Saturday, December 12, 2009

डर कैसे बस गया जीवन में?

बचपन शहर से दूर रेत के समन्‍दर के बीच व्‍यतीत हुआ। साँप और बिच्‍छू जैसे जीव रोज के ही साथी थे। वे बेखौफ कभी भी घर में अतिथी बन जाते थे। लेकिन डर पास नहीं फटकता था। घर के आसपास रेत के टीले थे, रोज शाम को सहेलियों के साथ वहाँ जाकर टीलों के ऊपर बैठते थे। कभी-कभी तो किसी एक सहेली के साथ ही जाकर बैठ जाते थे, लेकिन डर नहीं लगता था। उस जमाने में मोपेड बाजार में आयी तो घर में भी भाई ने खरीदी। हम उनकी आँख बचाकर निकल जाते सूनी सुनसान सड़क पर। चारों तरफ रेत ही रेत और बीच में काली सड़क। लेकिन फिर भी डर नहीं लगता था। सायकिल से कॉलेज जाते, रास्‍ते में कोई बदमाश छेड़ देता तो सामने तनकर खड़े हो जाते, क्‍योंकि डर नहीं था।
ऐसे ही कितने ही प्रसंग हैं जीवन के, जहाँ जीवन बिंदास होकर जीया जाता था ना कि डर के साये में। डर तो बस एक ही था और वो था पिताजी का। उनका डण्‍डा कब खाने को मिले इसका कुछ भी निश्चित समय और घटना नहीं थी। अच्‍छी बात पर भी मार पड़ सकती थी तो बुरी बात पर भी। लेकिन आज के जीवन में जब परिवार में किसी का भी डर नहीं है तब बाहर की दुनिया में हर पल डर ने आ घेरा है। बच्‍चों को हल्‍का बुखार भी आ जाए तो न जाने कौन-कौन सी बीमारियों का डर आ घेरता है। बच्‍चे या अपने कोई छोटी सी यात्रा भी कर रहे हों, तब भी यात्रा पूर्ण होने तक डर ही समाया रहता है। घर सब तरफ से सुरक्षित हैं फिर भी डर बसा रहता है। सड़क पर डर, घर पर डर, मन में डर न जाने कितने प्रकार का डर हमारे अन्‍दर आ बसा है। क्‍या हमने अनुभव से डर ही कमाया है? बचपन में डर का अनुभव नहीं था इसलिए डर भी नहीं था या कुछ और बात थी? आपको भी नाना प्रकार के डर सताते होंगे, क्‍या हम इन सबसे मुक्‍त हो सकते हैं? किस कारण से यह डर हमारे जीवन में बस गया है?

