Friday, March 27, 2020

बच्चों सुनाती हूँ तुमको कहानी


जब भी प्रश्न सामने खड़े हो जाते हैं हम अक्सर भूतकाल में चले जाते हैं, सोचने लगते हैं कि हमने पहले क्या किया था! हमारे बचपन में ना टीवी था, ना बाहर घूमने की इतनी आजादी! बस था केवल स्कूल और घर या फिर मौहल्ला। स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होते ही रहते थे लेकिन उनमें हिस्सा लेने की कूवत हम में नहीं थी। स्कूल में लड़कियाँ नाच रही होती और झूम-झूम कर गा रही होती कि म्हारी हथेलियाँ रे बीच छाला पड़ गया म्हारा मारूजी...... । हमारे मन में बस जाता वह गीत, कभी लड़कियाँ पेरोड़ी बनाकर कव्वाली करती तो कभी नाटक भी होता। हम सब देखते और हमारा मन भी कुलांचे मारने लगता। हम घर आते, मौहल्ले की सखी-सहेलियों से लेकर लडकों तक को एकत्र करते और फिर शुरू होता नृत्य, परोड़ी बनाना और नाटक खेलना। कभी सारे ही मौहल्ले को एकत्र कर लेते और फिर मंचन होता सारी ही कलाओं का।
हम देखते थे कि घर-घर में कहानियाँ सुनायी जाती थी, कहीं राजा-रानी थे, कहीं राम-सीता थे, कहीं श्रवण कुमार थे, कहीं चोर-सिपाही थे। ऐसे ही पौराणिक कथानकों से भरे होते थे सारे ही घर। महिलाएं भी हर बात में गीत गाती, मंगोड़ी बनानी हो तो सारा मौहल्ला एकत्र होता, पापड़ बनाने हो तो भी एकत्र होता और फिर गीत गाएं जाते। कभी भी घर से बाहर जाने का मन ही नहीं करता था, समय ही नहीं था कुछ और सोचने का। हमने कभी नहीं कहा कि हम बोर हो रहे हैं, शायद तब तक यह शब्द चलन में ही नहीं आया था!
दुनिया संकट के दौर में है, बच्चे घर में धमाचौकड़ी कर रहे हैं लेकिन उन्हें रास्ता कोई नहीं दिखा रहा है। मैं नातिन को कई  बार सिखाने की कोशिश करती हूँ कि तुम्हारी कहानी से नाटक तैयार करते हैं और तुम सब मिलकर नाटक खेलो, लेकिन लड़कियाँ रुचि नहीं लेती, पोता तो फिर कहाँ से रुचि लेगा। लेकिन अभी समय पर्याप्त है, हम उनमें रुचि जागृत कर सकते हैं। बच्चों की ऑनलाइन क्लासेस चालू हो चुकी है, मैंने कहने की कोशिश की कि दोनों माता-पिता अलग-अलग विषय के टीचर बन जाओ, अलग-अलग क्लासरूम लो और अलग-अलग ड्रेस पहनकर फन तैयार करो, बच्चों का मन लगेगा। उनकी ही किताब से कहानी लेकर नाटक तैयार कराओ, फिर मंचन करो।
कभी बागवानी का पाठ पढ़ाओ तो कभी रसोई में जा पहुँचों। जीवन से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बात से बच्चों को रूबरू कराओ। हर बात कौतुक जैसी होनी चाहिये, तभी बच्चे आनन्द लेंगे। जीवन का नया रूप या पुराना रूप वापस लाने की जरूरत है क्योंकि मोबाइल और टीवी की दुनिया से बाहर निकलकर बिना बोर हुए नया कुछ करने का समय है। अपने अन्दर के कलाकार को बाहर निकलने की जरूरत है फिर लगेगा कि घर ही सबसे प्यारा है। बचपन का यह पाठ और ये दिन हमेशा यादों में रहेंगे और फिर कभी उनके जमाने में कोई विपत्ति आयी तो वे अपने बच्चों से कहेंगे कि आओ हम बताते हैं कि कैसे दिन को आनन्ददायक बनाएं। तब बोर होने जैसे शब्द सुनायी नहीं देंगे।

Thursday, March 26, 2020

लौकी-टिण्डे-तौरई से शिकायत नहीं!


