Thursday, December 29, 2011

तो विदा 2011, क्‍या करें तुझे सर्दी में ही विदा करना पड़ रहा है!



बहुत दिनों से कोई पोस्‍ट नहीं लिखी गयी और इस साल ने भी अपने बोरिये-बिस्‍तर बाँध लिए। सोचा कि जाते-जाते साल में उसकी पेटी में एक कागज अपना भी और रख दिया जाए। टाइप करते हुए हाथ ठण्‍डे पड़ रहे हैं, उन्‍हें बार-बार सहलाना पड़ता है। इन दिनों बाहर बहुत रहना हुआ इस कारण कुछ नहीं लिखा गया और फिर अब ठण्‍ड ने अपना असर दिखा दिया है। आप सभी लोग भी श्री राज भाटिया जी के बुलावे पर साँपला जा आए। गन्‍ने खूब खाए गये, पिकनिक का सा अहसास हो रहा था, फोटो देखकर। गन्‍नों की मिठास हम तक भी पहुंच गयी है। जब आप लोग साँपला में मिलन कर रहे थे तब मैं भी चण्‍डीगढ़ में ही थी। बर्फ जमा देने वाली ठण्‍ड का मुकाबला कर के आ रही हूँ।
2011 अपनी अन्तिम घड़िया गिन रहा है। 2012 ने अपने नए कपड़े सिलवा लिए हैं। सारी दुनिया इस नए साल का स्‍वागत करने के‍ लिए होटलों में जुट गयी है। परिवार से दूर, होटल की छाँव में। नए साल का स्‍वागत करने के लिए स्‍वयं को खुमारी में डुबोने का भी पूरा प्रबंध कर लिया गया है। ऐसा लग रहा है जैसे हमने अपने घर के दरवाजे खोल दिए हों और खुद सुध-बुध खोकर कहीं लुढ़क गए हों। कह रहे हों, कि भाई आना है तो आ जाओ, हम तुम्‍हारे स्‍वागत में होश खो बैठे हैं। बेचारा नया साल आपके घर पर दस्‍तक दे रहा है और उसे पता लगा कि अरे सारे ही परिवारजन तो होटल में हैं। तो यह परिवार का नया साल नहीं है क्‍या? नहीं जी यह तो बाजार का नया साल है, इसलिए बाजार में ही मनेगा। अभी एक संत का प्रवचन सुना, वे कह रहे थे कि रात को 12 बजे हम कहते है कि बधाई हो, नये साल की। फिर सो जाते हैं, तभी रात को एक बजे किसी का फोन आ जाता है तो उससे गुस्‍से में कहते हैं कि आधी रात को क्‍यों फोन कर रहा है? बर्फ गिर रही है, सर्दी की मार पड़ रही है, सारी दुनिया अपने खोल में सिमटी है और हम कह रहे हैं कि नया साल आ गया!
बचपन में एक दिन आता था, जब चारों तरफ फूल खिले होते थे, मन चहक रहा होता था। प्रकृति ने मानो नए वस्‍त्र धारण किये हो। सुबह-सुबह सूरज की पहली किरण के साथ ही मिश्री और नीम की कोपल प्रसाद रूप में मिल जाती थी और कहा जाता था कि नया साल आ गया है। परिवार में ही मिठाई बनती थी और सारे ही परिवारजन एकत्र होकर नये साल की खुशियां मनाते थे। होटल नहीं थे, बाजार नहीं थे बस था तो परिवार था, अपना समाज था। मदहोशी नहीं थी, थी तो जागरूकता थी। प्रकृति को परिवर्तन का जरिया मानते थे। प्रकृति के अनुरूप ही तिथियों का निर्धारण करते थे। तब शायद हम शिक्षित नहीं थे, आज है। मुझे लगता है कि तब हम ज्ञानवान थे लेकिन आज नहीं हैं। क्‍या शिक्षित होने से केवल एक ही सोच पर चला जाता है? क्‍या अपना विवेक प्रयोग में नहीं लिया जाता? क्‍या अब परिवारों का स्‍थान होटल ले लेंगे? हम ऐसा कार्य क्‍यों नहीं कर पाते जिसमें अपना विवेक जागृत रहे। क्‍यों हम प्रत्‍येक कार्य में मदहोशी ही चाहते हैं। क्‍यों ह‍म अपने होश खो देना चाहते हैं? क्‍या जीवन में इतनी निराशा है? क्‍या जीवन में इतनी कटुता है? जो सबकुछ भुला देना चाहते हैं। खुशियां जागृत अवस्‍था में मनायी जाती हैं या मदहोशी में? ऐसे कई प्रश्‍न हैं जो मुझे परेशान करते हैं, आप के पास इनके उत्तर होंगे? तारीख के अनुसार यह मेरी इस वर्ष की अन्तिम पोस्‍ट हैं लेकिन नव-वर्ष के अनुसार अभी मार्च तक और पोस्‍ट आएंगी। जब प्रकृति गुनगुनाएगी तब हम भी गुनगुनाएंगे कि नव वर्ष आप सभी के लिए नव-प्रेरणा लेकर आए। अभी तो प्रकृति सिकुड़ी हुई है तो हम कैसे कहें कि नव-वर्ष मुबारक। खैर आप धुंध में लिपटे, बिस्‍तरों में दुबके होकर, होटल में नाच-गान के साथ ही जबरन नयेपन को आमंत्रण देंगे तो हम भी कह देंगे कि आपका जीवन ऐसे ही संघर्षों में बीते जैसे आज प्रकृति संघर्ष कर रही है। तो विदा 2011, क्‍या करें तुझे सर्दी में ही विदा करना पड़ रहा है। भारत का ज्ञान आज साथ होता तो तुझे हम बसन्‍त में विदा करते और 2012 को भी बसन्‍त में ही अपने घर भोर की बेला में घर ले आते। लेकिन अब तो क्‍या करें?   

Wednesday, December 7, 2011

मन को जानना सबसे बड़ी साधना है, क्‍या आप यह कर पाए?


दुनिया को जानने का दम्‍भ रखने वाले हम, क्‍या स्‍वयं को भी जान पाते हैं? कभी आत्‍मा को जानने का प्रयास तो कभी परमात्‍मा को खोजने का प्रयास, कभी सृष्टि को समझने का प्रयास तो कभी मानवीय जगत को परखने का प्रयास करते हुए म‍हर्षि भी कभी बोध तो कभी ज्ञान तो कभी केवल ज्ञान प्राप्‍त करने के क्रम में जीवन समर्पित कर देते हैं। लेकिन फिर भी स्‍वयं को परखने का कार्य अधूरा ही रह जाता है। हम आध्‍यात्‍म की बात करते हैं अर्थात् अपनी आत्‍मा को पहचानने की बात। लेकिन हमारे मन में किसकी चाहत है, हम क्‍या करना चाहते हैं शायद कभी समझ ही नहीं पाते। शरीर तो जैसे तैसे सध जाता है, कभी गरीबी में और कभी अमीरी में भी स्‍वयं को ढाल ही लेता है लेकिन यह जो मन है वह कभी सधता नहीं है। क्‍यों नहीं सध पाता? क्‍यों‍कि इसका हमें बोध ही नहीं है, बस भागता है, कभी इधर तो कभी उधर। हम बस सागर में गोते खा रहे हैं। मन को साधने के लिए प्रत्‍येक रिश्‍ते में बस मित्रता ही ढूंढते हैं। कहते हैं कि माँ हो तो मित्रवत, पिता हो तो मित्रवत, भाई बहन सभी मित्रवत होने चाहिए और मित्र? जब मित्र तलाशते हैं तो उनके अन्‍दर अपने मन को ढूंढते हैं। न जाने कौन सी ध्‍वनी तरंगे मन से निकल आती हैं और मन को मन से राहत मिल जाती है। मित्र बन जाते हैं। लगता है हमें सब कुछ मिल गया। लेकिन बोध की प्‍यास नहीं बुझती। मित्र तो मिल गया लेकिन अपने मन सा सारा ही कच्‍चा चिठ्ठा उड़ेलने का साहस तो अभी नहीं आया ना? बहुत कुछ भर रखा है मन ने, ना जाने कितने कलुष, कितने राग और कितने द्वेष। एक मित्र कहता है कि मुझे रिक्‍त होने दो तो दूसरा कहता है कि नाहक ही मुझे मत भरो। इस रिक्‍त होने और भरने की प्रक्रिया में मित्रता कहीं पीछे छूट जाती है। तब आपका बोध वहीं रह जाता है। जब तक मन रिक्‍त नहीं होगा तब तक बोध नहीं आ पाएंगा, ज्ञान नहीं आ पाएंगा।
स्‍वयं की जानने की प्रक्रिया वास्‍तव में बड़ी पेचीदा है, हम स्‍वयं के बारे में न जाने कितने श्रेष्‍ठ विचार रखते हैं लेकिन दुनिया हमारे बारे में एकदम विपरीत विचार रखती है। तब क्‍या करें? हमें हमारी एक भूल बहुत छोटी सी दिखायी देती है लेकिन दुनिया को वही भूल चावल का एक दाना समझ आता है। लेकिन मित्र की आँखों मे सत्‍यता होती है। हम सब चाहत रखते हैं मित्र की, लेकिन सच्‍चाई यह है कि हम मित्र तो चाहते हैं केवल स्‍वयं को रिक्‍त करने के लिए लेकिन सच्‍चाई को जानने से डरते हैं। जैसे अकस्‍मात मुसीबत आने पर आपके मुँह से आपकी मातृभाषा में ही शब्‍द निकलते हैं वैसे ही आपके अन्‍दर का छिपा हुआ गुण भी संकट के समय बाहर निकल आता है। हम स्‍वयं को निर्भीक समझते हैं लेकिन सामने सर्प आ जाने पर ही आपके साहस को पता लगता है। ऐसे ही हम समझते हैं कि हम बहुत ही विनम्र हैं लेकिन जब एक दुर्जन व्‍यक्ति आपके समक्ष हो तब आपकी परीक्षा होती है। ऐसे ही कितने बोध हैं जो नित्‍य प्रति आपको आपसे परिचय कराते हैं लेकिन हम उन्‍हें नजर अंदाज कर देते हैं। हम प्रतिदिन लोगों से सर्टिफिकेट लेने के फेर में रहते हैं। बस कोई हमारी तारीफ कर दे। इसलिए कभी मुझे लगता है कि हम चाहे सारी दुनिया की समझ रखते हों लेकिन यदि स्‍वयं के बारे में अन्‍जान हैं तो हमेशा धोखा ही खाते हैं। जीवन में कभी सुख और शान्ति का अनुभव नहीं करते।
स्‍वयं को पहचाने बिना कुछ लोग अपना कार्य क्षेत्र चुन लेते हैं। ऐसे कितने ही लोग हैं जो लेखन को अपना विषय चुनते हैं लेकिन उनके अन्‍दर लेखन के तत्‍व नहीं हैं। बस धोखा खाते हैं और असफलता का दंश भोगते हैं। कुछ सामाजिक कार्य करने का दम्‍भ रखते हैं और किसी गरीब की झोपड़ी में जाकर जब उसके टूटे प्‍याले से चाय पीनी पड़ती है तब? कुछ राजनीति में जाने की चाहत रखते हैं और जब चारों दिशाओं से प्रहार होते हैं तब आपका मन भाग खड़ा होता है। इसलिए मन की पहचान या उसका बोध करना भी एक साधना है। ले जाओ इस मन को जीवन के हर प्रसंग में, तब देखो कि वह कहाँ खुश होता है? मत डालो उस पर कोई भी बंधन। मत आडम्‍बर रचकर स्‍वयं को गुमराह करो, कि हम ऐसे हैं या वैसे हैं। हम जैसे भी हैं उस सच को सामने आने दो। जिस दिन सच सामने आ जाएगा आप जो चाहते हैं वैसे ही बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। इसलिए मित्रों स्‍वयं को जानने का प्रारम्‍भ करो तो दुनिया को भी जान जाओगे नहीं तो केवल अपनी ही नजर से दुनिया को देखते रहोंगे और फिर कहोगे कि यह दुनिया मेरे काम की नहीं। आप जैसे लाखों लोग इस दुनिया में हैं लेकिन हम नहीं खोज पा रहे हैं उन्‍हें। क्‍योंकि उस खोज का हमें ही पता नहीं। केवल आदर्श में जीना चाह रहे हैं। जो दुनिया ने आदर्श बनाए हैं बस उन्‍हें ही अपने अन्‍दर का सच समझ बैठे हैं। नहीं यह आपके अन्‍दर का सच नहीं है, आपके अन्‍दर का सच तो आपको ही खोजना है। साँप जहरीला है इसका उसे बोध है, इसलिए वह केवल दुश्‍मन पर आक्रमण करता है, कोयल मीठा बोलती है इसलिए वह बसन्‍त के आगमन पर ही कुहकती है। हम मनुष्‍य स्‍वयं को सबसे बड़ा ज्ञानी मानते हैं लेकिन दुनिया के सारे ही जीवों से अधिक अज्ञानी है। सभी को स्‍वयं का ज्ञान है बस नहीं है तो हमें ही नहीं है। हमारे अन्‍दर भी विष है, हमारे अन्‍दर भी अमृत है। लेकिन प्रयोग नहीं आता। कभी सज्‍जन को विष दे देते हैं और कभी दुर्जन को अमृत। यह प्रयोग इसलिए नहीं आता कि हम स्‍वयं को नहीं जानते हैं और जो स्‍वयं को नहीं जानता है वह भला दूसरों को कैसे जान सकता है? मुझे कौन हानि देगा और कौन लाभ, यह तभी सम्‍भव होगा जब हम स्‍वयं के मन को जानेंगे। हम केवल प्रतिक्रिया करते हैं। दूसरे की क्रिया पर प्रतिक्रिया। केवल क्रिया करके देखिए, करने दीजिए दूसरों को प्रतिक्रिया। दुनिया अच्‍छी ही लगने लगेगी। मन में आवेग आता है, हम श्रेष्‍ठ बनने के चक्‍कर में उसे दबा लेते हैं तब स्‍वस्‍थ क्रिया नहीं होती तो उस आवेग जैसा ही प्रसंग उपस्थित होने पर प्रतिक्रिया स्‍वत: बाहर आ जाती है। प्रतिक्रिया तब ही अपना वजूद स्‍थापित करती है जब आप क्रिया नहीं कर पाते। इसलिए जैसा आपका मन है वैसी ही क्रिया करिए। धीरे-धीरे स्‍वत: ही आपको आपका मन समझ आने लगेगा। अच्‍छी है या बुरी है इस पर मत जाइए, बुरी है तब भी आपकी ही है, तो उसे बाहर आने दीजिए। हमने अपने अन्‍दर बहुत कुछ समेट रखा है, उसके कारण हमारा सत्‍य कहीं छिप गया है। इसलिए स्‍वयं के बोध के लिए अंधेरों के बादल छटने जरूरी हैं। बोध होने पर ही प्रकाश होगा और प्रकाश से ही हम दुनिया को प्रकाशित कर पाएंगे। इसलिए दुनिया को जानने से पहले स्‍वयं को जानने का प्रयास ही सुख का मार्ग प्रशस्‍त करता है। स्‍वयं को स्‍वीकारने से ही मन में दूसरे ज्ञान के लिए स्‍थान बन पाएगा। इसलिए आध्‍यात्‍म की पहली सीढ़ी है स्‍वयं को पहचानो। अपने गुण को पहचानो, अपने स्‍वार्थ को पहचानो, अपनी विलासिता को पहचानो और अपने वैराग्‍य को पहचानो। बस धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कल्‍पना साकार हो जाएगी।  

Monday, November 28, 2011

क्‍या भगवान की उपाधि किसी सामान्‍य मनुष्‍य को दी जानी चाहिए?



