Thursday, December 14, 2017

सच के दो चेहरे – मुक्ति भवन फिल्म की पड़ताल

कई दिनों से मुक्ति भवन की कहानी दिमाग में घूम रही है, न जाने कितने पहलू पर विचार किया है, किसके क्या मायने हैं, समझने की कोशिश कर रही हूँ। इसी उधेड़बुन में अपनी बात लिखती हूँ, शायद हम सब मिलकर कोई नया अर्थ ही ढूंढ लें। एक फिल्म बनी है – मुक्ति भवन, वाराणसी पर है। सच्ची कहानी पर बनी है कि कैसे लोग मोक्ष की चाहना में अपने अन्तिम दिनों में वाराणसी के मुक्ति भवन में रहने चले जाते हैं और वहीं से अपनी अन्तिम यात्रा पर चले जाते हैं। एक तरफ प्रबल आसक्ति है मोक्ष की और दूसरी तरफ प्रबल विरक्ति है इस जीवन से। हमारे देश में कहा जाता है कि काशी वह जगह है जहाँ मृत्यु होने पर मोक्ष मिलता है। लोग इसी आसक्ति में अपनी अन्तिम दिनों में वाराणसी के मुक्ति भवन में चले जाते हैं। यह मुक्ति भवन 100 सालों से न जाने कितने चाहने वालों को परमधाम भेज चुका है, वाराणसी वाले लोग ज्यादा बता पाएंगे।
एक बार वृन्दावन में एक दम्पत्ती मिल गये थे, यह संस्मरण मैंने पहले भी लिखा है, वे बोले कि हम यहाँ मरने के लिये पड़े हैं। मुझे यह बात कुछ-कुछ समझ आयी लेकिन अभी फिल्म देखकर पूरी बात समझ आ रही है। हम साक्षात देखते हैं कि हमारे अन्दर जीवन के प्रति कितनी आसक्ति है, कितनी ही आयु हो जाए लेकिन मरना कोई नहीं चाहता। लेकिन मोक्ष की आसक्ति जीवन की असक्ति से कहीं बड़ी बन जाती है और हम इस जीवन को शीघ्रता से त्याग देना चाहते हैं। ऐसे लोग जीवन से, परिवार से इतने विरक्त हो जाते हैं कि कोई भी मोह उन्हें परिवार से जोड़ नहीं पाता है, बस दूर होते चले जाते हैं। सबसे बड़ी बात है कि हम अपने अहम् से भी दूर चले जाते हैं, सुख-सुविधाओं से भी दूर चले जाते हैं। जिस अहम् के लिये हम सारा जीवन राग-द्वेष पालते हैं, सुख-सुविधा जुटाते हैं उसे त्याग देना इतना आसान भी नहीं है लेकिन मोक्ष की आसक्ति भी इतनी प्रबल है कि अहम् भी कहीं पूछे छूट जाता है, अपनी आत्मा का मोह भी छूट जाता है और शेष रह जाती है परमात्मा में विलीन होने की चाहत।

मुक्ति भवन पर फिल्म क्यों बनी? क्या दुनिया को भारत की सोच दिखाने का प्रयास था या यहाँ की विभस्तता। कैसे लोग अन्तिम दिनों में पुराने जर्र-जर्र भवन में एकान्तवास काटते हैं, इसके दोनों ही पहलू हो सकते हैं। दुनिया को यह संदेश दिया जा सकता है कि आज भी कैसे मणिकर्णिका घाट जीवन्त है और मोक्ष की आस्था का स्थल बना हुआ है। या फिर वृद्धावस्था की विभिषिका दिखाकर एक कुरूप चेहरा दिखाने का मन हो। जो भी है, लेकिन सच्चाई तो है, हमारा त्याग समझने के लिये बहुत समय लगता है। सिकन्दर भी इस त्याग को समझने के लिये भारत आया था, लेकिन समझ नहीं पाया था, फिल्मकार कितने समझे हैं और कितना भुनाने की कोशिश में है, यह तो वहीं जाने लेकिन मुझे जरूर सोचने पर जरूर मजबूर कर गया। मोक्ष की आसक्ति भी नहीं रखे और बस एकान्त में सभी को भूलकर अपना जीवन प्रकृति के साथ आत्मसात करते हुए बिताने का सुख जरूर मन में है। इस जीवन में कैसे-कैसे समझौते हैं, अपने मन से दूर ले जाने के कैसे-कैसे तरीके हैं, लेकिन अपने मन के पास रहने के लिये बस एक ही तरीका है, अपने मन के साथ एकान्त में जीवन यापन। काश हम भी उस दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ कोई फैसला ले पाएं और प्रकृति के साथ घुलमिल जाएं। काश!

Tuesday, December 5, 2017

मेक्सीकन जरूरत भी हैं और चुनावी मुद्दा भी


नेता बनने के लिये एक मुद्दा चाहिए, बस ऐसा मुद्दा जो जनता को भ्रमित करने की ताकत रखता हो, बस ऐसा मुद्दा ढूंढ लीजिये और बन जाइए नेता। अमेरिका में भी भारत की तरह ही मुद्दे ढूंढे जाते हैं। भारत में मुम्बई में कहा गया कि यूपी-बिहार के लोगों के कारण मराठियों की शान में बट्टा लगता है और मराठियों के लिये बड़ा मुद्दा बन गया। जब कि असलियत में बिहारी और यूपी के भैया उनके लिये कामगार हैं और सभी उनकी सेवा चाहते हैं लेकिन मुद्दा बन गया। हम मराठी बड़े हैं और यूपी-बिहार के लोग हमारी शान में गुस्ताखी कर रहे हैं।  बड़े होने का दिखावा हर बार मुद्दा बन जाता है। कई बार आरक्षण का मुद्दा भी ऐसे ही बनता है कि हम भी आरक्षण पाते ही विशेष जाति वर्ग के दिखायी देने लगेंगे और गुजरात में मुद्दा बन गया, राजस्थान में भी बनने की ओर है। लेकिन मैं बात अभी अमेरिका की कर रही हूँ, यहाँ के मुद्दे की कर रही हूँ। ट्रम्प को नेता बनना था, उन्होंने मुद्दा बनाया मेक्सिकन को। जैसे हमारे यहाँ बंगलादेशी मुद्दा बना हुआ है लेकिन दोनो बातों में अन्तर है फिर भी मुद्दा तो है।
अमेरिका में आपको हर घर में मेक्सिकन लोग काम करते दिख जाएंगे। दिखने में भारतीयों के ज्यादा नजदीक हैं लेकिन कुछ गोरे हैं तो यहाँ के लोगों के बीच घुलमिल जाते हैं। लेकिन अमेरिकन्स को लगता है कि ये हमारे यहाँ बदनुमा दाग है और ये कैसे अमेरिकन्स की समानता कर सकते हैं! मेक्सिकन्स अधिकतर गरीब हैं और छोटे काम करते हैं लेकिन इनसे किसी प्रकार का खतरा नहीं है। सीधे लोग हैं, मेहनती लोग हैं, जैसे मुम्बई में यूपी-बिहार से दूर रहने की हिदायत कुछ नेता करते हैं और यहाँ भी इस बार के चुनाव का मुद्दा बन गया। ट्रम्प ने तो यहाँ तक कह दिया कि मैं मेक्सिको और अमेरिका के बीच दीवार खिंचवा दूंगा। लेकिन जब ट्रम्प नेता बन ही गये और राष्ट्रपति भी बन गये, तब दीवार की बात बार-बार उठती है। शेखचिल्ली की तरह मुद्दा तो बना दिया लेकिन पूरा करना असम्भव बन गया है। सच तो यह है कि कहने की बात कुछ ओर होती है और करने की कुछ ओर। यदि मेक्सिकन्स को निकाल दिया जाए तो मुद्दे की तरफदारी करने वाले लोगों को ही कठनाई हो जाएंगी। बड़ी मुश्किल से तो ये छोटे कामकाजी लोग अमेरिका को मिले हैं और अब इन्हें कैसे निकल जाने दें!

हमारे यहाँ बच्चे को रखने के लिये नैनी आयी, उसने बताया कि हम यहाँ के नागरिक बन चुके हैं। वह  बता रही थी कि 15 साल पहले हम आए थे और 5 साल बाद ही हमें ग्रीन-कार्ड मिल गया और उस समय थोक के भाव लोगों को ग्रीन-कार्ड मिले। फिर 5 साल बाद नागरिकता। क्यों मिल गयी, इतनी जल्दी? क्योंकि सभी देशों को छोटे कामगार चाहिये। साहब लोगों के लिये काम करने के लिये, होटलों में, टेक्सी के लिये और ना जाने कितने कामों के लिये। हम भारतीय जो यहाँ अमेरिका में रहते हैं, उनको ये ही लोग रहने देते हैं। ये ही हैं जिनके कारण अमेरिका में वो सब मिलता है जो हमें भारत में आदत होती है। हर प्रकार का खाना इन्हीं लोगों के कारण मिलता है। आज घर-घर में सस्ते दामों पर मेक्सीकन लोग काम करते दिख जाएंगे। इसलिये चुनाव में मुद्दा कुछ भी बना लो, अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लो, लेकिन सच तो यह है कि ये छोटे कामकाजी लोग चाहे वे मेक्सीकन हो या फिर भारतीय, उन्हीं से ही अमीर लोगों की रईसी दिखायी देती है। लेकिन प्रश्न यह है कि जब यहाँ अफ्रीकन मूल और एशिया के इतने लोग हैं तो मुद्दा केवल मेक्सीकन ही क्यों बना? मुझे लगता है कि उनकी शारीरिक बनावट ही कारण रहा होगा, क्योंकि वे भी गोर वर्ण ही हैं। अमेरिकन्स या गोरे लोगों को लगता होगा कि ये हम गोरों को नीचा दिखा रहे हैं। एक और मजेदार बात है कि यहाँ अमेरिकन कौन है, यह बात कोई नहीं जानता। जो असली अमेरिकन है उन्हें रेड-इण्डियन कहा जाता है और वे संख्या में बहुत कम है, शेष तो यूरोप के लोग हैं जो खुद को अमेरिकन कहलाते हैं। रंग के कारण अपनी पहचान बना लेते हैं, जो भी गोरे हैं फिर वे कहीं के भी हों, लोग उन्हें अमेरिकन कह लेते हैं लेकिन बेचारे भारतीय कभी भी अमेरिकन नहीं कहला पाते। बस यही मात खा जाते हैं। और मेक्सीकन छोटे कामकाजी होने के कारण मुद्दे के शिकार। खैर चुनावी मुद्दा कुछ भी रहा हो, यहाँ मेक्सीकन्स की उपस्थिति सब ओर है। सब इनके काम से खुश हैं और इनकी हर ओर जरूरत महसूस होती है। यूरोपियन्स कितना ही नाक-भौंह सिकोड़ लें लेकिन इनके बिना काम करने वाले दूसरे मिल भी नहीं सकते। बस यह मुद्दा बन गया है तो मुद्दा ही रहेगा और चुनावों में उछलता रहेगा।