आभास हो रहा है कि सभी को घर का भोजन रास आ रहा है! लौकी-टिण्डे-तौरई पर गाज नहीं गिर रही है! मंगोड़ी, कढ़ी आदि की पैरवी करते लोग घूम रहे हैं। रायता तो खूब फैला ही रहे हैं, नहीं-नहीं बना रहे हैं! ना चाइनीज याद आ रहा है और ना इटालियन याद आ रहा है, बस ढूंढ-ढूंढकर
भारतीय भोजन याद आ रहा है। नानी-दादी के जमाने के व्यंजन याद किये जा रहे हैं। रसोई आबाद हो रही है और बाजार बन्द हो रहे हैं। बाजार का स्वाद जीभ को याद भी आ रहा होगा लेकिन फिर ध्यान आता है कि नहीं घर की सिवैया ही स्वादिष्ट हैं।
रोटी अब मालपुएं जैसी लग रही है, बल्कि यूँ कहूँ कि रोटी पिजा से बेहतर स्वाद दे रही है। बाजरे की रोटी भी याद आ रही है, मक्की की, ज्वार की, मिस्सी की, सभी मुँह में पानी ला रही है। कोई भी बच्चा तक चूँ नहीं बोल रहा है! हवा में गूँज हो रही है कि भोजन मिल रहा है, खा लो, क्या पता कल यह भी मिले या नहीं। इस चुप सी गूँज को भी लोग सुन पा रहे हैं। अब कोई नहीं कह रहा कि सब्जी में नमक कम है और मिर्ची ज्यादा पड़ गयी है, बस स्वाद है इसी का स्वर सुन रहे हैं।
कल तक कुछ पति सास की भूमिका में थे, बेचारी सास तो पुरानी बात हो चली थी लेकिन उनकी जगह पतियों ने ले ली थी, अब वे भी जिन्न की तरह बोतल में उतर गये हैं। मटर आना बन्द हो गये हैं नहीं तो पतियों के हाथ में मटर छीलने का ही काम अवश्य रहता। मटर की जगह पालक ने ले ली है। पत्नी थाली में पालक रखकर दे रही है, जरा साफ कर दो। पति को चाकू पकड़ना सिखाया जा रहा है, वह ना-नुकर करने की कोशिश कर रहा है लेकिन पत्नी कह रही है कि नहीं जी यह तो सीख ही लो, क्या पता कल क्या हो! पति डरते-डरते चाकू पकड़ रहे हैं।
बच्चे पूछ रहे हैं कि मम्मी, पापा ने चाय बनाना सीख लिया क्या? मैं बात को टाल जाती हूँ, क्योंकि जो काम फैलेगा वह चाय बनाने से अधिक होगा। घर में बैठा आदमी चाय की तलब से भी अधमरा हो रहा है लेकिन जैसे ही ख्याल आता है कि चाय बनाने में एक अदद भगोनी काम आती है, चलनी भी लगती है तो भूल जाता है चाय को। पता नहीं देश में चाय की खपत बढ़ी है या घटी है, यह तो आप सभी बता पाएंगे। लेकिन इतना जरूर है कि नखरे कम हो चले हैं।
घर की महिला को तो पहले भी घर में ही रहना था, अब भी है तो खास फरक नहीं पड़ा है। करोड़ों ऐसी महिलाएं हैं जिनने महानगर नहीं देखें हैं, रेले नहीं देखी हैं। वे पहले भी घर में रहकर मंगोड़ी-पापड़ बना रही थी, अब भी बना रही है। लेकिन अब मंगोड़ी-पापड़ बना रही महिला को सम्मान की नजर से देखा जा रहा है। महिला को हेय दृष्टि से देखना बन्द हो गया है। उसका काम महान की श्रेणी में आता जा रहा है। मैं तो इस बात से खुश हूँ कि कहीं से भी लौकी-तौरई-टिण्डे के खिलाफ आवाज सुनाई नहीं दे रही है। हमारी प्रिय सब्जियाँ सम्मान पा रही हैं। पहले घर को सम्मान मिला फिर महिला को और अब सब्जियों को। बाजार और बाहर निकलने का डर अच्छा है। डरते रहो और खुश रहो।

Wednesday, March 25, 2020

मुट्ठी बांध लें


आज रात नींद नहीं आयी, न जाने कितनों को नहीं आयी होगी! महिलाएं कुछ सोच रही होंगी और पुरुष कुछ और! मुझे सारे काम एक-एक कर याद आ रहे थे, उन्हें व्यवस्थित करने का क्रम ढूंढ रही थी। लेकिन शायद पुरुषों को चिन्ता सता रही थी कि हाय! बाहर निकलना बन्द! देश के प्रधानमंत्री के माथे पर भी चिन्ता की लकीरें थीं, वे सारे देश को बचाने के लिये चिंतित थे। उन्हें पता है कि जनता बच्चे के समान है, इस जनता को घर में बन्द रखना बहुत कठिन काम है! लेकिन वे कर रहे हैं। हम भी जानते हैं कि पूरे घर को अकेले अपने कंधों पर लादकर ले जाना कठिन काम है, हम कह उठते हैं कि नहीं, हम से नहीं हो पाएगा। लेकिन मोदीजी नहीं कह पाते। मोदीजी को देखकर हमें हौसला आता है कि नहीं जब वे पूरे देश की चिन्ता कर रहे हैं तो हम केवल अपने परिवार की चिन्ता नहीं कर सकते?
अपनी बूढ़ी होती हड्डियों को टटोलती हूँ और पूछ लेती हूँ कि कितना जोश है? इन हड्डियों में ताकत तो शेष होगी लेकिन आराम की लत भी तो लगी है जैसे हम सब में घर से बाहर निकलकर तमाशा देखने की लता पड़ी हुई है, वैसे ही हड्डियों में भी लत लगी है। ये बड़े-बड़े घर अब आफत लगने लगे हैं। बंगलों की शान-शौकत अब जी का जंजाल बन गयी है। किसी के घर में कुत्ते हैं तो कहीं दूसरे पशु! घर में काम करने वाले दो हाथ और कैसे हो पशुओं का निर्वाह! नौकर-चाकर सब अपने घरों में कैद हो गये हैं और हम अकेले ही सारी दुनिया के संघर्षों का सामना करने को तत्पर हो रहे हैं।
रात नींद तो नहीं आ रही थी, लेकिन सड़कों का सन्नाटा भी अजीब सा भय पैदा कर रहा था। गाड़ियों के शोर में सारी ही आवाजों दब जाती थी लेकिन कल रात को सन्नाटे की आवाजें भी कान में टकरा रही थीं। चारों तरफ शान्ति थी, बस कहीं दूर कुत्ता बिलबिला रहा था। रात कान के पास मच्छर भी भिनभिना गया। मच्छर का आना तो ओर भी डरा गया, क्या पता इसकी भिनभिनाहट भी आज सुनायी दी या यह रोज ही शोर मचाता है!
लगभग एक माह तक सारे ही परिवारजन एक घर में बन्द रहेंगे। जब नया सवेरा होगा तब क्या दुनिया बदल जाएगी! सारी दुनिया कितनी बेगानी सी हो गयी थी तो क्या अब अपनेपन की खुशबू आने लगेगी! मेरे जैसे कितने लोग होंगे जो अपनेपन की बातें करने को तरस जाते होंगे, अब कर लो बातें जी भर के। पता नहीं मन का अहंकार कितनों का डटा रहेगा और कितनों का रफूचक्कर हो जाएगा। "मैं ही श्रेष्ठ हूँ" यह लेकर चलने वाले लोग क्या बदल जाएंगे? बात-बात में दूसरों को ठुकराने वाले लोग क्या सच में बदल जाएंगे? दुनिया ने देखा था कि जब हम 22 तारीख को एक साथ आए थे तब लोगों की आँखे  भर आयी थीं, शायद इस एकान्त की घड़ी में हम फिर अपना लें उन अपनों को जिन्हें हमने छोटा कहकर दुत्कार दिया था! यह देश और इस देश के लोग हमारा अपना खून हैं, हम सदियों से इन्हें अलग करते गये और इनकी आँखों में पानी भरते गये, लेकिन आज फिर हाथ बढ़ाने का अवसर आया है, हम सभी की आँखों से पानी पौंछ डालें। घर-घर में विभेद दिखायी देता है, आदमी-आदमी में विभेद दिखायी देता है, बस यह विभेद कम हो जाए, हम अपना लें अपनों को। मुट्ठी बांध लें।