समाचार पत्र में हम जैसे सामाजिक प्राणियों के लिए सबसे अधिक उपयोगी पेज- होता है- पेज चार। समाचार पत्र आते ही मुख्‍य पृष्‍ठ से भी अधिक उसे वरीयता मिलती है। क्‍यों? इसलिए कि उसमें शोक-संदेश होते हैं। कल ऐसे ही एक शोक-संदेश पर निगाह पड़ी, कुछ अटपटा सा लगा। बहुत देर तक मन में चिन्‍तन चलता रहा कि ऐसा लिखना कितना तार्किक है? किसी महिला का शोक-संदेश था और महिला की फोटो के नीचे लिखा था अवतरण दिनांक ---- और निर्वाण दिनांक -----। अवतरण और निर्वाण शब्‍दों का प्रयोग हम ऐसे महापुरुषों के लिए करते हैं जिनको हम कहते हैं कि ये साक्षात ईश्‍वर के अवतार हैं। इसलिए इनका धरती पर अवतरण हुआ और मृत्‍यु के स्‍थान पर निर्वाण अर्थात मोक्ष की कल्‍पना करते हैं। भारत भूमि में राम, कृष्‍ण, महावीर, बुद्ध आदि इसी श्रेणी में आते हैं। इन्‍हें हम भगवान का अवतार मानते हैं। पृथ्‍वी पर भगवान के रूप में साक्षात अनुभूति के लिए महापुरुषों के रूप में अवतरण होता है, ऐसी मान्‍यता है।
हम यह भी कह सकते हैं कि प्रत्‍येक परिवार के लिए माँ का रूप भगवान के समान होता है और इसी कारण अवतरण एवं निर्वाण शब्‍द का प्रयोग किया गया होगा। इसी संदर्भ में एक अन्‍य प्रसंग भी ध्‍यान में आता है। क्रिकेट के खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को पत्रकार भगवान कहते हैं और क्रिकेट के भगवान सचिन ऐसी उपाधि देते है। इसी प्रकार कई बार अमिताभ बच्‍चन को भी उनके प्रशंसक भगवान की उपाधि देते हैं। दक्षिणी प्रांतों के कई अभिनेताओं के तो मन्दिर भी हैं और बकायदा उनकी पूजा भी होती है। भारतीय संस्‍कृति में माना जाता है कि हम सब प्राणी भगवान का ही अंश हैं। लेकिन भगवान नहीं है। भगवान सृष्टि का निर्माता है, सम्‍पूर्ण सृष्टि का संचालन उसी के अनुरूप होता है। सृष्टि के सम्‍पूर्ण तत्‍वों का वह नियन्‍ता है। मनुष्‍य के सुख-दुख भी भगवान द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं। जब व्‍यक्ति थक जाता है, हार जाता है, दुख में डूब जाता है, तब उसके पास भगवान के समक्ष प्रार्थना करने के अतिरिक्‍त कोई आशा शेष नहीं र‍हती। यह भी अकाट्य सत्‍य है कि लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, उनके दुख दूर होते हैं। उनके मन में नवीन आशा का संचार होता है।
बच्‍चों के लिए माता, भगवान का रूप हो सकती है लेकिन समाज के लिए नहीं। यदि हमने सभी को यह उपाधि देना प्रारम्‍भ कर दिया तो भगवान का स्‍वरूप ही विकृत हो जाएगा। आप कल्‍पना कीजिए, एक बच्‍चे को भूख लगी है, वह माँ से भोजन प्राप्‍त करता है। लेकिन यदि उसके प्राणों की रक्षा की बात है तब उसे माँ के स्‍थान पर भगवान से प्रार्थना करनी पड़ेगी। इस उदाहरण में तो केवल कुछ शब्‍दों का ही उल्‍लेख है। अभी कुछ दिन पूर्व एक समाचार पढ़कर तो आश्‍चर्य की सीमा ही नहीं रही। समाचार था एक पुरुष ने संन्‍यास धारण किया और संन्‍यासी बनते ही उसने प्राण त्‍याग दिए। पहले तो मैं इसका अर्थ नहीं समझी, लेकिन फिर समझ आया कि संन्‍यासी बनकर मृत्‍यु की कामना करना भी समाज में उत्‍पन्‍न हो गया है। अन्‍त समय में संन्‍यासी बनने की ईच्‍छा व्‍यक्‍त करना और फिर संन्‍यासियों की तरह दाह-संस्‍कार करना। जैसे हमारे राजनेताओं की ईच्‍छा रहती है कि हम तिरंगे में ही श्‍मशान जाएं वैसे ही संन्‍यासी वेश में मृत्‍यु की ईच्‍छा रहती है। यह कृत्‍य भी क्‍या संन्‍यासियों की तपस्‍या को धूमिल करने वाला नहीं है?
क्‍या कोई भी खिलाड़ी अपने खेल में उत्‍कृष्‍टता के लिए सचिन से प्रार्थना करता है? या अन्‍य सामान्‍य व्‍यक्ति अपने सुख-दुख के लिए सचिन से प्रार्थना करता है। वे सब भी प्रभु के दरबार में जाते हैं। किसी अभिनेता का प्रदर्शन अच्‍छा हो इसके लिए अमिताभ बच्‍चन आशीर्वाद दे सकते हैं? कह सकते हैं कि वत्‍स तथास्‍तु। तब हम क्‍यों एक सामान्‍य व्‍यक्ति की तुलना भगवान से करने लगते हैं? एक मनोरंजन करने वाला व्‍यक्ति कैसे भगवान की उपाधि पा सकता है? गुरु नानक, दयानन्‍द सरस्‍वती, शिरड़ी बाबा आदि जिन्‍होंने समाज के लिए अवर्णनीय कार्य किए उन्‍हें हम भगवान की तरह पूजते हैं। लेकिन जो केवल मनोरंजन जगत के व्‍यक्ति हैं उन्‍हें भी हम भगवान के समकक्ष स्‍थापित कर दें तो क्‍या यह उस ईश्‍वर का अपमान नहीं है जिसे हम सृष्टि का रचयिता कहते हैं? इसलिए समाज को और पत्रकार जगत को गरिमा बनाकर रखनी चाहिए। सामान्‍य व्‍यक्ति को भगवान की उपाधि देना मुझे तो उचित कृत्‍य नहीं लगता, हो सकता है मेरा कथन सही नहीं हो। इस संदर्भ में आप सभी की मान्‍यताएं कुछ और हो। इसलिए मैंने यह विषय उठाया है कि मैं भी समाज में फैल रही इस मनोवृत्ति का कारण जान सकूं और स्‍वयं में सुधार कर सकूं। आप सभी के विचार आमन्त्रित हैं।  

Sunday, November 13, 2011

कौन है हमारा idol ( आदर्श ) व्‍यक्ति?



एक पोस्‍ट मैंने लिखी थी बाघदड़ा नेचर पार्क पर। जहाँ हम पूर्णिमा की रात में एक नेचर पार्क में थे। (पूर्ण चन्‍द्र की रात में जंगल का राग सुनो ) वहाँ बातचीत करते हुए एक प्रश्‍न आया था कि आपका आयडल कौन है? कई लोगों ने उत्तर दिया और किसी ने यह भी कहा कि हम अपने जीवन में कोई आयडल नहीं बना पाए हैं। मेरे मन में एक उत्तर था लेकिन मैंने उस समय कुछ नहीं बोला क्‍योंकि मेरा उत्तर कुछ लम्‍बा था और उस स्‍थान पर कम बोलने को कहा गया था। इसलिए आज अपनी बात कहने के लिए और आप सब की राय जानने के लिए यहाँ लिख रही हूँ।
मेरा आयडल कौन यह प्रश्‍न के उत्तर के लिए मैंने कई व्‍यक्तियों के बारे में चिंतन किया लेकिन उनका एक या अनेक विचार आपके मन में प्रेरणा जगाते हैं लेकिन दूसरे कुछ विचार निराशा का भाव जगाते हैं इसलिए मन ने उन सारे नामों को नकार दिया। मैं दुनिया के कई लोगों से प्रभावित होती हूँ, या यूँ कहना सार्थक होगा कि लोगों के कृतित्‍व या विचार से प्रभावित होती हूँ। उस कृतित्‍व या विचार को अपने अन्‍दर धारण करने का प्रयास करती हूँ। सारे ही विचार या कार्य मैं अपने जीवन में नहीं उतार पाती लेकिन वे विचार मेरे जीवन के आसपास जरूर बने रहते हैं और उन विचारों के अनुकूल ना सही लेकिन प्रतिकूल जाने से अवश्‍य रोकते हैं। शायद आपके साथ भी ऐसा होता हो। कई बार बहुत छोटी सी घटनाएं मन में अंकित हो जाती है, उस घटना में छिपा दर्शन हमारे जीवन का अंग बन जाता है। इसलिए विचारों और कार्यों का समूह मन में दस्‍तक देते हैं और वे ही हमारे आदर्श बनते हैं। जब भी हम किसी एक कृतित्‍व से किसी व्‍यक्ति को आदर्श मान लेते हैं तब वह व्‍यक्ति आवश्‍यक नहीं कि हमेशा आपका आदर्श बना रहे। वर्तमान में अन्‍ना हजारे इसका उदाहरण है। उनके एक कृतित्‍व ने उन्‍हें करोड़ों लोगों का आयडल बना दिया। इसीकारण उनके विरोधी इस छवि को धूमिल करने में लगे हैं। इस कारण कोई एक व्‍यक्ति आयडल ना होकर यदि विचारों को हम आदर्श माने तब उस विचार पर हमारा विश्‍वास बना रहेगा नहीं तो जैसे ही उस व्‍यक्ति का धूमिल चेहरा आपके समक्ष आएगा वह आदर्श विचार भी हवा हो जाएंगे।
आप या मैं किन विचारों से प्रेरित होते हैं? जिन विचारों के साथ वक्‍ता का कृतित्‍व जुड़ा होता है। फिर वह व्‍यक्ति कोई अदना सा है या विशाल व्‍यक्तित्‍व का धनी इससे अन्‍तर नहीं पड़ता है। कई उदाहरण मेरे सामने हैं। उनसे मुझे प्रेरणा मिली। एक बार का वाकया है मैं एक जनजातीय गाँव में गयी। वह गाँव शहरी विकास से कोसो दूर था। प्रकृति के साथ जीना ही वहाँ के व्‍यक्तियों को रास आया हुआ था और वे शायद विकास के स्‍वरूप को देख भी नहीं पाए थे। एक बुजुर्ग व्‍यक्ति एक खाट पर बैठे थे। मैंने प्रश्‍न किया कि बाबा आपको यहाँ क्‍या कमी लगती है? उस व्‍यक्ति ने चारों तरफ देखा और कहा कि यहाँ सब कुछ ही तो है। उसका संतोष मेरे लिए प्रेरणा का स्रोत बना। अब वह व्‍यक्ति मेरे आयडल नहीं हो सकते लेकिन वह विचार मेरे लिए आदर्श है। हमारे पास सबकुछ है लेकिन मन कहता है कि कुछ नहीं है और उस बुजुर्ग के पास कुछ नहीं था लेकिन वह कह रहा था कि सबकुछ है।
एक और घटना सुनाती हूँ, मेवाड़ में अकाल के दिन थे। पानी की बहुत ही तंगी थी। मैं पानी की तंगी के कारण पेरशान थी और इसी समय मेरी सफाई कर्मचारी ने घण्‍टी बजा दी। पानी की कमी पर उसने कहा कि हमें तो इस कमी से कोई फरक नहीं पड़ता है। क्‍योंकि हम सुबह तालाब पर जाते हैं, वहीं स्‍नान करते हैं, कपड़े धोते हैं और एक घड़ा पानी पीने के लिए ले आते हैं। मेरे हाथ वाशबेसन में बहते हुए पानी को अब रोक रहे थे। ऐसे ही मेरा एक नौकर था। सुबह नौ बजे आता था और शाम को पाँच बजे चला जाता था। हम लोग दिन में दो बजे भोजन करते थे तब उससे मैं कहती थी कि तू भी खाना खा ले। लेकिन उसने कभी खाना नहीं खाया। वह कहता था कि मैं घर से खाना खाकर आता हूँ और शाम को घर जाकर ही खाऊँगा। यदि आपके यहाँ दिन में खाने लगा तो मेरी आदत बिगड़ जाएगी। एक किस्‍सा और सुनाती हूँ, हमने जनजातीय क्षेत्र में अकाल के समय कुएँ गहरे कराने का काम किया। वनवासी से भी 25 प्रतिशत हिस्‍सा लिया गया। कुछ लोगों ने अग्रिम पैसा जमा करा दिया। लेकिन तभी वर्षा आ गयी और कुओं में पानी आ गया। हमने एक वनवासी को पैसे लौटाए तो उसने लेने से मना कर दिया। कहा कि मेरे कुए में तो पानी आ गया है अब मैं पैसे का क्‍या करूंगा आप लोग इससे परसादी कर लो।
यह सारे उदाहरण नामचीन व्‍यक्तियों के नहीं है। उन लोगों के हैं जिनका समाज में कोई स्‍थान नहीं है। लेकिन वे मेरे मानस में हमेशा बने रहते हैं। मैं इनका बार-बार उल्‍लेख भी इसीलिए करती हूँ कि इनके विचारों से मैं प्रेरित हो सकूं। इन जैसे ढेर सारे उदाहरण है जिनने मेरे मस्तिष्‍क पर दस्‍तक दी। मैंने अपनी लघुकथा संग्रह में इनपर लिखा भी है। इसके विपरीत कई ऐसे बड़े नाम भी हैं जिनका कृतित्‍व निश्चित ही प्रभावित करता है लेकिन वे प्रभावित नहीं कर पाते और ना ही दिल में अंकित हो पाते हैं। क्‍योंकि आज जितने भी बड़े नाम हैं उनके विचारों और कृतित्‍व में कहीं अन्‍तर दिखायी देता है जबकि इन गरीब लोगों के विचार और आचरण में कोई अन्‍तर नहीं है। ये विचार ही उनकी जीवन शैली है। इसलिए जब भी यह प्रश्‍न मेरे समक्ष यक्ष प्रश्‍न सा उपस्थित होता है, मेरे समक्ष न जाने कितने चेहरे जो समाज में कहीं नहीं हैं, वे ही दिखायी दे जाते हैं। सारे ही बड़े नाम मेरे सामने गौण हो जाते हैं। प्रतिदिन ही कोई न कोई विचार हमें प्रभावित कर जाता है और हम उसे अपने मन और मस्तिष्‍क दोनों में अंकित कर लेते हैं। जब ये विचार मन में अंकित हो जाते हैं तब वे हमारी पूंजी बन जाते हैं। जैसे पूंजी को हम प्रतिदिन उपयोग में नहीं लाते हैं लेकिन वे हमारे साथ रहती है। इसलिए मेरे पास इस प्रश्‍न का उत्तर नहीं है कि मेरा आयडल कौन है? या मेरा गुरू कौन है? क्‍योंकि गुरू भी ऐसा ही व्‍यक्तित्‍व है जो कभी एक नहीं हो सकता। न जाने हम  कितने लोगों से सीखते हैं। इसलिए इन लोगों को जिनसे मुझे प्रेरणा मिलती है उन्‍हें गुरु मानूं या आयडल समझ नहीं आता है। हो सकता है कि मेरे इन विचारों से आप सहमत नहीं हों और इससे इतर आपके अन्‍य विचार हों। इसलिए इस विषय की व्‍यापक चर्चा हो सके, मैंने इसे यहाँ लिखना उपयोगी लगा। आपकी क्‍या राय है? आपका आयडल कौन है? 

Sunday, November 6, 2011

साठ वर्ष का सफर कितना सुन्‍दर कितना मधुर



जीवन का फलसफा भी कुछ अजीब ही है। कभी लगता है कि जीवन हमारी मुठ्ठी में उन रेत-कणों की तरह है जो प्रतिपल फिसल रहे हैं। साल दर साल हमारी मुठ्ठी रीतती जा रही है। लेकिन आज लग रहा है कि जीवन कदम दर कदम हर एक पड़ाव को पार करते रहने का नाम हैं। हम अपनी चाही हुई मंजिल तक जा पहुंचते हैं। एक-एक सीढ़ी चढ़कर हम पर्वत को लांघ लेते हैं। आज मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। साठ वर्ष जीवन में बहुत मायने रखते हैं। कोई कहता है कि हम बस अब थक गए हैं, दुनिया भी कहती है कि तुम अब चुक गए हो, बस आराम करो। लेकिन कैसा आराम? मुझे लग रहा है कि सफर तो अब प्रारम्‍भ हुआ है। अभी तक तो सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते हुए एक मंजिल तक पहुंचे हैं। जैसे एक पर्वतारोही पर्वत पर जाकर चैन की सांस लेता है और वहाँ से दुनिया को देखने की कोशिश करता है बस वैसे ही आज लग रहा है कि साठ वर्ष पूर्ण हो गए, मैं पर्वतनुमा अपनी मंजिल तक प‍हुंच गयी और यहाँ से अब दुनिया को निहारना है। सारी दुनिया अब स्‍पष्‍ट दिखायी दे रही है। तलहटी में बचपन बसा है, कुछ धुंधला सा ही दिखायी दे रहा है लेकिन सबसे मनोरम शायद वही लग रहा है।
ऊँचे पर्वत पर आकर या उम्र के इस पड़ाव पर आकर सब कुछ तो साफ दिखने लगता है। सारे ही नाते-रिश्‍ते, मित्र-साथी, वफा-बेवफा सभी कुछ। तलहटी पर बसा बचपन, दूब की तरह होता है। जरा सा ही स्‍नेह का पानी मिल जाए, लहलहा जाता है। दूब की तरह ही कभी समाप्‍त नहीं होता। हमेशा यादों में बसा रहता है। बचपन में दूब की तरह ही जब हर कोई अपने पैरों से हमें रौंदता है तो लगता है कि हम कब इस पेड़ की तरह बड़े होंगे? कब हम पर भी फल लगेंगे? कब हम भी उपयोगी बनेंगे? लेकिन आज वही दूब सा बचपन प्‍यारा लगने लगता है, उसकी यादों में खो जाने का मन करता है। बचपन खेलते-कूदते, डाँट-फटकार खाते, सपने देखते चुटकी बजाते ही बीत गया। हर कोई कहने लगा कि अब तुम बच्‍चे नहीं रहे, बड़े हो गए हो। हम भी सपने देखते बड़े होने के, घण्‍टों-घण्‍टों नींद नहीं आती, बस जीवन के सपने ही आँखों में तैरते रहते थे। हम क्‍या बनेंगे, यह सपने हमारे पास नहीं थे। क्‍योंकि शायद हमारी पीढ़ी में ऐसे सपने हमारे माता-पिता देखा करते थे। इसलिए कुरेदते भी नहीं थे अपने मन को, कि तुझे किधर जाना है? कभी कुरेद भी लिया तो दुख ही हाथ आता था। क्‍योंकि पिता का हुक्‍म सुनायी पड़ जाता था कि तुम्‍हें यह करना है। बस मुझे तो यही संतोष है कि मेरे पिता ने हमें शिक्षा दिलाने का सपना देखा, हमें बुद्धिमान बनाने का सपना देखा। यदि वे यह सपना नहीं देखते तो हम भी आज न जाने किस मुकाम पर जा पहुंचते? कौन से पर्वत पर मैं खड़ी होती? पति के सहारे? या बच्‍चों के सहारे? आज शिक्षा के सहारे ना केवल मजबूती से उम्र के इस पड़ाव पर पैर सीधे खड़े हैं अपितु सारे परिवार को भी थामने का साहस इन पैरों में आ बसा है।
पर्वत से झांकते हुए युवावस्‍था के फलदार वृक्ष दिखायी दे रहे हैं। कभी इसी वृक्ष को कोई निर्ममता से काट देता था तो कोई ममता से पानी पिला देता था। जीवन पेड़ की तरह बड़ा होता है, कटता भी है, छंटता भी है, तो कोई पानी भी डालता है और कोई खाद भी बनता है। फल और फूल भी आते है तो पतझड़ और बसन्‍त भी खिलते हैं। लेकिन पेड़ के फल कैसे हैं बस इसी से पेड़ की ख्‍याति होती है। मीठे फल लगे हैं तो दूर-दूर तक लोग कहते हैं कि फलां पेड़ के फल बहुत मीठे हैं। यदि फल मीठे नहीं हैं तो लोग उस तरफ झांकते भी नहीं। लेकिन माँ के रूप में विकसित इस छायादार पेड़ में जब फल लगते हैं तब उस माँ को अपने फल बहुत ही मीठे और सुगन्धित प्रतीत होते हैं। लेकिन फलों से विरल कभी पेड़ की भी अपनी खुशबू होती है, जैसे चन्‍दन की। देवदार से पेड़, पर्वतों को जब छूते हैं तब भला किसे नहीं लुभाते? कभी झांककर देखा है इन देवदार के पेड़ों की जड़ों को? कहाँ उनकी जड़ होती है और कहाँ उनका अन्तिम छोर होता है? बस जीवन देवदार जैसा ही बन जाए!
पर्वतों के ऊपर भी समतल होता है। बहुत सारा स्‍थान। वातावरण एकदम शुद्ध। गहरी सांस लेकर उस प्राण वायु को अपने अन्‍दर समेट लेने की प्रतिपल इच्‍छा होती है। दूर दूर से आकर पक्षी भी यहाँ गुटरगूं करते हैं। पैरों की धरती के नीचे दबा होता है बेशकीमती खजाना, बस थोड़ा सा खोदों तो न जाने जीवन के कितने रत्‍न यहाँ दबे मिल जाते हैं। जीवन का सबसे मधुर पल, जहाँ अब और ऊपर जाने की चाहत नहीं रहती। अब और परिश्रम करने की आवश्‍यकता नहीं रहती। अब और फल और फूल बिखरने की जरूरत नहीं होती। बस संघर्ष के दिन समाप्‍त, अब तो केवल प्रकृति को निहारना है। देखनी है अठखेलियां वृक्षों पर बैठे नन्‍हें पक्षियों की। देखने हैं बस रहे घौंसलों को और ममताभरी आँखों से उस रस को पीना है जो चिड़िया अपनी चोंच से अपने नवजात को चुग्‍गे के रूप में देती है। सब दूर से देखना है, आनन्दित होना है। आगे बढ़कर, दोनों बाहों को फैलाकर इस प्रकृति को अपने पाश में भर लेना है। कितने मधुर क्षण हैं, कितने अपने से पल हैं? साठ वर्ष पार कर लेने पर ठहराव की प्रतीति हो रही है। मन के आनन्‍द को बाहर निकालकर उससे साक्षात्‍कार करने की चाहत जन्‍म ले रही है। अनुभवों के निचोड़ से जीवन को सींचने का मन हो रहा है। खुले आसमान के नीचे, अपने ही बनाए पर्वत पर बैठकर जीवन की पुस्तिका के पृष्‍ठ उलट-पुलटकर पढ़ने का मन हो रहा है। कभी-कभी इन पर्वतों पर कंदराएं भी दिख जाती हैं, ये कंदराएं एकान्‍त में ले जाती हैं। तब हाथों में कूंची लेकर जीवन के रंगों से इन कंदराओं को रंगने का अपना शौक शायद पूरा हो सके। अब तो जीवन स्‍पष्‍ट है, सभी कुछ स्‍पष्‍ट दिख भी रहा है। बस इसके आनन्‍द में उतर जाना है। बहुत कुछ पाया है इस जीवन से। खोया क्‍या है? अक्‍सर लोग प्रश्‍न करते हैं। लेकिन खोने को कुछ था ही नहीं, इसलिए पाया ही पाया है। ना तो बचपन में चाँदी की चम्‍मच मुँह में थी और ना ही जहाँ इस पौधे को रोपा गया था वहाँ कोई बड़ा बगीचा था, तो खोने को क्‍या था? समुद्र मन्‍थन में विष भी था तो अमृत भी, इसी प्रकार जीवन मन्‍थन में विष भी था और अमृत भी। विष को औषधि मान लिया और अमृत को जीवन। बस कदम दर कदम बढ़ाते हुए पहुंच गए इस साठ वर्ष के पहाड़ पर। मन में संतोष है कि यह पहाड़ हमारा अपना बनाया हुआ है, यहाँ अब शान्‍तचित्त होकर दुनिया को अपनी दृष्टि से देखेंगे। पहाड़ के समतल पर एक बगीचा लगाएंगे, उस बगीचे में दुनिया जहान के पक्षियों को बुलाएंगे और उनकी चहचहाट से अपने मन को तृप्‍त करेंगे।  
( अपने ही जन्‍मदिन 9 नवम्‍बर के अवसर पर, जो मुझे साठ वर्ष पूर्ण करने पर खुशी दे रहा है। इसे आज देव उठनी एकादशी पर लिखा गया है क्‍योंकि तिथि के अनुसार आज ही पूर्ण हो रहे हैं जीवन के अनमोल साठ वर्ष)   