Wednesday, November 29, 2017

ब्लेक फ्राइडे पर खरीददारी

थैक्स गिविंग गुरुवार को और ब्लेक फ्राइडे दूसरे दिन। पता नहीं ब्लेक क्यों कहा गया, शायद उस दिन भारी छूट के साथ बाजार खुलता है इसलिये या कुछ और पता नहीं। हम भी बाजार गये, दिन में 10 बजे निकले और उस मॉल में गये जहाँ कम भीड़ की सम्भावना थी। कम भीड़ कहाँ होगी, जहाँ छूट कम होगी। खैर हम भी जा पहुंचे एक मॉल में। गाडी को पार्किंग के लिये जगह चाहिये और हमारी गाडी घूमती रही, घूमती रही। आधा घण्टा बीता, फिर पोन घण्टा भी बीत गया लेकिन पार्किंग नहीं। गाडी को दूसरी ओर लेकर गये तब जाकर किस्मत का दरवाजा खुला और आखिर पार्किंग मिल ही गयी। इससे आप समझ गये होंगे कि कितनी भीड़ का सामना हम करने वाले थे! हमें डायमण्ड खरीदने का शौक चर्राया, देख ही लें कि यहाँ और हमारे देश में क्या अन्तर है। हमारे देश में तो दीवाली पर जौहरी की दुकानों पर कुछ ना कुछ ऑफर रहते हैं तो सोचा यहाँ भी होंगे लेकिन यहाँ कुछ नहीं था। सामान भी ज्यादा कुछ नहीं और छूट भी नहीं तो क्या खाक खरीददारी करें! हमारे दुकान से बाहर निकलते ही बेटे ने राहत की सांस ली होगी कि चलो मम्मी को कुछ पसन्द नहीं आया। हम फिर कपड़ों की दुकान की ओर मुड़े, देखा कुछ दुकानों पर बाहर ही लम्बी लाइन लगी है, यहाँ तो जाना सम्भव नहीं, आगे बढ़ गये। एकाध दुकान ऐसी थी जहाँ कतारे नहीं थी, हम वहीं गये। कहीं 50, कहीं 40, कहीं 30 तो कहीं 20 प्रतिशत की छूट थी। सारी ही मॉल गर्म कपड़ो से भरी थीं। कुछ समझ आया और कुछ नहीं, बस थोड़ा समय व्यतीत किया और लौट आए। दो चार स्वेटर खऱीदे बस।
वापस लौटते समय देखा कि घर लौटने  वाली सड़क खाली और बाजार की तरफ जाने वाली सड़क ठसाठस भरी हुई। यहाँ इस दिन से ही क्रिसमस की खरीददारी शुरू हो जाती है और क्रिसमस पर परिवार में सभी को उपहार देने की परम्परा है तो भारी छूट के साथ सभी खरीददारी करना पसन्द करते हैं। कुछ लोग तो साल भर की खरीददारी इन्हीं दिनों कर लेते हैं। हमारे भारतीय भी इन्हीं दिनों का इंतजार करते हैं कि देश के लिये उपहार अभी खरीदें। सारा बाजार चाइना के सामान से भरा था, ब्राण्ड कोई भी हो, सामान तो चाइना का ही था। हमने जितने भी स्टोर पर स्वटेर देखे, सारे ही एक से थे। लग रहा था कि मॉल चाहे किसी नाम के हो लेकिन एक ही फेक्ट्री से बना सामान यहाँ है। भारत में सर्दी के दिनों में बाजार शॉल से अटे पड़े रहते हैं लेकिन यहाँ इनका नामोनिशान नहीं था, हाँ कुछ स्टॉल जरूर थे। मफलर और केप खूब थे। भारी-भारी कोट जिसमें बर्फिली सर्दी भी थम जाए, खूब बिक रहे थे, लेकिन भारत जैसी जगह के लिये पतले-पतले स्वेटर ही काफी थे।

यहाँ का सबसे बड़ा त्योहार है – क्रिसमस और यह थैंक्स गिविंग के दूसरे दिन से ही शुरू हो जाता है। सारा शहर रोशनी से सजने लगता है। घरों के बाहर तरह-तरह की आकृतियां सजने लगती हैं। ऐसा कोई घर नहीं जहाँ रोशनी ना हो। यह रोशनी सवा महिने तक बनी रहेगी। घर-परिवार, रिश्तेदार और सभी मिलने वालों के लिये उपहार खरीदे जाएंगे और एक महिने का यहाँ समय फुल मस्ती के साथ व्यतीत करेंगे। ऑफिसों में छुट्टी का माहौल बना रहता है और अक्सर भारतीय भी अपने देश आने के लिये इन्हीं दिनों में छुट्टियां लेते हैं। लेकिन परिवार सहित हम अमेरिका में रहने वाले हैं और रोज का आँखों देखा हाल आपको सुनाने वाले हैं। बस एक बात का ध्यान रखिये की हम संजय की भूमिका में है, जो सामने है, उसे बता रहे हैं, इसे हमारी पसन्द और नापसन्द से ना जोड़े। जब अवसर अएगा हम वह भी विश्लेषण करेंगे। अभी तो केवल रनिंग केमेण्ट्री। 

Friday, November 24, 2017

थैंक्स गिविंग और परिवार का एकत्रीकरण

आज नवम्बर मास का चौथा गुरूवार है और अमेरिका में इस दिन त्योहार का मौसम होता है। पूरे अमेरिका में छुट्टी का दिन। कल तक हर व्यक्ति यात्रा कर रहा था, उसे आज के दिन अपने परिवार के साथ रहना है। सारा परिवार एक साथ रहेगा, शाम का डिनर साथ करेगा और फिर बाजार करेगा। बाजार में भारी छूट मिलेगी और इसी कारण कल के शुक्रवार को ब्लेक-फ्राइडे कहा गया है। सारी दुनिया में फसल का ही महत्व है, फसल नहीं तो मनुष्यों के लिये खाने को कुछ नहीं। फसल जब पक जाती है तब सारी दुनिया में त्योहार मनाया जाता है और अमेरिका में भी थैंक्स-गिविंग के रूप में मनाया जाता है। भारत में सारे त्योहार ही फसल के कारण है लेकिन अमेरिका में फसल के कारण आभार जताने का त्योहार है, जो प्रकृति की देन को प्रणाम करने जैसा है। आज यहाँ पूरा बाजार बन्द है लेकिन रात 12 बजे बाजार सजेगा और भारी छूट के साथ सामान बिकेगा। बाजारों में रात 12 बजे से ही कतारें लग जाएंगी, कहीं-कहीं तो पहले आने वालों को भारी छूट भी मिलती है तो रात से ही अफरा-तफरी रहती है।

सबका मन करता है परिवार में रहने को, सब आज के दिन अपने परिवार के साथ रहना चाहते हैं, मुझे दीवाली की याद आने लगी है, जब श्रीराम अपने परिवार के पास लौटे थे और फिर परिवार में इस दिन साथ रहने की परम्परा ने जन्म लिया। हमारे यहाँ की रेले, बसे, हवाई-जहाज सारे ही पेक होकर चलते हैं दीवाली के दिन और यहाँ भी इत दिन हवाई-जहाज में टिकट नहीं मिलती और लोग अपनी गाड़ियों से ही अपने घर आते हैं। रास्ते की सड़के ठसाठस हो जाती हैं। हर घर में जश्न रहता है। थैंक्स देना अच्छी  परम्परा है और इसकी शुरुआत यूरोपियन्स ने की थी, जब वे अमेरिका आए थे और यहाँ के निवासियों ने उन्हें रहने को स्थान और खेती के लिये जमीन दी थी, तब उन्होंने थैंक्स गिविंग मनाया था। वो अलग बात है कि फिर इन्होंने लाखों अमेरिकन्स का कत्लेआम किया और यहाँ पर राज किया। लेकिन अब खेती और फसल के साथ यह त्योहार जुड़ गया है। सारा परिवार एकत्र होकर त्योहार मनाता है, बस यह परम्परा अच्छी है। यही कारण है कि परिवार का एकत्रीकरण सभी लोगों में प्रचलन में आ गया है। कल भारी छूट के साथ बाजार खुलेगा तब सारा अमेरिका बाजार में होगा, हम भी देखते हैं कि  जाएं और उस नजारे को देख लें। कल के समाचार कल देंगे, अभी इतना ही। 

रंगीन पतझड़ के नजारे

गाँव के झोपड़े सभी ने देखे होंगे, उनमें खिड़की नहीं होती है और ना ही वातायन। मुझे लगता था कि धुआँ घर में भर जाता होगा लेकिन अमेरिका आकर समझ आया कि नहीं वे झोपड़े सारी गन्दी हवा छत पर लगे केलुओ के माध्यम से बाहर निकाल देते हैं और घर शुद्ध हवा से भर जाता है। हमारे यहाँ घरों में हम एसी चलाते हैं और कुछ देर बाद घुटन सी होने लगती है, मन करता है कि बाहर की हवा अन्दर आने दें, लेकिन अमेरिका में ऐसा नहीं है। पूरा घर पेक है, कहीं से भी हवा आने की गुंजाइश नहीं है लेकिन घर में हमेशा अशुद्ध हवा बाहर निकलती रहती है और अन्दर शुद्ध हवा बनी रहती है। हर घर की छत पर चिमनी है जो घर को शुद्ध रखती है, जबकी हमारे यहाँ खिड़की है लेकिन वातायन की प्रथा बन्द होती जा रही है, इसकारण कमरे में कार्बन डाय ऑक्साइड बनी रहती है। वातायन हैं भी तो पूरी तरह से अशुद्ध हवा बाहर नहीं निकलती है।
घर बनाने में भी लकड़ी का प्रयोग ज्यादा होता है और दीवारों को इस प्रकार बनाया जाता है कि घर सर्दी और गर्मी से बचाव करते हैं। इसलिये यहाँ घर का तापमान समतापी बना रहता है। वैसे कूलिंग और हीटिंग की व्यवस्था तो रहती ही है। यहाँ का तापमान अमूमन न्यूनतम 6 डिग्री बना हुआ है लेकिन घर के अन्दर एक स्वेटर से काम चल जाता है। जबकि भारत में हम कुड़कते ही रहते हैं। यहाँ जिस दिन बारिश होती है उस दिन सूरज देवता पूरा दिन ही नदारत रहते हैं, बाहर कड़ाके की ठण्ड रहती है लेकिन घर के अन्दर गलन नहीं होती। लेकिन जिस दिन सूरज देवता की कृपा होती है, उस दिन पूरी होती है। आराम से धूप खाओ, विटामीन डी का संचय करो और मस्त रहो।

यहाँ पैदल घूमने वालों के लिये बहुत आराम है, खूब ट्रेल बनी हुई हैं, जितना चाहो घूमो, मस्त। मैंने भी एक ट्रेल खोज ली है, पहाड़ी पर है, चढ़ाई और उतार दोनों है। शान्ति से घूमने का आनन्द ले रही हूँ। बामुश्किल दो-चार लोग मिलते हैं, चारों तरफ शान्ति बिखरी रहती है। अभी सर्दी का मौसम है तो पेड़ों पर भी पत्तों ने रंग बदल लिये हैं। कुछ तो सदाबहारी है जो हमेशा हरे बने रहते हैं जैसे हमारे यहाँ नीम, पीपल आदि लेकिन कुछ के पत्ते लाल, पीले हो जाते हैं जो सुन्दर दृश्य बनाते हैं। जैसे हमारे गाँवों में जब पलाश और अमलताश खिलता है तब चारों तरफ पलाश के लाल फूल खिल उठते हैं या अमलताश के पीले फूल। उन्हें देखने का अपना आनन्द है, ऐसे ही यहाँ रंग बदलते पत्तों के देखने का आनन्द है। बस झड़ते पत्तों के कारण सड़क से लगी पगडण्डी अटी पड़ी रहती हैं और सफाई कर्मचारियों की मेहनत बढ़ जाती हैं। जब पत्ते बिखरे रहते हैं तो एकबारगी भारत की याद दिला देते हैं। वहाँ हमें बुहारना पड़ता है और यहाँ सोसायटी के बन्दे बुहारते रहते हैं। पतझड़ सूखी नहीं है अपितु रंगीन बन गयी है। इसे देखने के लिये लोग घर से दूर निकल जाते हैं जहाँ रंग ज्यादा बिखरे हों।  

Thursday, November 16, 2017

क्या युद्ध भी आत्महत्या है?


हम युद्ध क्यों करते हैं? एक देश दूसरे देश से युद्ध क्यों करता है? क्या हमें पता नहीं है कि युद्ध में मृत्यु ही प्राप्य है? यदि कोई ऐसा देश हो या छोटा समाज हो जिसकी सम्भावना जीत हो ही नहीं फिर भी वह युद्ध क्यों करता है? अपने स्वाभिमान को बचाने के लिये हम युद्ध करते हैं, मरना ही हमारी नियति है यह जानकर भी हम युद्ध करते हैं। यह गुण मनुष्य में ही नहीं हैं अपितु हर प्राणी में हैं, इसलिये हर प्राणी युद्ध करता है। अब कोई कहे कि युद्ध करना आत्महत्या है तो उसे क्या कहेंगे? उसे हम कहते हैं गुलामों की तरह जीवित रहना। युद्ध की तरह ही जौहर भी आत्महत्या नहीं है मेरे गुलाम मानसिकता के मित्रों। जौहर जब किया जाता था जब सारे ही प्रयास समाप्त हो जाते थे और पता होता था कि सामने वाला हमारा दुरूपयोग करेगा, हमसे ही ऐसे संसार की रचना कराएगा जो मानवता के लिये घातक हो, तब महारानियां जौहर करती थी। कुछ पैसों के लिये अपनी सोच को गिरवी रखने वाले जौहर को समझ ही नहीं सकते, वे जीवित रहने को ही महान कार्य समझ बैठे हैं। 

