Saturday, February 28, 2009

बिटिया ने उपहार दिया, मैं नानी बन गयी

अभी 28 फरवरी का प्रारम्‍भ होने जा ही रहा था कि मेरी बिटिया ने मुझे बहुत ही सुन्‍दर उपहार दिया, एक नाजुक सी बिटिया और मैं यकायक माँ से नानी बन गयी। उसके आगमन के साथ ही डॉक्‍टर ने मुझे उसे दिखाया, उस नन्‍हीं परी ने मुस्‍करा कर, पूरी आँखों को खोल कर मेरा स्‍वागत किया। मानो कह रही हो कि नानी मैं आपके जीवन में एक नया सवेरा लेकर आ रही हूँ। बिटियाएं कितनी प्‍यारी होती हैं, उसे छूते ही मुझे लगा की मेरे अन्‍दर भी एक नव अंकुर फूट गया है। अपनी खुशियाँ, अपनों में ही वितरित की जाती हैं, अत: आप सबसे अपनी खुशियाँ बाँट रही हूँ। क्‍योंकि नानी बनना बहुत ही प्‍यारा सा अहसास होता है।

Sunday, February 22, 2009

दिल्‍ली-6 - ढूंढते रह जाओगे, कुछ नहीं पाओगे

बहुत वर्षों बाद थियटर में फिल्‍म देखनी पड़ी। आग्रह था बिटिया का, वह शुभ समाचार सुनाने वाली है तो उसकी इच्‍छा अभी सर्वोपरि है। फिर शहर में एक पुराने थियटर को नया रूप दिया गया था तो उसे भी देखने का चाव था। सोचा था कि दिल्‍ली का दिल फिल्‍म में होगा, पर यहाँ तो अपना ही दिल निकल गया। ऐसा लगा कि निदेशक को किसी भी कलाकार पर भरोसा ही नहीं था, बस सब कुछ टुकड़ों में था। अनावश्‍यक साम्‍प्रदायिकता ठूंसी गयी थी, चुनाव आ रहे हैं तो बताना तो पड़ेगा ही न कि हमारे मध्‍य कितने झगड़े हैं? हम चाहे कितने ही प्रेम से रहने का प्रयास करें ये फिल्‍म वाले और मीडिया वाले खुरंट को नोच ही लेते हैं।
बहुत पहले दूरदर्शन पर एक फिल्‍म आयी थी, वो जमाना था दूरदर्शन का। फिल्‍म का नाम था उसकी रोटी। ऊस समय घर का कमरा आस-पड़ौस से भर जाता था लेकिन जैसे ही वो फिल्‍म शुरू हुई लोग खिसकने लगे और आखिर में मैं और एक और बुद्धिजीवी ही शेष बचे। कुछ दिनों बाद धर्मयुग में एक व्‍यंग्‍य छपा - सूर्यबाला का, जिसमें लिखा था कि एक आदमी को पागल कुत्ते ने काट खाया था और डाक्‍टर ने उससे कहा कि या तो चौदह इंजेक्‍शन लगाओ या फिर शहर में चल रही फिल्‍म को देख लो। कल वो ही वाकया याद आ गया। पहली बार 200 रू। एक टिकट के बहुत खले।
गाना गेंदा फूल भी अनावश्‍यक ही ठूंसा गया था। छोटी सी प्रस्‍तुति थी, कब शुरू हुआ और कब समाप्‍त पता ही नहीं चला। निदेशक को भी विश्‍वास नहीं था कि फिल्‍म कमाल करेगी, इसलिए अन्‍त में अमिताभ की आत्‍मा को भी बुला लिया और दोनों बाप-बेटे आत्‍मा रूप में बतियाने लगे। लेकिन फिर हीरो को जीवित ही रख दिया गया। अपनी आप सब के समय की और जेब की सलामती चाहती हूँ इसलिए ही यह लिख दिया है और इससे यह भी मालूम पड़ गया होगा कि सर मुंडाते ही ओले पड़े।