Monday, March 23, 2020

अपने होने के लिये कभी घण्टी ना बजानी पड़े!


इटली में लोग मर रहे हैं, घरों की बालकनी में आकर बन्द गाड़ियों में जाते शवों को देख रहे हैं फिर उन्हें लगता है कि हमें किसने अभी तक बचाकर रखा है? वे सोचने लगते हैं और जो चेहरे सामने आते हैं, वे होते हैं डॉक्टर के, पेरामेडिकल स्टाफ के, पुलिस के, आर्मी के। और फिर घर से निकाल लाते हैं बर्तन, गिटार या जो भी मिल जाए। बजाने लगते हैं, आभार में उन सबके, जो सेवा कर रहे हैं, उन्हें बचाकर रख रहे हैं। मौत का सन्नाटा चारों तरफ फैल रहा है, जब इन घण्टियों की आवाजें चारों तरफ फैलने लगती है तब और घरों से भी ताली बज उठती है, घण्टी बज जाती है। कृतज्ञता क्या होती है, मनुष्य समझने लगता है। आँख से झरझर पानी बहने लगता है, सोचता है कि देखों इन लोगों को जो हमें बचाने के लिये रात-दिन लगे हैं, खतरों से खेल रहे हैं!
कई मौहल्ले ऐसे भी होंगे जहाँ लोग थाली बजाकर बता रहे होंगे कि हम है, यहाँ हम अकेले रह गये हैं! कितना दर्दनाक दृश्य होगा वहाँ! कल तक जहाँ खुशी के तराने बज रहे थे आज वहाँ मौत का सन्नाटा पसरा है। कोई इन फरिश्तों को दुआएं दे रहे हैं और कोई अपने होने का प्रमाण दे रहे हैं। कभी चौकीदार कहता था – जागते रहो और आज लोग कह रहे हैं जगाते रहो। घर में रहो और बताते रहो।
भारत के प्रधानमंत्री ने कहा कि इतने बड़े भारत में करोड़ों लोग फरिश्ते बनकर हम सब की सेवा कर रहे हैं, सभी को कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिये 22 मार्च को शाम 5 बजे घण्टे घड़ियाल बजा दो। आजतक भगवान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने के लिये हम शंखनाद करते हैं लेकिन आज इन देवदूतों के लिये भी शंखनाद कर दो। मोदी की बात दिल को छू गयी, लोग निकल पड़े घर की छत  पर और सारे गगन को गुंजायमान कर दिया। हमने आखिर आभारी होना सीख लिया।
भारत में कम ही लोग हैं जो किसी का आभार मानते हैं, किसी को श्रेय देते हैं, अक्सर लोग दूसरे को श्रेय देने में अपनी तौहीन मानते हैं, शायद कल कुछ लोगों ने ऐसा किया भी हो लेकिन भारत के अधिकांश लोग कृतज्ञ हुए। वे सेवा करने वाले हर उस इंसान के प्रति कृतज्ञ हुए जो हमें प्रकृति की मार से बचा रहा है और हमारी सेवा कर रहा है। वातावरण में कृतज्ञता की सुगन्ध आने लगी, आँखे नम हो गयीं। आँखे उस महान मोदी के लिये भी नम हो गयी जो हमारे लिये रात-दिन लगा है, आँखे हर उस व्यक्ति के लिये नम हो गयी जो इस दुख की घड़ी में हमें सांत्वना दे रहा है। हम भूल गये थे कि दुनिया सभी के सहयोग से चलती है, हमारा अहम् बहुत छोटा है, दुनिया का साथ बहुत बड़ा है। हम अकेले दुनिया में कुछ नहीं है, सब हैं तो हम हैं। सब के लिये हमेशा ताली बजाते रहिये, सभी की पीठ थपथपाते रहिये, प्यार देते रहिये और खुशियाँ बाँटते रहिये। न जाने कब हमें घण्टी बजाकर बताना पड़ जाए कि सम्भालों हमें, हम अभी शेष हैं। बस सभी को ऐसे ही कृतज्ञता ज्ञापित करते रहिये।