Sunday, October 30, 2011

इक वो भी दीवाली थी, इक यह भी दीवाली है



एक छोटा सा घर, चार जोड़ी कपड़े, दो जोड़ी जूते-चप्‍पल। रात को सोने के लिए केवल गद्दे जो सुबह होते ही तह कर के उठाकर रख दिए जाते थे। ना सोफा, ना डायनिंग टेबल, ना ड्रेसिंग टेबल और ना पलंग। रसोई भी नहीं थी मोडलर और ना ही आयी थी गैस। बस थी तो एक मात्र सिगड़ी, जिसके आसपास आसन बिछाकर माँ के हाथ की गर्मागर्म रोटियो का आनन्‍द शायद दुनिया में दूसरा नहीं होगा। दीवाली आ रही है, इसका शोर अन्‍दर से उठता था जैसे फूल से परागकण फूट पड़ते हैं बस वैसे ही आनन्‍द और उल्‍लास वातावरण को सरोबार कर देता था। सफाई बस एक-दो दिन में पूरी हो जाती। क्‍योंकि घर में ताम-झाम कुछ नहीं थे। सफाई के बाद कचरे में पुराने डिब्‍बे, किताब-कॉपियां, तार, सूतली आदि निकलते। इन बेचारों को हम बड़े शौक से घर निकाला दे देते। लेकिन तभी पिताजी की कड़कडाती आवाज सुनायी दे जाती, यह डिब्‍बा क्‍यों फेंक दिया गया है? वे सारे सामान का ऑडिट की तरह मुआयना करते। डिब्‍बे घर के अन्‍दर वापस जगह पा जाते, मुड़ा-तुड़ा तार भी किसी खूंटी पर लटक जाता और चिठ्ठी-पत्री के लिए हेंगर बन जाता। पुरानी कॉपियों के खाली पन्‍ने फाड़ लिए जाते और किताबे पुस्‍तकालय की आस में वापस अल्‍मारी में चले जातीं। फिर उनका ध्‍यान आकर्षित होता थैलियों और सू‍तलियों पर, वे भी धूल झाड़कर इठलाती हुई सी वापस घर के अन्‍दर चले जातीं। बस कूड़े के नाम पर रह जाती पाव-आधा किलो धूल। तब ना तो कबाड़ी आता और ना ही डस्‍टबीन भरता।
नए कपड़ों के नाम पर कभी-कभी एक जोड़ी कपड़े मिल जाते और वे हमारे लिए अमूल्‍य भेंट होती। दीवाली पर सबसे ज्‍यादा आबाद रहती रसोई। दो दिन तक मिठाइयां बनाने का दौर चलता। भगवान महावीर का निर्वाण दिवस दीपावली पर ही होता तो मन्दिर में चढ़ाने के लिए लड्डू घर पर ही बनते। देसी घी में बूंदी निकाली जाती और हम सब लड्डू बांधते। बाजार की मिठाई लाना तो अपराध की श्रेणी में था। साथ में जलेबी भी बनती और गजक भी कुटती। माँ मीठे नमकीन शक्‍करपारे भी बनाती। गुड़ और आटे के खजूर भी बनते, जो आज तक भी भुलाए नहीं भूलते, लेकिन वे सब माँ के साथ ही विदा हो गए। दीवाली पर पटाखे खरीदना और चलाना मानो रूपयों में सीधे ही माचिस दिखाना था। लेकिन बाल मन पटाखों का मोह कैसे त्‍याग सकता था? भाइयों से कहकर कुछ पटाखों का इंतजाम हो ही जाता और छोटी लड़ी वाले बम्‍ब एक-एककर चलाए जाते।
दीवाली की सांझ भी नवीन उत्‍साह लेकर आती। थाली में दीपक सजते और हम नए कपड़े पहनकर निकल पड़ते सारे ही पड़ोसियों के घर। पड़ोसी के घर की चौखट पर दीपक रखते और दीवाली की ढोक देते। ना उस समय मिठाइयां होती और ना ही कोई तड़क-भड़क। बस मिलने-मिलाने का जो आनन्‍द आता वो अनोखा था। हमारे एक पड़ोसी थे, थोड़े पैसे वाले थे लेकिन पैसे को सोच समझकर खर्च करते थे। इसलिए दीवाली के दूसरे दिन अनार खरीदकर लाते। उन दिनों में अनार मिट्टी की कोठियों में मिलते थे और काफी बड़े होते थे। खूब देर तक भी चलते थे। पटाखे दीवाली के दिन ही चलते थे तो दूसरे दिन पटाखे सस्‍ते मिल जाते थे। वे तभी अनार खरीदते थे और हम सब उनके अनार का आनन्‍द लेते थे। दीवाली के दूसरे दिन मिठाइयों का आदान-प्रदान भी होता था। लेकिन हमारे पिताजी डालडा के प्रति बहुत सख्‍त थे तो किसी के यहाँ की भी मिठाई घर में आने नहीं देते थे। बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट पूछ लिया जाता था कि डालडा कि है तो हमारे घर पर नहीं चलेगी। उन दिनों डालडा घी नया-नया चला ही था तो लोगों को उससे परहेज नहीं था। लेकिन हमारे यहाँ तो कर्फ्‍यू जैसा था। इतनी बंदिशों के बावजूद भी दीवाली का उल्‍लास मन में बसा रहता था, हम किशोर तो न जाने कितने दिन तक दीवाली मनाते थे। क्‍योंकि उन दिनो दिवाली की छुट्टियां भी कई दिनों की आती थी। होमवर्क भी मिलता था लेकिन सभी अध्‍यापकों को पता था कि कोई होमवर्क नहीं करता है तो पूछताछ भी नहीं होती थी।
और आज की दीवाली? घर की सफाई, समस्‍या लेकर आती है। कम से कम पंद्रह दिन चाहिए सफाई को। थोड़ा सा भी पुराना सामान हुआ नहीं कि फेंको इसे, बस यही मानसिकता रहती है। यदि समय पर कबाड़ी नहीं आए तो छत भर जाती है। अब कोई नहीं आता जो यह कह दे कि यह सामान वापस काम आएगा। हम जैसे कचरा उत्‍पन्‍न करने की मशीने बन गए हैं। मिठाइयों से बाजार भरे रहते हैं ना चाहते हुए भी कुछ न कुछ खरीदने में आता ही है। घर पर मिठाई शगुन की ही बनती है। बन जाती है तो समाप्‍त नहीं होती। अपने-अपने घरों में दीपक जला लेते हैं और दीपक से ज्‍यादा लगती है लाइट। पटाखों का ढेर लगा रहता है लेकिन चलाने का उल्‍लास तो खरीदा नहीं जा सकता? मेहमान भी गिनती के ही रहते हैं क्‍योंकि सभी तो दीवाली मिलन पर मिलेंगे। सामूहिक भोज हो गया और रामा-श्‍यामा हो गयी बस। बड़े-बड़े समूह बन गए और छोटे-छोटे समूहों की उष्‍णता समाप्‍त हो गयी। दीवाली की ढोक या प्रणाम ना जाने कहाँ दुबक गए, अब आशीर्वाद नहीं मिलते बस एक-दूसरे को हैपी दीवाली कहकर इतिश्री कर ली जाती है। न जाने क्‍या छूट गया? पहले थोड़ा ही था  लेकिन उस थोड़े में ही अकूत आनन्‍द समाया था लेकिन अब अकूत है तो आनन्‍द थोड़ा हो गया है। हो सकता हो कि यह उम्र का तकाजा हो, कि अब रस नहीं आता। जिनकी अभी रस ग्रहण करने की उम्र है वे कर ही रहे होंगे लेकिन हमारे जैसे तो यही कहेंगे कि पहले जैसा आनन्‍द अब नहीं। यही गीत याद आता रहा कि इक वो भी दीवाली थी और इक यह भी दीवाली है। आप लोग क्‍या कहते हैं?   

Thursday, October 20, 2011

सुन सुन सुन अरे बाबा सुन, इन बातों में बड़े बड़े गुण



बाते करना किसे नहीं भाता? कैसा भी चुप्‍पा टाइप का इंसान हो, उसे भी एक दिन बातों के लिए तड़पना ही पड़ता है। बचपन तो खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने में बीत जाता है, उस समय घर-परिवार में, स्‍कूल में, मौहल्‍ले में बाते करने वाले ढेर सारे लोग होते हैं। लेकिन युवावस्‍था आपकी परीक्षा लेकर आती है। अभी प्रेम के कीड़े ने दंश मारा ही था कि चहचहाते पक्षी की बोलती बन्‍द हो जाती है। अपने अन्‍दर ही बातों के गुंताले बुनता दिखायी दे जाएगा। लेकिन कभी प्रेम का मार्ग दिखायी दे जाता है तब जैसे गूंगे को जबान आ गयी हो वही हाल होता है। चाहे कोई सुनने वाला मिले या नहीं, आकाश तो है, बस बोलते रहिए और बोलते रहिए। प्रेम की धारा जैसे बोलने से ही अपने गंतव्‍य तक पहुंचेगी। लेकिन युवावस्‍था के बाद गृहस्‍थाश्रम तो सर्वाधिक कठिन आश्रम है। पत्‍नी बोलने वाली और पति महाशय वैज्ञानिकों की तरह मौनी बाबा! तो आप क्‍या करेंगे? या फिर पति बोलने वाला और पत्‍नी गूंगी गुडिया! हमारे यहाँ तुर्रा यह भी कि पति और पत्‍नी का साथ सात जन्‍मों का। अब आप बताइए कि कैसे निर्वाह हो? बचपन में जब हम बोलते थे तो पिताजी अक्‍सर टोकते थे कि तुम लोग इतना क्‍यों बोलते हो? मेरा एक ही उत्तर होता था कि यदि इस जन्‍म में नहीं बोले तो भगवान अगले जन्‍म में गूंगा बना देगा, कहेगा कि मैंने तुम्‍हें जुबान भी और तुमने काम ही नहीं ली।
जो पति और पत्‍नी युवावस्‍था में गुटर-गूं नहीं करते, उनका बुढ़ापा भी कठिनाई में पड़ जाता है। मौनी बाबा के साथ रहते रहते आप भी मूक प्राणी बन जाते हैं। जुबान पर स्‍वत: ही ताले पड़ जाते हैं। लेकिन जो खूब चहकते हैं उन्‍हें विपरीत परिस्थिति भी डगा नहीं पाती है। दुनिया जहान की बाते वे कर लेते हैं और मन को सदैव प्रसन्‍न रखते हैं। जो बाते नहीं करता हमारे यहाँ उसे घुन्‍ना कहा जाता है। कहते हैं कि इसके पेट में दाढ़ी है, अपनी बात बताता ही नहीं। लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो छल-कपट रहित होते हैं और उन्‍हें बात करना आता ही नहीं है। लेकिन ऐसे लोगों की संख्‍या कम ही होती है। कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्‍हें बातें करने से डर लगता है, कि कहीं उल्‍टा-सीधा कुछ ना निकल जाए, मुँह से। इस समस्‍या के शिकार अक्‍सर पति होते हैं, वे न जाने क्‍यों पत्नियों के सामने लड़खड़ा से जाते हैं। कहते हैं कि बचपन और युवावस्‍था तो पंख लगाकर उड़ जाते हैं लेकिन वृद्धावस्‍था काटे नहीं कटती है। तब सहारा होता है केवल जीवन-साथी। और इन दोनों का सहारा होता है कभी समाप्‍त न होने वाली बातें। यदि दम्‍पत्ती गाँव से आकर शहर में बसे हैं तो देखो चार आने सेर के घी से लेकर तीस हजार रूपए तोले के सोने की बात हो जाएगी। आज से पचास साल पहले स्‍वर्गवासी हुए दीनूकाका की बाते याद कर कभी पत्‍नी हँस देगी तो कभी पति दुखी हो जाएगा। कैसे नदी पर नहाने जाते थे, कैसे चक्‍की से आटा पीसते थे, कैसे शाम पड़े चबुतरे पर बैठकर हरे चने छीलते हुए सारे जहान की बाते कर लिया करते थे। बचपन में गिल्‍ली डंडा कब तक खेला था और हमारी गिल्‍ली से किस का सर फूटा था, सारी ही बाते हो जाती हैं।
कुछ लोगों की बातों में अपना परिवार, अपना बचपन शामिल होता है। बस ऐसे दम्‍पत्ती सबसे सुखी होते हैं और इनकी बातों का कभी अन्‍त नहीं होता। कथा अनन्‍ता की तरह चलता ही रहता है पुराण। अच्‍छे से अच्‍छे मनोविश्‍लेषक भी मन को इतना नहीं जान पाते जितना इनकी बातों से प्रत्‍येक मन की तह पता लग जाती है। लेकिन कुछ लोग बचपन को अछूत सा बना देते हैं, कभी भूले भटके भी याद नहीं करते और बस पिले रहते हैं अमेरिका, यूरोप आदि अन्‍तरराष्‍ट्रीय समस्‍याओं पर। उन्‍हें चिन्‍ता सता रही होती है कि ओबामा अब अफगानिस्‍तान में क्‍या करेंगे लेकिन उनकी चिन्‍ता का विषय नहीं है कि मेरा पोता मुझे प्‍यार से बात करेगा या नहीं! कुछ लोगों की एक और समस्‍या है, वे अन्‍तरराष्‍ट्रीय समस्‍याओं को सुलझाने में इतने तल्‍लीन रहते हैं कि उन्‍हें अपने सुझाव बताने के लिए किसी शिकार की खोज रहती है। अक्‍सर ऐसे विचारकों से उनकी पत्नियां दूर ही रहती हैं और वे निकल पड़ते हैं शिकार की खोज में। हमारे भी ऐसे कई परिचित हैं। उन्‍हें विद्वान श्रोता चाहिए जो उनकी हाँ में हाँ मिला सके और अपने ज्ञान की जुगाली कर सकें। एक ऐसे ही हमारे परिचित हैं, गाहे-बगाहे चले आते हैं। अभी अपनी तशरीफ का टोकरा सोफे पर रखते भी नहीं हैं कि उनका रेडियो ऑन हो जाता है। इसके पहले वे सावधानी भी बरत लेते हैं और जल्‍दी ही कह देते हैं कि चाय भी पीनी है। अब चाय पीनी है तो आधा घण्‍टा तो आपको उन्‍हें सुनना ही होगा। हम तो अतिथि देवो भव: वाले देश के तो मना भी नहीं कर सकते है। वे जानते भी हैं कि मुझे ऐसा कौन सा तीर छोड़ना है जिससे ये मजबूर हो जाएं कुछ टिप्‍पणी करने के लिए। बस आपने उनका प्रतिवाद किया नहीं की बहस अपने परवान चढ़ने लगती है। उनकी मन की इच्‍छा पूर्ण और आप चाय पिलाकर भी मायूस। वे चाय पीकर भी रिक्‍त और हम उनकी सुनकर पस्‍त। लेकिन उनकी दिनभर की चित हो गयी।
अभी दो-तीन वर्ष पुरानी बात है। मैं अमेरिका गयी हुई थी। मुझसे मिलने मेरी पुत्री की सहेली आ गयी। अभी उसने कमरे में पैर रखा ही था कि उसका टेप चालू हो गया। वह बिना कोमा, फुलस्‍टाप लगाए बोले जा रही थी, हम सब उसे केवल निहार रहे थे। कुछ देर बाद उसे समझ आ गया कि बोलना शायद ज्‍यादा हो गया है। तो वह बड़ी मासूमियत के साथ बोली कि आण्‍टी प्‍लीज मुझे रोको मत। यहाँ अमेरिका में तीन महिने से कोई बोलने वाला मिला नहीं है तो जुबान पर दही जम गया है। उसका पति एक कोने में चुपचाप बैठा था, मैं उसकी हालत समझ सकती थी। इसलिए बाते करने का सुख मौनी लोग नहीं समझ सकते। यह दुनिया का सबसे बड़ा सुख है, जिसके पास यह कला नहीं है समझो उसके पास जीवन में कुछ नहीं है। अब इसके फायदे भी कितने हैं! बच्‍चों से गप्‍प लगाओ और उनके अन्‍दर की बाते जान लो, आपको अपना मित्र समझकर सब कुछ बताएंगे और आप उन्‍हें सही मार्ग पर चलना आसान करा देंगे। पति और पत्‍नी बातों के द्वारा एक-दूसरे के कितने करीब आ जाते हैं! मित्रता तो होती ही बातों के लिए है। आजकल तो लोग सुबह और शाम बाग-बगीचों में घूमते हुए मिल जाएंगे। अपना-अपना झुण्‍ड बना लेंगे और फिर घर-परिवार से लेकर दुनिया जहान की बातें बहने लगती हैं। घर जाते हैं तब तृप्‍त होकर जैसे छककर अमृत पी लिया हो। बस अब मृत्‍यु आ जाए कोई गम नहीं, हमने अपने मन की बात कह ली है। लेकिन जो अपने मन की बात कभी नहीं कह पाते? वे क्‍या करते होंगे? कैसे जीते होंगे? क्‍या उनके मन में कुछ है ही नहीं या जो अन्‍दर है उसे बाहर निकालने का साहस ही नहीं है? शायद यह भी लेखन की तरह ही है कि कुछ लोग लिखने से ऐसा डरते हैं मानों कलम की जगह हाथ ने साँप पकड़ लिया हो। मन की अभिव्‍यक्ति होती ही नहीं और मन प्‍यास का प्‍यासा रह जाता है। या फिर कुछ लोगों को प्‍यास लगती ही नहीं?  