रानी पद्मिनी को समझना हो तो राजस्थान आओ और राजस्थान में भी मेवाड़ में आओ, यहाँ के कण-कण में उनके लिये नमन है। यदि उन्होंने जौहर नहीं किया होता और खुद को मुगल सल्तनत के हाथों सौंप दिया होता तो मेवाड़ का इतिहास लिखने और पढ़ने को नहीं मिलता। चित्तौड़ ने कितने युद्ध देखे हैं, क्यों देखे हैं? क्योंकि यहाँ स्वाभिमान था, जीवित रहने की लालसा नहीं थी। आज कुछ लोग या कुछ सिरफिरे लोग कह रहे हैं कि रानी लक्ष्मी  बाई महान थी, हाँ वे महान थी लेकिन जिस दिन कोई फिल्मकार उनके चरित्र को बिगाड़ने के लिये फिर फिल्म बनाएगा तब आप लक्ष्मी बाई के चरित्र पर भी ऐसे ही हमले करोगे और फिर लिखोंगे कि युद्ध करना आत्महत्या होती  है और इनसे अच्छी तो हमारी हिरोइने हैं जो हमेशा शान से जीती हैं। ये कलाकार कुछ पैसों के लिये अपना ईमान बेच देते हैं और हम इन्हें देखने के लिये मरने लगते हैं, क्या ये कलाकार हमारे परिवार पर भी घृणित फिल्म बनाएंगे तब भी हम इनको पसन्द करते रहेंगे? इसलिये जौहर क्या है और युद्ध क्या है. इसे समझो फिर अपनी मानसिकता का सबूत दो। पद्मिनी वह रानी थी जिसने युद्ध से ही रतनसिंह का वरण किया था और खिलजी की कैद से रतनसिंह को आजाद कराया था। इसलिये इस पवित्र इतिहास पर अपनी गन्दी दृष्टि मत डालो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि जीवन का मतलब ही युद्ध होता है और हम हर पल स्वाभिमान को बनाए रखने के लिये युद्ध करते हैं। यदि फिल्मकार घोषित करता कि मैं रानी पद्मिनी की वीरता पर फिल्म बना रहा हूँ तब सभी स्वागत करते लेकिन उसने ऐसा घोषित नहीं किया। इसका अर्थ है कि उसकी नियत ठीक नहीं है और जिसकी भी नीयत ठीक नहीं हो उसको स्वाभिमान का पाठ पढ़ाना आवश्यक है। 

Tuesday, November 14, 2017

मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ


जब से अमेरिका का आना-जाना शुरू हुआ है तब से अमेरिका के बारे में लिख रही हूँ, 10 साल से न जाने कितना लिख दिया है और एक पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है लेकिन जब भी अमेरिका आओ, ढेर सारी नयी बाते देखने को मिलती हैं। मेरा बेटा जब पहली बार अमेरिका आया था तब पहली बात फोन पर सुनायी दी थी - लग रहा है कि स्वर्ग में आ गया हूँ। हमने सदियों से स्वर्ग की कल्पना की है, हम सभी मरने के बाद स्वर्ग पाना चाहते हैं और सारे ही लोग इसी उधेड़बुन में जीवन जीते हैं। कुछ लोग तो इस धरती को ही नरक बनाने पर तुले हैं क्योंकि वे मरने के बाद जन्नत जाना चाहते हैं। सोचकर देखिये कि हम सब एक कल्पना लोक में जी रहे हैं, हमने एक कल्पना की और उसे पाने के लिये प्राणपण से जुटे हैं। लेकिन जब कोई युवा सच में जीता है तो उसे नकार देते हैं। हमने स्वर्ग नहीं देखा लेकिन जाने का प्रयास कर रहे हैं, हमारे युवा ने अमेरिका देखा है, उसे वही स्वर्ग लग रहा है और वह इसी जीवन में इसे पाना चाहता है तो क्या गलत कर रहा है! जैसी कल्पना हम स्वर्ग की करते हैं, वैसा ही अमेरिका है। बस वर्तमान में कुछ लोगों का फितूर देखकर लगता है कि कहीं कल्पना लोक के जन्नत के चक्कर में इसे मटियामेट ना कर दें।

लेकिन मुझे हमेशा एक  बात की शिकायत रही है कि हम किसी को भी आधा-अधूरा क्यों अपनाते हैं! यदि अमेरिका में रहने की चाहत है तो इसे पूरी तरह अपनाओ, यहाँ की सभ्यता को अपनाओ और यहाँ की संस्कृति को भी अपनाओ। लेकिन हमारे जीन्स, हमें ऐसा नहीं करने नहीं देते, बस भारतीय यहीं आकर दुविधा में पड़ जाते हैं। अमेरिका में "शक्तिशाली ही जीवित रहेगा" इस सिद्धान्त पर लोग चलते हैं और बच्चों को ऐसा ही सुघड़ बनाना चाहते हैं। बच्चे मजबूती से खड़े रहे, अपनी प्रतिभा के बल पर आगे बढ़े, सभी इसी बात पर चिंतन करते हैं। यहाँ के स्कूल भी ऐसी ही शिक्षा देते हैं जिससे बच्चों का सर्वांगीण विकास हो और कम से कम स्नातक की शिक्षा अवश्य लें। खेलों का यहाँ के जीवन में बहुत महत्व है। हमारे यहाँ खेल के मैदान खाली पड़े रहते हैं लेकिन यहाँ खेल के मैदानों में भारी भीड़ रहती है। परसो बॉस्केट बॉल के मैदान पर थे, ढेर सारे बच्चों को खेलते हुए देखना, आनन्ददायी था। सारे ही स्कूल-कॉलेज, खेल मैदानों से पटे हुए हैं, इसके अतिरिक्त भी न जाने कितने कोचिंग सेन्टर हैं। अधिकतर बच्चे कोई ना कोई खेल अवश्य खेलता है। भारतीय ही केवल शिक्षा को जीवन का आधार मानते हैं इसलिये यहाँ भी भारतीय कुछ पीछे रह जाते हैं। यहाँ बच्चे के लिये करने और सीखने को दुनिया की हर चीज उपलब्ध है, बस उसकी रुचि किसमें है और वह क्या कर सकता है, यह देखना मात-पिता का काम है। यहाँ की दुनिया एकदम ही बदली हुई है इसलिये इसे जब तक पूरी तरह से नहीं अपनाओगे तब तक संतुष्टि नहीं होती। आधा-अधूरा जीवन विरोधाभास पैदा करता है, यहाँ के सारे ही भारतीय दो नावों पर सवार होकर चलते हैं। दो संस्कृतियों का मेल कैसे सुखदायी बने, इस  बात का पता अभी कम ही है, लेकिन जिसने भी दोनों को तराजू के दो पल्लों में बराबर तौल लिया वह सुखी हो जाता है। नहीं तो लेबल लगा है – एबीसीडी का। मतलब नहीं समझे, मतलब है - अमेरिका बोर्न कन्फ्यूज्ड देसी। हर कोई पर यह गीत लागू होता है – मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं, बड़ी मुश्किल में हूँ, मैं किधर जाऊं। चलिये आज की बात यहीं तक। 

Saturday, November 11, 2017

अकेली वृद्ध महिला


बहुत सी बातें दिल में आती है, दिमाग को भी मथने लगती है लेकिन चलन में कुछ और बातें हैं तो समझ नहीं आता कि क्या लिखा जाए और क्या नहीं। कल जन्मदिन बीत गया, कई बाते हमेशा की तरह दिल में आयी और दिमाग को मथने भी लगी लेकिन सभी की बधाइयां स्वीकार की। बस हर बार यह बात याद आती रही कि हमने जन्म लेकर ऐसा कुछ किया है कि हम बधाई के हकदार हों! बच्चों के लिये आज सबसे बड़ा त्योहार है, उनका जन्मदिन। वे अपने जन्मदिन कुछ ना कुछ पाना चाहते हैं और पाने को ही हक मानते हैं। मुझे लगता है कि जब से व्यक्तिगत रूप से जन्मदिन मनाने की रिवाज की शुरुआत हुई है हम सब खुद पर केन्द्रित हो गये हैं और धीरे-धीरे खुद के लिये ही जीने लगे हैं। हम कब से हम की जगह मैं में बदल गये हमें पता ही नहीं चला, अपने लिये जीना, अकेले ही खुश रहना हमारे जीवन का उद्देश्य रह गया। भारत में परिवार के लिये जीना और फिर सोचना की अब सारे काम पूरे हुए तो जीवन का क्या उद्देश्य बचा? लेकिन अब ऐसा नहीं है, सभी उदाहरण से बताते हैं कि देखो अमेरिका में अकेला व्यक्ति कितना खुश है!

कल पोते और बहु का सूरज पूजन भी था तो कुछ सामान लेने बाजार गये, वहाँ एक वृद्ध महिला ट्राली खेंच रही थी, कांपते हाथ से, अकेले सामान लेने आना मुझे जन्मदिन मनाने का कडुवा सच दिखा गया। स्वयं से खुश होते रहो, स्वयं ही जिन्दा रहो और स्वयं ही अपने लिये खुशी का माध्यम बनो। बस सब आपको इस दिन हैपी बर्थ-डे बोल देंगे लेकिन वृद्ध होते हुए आप समझ नहीं पाते कि अकेले ट्राली खेंचते हुए जीने का सुख क्या है? नवीन सोसायटी को देखकर लगता है कि हम एक दायरे में अलग-अलग बन्द हैं, युवा अपने दायरे में हैं और बच्चे अपने। वृद्धों के लिये धीरे-धीरे जगह कम होती जाती है, या वे ही खुद को अलग कर लेते हैं, लेकिन पुराने जमाने में परिवार ही सभी का दायरा होता था, सब मिलकर ही ईकाई बनते थे। अमेरिका में परिवार का सच समझ आने लगा है, भारतीय लोग अब परिवार को साथ रखने में खुश दिख रहे हैं, लेकिन बड़े ही शायद आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं और हमें अकेली ट्राली खेंचती हुई भारतीय वृद्ध महिला जन्मदिन का महत्व दिखा रही है। हम परिवार के लिये उपयोगी बनें, सारा परिवार एक आत्मीय भाव से बंधा रहे और हम उस दिन कुछ देने की परम्परा को पुन: जीवित करें। मैंने अपना जन्मदिन आप लोगों की बधाई लेते हुए और पोते का सूरज पूजन कर, सूरज का आभार मानते हुए बिताया। आए हुए मेहमानों को हाथ से बनाकर भोजन खिलाया तब लगा कि हम अभी देने में सक्षम हैं। आप सभी का आभार, जो एक परिवार की भावना प्रकट करती है, हम एक दूसरे को खुशियां देकर खुश होते हैं और यही भाव हमेशा बना रहे। मैं भी आप लोगों के लिये कुछ अच्छा करूं, अच्छे विचारों का आदान-प्रदान हो, बस यही कामना है।  

Wednesday, November 8, 2017

मोटी अदरक – पतली अदरक


चाय बनाने के लिये जैसे ही अदरक को हाथ में लिया ऐसा लगा कि किसी भारी भरकम पहलवान के हाथ का पंजा हाथ में आ गया हो। इतनी मोटी-ताजी अदरक! खैर चाय बन गयी, लेकिन अदरक का स्वाद कुछ खास नहीं आया। कल ही कोस्को ( costco) जाना हुआ, वहाँ अपने जैसी पतले पंजों वाली अदरक दिखायी दे गयी और पूरा डब्बा ही उठा लिया। बेटे ने बताया कि यह ऑर्गेनिक है, महंगी भी है और इसका स्वाद अधिक है। घर आकर चाय बनायी, मेहमान आए हुए थे। चाय अदरक के कारण स्वदिष्ट बन गयी थी और तारीफ मुझे मिल गयी। लेकिन असल बात पर आती हूँ, #scmudgal जी ने एक सवाल किया था कि अमेरिका में भुखमरी और गरीबी कैसी है? मैं गरीबी को परिभाषित नहीं कर पा रही थी लेकिन इस अदरक ने मेरी उलझन आसान कर दी। अदरक जैसी सारी ही खाद्य सामग्री का यहाँ खूब विकास हुआ, मोटी बना दी गयी, लोगों ने कहा कि अब खाद्य सामग्री का अभाव नहीं है और अमेरिका भुखमरी वाले देशों में नहीं है। लेकिन स्वाद नहीं है! अब स्वाद की तलाश की गयी तो पाया कि भारत में खाने की चीजों में स्वाद है और वे गोबर खाद से उपजायी जाती हैं। याने की ऑग्रेनिक हैं। फिर उल्टे चले और ऑग्रनिक बाजार सज गया। मोटी अदरक खाने वाले गरीब माने जाने लगे और पतली वाले अमीर।
यदि अपने देश में देखें तो गाँव कस्बों में आज भी ऐसी पतली मकड़ सी सब्जियां खायी जाती हैं और वे बेचारे गरीब कहलाते हैं, जबकि बड़े शहरों में मोटी-ताजी सब्जियां चलन में हैं और वे अमीर समझे जाते हैं। एक बार मैंने एक कृषि वैज्ञानिक से प्रश्न किया था कि हमारा जो पहले पपीता था वह कहाँ चले गया? अब जो आता है वह स्वाद नहीं है। उनका कहना था कि हमारी प्राथमिकता लोगों का पेट भरना है इसलिये अभी स्वाद पर नहीं जाते। यही हाल अमेरिका का है, इन्होंने पहले अदरक से लेकर अंगूर तक को मोटा कर लिया, लोगों का पेट भर गया, भुखमरी नहीं रही और अब वापस स्वाद की तलाश में ऑग्रेनिक खेती की ओर मुड़ गये हैं। भुखमरी तो नहीं है लेकिन गरीबी को कैसे नापे? जो ऑग्रेनिक प्रयोग कर रहे हैं वे अमीर हैं और जो नहीं कर पा रहे हैं वे अभी भी शायद गरीब हैं। लेकिन दो दुनिया यहाँ बनी हुई हैं। भारत में भी बन रही हैं, लेकिन वहाँ एक तरफ भुखमरी मिटाने का संघर्ष हैमोटी अदरक – पतली अदरक तो दूसरी तरफ अमीर बनने की होड़ है। इसलिये खायी गहरी है। 