Sunday, March 22, 2020

एकान्तवास की बातें


मैंने बचपन से ही स्वयं से खूब बातें की हैं, मुझे कभी एकान्त मिला ही नहीं! मैं कभी अकेली हुई ही नहीं! क्योंकि मेरे साथ मेरा मन और मेरी बातें हमेशा रहती हैं। जब भी कोई सामने नहीं होता है, मेरा मन फुदककर मेरे पास आ जाता है और बोलता है – चल बातें करें। दुनिया जहान की बाते हैं मेरे मन के पास, कभी कहता है चल अपनी ही सुध ले ले, कभी कहता है कि देख दुनिया में क्या हो रहा है! मन इस होड़ में लगा रहता है कि मैं कहीं पिछड़ ना जाऊं! दुनिया में जितनी बातें चलती हैं उनका पूरा का पूरा विश्लेषण मुझ से कराकर ही दम लेता है। वह कहता रहता है कि नहीं इस तरह से सोच, नहीं इस तरह से सोच।
अब दुनिया अपने में सिमट रही है, सारे ही अपने घरों में आ गये हैं। मानो पक्षी अपने घरों में लौट आए हों। जब पक्षी अपने घरौंदों में लौटते हैं तो जिस पेड़ पर उनका घरौंदा होता है, वहाँ कभी शाम को जाना हुआ है आपका? कितनी चहचहाट होती है वहाँ, मानो हर पक्षी होड़ में लगा है कि अपनी बात कह ली जाए! मैं तो जब भी ऐसे पेड़ों के नीचे होती हूँ तो लगता है जैसे अपने ही मन का कोलाहल सुन रही हूँ। बस सुनती रहती हूँ। अब घर भी उस पेड़ की तरह लग रहे हैं, कोलाहल से भरे हुए। सभी को कुछ कहना है, किसी को किसी की नहीं सुननी। जब हम स्कूल/कॉलेज से आते थे तो बस अपनी बहन के साथ शुरू हो जाते थे, जितना दिन भर मन के अन्दर भरा था, सब निकाल देते थे। घर में चहचहाट सी हो जाती थी। फिर नम्बर आया हमारे बच्चों का, तब भी वहीं होता था। पहले मैं, पहले मैं की रट लग जाती थी। दोनों ही बच्चे सुनाने के बेताब रहते थे। भोजन की टेबल से उठकर वे मेरी गोद में घुसने की कोशिश में रहते थे और बतियाते रहते थे। जैसे ही पतिदेव की नजर पड़ती, बोलते कि पिल्ले माँ के साथ पड़े हुए हैं।
उन दिनों सारा घर ही बातें करता था, दूसरे कमरे में सास होती, ननद  होती, देवर होते, सारे ही बतिया रहे होते। मेरा मन तब कहता कि इतना शोर है घर में, मुझ से बात करने का अवसर ही नहीं है तेरे पास! लेकिन मैं तो मन से बात करने का मौका ढूंढ ही लेती। फिर लगा कि लिखना शुरू कर दो तब मन बिल्कुल मेरे पास आकर बैठ जाता और बोलता कि मैं जो कहूँ बस वही लिखना है। मैं उसी की लिखती रहती। तब मन को ऐसा सुगम रास्ता मिल गया कि मैं जैसे ही एकान्त पाऊं और मन कह दे कि चल मेरी बात लिख! अरे बाबा यह क्या है! कुछ थम जा। चल तू बात करते रहे, क्या पता कुछ अच्छा मिल जाए।
मेरा घर तो बरसों से एकान्तवास ही है, मेरे मन का पूरी तरह से कब्जा है मुझ पर। अब तो लिखने को प्लेटफार्म भी है, बस मन बकबक करता रहता है और मैं लिखती रहती हूँ। मुझे एकान्त तो कभी मिलता  ही नहीं। मैं अपने मन के साथ हमेशा धूणी रमाए रहती हूँ। रात को जब सोने जाती हूँ तब मन को कई बार डाँटना पड़ता है कि चुप हो जा, अब सोने दे। यह भी फेसबुक की तरह रात-दिन बतियाना ही चाहता है कमबख्त! मेरे दिन तो एकान्तवास में ही कटते हैं इसलिये मैं तो मजे में हूँ, आपको भी कह रही हूँ कि अपने मन से  बतियाना सीख लो और इस एकान्तवास के मजे लूटो।

Friday, March 20, 2020

वह घर जो सपने में आता है!


मेरे सपने में मेरे बचपन का घर ही आता है, क्यों आता है? क्योंकि मैंने उस घर से बातें की थी, उसे अपना हमराज बनाया था, अपने दिल में बसाया था। जब पिता की डाँट खायी थी और जब भाई का उलाहना सुना था तब उसी घर की दीवारों से लिपटकर न जाने कितनी बार रो लेती थी। लगता था इन दीवारों में अपनापन है, ये मेरी अपनी है। कभी किसी कोने में बैठकर बड़े होने का सपना देखा था और कभी चोर-सिपाही तो कभी रसोई बनाने का खेल खेला था! अपने घर के ठण्डे से फर्श पर न जाने कितनी गर्मियों की तपन से मुक्ति पायी थी! जब बरसात सभी ओर से भिगो देती थी तब इसी की तो छाँव मिलती थी। ठण्ड में कुड़कते हुए किसी कोने में सिगड़ी की गर्माहट से यही घर तो सुखी करता था! क्यों ना सपनों में बचपन का घर आएगा!
मेरा अपना घर जो मैंने अपने सारे प्रयासों में बनाया था, कभी सपनों में नहीं आता! मैं रोज आश्चर्य करती हूँ कि कभी तो आ जाए यह भी, आखिर इसे भी तो मैंने प्यार किया है! लेकिन नहीं आता! वह किराये का मकान जो वास्तव में घर था, हमारे सपनों में आता है और जो हमारा खुद का मकान है वह हमसे सपनों में भी रूठ जाता है! शायद इसे हमने घर नहीं बनाया! हमने यहाँ बैठकर बातें नहीं की, हमने यहाँ सपने नहीं संजोएं। बस भागते रहे अपने आप से, अपनों से और अपने घर से। सुबह उठो, जैसे-तैसे तैयार हो जाओ और निकल पड़ो नौकरी के लिये! वापस आकर कहो कि चल कहीं और चलते हैं, किसी बगीचे में या किसी रेस्ट्रा में! घर तो मानो रूठ जाता था, अरे तुम्हारे पास मेरे लिये दो पल का वक्त नहीं है! मैं भी तो सारा दिन तुम्हारी बाट जोहता हूँ और तुम मेरे पास आकर बैठते तक नहीं!
बच्चे आते हैं उनके पास घूमने जाने की लिस्ट  होती है, घर फिर रूठ जाता है, कहता है कि इतने दिन बाद बच्चे आए और ये भी मेरे साथ नहीं बैठे! घर तो निर्जीव सा हो चला है, हमारी आत्माएं इसमें प्रवेश ही नहीं कर पाती हैं। घर के कान भी बहरे हो चले हैं और जुबान भी गूंगी  हो गयी है। आखिर बात करे भी तो किस से करे! घर में दो लोग रह रहे हैं अबोला सा पसरा रहता है। आखिर एक जन ही कब तक बोले, घर में सन्नाटा पसर जाता है। घर भी हमारे साथ बूढ़ा हो रहा है, थक गया है बेचारा। यह कहानी मेरे घर की नहीं है, हम सबके घर  ही कमोबेश यही कहानी है। बड़े-बड़े घर हैं लेकिन रहता कोई नहीं है, जो भी रहता है वह बातें नहीं करता, बच्चों की खिलखिल नहीं आती। दरवाजे बन्द है तो चिड़िया का गान भी नहीं आता। बस चारों तरफ खामोशी है।
आखिर कल मोदीजी ने कहा कि 60 साल वाले घर के अन्दर रहो, घर से बातें करो इसे अपना बना लो। बहुत छटपटाहट हो रही है, कैसे रहेंगे घर के अन्दर! मुझे अच्छा लग रहा है, मैं बातें करने से खुश हूँ। मैं घर की बातें लिख रही हूँ, घर को महसूस कर रही हूँ, घर को आत्मसात कर रही हूँ। सोच रही हूँ कि घर नहीं होता तो क्या होता! क्या हम  बातें कर पाएंगे? इस मकान को क्या अपना प्यारा सा घर बना पाएंगे? क्या यह घर भी हमारे सपनों में आएंगा? इस महामारी के समय प्रयास कर लो, इसे ही अपना बना लो, जो बातें कभी नहीं की थी, अब कर लो, न जाने कब किसका साथ छूट जाए! जब हम ना होंगे तो यह घर ही तो है जो हमारी कहानी कहेगा, इसलिये बातें कर लो।

