Thursday, December 14, 2017

सच के दो चेहरे – मुक्ति भवन फिल्म की पड़ताल

कई दिनों से मुक्ति भवन की कहानी दिमाग में घूम रही है, न जाने कितने पहलू पर विचार किया है, किसके क्या मायने हैं, समझने की कोशिश कर रही हूँ। इसी उधेड़बुन में अपनी बात लिखती हूँ, शायद हम सब मिलकर कोई नया अर्थ ही ढूंढ लें। एक फिल्म बनी है – मुक्ति भवन, वाराणसी पर है। सच्ची कहानी पर बनी है कि कैसे लोग मोक्ष की चाहना में अपने अन्तिम दिनों में वाराणसी के मुक्ति भवन में रहने चले जाते हैं और वहीं से अपनी अन्तिम यात्रा पर चले जाते हैं। एक तरफ प्रबल आसक्ति है मोक्ष की और दूसरी तरफ प्रबल विरक्ति है इस जीवन से। हमारे देश में कहा जाता है कि काशी वह जगह है जहाँ मृत्यु होने पर मोक्ष मिलता है। लोग इसी आसक्ति में अपनी अन्तिम दिनों में वाराणसी के मुक्ति भवन में चले जाते हैं। यह मुक्ति भवन 100 सालों से न जाने कितने चाहने वालों को परमधाम भेज चुका है, वाराणसी वाले लोग ज्यादा बता पाएंगे।
एक बार वृन्दावन में एक दम्पत्ती मिल गये थे, यह संस्मरण मैंने पहले भी लिखा है, वे बोले कि हम यहाँ मरने के लिये पड़े हैं। मुझे यह बात कुछ-कुछ समझ आयी लेकिन अभी फिल्म देखकर पूरी बात समझ आ रही है। हम साक्षात देखते हैं कि हमारे अन्दर जीवन के प्रति कितनी आसक्ति है, कितनी ही आयु हो जाए लेकिन मरना कोई नहीं चाहता। लेकिन मोक्ष की आसक्ति जीवन की असक्ति से कहीं बड़ी बन जाती है और हम इस जीवन को शीघ्रता से त्याग देना चाहते हैं। ऐसे लोग जीवन से, परिवार से इतने विरक्त हो जाते हैं कि कोई भी मोह उन्हें परिवार से जोड़ नहीं पाता है, बस दूर होते चले जाते हैं। सबसे बड़ी बात है कि हम अपने अहम् से भी दूर चले जाते हैं, सुख-सुविधाओं से भी दूर चले जाते हैं। जिस अहम् के लिये हम सारा जीवन राग-द्वेष पालते हैं, सुख-सुविधा जुटाते हैं उसे त्याग देना इतना आसान भी नहीं है लेकिन मोक्ष की आसक्ति भी इतनी प्रबल है कि अहम् भी कहीं पूछे छूट जाता है, अपनी आत्मा का मोह भी छूट जाता है और शेष रह जाती है परमात्मा में विलीन होने की चाहत।

मुक्ति भवन पर फिल्म क्यों बनी? क्या दुनिया को भारत की सोच दिखाने का प्रयास था या यहाँ की विभस्तता। कैसे लोग अन्तिम दिनों में पुराने जर्र-जर्र भवन में एकान्तवास काटते हैं, इसके दोनों ही पहलू हो सकते हैं। दुनिया को यह संदेश दिया जा सकता है कि आज भी कैसे मणिकर्णिका घाट जीवन्त है और मोक्ष की आस्था का स्थल बना हुआ है। या फिर वृद्धावस्था की विभिषिका दिखाकर एक कुरूप चेहरा दिखाने का मन हो। जो भी है, लेकिन सच्चाई तो है, हमारा त्याग समझने के लिये बहुत समय लगता है। सिकन्दर भी इस त्याग को समझने के लिये भारत आया था, लेकिन समझ नहीं पाया था, फिल्मकार कितने समझे हैं और कितना भुनाने की कोशिश में है, यह तो वहीं जाने लेकिन मुझे जरूर सोचने पर जरूर मजबूर कर गया। मोक्ष की आसक्ति भी नहीं रखे और बस एकान्त में सभी को भूलकर अपना जीवन प्रकृति के साथ आत्मसात करते हुए बिताने का सुख जरूर मन में है। इस जीवन में कैसे-कैसे समझौते हैं, अपने मन से दूर ले जाने के कैसे-कैसे तरीके हैं, लेकिन अपने मन के पास रहने के लिये बस एक ही तरीका है, अपने मन के साथ एकान्त में जीवन यापन। काश हम भी उस दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ कोई फैसला ले पाएं और प्रकृति के साथ घुलमिल जाएं। काश!