Friday, November 3, 2017

अजब लोग हैं हम


अजब  संयोग था, 31 अक्तूबर को अमेरिका हेलोविन का त्योहार मनाता है और भारत में इस दिन देव उठनी एकादशी थी। अमेरिका में हर घर सजा हुआ था, कहीं रोशनी थी, कहीं अंधेरा था लेकिन घरों में भूत-पिशाचों का डेरा था। हर घर में डरावना माहौल बनाया गया था, बच्चे भी कल्पना लोक के चरित्रों का निर्वहन कर रहे थे। कोई भूत बना था, कोई स्पाइडरमेन तो कोई सूमो पहलवान भी। सारे ही बच्चे अपने मौहल्ले के घरों में जाकर केण्डी की मांग कर रहे थे, घर वाले भी तैयार थे उन्हें केण्डी देने को। सभी बच्चों के पास एक झोला था, उसमें ढेर इकठ्ठा होता जा रहा था और बच्चे खुश थे अपना खजाना बढ़ने से। धरती पर हम मनुष्यों ने एक कल्पना-लोक बना लिया है, कुछ मानते हैं कि भूत-पिशाच होते हैं और उनका डर हमेशा हमारे जीवन में बना रहता है। हेलोविन के दिन डरावना वातावरण बनाकर बच्चों के मन से डर कम किया जाता है और उनसे लड़ने की ताकत उनमें आ जाती है।

भारत में कहा जाता है कि कल्पना-लोक में देवता वास करते हैं और एक निश्चित तिथि पर ये सब सो जाते हैं और एक निश्चित तिथि पर जग जाते हैं। हमारे सारे ही शुभ कार्य देवताओं की उपस्थिति में होते हैं इसलिये देव उठनी एकादशी का बड़ा महत्व है। इस दिन सारे ही देवता जाग जाएंगे और शुभ काम शुरू हो जाएंगे। इसलिये इसे छोटी दिवाली भी कहते हैं। एक तरफ नकारात्मक शक्तियां हैं और दूसरी तरफ सकारात्मक शक्तियां। एक तरफ डर है तो दूसरी तरफ सुरक्षा। क्या अच्छा है और क्या बुरा है यह तो मनोविश्लेषक ही बता  पाएंगे लेकिन मेरा मानना है कि कल्पना लोक में सकारात्मक शक्तियों का वास हमें सुरक्षा देता है और नकारात्मक शक्तियों के कारण हम डरे रहते हैं। हम ईश्वर से भी प्रेम का रिश्ता रखते है ना कि डर का। लेकिन त्योहारों के मायने तो हम कुछ भी निकाल सकते हैं। शायद डर को आत्मसात करने के लिये ऐसे त्योहार मनाए जाते हों। लेकिन भारत में भी व्यावसायिक हितों के देखते हुए हेलोविन की शुरुआत करना हमारे दर्शन को पलटना ही है। हम देव उठनी एकादशी पर भी विभिन्न देवी-देवताओं का वेश धारण करके त्योहर को मना सकते हैं। इससे व्यावसायिक हित भी सध जाएंगे और दर्शन भी पलटी नहीं खाएगा। ये जो भेड़ चाल है और हम देशवासी किसी भी त्योहार की भावना को समझे बिना मनाने के लिये उतावले हो उठते हैं, उससे भेड़ों का दूसरों के पीछे चलने की सोच ही दिखायी देती है। अपनी सोच को आगे लाओ और नवीनता के साथ मौलिकता बनाए रखते हुए परिवर्तन करो। नहीं तो तुम भेड़ों की तरह अपने आपको मुंडवाते ही रहोंगे। आज भारत के लोग भेड़ बन गये हैं, व्यापारी आते हैं और उन्हें शीशा दिखाते हैं कि देख तेरे शरीर पर कितने बाल है, इन्हें कटा लें और तब तू गोद में खिलाने लायक बन जाएगी, बस भेड़ तैयार हो जाती है और हर बार किसी ना किसी बहाने से खुद को मुंडवाती रहती है। हम फोकट में अपने बाल दे रहे हैं और गंजे होकर खुश हो रहे हैं, एक दिन शायद अपना अस्तित्व ही भूल जाएं कि हम कौन थे! हमने दुनिया को क्या दिया था! लेकिन आज तो हम भूत-पिशाच को अपनाने में भी खुश हैं और अपने देवताओं को केवल मुहुर्त के लिये ही याद करते हैं। अजब लोग हैं हम! 

Tuesday, October 31, 2017

first cry


नन्हें अतिथि को तो आना ही था लेकिन दादी से मिलने की जल्दी उसे भी थी और बस 29 अक्तूबर को नन्हें कुँवर जी हमारी गोद में थे। अभी जेट-लेक ने अपना असर भी नहीं दिखाया था कि भाग-दौड़ में जुट गये। लेकिन एक नवीन अनुभव था मेरे लिये। अमेरिका के अस्पताल और यहाँ का स्टाफ मेरे दिल में बस गये हैं। बड़े पोते के समय तो मैं नहीं थी लेकिन छुटके के समय मुझे नयी बातें सीखने को मिली, कितनी आत्मीयता से प्रसव कराया जाता है, सच में सीखने की बात है, लेकिन इसका पासंग भी हमारे देश में नहीं है। एक कारण तो जनसंख्या भी है, किसी भी अस्पताल में चले जाओ, लोग भरे हुए मिलेंगे लेकिन यहाँ सभी कुछ व्यवस्थित। जैसे  ही सुबह 5.30 पर अस्पताल में पैर रखा, बस कान हमेशा खड़े ही रहे, कोई नर्स या बार्ड बॉय आकर टोक देगा कि यहाँ नहीं, यहाँ से हटो। लेकिन कहीं से  भी कोई टोका-टाकी नहीं। सभी जगह मुस्कराते हुए स्वागत। क्या डॉक्टर और क्या नर्स सभी जैसे आत्मीयता का खजाना हो! सारे ही गलियारे सूने बस अतिथि कक्ष में गिनती के दो-चार लोग।
लेबर-रूम में भी प्रसव होने के बाद सभी को जाने की छूट, लग रहा था कि जैसे घर में ही हों। इतनी आत्मीयता भरा वातावरण होता है कि प्रसूता विश्वास से भरी होती है कि मैं सुरक्षित हाथों में हूँ। हमारे देश में तो हर ओर डॉटना ही चलता है। पति को लेबर रूम में रहने की छूट होती है और वह सहयोगी के रूप में रहता है। मुझे भी कहा गया कि यदि आपको भी रहना है तो रह सकती हैं, लेकिन मेरे साथ बड़ा पोता भी था तो हमने रूकना उचित नहीं समझा। प्रसव के  बाद बच्चे को नहलाना आदि सभी काम हमारे सामने ही किये गये। इतनी सहजता से सब कुछ किया जा रहा था कि गोपनीयता की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। यह सब मैं क्यों लिख रही हूँ! भावानात्मक बातें लिखी जा सकती थी लेकिन हमारे देश को यह जानना जरूरी है कि हमारे जीवन में काम का क्या महत्व है और इसे भगवान का प्रसाद मानकर करना चाहिये, जैसे अमेरिका में होता है। काम में ही उनका आनन्द टपकता है। इतना खुश रहते हैं कि जैसे काम नहीं कर रहे हैं अपितु आनन्द कर रहे हैं!

एक नवीन जानकारी भी मिली कि खतना करना यहाँ आम रिवाज है, जन्म के साथ ही अस्पताल में कर दिया जाता है। ईसाई और मुस्लिम दोनों ही करते हैं। हम से भी डॉक्टिर ने आकर पूछा, मैं तो समझ ही नहीं पायी कि क्या पूछ रही है, क्योंकि हमें तो इसका अनुभव ही नहीं आया। भारत में तो शायद मुस्लिमों में भी जन्म के समय नहीं होता है, फिर मुझे पता भी नहीं। खैर बहुत ही अच्छा अनुभव रहा, हमेशा याद रहेगा। first cry भी याद रहेगी और डॉक्टरों का अपनापन भी। 

Saturday, October 14, 2017

अपनी बचा लूं और दूसरे की रीत दूँ

पहली बार अमेरिका 2007 में जाना हुआ था। केलिफोर्निया में रेड-वुड नामक पेड़ का घना जंगल है। हम मीलों-मील चलते रहे लेकिन जंगल का ओर-छोर नहीं मिला। इस जंगल में सैकड़ों साल पुराने रेड-वुड के पेड़ थे, इतना घना जंगल देखकर आनन्द आ रहा था। लेकिन एक बात मुझे हैरान कर रही थी और वो थी कि जंगल में कितने ही पेड़ गिरे पड़े थे लेकिन जो जहाँ गिर गया था, वहीं था, उन्हें वहाँ से हटाया नहीं गया था। पता लगा कि ये अपने जंगलों की लकड़ी काम नहीं लेते, दुनिया की लकड़ी का उपयोग करते हैं और अपनी बचाकर रखते हैं। जब दुनिया में कमी होगी तब खुद की काम लेंगे। बिल्कुल ऐसे ही जैसे बच्चे करते हैं, पहले माँ की चीज खाने के फेर में रहते हैं और जब वह समाप्त हो जाए तो अपनी निकालते हैं।
आज केलिफोर्निया के जंगलों में आग लगी है, हर साल ही लगती है लेकिन इस बार विकराल रूप है। अत्यधिक संचय स्वत: ही विनाश का कारण बनता है। प्रकृति हमेशा उथल-पुथल करती है, मेरा संचय स्थायी नहीं है। लबालब भरा कटोरा कभी भी छलक पड़ता है। सुन रहे हैं कि स्विटजरलेण्ड में हजारों किलो सोना गटर में बह रहा है। हमारे देश में अथाह सम्पत्ति खजाने के रूप में कहीं गड़ी है। या जिसके पास  भी है वह स्वत: ही नष्ट हो जाती है। जंगल प्रकृति का धन है लेकिन इसे भी संचित रखने पर नष्ट हो ही जाता है। प्रकृति सम्यक रूप में ही रहती है, ना ज्यादा और ना ही कम। वह अपने आप संतुलन बनाकर चलती है। इसलिये किसी कंजूस की तरह वस्तुओं का उपभोग करने पर वह बिना उपभोग के भी नष्ट हो ही जाती हैं तो संतुलन बनाते हुए उनका उपभोग अवश्य कर लेना चाहिये। पहले दुनिया की खत्म कर लूँ फिर मेरी का नम्बर लूंगा, यह प्रवृत्ति सफल नहीं है। संग्रह किसी भी चीज का उचित नहीं है।

अपनी बचाकर रख लूं और दूसरे की रीत दूँ, बस यही सोच घातक है। आज एशिया के जंगल तेजी से कट रहे हैं और अमेरिका के पड़े-पड़े जल रहे हैं। कितने लोग बेघर-बार हो रहे हैं और कितने ही मर रहे हैं, मेरा सोचना है कि यदि वहाँ के जंगलों में संतुलन बनाया जाए तो ऐसी आपदाएं कम होंगी। दुनिया के जंगल भी  बचेंगे और अमेरिका के जंगल भी आग की लपटों से शायद बच जाएं। अमेरिका की संचय की प्रवृत्ति घातक भी  हो सकती है, इस पर विचार जरूर करना चाहिये। वे सारी दुनिया के बुद्धिजीवियों को एकत्र करने में लगा है, शेष दुनिया में कमी और उनके यहाँ भरमार! कहीं ऐसा ना हो कि ये बुद्धिजीवि चाय के प्याले में तूफान ला दे। खैर, वे संचय करें, उनकी सोच लेकिन हमारे देश की सोच तो संचय के उलट अपरिग्रह है। हमारे देश में भी जो संचय करता है, वह कहीं ना कहीं लपेटे में आ ही जाता है और उसका खजाना कहीं ना कहीं डूब ही जाता है। लेकिन मुझे चिन्ता है केलिफोर्निया की, वहाँ के घने जंगलों की, वे इस तरह नष्ट नहीं होने चाहियें। 15 दिन बाद मुझे भी जाना है, तब तक यह आपदा समाप्त हो चुकी होगी। प्रकृति संतुलन बनाने में कामयाब रहेगी ही। 