Tuesday, March 17, 2020

कुछ तो अच्छा ही हो जाए!


सारी दुनिया सदमें में एक साथ आ गयी है, ऐसा अजूबा इतिहास में कहीं दर्ज नहीं है। विश्व युद्ध भी हुए लेकिन सारी दुनिया एकसाथ चिंतित नहीं हुई। आज हर घर के दरवाजे बन्द होने लगे हैं, सब एक-दूसरे का हाथ थामे बैठे हैं, पता नहीं कब हाथ पकड़ने का साथ भी छूट जाए! जो घर सारा दिन वीरान पड़े रहते थे, वृद्धजनों की पदचाप ही जहाँ सुनायी पड़ती थी अब गुलजार हो रहे हैं। न जाने कितने लोग एक-दूसरे से पीछा छुड़ाने के लिये घर से बाहर निकल जाते थे। अब वे सब एक छत के नीचे हैं। हम गृहणियां कहती दिखती थी कि घर से बाहर जाओ तो हमें भी काम की समझ आए। पति कहता था कि कहाँ जाऊँ, अरे कहीं भी जाओ, बाजार जाओ, मन्दिर जाओ, किसी दोस्त के जाओ लेकिन जाओ। अब कोई कुछ नहीं कह रहा, सब घर में बन्द हैं। ऐसा लग रहा है कि दो दुश्मनों को एक कमरे में बन्द कर दिया है कि बस तुम हो और यह घर है! अब रूठ लो, झगड़ लो या समझदारी से सुलह कर लो! बस कुछ दिन तुम ही तुम हो एक दूसरे के साथ।
दो चार दिन बाद शायद नौकरानी भी आना बन्द हो जाए फिर? तब एक झाड़ू थामेगा और दूसरा पौछा! एक सब्जी काटेगा तो दूसरा रोटी सेकेगा। मिल-जुलकर काम करने का समय आ गया लगता है! नहीं यह सब्जी अच्छी नहीं है, और कुछ अच्छा सा बनाओ, अब कोई कहता हुआ नहीं देख सकोगे! बच्चे भी कहेंगे कि देखो घर में क्या बचा है, रोटी मिल जाए तो ठीक रहे। पिजा-पाश्ता तो दूर की कोड़ी हो जाएगी! अतिथि देवोभव: की जगह अतिथि तुम मत आना, प्रमुख बात हो जाएगी।
हर आदमी दुश्मन सा लगने लगा है और वह आदमी विदेशी हो तो फिर लगता है जैसे यमराज ही भैंसे पर सवार होकर सामने खड़े हों! जिन विदेशियों का हमेशा स्वागत था, अब डर को मारे पीछा छुड़ाना चाहते हैं। खाँसी – जुकाम तो सबसे बड़ा पाप हो गया है, ऐसा पाप जिसे कोई छूना भी नहीं चाहता। कभी मन करता है कि किसी पेड़ के तने को छूकर देख लें कि कितना स्निग्ध है लेकिन तभी डर निकलकर आ जाता है, नहीं किसी को मत छूना! पता नहीं किसने इसे छुआ होगा! हर चीज में कुँवारेपन की तलाश है।
दुनिया के सामने लड़ने के भी खूब अवसर हैं और प्यार से रहने के भी। लड़कर भी कब तक  रहेंगे, धीरे-धीरे समझौता होने लगेगा और शायद प्यार ही हो जाए! लोग फिर कहेंगे कि यह कोरोना प्यार है! वकील सुपारी लेना भूल जाएंगे। जब पति-पत्नी घर से बाहर के लिये मुक्त होंगे तब साथ होंगे, एक दूसरे का हाथ पकड़कर, गिले-शिकवे भूल कर साथ होंगे। मैं तो अच्छी कल्पना ही कर लेती हूँ कि इस महामारी में शायद कुछ अच्छा हो जाए। हम साथ रहना सीख जाएं। घर में रहना सीख जाएं। एक दूसरे से बात करना सीख जाएं। एक दूसरे का साथ निभाना सीख जाएं। काम में हाथ बँटाना सीख जाएं। इस बुरे समय में कुछ तो अच्छा हो जाए।