Thursday, December 10, 2009

दिसम्‍बर में आएंगे घर-घर में राम

चौंकिए मत। राम को वनवास मिला और वे जिस दिन अयोध्‍या वापस लौटे, उस दिन दीपावली मनी। कौशल्‍या के दुलारे राम, या किसी माँ के लाड़ले बेटे का आगमन दीपावली ही तो मनाता है। भारत के लाखों माँओं के लाल आज विदेशों में हैं। विदेशों में दिसम्‍बर मास में ही छुट्टियों का योग सर्वाधिक बनता है तो सारे ही लाड़ले इसी मास अपने घर आते हैं। इसलिए हम सभी के राम और लक्ष्‍मण सीता के साथ दिसम्‍बर में ही तो आ रहे हैं।
घर-घर में सफाई हो रही है, पकवान बन रहे हैं। दीपावली पर पटाखे नहीं चलाए गए थे, उन्‍हें बचाकर रखा गया है, उनको निकाल लिया गया है। शायद दीपक तो नहीं जलें लेकिन अब हर कमरे की बत्तियां रोशन होंगी। महिनों से जो कमरे बन्‍द पड़े थे उनकी सीलन भी भाग जाएगी, वहाँ ताजी हवा का झोंका जो आने वाला है। माँ नौकर-नौकरानियों को आदेश देती घूम रही है कि देखो इन दिनों में कोई छुट्टी नहीं मिलेगी। सभी को काम मन लगाकर करना है। जब भैया चले जाएंगे तब ईनाम भी मिलेगा।
फोन पर बातें हो रही हैं कि बेटा क्‍या-क्‍या बनाऊँ? पोता भी तो आ रहा है। उसे क्‍या पसन्‍द है? वह भारतीय खाना पसन्‍द करेगा? क्‍या कहा, उसे लड्डू पसन्‍द हैं, अच्‍छा बस आज ही बनाकर रखती हूँ। मैंने गाजर का हलुवा भी बना लिया है और मठरियां भी। एक लिस्‍ट तुम्‍हारे पापा को भी थमा दी है कि घर में सारा ही सामान होना चाहिए। दूध वाले को भी कह दिया है कि अब से ज्‍यादा और अच्‍छा दूध देना। लेकिन यह क्‍या, उसने तो आज ही ढेर सारा दूध ला दिया। पतिदेव से कहा कि आज ही क्‍यों ले लिया इतना दूध? वे बोले कि अरे तुम्‍हे हलुवा बनाना है ना।
पिता भी बहुत खुश हैं। बेचारी माँ कह-कहकर थक गयी कि गाड़ी का टेप पुराना हो गया है, इसमें नया लगवाओ। लेकिन खर्चे का बहाना करके ऐसी विलासिता की बाते टल ही जाती हैं। लेकिन यह क्‍या तीन दिन से गाड़ी गेराज में हैं, जितनी भी टूट-फूट है वह दुरस्‍त हो रही है। वह तो जायज है लेकिन आज फिर दिन में बिना खाना खाए ही पिताजी गायब हो गए। आकर बताया कि देखो नया सोनी का टेप लगवा कर आ रहा हूँ गाड़ी में। अब तुम देख लो कुछ और कमी तो नहीं है। माँ आश्‍चर्य से देख रही है परिवर्तन। सैकड़ों का हिसाब रखने वाले आज हजारों की भी पर्वाह नहीं कर रहे।
ऐसे ही तो नहीं मनी थी दीपावली? अपने जिगर का टुकड़ा जब पोते के साथ घर आता है तब उसका आना सच में दीपावली बन जाता है। इस दिसम्‍बर में सारी ही फ्‍लाइट भरी हुई हैं। दाम आसमान छू रहे हैं। क्‍योंकि हर घर में राम आ रहे हैं। रिश्‍तेदारों को भी उत्‍साह है, वो भी कह रहे हैं कि अब तो तभी आएंगे, जब बेटा आएगा। ये पंद्रह दिन का त्‍योहार घरों में साल में एक बार या दो साल में एकबार आता है, फिर वहीं अमावस। बस नेट पर बातें, फोन पर बातें ही रह जाती हैं। बहुत लम्‍बी पोस्‍ट हो गयी है। मुझे भी तो तैयारी करनी है, बेटे, पोते और बहु का स्‍वागत करना है। शायद अब ब्‍लोगिंग की दुनिया कुछ पीछे छूट जाए। लेकिन हम तो बारहों महिने ही साथ है ना? चलिए शायद आपके घर भी राम आ रहे हों। सभी को बधाई।

Saturday, December 5, 2009

बच्‍चों और वृद्धों के लिए डे-केयर सेंटर

कभी बचपन लड़खड़ाकर चलता था तब एक वृद्ध हाथ उसकी अंगुली पकड़ लेता था और जब कभी वृद्ध-घुटने चल नहीं पाते थे तब यौवन के सशक्‍त हाथ लाठी का सहारा देकर उन्‍हें थाम लिया करते थे। एक तरफ घर में जिद्दी दादा जी हुआ करते थे, वे जो भी चाहते थे वही घरवालों को करना पड़ता था। लेकिन तभी एक दो साल का पोता आकर उनकी मूछ खीच लेता था और दादाजी मुस्‍करा उठते थे। वही दादा कभी घोड़ी बन जाते थे और कभी पीठ पर लादकर पोते को जय कन्‍हैया लाल की करते थे। बचपन और बुढ़ापे का अन्‍तर मिट जाता था। ना दादा सख्‍त रह पाते थे और ना ही पोता जिद्दी बन पाता था।
घर का यौवन भी हँसी-खुशी इस मिलन को देखता था और अपने अर्थ-संचय के कार्यों को बिना किसी बाधा के पूरा करता था। लेकिन आज यह दृश्‍य परिवारों से गायब होते जा रहे हैं। परिवार तीन टुकड़ों में बँट गए हैं। बच्‍चे डे-केयर में रहने को मजबूर हैं क्‍योंकि जिस शहर में माता-पिता की नौकरी है, उस शहर में बच्‍चे के दादा-दादी नहीं रहते। मजबूर माता-पिता दूध पीते बच्‍चे को डे-केयर में छोड़ने को मजबूर हैं। जिस शहर में वे अपने माता-पिता को छोड़ आए हैं, उनके पास भी कोई सशक्‍त हाथ नहीं हैं। वे भी डे-केयर में रहने को मजबूर हैं। बच्‍चे, यौवन और बुढ़ापा जो कभी एक छत के नीच रहता था आज तीन हिस्‍सों में विभक्‍त हो गया है। एक दूसरे से सीखने की परम्‍परा समाप्‍त हो चली है। प्रतिदिन की यह नि:शुल्‍क पाठशाला अब घर में नहीं है। अब एक-दूसरे के लिए जीने का स्‍वर नहीं सुनाई देता।
आज ही मेरे पड़ोस में वृद्धों के लिए एक डे-केयर सेंटर की स्‍थापना हुई है। अब सारे ही वृद्ध परिवारों से निकलकर दिन में अपना समय यही गुजारेंगे। वे परिवार की समस्‍याओं से मुक्‍त हो जाएंगे और युवा पीढ़ी उनकी समस्‍याओं से मुक्‍त हो जाएगी। दोनों ही सुखी रहेंगे। लेकिन यह सुख हमें कितना एकाकी बना देगा शायद इस बात का अहसास हम सभी को है लेकिन आवश्‍यकता अविष्‍कार की जननी होती है इसलिए ही ये डे-केयर सेंटर बनते जा रहे हैं। बस हमारा मन कहीं ओर रहेगा, दिल कहीं ओर और दिमाग कहीं ओर। कितनी आसानी से हमने परिवार को तीन टुकड़ों में बाँटकर खण्डित कर दिया। किसी ने रसगुल्‍ले की परिभाषा करते हुए कहा था कि पहले रस कहा फिर गुल कहा फिर ले कहा, जालिम ने रस-गुल्‍ले के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। काश हमारे परिवार की पाठशाला पुन: स्‍थापित हो जाए।