Thursday, October 13, 2011

पूर्ण चन्‍द्र की रात में जंगल का राग सुनो



पूर्ण चन्‍द्र की रात, किसी ने ताजमहल के अनुपम सौंदर्य को निहारते बितायी होगी तो किसी ने जैसलमेर के रेतीले धोरों पर स्‍वर्ण रेत कणों को खिलखिलाते सुना होगा। लेकिन इन सबसे परे शारदीय पूर्णिमा पर मैंने जंगल का राग सुना। चारों ओर पहाड़ों से घिरा जंगल, बीच में एक छोटा सा बाँध, ऊपर से चाँद की मद्धि‍म रोशनी, कहीं जुगनू चमक उठता तो ऐसा लगता कि तारा लहरा कर चल रहा है। कान शान्ति की तरफ लगे हुए और मधुर साज के साथ प्रकृति के सारे ही साजिंदे अपने साज बजा उठते। लय के साथ प्रकृति के प्राणियों का आर्केस्‍टा बज रहा था।  शहर की भागमदौड़ से निकलकर हम उदयपुर से 15 किमी दूर बाघदड़ा के प्राकृतिक अभयारण्‍य को देखने आए थे। सोचा था कि पहाड़ों के पीछे से जब सूर्य अस्‍त होगा तब उसे मन में उतार लेंगे लेकिन रास्‍ता पूछने में ही देर हो गयी और सूर्य अपने गंतव्‍य की ओर प्रस्‍थान कर गया। अब तो चाँद निकल आया था। शरद पूर्णिमा का चाँद।
वन विभाग के संरक्षण में यह अभयारण्‍य है। वन विभाग के अधिकारी के निमंत्रण पर हमने भी इस आनन्‍द को जीने का मन बना लिया। दरवाजे पर खड़े चौकीदार ने बताया कि तीन किलोमीटर दूर है हमारा गंतव्‍य। हमारी गाड़ी धीरे-धीरे चलने लगी, एक पतली से मार्ग पर। सड़क नहीं थी, बस कच्‍चा मार्ग था। हमारी गाड़ी अकेली ही रास्‍ता भटकने से कुछ डरी हुई भी थीं लेकिन हम उसे आश्‍वस्‍त करते जा रहे थे कि रास्‍ता तो एकमात्र यही है, इसलिए हम भटके नहीं हैं। लगभग तीन किलोमीटर चलने के बाद रेत कुछ दलदली से लगने लगी, तब तो मन की शंका साँप के फण की तरह बाहर निकल ही आयी, नहीं रास्‍ता भटक गए हैं, हम शायद! एक अन्‍य गाड़ी में हमारे साथी कुछ देर पहले वहाँ पहुँच चुके थे। हमने फोन लगाया, अच्‍छा था कि नेटवर्क आ रहा था। अब उन्‍हें कैसे बताएं कि हम कहाँ हैं, क्‍योंकि वहाँ कोई लेण्‍डमार्क तो था ही नहीं। लेकिन राहत की साँस मिली, उन्‍होंने कहा कि नहीं बस यही इकलौता मार्ग है, चले आओ। तभी वे सब हाथ हिलाते हुए दिखायी दे गए।
गाड़ी को पार्क कर दिया गया। रात घिर आयी थी। अभी चन्‍द्रमा ने अपना पूरा प्रकाश नहीं फैलाया था, बिना टार्च की रोशनी के आगे बढ़ने में असुविधा हो रही थी। लेकिन वनकर्मी हमारे साथ था। वह एक छोटी सी पगडण्‍डी के सहारे हमे जंगल की ओर बढ़ा रहा था। हमें एकदम सीधे चले जाना था, एक दूसरे के कदमों के पीछे ही रहना था। जरा से चूके तो नीचे 80 फीट गहरी खाई थी और दूसरी तरफ तालाब। जिसमें मगरमच्‍छ भी थे। कहीं-कहीं घास भी काफी थी, लग रहा था कि कहीं से सर्पदेवता ना निकल आएं। लेकिन उस उबड़-खाबड़ पगडण्‍डी से होकर हम जा पहुंचे अपने गंतव्‍य स्‍थान पर। वहाँ चार चबूतरे बनाए हुए थे, वहाँ से तालाब की सुन्‍दरता को निहारा जा सकता था। एक चबूतरे पर टेन्‍ट लगा था, उसमें करीने से बिस्‍तर लगे थे। वाह, यहाँ तो रात बिताने का भी साधन है, लेकिन हम तो रात 10 बजे की योजना ही बनाकर आए थे। लेकिन हमने दूसरे चबूतरे पर अपना आधिपत्‍य जमा लिया। धीरे-धीरे और लोग भी आने लगे। इस भ्रमण में हमारे साथियों के अतिरिक्‍त सारी ही युवा-पीढ़ी थी। मन एकदम से युवा हो गया। जाते ही निर्देश मिल गए कि जितना शान्‍त रहेंगे उतना ही हम यहाँ के प्राणियों को राहत देंगे। यह उनका स्‍थान है, पशु-पक्षियों का घर है। आपको कोई अधिकार नहीं कि आप बिना पूछे उनके घर में चले आएं और शोर-शराबा करके उन्‍हें परेशान करें। हम सब की आवाजें एकदम धीरी हो गयी। बताया गया कि यहाँ पेन्‍थर है, आज ही उसने एक बकरी का शिकार किया है। मतलब उसका पेट भरा हुआ है, हम निश्चिंत हो गए। कभी यह स्‍थान बाघों का बाड़ा था इसलिए इसका नाम बाघदड़ा हो गया। लेकिन अब बाघ नहीं हैं बस पेंथर हैं और अन्‍य जीव।
मुख्‍य वन-संरक्षक श्री निहाल चन्‍द जैन हमारे साथ थे। उन्‍होंने बताया कि आप यहाँ आर्केस्‍टा सुन सकते हैं। मुझे लगा कि शायद कोई अन्‍य दल तालाब किनारे से आर्कस्‍टा बजाएंगा। लेकिन कुछ ही देर में समझ आ गया कि अरे इस आर्केस्‍टा का इंतजाम तो स्‍वयं प्रकृति ने किया है। कितने सुरताल में जीव अपना गान प्रस्‍तुत कर रहे थे, लग रहा था सारे ही शब्‍द मौन हो जाएं और यह तान हमारे कानों में अमृत घोलती रहे बस। तभी प्रकृति प्रेमी मिहिर ने पूछ लिया कि यहाँ आकर यदि एक शब्‍द में पूछा जाए कि कैसा लगा तो आप क्‍या कहेंगे? मैं तो अमृत पीने का प्रयास कर रही थी, मुँह से अचानक ही निकला की अमृत। लेकिन किसी ने कहा कि शान्ति है तो किसी ने कहा कि आनन्‍द है। तभी एक जुगनू अपनी चमक बिखेरता हुआ दिखायी दे गया। जैन साहब ने बताया कि कभी ये जुगनू उदयपुर शहर में भी खूब दिखायी देते थे लेकिन आज इस जंगल में ही सिमटकर रह गए हैं। कारण है प्रदूषण। कुछ प्रकृति के जीव प्रदूषण से असंवेदनशील होते हैं इस कारण प्रकृति प्रेमी इनकी अनुपस्थिति से जान लेते हैं कि यहाँ प्रदूषण बढ़ गया है। अर्थात प्रकृति ने कितने पैमाने छोड़े हैं हम सबके लिए, लेकिन हम कहाँ देखते हैं इन पैमानों को? बस हमारे पैमाने तो बड़ी-बड़ी गगनचुम्‍बी ईमारते हैं और धुँआ उगलते उद्योग-धंधे हैं।
फ्रकृति को बचाने के लिए आप क्‍या संकल्‍प लेंगे, यह प्रश्‍न था। उसका उत्तर तो सभी ने अपने तरीके से दिया लेकिन मन ने कहा कि हम वास्‍तव में कितने कसूरवार हैं। क्‍या दे जाएंगे हम विरासत में? एक आश्‍चर्यजनक सत्‍य मिहिर ने बताया कि चींटियां कितनी अनुशासनप्रिय हैं यह तो सभी जानते हैं लेकिन इनकी संख्‍या और इनका कुल भार मनुष्‍यों के कहीं ज्‍यादा है। इतनी शक्तिशाली होने पर भी चीटियों ने कभी इस सृष्टि को हानि नहीं पहुँचाई लेकिन हमने हानि के अतिरिक्‍त कुछ किया ही नहीं। व़ास्‍तव में मनुष्‍य कितना छोटा है? तभी घड़ी देखी, रात के साढे नौ बज चुके थे और अभी भोजन करना भी शेष था। हमने सोचा था कि यह स्‍थान हम दस बजे छोड़ देंगे। चाँद हमारे सिरों पर आ चुका था, हाथ की रेखाएं भी साफ दिखायी देने लगी थी। बस चाँद के कारण तारे ही कहीं दुबक गए थे। कुछ दो-चार ही दबंग थे जो टिमटिमा रहे थे। अब हमने भोजन की सुध ली। युवापीढ़ी में से किसी ने बांसुरी पर तान छेड़ दी। एक तरफ हम भोजन का आनन्‍द ले रहे थे तो दूसरी तरफ बांसुरी का रसास्‍वादन भी कर रहे थे।
आखिर हम अनमने मन से साढे दस बजे वहाँ से जाने को तैयार हुए। दूसरे चबुतरे पर युवाओं ने टेण्‍ट तान दिया था। अरे ये सब तो रात यहीं व्‍यतीत करेंगे! और ह‍म? बस मन मसोस कर रह गए। हम केवल दस प्रतिशत ही आनन्‍द ले पाए थे शेष तो अगली यात्रा का ख्‍वाब बुनकर ही पूरा कर आए थे। वापस हमे उसी पगडण्‍डी पर जाना था। टार्च लिए वनकर्मी साथ था लेकिन इस बार चन्‍द्रमा चाँदनी बिखेर रहा था। सब कुछ साफ दिखायी दे रहा था। एक तरफ खाई और एक तरफ तालाब सभी कुछ। इसबार जल्‍दी ही मार्ग तय हो गया और हम अपनी गाड़ी उठाकर उस प्रकृति प्रदत्त सुन्‍दरता को पीछे छोड़ आए। बस अपनी साँसों में ढेर सारी महक लेकर आ गए। इस उम्‍मीद के साथ कि कभी हम भी रात वहीं बिताएंगे। 

Sunday, October 9, 2011

पुरुष की बेचारगी क्‍या और बढे़गी?



आदमी की लाचारी, उसकी बेबसी क्‍या प्रकृति प्रदत्त है? महिलाओं के प्रति उसका तीव्र आकर्षण यहाँ तक की महिला को पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने का पागलपन! शायद कभी समाज ने इसी प्रवृत्ति को देखकर विवाह संस्‍था की नींव डाली होगी। पुरुष के चित्त में सदा महिला वास करती है। उसका सोचना महिला के इर्द-गिर्द ही होता है। पुरुषोचित साहस, दबंगता, शक्तिपुंज आदि सारे ही गुण एक इस विकार के समक्ष बौने बन जाते हैं। वह महिला को पूर्ण रूप से पाना चाहता है, उसे खोने देना नहीं चाहता। पति के रूप में वह पत्‍नी को अपनी सम्‍पत्ति मानने लगता है और इसी भ्रम में कभी वह लाचार और बेबस भी हो जाता है। महिला भी यदि दबंग हुई तो उसकी बेचारगी और बढ़ जाती है। इसलिए आदिकाल से ही पुरुष का सूत्र रहा है कि अपने से कमजोर महिला को पत्‍नी रूप में वरण करो।
पति के रूप में वह अक्‍सर कमजोर ही सिद्ध हुआ है। कुछ लोग मेरी इस बात पर आपत्ति भी कर सकते हैं। लोग कहते हैं कि पति पत्‍नी पर अत्‍याचार करता है। शराब पीकर उत्‍पात मचाता है। लेकिन व्‍यसन करना किस बात का प्रतीक है? कमजोर मन वाले लोग ही व्‍यसन का सहारा लेते हैं। कमजोर पुरुष ही हिंसा का सहारा लेते हैं। जब आपके अन्‍दर स्‍त्री के समक्ष प्रस्‍तुत होने का सामर्थ्‍य नहीं होता तब आप व्‍यसन का या हिंसा का सहारा लेते हैं। कई बार यह देखने में आता है कि इसी कमजोरी का महिलाएं फायदा भी उठाती हैं। कई बार पति बेचारा-प्राणी बनकर रह जाता है। हम स्‍त्री पर होने वाले अत्‍याचार या उसकी बेबसी की बाते तो हमेशा करते हैं, स्‍त्री को हमेशा ही कमजोर और बेबस सिद्ध करने पर तुले होते हैं लेकिन पुरुष कितना बेबस है इस बात को कोई उद्घाटित नहीं करता। इसलिए मैं कहती हूँ कि पुरुष की बेबसी, पुरुष रूप में जन्‍म लेकर ही समझी जा सकती है।
आप सोच रहे होंगे कि आज अचानक ही पुरुष पुराण मैंने क्‍यों खोल दिया है। लेकिन जब भी मैं महिलाओं को बेबस और लाचार सिद्ध करने वाला लेखन पढ़ती हूँ तब लगता है कि आखिर हम चाहते क्‍या हैं? बेबस पुरुष है और सिद्ध किया जा रहा है कि बेबस महिला है। वैसे आज मुझ पर बहुत आक्रमण होने वाले हैं। लेकिन एक घटना जो मुझे एक महिने से पीड़ित कर रही है, उसे उदाहरण के रूप में प्रस्‍तुत करना चाह रही हूँ। इस घटना का अभी अन्‍त नहीं हुआ है, ऊँट किस करवट बैठे यह भी मैं नहीं जानती। किसी सत्‍य घटनाक्रम को सार्वजनिक करना चाहिए या नहीं, बस इसी उहापोह में हूँ। नाम बदल दिये हैं, स्‍थान बदल दिया है। अब आप बताइए कि इस घटना को किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
विनोद और शालिनी का प्रेम विवाह सात वर्ष पूर्व हुआ। अभी एक साल का पुत्र उनके जीवन में है। दोनों ही शिक्षित और उच्‍च पदों पर कार्यरत हैं। जीवन खूबसूरती के साथ निकल रहा था लेकिन एक माह पूर्व भूचाल आ गया। विनोद भुवनेश्‍वर का है और वहाँ एक अन्‍य महिला से परिचित है। वह महिला कुछ दिलफेंक अंदाज की है। बाते रूमानी सी करती है और आगे होकर सम्‍बन्‍ध बनाती है। विनोद जब भी भुवनेश्‍वर जाता, उससे मुलाकात हो जाती। कई बार मुम्‍बई में भी उसके फोन आ जाते। एक बार भुवनेश्‍वर में मुलाकात के दौरान एक चुम्‍बन भी हो गया। बस विनोद में अपराध-बोध ने जन्‍म ले लिया। उसे लगा कि मुझसे कुछ गलत हो रहा है और यही अपराध-बोध उसके लिए प्रायश्चित का कारण बना। उसने लगभग एक महिने पूर्व अपनी पत्‍नी शालिनी को सब कुछ सच बता दिया। उसने प्रायश्चित करना चाहा था लेकिन हो गया एकदम उल्‍टा। शालिनी के‍ लिए यह बहुत बड़ा अपराध था। तभी समझ आया कि विनोद का आत्‍मबल कितना कमजोर था और शालिनी का अहंकार कितना बड़ा। शालिनी को यह घटना स्‍वयं की हार लगी। उसका मानना था कि मैं इतनी परफेक्‍ट हूँ कि मेरा पति तो मेरे सपनों में ही खोया रहना चाहिए। किसी से बात करना भी बहुत बड़ा अपराध है। उसने प्रतिक्रिया स्‍वरूप विनोद को बहुत मारा। उसके जो भी हाथ में आया उसी से उसने मारा। विनोद बुरी तरह से घायल हो गया लेकिन बदले में उसने हाथ नहीं उठाया। मकान शालिनी के नाम था तो उसने विनोद को घर से निकल जाने को कहा। तीन दिन तक भूखा-प्‍यासा विनोद, रात को नींद भी नहीं ले पाया। आखिर मन और शरीर कब तक साथ देते, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। विनोद के मित्र ने उसे सम्‍भाला, डॉक्‍टर के पास लेकर गए लेकिन शालिनी को समझाना कठिन हो गया। विनोद के माता-पिता को भी बुलाया गया। लेकिन परिस्थितियों में कुछ भी सुधार नहीं हुआ। शालिनी की उग्रता कम होने का नाम ही नहीं लग रही थी। आखिर शालिनी ने तलाक का फरमान जारी कर दिया। शालिनी के पिता को भी बुलाया गया लेकिन उन्‍होंने भी अपनी बेटी को समझाने के स्‍थान पर अपने साथ भुवनेश्‍वर ले जाना ज्‍यादा उपयुक्‍त समझा। भुवनेश्‍वर जाते समय भी शालिनी चेतावनी देकर गयी कि उसका यथाशीघ्र मकान खाली कर दिया जाए।  विनोद और उसके माता-पिता ने किराये का मकान भी देख लिया और उसे एडवान्‍स भी दे दिया। लेकिन फिर शालिनी के स्‍वर बदल गए और उसने कहा कि मेरे मकान में विनोद किराएदार की हैसियत से रह सकता है।
विनोद इतना होने पर भी शालिनी को छोड़ना नहीं चाहता। उसका मानसिक संतुलन कुछ ठीक हुआ है लेकिन पूरी तरह से नहीं। उसके माता-पिता भी बेबस से अपने बेटे के भविष्‍य को देखने की कोशिश कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि बस उनका बेटा स्‍वस्‍थ हो जाए और आपसी विवाद भी समाप्‍त हो जाए। वे भी शालिनी की अभद्रता को सहन कर रहे हैं लेकिन बेटे के भविष्‍य के कारण बेबस से बने हुए हैं। कोई रास्‍ता किसी को भी दिखायी नहीं दे रहा है। लेकिन विनोद का एक वाक्‍य सभी को व्‍यथित कर रहा है, उसने अन्‍त में कहा कि मैं क्‍या करूं, यदि मुझे शालिनी अपने घर में नहीं रखती है तो मैं जिन्‍दगी को ही छोड़ दूंगा।
सारे घटनाक्रम से मन प्रतिपल दुखित है। पुरुष की बेचारगी की यह सत्‍य घटना है। परिणाम तो पता नहीं क्‍या निकलेगा, लेकिन वर्तमान इतना अजीब है कि समझ से बाहर है। जब पुरुष छोटी-छोटी बातों का बतगंड बनाता है तो हम उसे कोसते हैं, कहते हैं कि पुरुष होने का नाजायज फायदा उठा रहा है। लेकिन जब यही कृत्‍य महिला करे तो इसे क्‍या कहा जाएगा? क्‍या पुरुष वास्‍तव में इतना कमजोर है कि ऐसी दबंग महिला का सामना नहीं कर सकता?  इससे तो यही सिद्ध होता है कि जैसे-जैसे महिलाएं आत्‍मनिर्भर होती जाएंगी वैसे-वैसे पुरुष कमजोर होता जाएगा। उनकी बेचारगी समाज के सामने परिलक्षित होने लगेंगी।  मैं ना तो नारीवादी हूँ और ना ही पुरातनवादी। मैं तो परिवारवादी हूँ। परिवार में संतुलन बना रहे, बच्‍चों का विकास माता-पिता दोनों के साये में ही हो, बस यही चाह रहती है। ना पुरुष अपनी शक्ति का प्रदर्शन करे और ना ही महिला। पुरुषों की कमजोरी को घर-घर में देखा है, लेकिन इतनी विकृत रूप शायद पहली बार देखने को मिला। आप सभी लोगों के विचार होंगे, मैं जानना चाहती हूँ कि क्‍या एक दूसरे को थोड़ी भी स्‍वतंत्रता नहीं देनी चाहिए। क्‍या हम विवाह अपनी स्‍वतंत्रता खोने के लिए करते हैं? वर्तमान में अधिकतर युवक विवाह नहीं करना चाहते, वे डरे हुए हैं। तो क्‍या उनके डर को कम करना चाहिए या और बढाना चाहिए? मैं जानती हूँ कि यदि महिला से अपराध हुआ होता तो पुरुष भी ऐसा ही करता लेकिन अब महिला भी यही तरीका अपनाए? एक तरफ ह‍म आधुनिकता में जी रहे हैं और एक तरफ इतनी छोटी-छोटी बातों से अपने परिवार तोड़ रहे हैं, क्‍या ऐसा आचरण उचित है? बहुत सारे द्वन्‍द्व हैं मन में लेकिन यहीं विराम देती हूँ बस आप सभी की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा है। 