Saturday, March 14, 2020

बन्दर भाग रहे हैं


जब पहाड़ों पर बर्फ गिरती है तब मन झूमने लगता है, मन कह उठता है कि ठण्ड थोड़े दिन और ठहर जा। झुलसाने वाली गर्मी जितनी देर से आए उतना ही अच्छा है लेकिन इस बार होली जा चुकी है लेकिन पहाड़ों पर बर्फ पड़ने की खबरे आ रही हैं। मौसम सर्द बना हुआ है। लोग प्रार्थना करने लगे हैं कि गर्मी जल्दी से आ जा! गर्मी आएगी तो कोरोना मरेगा, सर्दी रहेगी तो कोरोना फलेगा-फूलेगा!
सारा विश्व चुप हो गया है, प्रकृति की ताकत समझ आने लगी है। पर्यटक स्थलों से बन्दर शहर की ओर भाग रहे हैं! क्यों भाग रहे हैं? मनुष्य ने प्रकृति को कितना बर्बाद किया है, धीरे-धीरे समझ आ रहा है, एक-एक परते खुल रही हैं। हम घूमने जाते हैं, साथ में बिस्किट, ब्रेड. रोटी, आटा आदि सामान भी ले जाते हैं, कहीं बन्दरों को खिलाते हैं, कहीं कुत्तों को खिलाते हैं, कही मछलियों को खिलाते हैं, बड़ी शान से कहते हैं कि पुण्य कर रहे हैं। लेकिन हमें पता ही नहीं जिसे हम पुण्य कह रहे हैं, वह तो पाप है। जैसे जिहादियों को पता ही नहीं कि वे लोगों को निर्ममता से मार रहे हैं कि वे पुण्य नहीं निरा पाप है! प्रकृति का चक्र बिगाड़ रहे हैं लोग!
अब ये बन्दर घरों में उत्पात मचाएंगे क्योंकि वे जंगल में जाना भूल गये हैं, हमने बिस्किट जो खिलाएं हैं, कुत्ते आदमी के पीछे लपक रहे हैं क्योंकि हमने रोटी खिलायी है। मनुष्यों को भी हम मुफ्त की रोटी बांट रहे हैं, अब कोरोना के कारण बन्द हो रही है मुफ्त की बन्दर-बाँट तो लोग चोरी करेंगे, डाका डालेंगे, पेट तो भरेंगे ही ना! हमने आदत तो बिगाड़ दी है। अकेले अमेरिका के न्यूयार्क शहर में ही 7 लाख बच्चे सरकार के भोजन पर आश्रित हैं और अब भोजन बनाने और बाँटने का संकट पैदा हो गया है तो क्या होगा? हमारे मिड-डे-मील भी बन्द हो जाएंगे तो क्या होगा?
होटल बन्द पड़े हैं, रेस्ट्रा बन्द हैं, प्रतिदिन के वेतन भोगी कर्मचारी घर बैठ गये हैं। करोड़ों लोग बेराजगार हो रहे हैं। असली बेराजगारी तो कोरोना के कारण आ रही है। फाइव-स्टार होटल विदेशी पर्यटकों की आवाजाही बन्द होने से खाली हो रहे हैं, होटल मालिकों का करोड़ो  का नुक्सान हो रहा है लेकिन कर्मचारी का हजारों का नुक्सान भी उसे रोटी के लिये मोहताज कर देगा! हमने जो हमारे पैतृक धंधों को छोड़कर नौकरी को अपनाया था, उसके दुष्परिणाम सामने अने लगे हैं।
हमारे देश में सब कुछ है, सारे ही खाद्य पदार्थ उपलब्ध हैं लेकिन जिन देशों में कुछ नहीं होता, वे क्या करेंगे? उन देशों में लूट मची है, जिसे जितना मिल रहा है, संग्रह कर रहा है। घर में यदि एक व्यक्ति को भी कोरोना ने डस लिया तो उसे भोजन देने वाला कोई नहीं होगा! कौन रोटी देगा? क्योंकि हमें काम आता नहीं! व्यक्ति दूसरे पर निर्भर हो गया है। प्रकृति के साथ जीना सीखना होगा, स्वयं को सक्षम बनाना होगा और दूसरे जीवों को भी मुक्त रखना होगा। बन्दर को बिस्किट खिलाना पुण्य नहीं पाप है, यह समझना होगा।

Thursday, March 12, 2020

सुन रहा है ना तू?