Thursday, December 3, 2009

सादगी से भरा बंगाली विवाह

अभी 29 नवम्‍बर को एक विवाह में सम्मिलित होने भोपाल गए थे। समधियों के यहाँ लड़की की शादी थी। बारात बंगाली परिवार की थी। बारात शाम को पाँच बजे आने वाली थी तो हम सब दरवाजे पर उनके स्‍वागत के लिए आ खड़े हुए। मुझे किसी काम से दो मिनट के लिए पण्‍डाल में जाना पड़ा तो सोचा कि अभी तो बारात आएगी, नाच-गाने चलेंगे। लेकिन मैं दो मिनट में ही जब वापस आयी तो सुना कि बारात आ गयी। और यह क्‍या? ना बाजे और ना पटाखे। कुल दस लोग गाड़ियों में बैठकर दूल्‍हे के साथ आए। ना घोड़ी आयी, ना तोरण हुआ बस दूल्‍हा को तिलक लगाकर अन्‍दर ले लिया गया। आनन-फानन में ही सब हो गया। दूल्‍हा बंगाली वेशभूषा में था, धोती और कुर्ता, सर पर कलाकारी वाला लम्‍बा मुकुट। दूल्‍हा पण्‍डाल में आते ही सीधे मण्‍डप में बैठ गया और पण्डितजी ने मंत्रोचार प्रारम्‍भ कर दिए। कुछ ही देर में दुल्‍हन को चौकी पर बिठाकर चार भाई लेकर आए और दूल्‍हे के चारों तरफ घूमकर सात फेर लिए गए। फिर दोबार दूल्‍हें ने कपड़े बदले और नया धोती कुर्ता और नया ही सर पर मुकुट पहन लिया। कन्‍यादान और फेरों की रस्‍म पूरे दो घण्‍टे और चली। बहुत ही सादगी के साथ विवाह सम्‍पन्‍न हुआ। इस पोस्‍ट लिखने का कारण इतना भर है कि हमारे यहाँ विवाह में इतनी लम्‍बी बारात आती है और घोड़ी, बाजे, नाच, पटाखे इतने सब कुछ होते हैं कि लगता है कोई लाव-लश्‍कर आ रहा है। शायद यही परम्‍परा भी है कि हम लड़की को जीत कर ले जाते हैं इसलिए दरवाजे पर आते ही तोरण मारा जाता है। एक तरफ लड़की को जीतकर ले जाने की परम्‍परा है तो दूसरी तरफ इस बंगाली शादी में जीतने का भाव नहीं था। दूसरी बात जो मुझे हमेशा अखरती है कि आजकल लड़के वाले लड़की वालों को अपने शहर में बुलाकर विवाह करते हैं। ऐसा लगता है जैसे हम लड़के वालों को लड़की सौंपने जा रहे हों। इसमें ना तो लड़की जीतने का भाव है और ना ही सात्विक पाणिग्रहण का। लड़के का पिता जो पूर्व में बारात लेकर आता था, अब वह भी लड़की वालों के द्वारा किए खर्चे पर ही अपना रिसेप्‍सन कर डालता है और दरवाजे पर आकर अपने रिश्‍तेदारों और परिचितों से लिफाफे लेकर घन्‍य हुआ जाता है।
हम कहते हैं कि शिक्षा के बाद लड़कियों में सम्‍मान आएगा लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा हुआ है। शिक्षा के बाद लड़कियों में भी व्‍यापारिक भाव आ गया है। वह भी विरोध नहीं करती कि हम लड़के वाले के शहर में जाकर शादी नहीं करेंगे। लेकिन बंगाली समाज यदि विवाह की स्‍वस्‍थ परम्‍परा को निभा रहा है यह देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। लड़के वालों की तरफ से इतनी सादगी थी, कोई नखरा नहीं था, बस मन श्रद्धा से झुक गया। काश हम भी ऐसी ही शादियों की पहल करें।