Friday, October 13, 2017

पहले जुड़िये फिर बात कहिये

बोल झमूरे, खेल दिखाएगा? हाँ दिखाऊंगा। आज बन्दरियाँ को कहाँ- कहाँ घुमाया? बन्दरियाँ के लिये नये कपड़े लेने कहाँ गया था? क्या कहा, मॉल में! एकदम नये फैशन के कपड़े लाया हूँ। अरे मॉल में तो कपड़े बड़े महंगे मिलते हैं! तो क्या? मेरी बन्दरियां भी तो बेशकीमती है। तो मेहरबानों और कद्रदानों देखिये एक नायाब खेल। तैयार हैं आप लोग? आप भी महंगी चीज से मत घबराइए, अपनी घरवाली की कद्र करिये, वह भी आपकी कद्र करेगी। कुछ इसी प्रकार से शुरुआत होती है सड़क किनारे खेल की। जैसे ही तमाशा दिखाने वाले व्यक्ति की आवाज वातावरण में गूंजने लगती है, लोग भीड़ लगाना शुरू कर देते हैं। यदि कोई सीधे ही तमाशा दिखाना शुरू कर दे तो तमाशबीन कम ही जुट पाते हैं। ऐसे ही लिखना एक अलग बात है लेकिन उसे पाठक देना अलग बात है। मेरा तो यह अनुभव है कि किस रचना को पढ़ना है या नहीं, उसके पहले शब्द या वाक्य पर निर्भर करता है। पाठक का जुड़ाव सबसे आवश्यक बात है, पहले पाठक को जोड़िये और फिर अपनी बात कहिये। कड़वी से कड़वी बात भी चाशनी में लपेटकर गले उतारी जा सकती है। जब तक पाठक की उत्सुकता नहीं बढ़ेगी वह रचना को नहीं पढ़ेगा। इसलिये यदि आप लिखते हैं तो इस गुर को जरूर अपनाएं। मैंने भी फेसबुक से ही सीखा है कि पहले व्यक्ति को कनेक्ट करो और फिर अपनी बात कहो।

माँ हमें कहानी सुनाती थी, शुरुआत राजा-रानी, चिड़िया, बन्दर आदि से होती थी। हम माँ के पेट से चिपक जाते थे लेकिन कुछ ही देर में कहानी किसी शिक्षा में बदल जाती थी और हम अभी तक उस कहानी के माध्यम से उस शिक्षा को अपने अन्दर बसाये हुए हैं। पिताजी सीधे ही शिक्षा की बात करते थे और हम कहते थे कि रात-दिन उपदेश सुनकर दुखी हो गये हैं। माँ की कहानी बार-बार सुनते थे और पिताजी की बात से बचने का उपाय ढूंढते थे। पता नहीं कितनी कहानियां सुनी थी, याद भी नहीं लेकिन उनके अन्दर छिपी शिक्षा याद है। बस यही अन्तर है लिखने और पाठक बनाने में। उपदेश कोई नहीं सुनना चाहता लेकिन अनुभव के साथ उपदेश सारे ही सुन लिये जाते हैं इसलिये अपने सच्चे अनुभव बच्चों के सामने रखो, फिर देखों बच्चे आपकी बात सुनेंगे भी और हृदयंगम भी कर लेंगे। लेकिन सबसे पहले जुड़ाव जरूरी है। बस जुड़ाव बनाकर रखिये और देखिये आपकी बात क्या घर वाले और क्या बाहर वाले सभी सुनेंगे। फेसबुक पर भी नये-नये लोग जुटना शुरू हो जाएंगे।

Thursday, October 12, 2017

यही जीवन है, यही सफलता है और यही सुख है


मैं अपनी जिन्दगी की जाँच-परख करती रहती हूँ, कभी दूसरों की नजरों से देखती हूँ तो कभी अपनी नजरों से। आप भी आकलन करते ही होंगे कि क्या पाया और क्या खो दिया। मेरे सोचने का ढंग कुछ बेढंगा सा है, मैं सोचती हूँ कि भगवान ने सुख की एक सीमा दी है, अब मुझे निश्चित करना है कि सुख की परिधि में किसे मानूं या किसे नहीं मानूं। कुछ लोग मिठाई खाकर सुखी होते हैं तो कुछ चटपटा खाकर या मेरे जैसे लोग फल खाकर। जब मैं किसी इच्छित वस्तु को छोड़ती हूँ तो लगता है कि यह छोड़ना ही नवीन सुख को पाना है और मैं छोड़ने से अधिक पाने का सुख भोगने लगती हूँ। लेकिन दुनिया की नजर ऐसी नहीं है, वह आपका आकलन अलग तरह से करती है। आप सत्ता के कितना करीब हैं, वैभव आपके पास कितना है, दुनिया का यह आकलन है लेकिन मेरा आकलन बिल्कुल अलग है।
मैं जब अपने बारे में चिंतन करती हूँ तब देखती हूँ कि मेरी सफलता का पैमाना क्या है? सफलता का मतलब मेरे लिये है कि मैं खुद को अभिव्यक्त कर सकूं। मेरे अन्दर जो कुछ है, उसे बाहर निकाल सकूं, मेरी वेदनाएं, मेरी आशाएं, मेरा विश्वास सभी कुछ बाहर आ पाए और मैं दुनिया के सामने स्वयं को उजागर कर सकूं। सत्ता के करीब या वैभव से परिपूर्ण होने पर असुरक्षा की दीवार से हम घिरे रहते हैं, कुछ भी अभिव्यक्त करने से पहले डरते हैं कि सत्ता से दूरी नहीं बन जाए या वैभव कम ना हो जाए लेकिन जब इन सबसे दूर हो जाते हैं तब बेधड़क स्वयं को अभिव्यक्त कर सकते हैं और मैं इसी अभिव्यक्ति को परम सुख मानती हूँ। मैं जब भी लोगों के चेहरों को देखती हूँ, मुझे डरे हुए, समझौता किया हुए, लाचार से चेहरे दिखायी देते हैं, दुनिया उन्हें सफल भी कहती है और उनका उदाहरण भी देती है। कम से कम मुझे तो कह ही देते है कि तुम क्या थे और वे क्या थे, आज वे क्या हैं और तुम क्या हो! मैं सफलता के इस मापदण्ड से आहत नहीं होती। मैं खुद के बनाए मापदण्डों को ही ध्यान में रखती हूँ और फिर विश्वास से भर जाती हूँ कि आज मैंने जो पाया है, वह शायद मेरी औकात से ज्यादा ही है। मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि मैं स्वयं को अभिव्यक्त करने का साहस जुटा पाऊंगी और हर पल संतोष मेरे अन्दर बिराजमान होगा।

कुछ लोग ताली बजाते हैं कि उन्होंने मुझे धक्का लगा दिया, वे सफल हो गये। लेकिन मुझे लगता है कि मुझे जीवन मिल गया, साधना के लिये समय मिल गया। अपने आपको कुरेदने का वक्त मिल गया। मैं जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तब घबरा जाती हूँ और पल भर में ही अपना ध्यान विगत से हटा लेती हूँ। कैसे दम घोंटू वातावरण में जीना था, अपना वजूद भुलाकर, कुछ पा लेना शायद सबसे बड़ा खोना है। मुझे खुली हवा में सांस लेना अब अच्छा लगने लगा है और पता भी चला है कि खुली हवा क्या होती है? लेकिन जो कल था वह भी अनुभव से परिपूर्ण था और आवश्यक था। आप की बुद्धि कितनी ही कुशाग्र हो या आपके अन्दर ज्ञान का भण्डार हो लेकिन बिना अनुभव के कुछ काम का नहीं है। इसलिये अनुभव से पूर्ण होकर, सबकुछ छोड़कर पाने का जो आनन्द है वह निराला है, अपने आपको तलाशते रहने का आनन्द अनूठा है, अपने को भली-भांती अभिव्यक्त करने का प्रयास अनोखा है। बस मेरे लिये यही जीवन है, यही सफलता है और यही सुख है।  

Wednesday, October 11, 2017

विदेश में जीवनसाथी और देश में पति

हम घर में दोनों पति-पत्नी रहते हैं, गाड़ी एक ही धुरी पर चलती है। दोनों ही एक-दूसरे को समझते हैं इसलिये कुछ नया नहीं होता है। लेकिन जैसे ही हमारे घर में कोई भी अतिथि आता है, हमारे स्वर बदल जाते हैं, हम खुद को अभिव्यक्त करने में जुट जाते हैं। आप सभी ने इस बात पर गौर किया होगा कि दूसरों के सामने हमारा व्यवहार बदल जाता है। हम निपुण  हैं सारा ध्यान इस बात पर केन्द्रित हो जाता है। महिला का सारा ध्यान इस बात  पर लग जाता है कि वह सिद्ध कर सके कि उसमें सलीका बहुत है, खाना बनाने से लेकर बाजार तक की गहरी पकड़ है और साथ ही पति को साधने की कला भी वह जानती है। इसके विपरीत पुरुष यह सिद्ध करने में लग जाता है कि उससे ज्यादा लापरवाह कोई नहीं और अभी भी वह स्वतंत्र है तथा पत्नी की  बात तो बिल्कुल भी नहीं मानता है। दोनों ही अपनी-अपनी अभिव्यक्ति में लग जाते हैं, कई बार घर का वातावरण खराब हो जाता है और कभी हास्यास्पद। हम बोलने से लेकर हर काम में खुद को अभिव्यक्त करते हैं, हमने कितना अभिव्यक्त किया यह चाहे खुद जान ना पाएं लेकिन सामने वाला तो पक्का जान जाता है।
जब अतिथि चले जाते हैं तो नया अध्याय शुरू  होता है, पत्नी गुर्राती है कि तुम हेकड़ी क्यों दिखा रहे थे? पति एकदम से हथियार डाल देता है कि गलती हो गयी। पति कहता है कि तुमने अतिथियों के सामने इतने पकवान बनाये, मेरे लिये तो नहीं बनाती  हो! पत्नी इठलाकर बोलती है कि आखिर उन्हें भी तो पता लगे कि मैं कितनी सुघड़  हूँ! याने दोनों में फिर सुलह हो जाती है। अतिथियों के सामने जहाँ सुलह रहनी चाहिये थी वहीं कलह रहती है और अकेले में कलह भी हो जाए तो मामला सुलझ जाता है, लेकिन तब सुलह रहती है। कारण बस यही है कि हम जमाने को दिखाना चाहते हैं कि हम क्या हैं। हम अपने जीवन को बेहतर करना नहीं चाहते बस दिखावा करते रहते हैं। हमारा अहम् फूट-फूटकर बाहर निकल जाता है, किसी दूसरे को देखकर। ना चाहते हुए भी कहीं ना कहीं खुद को  प्रकट करने की मानसिकता झलक ही पड़ती है। विकट स्थिति तो तब होती है जब अतिथि मायके या ससुराल के होते हैं, दोनों की ही अभिव्यक्ति परवान चढ़ने लगती है, दोनों ही सिद्ध करने लगते हैं कि मैं श्रेष्ठ हूँ।

इस अहम् का कोई अन्त नहीं है, यही कारण है कि आजकल लोग अकेला रहना पसन्द करने लगे हैं। जहाँ अकेले में पति, पत्नी के कामों में हाथ बंटाता है, वहीं दूसरों के सामने शेर बनकर रहना चाहता है, बस पत्नी इसी सीख को गाँठ बांध लेती है कि कभी साथ नहीं रहूंगी। जो लोग विदेश में रहते हैं, वे तो दोनों ही मिलकर काम करते हैं लेकिन देश में परम्परा नहीं है कि पति काम करे तो विदेश में जो जीवनसाथी था देश में आकर पति बन जाता है, बस पत्नी कहती है कि मैं देश नहीं आऊंगी। इसलिये यदि आप परिवार के साथ रहना चाहते हैं तो बात-बात में खुद को बॉस मानना छोड़ना होगा। दूसरों के सामने अभिव्यक्ति से पहले विचार कर लें कि मेरी अभिव्यक्ति क्या संदेश दे रही है? मैं ऐसा हूँ इससे अच्छा है कि बताएं कि हम ऐसे हैं। नहीं तो सभी यही कहते रहेंगे कि अकेले रहते हैं तभी घर में शान्ति रहती है और तब परिवार एवं अतिथि दूर होते जाते हैं। 

Monday, October 9, 2017

पति को पूजनीय बनाना या चौथ माता का व्रत करना?