Tuesday, October 4, 2011

वनांचल कितने सुन्‍दर और कितने दर्द भरे?



हम अक्‍सर अपनी छुट्टिया बिताने पर्वतीय क्षेत्रों पर जाते हैं। ऊँचे-ऊँचे पहाड़, घने जंगलों की श्रृंखला, कलकल बहती नदी और झरने, मौसम में ठण्‍डक। लगता है समय यही ठहर जाए और इस प्रकृति का हम भरपूर आनन्‍द लें। ऐसे मनोरम स्‍थान पर ही रहने का मन करने लगता है। गहरे जंगल के अन्‍दर प्रवेश करोंगे तो कभी हिरण, कभी खरगोश तो कभी सर्पराज आपको मिल ही जाएंगे। राजस्‍थान को रेगिस्‍तान भी कहा जाता रहा है। लेकिन इसके विपरीत एक क्षेत्र है मेवाड़, यहाँ भरपूर जंगल, पहाड़, नदियां हैं। विश्‍व की प्राचीन अरावली पर्वत श्रृंखला भी यहीं है।  उदयपुर के समीप वनांचल है, बस कुछ किलोमीटर ही चले और जंगल प्रारम्‍भ होने लगते हैं। वही पर्वत, संकरी और घुमावदार सड़के, कलकल करती नदी(अधिकतर वर्षाकाल में), अनेक वृक्षों की भरमार। कहीं पीपल हैं, कहीं बरगद है तो कहीं पलाश और कहीं सागवान। हर ॠतु में कोई न कोई वृक्ष फल-फूल रहा होता है। कभी महुवा महकता है तो कभी नीम बौराता है। कभी पलाश खिलता है तो कभी सागवान फूलों से भरा रहता है। एक मदभरी गंध वातावरण को बौराती रहती है। महुवा जब फूलता है तब उसके नीचे चादर तान कर लेट जाइए, खुमारी सी छा जाएगी। पलाश जब फूलता है तब लगता है कि जंगल के सीने में किसी ने अपने सौंदर्य से आग लगा दी है। सुबह और शाम को चहचहाते पक्षी, आपको संगीत का रसपान करा देते हैं।
लेकिन इससे परे एक और दृश्‍य है, गरीबी का, अज्ञानता का। वहाँ के वासी अज्ञानता के साथ रह रहे हैं और स्‍वयं के विकास के प्रति विचारशून्‍य। अंग्रेजों के आने के पूर्व तक इनके कबीले थे, ये जंगल के राजा थे। इनकी वेशभूषा आकर्षक थी। गहनों के रूप में पत्‍थरों और विभिन्‍न धातुओं का भरपूर प्रयोग करते थे। पशुपालन और खेती आजीविका के मुख्‍य साधन थे। शिक्षा का महत्‍व ना ये जानते थे और ना ही इन्‍हें इसकी आवश्‍यकता थी। पूर्ण स्‍वतन्‍त्रता के साथ जीवन यापन करते थे यहाँ के वासी। लेकिन अंग्रेजों ने जंगल पर सरकार का अधिकार घोषित कर दिया और ये राजा से रंक बन गए। बस तभी से इनकी दुर्दशा के दिन प्रारम्‍भ हो गए। सोचा था कि आजादी के बाद भारत का विकास गाँव से शहर की ओर होगा लेकिन हमने विकास का आधार शहर को बनाया। परिणाम स्‍वरूप गाँव उजड़ते चले गए। जहाँ के पहाड़ों से झरने फूटते थे और नदियों से होकर पानी कलकल करता बारहों मास बहता था, अब वही पानी शहरों की ओर जाने लगा। वनांचलवासी पानी को तरसने लगे। उनके कुएं सूख गए, नदियां नालों में तब्‍दील हो गयी। शहर की आवश्‍यकताओं को पूर्ण करने के लिए जंगलों का अंधा-धुंध दोहन किया गया, परिणामत: घने जंगलों का स्‍थान वीरानों ने ले लिया।
अब सरकार और समाज को समझ आने लगा है कि हमें इन क्षेत्रों के विकास के लिए कुछ करना चाहिए। करोड़ों रूपए पानी की तरह बहाए गए लेकिन जैसे वनांचल का पानी शहर की ओर आ रहा है वैसे ही यहाँ से बहकर आता हुआ रूपया भी शहर के अधिकारियों और राजनेताओं रूपी समुद्र में आ मिला। विकास के रूप में सड़के, स्‍कूल, अस्‍पताल दिखने लगे हैं लेकिन वनांचलवासी की मनोदशा नहीं बदली। वह आज भी गरीबी में दिन गुजार रहा है।
इतने मनोरम स्‍थलों पर गरीबी देखकर लगता है कि स्‍वर्ग में गरीबी छा गयी है। क्‍या हम इन स्‍थलों को पर्यटकीय दृष्टिकोण से विकसित नहीं कर सकते? अमेरिका के जंगलों को देखने का अवसर मिला। उन्‍हें मैंने अच्‍छी प्रकार से समझा कि वहाँ और हमारे जंगलों में क्‍या अन्‍तर है। हमारे जंगल कुछ किलोमीटर जाकर ही समाप्‍त हो जाते हैं लेकिन वहाँ कभी न समाप्‍त होने वाले जंगल दिखायी देते हैं। मैं उन जंगलों की सघनता से मुग्‍ध होकर शाम की वेला में पक्षियों का इन्‍तजार कर रही थी लेकिन पक्षी नहीं आए! आश्‍चर्य का विषय था। हमारे यहाँ तो एक वृक्ष पर ही इतने पक्षी होते हैं कि उनके कलरव की गूंज से चारो दिशायें गूंज जाती है। निगाहें कुछ और खोजने लगी, कहीं फल नहीं थे और कहीं फूल नहीं खिला था। जब फल-फूल ही नहीं थे तो सुगन्‍ध तो कहाँ से होगी? केवल एक ही वृक्ष की उपस्थिति सर्वत्र देखी। ना पलाश था, ना बरगद था, ना पीपल था, ना गूलर था, ना नीम था। कुछ भी नहीं था। लेकिन पर्यटकीय आकर्षण कितना अधिक था कि विश्‍व के सारे ही पर्यटक खिंचे चले आते हैं। क्‍या हम हमारे जंगलों को जो विविधता से भरे हैं, जो महक रहे हैं, जो फल और फूल रहे हैं उनकी सुगंध से दुनिया को अवगत नहीं करा सकते? जंगलों का पर्यटन बढे़गा और हमारे वनांचलवासी का हौसला भी लौट आएगा। उसकी वेशभूषा जो कभी सतरंगी थी, जिसमें गहनों की भरमार थी, क्‍या पुन: लौटायी नहीं जा सकती? इतनी सुन्‍दरता भरी हुई हैं हमारे जंगलों में कि कोई भी यहाँ आकर बौरा जाए फिर हमने क्‍यों इन्‍हें उपेक्षित छोड़ रखा है? एक ऐसा संसार यहाँ बसा है, जिसकी कल्‍पना शायद युवापीढ़ी को नहीं है। वह शहरों में जीवन का उल्‍लास तलाश रहा है, उसने कभी प्रकृति का आनन्‍द देखा ही नहीं।
एक छोटा सा गाँव जहाँ आज एक उत्‍सव है

वनांचल की एक बालिका 
मैंने इसी शनिवार को अर्थात् 1 अक्‍टूबर को ही ऐसे क्षेत्र की यात्रा की थी। पूर्व में भी कई बार जाती रही हूँ। लेकिन वर्षा के बाद जाने का आनन्‍द तो अनूठा होता है। धरती ने हरियाली ओढ़ी होती है और पहाड़ नर्तन कर रहे होते हैं। झरने खुशी से झूम रहे होते हैं। एक अन्तिम बात और, पहाड़ी स्‍थलों पर और उदयपुर के समीप सीताफल प्रचुरता से होता है। इन दिनों सीताफल ही सीताफल दिखायी देता है। हम जिस गाँव में गए थे, वहाँ के मन्दिर में भी सीताफल का पेड़ लगा था। हमारे साथ एक नवयुवती भी थी जिसने शायद पहले कभी सीताफल नहीं देखा था। उसका कौतुक इस फल के प्रति बहुत था। मैंने कहा अभी पंद्रह दिन में पक जाएंगे, लेकिन उसने कच्‍चे ही तोड़े और कहा कि इन्‍हें ही अपने साथ लेकर जाऊँगी। आप लोग भी कभी वनाचंलों का आनन्‍द ले और भारत कितना प्रकृति से सम्‍पन्‍न है इसकी जानकारी यहाँ आकर लें। तब आप विदेश यात्राओं को भूल जाएंगे। आप भी खुश हो जाएंगे और आपके कारण यहाँ का वनांचलवासी भी सम्‍पन्‍न हो सकेगा।   

Wednesday, September 28, 2011

दो प्रश्‍न - लोकार्पण क्‍या हैं? लेखन का उद्देश्‍य क्‍या है?



अपनी पुस्‍तक का लोकार्पण के अर्थ क्‍या हैं? कोई कठिन प्रश्‍न नहीं हैं, बहुत‍ सरल सा उत्तर है कि अपनी पुस्‍तक को लोगों को समर्पित करना। अर्थात अपने विचारों को पुस्‍तक के माध्‍यम से समाज में प्रस्‍तुत करना। ये विचार अब समाज प्रयोग में ला सकता है। लेकिन कई बार विवाद होता है या यूँ कहूँ कि अक्‍सर विवाद होता है कि मेरे विचार को समाज ने कैसे उद्धृत किया? यदि मेरा विचार था तो उसे मेरे नाम से ही उद्धृत करना चाहिए था। लेकिन समाज का कहना है कि जब आपने इसे लोकार्पित कर ही दिया है या सार्वजनिक कर ही दिया है तो ये विचार सभी के हो गए हैं। यह किसका विचार है उद्धृत करना बहुत अच्‍छी बात है लेकिन यदि कोई नहीं भी करे तो क्‍या यह गैरकानूनी की श्रेणी में आएगा? वर्तमान लेखकों या विचारकों के विचारों को हम उद्धृत भी कर देते हैं लेकिन प्राचीन विचारकों को तो हम अक्‍सर भुला ही देते हैं और सीधे ही उस विचार का प्रयोग करते हैं। कितनी लघुकथाएं, बोधकथाएं, मुहावरे, चुटकुले समाज में प्रचलित हैं लेकिन हम उनके लेखकों को नहीं जानते। इसलिए मैं सभी सुधिजनों से जानना चा‍हती हूँ कि क्‍या लोकार्पित विचार आपकी निजि सम्‍पत्ति हैं? क्‍योंकि मुझे किसी विद्वान ने कहा था कि जब तक आपकी पुस्‍तक लोकार्पित नहीं है तभी तक आपकी है, जिस दिन इसका लोकार्पण हो गया यह पुस्‍तक सबकी हो गयी है। जैसे कोई भवन, पुल आदि लोकार्पण के बाद सार्वजनिक हो जाते हैं।
लेखन के बारे में एक और प्रश्‍न है, हमारे लेखन का उद्देश्‍य क्‍या है? क्‍योंकि मेरा मानना है कि शब्‍द ब्रह्म है और इसे नष्‍ट नहीं किया जा सकता है। यह अपना प्रभाव समाज पर अंकित करता ही है। आपके लिखे गए शब्‍द से समाज प्रभावित होता ही है। बोले गए शब्‍द में और लिखे गए शब्‍द में भी अन्‍तर होता है। बोले गए शब्‍द का व्‍याप छोटा होता है लेकिन लिखे गए शब्‍द का व्‍याप भी बड़ा होता है और वह साक्षात सदैव उपस्थित भी रहता है। इसलिए जिसके शब्‍दों या विचारों से समाज को सकारात्‍मक ऊर्जा मिलती है वह लेखक या विचारक उतना ही महान होता है। जिस लेखन से नकारात्‍मक ऊर्जा मिलती है उसे समाज तिरस्‍कृत करता है। आज भी हम रामायण और महाभारत से ऊर्जा लेते हैं लेकिन ऐसे लेखक भी आए ही होंगे जिन्‍होंने समाज में नकारात्‍मकता की उत्‍पत्ति की हो, लेकिन वह शायद स्‍थापित नहीं हो पाए। परिष्‍कृत समाज की हमारी कल्‍पना है। मनुष्‍य और प्राणियों में बस इतना ही अन्‍तर है कि मनुष्‍य सदैव परिष्‍कृत या संस्‍कारित होता रहता है जबकि अन्‍य प्राणी प्रकृतिस्‍थ ही रहते हैं। लेखन इसी संस्‍कार की प्रवृत्ति को विस्‍तारित करने के लिए ही है।

साहित्‍य और पत्रकारिता में एक अन्‍तर दिखायी देता है। पत्रकार प्रतिदिन की घटनाओं को समाज के समक्ष प्रस्‍तुत करते हैं, उसमें विचार नहीं होता लेकिन साहित्‍यकार के लिए आवश्‍यक नहीं है कि वह प्रतिदिन साहित्‍य की रचना करे। जब भी श्रेष्‍ठ विचार उसके अन्‍तर्मन में जागृत हों, उन्‍हें विभिन्‍न विधाओं के माध्‍यम से समाज तक विस्‍तार देने का प्रयास करता है। इसलिए साहित्‍यकार प्रतिदिन नवीन रचना नहीं कर पाता। समाज के मध्‍य जाकर प्रचलित विचारों से उसके नवीन विचार जन्‍म लेते हैं और वे उन्‍हें पुन: प्रांजल कर समाज को लौटाता है। इसलिए एक साहित्‍यकार के लिए  लेखन से भी अधिक आवश्‍यक है उसका समाज के साथ एकाकार होना। या फिर भिन्‍न विचारों का पठन, जो समाज में पुस्‍तकरूप में विद्यमान है। इन्‍हीं संस्‍कारित विचारों को हम समाज को देते हैं।
इसलिए आइए हम इस बात पर चिंतन करें कि हमारे लेखन का उद्देश्‍य क्‍या है और जो लेखन लोकार्पित हो गया है वह क्‍या आपकी निजि सम्‍पत्ति है या फिर सभी के उपयोग के लिए उपलब्‍ध है?

