजी ने उत्तर दिया – एक घटना बताता हूँ जब मैं मुख्यमंत्री था – सच्चर कमेटी के बारे में मीटिंग थी। मुझसे यही प्रश्न पूछा गया। मैंने कहा कि मैंने मुस्लिमों के लिये कुछ नहीं किया, लेकिन साथ में यह  भी बता देता हूँ कि मैंने हिन्दुओं के लिये भी कुछ नहीं किया। मैंने गुजरात के 5 करोड़ नागरिकों के लिये किया है।
यह प्रश्न बार-बार दोहराया जाता है, अब मुझे बताइये कि ये ब्लेकमेल नहीं है तो क्या है? अकेले किसी के लिये कोई भी शासक क्यों कुछ करेगा? यदि किसी के लिये करना पड़े तो वह कोई दवाब है जैसे बलेकमेल में होता है। यह दर्शाता है कि शासक हमें विशेष घोषित करे, यह सिद्ध करे कि उनका सम्प्रदाय शेष सम्प्रदाय से विशेष है। कोई भी शासक किसी भी सम्प्रदाय का सम्मान करे लेकिन उसका वेश धारण करके दूसरे सम्प्रदायों को गौण बताने की कोशिश करने की बाध्यता ब्लेकमेल नहीं है तो क्या है?
आखिर यह ब्लेकमेल की परम्परा कहाँ से और कब विकसित हुई? इकबाल और जिन्ना के सम्मिलित प्रयासों से यह शुरू हुई। अंग्रेज देश को 565 रियासतों में बांटना चाहते थे लेकिन सरदार पटेल के कारण यह सम्भव नहीं हो पा रहा था तो दो भागों में ही बाँट दिया। जिन्ना और इकबाल ने ब्लेकमेल की परम्परा शुरू की और इसे गाँधी और नेहरू ने अंजाम दिया।
एक बार धर्म के नाम पर ब्लेकमेलिंग शुरू होकर देश का बँटवारा हो गया तो यह परम्परा मुस्लिमों की विरासत बन गयी। हम विशेष है, केवल हमारे लिये ही सोचो, हम हज यात्रा पर जाएं तो हमें सब्सिडी दो, हमें नवाज पढ़ने की विशेष छुट्टी मिले, हमें जनसंख्या वृद्धि की छूट मिले, हमें टीकाकरण से छूट मिले, हमें बहुविवाह की छूट हो, आदि आदि अनन्त छूट इसी का हिस्सा रही। प्रशासन ब्लेकमेल होता रहा और ब्लेकमेलिंग की आदत सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती रही। आखिर मोदीजी ने लगाम लगाई। वे बोले कि मैं यदि गैस कनेस्शन दे रहा हूँ तो सभी को दे रहा हूँ, मैं यदि जनधन योजना में खाते खोल रहा हूँ तो सभी के खोल रहा हूँ, मैं यदि आयुष्मान योजना में स्वास्थ्य बीमा कर रहा हूँ तो सभी के लिये कर रहा हूँ तो ऐसे में किसी एक सम्प्रदाय के लिये ही करूँ यह स्वीकार नहीं। यह देश यदि धर्मनिरपेक्ष है तो एक सम्प्रदाय के लिये किसी योजना को इंगित करना संविधान के विरोध में जाएगा।
इसी ब्लेकमेलिंग के चलते रौल विंसी की हालत ना घर की रही और ना घाट की रही। उसे कभी अपना नाम राहुल रखना पड़ता है कभी रौल विंसी। वह आखिर दम ठोक कर क्यों नहीं कह पाता कि वह फिरोज खान का पोता है, उसकी माँ ईसाई है। वह कभी जनेऊ धारण कर लेता है, कभी टोपी पहन लेता है। रौल विंसी की ही तरह हर नेता इस ब्लेकमेलिंग का शिकार होता है। उसे मजबूर किया जाता है कि तुम्हें हमारे लिये ही बोलना होगा, हमारे परिधान पहनने होंगे।