Tuesday, December 5, 2017

मेक्सीकन जरूरत भी हैं और चुनावी मुद्दा भी


नेता बनने के लिये एक मुद्दा चाहिए, बस ऐसा मुद्दा जो जनता को भ्रमित करने की ताकत रखता हो, बस ऐसा मुद्दा ढूंढ लीजिये और बन जाइए नेता। अमेरिका में भी भारत की तरह ही मुद्दे ढूंढे जाते हैं। भारत में मुम्बई में कहा गया कि यूपी-बिहार के लोगों के कारण मराठियों की शान में बट्टा लगता है और मराठियों के लिये बड़ा मुद्दा बन गया। जब कि असलियत में बिहारी और यूपी के भैया उनके लिये कामगार हैं और सभी उनकी सेवा चाहते हैं लेकिन मुद्दा बन गया। हम मराठी बड़े हैं और यूपी-बिहार के लोग हमारी शान में गुस्ताखी कर रहे हैं।  बड़े होने का दिखावा हर बार मुद्दा बन जाता है। कई बार आरक्षण का मुद्दा भी ऐसे ही बनता है कि हम भी आरक्षण पाते ही विशेष जाति वर्ग के दिखायी देने लगेंगे और गुजरात में मुद्दा बन गया, राजस्थान में भी बनने की ओर है। लेकिन मैं बात अभी अमेरिका की कर रही हूँ, यहाँ के मुद्दे की कर रही हूँ। ट्रम्प को नेता बनना था, उन्होंने मुद्दा बनाया मेक्सिकन को। जैसे हमारे यहाँ बंगलादेशी मुद्दा बना हुआ है लेकिन दोनो बातों में अन्तर है फिर भी मुद्दा तो है।
अमेरिका में आपको हर घर में मेक्सिकन लोग काम करते दिख जाएंगे। दिखने में भारतीयों के ज्यादा नजदीक हैं लेकिन कुछ गोरे हैं तो यहाँ के लोगों के बीच घुलमिल जाते हैं। लेकिन अमेरिकन्स को लगता है कि ये हमारे यहाँ बदनुमा दाग है और ये कैसे अमेरिकन्स की समानता कर सकते हैं! मेक्सिकन्स अधिकतर गरीब हैं और छोटे काम करते हैं लेकिन इनसे किसी प्रकार का खतरा नहीं है। सीधे लोग हैं, मेहनती लोग हैं, जैसे मुम्बई में यूपी-बिहार से दूर रहने की हिदायत कुछ नेता करते हैं और यहाँ भी इस बार के चुनाव का मुद्दा बन गया। ट्रम्प ने तो यहाँ तक कह दिया कि मैं मेक्सिको और अमेरिका के बीच दीवार खिंचवा दूंगा। लेकिन जब ट्रम्प नेता बन ही गये और राष्ट्रपति भी बन गये, तब दीवार की बात बार-बार उठती है। शेखचिल्ली की तरह मुद्दा तो बना दिया लेकिन पूरा करना असम्भव बन गया है। सच तो यह है कि कहने की बात कुछ ओर होती है और करने की कुछ ओर। यदि मेक्सिकन्स को निकाल दिया जाए तो मुद्दे की तरफदारी करने वाले लोगों को ही कठनाई हो जाएंगी। बड़ी मुश्किल से तो ये छोटे कामकाजी लोग अमेरिका को मिले हैं और अब इन्हें कैसे निकल जाने दें!

हमारे यहाँ बच्चे को रखने के लिये नैनी आयी, उसने बताया कि हम यहाँ के नागरिक बन चुके हैं। वह  बता रही थी कि 15 साल पहले हम आए थे और 5 साल बाद ही हमें ग्रीन-कार्ड मिल गया और उस समय थोक के भाव लोगों को ग्रीन-कार्ड मिले। फिर 5 साल बाद नागरिकता। क्यों मिल गयी, इतनी जल्दी? क्योंकि सभी देशों को छोटे कामगार चाहिये। साहब लोगों के लिये काम करने के लिये, होटलों में, टेक्सी के लिये और ना जाने कितने कामों के लिये। हम भारतीय जो यहाँ अमेरिका में रहते हैं, उनको ये ही लोग रहने देते हैं। ये ही हैं जिनके कारण अमेरिका में वो सब मिलता है जो हमें भारत में आदत होती है। हर प्रकार का खाना इन्हीं लोगों के कारण मिलता है। आज घर-घर में सस्ते दामों पर मेक्सीकन लोग काम करते दिख जाएंगे। इसलिये चुनाव में मुद्दा कुछ भी बना लो, अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लो, लेकिन सच तो यह है कि ये छोटे कामकाजी लोग चाहे वे मेक्सीकन हो या फिर भारतीय, उन्हीं से ही अमीर लोगों की रईसी दिखायी देती है। लेकिन प्रश्न यह है कि जब यहाँ अफ्रीकन मूल और एशिया के इतने लोग हैं तो मुद्दा केवल मेक्सीकन ही क्यों बना? मुझे लगता है कि उनकी शारीरिक बनावट ही कारण रहा होगा, क्योंकि वे भी गोर वर्ण ही हैं। अमेरिकन्स या गोरे लोगों को लगता होगा कि ये हम गोरों को नीचा दिखा रहे हैं। एक और मजेदार बात है कि यहाँ अमेरिकन कौन है, यह बात कोई नहीं जानता। जो असली अमेरिकन है उन्हें रेड-इण्डियन कहा जाता है और वे संख्या में बहुत कम है, शेष तो यूरोप के लोग हैं जो खुद को अमेरिकन कहलाते हैं। रंग के कारण अपनी पहचान बना लेते हैं, जो भी गोरे हैं फिर वे कहीं के भी हों, लोग उन्हें अमेरिकन कह लेते हैं लेकिन बेचारे भारतीय कभी भी अमेरिकन नहीं कहला पाते। बस यही मात खा जाते हैं। और मेक्सीकन छोटे कामकाजी होने के कारण मुद्दे के शिकार। खैर चुनावी मुद्दा कुछ भी रहा हो, यहाँ मेक्सीकन्स की उपस्थिति सब ओर है। सब इनके काम से खुश हैं और इनकी हर ओर जरूरत महसूस होती है। यूरोपियन्स कितना ही नाक-भौंह सिकोड़ लें लेकिन इनके बिना काम करने वाले दूसरे मिल भी नहीं सकते। बस यह मुद्दा बन गया है तो मुद्दा ही रहेगा और चुनावों में उछलता रहेगा।