कल घर में गहमागहमी थी, करवा चौथ जो थी। लेकिन करवा चौथ में नहीं मनाती, कारण यह नहीं है कि मैं प्रगतिशील हूँ इसलिये नहीं मनाती, लेकिन हमारे यहाँ रिवाज नहीं था तो नहीं मनाया, बस। जब विवाह हुआ था तो सास से पूछा कि करवा चौथ करनी है क्या? वे बोलीं कि अपने यहाँ रिवाज नहीं है, करना चाहो तो कर लो। अब रिवाज नहीं है तो मैं अनावश्यक किसी भी कर्मकाण्ड में क्यों उलझू और मैंने तत्काल छूट का लाभ ले लिया। लेकिन यह क्या, देखा वे करवा चौथ पर व्रत कर रही हैं! मैंने पूछा कि आप तो कर रही हैं फिर! उन्होंने बताया कि हम सारी ही चौथ करते हैं, इसलिये यह व्रत है, करवा चौथ नहीं है। धार्मिक पेचीदगी में उलझने की जगह, मिली छूट का लाभ लेना ही उचित समझा।
खैर, कल भतीजी और ननद दोनों ही आ गयी थी और उनका करवा चौथ अच्छे से हो जाए इसलिये सारे  ही जतन मैं कर रही थी। रात को पूजा भी पड़ोस में की गयी और कहानी भी सुनी। कहानी सुनते हुए और अपनी सास की  बात का अर्थ समझते हुए एक बात समझ में आयी कि करवा चौथ का व्रत, चौथ माता के लिये किया जाता है, माता तो एक ही है – पार्वती। बस अलग-अलग नाम से हम उनकी पूजा करते हैं। इस व्रत में पति की लम्बी आयु की बात और केवल पति के लिये ही इस व्रत को मान लेना मेरे गले नहीं उतरा। महिलाएं जितने भी व्रत करती हैं, सभी में सुहाग की लम्बी उम्र की  बात होती ही है, क्योंकि महिला का जीवन पति के साथ ही जुड़ा है, वरना उसे तो ना अच्छा खाने का हक है और ना ही अच्छा पहनने का। अब जो व्रत चौथ माता के लिये था, वह कब से पति के लिये हो गया, मुझे समझ नहीं आ रहा था।
हम बचपन से ही भाभियों को व्रत करते देखते थे, रात को चाँद देखकर, उसको अर्घ चढ़ाकर सभी अपना व्रत खोल लेती थी। पति तो वहाँ होता ही नहीं था। लेकिन आज पति को ही पूजनीय बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। पति के लिये या अपने सुहागन रहने के लिये यह व्रत है जो चौथ माता को पूजकर किया जाता है ना कि पति को परमेश्वर बनाने के लिये है। हमारे व्रतों को असल स्वरूप को हमें समझना होगा और उनका अर्थ सम्यक हो, इस बात का भी ध्यान रखना होगा। यह चौथ माता का व्रत है, उसे साल में एक बार पूजो चा हर चौथ पर पूजो, लेकिन व्रत माता का ही है। इसलिये पूजा के बाद बायणा देने की परम्परा है जो अपनी सास को दिया जाता है। महिला सुहागन रहने के लिये ही चोथमाता का व्रत करती है, साथ में पति को  भी माता को पूजना चाहिये कि मेरी गृहस्थी ठीक से चले। बस यह शुद्ध रूप से महिलाओं का व्रत  है, इसे पति को परमेश्वर बनाने की प्रक्रिया का अन्त होना चाहिये। 
www.sahityakar.com

Sunday, October 1, 2017

बैलों की चरम-चूं, चरम-चूं


मैंने कई बार न्यूसेंस वेल्यू के लिये लिखा है। आज फिर लिखती हूँ। यह जो राज ठाकरे है, उसका अस्तित्व किस पर टिका है? कहते हैं कि मुम्बई में वही शान से रह सकता है जिसकी न्यूसेंस वेल्यू हो। फिल्मों का डॉन यहीं रहता है। चम्बल के डाकू बीहड़ों में रहते हैं, इसलिये उनका आतंक या न्यूसेंस वेल्यू बीहड़ों से लगे गाँवों तक सीमित है लेकिन मुम्बई के डॉन की वेल्यू सभी जगह लगायी जाती है। राज ठाकरे भी उन में से ही एक हैं। उनकी सोशल वेल्यू तो लगभग जीरो है, इसकारण वे पूरी निष्ठा से न्यूसेंस वेल्यू बढ़ाने में लगे हैं। जैसै आपको हर सामाजिक मौके पर अपनी सोशल वेल्यू बढ़ानी होती है, वैसे ही राज ठाकरे जैसों के लिये अपनी न्यूसेंस वेल्यू बढ़ाने का मौका दुर्घटनाओं के समय मिलता है।
कहीं भगदड़ मचती है, शायद मुम्बई में रोज की ही मारामारी है, तो इन जैसों को अपनी वेल्यू बढ़ाने का अवसर समझ आता है। कारखाने में काम करते समय यदि किसी मजदूर की तबियत खराब हो जाए तो ऐसे लीडर दौड़कर मालिक का कॉलर पकड़ लेते हैं। बेचारा मालिक कुछ पैसा देकर अपनी जान छुड़ाता है। मजदूर को कुछ मिले या नहीं लेकिन उस लीडर की न्यूसेंस वेल्यू बढ़ जाती है और उसकी कमाई चल पड़ती है। मुम्बई में पुल नहीं टूटता है, भगदड़ है लेकिन राज ठाकरे दौड़ पड़ते हैं कि बुलेट ट्रेन नहीं आने दूंगा। मुझे चाहिये हफ्ता। आज ही अहमद नगर में एयर पोर्ट का उद्घाटन है, रोक देना चाहिये उसे भी। राज ठाकरे सरीखे लोगों को कसम खा लेनी चाहिये कि जब तक देश में ऐसी भगदड़ रहेंगी, वायुयान का प्रयोग नहीं करेंगे।
समाज को सभ्य बनाने की ओर कदम किसी का नहीं है, बस हर व्यक्ति लगा है अपनी दादागिरी छांटने में। मुम्बई के आंकड़े बताते हैं कि रोज ही न जाने कितने लोग ट्रेनों में लटकते हुये यात्रा करते हैं और मरते भी हैं। तो रोक दो सारे ही विकास की धारा। क्यों नहीं रोका जा रहा है मुम्बई में बड़ी कम्पनियों को आने से। जिन कम्पनियों के भी 10000 से ज्यादा कर्मचारी हैं, उन्हें अपनी टाउनशिप बनानी चाहिये। लेकिन रोकने की कवायद हो रही है बुलेट ट्रेन को। ऐसा लग रहा है जैसे बुलेट ट्रेन के कारण ही इनका वोट बैंक धड़ाम हो जाएगा! भाई राजनीति में हो तो राजनीति जैसी बात करो, गुण्डे-मवालियों जैसी बात तो मत करो, इससे ना न्यूसेंस वेल्यू बढ़ती है और आपकी सोशल वेल्यू तो पहले से ही जीरो  है, तो वह तो कैसे बढ़ेगी। भीड़ को रोको ना कि तीव्रता को। तुम्हारी लीडरी तीव्रता से ही परवान चढ़ेगी ना कि बैलों की चरम-चूं, चरम-चूं से। 

Saturday, September 23, 2017

महिला की हँसी उसकी चूंदड़ जैसी

जब भी किसी महिला को खिलखिलाकर हँसते देखती हूँ तो मन करता है, बस उसे देखती ही रहूँ। बच्चे की पावन हँसी से भी ज्यादा आकर्षक लगती है मुझे किसी महिला की हँसी। क्योंकि बच्चा तो मासूम है, उसके पास दर्द नहीं है, वह अपनी स्वाभाविक हँसी हँसता ही है लेकिन महिला यदि हँसती हैं तो वह मेरे लिये स्वर्ग से भी ज्यादा सुन्दर दृश्य होता है। फेसबुक पर कुछ महिलाएं अपनी हँसी डालती हैं. उनके जीवन को  भी मैंने जाना है और अब जब उनकी हँसी देखती हूँ तो लगता है कि जीवन सार्थक हो रहा है। कहाँ हँस पाती है महिला? पल दो पल यदि किसी प्रसंग पर  हँस लें तो कैसे उसे हँसना मान लेंगे?
बचपन में एक लड़की  हँस रही थी, माता-पिता ने टोक दिया, ज्यादा हँसों मत, लड़कियों के लिये हँसना ठीक नहीं है। बेचारी लड़की समझ ही नहीं पायी कि हँसने में क्या हानि है? आते-जाते जब सभी ने टोका तो उसकी हँसी कहीं छिप गयी। सोचा जब अपना घर बसाऊंगी तो जी भर कर हँसूंगी लेकिन किसी पराये घर को अपना कहने में हँसी फंसकर रह गयी। दूसरों को हँसाने का साधन जो बनना था उसे, तो भला वह वहाँ भी कैसे हँसती? वार त्योहार जैसे चूंदड़ पहनकर अपनी पुरानी साड़ी को छिपाती आयी हैं महिलाएं, वैसे ही कभी हँसी को ओढ़ने का मौका मिल जाता है उन्हें। जब त्योंहार गया तो चूंदड़ को समेटकर पेटी में  रख दिया बस।
बड़ा होने की बाट जोहती रही महिला, कब बेटा बड़ा हो और माँ का शासन चले तो जी भरकर हँसे। लेकिन तब तो  पल दो पल की हँसी भी दुबक कर बैठ गयी। दिखने को लगता है कि किसने रोकी है  हँसी? लेकिन महिला जानती है कि उसकी हँसी किसी पुरुष के अहम् को ठेस पहुँचाने का पाप कर देती है। शायद दुनिया का सबसे बड़ा पाप यही है। कोई काले लिबास में कैद है तो कोई सफेद लिबास में कैद है, उसका स्वतंत्र अस्तित्व कहीं है ही नहीं। हँसने पर आज्ञा-पत्र लेना होता है या किसी का साथ जरूरी होता है। महिलाएं इसलिये ही इतना रोती हैं कि उन्हें हँसने की आजादी नहीं है, वे रो-कर  ही  हँसने की कमी को पूरा करती हैं। इसलिये जब भी किसी महिला को रोते देखो तो समझ लेना कि यह हँसने की कमी पूरा कर रही है। मैं तो रोती भी नहीं हूँ बस किसी महिला को हँसते देख लेती हूँ तो मान लेती हूँ की मैं ही हँस रही हूँ।

Friday, September 22, 2017

झूठी शान से मुक्त होता पुरुष

कुछ लोग अलग मिट्टी से बने होते हैं, उनकी एक छोटी सी सोच उन्हें सबसे अलग बना देती है। कल केबीसी के सेट पर खिलाड़ी थी – अनुराधा,  लेकिन मैं आज बात अनुराधा की नहीं कर रही हूँ। मेरी बात का नायक है अनुराधा का पति – दिनेश। कुछ लोग जीवन में एक उद्देश्य लेकर आगे बढ़ते हैं, स्वयं को बीज की तरह धरती में रोप देते हैं। उनका सारा ध्यान इस बात पर होता है कि मेरे इस बीज के त्याग से श्रेष्ठ बीजों का निर्माण हो सके। दिनेश का बचपन अशिक्षा की रात के साथ  बीता, उसके दिल और दीमाग में एक ही बात घर कर गयी कि मेरी संतान आगे पढ़ेगी। लेकिन यह कैसे सम्भव होगा? बारह भाई-बहनों के गरीब परिवार में उम्मीद की किरण कहीं नहीं थी। शिक्षित युवती से विवाह का सपना तो सब कोई देख लेते हैं लेकिन उसके लिये खुद को होम देने की बात कितने कर पाते हैं? दिनेश ने पोलियों से ग्रस्त एक शिक्षित युवती – अनुराधा से विवाह किया और उसकी बैसाखी बन गया। अब अनुराधा पढ़ाई भी करती और नौकरी भी करती और घर सम्भालता दिनेश। रोटी बनाने से लेकर सारे ही काम दिनेश करता। धीरे-धीरे शिक्षिका अनुराधा डिप्टी-कलेक्टर बन गयी और कल केबीसी में हॉट-सीट  पर थी।