मुझे गर्व है कि देश में एक नेता तो ऐसा आया जिसने इस ब्लेकमेलिंग को सिरे से नकार दिया। उसने कहा कि मेरे लिये सारे देशवासी एक हैं। ना मैं किसी का लिबास पहनूगा और ना ही किसी के लिये विशेष रियायत घोषित करूंगा। बस इस देश को ऐसा ही नेता चाहिये था। जिस दिन विशेष-विशेष का खेल और उससे उपजा ब्लेकमेल इस देश से मिट जाएगा, सारे देश में अमन चैन आ जाएगा। इसलिये मुझे मोदी पसन्द है, जो सीना चौड़ा करके कहते हैं कि ना मैं मुस्लिम के लिये काम करता हूँ और ना ही हिन्दू के लिये काम करता हूँ, मैं तो देश की समस्त जनता के लिये काम करता हूँ। सबका साथ – सबका विकास।

Sunday, May 5, 2019

देगची खदबदा रही है, फूटने का इंतजार भर

सेकुलर बिरादरी और मुस्लिम बुद्धिजीवी दोनों ही होच-पोच होने लगे हैं। अन्दर ही अन्दर देगची में ऐसा कुछ पक रहा है जिससे इनकी नींद उड़ी हुई है। महिलाएं आजाद होने की ओर कदम बढ़ाने लगी हैं। कभी तीन तलाक सुर्खियों में आता है तो कभी बुर्का! पुरुषों का अधिपत्य पर पत्थर फेंकना ही बाकी रह गया है बाकि तो उनके खिलाफ बगावत का बिगुल बज ही उठा है। आप कहेंगे कि मैं क्या बिना सिर-पैर की हाँक रही हूँ! लेकिन यह सच है कि महिलाएं संकेत देने लगी हैं। सऊदी अरब जैसे मुल्क में महिलाओं को आजाद किया जा रहा है तो भारत जैसे सेकुलर और हिन्दू बहुसंख्यक देश में तो देगची में से खदबदाने की आवाज आ ही जाएगी! हिन्दू दुनिया में सर्वाधिक स्वतंत्र धर्म है, यहाँ महिलाओं के ऊपर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। क्या कहा कि आप नहीं मानते! यदि प्रतिबन्ध होता तो बॉलीवुड से लेकर राजनैतिक और धार्मिक लोगों के परिवार की युवतियाँ इतनी आसानी से मुस्लिम सम्प्रदाय में निकाह नहीं कर सकती थीं। हर शिक्षित और समृद्ध युवक का निकाह हिन्दू युवती के साथ हुआ है और हो रहा है। ऐसे में मुस्लिम युवती भी बेचैनी महसूस कर रही है, वह भी आजाद होना चाहती है। लेकिन जैसे ही कोई तस्लीमा नसरीन आजादी की ओर बढ़ती हैं, उसपर परम्पराओं की बेड़ी पहनाने का काम ये प्रगतिशील बुद्धिजीवी करने लगते हैं। बॉलीवुड में मुस्लिम भरे पड़े हैं लेकिन जावेद अख्तर सरीखी मानसिकता ही सबकी है। वे सारे ही हिन्दू युवतियों से निकाह करते हैं और मुस्लिम युवतियों को मौलानाओं के रहम पर छोड़ देते हैं।