Monday, February 16, 2009

अपनी लकीर को बचाएं

जीवन में लकीरे जन्म के साथ ही आपकी परछाई की तरह संगिनी बनकर रहती हैं। इनका स्वरूप कभी हाथ की साक्षात् रेखाओं में नजर आता है और कभी भाग्य रेखा बनकर ललाट पर अंकित हो जाता है। इन भाग्य रेखाओं के अतिरिक्त भी आपके व्यक्तित्व की लकीरें समय के अनुरूप घटती बढ़ती रहती हैं। जब आप अपनी लकीर को बढ़ाने में जी जान से जुटे होते हैं तभी दूसरे लोग आपकी लकीर को घटाने में ही अपने जीवन का अर्थ ढूंढ रहे होते हैं। हमारा व्यक्तित्व जीवन की अमूल्य धरोहर बनकर हमेशा हमारे साथ बना रहता है। यह हमारी परछाई की तरह ही हमेशा साथ रहता है। कभी बौना कभी विशाल और कभी बराबर। कोई आपसे पूछे कि आपके जीवन का संचय क्या है? इस प्रश्न का उत्तर धन सम्पदा के संचयन तक जाकर ही अकसर थम जाता है। लेकिन क्या सम्पदा का संचय ही जीवन के लिए पर्याप्त होता है? नहीं! संचयन तो वास्तव में व्यक्तित्व का है। लेकिन क्या व्यक्तित्व का विकास इतना आसान है?
एक दिन की घटना अकसर ही जेहन में आ जाती है, एक मीटिंग के दौरान निरूत्तर करने वाला प्रश्न जब मेरी तरफ से पूछा गया तब मेरे समीप बैठे व्यक्ति ने कहा कि आप का तो इस सदन में पक्का पट्टा हो गया। तभी मैंने कहा था कि मेरे दोस्त यह पक्का पट्टा नहीं वरन हमेशा की छुट्टी है। हुआ भी ऐसा ही। कोई नहीं चाहता कि किसी की लकीर बढे़। आपको शुरू में लगता है कि आपके साथ बहुत लोग खड़े हैं लेकिन उनको आपके व्यक्तित्व से नहीं आपसे मतलब होता है। हर आदमी को चाहिए एक पिछलग्गू। यदि आप बनने को तैयार हैं तो आप सही हैं नहीं तो आपकी लकीर को नहीं बढ़ने दिया जाएगा। आज प्रत्येक आदमी दूसरों के व्यक्तित्व की लकीरों को ही छोटा करने में लगा है। यदि हम अपना समय अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए ही उपयोग में लेंवे तो शायद अधिक उपयोगी होगा। हम बिना दूसरों की ओर देखे स्वयं को अधिक प्रभावी बना सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कुछ चिंतन अपने आपके लिए।
जब हम अपने लिए सोचते हैं तो अपनी खूबियों को आसानी से पहचान नहीं पाते, अतः प्रश्न उठता है कि हम अपनी खूबियों को कैसे पहचाने? जब हम स्वयं की खूबियों को पहचान लेते हैं तब किसी की भी लकीरों को छोटा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके लिए आवश्यक है बस थोड़े से चिंतन की। आप जिस क्षेत्र में कार्य करते हैं उसमें किस कार्य में आपको सबसे ज्यादा अच्छा लगता है, बस वहीं से प्रारम्भ कीजिए। गृहणी से लेकर उच्च शिक्षित व्यक्तियों के लिए एक समान सिद्धांत है अपने आपको पहचानने का। यदि आप गृहणी है तो आप किस में सिद्धहस्त हैं उसी पर अपना ध्यान केन्द्रित करिए। शेष दुनिया की बातों को भूल जाइए, भूल जाइए कि आपको क्या नहीं आता बस याद रखिए कि मुझे क्या श्रेष्ठ आता है। आप में धीरे-धीरे आत्मविश्वास आता जाएगा और आप अपने काम में भी निपुण होते चले जाएंगे। यह भी ध्यान रखिए कि कौन आपके वजूद को नकारने में लगे हैं। बस उनके सामने अपनी कला का प्रदर्शन अवश्य करिए। फिर देखिए जो लोग आपको कुछ नहीं समझते थे और अक्सर आपका मखौल उड़ाया करते थे वे ही लोग आपसे किनारा करने लगेंगे। अपनी नाकामियों को कभी भी अपने पर हावी मत होने दीजिए। दुनिया में इतना कुछ है जिसे हम जान नहीं सकते, ना कोई भी जान पाया है, फिर हम ही क्यों हीनभावना से ग्रसित हों?