जो पुरुष पत्नी के प्रमोशन होने पर भी शराब के अड्डे पर गम गलत करता दिख जाता है, वहीं दिनेश पूरे घर को मनोयोग से सम्भाल रहा है। दोनों पैरों से अपाहिज लड़की से विवाह करना, फिर घर की जिम्मेदारी वहन करना साहस का काम है। अपाहिज होने के बाद भी अनुराधा का आत्मविश्वास देखने लायक था। अक्सर पतियों के सपनों को पूरा करने में पत्नी खुद को झौंक देती है, अपने सपने के बारे में रत्ती भर नहीं सोचती है और बदले में सुनती है कि तुम करती ही क्या हो? किसी के भी सपने किसी दूसरे के सपनों को जमींदोज करके ही पूरे होते हैं। किसी भी सफल व्यक्तित्व के पीछे उसके साथी का हाथ  होता है और हमारे देश में अक्सर यह हाथ महिला का होता है लेकिन कल दिनेश ने सिद्ध कर दिया कि पुरुष भी अपने झूठे अभिमान को त्याग दे तो एक सुखद जीवन और सुखी परिवार का निर्माता बन सकता है। ऐसे न जाने कितने दिनेश होंगे, बस उन्हें समाज जीवन में उदाहरण बनकर सामने आना है, तब झूठी शान से पुरुष मुक्त हो सकेगा और अपने अंकुरण से श्रेष्ठ संतान को जन्म देगा। 

Friday, September 15, 2017

ब्राह्मण की पोथी लुटी और बणिये का धन लुटा


हम बनिये-ब्राह्मण उस सुन्दर लड़की की तरह हैं जिसे हर घर अपनी दुल्हन बनाना चाहता है। पहले का जमाना याद कीजिए, सुन्दर राजकुमारियों के दरवाजे दो-दो बारातें खड़ी हो जाती थी और तलवार के जोर पर ही फैसला होता था कि कौन दुल्हन को ले जाएगा? तभी से तो तोरण मारने का रिवाज पैदा हुआ था। हिन्दू समाज में बणिये और ब्राह्मण की स्थिति आज ऐसी ही है। ये भी हमारे समाज के सुन्दर और समृद्ध चेहरे हैं, इन पर  ही आक्रान्ताओं की नजर सदैव से रहती है। युद्ध के बाद हमेशा ये ही लुटते हैं। इनके पास ही वैभव एकत्र है और इनके पास  ही सुन्दरता है और ये ही समाज की दुर्बल कड़ी भी है। इन पर सारी दुनिया की नजर रहती है। बस इन्हें अपने समाज में मिला लो, हमारा समाज समृद्ध हो जाएगा, यही सोच सभी की रहती है। आसान शिकार भी यही हैं, जब असम में लूट मचती है तो सेठों को ही लूटा जाता है। जितने भी युद्ध हुए हैं उसमें बणिये-ब्राह्मण  ही लुटे है। बाकी के पास तो लुटने के लिये था ही क्या और यदि था भी तो साथ में उनके पास तलवार भी थी अपनी रक्षा के लिये। युद्ध किसने लड़े? क्षत्रियों ने लड़े। सैनिक कौन बने? राजपूत, जाट, गुर्जर, आदिवासी आदि। युद्ध में कोई भी जीते या  हारे, लड़ते हमेशा क्षत्रीय थे लेकिन लुटते हमेशा ही बणिये-ब्राह्मण थे।
छठी शताब्दी में सिन्ध पर मोहम्मद बिन कासिम का आक्रमण हुआ, उसने किसका कत्लेआम किया? ब्राह्मणों का। एक-एक को चुन-चुनकर मारा, लाखों का कत्लेआम किया। आज जो सिन्धी दिखायी देते है ना, वे सब ब्राह्मण थे। सिकन्दर ने किसे लूटा? गजनी ने किसे लूटा? बाबर ने किसे लूटा? अकबर ने किसे लूटा? औरंगजेब ने किसे लूटा? विभाजन में कौन लुटा? कश्मीर में कौन लुटा? आज भी जब दंगे होते हैं तो कौन लुटता है? ब्राह्मण की पोथी लुटी और बणिये का धन लुटा। सदियों से यही हो रहा है। इतिहास में क्या दर्ज है? इतने मण जनेऊ जली और इतने दिन पुस्तकालय जले। इतने मण सोना-चाँदी लूटे गये और इतने मण हीरे-जवाहरात लूटे गये। राजवंश कटे-मरे लेकिन लूट बणिये-ब्राह्मणों की हुई।

इसलिये सुरक्षा के लिये विचार किसे करना चाहिये? आज सुरक्षा तंत्र को सुदृढ़ करने की जरूरत आन पड़ी है, सामाजिक सुरक्षा समाज का ही उत्तरदायित्व है। जिस समाज के पास हथियार की ताकत नहीं है, उन समाजों को दूसरों को अपनी ताकत बनाना होता है। हमें भी आज समाज के उन योद्धाओं को जो हमारी सुरक्षा में सक्षम  है, ताकतवर और सुविधा सम्पन्न बनाना होगा। उनसे आत्मीयता बढ़ानी होगा। समाज के बिखराव को दूर करना हमारा ही उत्तरदायित्व है, इसी में हमारा बचाव है। जो लोग हिन्दू समाज  पर घात लगाए बैठे हैं, वे इन जातियों के हमसे दूर करना चाहते हैं, जिससे हम एकदम कमजोर हो जाएं। पैसे और ज्ञान के बलबूते हम सुरक्षित नहीं  रह सकते, सुरक्षा के लिये योद्धा जातियों को अपने साथ रखना ही होगा। अब तय आप को करना है कि बणिये-ब्राह्मण इन जातियों से दूरी बनाकर रखे या अपना रक्षक मानते हुए इन्हे सम्मान दें। 

Monday, September 11, 2017

human values / nuisance values

#हिन्दी_ब्लागिंग
विवेकानन्द के पास क्या था? उनके पास थे मानवीय मूल्य। इन्हीं मानवीय मूल्यों ( human vallues) के आधार पर उन्होंने दुनिया को अपना बना लिया था। लेकिन एक होती है nuisance value (उपद्रव मूल्य) जो अपराधियों के पास होती है, उस काल में डाकुओं के पास उपद्रव मूल्य था। सत्ता के पास दोनों ही मूल्य होते हैं, वे कभी मानवीय मूल्यों के आधार पर शासन करते हैं तो कभी उपद्रव मूल्य पर भी शासन करते हैं। अंग्रेजों ने यही किया था।  यदि आज के संदर्भ में देखे तो देश के प्रधानमंत्री मानवीय मूल्यों पर शासन कर रहे हैं और मीडिया के पास उपद्रव मूल्य या न्यूसेंस वेल्यू है। मीडिया अपनी इसी ताकत के बल पर किसी ने किसी उपद्रवकारी को पैदा करता रहता है और देश के विपक्षी-दल इन उपद्रवकारियों को हवा देते रहते हैं। कांग्रेस के इतिहास में इन न्यूसेंस कारकों का योगदान बहुत है, कभी-कभी तो लगता है कि उनका शासन न्यूसेंस वेल्यूज को सिद्धान्त पर ही चला। कभी भिण्डरावाला को पैदा कर दिया तो कभी 1984 में सिखों का कत्लेआम कर दिया। वर्तमान में राहुल गांधी हर उस जगह पहुंच जाते हैं जहाँ न्यूसेंस वेल्यू की उम्मीद हो। केजरीवाल ने तो अपना राजनैतिक केरियर इसी सिद्धान्त पर खड़ा किया था। लेकिन जब पंजाब में जीती हुई बाजी हार गये तब लगा कि केवल न्यूसेंस वेल्यू से काम नहीं चलता। कम से कम राजनीति में तो नहीं चलता, हाँ डाकू या आतंकी  बनना है तो खूब चलता है। और उस बन्दे ने सबक सीखा, चुप रहना सीखा। परिणाम भी मिला, दिल्ली में बवाना सीट जीत गये।

वर्तमान में मोदीजी पूर्णतया मानवीय मूल्यों के आधार पर शासन कर रहे हैं लेकिन विपक्ष और अधिकांश मीडिया उपद्रव मूल्यों पर डटे हैं। ये सारे मिलकर देश में सनसनी तो फैला देते हैं लेकिन हासिल कुछ नहीं  होता। कुछ अतिवादी हिन्दू भी उपद्रव मूल्य हासिल करना चाहते हैं, जैसे शिवसेना ने किया है। अब गोवंश के नाम पर करने का प्रयास रहता है। दोनों मूल्य आमने-सामने खड़े है, जब उपद्रव मूल्य  हावी हो जाते हैं तब मारकाट मचती है, लेकिन तभी लोगों के अन्दर के मानवीय मूल्य जागृत होने लगते हैं और शान्ति स्थापित होती है। लेकिन यह भी सच है कि यदि केवल मानवीय मूल्य ही एकत्र हो जाएं और उपद्रव-मूल्य ना हो तो मनुष्य बचेगा भी नहीं, क्योंकि प्रकृति तो कहती है कि बलवान ही शेष रहेगा। इसलिये किसके पास कितना हो, यह हम सभी को निर्धारित करना होगा। समाज के  पास कितने मानवीय मूल्य और कितने उपद्रव-मूल्य हों तथा शासन के  पास कितने हो, यह बहुत ही समझदारी का विषय है। आज के संदर्भ में हमें इस बात पर गौर करना ही पड़ेगा। 

Tuesday, September 5, 2017

एक विपरीत बात

#हिन्दी_ब्लागिंग
मुझे आज तक समझ नहीं आया कि – a2 + b2 = 2ab इसका हमारे जीवन में क्या महत्व है? यह फार्मूला हमने रट लिया था, पता नहीं अब ठीक से लिखा गया भी है या नहीं। बीजगणित हमारे जागतिक संसार में कभी काम नहीं आयी। लेकिन खूब पढ़ी और मनोयोग से पढ़ी। ऐसी ही न जाने कितनी शिक्षा हमपर थोप दी गयी। हम रटते गये और पास  होते गये, बस। शिक्षा की आड़ में हमारा ज्ञान नष्ट होने लगा। रामायण, महाभारत या अनेक पौराणिक ग्रन्थ हमसे दूर हो गये और हम जीवन के व्यावहारिक ज्ञान से दूर हो गये। चरित्र निर्माण की पाठशाला होती है, ऐतिहासिक चरित्रों को पढ़ना। सदियों से हमारे पुरखों ने राम और कृष्ण जैसे चरित्रों को पढ़कर ही समाज का चरित्र निर्माण किया था। बचपन में हम सभी नाटकों का मंचन करते थे और उनके पात्र हमारे पौराणिक पात्र ही होते थे, हमें स्वाभाविक रूप से ज्ञान मिलता था और इसी ज्ञान के माध्यम से दुनिया को जानने की रुचि जागृत होती थी। जैसे ही  रुचि जागृत  हुई व्यक्ति स्वत: ही शिक्षित होने लगता था। फिर उसे रटने की जरूरत नहीं होती थी। लेकिन हम पर थोपी हुई शिक्षा हमारे ज्ञान को भी नष्ट कर देती है। हम एक विषय के जानकार अवश्य हो जाते हैं लेकिन शेष विषयों में ज्ञान शून्य रह जाते हैं।

मुझे याद नहीं की मैंने विधिवत शिक्षा का कब प्रारम्भ किया, बस कुछ दिन तीसरी कक्षा के याद हैं तो कुछ माह पांचवी कक्षा के। छठी कक्षा से ही पढ़ाई प्रारम्भ हुई और जब तक ज्ञान  प्राप्ति की। मैं आज भी सफल व्यक्तियों के जीवन चरित्र को प्राथमिकता से पढ़ती हूँ। आप गाँव में जाइए, बच्चे बकरी के बच्चों के साथ खेलते मिल जाएंगे लेकिन स्कूल में दिखायी नहीं देंगे। उन्हें बोझ लगती है यह पढ़ाई। जैसे हमें समझ नहीं आ रहा कि बीज गणित का हमारे जीवन में क्या लाभ है, वैसे ही वे भी नहीं समझ पा रहे कि इस इतिहास-भूगोल का उनके जीवन में क्या लाभ है! यदि हम सात साल तक केवल पौराणिक कथानकों को ही मौखिक पढ़ाते रहें और उनका मंचन कराते रहें तो फिर बच्चों को शिक्षा की ललक जगेगी। शिक्षा उतनी ही होनी चाहिये जितनी हमें आवश्यक है, लेकिन ज्ञान की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए। आज शिक्षक दिवस पर यदि हम ऐसे प्रयोग कर लें तो हमारे देश का स्वरूप बदल जाएगा। कोई भी बच्चा किताबों के तले दबकर आत्महत्या नहीं करेगा ना अपने दिमाग का संतुलन खोएगा। बहुत  हो चुका घिसापिटा प्रयोग, अब नवीन सोच की जरूरत है। देखे किस युग में हम नवीनता की पहल करेंगे?