लेकिन जैसे ही मोदी ने कहा कि मैं किसी भी महिला के साथ अन्याय नहीं होने दूंगा। सभी को देश में समान आजादी होगी, बस फिर क्या था, महिलाओं को आशा की किरण दिखायी देने लगी और इन धर्म के आकाओं को अपना वजूद खतरे में पड़ता दिखायी दिया। बस रोज ही कोई ना कोई मुद्दा उछाल दिया जाता है कि हम मुस्लिम सम्प्रदाय की परम्पराओं पर आँच नहीं आने देंगे, फिर चाहे वे परम्पराएं दुनिया में कहीं भी अपना अस्तित्व नहीं बचा पायी हों! जब सारी दुनिया बुरके को प्रतिबंधित करना चाहती है, तब ऐसे में सर्वाधिक प्रगतिशील माने जाने वाले जावेद अख्तर कहते हैं कि बुरका और घूंघट दोनों ही बराबर हैं! अपने सम्प्रदाय की महिला की आजादी की बात इतने बड़े प्रगतिशील को भी नहीं भायी! यदि बुरके की आड़ में आतंकवादी अपना खेल खेल रहे हैं तो समय की मांग को देखते हुए उस पर प्रतिबंध से महिला को भी आजादी मिल जाएगी और आतंक पर भी चोट लगेगी। अब ये प्रगतिशील बुद्धिजीवी महिला को आजादी नहीं देना चाहते या आतंक को चोट नहीं देना चाहते! उन्हें इस बात का उत्तर तो देना ही होगा। तीन तलाक का मुद्दा भी ऐसे ही लोगों ने लटकाया हुआ है। जावेद अख्तर जैसी शख्सियत अपने सम्प्रदाय की वकालात तो करते हैं लेकिन महिलाओं को इंसाफ दिलाना तो दूर उनकी आजादी पर खुलेआम चोट करते हैं। ऐसे लोग डरे हुए लोग हैं, चार विवाह की सौगात जो मिली है इनको! कहीं कुछ पुरुषों का छिन ना जाए, इस बात से दहशत में हैं।
महिला समझ रही है, बगावत के लिये निकल भी पड़ी है। बस अभी देगची खदबदा रही है, पता नहीं लग रहा है कि देग में क्या पक रहा है? लेकिन बहुत जल्दी पकेगा भी और देगची को फोड़कर बाहर आएगा भी। अन्दर की बात ये लोग सब जानते हैं, इसलिये डरे हुए हैं। दबाकर रखो, मुँह सिल दो, महिला की जुर्रत नहीं होनी चाहिये कि वह जुबान खोल दे। कट्टर मौलाना ही नहीं आजाद ख्याल जावेद को भी बोलना ही पड़ेगा तभी पुरुषों की हैवानियत बच सकेगी। ये लोग महिला पर इस धरती पर तो अत्याचार कर ही रहे हैं और उस धरती पर भी 72 हूरों का ही ख्वाब दिखा रहे हैं! मतलब औरत पर अत्याचार उनकी मानसिकता में पुख्ता जम गया है। जावेद अख्तर हो या फिर कोई और, सब अपने लिये गुलाम रखने की आजादी के लिये मुस्तैद दिखायी दे रहे हैं। लेकिन जितना शोर ये मचाएंगे उतनी ही देगची पर पक रही महिलाओं की आजादी, फूटकर बाहर आएगी। ये जावेद अख्तर के रूप में सम्पूर्ण सम्प्रदाय के आकाओं का डर बाहर निकलकर आ रहा है। बस देखना यह है कि देगची फूटती कब है? जिस दिन देगची फूटेगी, उस दिन जावेद अख्तर जैसे लोग सबसे पहले लहुलुहान होंगे। बस इंतजार करिये। 

Saturday, May 4, 2019

रौल विंसी इमेज खत्म करने के अखाड़े में