Thursday, September 22, 2011

हर व्‍यक्ति जरूरी होता है - अजित गुप्‍ता



निर्मम पतझड़ का आक्रमण! हरे-भरे पत्तों का पीत-पात में परिवर्तन! कभी तने से जुड़े हुए थे और अब झड़ के अलग हो गए हैं! वातावरण में वीरानी सी छायी है। सड़कों पर पीत-पत्र फैले हैं। बेतरतीब इधर-उधर उड़े जा रहे हैं। वृक्ष मानों शर्म हया छोड़कर नग्‍न हो गए हैं। भ्रम होने लगता है कि कहीं जीवन तो विदा नहीं हो गया? ठूंठ बने वृक्ष पर कौवा आकर कॉव-कॉव करने लगता है। सूखे श्रीहीन वृक्ष पर कैसा कर्कश स्‍वर है? लेकिन य‍ही नियति है। निर्मम पतझड़ ने सबकुछ तो उजाड़ दिया है। क्‍यों किया उसने ऐसा? यह पतझड़ ही खराब है, चारों तरफ से आवाजें आने लगी हैं। हवाएं भी चीत्‍कार उठी हैं, सांय-सांय बस चलती रहती हैं। माहौल गर्मा गया, हरियाली विलोप हो गयी। आँखों का सुकून कहीं बिसरा गया। प्रकृति का ऐसा मित्र? नहीं हमें जरूरत नहीं ऐसे मित्र की। पशु-पक्षी सभी ने मुनादी घुमा दी, नहीं चाहिए हमें पतझड़।
अभी बवण्‍डर अपना रूप ले ही रहा था कि एक अंकुर फूट गया। वृक्ष पर हरीतिमा छाने लगी। नवीन कोपल मन को उल्‍लास से भरने लगी। देखते ही देखते वृक्ष लहलहा गया। इतनी सुंदरता? इतनी मोहकता? कहाँ थी यह पहले? पतझड़ ने धो-पौंछकर नवीनता ला दी। अब तो राग भी बदल गया, कौवे का स्‍थान कोयल ने ले लिया। चिड़ियाऐं भी फुदकने लगी। मधुमक्‍खी ने भी छत्ता बना डाला। पुष्‍पों से पराग सींच-सींचकर मकरन्‍द बन गया।
बहुत सुन्‍दर है प्रकृति, बहुत जरूरी है इसके सारे ही तत्‍व। सारी ही ॠतुएं। इनमें से एक भी अपना कर्तव्‍य भूल जाए तो चक्र डांवाडोल हो जाएगा। प्रकृति ही विनाश करती है और प्रकृति ही सृष्टि को पुन: रचती है। जब-जब भी विरूपता-कुरूपता का आक्रमण हुआ, प्रकृति ने नवनिर्माण किया। जब प्रकृति डोलती है तब उसकी नाराजी सहन नहीं होती। लेकिन वह तो नव-निर्माण कर रही होती है। मनुष्‍य को सावचेत कर रही होती है कि इस संसार में सभी कुछ नश्‍वर है। पुरातन के बाद ही नवीन का उदय होगा।
हमारे मन में भी अनेकानेक विचार करवट लेते रहते हैं। कभी ये विचार भूचाल ला देते हैं तो कभी सुनामी। एकबारगी तो धरती विषैली सी हो जाती है लेकिन विष के बाहर आने के बाद एकदम शान्ति। आवश्‍यक है विचारो का उर्ध्‍व-वमन, निकल जाने दो इन्‍हें बाहर। प्रकृति में विष विस्‍तार लेगा तो अमृत की भी खोज होगी। समुद्र मंथन शायद हमारे मनों में ही हुआ हो। अमृत और विष दोनों ही बाहर आ सके थे। जिसको जो लेना था, उसने वो ले लिया। य‍ह सृष्टि ऐसे ही विस्‍तार लेती है। आज की युवा-पीढ़ी कहती है सारे ही फेंडस जरूरी है। हम भी यही कहते हैं कि सारे ही व्‍यक्ति जरूरी हैं। भोजन में षडरस। यात्रा पर निकलिए, करेला कितना मधुर लगता है। तीखे अचार का तो कहना ही क्‍या। भोजन के अन्‍त में मीठा ना हो तो? सारे ही रस अपने-अपने स्‍वादों की प्रधानता को स्‍थापित करते रहेंगे। जैसे हम अपने विचारों को स्‍थापित करते रहते हैं। परिवार में सारे ही सदस्‍य भोजन की टेबल पर बैठे हैं, बच्‍चा सबसे पहले करेले जैसी सब्‍जी को बाहर निकालता है, गुस्‍से में बोलता है कि मुझे नहीं खाना करेला। तभी दादाजी घुड़का देते हैं, क्‍यों नहीं खाना करेला? लेकिन अगले ही पल वे भी बोल उठते हैं कि मुझे नहीं खाना आलू-बेसन। सभी के अपने स्‍वाद हैं, सभी की जरूरतें। मत खाइए जो आपको पसन्‍द ना हो, लेकिन दूसरे के खाने को बुरा मत कहिए। आज जो मुझे पसन्‍द नहीं, हो सकता है वही कल मेरी जरूरत बन जाए। इसलिए मित्रों हमें भी सभी की जरूरत है। बस यही कहते रहिए कि सभी मित्र, सभी व्‍यक्ति जरूरी होते हैं।  इस धरती की खूबसूरती बनाए रखने के लिए प्रत्‍येक रंग जरूरी है, कहीं काला फबता है तो कहीं सफेद, कही हरा तो कहीं लाल। कभी कौवा आवश्‍यक होता है तो कभी कोयल का मधुर राग अच्‍छा लगता है। विचित्रता में ही आनन्‍द है। लड़ाई-झगड़े भी हमारे मन के कलुष को निकालने के लिए आवश्‍यक है। सभी का सम्‍मान कीजिए, सभी को जीने का अवसर दीजिए। बस हमेशा कहते रहिए सभी प्राणी जरूरी हैं।  

Saturday, September 17, 2011

आजकल लोग बिच्‍छू होते जा रहे हैं - अजित गुप्‍ता



चौंकिए मत। बिच्‍छू ऐसा प्राणी है जो अपने शरीर में डंक ही डंक लेकर चलता है। चलते-चलते बस डंक ही मारता है और अपना जहर सामने वाले के शरीर में उतार देता है। इतना सा जहर की ना आदमी मरे और ना ही दो-चार दिन जी पाए। कुछ लोग बिच्‍छू के जहर को स्‍याणों-भोपों से उतरवाते भी हैं। आदमी की तुलना बिच्‍छू से? लेकिन क्‍या आपको नहीं लगता कि यह सच है। यदि नहीं लगता तो शायद आपके ज्ञान के चक्षु अभी खुले नहीं है। हम तो अनुभव के उस मुकाम पर पहुंच गए हैं जहाँ चक्षु प्रतिदिन नित नया ज्ञान दिखाते हैं। मुझे तो कभी-कभी आशंका होने लगती है कि कहीं ऐसे ही तीव्र गति से ज्ञान की प्राप्ति होती रही तो केवलज्ञान के समीप ही नहीं पहुंच जाए हम!
बिच्‍छू के जहर से एक बात और ध्‍यान में आयी। किसी तत्‍वज्ञानी ने बताया था कि यदि महिला गर्भवती हो और उसे बिच्‍छू काट ले तो बिच्‍छू मर जाता है। एक बार साक्षात मैंने देखा भी है, लेकिन एक बार ऐसा होना संयोगमात्र भी हो सकता है। लेकिन एक सिद्धान्‍त तो बन ही जाता है कि यदि आपके मन में कोई अन्‍य का मन आत्‍मसात हो तो शायद बिच्‍छू का जहर असर ना करे उल्‍टा बिच्‍छू ही मर जाए! इसे यूं भी कह सकते हैं कि जो किसी के प्रेम में अंधे होकर घूमते हैं उन्‍हें शायद ऐसे बिच्‍छुओं के जहर का असर होता ही नहीं हो। अब यह प्रेम कई प्रकार का होता है, व्‍यक्ति का प्रेम, काम का प्रेम, देश का प्रेम आदि आदि। जो धुन का मतवाला है उसे कितने भी डंक मारो, नालायक को असर ही नहीं होता। बेचारे बिच्‍छू जैसे लोग बड़े आहत हो जाते हैं!
डंक मारने के प्रयोग देखिए, एक संत-फकीर टाइप इंसान अनशन करता है तो राजनेता डंक मारते हैं कि इसकी नियत में खोट है, यह स्‍वयं सत्ता पर काबिज होना चाहता है। लेकिन कोई राजनेता ही उपवास पर बैठ जाए तो डंक लगेगा कि नहीं इसे अधिकार नहीं है, ऐसे नाटक करने का अधिकार तो केवल मेरे पास ही है। और बानगी देखिए, आपने घर में जरा भी ऊँची आवाज में अपनी बात पुरजोर शब्‍दों में कह दी तो झट से एक डंक निकल आएगा कि नेतागिरी करते हो? अब आज के नेता की बदनामी का जहर आपके शरीर में इंजेक्‍शन की तरह घुसा दिया गया है और आप कई दिनों तक इस जहर से उबर नहीं पाते। कभी-कभी आपको स्‍याणों की शरण में भी जाना पड़ जाता है। आज शनिवार है, इस देश के करोड़ों लोग आज के दिन व्रत रखते हैं। लेकिन बस आज यही प्रश्‍न डंक की तरह फड़फड़ाता रहेगा अरे आज आपने भी उपवास रखा है
अभी दो दिन पूर्व मेरे मोबाइल पर एक मेसेज आया don’t get upset with people or situation … they are powerless without your reaction. इस वाक्‍य को मैंने अपनी एक टिप्‍पणी में भी उद्धृत किया था। मेरे अनुभव से मुझे यह ज्ञान भी प्राप्‍त हुआ कि जो जितना शिक्षित उसके डंक में उतना ही तीव्र जहर। पत्रकारों को देखा नहीं कैसे-कैसे प्रश्‍न करते हैं! लोग तो कहते हैं कि इनका काटा पानी नहीं मांगता। लेकिन राजनेता इनको झेल जाते हैं। मैं आप लोगों से इतना ही ज्ञान बांट रही हूँ कि लोग कितने ही बिच्‍छू बन जाएं लेकिन आप उन पर ध्‍यान मत दीजिए। मेरा यह अचूक फार्मूला है और मैंने इसी फार्मूले से कई लड़ाइयां जीती हैं। मुझे लोग कहते रहते हैं कि आप प्रतिक्रिया क्‍यों नहीं करती? मैं हमेशा कहती हूँ कि मेरा कार्य है क्रिया करना, प्रतिक्रिया दूसरों के लिए छोड़ रखी है।
एक छोटा सा उदाहरण देती हूँ, मेरे द्वारा आयोज्‍य एक कार्यक्रम में कुछ लोग उपद्रव करने की मंशा से आए थे। मंच से एक विद्वान ने कह दिया कि हमारे जमाने में विश्‍वविद्यालय में रौनक रहती थी। बस फिर क्‍या था, उपद्रव प्रारम्‍भ। प्रश्‍नों के बाण आने लगे कि क्‍या वर्तमान में ताले लगे हैं? कुछ देर तक मैं तमाशे का आनन्‍द लेती रही और अन्‍त में मैंने कहा कि आज आप लोगों की प्रतिक्रिया देखकर मन प्रसन्‍न हो गया क्‍योंकि न जाने कितने बरसों तक एक वर्ग बेचारा प्रतिक्रिया करता था और आप लोग प्रसन्‍न होते थे आज पहली बार हमें अवसर मिला है कि आप हमारी बात पर प्रतिक्रिया कर रहे हैं तो यह प्रसन्‍नता की बात है। शान्ति छा गयी। आज ऐसी ही प्रसन्‍नता फिर हो रही है कि अब तो प्रतिक्रिया में उपवास भी होने लगे हैं। कहीं ऐसा नहीं हो कि गांधी जी की तरह कोई व्‍यक्ति लंगोटी धारण कर ले और ये सरकारी नेता भी कहे कि हम भी अब केवल लंगोटी ही पहनेंगे। जनता तय करे कि असली फकीर कौन? लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता। यहाँ तो होड़ लगी है कि खाई कितनी चौड़ी हो। जनता के पास से खाने के दाने भी छीन लो और इन सरकारी नेताओं का धन हजारों में नहीं और ना ही लाखों में बस करोड़ों में प्रतिवर्ष बढ़ता रहे और जनता और नेताओं के बीच की खाई का विस्‍तार होता रहे।
जनता तो बेचारी हो गयी है, कभी किसी के डंक से आहत होती है और कभी किसी के। अब राजनेताओं के डंकों से आहत हो रही है। कभी पेट्रोल के दाम के माध्‍यम से तो कभी मंहगाई के डंक से। ये सारे डंक भी बिच्‍छू के जहर जैसे ही हैं, दो-तीन दिन रोना-पीटना रहता है फिर आदत सी हो जाती है। जनता निकल पड़ती है अपने काम को फिर नए डंक की तलाश में। हमने तो सरकारी मंहगाई को भी प्राकृतिक आपदा मान लिया है की कभी सूखा और कभी अतिवृष्टि। बस प्रतिक्रिया मत करो और अपना काम करते रहो। पेट्रोल के लिए जेब आज्ञा नहीं देती तो सार्वजनिक वाहन का उपयोग करो और मंहगाई की मार से प्‍याज का तड़का नहीं लगा स‍कते तो केवल जीरा ही बहुत है, पेट भरने को। स्‍वाद में वैसे भी क्‍या धरा है?
विशेष नोट कई दिनों से बाहर प्रवास पर रहने के कारण कोई पोस्‍ट नहीं लिखी गयी थी तो सारी भंडास एक साथ ही निकाल दी गयी है। आप चाहें तो प्रतिक्रिया कर स‍कते हैं।  

Tuesday, August 30, 2011

आखिर चमत्‍कार हो ही गया - अजित गुप्‍ता



अभी पूर्व पोस्‍ट में अन्‍ना हजारे के अनशन से जुड़ी कई आशंकाएं थी और किसी चमत्‍कार की उम्‍मीद भर थी। लेकिन चमत्‍कार हुआ और यह चमत्‍कार जनता का जागृत-स्‍वरूप का चमत्‍कार था। इन दिनों काफी प्रवास रहे और जैसा कि सभी का अनुभव रहता है कि रेल यात्राएं बहुत कुछ कहती हैं। अभी 26 अगस्‍त को दिल्‍ली से रामपुर जा रही थी। यात्रा सूनी-सूनी सी ही थी। लेकिन अमरोहा स्‍टेशन पर एक सज्‍जन का पदार्पण हुआ और अभी वे अपनी बर्थ पर टिकते इससे पूर्व ही उनका बोलना प्रारम्‍भ हो गया। वे ऊपर की बर्थ पर आराम कर रहे सज्‍जन से संवाद स्‍थापित करने लगे और विषय तो वही चार्चित था अन्‍ना हजारे। वे बोले कि देखिए अब सरकार को समझना चाहिए और बताइए कि राहुल गाँधी क्‍यों नहीं बोल रहे हैं? वे बिल्‍कुल ही नजदीकी बनाकर बोल रहे थे तो उन्‍हें उपेक्षित भी नहीं किया जा सकता था। लेकिन मैंने इस बार चर्चा में भागीदारी करने से अच्‍छा सुनने को प्राथमिकता दी। वे लगातार बोले जा रहे थे कि ये सारे जनता के सेवक हैं इन्‍हें काम करना चाहिए।
ऊपर की बर्थ पर जो सज्‍जन लेटे थे वे रामपुर में ही कोई अधिकारी थे। उनके आने और जाने वाले फोन से पता लग रहा था। अब जब उन्‍होंने सेवक कह दिया तो अधिकारी महोदय को जवाब देना ही था। वे बोले कि नहीं नहीं सब बेकार की बात है। संसद सर्वोपरी है। अब वे भी नीचे की बर्थ पर आ चुके थे। कुछ देर तक ऐसे ही बातों का सिलसिला चलता रहा। अब जैसा कि कांग्रेस की आदत है कि सर्वप्रथम दूसरे का चरित्रहनन करो वैसे ही स्‍वर में वे अधिकारी बोले कि आप वोट कास्‍ट करते हैं? वे शायद उनका प्रश्‍न समझ नहीं पाए या सुन नहीं पाए। बस अधिकारीजी का बोलना शुरू हो गया कि वोट देते नहीं और रईसों की तरह चाय की टेबल पर चर्चा करते हैं। लेकिन तभी उन सज्‍जन ने उनका भ्रम तोड़ दिया कि वोट तो सभी देते हैं।
अब दूसरा प्रश्‍न जो इस आंदोलन में अक्‍सर उठा कि जनता भ्रष्‍ट है, अन्‍ना के आंदोलन में जो आ रहे हैं पहले वे अपना चरित्र देखें। उन्‍होंने दूसरा प्रश्‍न दाग दिया कि आप क्‍या करते हैं? उन सज्‍जन ने बताया कि व्‍यापारी हूँ, कपड़े का धंधा है। बस फिर क्‍या था? आप इनकम-टेक्‍स देते हैं? देते हैं तो पूरा देते हैं? आदि आदि। उन्‍होंने कहा कि मेरा 80 लाख का कारोबार है और पूरे हिसाब से टेक्‍स देता हूँ। वे सज्‍जन जितने विश्‍वास के साथ बोल रहे थे उससे कहीं भी नहीं लग रहा था कि वे झूठ बोल रहे हैं। आखिर अधिकारीजी का वार खाली चले गया और वे निरूत्तर हो गए। एक मौन छा गया। तभी उन व्‍यापारी सज्‍जन ने बताया कि मेरा एक बेटा इनकम टेक्‍स कमीश्‍नर है। हमारे यहाँ दादाजी के समय से कई बार छापे पड़ चुके हैं लेकिन आजतक भी एक पैसे की भी गड़बड़ नहीं निकली। अब तो अधिकारीजी के पास बोलने को कुछ नहीं था। 
जनलोकपाल के कारण अधिकारी और राजनेता बौखलाए हुए से हैं। वे स्‍वयं को सेवक सुनने के आदि नहीं हैं। वे तो स्‍वयं को मालिक मान बैठे हैं। इसलिए व्‍यापारी को तो वे बेईमान ही मानकर चलते हैं। इन व्‍यापारियों को ही सर्वाधिक वे निशाना भी बनाते हैं। बेचारे मरता क्‍या न करता की तर्ज पर इन्‍हें हफ्‍ता भी देता है। लेकिन रेल यात्रा में एक आम आदमी का दर्द उभरकर सामने आ जाता है। मुझे उन व्‍यापारी सज्‍जन पर हँसी भी आ रही थी कि वे अपनी बात कहने के लिए कितने उतावले हो रहे थे। शायद व्‍यापारी वर्ग को तो पहली बार बोलने का अवसर मिला होगा कि वे भी अपना दर्द सांझा करे। व़े जिस अंदाज में बोले थे कि राहुल गांधी को बोलना चाहिए था वह अनोखा था। शायद उनकी बात सुन ली गयी थी और राहुल गांधी उवाच भी हुआ और यदि ना बोले होते तो कुछ छवि बची रह जाती। खैर जो हुआ अच्‍छा ही हुआ। मुझे तो इस बात की खुशी है कि आज के पंद्रह वर्ष पूर्व मैंने इस विषय पर लिखना प्रारम्‍भ किया था कि कानून सभी के लिए बराबर हो और इस कारण लोकपाल बिल शीघ्र ही पारित हो। ऐसा लोकपाल बिल जिसमें प्रत्‍येक सरकारी कर्मचारी और प्रत्‍येक राजनेता कानून के सीधे दायरे में आएं और देश से राजा और प्रजा की बू आना बन्‍द हो। इसलिए अन्‍ना हजारे और उनकी टीम को बधाई कि उन्‍होंने एक सफल आंदोलन को अंजाम दिया। लेकिन अभी केवल लोकतंत्र की ओर एक कदम बढ़ाया है मंजिल अभी दूर है। न जाने कितने कठिन दौर आएंगे बस जनता को जागृत रहना है। विवेकानन्‍द को स्‍मरण करते हुए उत्तिष्‍ठत जागृत प्राप्‍य वरान्निबोधत। 