बस सफलता के लिए और अपनी लकीर को बढ़ाने के लिए इतना आवश्यक है कि आप अपने किसी एक काम में निपुणता हासिल करें। काम फिर वह कितना ही छोटा क्यों ना हो। छोटा सा काम ही आपको महान बना देगा। लेकिन आप यह भ्रम कभी मत पालिए कि आपको लोग आपकी खूबी के लिए पसन्द करेंगे। आपको हर हाल में अपनी लकीर को तो बचाए रखना ही होगा। आपको मुट्ठी भर प्रशंसक भी मिल जाएं तो आप अपने आपको खुशकिस्मत समझिए। जैसे ही आप अपनी लकीर को बनाने में जुट जाते हैं वैसे ही दस हाथ उसे मिटाने के लिए आगे बढ़ जाते हैं। अतः अपने कदमों को सम्भाल कर रखिए, नहीं तो निराशा आपको घेर लेंगी। कोशिश कीजिए कि ऐसे लोगों से दूर कैसे रहा जाए? इस बात को भी ध्यान में रखिए कि जितनी ईर्ष्‍या आपको घेरेगी समझिए कि उतनी ही आपकी निपुणता बढ़ रही है। अतः बिना अहंकार पाले बस अपने व्यक्तित्व विकास में जी जान से जुट जाइए, अपनी खूबियों को पहचाने और उन्हें विकसित होने दें। आप की सारी बाधाएं स्वयं दूर होती चली जाएंगी।
हम अक्सर अपने प्रशंसक तलाशते हैं। अपने कार्य की उनसे प्रशंसा सुनना चाहते हैं जो उस कार्य के बारे में जानता तक नहीं। आप कल्पना कीजिए कि हमने ए बी सी डी लिखी है। अब आप उसे किस से जांच कराएंगे? निःसंदेह जिसे ए बी सी डी आती होगी। लेकिन जिसे आती ही नहीं वह भला कैसे जांच सकता है और सही और गलत का फर्क कर सकता है? अतः जिसे आपके कार्य के बारे में कुछ भी नहीं आता वह कैसे आपकी प्रशंसा कर सकता है? यदि आप का कार्य अच्छा है और एक व्यक्ति ने भी उसे पसंद किया है तो समझिए कि वह अच्छा है। श्रेष्ठ कार्य को समझने वाले अक्सर कम ही होते हैं। प्रशंसा अक्सर वे लोग करते हैं जिनकी लकीरें आपसे बहुत बड़ी हैं या जो उस कार्य क्षेत्र में नहीं हैं। अतः प्रशंसा के लोभ में अपने आपको कमजोर मत बनाइए।
आप स्वयं के बारे में चिंतन करें कि आपने अब तक क्या पाया और क्या खोया है? आप अनुभव करेंगे कि आपको 10 लोगों की नापसंदगी मिली होगी और आप निराशा में डूबे होंगे कि मेरा भविष्य क्या होगा? लेकिन तभी आपको पदोन्नति मिल जाती है। आप अपने साथियों से कहीं आगे निकल जाते हैं। यह क्या है? यह आपके कार्य का मूल्यांकन है जो जौहरी ने किया है। अतः निराश मत होइए, जहां लकीरे मिटाने वाले हाथ आपकी ओर बढ़ रहें हैं वहीं जौहरी की पारखी नजर भी आप पर लगी है। बस कार्यक्षेत्र में जुट जाइए। अपने व्यक्तित्व को कमजोर मत होने दीजिए। सिद्धांतो से व काम से समझौता नहीं। धीरे-धीरे जौहरी आपको पहचानेगा वैसे ही आप भी जौहरी को पहचान जाएंगे और अपना माल लेकर जौहरी के पास ही जांएगे। बस धैर्य रखिए, आपकी लकीर क्षितिज छू लेगी।