कौन कहता है कि राहुल गाँधी उर्फ रौल विंसी कमअक्ल हैं? हो भी सकता है कि कमअक्ल हों लेकिन इस गुड्डे में चाबी भरने वाला जरूर अक्लवान है। मतलब यह है कि दोनों में से एक तो चतुर है ही। अब रौल विंसी कह रहे हैं कि मोदी की ताकत उनकी इमेज है, मैं इसे खत्म कर दूंगा! व्यक्ति में क्या रखा है, व्यक्ति तो हम भी है लेकिन हमारी इमेज क्या है? नक्कारखाने में तूती के समान! लेकिन मोदी की इमेज क्या है, सारे विश्व को प्रकाशित करने वाले सूर्य के समान। अब यदि रौल विंसी सूर्य के सामने बादल बनकर खड़े हो जाएं तो क्या सूर्य की इमेज खत्म हो जाएगी? कभी नहीं होगी। लेकिन उनकी सोच ठीक है, वे समझ चुके हैं कि उनकी इमेज बहुत बड़ी है और इसे कम करने के लिये झूठ दर झूठ बोलना ही होगा। वे लगातार झूठ बोल रहे हैं, अपने हर भाषण में निम्न स्तर का झूठ बोल रहे हैं, कभी ना कभी तो पत्थर पर लकीर पड़ेगी ही ना! इस चक्कर में उनकी खुद की इमेज दो कौड़ी की हो गयी है लेकिन बन्दे को चिन्ता नहीं। क्योंकि वह जानता है कि उसकी इमेज तो दौ कौड़ी की ही है तो अब और क्या कम होगी! लेकिन यदि मैंने मोदी की इमेज को दो-चार प्रतिशत भी कम कर दिया तो वाद-विवाद का विषय तो रहेगा ही और मेरे चेले-चामटों को तो भौंकने का मकसद बना ही रहेगा।
भारत में रामायण और महाभारत ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका सानी आजतक कोई नहीं है। लेकिन इनके पात्र राम और कृष्ण साक्षात महापुरुष थे तो इनकी छवि दुनिया में सूर्य जैसी ही थी। अब उस दौर में भी रौल विंसी पैदा हो गये और उनने कहा कि राम और कृष्ण की इतनी बड़ी इमेज होना घातक है, कोई दूसरा धर्म इनके आगे पनपेगा ही नहीं तो इमेज को कम करो। रामायण में सीता की अग्नि परीक्षा और वनवास जोड़ दिया और महाभारत में कृष्ण की रासलीला जोड़ दी। बस हो गया वाद-विवाद का सिलसिला शुरू। व्यक्ति सबसे पहले इमेज पर ही वार करता है। घर में देख लीजिए, कोई अच्छा व्यक्ति है तो सुनने में आ जाएगा कि क्या खाक अच्छा है, उसने ऐसा किया और वैसा किया! कोई बन्दा अच्छा रहना ही नहीं चाहिए। समाज में ऐसे निन्दक लाखों मिल जाएंगे जो बस केवल निन्दा ही करते हैं। जो किसी की इमेज खराब करने निकल पड़ा है, समझो वह शिशुपाल के अतिरिक्त कुछ नहीं है। उसने खुद सिद्ध कर दिया है कि मोदीजी का व्यक्तित्व इतना बड़ा है कि उस पर प्रायोजित प्रहार करने की जरूरत है। कुछ लोग कहते हैं कि नेहरू-गाँधी वंश की इमेज को भी खत्म करने का प्रयास निरन्तर किया गया और परिणाम स्वरूप आज कांग्रेस दूसरों की उड़ती पतंग पर केवल लंगर डाल रही है!