Sunday, August 14, 2011

दरवाजे अकड़े हैं जनता की तरह, सरकार की अर्गलाएं लातों के सहारे से लगायी जा रही हैं – अजित गुप्‍ता



बरसात का मौसम है, चहुतरफा हरियाली ने मन मोह रखा है। बारिश टूटकर तो नहीं बरसी लेकिन कभी फुहारें तो कभी कुछ मध्‍यम दर्जे की बारिश ने सरोबार अवश्‍य किया है। नमी वातावरण में घुली है। कभी दीवारों में दिखायी दे जाती है तो कभी दरवाजों से अनुभूत होती है। दरवाजे आम जन की तरह अकड़ने लगे हैं और सरकार जैसी अर्गलाओं के सारे प्रयासों को धता बताते हुए चौखट के अन्‍दर जाने से मना कर बैठे हैं। हम भी पुलिसिया लातों के साथ उसे धकियाते रहते हैं और कभी हमारी जीत हो जाती है और कभी जनतानुमा दरवाजे की। दिन की रौशनी में तो चिन्‍ता नहीं रहती इन दरवाजों की अकड़ की, लेकिन रात को लगता है कि इनकी अकड़ को ठीली छोड़ दिया गया तो ये अन्‍य लोगों को भी आमन्त्रित कर देंगे। इसलिए रात को चाक-चौबन्‍द रहना पड़ता है और सारे ही सरकारी हथकण्‍डों की तरह हम भी इन्‍हें चौखट में सीमित कर ही देते हैं। लेकिन फिर प्रश्‍न उगता है कि आखिर कब तक चौखट में बन्‍द रखे जाएंगे? कब तक लातों के सहारे इनकी अकड़ को काबू में रखा जाएगा? ये तो अपनी स्‍वतंत्रता चाहेंगे ही ना। अब देखो ना ये कहते हैं कि हमें स्‍वतंत्रता दो और अर्गलाएं कहती हैं कि तुम स्‍वतंत्रता नहीं स्‍वच्‍छन्‍दता मांग रहे हो।
हमारी वर्तमान सरकार की भी यही स्थिति है। आम जनता और सरकार के बीच यही कसमकस मची है। अन्‍ना हजारे रूपी बौछारे आ रही हैं और आम आदमी को लग रहा है कि आजादी के बाद पहली बार किसी ने आम आदमी के लिए प्रेम की बरसात की है। उसे बताया है कि तुम इस देश के मालिक हो। अभी तक तो हम यही समझे थे कि जनता तो बेचारी गुलाम ही रहती है, कभी परायों की और कभी अपनों से। हम भी मालिक हैं, यह सुनकर तो शरीर में झुरझुरी सी होने लगी। वैसे जब भी देश में चुनाव होते हैं, नेता लोग कहते हैं कि हमें सेवा का अवसर दीजिए। लेकिन यह नहीं सुना था कि आप मालिक हैं और हमें आपकी सेवा का अवसर दीजिए। वे तो इतना कहते थे कि देश की सेवा का अवसर दीजिए। अब देश का तो मूर्त स्‍वरूप दिखायी देता नहीं तो बेचारे किस की सेवा करते, स्‍वयं की सेवा को ही उन्‍होंने कर्तव्‍य समझ लिया। लेकिन अब तो समझ आ रहा है कि देश की मूर्त स्‍वरूप जनता रूपी हम है और हमारी सेवा के लिए ही ये नियु‍क्‍त हैं। घर के बाहर झांककर भी देखा कि देखें तो सही कि आखिर कौन नियुक्‍त है हमारी सेवा को? एक बार हमारे शहर में देश के सबसे बड़े सेवक पधारे। लगा कि आज तो जनता दरबार लगेगा। जनता के दरवाजे जाकर पूछा जाएगा कि आपको कोई तकलीफ तो नहीं है? लेकिन उस दिन तो सारा शहर ही मानो कर्फ्‍यूग्रस्‍त हो गया। लाट साहब नहीं वर्तमान में लाट साहिबा है कि सवारी निकलेगी इसलिए सभी रास्‍ते, चौराहे बन्‍द कर दिये गए। जनता को मुनादी करा दी गयी कि कोई सड़क पर नहीं निकले। दिन भर शहर में गस्‍त चलती रही, और बेचारी जनता को समझाया जाता रहा कि आज तुम्‍हारी मालकिन आयी है। अब आप ही बताइए कि अन्‍ना जी की बात पर विश्‍वास करें तो कैसे करें? दिन में कई बार चिकौटी काटकर देख लेते हैं कि सपना तो नहीं है? लेकिन अभी तक तो सच ही लग रहा है। अभी कुछ दिन पहले भी बहुत खुश हुए थे कि देश का खजाना जो बाहर जमा है, आने वाला है लेकिन रातों-रात सपनों को तोड़ दिया गया। देश में ऐसा गदर मचाया गया और ठोक-ठोक के बता दिया गया कि तुम जनता ही हो, मालिक नहीं अत: अपनी औकात में रहो। इसलिए अब देखों कि आम जनता कब ठुकती है बस इसी बात का इन्‍तजार है।
मैं तो मेरे नमी से सरोबार दरवाजे को देख रही हूँ, उसकी अकड़ को समझा भी रही हूँ कि अपनी औकात में आ जाओ नहीं तो अभी लातों के सहारे तुम्‍हें चौखट में बन्‍द किया जाता है नहीं मानोंगे तो आरी से छील दिए जाओगे। थोड़ी सी छिलाई हुई और सारी अकड़ समाप्‍त। मालिक बनने का भ्रम पालने का नतीजा जल्‍दी ही समझ आ जाएगा, मुझे तो समझ आ गया है। अभी जनता जनार्दन को भी आ ही जाएगा। फिर भी आशा तो लगी ही है शायद कुछ चमत्‍कार हो जाए? आप लोग क्‍या कहते हैं?  

Wednesday, August 10, 2011

रेल यात्राओं के अनोखे अनुभव - अजित गुप्‍ता



यात्रा करना हमारे जीवन का अभिन्‍न अंग है। यात्राओं के कितने संस्‍मरण हमारे मस्तिष्‍क पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं। न जाने कितने प्रश्‍न भी खड़े हो जाते हैं। अभी 30 जुलाई को दिल्‍ली से वाराणसी जाना था। उसी दिन खुशदीपजी की एक पोस्‍ट आयी थी और मैंने अधिकारपूर्वक उन्‍हें लिख दिया था कि मैं आज दिल्‍ली में हूँ। तत्‍काल ही उनका फोन आ गया और यह निश्चित रहा कि शाम को ट्रेन पर ही मिलते हैं। मुझे संकोच भी हो रहा था कि केवल ब्‍लाग की पहचान के कारण उन्‍हें नई दिल्‍ली स्‍टेशन तक बुलाना, कितना जायज है और उन्‍हें आने में कठिनाई तो नहीं होगी। लेकिन वे और शहनवाज दोनो ही आए। मेरी ट्रेन में लगभग एक घण्‍टे का समय था तो हमने पास ही एक रेस्‍ट्रा में बैठकर बातचीत की। बातचीत तो ज्‍यादा नहीं हो पायी क्‍योंकि खुशदीपजी तो खातिरदारी में ही लगे रहे। खैर हम आधा घण्‍टे पूर्व गाड़ी में आकर बैठ गए। अभी अपनी बर्थ पर बैठने की कोशिश ही कर रहे थे कि धमाक से एक आवाज हुई। हम तीनों ही चौंके, कि क्‍या हुआ? हमने आवाज की तरफ पलटकर देखा। साइड लोअर बर्थ के पास एक विदेशी महिला खड़ी थी, जिसने लगभग चार इंच की हील वाली चप्‍पल पहन रखी थी। मानो वह युधिष्ठिर की तरह धरती से ऊपर चलना चाह रही हो। उसने अपने पैर को जो हील वाली चप्‍पल से घिरा था, जोर से धम से पटका। हम समझ गए कि यह धमक देशी नहीं विदेशी ही है। अब उसके हाथ में मोबाइल था और वह पूरी मेघ गर्जना के साथ फोन पर किसी पर बिजली गिरा रही थी। उसके साथ एक वृद्ध व्‍यक्ति भी थे और बाद में आता जाता एक किशोर वय का बालक भी दिखायी दिया। उसे पूरे हिन्‍दुस्‍थानी तर्ज पर चिल्‍लाते देख शहनवाज ने कहा कि आपका सफर कैसा रहेंगा?
वह शायद अपने एजेण्‍ट पर चिल्‍ला रही थी, कि उसने ढंग की बर्थ नहीं दिलायी और इस कारण उसके बेटे को भी साथ-साथ बर्थ नहीं मिली। लेकिन उसका प्रकोप शान्‍त नहीं हुआ। एक बार तो मन किया कि उसकी फोटो ले जी जाए, लेकिन फिर डर भी लगा कि कहीं मेरे ही ना चिपट जाए? हमारे साथ ही दो चाइनीज लड़किया भी थी, वे भी अपनी भाषा में बोलकर आनन्‍द ले रही थी। मेरे आसपास और कोई नहीं था, एक महिला कुछ देर से आयी लेकिन वह भी बातों में रुचि प्रदर्शित नहीं कर रही थी। सुबह जाकर पता लगा कि वह अपनी छोटी सी नातिन को छोड़कर आयी है इसलिए अनमनी सी थी। इसलिए मैं प्रतिक्रिया के आनन्‍द से वंचित थी।
अक्‍सर बात होती रहती है अमेरिका की, दूसरे दिन ही वाराणसी में एक मित्र के यहाँ जाना था। वहाँ उनकी एक रिश्‍तेदार जो दुबई में रहती हैं, से मुलाकात हो गयी। बातों ही बातों में पता चला कि दुबई में भी अमेरिका की तरह ही ना बच्‍चे रोते हैं और ना ही कुत्ते भौंकते हैं। यदि बच्‍चे रोते हैं तो समझो हिन्‍दुस्‍थानी है। हिन्‍दुस्‍थान में भी देखा है कि हिन्‍दी भाषी बेल्‍ट ही ज्‍यादा मुखर और  प्रखर दिखायी देती है। मैं उस समय ट्रेन में सोच रही थी कि अमूमन विदेशी यात्री शान्‍त होते हैं। वे अक्‍सर अपनी नींद पूरी करने में ही यकीन रखते हैं। लेकिन वह महिला अपने गुस्‍से पर काबू ही नहीं पा रही थी। दो-एक घण्‍टे बाद रात्रि-भोज का आदेश लेने वेटर आया तो उसके सहयात्री बुजुर्ग व्‍यक्ति ने जो शायद उसका पति ही था ने वेटर से हिन्‍दी में बात की। तब उस महिला ने भी कुछ शब्‍द हिन्‍दी में बोले। मैंने अपनी चुप्‍पी पर राहत की साँस ली। यदि अन्‍य कोई सहयात्री होता तो मैं अवश्‍य ही हिन्‍दी में कुछ न कुछ टिप्‍पणी अवश्‍य करती। और फिर? रात्रि को जब सोने का अवसर आया तब भी उस महिला ने अपनी ऊपर वाली बर्थ का उपयोग नहीं किया और दुख-सुख के साथ बड़बड़ाती हुई एक छोटी सी साइड लोअर बर्थ पर ही दोनों ने अपना आसरा बनाया। मैने लाइट बन्‍द करनी चा‍ही तो उसकी गुर्राहट फिर उभरी- नो नो। मैंने अपना पर्दा खींचा और सोने में ही भलाई समझी।
लेकिन मुझे इस तथ्‍य से ज्ञान प्राप्ति अवश्‍य हो गयी थी कि आम तौर पर शान्‍त रहने वाले ये विदेशी हिन्‍दी भाषी होने के कारण ही शायद चमक-धमक रहे हैं। इतना तेवर नहीं तो आया कहाँ से? वाराणसी पहुंचने तक उसके तेवर वैसे ही बने रहे। शाहनवाज भाई बस ऐसा ही कटा मेरा सफर। खुशदीपजी ने भी मेरी पिछली पोस्‍ट में पूछा था कि उस विदेशी महिला का क्‍या हाल रहा तो मैंने सोचा यह यात्रा वृतान्‍त भी लिख ही दो।     

Thursday, August 4, 2011

रेल यात्रा में अपने सामान को छोड़कर जाने से मचा कोहराम - अजित गुप्‍ता



रेल अपनी पूर्ण गति के साथ धड़धड़ाती चले जा रही थी। सभी यात्री एकदूसरे से अनजान स्‍वयं में ही व्‍यस्‍त थे। किसी ने भी किसी का परिचय नहीं लिया था। वाराणसी स्‍टेशन से शिवगंगा ट्रेन को रवाना हुए अभी डेढ़ घण्‍टा गुजरा होगा। स्‍टेशन पर मुझसे मिलने आयी मेरी साहित्‍यकार मित्र ने एक पुस्‍तक भेंट दी थी तो मुझे उसे पढ़ने की उत्‍सुकता थी। मैं उसी पुस्‍तक में डूबी थी। मेरे पास एक सहयात्री थे, जो फोन पर कब से बतिया रहे थे। सामने ही एक माँ और बेटा बैठा था लेकिन बेटा अपनी ऊपर की बर्थ पर सोने चला गया था। सभी अपने-अपने में व्‍यस्‍त थे, तभी किसी महिला यात्री की आवाजे कान में पड़ना शुरू हुई। वह जोर-जोर से फोन पर किसी को बता रही थी कि कई बार टीसी को बुलाया लेकिन वह अभी तक भी नहीं आया है। न जाने कौन एक महिला अपना बेग रखकर घण्‍टेभर से गायब है। पता लगा कि वह अपने पति को फोन पर बता रही थी, पति रेलवे के ही अधिकारी थे। उस महिला की बातों से सभी के कान खड़े हुए। पास वाला सहयात्री भी टीसी के पास गया हुआ था। मुझे लगा कि शायद वह टीसी को बुलाने ही गया है। लेकिन कुछ ही देर में वह लौट आया। उस महिला की बातों से सनसनी फैल चुकी थी। एक सावले रंग की 30 वर्ष के लगभग एक महिला अपनी टिकट चेक कराने के बाद एक बेग छोड़कर चले गयी थी। बेग को ऊपर वाले स्‍टेण्‍ड पर रख दिया था, जिस पर अक्‍सर अटेण्‍डेड चद्दरे रखता है। सारे ही यात्री अकस्‍मात ही एक हो गए थे, जो अभी तक चुपचाप थे, सभी आपस में बतियाने लगे थे। मैंने तब तक अपने खाने का डिब्‍बा खोल लिया था। मुझे कोई सीरियस मेटर नहीं लग रहा था तो मैंने सभी से कहा कि पहले खाना खा लो, फिर साथ ही मरेंगे। कम से कम भूखे पेट तो नहीं मरेंगे।
खैर हमारे द्वितीय श्रेणी एसी के कोच में टीसी साहब अव‍तरित हो ही गए और लोग उन पर पिल पड़े कि इतनी देर से डिब्‍बे में कोहराम मचा है और आप कही महफिल सजाए बैठे हैं? कुछ देर वे चुपचाप सुनते रहे, फिर मुझे लगा कि बेकार की बहस में समय जाया हो रहा है और बेग महाशय चुपचाप अपनी जगह विराजमान ही हैं। मैंने उनसे कहा कि पहले बेग उठाओ और इसे और कहीं रख दो। टीसी बेमन से उसे उठाकर ले गया। कुछ देर बाद ही खबर आयी कि उसमें कुछ नहीं है। दो-तीन पुलिस वाले भी अपनी बंदूक लिए परिक्रमा करने चले आए थे। हम सभी ने पूछा कि आप लोग तो कभी दिखायी देते नहीं फिर अब कैसे? वे बोले कि हमारा एसी कोच में आना मना है। यह भी मजेदार बात है, जेसे पुलिस वालों को कह रखा हो कि आप लोग एसी डिब्‍बे में चौथ-वसूली नहीं कर सकते इसलिए आपका वहाँ जाना वर्जित है? खैर वे भी परिक्रमा पूरी करके जा चुके थे और बातों का सिलसिला फिर शुरू हो चुका था। क्‍योंकि भला बाते जब शुरू हो जाएं तो कहीं जल्‍दी से थमती हैं क्‍या? फिर चाहे डिब्‍बा एसी हो या नान एसी। एक शंका यह भी जतायी जा रही थी कि कहीं उस पेसेन्‍जर के साथ कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी? इसीलिए वह दो घण्‍टे से गायब है। बातों का बतरस बहते हुए आखिर इलाहाबाद आने लगा। तभी वह महिला यात्री प्रगट हो गयी। अब तो तमाशा हो गया। वह महिला 14 नम्‍बर बर्थ वाली बोली कि क्‍या मैं आपको आतंककारी दिखती हूँ? अरे भाई क्‍या आतंककारी के दो सींग लगे होते हैं? फिर उसकी अकड़ बढ़ने लगी और बोली कि मैं कहीं भी जाकर बैठूं क्‍या जरूरी है कि बताकर जाऊँ? अभी उसकी आवाज का सुर तेजी पकड़ने ही लगा था कि इलाहाबाद आ गया और गाड़ी रूकते ही धड़ाधड़ पुलिस वाले अपनी लकदक वर्दी में आने लगे। हमारी बर्थ 9 नम्‍बर थी तो पहलं वहीं से गुजरे। हमने बता दिया कि खतरे की कोई बात नहीं हैं, लड़की आ गयी है। उन्‍होंने चैन की सांस ली। अब पुलिस को देखकर लड़की की सिट्टी-पिट्टी गुम। आखिर उसके साक्षात्‍कार के साथ उसका पता-ठिकाना नोट कर लिया गया। शिकायत दर्ज कराने वाली का भी नोट कर लिया गया।
इस सारी घटना से प्रश्‍न यह उगा कि ऐसी परिस्थिति में सहयात्री क्‍या करें? अपना सामान और वह भी केवल एक बेग को छोड़कर दो घण्‍टे तक दूसरे कोच में जाकर बैठना क्‍या शक पैदा नहीं करता? उस सहयात्री की शिकायत को गम्‍भीरता से लेना चाहिए या फिर वैसे ही बात का बतंगड बनाना कह देना चाहिए। आतंक की बढ़ती घटनाओं के कारण क्‍या हम सभी यात्रियों को सावधानी नहीं रखनी चाहिए?
कई दिनों से कोई पोस्‍ट नहीं लिखी थी, कल भी पुन: दिल्‍ली जाना है तो सोचा आज इसी पोस्‍ट से काम चला लिया जाए। वैसे दो घण्‍टे तक कोच में बड़ा ही सौहार्द का वातावरण रहा। लगा कि मुसीबत में ह‍म सभी को एक होने की आदत है नहीं तो स्‍वयं के खोल से बाहर नहीं आते हैं हम। देश पर हमला होता है तो हम सब एक हो जाते हैं नहीं तो वापस से अपने-अपने कुनबे का राग गाने लगते हैं। बस एक सीख मिली है कि अपने सामान की स्‍वयं ही सुरक्षा करें और दूसरे कोच में जाने से पूर्व यह अवश्‍य सोचें कि इससे अन्‍य यात्रियों में शक उत्‍पन्‍न हो सकता है। मैं तो कम से कम अवश्‍य ध्‍यान रखूंगी, क्‍या आप भी इस बात का ध्‍यान रख पाएंगे?