Saturday, February 7, 2009

वेलेन्टाइन डे और बाल विवाह

प्रेम और विवाह दो अलग-अलग सामाजिक बंधन हैं। प्रेम जहाँ स्वतः स्फूर्त एक निर्मल झरने की तरह मन से फूटा आवेग है वहीं विवाह झरने को एक धारा में बहने के लिए बनाया गया पुल। प्रेम शाश्वत सत्य है। पुरुष और नारी का आकर्षण उतना ही यथार्थ है जितना आत्मा और शरीर का बंधन। प्रेम का बीज जन्म के साथ ही शरीर में अंकुरित होता है, फलता है और उसकी सुगंध तन से निकलकर मन को सरोबार करती हुई वातावरण में फैल जाती है। जैसे कस्तूरी मृग अपनी ही गंध से बौरा जाता है वैसे ही प्रत्येक इंसान इस प्रेम के सौरभ से मदमस्त हो जाता है। और प्रारम्भ होती है उसके आकर्षण की यात्रा। एक झरना फूटकर बह निकलता है। झरने को मालूम नहीं उसका किनारा कहाँ है, बस वह तो जो भी मौज मिली उसी पर छलका और फिर बह निकला। इसी झरने के छलकने और बह निकलने का पर्व है वेलेन्टाइन डे।
इसके विपरीत समाज ने झरने को देखा, समझा और उसके फूटने के साथ ही उसे एक धारा में बांधने का प्रयास किया। वह झरना एक सम्यक नदी बनकर शान्त गति से बह चला। इसी बंधन का नाम है विवाह। और झरने के फूटने के पूर्व ही उसे एक आकार देने का नाम है बाल विवाह। झरना तो फूटेगा ही, धारा भी बहेगी, पहाड़ियों से टकराकर अपनी सहस्त्र धाराओं में बहे या फिर पूर्ण वेग के साथ एक ही धारा में समाहित हो जाए? बस इसी अंतर को अपने में कैद करने की आवश्यकता है।
आज बाल विवाह पर आपत्ति और वेलेन्टाइन डे के खुले प्रचार ने मुझे चिंतन की ओर धकेल दिया। छोटे-छोटे बच्चों के हाथ में गुलाब और कामदेव के बाण चलाते नन्हे हाथों वाले कार्ड प्रेम के इस झरने को शीघ्रता से प्रस्फुटित होने का आह्नान कर रहे हैं। स्त्री और पुरुष के सहज प्रेम का सूत्र हाथ में लिए यह ‘डे’ प्रेम की धारा को बहने के लिए छोड़ देना चाहता है और इसी के समान बाल विवाह भी झरने के फूटने के पहले ही उसे प्रेम की व्याख्या समझाता हुआ एक निर्मल वेग से बहने की छूट देता है। कहां है दोनों में अंतर? दोनो में ही सौरभ के खिलने से पूर्व का ही प्रवाह है। बस अंतर इतना है कि एक उच्छृंखलता है और एक अनुशासन। यदि हमें बाल्यकाल से ही प्रेम का पाठ पढ़ाना है तो फिर उच्छृखंल प्रेम की जगह अनुशासित प्रेम ज्यादा उपयोगी बनेगा। व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी। यदि बाल्यकाल प्रेम की आयु नहीं है तो फिर जितना विरोध बालविवाह का हो रहा है, कानून बन रहे हैं, उतना ही वेलेन्टाईन डे का भी होना चाहिए। भावनाएं भड़काने की कोई आयु नहीं, लेकिन उन भावनाओं को संयमित करने की आयु निश्चित? यह कैसा सामाजिक विरोधाभास है? हम करें तो आधुनिकता और तुम करो तो अपराध? आज इन्ही प्रश्नों के उत्तर समाज को और नवीन पीढ़ी को तलाशने चाहिएं और उपने मन को टटोलकर देखना चाहिए कि यदि वे सत्य हैं तो दूसरा गलत कैसे हैं?