नेहरू-गाँधी खानदान की इमेज और मोदी की इमेज में अन्तर क्या है? जबरन कब्जाई गयी इमेज और स्वत: बनी इमेज में जो अन्तर होता है बस वही अन्तर दोनों की इमेज में है। नेहरू की अचानक ही लोटरी निकल आती है और वह भारत का चक्रवर्ती सम्राट घोषित हो जाता है, तब नेहरू के संघर्ष की कोई इमेज नहीं थी, बस अंग्रेजों और गाँधी के कारण देश की बागडोर मिल गयी थी। तब प्रारम्भ हुआ था नेहरू के द्वारा सुभाष की इमेज खत्म करने का खेल, सरदार पटेल की इमेज खत्म करने का खेल। देश के सारे ही क्रांतिकारियों की इमेज खत्म करने का खेल। इतिहास में जब भी कमजोर राजा शासन पर बैठा है तब यही खेल शुरू हुआ है। नेहरू ने यह खेल खेला, फिर अचानक ही लाल बहादुर शास्त्री पिक्चर में आ गये। उनकी इमेज बड़ी दिखने लगी। इन्दिरा जी ने फिर इमेज धोने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया। मोरारजी देसाई की इमेज बड़ी दिखने लगी तो उनकी खराब करने का खेल खेला गया। यह क्रम लगातार चलता रहा। बीच-बीच में शासक आते गये और नरसिंहाराव जैसे मौनी शासक ने भी अपनी थोड़ी बहुत इमेज बना ली तो उसे भी सोनिया गाँधी ने मिटाने के लिये रबर अपने हाथ में ले लिया। देश में चारों तरफ एक ही नाम सुनाई पड़ता है नेहरू-गाँधी खानदान।
लेकिन कब तक बौना शासक गद्दी पर बैठकर राज करता रहेगा, कभी ना कभी तो सुदृढ़ शासक आएगा ही। बस इस बार मोदी का नम्बर था। मोदी ने सारे ही रिकोर्ड तोड़ दिये। उनकी इमेज देश से निकलकर विश्व में छा गयी, सारी दुनिया उन्हें मानने लगी। यह चुनाव एकतरफा लगने लगा तो भला अमरबेल सा फलता फूलता गाँधी परिवार कैसे अपनी चाल से विलग हो जाता। उनके पास एक ही चाल है कि दूसरे की इमेज खराब करो, बस तुम्हारा काम चलता रहेगा। रौल विंसी उतर आए अखाड़े में, रोज नये झूठ के साथ। एक टोली बना ली गयी कि मैं एक झूठ उछालूंगा और तुम सारे ही जोर लगाकर हयस्या बोलना। रोज-रोज पत्थर पर रस्सा घिसोगे तो निशान पड़ेगा ही। बस जुट गये हैं रौल विंसी। लेकिन वे यह भूल गये हैं कि इमेज खऱाब करते-करते कब उनका असली चेहरा देश के सामने आ गया! वे कल तक राहुल गाँधी बनकर देश को भ्रमित कर रहे थे लेकिन अचानक ही उनके चेहरे से नकाब उतर गया और वे रौल विंसी के असली रूप में प्रकट हो गये! मोदी की इमेज तो सूर्य जैसी है लेकिन तुम्हारे पूरे खानदान की इमेज तो छद्म आवरण में लिपटी है, कभी दुनिया के एकमात्र नेहरू तुम बन जाते हो और कभी गाँधी बन जाते हो। बहुरूपिया भी संन्यासी की इमेज खत्म करने को चला है! तुम्हारा खेल तो अच्छा है लेकिन मोदी की इमेज तुम्हारे जैसी उधार की नहीं है जो खत्म हो जाए। तुम जितना पत्थर फेंकोगे आगला उन पत्थरों की सीढ़ी बनाता हुआ ऊपर चढ़ता ही जाऐगा। तुम अपना खेल जारी रखो और मोदी आकाश छूने का प्रयोग जारी रखेंगे। तुम्हारे नाम का नकाब तो उतर ही चुका है देखना कहीं नागरिकता का नकाब भी नहीं उतर जाए?