Thursday, July 28, 2011

कल वाराणसी जा रही हूँ, आकर मिलती हूँ - अजित गुप्‍ता

बहुत दिनों बाद पोस्‍ट लिखने का समय मिला है। आज अपनी पसंदीदा ब्‍लोग्स को पहले पढ़ा फिर सोचा कि इस पोस्‍ट के माध्‍यम से अपनी उपस्थिति भी दर्ज करा ही दूं। कल ही बेटा वापस अमेरिका रवाना हुआ है, बहुत दिनों का भरा-भरा घर सूना सा हो गया है। वापस वे ही एकान्‍त के दिन लौट आए हैं। कहते हैं कि भारत में मानसून चतुर्मासा होता है लेकिन हमें तो उसकी फुहारे साल या दो साल  में कुछ दिनों के लिए ही भिगो पाती हैं। खैर यह सब तो हमारी पीढ़ी का कटु सत्‍य है और इसी में खुश भी हैं। मुझे लगता है कि प्रेम ऐसी वस्‍तु है जो सभी कुछ भुला देती है। भगवान यदि हर व्‍यक्ति को प्रेम से सरोबार कर दे तो वह शायद कुछ और करे ही ना! जब दिल चुक जाता है तो दीमाग सक्रिय होने लगता है। बहुत ढेर सारे अनुभव भी हैं इन दिनों के लेकिन अभी तो इस पोस्‍ट के माध्‍यम से केवल अपनी उपस्थिति ही दर्ज करा रही हूँ। क्‍योंकि मुझे कल ही वाराणसी के लिए निकलना है। इस बार 30 और 2 अगस्‍त को दिल्‍ली भी रहना होगा और 31 एवं 1 अगस्‍त को वाराणसी में। किसी से मिलने का योग बनता है या नहीं, यह नहीं जानती। अब वाराणसी से आकर मिलती हूँ, तब तक के लिए राम राम। 

Saturday, July 16, 2011

अभी ब्‍लाग जगत से छुट्टियों के दिन चल रहे हैं - अजित गुप्‍ता

आज-कल में  आप सभी ने बहुत अच्‍छी पोस्‍ट लिखी होगी, नए विचारों से सभी को अवगत कराया होगा। एक सार्थक विचार विमर्श हो इसका भी मन होगा। टिप्‍पणियां भी आ ही रही होगी,  अधिकतर स्‍थापित पाठकों की और कुछ नवीन पाठकों की। स्‍थापित पाठकों में एक नाम का अभाव आपको खटक रहा होगा। मन ही मन ना जाने क्‍या क्‍या कयास भी लगाए जा रहे होंगे। लेकिन ज्‍यादा कुछ मत सोचिए, मैं भी आप सभी के विचारों का अभाव
अनुभव कर रही हूँ। इन दिनों पारिवारिक व्‍यस्‍तता अधिक है, बच्‍चे आए हुए हैं। और आप जानते ही हैं कि जब बच्‍चे घर आए हों तब सारी दुनिया भूली सी लगती है। अभी वे सब सो रहे हैं इसलिए इतना सा भी लिख पा रही हूँ। लेकिन शीघ्र ही अपने नए अनुभवों के साथ आपके समक्ष आती हूँ। आप सभी की पोस्‍ट बाद में पढ़ती हूँ। तब तक के लिए विदा।

Tuesday, June 28, 2011

विवाहित युवतियां आखिर अविवाहित क्‍यों दिखना चाहती हैं? - अजित गुप्‍ता



बहुत दिनों पूर्व एक कहानी पढ़ी थी, अकस्‍मात उसका स्‍मरण हो आया। कहानी कुछ यूँ थी एक व्‍यक्ति एक गाँव में जाता है, एक परिवार का अतिथि बनता है। उस परिवार में विवाह योग्‍य एक लड़की है लेकिन वह बहुत ही कमजोर और बीमार से थी इस कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा है। उस गाँव में एक प्रथा थी कि विवाह के समय लड़का जिस भी लड़की से विवाह करना चाहता था, वह उस लड़की को अपनी सामर्थ्‍य के अनुसार गाय भेंट में दिया करता था। जितनी गायें दी जाती थी समझो लड़की उतनी ही सुन्‍दर है। उस असुन्‍दर लड़की के भविष्‍य की चिंता करते हुए वह व्‍यक्ति गाँव से लौट आया। कुछ बरसों बाद वह व्‍यक्ति पुन; उस गाँव में गया। इस बार वह एक युवक के यहाँ अतिथि था। उस युवक ने कुछ समय पूर्व ही विवाह किया था और अपनी होने वाली पत्‍नी को 100 गायें भेंट में देकर विवाह किया था। निश्चित ही वह लड़की सुंदरता में सानी नहीं रखती होगी। युवक ने कहा कि मैंने इस गाँव की सबसे सुन्‍दर लड़की से विवाह किया है। उस व्‍यक्ति को उसकी पत्‍नी को देखने की उत्‍सुकता बढ़ गयी। कुछ ही देर में एक लड़की घर के अन्‍दर से उस अतिथि के लिए शरबत बनाकर लायी। वास्‍तव में वह बहुत ही सुन्‍दर थी। अतिथि ने उसे पास से देखा और देखकर उसे लगा कि इसे मैंने पहले कहीं देखा है। उसकी मुखमुद्रा देखकर उस युवक ने बताया कि यह वही लड़की है जिसे कभी असुन्‍दर कहा जाता था।
आखिर यह चमत्‍कार कैसे हुआ? अतिथि की जिज्ञासी बढ़ चुकी थी। युवक ने कहा कि मैं चाहता था कि मेरी पत्‍नी इस गाँव की सुन्‍दरतम लड़की हो इसलिए मैंने इस लड़की को पसन्‍द किया और उसे 100 गायें भेंट में दी। इस लड़की का आत्‍मविश्‍वास लौट आया और आज यह आपके समक्ष खड़ी है।
इसी संदर्भ में एक बात और ध्‍यान आ रही है कि आप देखते होंगे कि जब युवक और युवतियां शिक्षा ग्रहण कर रहे होते हैं तब अक्‍सर वे सामान्‍य ही दिखते हैं। बहुत ही कम युवा ऐसे होते हैं जो खूबसूरत दिखते हैं। साधारण परिवार के युवा अक्‍सर साधारण ही दिखते हैं। लेकिन जैसे ही उन्‍हें नौकरी मिलती है, उनके चेहरे पर एक चमक आ जाती है। विवाह के बाद तो यह चमक दुगुनी हो जाती है। ऐसा क्‍यों होता है? शिक्षा लेते समय हम परिवार के अधीन होते हैं और हमेशा हमारा आकलन कम ही किया जाता है। 90 प्रतिशत नम्‍बर आने के बाद भी कहा जाता है कि नहीं और मेहनत करो। हमारे जमाने में परिवार में अविवाहित बच्‍चों की कोई विशेष कद्र नहीं होती थी, आज अवश्‍य वे वीआईपी बने हुए हैं। लेकिन आज भी उनके परामर्श को बहुत गम्‍भीरता से नहीं लिया जाता इसलिए उनके अन्‍दर स्‍वाभिमान जागृत ही नहीं हो पाता है।
लेकिन जब ये ही युवा नौकरी पर जाते हैं और वहाँ बहुत सारे निर्णय स्‍वयं को करने होते हैं तब उनका आत्‍म सम्‍मान जाग उठता है और उनका व्‍यक्तित्‍व निखर उठता है। इसी प्रकार विवाह हो जाने के बाद लड़के और लड़की दोनों को ही कोई चाहने वाला मिल जाता है इस कारण उनका व्‍यक्तित्‍व निखर जाता है।
एक बात आप सभी ने गौर की होगी कि जब भी परिवार में या मोहल्‍ले में कोई भी नव-वधु आती है तब उसे बच्‍चे घेरे रहते हैं। कोई घूंघट के अन्‍दर झांकने के लिए नीचे झुकता है तो कोई समीपता पाने के लिए एकदम पास आकर बैठता है। हमने भी ऐसा ही किया था और हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ था। नव-वधु की कल्‍पना हमारे अन्‍दर बसी हुई है। साड़ी में लिपटी हुई, हाथ चूड़ियों से भरे हुए, माथे पर सिंदूर, गहने और चेहरे पर नवीनता। हमारे देश में एक लड़की का यही रूप बरसों तक रहता है। पुराने जमाने में तो जीवन भर यही रूप रहता था। पूरे घर में नवीनता रहती थी। शायद ही कोई वधु ऐसी हो जो दिखने में कुरूप लगती हो, सभी पहनने-ओढने के बाद सुन्‍दर ही दिखती थी।
लेकिन अब युग बदल गया है। नयी-वधु की सुन्‍दरता एक दो दिन से ज्‍यादा रहती नहीं। उसकी साड़ी, उसकी बिन्‍दी, चूड़ियां सभी गायब हो जाती है। एक साधारण सी लड़की में बदल जाता है उसका व्‍यक्तित्‍व। कई बार तो लगता है कि यह लड़की विवाह के पूर्व ही ज्‍यादा सलीके से रहती थी। एक बार मैंने एक लड़की से पूछ लिया कि बिन्‍दी क्‍यों नहीं  लगाती हो? तो कहने लगी कि मैं ही विवाहित क्‍यों दिखायी दूं जबकि लड़कों के भी तो कोई विवाहित होने का चिन्‍ह नहीं होता? बात तो उसकी जायज थी लेकिन अविवाहित क्‍यों दिखना चाहती हैं, इस बात का उत्तर नहीं था। क्‍या अवसर मिलते ही दूसरा विवाह करने की फिराक में है? या विवाह होने के बाद भी विवाहेत्तर सम्‍बन्‍ध बनाने में परहेज नहीं है? मुझे इस प्रश्‍न का उत्तर समझ नहीं आता कि आखिर लड़कियां विवाह के बाद भी अविवाहित ही दिखना क्‍यों चाहती हैं? वे साधारण सी लड़की क्‍यों बनी रहना चाहती हैं? मुझे तो पहनी-ओढी वधुएं बहुत अच्‍छी लगती हैं, जब मेरी बहु और बेटी किसी विवाह समारोह के लिए सजती हैं तो कितनी प्‍यारी लगती हैं लेकिन आम दिनों में? मैं मानती हूँ कि आजकल नौकरी का दवाब इतना है कि बस जेसे-तैसे काम चला लिया जाता है। लेकिन नौकरी तो हमारे जमाने में भी होती थी, फिर ऐसा क्‍या हो गया आज? इसका उत्तर मेरे पास नहीं है, शायद आप लोगों के पास हो। 

Tuesday, June 14, 2011

दम्‍भ की दीवार - अजित गुप्‍ता


कई विद्वानों से मिलना होता है, उनका लिखा पढ़ने को मिलता है। कुछ विद्वान ऐसे हैं जिनके शब्‍द सीधे हृदय में उतर जाते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिनके शब्‍द मस्तिष्‍क में उहापोह मचा देते हैं। ऐसे जटिल और नीरस शब्‍दों का ताना-बुना बुनते हैं कि कुछ देर दिमाग माथापच्‍ची करता है फिर झटककर दूर कर देता है। अहंकार और दम्‍भ उनके शब्‍द-शब्‍द में भरा रहता है। वे हर शब्‍द से यह सिद्ध करने पर तुले होते हैं कि मेरे जैसा विद्वान दूसरा कोई नहीं। विद्वानों का सान्निध्‍य कौन नहीं चाहता, मैं भी सदैव चाहती हूँ, इसलिए यहाँ ब्‍लाग पर भी उन्‍हें ढूंढती रहती हूँ। लेकिन कुछ विद्वान अपने सामने एक दम्‍भ की दीवार तान लेते हैं। आप कैसा भी प्रयास करें लेकिन उस दीवार को ना भेद पाते हैं और ना ही जान पाते हैं। एक आलेख कुछ दिन पूर्व लिखा था, उसे ही यहाँ आप सभी के अवलाकनार्थ प्रस्‍तुत कर रही हूँ। आपकी प्रतिक्रिया की अभिलाषा में।
दम्भ की दीवार

      तुम्हारे व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मुझे लगा कि विचार शून्य सी इस दुनिया में कुछ क्षण तुम्हारे शब्दों से अपने मन को भिगो लूं। फिर तुम इतने अप्राप्य भी नहीं थे कि मैं तुम तक नहीं पहुँच सकूं। तुम मेरे सामने थे, मैंने तुम्हारे सान्निध्य के लिए जैसे ही तुम्हें पुकारा, तुमने मेरी तरफ उपेक्षा से देखा। मैं फिर भी तुम्हारे शब्दों के जादू से खिंची हुई तुम्हारी तरफ बढ़ती रही। जैसे ही मैं और तुम संवाद की मियाद में आए, अचानक मेरा सिर लहुलुहान हो गया। मैं एक ऐसी पारदर्शी दम्भ की दीवार से टकरा गयी थी जिसने मुझे क्षत विक्षत कर दिया था। मुझे अपना व्यक्तित्व तुम्हारे सामने एकदम बौना लगने लगा। बौना इस मायने में नहीं कि मुझमें और तुम में बहुत बड़ा अंतर था, बौना इस मायने में कि मेरी सहजता और तुम्हारे दम्भ में बहुत फासले थे। मैं यह भी जानती हूँ कि तुम्हारी दीवार से केवल तुम्हारा ऊपरी शरीर आवृत्त है, तुम्हारे पाँव तो सबको मूक निमंत्रण देते हैं। उन्हें मैं आसानी से छू सकती हूँ। शायद उनको छूने के बाद ही तुम्हारा सान्निध्य मुझे मिल सके। मैंने एकाध बार कोशिश भी की यदि तुम्हारे दम्भ की दीवार पाँवों के स्पर्श से ही सरकती है तो क्या हर्ज है। लेकिन तब यह दीवार और मोटी होकर मेरे सामने आ गयी। मैंने फिर भी हठ नहीं छोड़ी, मुझे लगा शायद एक दिन यह दीवार पिघल जाएगी। तुम्हारे दम्भ की दीवार से तुमको अनावृत्त करने के लिए मैंने मौन धारण कर लिया और तुम्हारे सम्भाषण को एकाग्र मन से सुना। लेकिन जैसे जैसे मैं तुम्हारे सामने मौन होती चली गयी वैसे वैसे तुम्हारा दम्भ घटने की जगह बढ़ता चला गया। तब मुझे लगा कि मेरे मौन होने से तुम्हारा दम्भ नहीं घटेगा। ना मेरा मौन और ना मेरे सहज शब्द इस दीवार को पिघला पाए थे। मुझे दीवार के पीछे खड़े तुम भी प्यासे ही दिखायी दे रहे थे। मैं देख रही थी कि तुम्हारी प्यास बढ़ती जा रही है, तुम्हारे शब्द तुम्हारे अंदर घुट कर तुम्हें मानसिक त्रास दे रहे हैं। उन्हें चाहिए एक ऐसा मित्र जिसे वे अपना शिल्प बता सकें। लेकिन तुम्हारे दम्भ की दीवार के कारण वे भी घुट रहे थे।
      तुम ऐसे अकेले नहीं हो, जो शब्दों का भण्डार लेकर अपने आपको एक दीवार से आवृत्त करके बैठे हो। कभी तुमने आधुनिक कार्यस्थल देखें हैं? एक बड़े से कक्ष में सभी कर्मचारियों के लिए कांच के केबिन बने होते हैं जो नीचे और ऊपर से खुले होते हैं। बस सभी दीवारों से पृथक होते हैं। ऐसे ही आज, तुम जैसे बुद्धिजीवी अपने अपने केबिन में बैठे हैं। जब तुम्हारा मन करता है किसी से बतियाने का, तब तुम किसी केबिन वाले से ही बात कर पाते हो। तुम भी दीवार से आवृत्त और वे भी आवृत्त। मेरे जैसे व्यक्तित्व अपने साथ दीवारें नहीं रखते, बस रखते हैं एक झोला जिसमें कुछ शब्द होते हैं जो आम आदमी अपने सुख और दुख में बोल लेता है। मैं उन्हीं शब्दों को लोगों में बांटती रहती हूँ। तुम्हारी आँखों से जब कोई बूंद कभी लुढ़क जाती होगी तब तुम्हारी बच्ची के नन्हें हाथ और उसके तोतले शब्दों से ही तुम्हें सहारा मिला होगा। क्यों अपने आपको तुमने भारी भरकम शब्दों के आवरण में कैद कर रखा है? क्यों तुम्हें लगता है कि ये ही शब्द लोगों को सहारा देंगे? क्यों नहीं तुम आम जन की भाषा से अपने आपको भिगो पाते हो? आओं हम सब के साथ मिलकर बैठो, शब्दों की निर्झरणी को स्वतः ही बहने दो। उन्हें हिमखण्डों में मत बदलो। अपने आपको दम्भ की दीवार से अनावृत्त करो। मेरे जैसे अनेक लोग तुम्हारे पास शब्दों की पूंजी लेने आएंगे उन्हें दो, उनके लिए सहज सुलभ बनो तुम। तुम्हारी सहजता से हमारे हाथ ही नहीं हमारा मन भी तुम्हारे पाँवों को चूमेगा।