रथ के पहिये थम गये हैं। मुनादी फिरा दी गयी है कि जो जहाँ हैं वही रुक जाएं। एक भयंकर जीव मानवता को निगलने निकल पड़ा है, उसके रास्ते में जो कोई आएगा, उसका काल बन जाएगा! सारे रास्ते सुनसान हो चले हैं। जिसे जीवन का जितना मोह है, वे सारे लोग घरों में दुबक चुके हैं, जो जीवन को खेल समझते हैं वे अभी भी वृन्दावन में होली खेल रहे हैं।
विचार आया है मन में! यह वायरस अकेले मनुष्य पर ही आक्रमण क्यों करता है? लाखों पशु हैं, पक्षी हैं लेकिन सभी तो बिना वीजा और पासपोर्ट के स्वतंत्र घूम रहे हैं। ना साइबेरिया से आने वाले पक्षी रुके हैं और ना ही पड़ोस के पशु रुके हैं! मनुष्य के अलावा कहीं कोई भय व्याप्त नहीं है। अकेला मनुष्य ही क्यों इन सूक्ष्मजीवियों के गुस्से का शिकार होता है?
मनुष्य कभी भी किसी भी प्राणी को हाथ में पकड़ लेता है और अट्टहास करता है – तुझे निगल जाऊँगा..... हा हा हा। निरीह प्राणी कुछ नहीं बोल पाता लेकिन उसका आक्रोश जन्म लेता है, छोटे से सूक्ष्मजीवी के रूप में! मनुष्य ने किसी भी प्राणी को नहीं छोड़ा, सभी के साथ दुर्व्यहार किया, सूक्ष्मजीवी बढ़ते गये और मनुष्य का जीवन संकट में घिरता गया। हर घर के भोजन की टेबल पर सज गये हैं जीव! आक्रोश बढ़ता चले गया और सूक्ष्मजीवी पनपते गये! आज एक तरफ मनुष्य खड़ा है और दूसरी तरफ सारे ही प्राणी। मानो संग्राम छिड़ गया हो! मनुष्य के पास न जाने कितने हथियार हैं लेकिन सूक्ष्मजीवियों के पास केवल स्वयं की ताकत है।
सुबह हुई हैं, मुंडेर पर बैठकर चिड़िया गान गा रही है, कोयल भी कुहकने को तैयार है, गाय रम्भा रही है लेकिन मनुष्य खामोश बैठा घर में कैद है। केवल चारों तरफ से सायं-सायं की आवाजें आ रही हैं। मानो हर शहर कुलधरा गाँव जैसे सन्नाटे में तब्दील होना चाहता है। मनुष्य ने कहीं युद्ध छेड़ रखा है, वह कह रहा है कि मेरे रंग में रंग जाओ नहीं तो बंदूक से भून डालूंगा और दूसरी तरफ सूक्ष्मजीवी आ खड़ा हुआ है। बंदूकें भी बैरक में लौट गयी हैं, मानवता को अपने ही रंग में रंगने वाले भी दुबक गये हैं बस सूक्ष्मजीवी घूम रहा है, निर्द्वन्द्व! चेतावनी दे रहे हैं कोरोना जैसे हजारों सूक्ष्मजीवी, मनुष्य होश में आ जा, हिंसा छोड़ दे, नहीं तो तू सबसे पहले काल का ग्रास बनेगा। कोई नहीं बच पाएगा! अट्टहास बदल गया है, सूक्ष्मजीवी का अट्टहास सुनायी नहीं पड़ता लेकिन जब मनुष्य का रुदन सुनाई देने लगे तब समझ लेना की कोई जीव अट्टहास कर रहा है। रथ के पहिये थम रहे हैं लेकिन सूक्षमजीवी दौड़ रहा है, भयंकर गर्जना के साथ दौड़ लगा रहा है। मनुष्य अभी भी सम्भल जा। कहीं ऐसा ना हो कि डायनोसार की तरह तू भी कल की बात हो जाए? सुन रहा है ना तू?

Thursday, March 5, 2020

चुप रहो sss तुम महिला हो!



महिला दिवस के पूर्व ही एक बात लिखना चाह रही हूँ कि आखिर एक महिला को क्या चाहिए? महिला लड़ना भी चाहती है, हारना भी चाहती है, जीतना भी चाहती है लेकिन बस यह नहीं सुनना चाहती कि चुप रहो – तुम महिला हो! हर आदमी बस एक ही बात से सारे तर्क समाप्त कर देता है कि तुम महिला हो! मैंने एक पुस्तक लिखी – अपने पिता पर। मेरे सामने एक प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया गया कि पुस्तक क्यों लिखी गयी? मुझे भी लगा कि यह प्रश्न मुझे भी स्वयं से पूछना ही चाहिये कि आखिर क्यों लिखी गयी पुस्तक? मेरी पुस्तक में एक बात और थी कि मेरी माँ कहती है कि मेरे श्रीराम चले गये? जबकि मेरे पिता परशुराम की प्रतिकृति अधिक थे लेकिन मेरी माँ ने उन्हें विदाई देते समय कहा कि मेरे श्रीराम चले गये! महिला दिवस पर इन बातों की चर्चा करना चाहती हूँ। क्यों एक परशुराम जैसा व्यक्ति पत्नी के मन में श्रीराम की छवि लेकर बैठा है और क्यों एक पुत्री ऐसे पिता पर पुस्तक लिख देती है! मेरा जन्म आजादी के बाद हुआ, महिला शिक्षा का असर सीमित था, हमारे परिवार जैसे साधारण परिवार महिलाओं के लिये उच्च शिक्षा की कल्पना तक नहीं करते थे। यदि शिक्षा भी मिल गयी तो भी उनमें पुरुषोचित स्वाभिमान भरना नहीं जानते थे। मेरे पिता ने घोषणा की कि मैं संतानों को डॉक्टर-इंजीनियर बनाऊंगा। वे बेटा और बेटी में भेद नहीं कर सके और कहते कि मेरे सारे बेटे ही हैं। उन्होंने हमारे अन्दर स्वाभिमान कूट-कूटकर भर दिया। बस यही बात किसी भी बेटी को प्रभावित करती है। पिता फिर चाहे  परशुराम हो या फिर श्रीराम, लेकिन यदि वह अपनी बेटी में स्वाभिमान भरता है तब बेटी  हमेशा ऋणि रहती है। बेटों को इस ऋण का पता नहीं होता, क्योंकि वे इस परिस्थिति से कभी गुजरे ही नहीं! वे कभी दूसरे दर्जे के नागरिक रहे ही नहीं! उन्हें पता ही नहीं कि जब कोई धारा के विपरीत कार्य करता है, किसी में स्वाभिमान भरता है तब उसकी जगह क्या होती है? कोई भी व्यक्ति जब परिवार में महिला को सम्मान देता है तब उसका कृतित्व कितना बड़ा बन जाता है!
हमारे परिवार में पिता ने महिला को उसके अधिकार दिये। माँ से झगड़ा भी किया, घर में भूचाल भी लाया गया लेकिन माँ को दोयम दर्जा नहीं दिया गया। अपनी पुत्रवधुओं को कभी भी घूंघट में नहीं रहने दिया। उन्होंने हर महिला को वे सारे ही अधिकार दिये जो एक पुरुष को प्राप्त थे। हाँ वे झगड़ा करते थे लेकिन हमें  भी झगड़े का अधिकार देते थे! उन्होंने कभी नहीं कहा कि चुप रहो, तुम महिला हो! यही बात सब से अनोखी है। आज बात-बात पर सुनने को मिलता है कि चुप रहो तुम महिला हो! मैंने कई संगठनों में काम किया लेकिन सुनने को मिल ही जाता था कि चुप रहो तुम महिला हो! इसलिये महिला दिवस  पर मेरा एक ही प्रश्न है कि क्या अभी तक हम इसी वाक्य पर अटके हैं या हम आगे बढ़ चुके हैं? मेरे पिता ने  कभी यह वाक्य नहीं कहा, इसलिये मैंने उन पर पुस्तक लिखी, आज मैंने फिर मोदी को देखा जो महिला को कभी नहीं कहते कि चुप रहो, तुम महिला हो। आज यदि कोई भी पुरुष कितना भी बड़ा बन जाए लेकिन यदि वह महिला से कहे कि चुप रहो – तुम महिला हो, तब मुझे उस पर कोई सम्मान नहीं होता। मुझे जब-जब भी ऐसा सुनने और समझने को मिला, मैंने तत्काल वहाँ से पलायन कर लिया। आप हम से झगड़िये, हमें हराने की कोशिश भी कीजिए लेकिन हारने के डर से यह मत बोलिये कि चुप रहिये – क्योंकि तुम महिला हो! मैंने बचपन में ये शब्द नहीं सुने थे, मेरे पिता ने मुझे स्वाभिमान सिखाया था। उन्होंने सिखाया था कि सब बराबर हैं। यदि किसी के पास ज्ञान है तो वह ज्ञान महिला और पुरुष में विभाजित नहीं किया जा सकता है और ना ही भाषा में। ज्ञान किसी भाषा से भी बंधा नहीं होता कि यह भाषा नहीं आती तो आपका ज्ञान, ज्ञान नहीं है। इसलिये आज महिला दिवस पर मैं अपने पिता को नमन करती हूँ जिन्होंने मुझे स्वाभिमान सिखाया। महिला को कभी मत कहिये कि "चुप रहो – क्योंकि तुम महिला हो"।
मेरे पिता इसलिये ही मेरी नजर में महान थे और मेरी माँ की नजर में इसीलिये राम थे कि उन्होंने पत्नी को कभी नहीं कहा कि चुप रहो – तुम महिला हो। मेरे लिये मोदी भी इसीलिये महान है कि वे कभी नहीं कहते कि चुप रहो क्योंकि तुम महिला हो। महिला दिवस पर मेरे लिये हर वह व्यक्ति महान है जो कभी नहीं कहता कि चुप रहो, तुम महिला हो।