Thursday, May 2, 2019

यह कंकर वाली दाल है

मुझ जैसी महिला के लिये हर रोज सुबह एक नयी मुसीबत लेकर आती है, आप पूछेंगे कि ऐसा क्या है जो रोज आती है! सुबह नाश्ते में क्या बनेगा और दिन में खाने में क्या बनेगा, एक चिन्ता तो वाजिब ही है, क्योंकि इस चिन्ता से हर महिला गुजरती है लेकिन मेरी दूसरी चिन्ता भी साथ-साथ ही चलती है कि लेपटॉप पर क्या पकाया जाए और पाठकों को क्या परोसा जाए? राजनीति पर लिखो तो वह कढ़ी जैसी होती है, कब बासी हो जाए और कब बासी कढ़ी में उफान आ जाए? सामाजिक मुद्दे पर क्या लिखो, लोग कहने लगे हैं कि समाज माय फुट! परिवार तो मैं और मेरा बुढ्ढा में ही सिमट गया है! रोज-रोज ना खिचड़ी बनती है और ना ही मटर-पुलाव बनाया जाता है। कल एक मित्र ने लिख दिया कि मुड़-मुड़कर ना देख, मुड़-मुड़कर। अब हमारी उम्र तो मुड़-मुड़कर देखने की ही है, आगे देखते हैं तो पैरों के नीचे से धरती खिसक जाती है तो पीछे देख लेते हैं और कभी हँस देते हैं और कभी दो बूंद आँसू बहा लेते हैं। आज का सच तो यह है कि वास्तविक दुनिया लगातार हम से कुछ ना कुछ छीन रही है और यह फेसबुकीय दुनिया जिसे देख तो सकते हैं लेकिन छू नहीं सकते हैं, बहुत कुछ दे जाती है। कभी ऐसे लगता है कि हम क्रिकेट खेल रहे हैं, बल्ला हमारे हाथ में है, दुनिया के समाचार रूपी बॉल हमारे पास आती है और हम झट से बैट सम्भाल लेते हैं, कभी बॉल एक रन दे जाती है तो कभी चार और कभी पूरे छ। कभी ऐसा भी होता है कि किसी ने बॉल पकड़ ली और जोर से दे मारी विकेट पर। हम आऊट तो नहीं हुए लेकिन सामने वाले का गुस्सा टिप्पणी के रूप में हमारे विकेट को उड़ाने की हिम्मत कर लेता है। कभी प्यार से ही हमें कैच कर बैठता है तो कभी पास खड़ा विकेटकीपर ही हमारी गिल्लियां उड़ा देता है। कभी कोई ताली बजा देता है तो कभी कोई शाबासी दे देता है। कोई ऐसा भी होता है जो मन ही मन खुंदक खाता रहता है कि इसका खेल एक दिन चौपट जरूर करूंगा।
तो फेसबुकी या सोशल मीडिया की इस दुनिया में आसान कुछ नहीं है। कब अपने ही दूर हो जाते हैं और कब दूर के लोग नजदीक आ जाते हैं। जानते किसे भी नहीं लेकिन लड़ भी पड़ते हैं और लाड़ भी लड़ा लेते हैं। जिन्हें जानते हैं वे तो दूरी बनाकर ही चलते हैं और बेगाने लोग नजदीक आ जाते हैं। हम से कुछ लोग पूछ लेते हैं कि क्या करते हो? हम क्या बताएं कि हम क्या करते हैं! कह देते हैं कि कुछ-कुछ पकाते हैं। लोग समझ लेते हैं कि महिला हैं तो खाना ही पकाती होगी, उन्हें क्या पता कि ये और क्या पका रही हैं! लेकिन उनका काम भी चल गया और हमारा भी। आज भी जब कुछ पकाने का नहीं था तब भी हमने आपको पकाने का सामान ढूंढ ही लिया है। कहते हैं कि जब पकाने को कुछ ना हो तो पत्थर की भी सब्जी बना दो, बस मसाले भरपूर हों तो स्वाद आ ही जाता है। अरे, अरे, मैंने क्या लिख दिया! पत्थर की सब्जी, नहीं बाबा, पत्थर के लड्डू पर तो मोमता दीदी का अधिकार है, भला मैं पत्थर की कोई चीज कैसे पका सकती हूँ! माफ करना। लेकिन एक आराम तो हो गया हम जैसी गृहणियों को, कंकर अगर निकल आए दाल में तो कह देंगे कि मोमता दीदी की है, हमारी नहीं। यह पोस्ट रास्ते से भटकती जा रही है, कभी दाल आ जाती है हमारी बात में तो कभी कंकर। सुना है कि दाल भी
आजकल फेसबुकियों का पसंदीदा विषय है। हम तो अब परीक्षा देकर बैठे हैं, परिणाम 23 मई को आएगा तो कुछ सूझ नहीं रहा है, बस खाली बैठकर कुछ भी ठेले जा रहे हैं। आप लोग कतई मत पढ़ना। पढ़ लिया तो कंकर भी आप ढूंढ लेना और दाल का निर्णय भी आप ही कर लेना। राम-राम जी।