Wednesday, March 4, 2020

अटकलें ही शेष हैं


हमें आखिर इतनी जल्दी क्या है? दूध को समय दीजिये तभी दही जमेगा। जल्दबाजी में या बार-बार अंगुली करने से दही नहीं जमने वाला! लेकिन हमें हथेली पर सरसों बोने की आदत पड़ गयी है। समय देना तो हम भूल ही गये हैं! हमें आखिर जल्दी किस बात की है? नहीं हमें जल्दी भी नहीं है, बस हम फालतू टाइप के लोग हैं। समय बिताने के लिये गॉसिप करते हैं हम। मोदीजी के कहा कि मैं एक दिन के लिये रविवार को सोशल मीडिया एकाउंट छोड़ूगा तो अटकलों का बाजार गर्म हो गया। जितनी सनसनी फैला सकते थे, जितने कयास लगा सकते थे, सारे ही कयास और सनसनी फैलाकर देख ली। फिर आया मोदी जी का जवाब कि एक दिन महिलाओं के नाम रहेगा उनका सोशल मीडिया! अब! चारों तरफ निराशा! लोग कह रहे हैं कि खोदा पहाड़ और निकली चुहिया!
घर के चूल्हे पर दूध चढ़ा है, सड़क पर बारात निकल रही है, बस कृष्ण की बांसुरी सुनकर जैसे गोपियाँ सुध-बुध खो जाती थी वैसे ही रसोई से निकलकर गृहिणी दौड़ पड़ी बारात देखने और दूध उबल-उबल कर नीचे गिरता रहा, पतीला जलता रहा लेकिन होश किसे! दुनिया में कितनी खबरे हैं, कितना कुछ हो रहा है, उधर कोरोना वायरस ही कहर मचा रहा है लेकिन मीडिया को और सोशल मीडिया को मोदीजी की खबर की अटकलें लगानी है! आज मोदी नाम सबसे बड़ी खबर की दुकान हो गया है! खिलाड़ी छूट गये, अभिनेता छूट गये सारे ही सेलेब्रिटी छूट गये बस मोदी की खबर होनी चाहिये। मोदी की खबर से शेयर बाजार उछलने लगता है या टूटने लगता है। हमारे पास मुद्दे ही नहीं है, बस अटकलें ही शेष हैं। ऐसा होता तो कैसा होता और ऐसा नहीं होता तो कैसा होता? सारा देश फालतू हुआ बैठा है, बस एक मोदी के सहारे सारे ही बैठे हैं। दिल्ली में बिल्ली ने खूनी पंजे गड़ा दिये हैं लेकिन हम अटकलें-अटकलें खेल रहे हैं। कोई भी संगठन समाज को बचाने के लिये आगे नहीं आ रहा है, किसी ने भी रक्षा दल नहीं बनाया है। हम सदियों से अटकलों के सहारे जी रहे हैं, कभी गुलाम बन जाते हैं, लुट जाते हैं फिर कोई मोदी जैसा आ जाता है, वापस स्वतंत्र हो जाते हैं और फिर अटकलों में जीने लगते हैं। शायद हमारी जिन्दगी ही अटकलों की मोहताज  हो गयी है। जितनी जल्दी हम अटकलों से जूझते हैं उतनी ही जल्दी यदि हम समस्या से जूझने लगे तो हम सुरक्षित हो सकेंगे। लेकिन हम नहीं कर सकेंगे! अटकलों में हम माहिर है लेकिन समस्या का सामना करने में हम बहुत पीछे हैं। समाज को एकजुट कर लो नहीं तो अटकलें लगाने के लायक भी नहीं रहोगे!