Friday, September 1, 2017

बतंगड़ या समाधान

#हिन्दी_ब्लागिंग
हम अपने-अपने सांचों में कैद हैं, हमारी सोच भी एक सांचे में बन्द है, उस सांचे को हम तोड़कर बाहर ही नहीं आना चाहते। कितना ही नुकसान हो जाए लेकिन हमारी सोच में परिवर्तन नहीं होता, कभी हमें पता भी होता है कि हम गलत तर्क के साथ खड़े हैं तब भी हम वहीं खड़े होते हैं और उसके लिये भी कोई तर्क ढूंढ लेते हैं। भीष्म अपनी प्रतीज्ञा के साथ खड़े थे, सारा वंश नष्ट हो गया लेकिन वे परिवर्तित नहीं हुए, कर्ण भी अपनी मित्रता के साथ खड़े थे, सब कुछ नष्ट हो गया लेकिन वे परिवर्तित नहीं हुए। हम लेखक लोग जब कुछ लिखते हैं तो हम अपना बिम्ब बनाते हैं और उसी के अनुसार अपनी बात कहते हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं कि पाठक उस बिम्ब को समझ ले, बस वह और कुछ समझ लेता है। दोनों ही हैरान हैं कि क्या लिखा गया और क्या पढ़ा गया! ऐसे ही हर व्यक्ति की अपनी मानसिकता है, उसने स्वयं को अपने दायरे तक सामित कर लिया है। अधिकांश व्यक्ति भेड़चाल के होते हैं, जो चलन में आ गया, बस वे भी वहीं चल देते हैं और इसके विपरीत यदि कोई दूसरी बात कह दें तो उसे कदापि नहीं मानेंगे।
कल जोधपुर मेडीकल कॉलेज के समाचार आ रहे थे, एक पत्रकार समझ ही नहीं पा रही थी कि भला कोई भी डॉक्टर असभ्य भाषा का प्रयोग कैसे कर सकता है? उस जैसे करोड़ो लोग इसी सत्य के साथ जीते हैं कि डॉक्टर जैसे पेशे वाले लोग बड़े ही सलीके वाले होते हैं। वे ऑपरेशन थियेटर में, जहाँ मरीज का पेट चिरा हुआ हो, कैसे आपस में गाली-गलोज करते हुए लड़ सकते हैं? करोड़ो लोग इस सत्य के साथ जीते हैं कि एक संन्यासी कैसे व्यभिचार कर सकता है! करोड़ो लोग इस सत्य के साथ जीते हैं कि जो भी मिडिया दिखा रहा है, भला वह झूठ कैसे हो सकता है! करोड़ो लोग इस सत्य के साथ जीते हैं कि भला न्यायपालिका कैसे व्यक्ति का जाति और धर्म देखकर न्याय कर सकता है! इसलिये जब समाज में कोई घटना घटती है तब सभी लोग अपने-अपने तर्क गढ़ लेते हैं और हम जैसे लोग जो समग्रता में विचार करते हैं, जब किसी घटना पर दूसरी तरह से विचार कर लेते हैं तब बतंगड़ बन जाता है। कोई यह नहीं कहता कि यह भी एक विचार है, इस पक्ष पर भी विचार करना चाहिये लेकिन सभी अपनी बात पर अडिग रहते हैं और केवल एक पक्ष को सत्य बनाने में तुल जाते हैं।
हम अपनी बात पर अड़िग रहते हैं लेकिन समस्या का समाधान नहीं ढूंढते। मुझे हमेशा ही समाधान ढूंढना पसन्द है इसलिये दूसरे मार्ग की भी बात करती हूँ। लेकिन जैसे ही दूसरी बात की और जलजला आ जाता है। आज यदि हम समाधान के लिये जुट जाएं तो देश अधिक सुन्दर होगा। जोधपुर में हुए काण्ड में मीडिया अपनी मानसिकता दिखा रहा था जब कि सत्य और कुछ था। परिणाम क्या होगा, किसी पर कोई आरोप सिद्ध नहीं होंगे। जितने भी इस देश में बाबा हैं, हम उन पर भी अपने-अपने तरीके से अरोप मढ़ते हैं। समग्रता में विचार नहीं करते कि इस परिस्थिति में समाधान कैसे निकालें। बस एकबारगी तो हो-हल्ला खूब हो जाता है लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकलता है। हमें समाधान की ओर बढ़ना चाहिये ना कि अपनी मानसिकता को साथ खड़े रहना चाहिये। कम से कम मीडिया, बुद्धिजीवि, कानून आदि को समग्रता के साथ ही रहना चाहिये, जिसमें देश हित हो वही कार्य करना चाहिये।

Thursday, August 24, 2017

अब महिला के पक्ष में वोट बैंक आएगा

#हिन्दी_ब्लागिंग
एक प्रसंग जो कभी भूलता नहीं और बार-बार उदाहरण बनकर कलम की पकड़ में आ जाता है। मेरी मित्र #sushmakumawat ने कामकाजी महिलाओं की एक कार्यशाला की, उसमें मुझे आमंत्रित किया। कार्यशाला में 100 मुस्लिम महिलाएं थी। मुझे वहाँ कुछ बोलना था, मैं समझ नहीं पा रही थी कि मैं क्या विषय लूं जो इन्हें समझ आ जाये! फिर मैंने कहा कि आज हम केवल बातचीत करते हैं और आपके जो प्रश्न हो उनको हल करने का प्रयास करते हैं। दो प्रश्न आए – पहला – तलाक-तलाक-तलाक कब तक और दूसरा बुर्का कब तक। वहाँ 100 महिलाओं में हर उम्र की महिला थी, अधिकांश पीड़ित थीं, तलाकशुदा थीं। हम उनका दर्द जानने का प्रयास कर ही रहे थे कि नीचे शोर मचा। तब मुझे बताया गया कि किसी महिला के कमरे में मौलवी घुसकर जबरदस्ती कर रहा है और महिला चिल्ला रही है लेकिन बचाने की हिम्मत किसी में नहीं है। तब मैंने इस बात को कई बार दोहराया कि मुस्लिम समाज में अवश्य क्रांति आएगी और महिलाओं के द्वारा ही आएगी। आज पहले प्रश्न का समाधान आ गया है बस दूसरा उसके सहारे ही हल हो जाएगा।
साहित्यिक महिलाओं की एक विचार गोष्ठी किसी परिवार में आयोजित थी, वहाँ महिला अधिकारों की बात हो रही थी। मुस्लिम बहन कह रही थी कि हमें कोई अधिकार नहीं हैं, हमारे नाम मकान नहीं है, कोई सम्पत्ती नहीं है। ताज्जुब तब हुआ जब हिन्दू बहने भी उसी रो में बहती दिखीं। मैंने कहा कि हमारे यहाँ तो ऐसा नहीं है, मेरे नाम मकान है और पूरा घर मेरा है। मुस्लिमों की इस समस्या को हिन्दुओं की क्यों बनाते हो। महिला मुक्ति आंदोलन में यही स्थिति बनी। यूरोप में महिलाओं ने चर्च के खिलाफ मोर्चा खोला तो आग हमारे यहाँ भी लगी, जबकि भारत में ऐसा नहीं था। दोनों बातें सामने आयीं, एक ईसाई महिला पादरियों का शिकार हो रही थीं और दूसरा मुस्लिम महिला मौलवियों का शिकार बन रही थी। लेकिन लपेटे में हिन्दू समाज भी आ रहा था। हिन्दू समाज के सन्तों ने भी स्वयं को भगवान का दर्जा दिया और महिलाओं का शोषण करने का प्रयास प्रारम्भ किया। मुस्लिम समाज में भी जहाँ एक तरफ तीन तलाक का बोलबाला था तो हिन्दू समाज के पुरुष भी महिला को अपनी अनुगामिनी मानने लगे और सभी जगह अपना वर्चस्व स्थापित करने में लग गये।
इसलिये कल का दिन इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज हो गया है जब स्त्रियों को आजादी मिली है। प्रत्यक्ष आजादी मुस्लिम महिला को मिली है लेकिन अप्रत्यक्ष आजादी सभी को मिली है। जो अपराध समाज में बढ़ता जा रहा था और उसके छींटे सारे समाजों पर पड़ रहे थे, उससे समाज और देश को मुक्ति मिली है। हलाला को नाम पर यौन उत्पीड़न का दौर शुरू हुआ था जो हवस बनकर विस्तार ले रहा था। सारा महिला समाज असुरक्षित हो गया था, नन्हीं बच्चियां तक असुरक्षित हो गयी थीं। जब किसी एक वर्ग की तानाशाही समाप्त होती है तो बहुत सारे अपराध और जुल्म भी समाप्त होते हैं। यह विभेद बहुत पहले ही समाप्त हो जाता यदि शाहबानो के केस में राजीव गांधी महिलाओं के पक्ष में खड़े होते। आज मोदी जी का लाख-लाख धन्यवाद है कि वे महिलाओं के पक्ष में खड़े हुए और उन्हें न्याय मिलने के मार्ग में बाधक नहीं बने। हमारा उनको नमन। यह सृष्टि जितनी पुरुषों की है उतनी ही महिलाओं की है, किसी एक को इसे अपनी मन मर्जी से चलाने का हक नहीं है। अब महिला ने खड़ा होना सीख लिया है, वे अपने अधिकार लेकर ही रहेगी। धर्म के नाम पर महिलाएं कल यूरोप में पादरियों से मुक्त हुई थीं और आज भारत में मौलवियों से। अब महिला का स्वाभिमान लौटेगा और उसका यथोचित सम्मान समाज को देना ही पड़ेगा। जिन महिलाओं ने भी इस आंदोलन को लड़ा है उन्हें भी प्रणाम। इस आंदोलन से देश बदलेगा और सारे ही समीकरण बदलेंगे। अब वोट बैंक के लिये महिला का अधिकार नहीं छीना जाएगा। अब महिला के पक्ष में वोट बैंक आएगा।
www.sahityakar.com

Saturday, August 19, 2017

हमें अपनी झील के आकर्षण में बंधे रहना है

#हिन्दी_ब्लागिंग

मैं कहीं अटक गयी हूँ, मुझे जीवन का छोर दिखायी नहीं दे रहा है। मैं उस पेड़ को निहार रही हूँ जहाँ पक्षी आ रहे हैं, बसेरा  बना रहे हैं। कहाँ से आ रहे हैं ये पक्षी? मन में प्रश्न था। शायद ये कहीं दूर से आए हैं और इनने अपना ठिकाना कुछ दिनों के लिये यहाँ बसा लिया है। पहले तो इन पक्षियों को कभी यहाँ नहीं देखा, बस दो-चार साल से ही दिखायी पड़ रहे हैं। सफेद और काले पक्षी, बड़े-बड़े पंखों वाले पक्षी। उड़ते हैं तो आकाश नाप लेते हैं और जब जल में उतर जाते हैं तो किस तरह इठलाते हुए तैरते हैं। इनका उड़ना, इनका लहराकर पेड़ पर बैठना कितना आकर्षक है! मेरे रोज का क्रम हो गया है इन पक्षियों को देखने का। मन करता है कि यहाँ से नजर हटे ही ना। इन बड़े पक्षियों के साथ नन्हीं चिड़ियाओं की दुनिया भी यहाँ बसती है। सैकड़ों की तादाद में आती हैं और इन्हीं तीन-चार पेड़ों पर अपना ठिकाना बना लेती हैं। शाम पड़ते ही इनका काफिला फतेहसागर की ओर चल पड़ता है, चहचहाट पूरे वातावरण को संगीतमय बना देती है। ये चिड़िया भी अपनी गौरैया नहीं है, कोई विदेशी नस्ल की ही दिखायी  देती हैं। रात होने को है और अब चिड़ियाएं धीरे से उड़कर पेड़ के नीचे के हिस्से में चले गयी हैं, वहाँ सुरक्षित जो हैं। ये पेड़ मानों इन पक्षियों की हवेली है जिसमें नीचे की मंजिल में नन्हीं चिड़िया रहती हैं और ऊपर बड़े पक्षी।
गर्मी के दिनों में नन्हीं चिड़ियाएं दिखायी नहीं दे रही थी, शायद वे भी ननिहाल गयी होंगी! लेकिन जैसे ही मौसम सुहावना हुआ, ये लौट आयी हैं। बड़े पक्षी अपने देश नहीं लौटे और इनने अपना पक्का ठिकाना यहाँ पर ही बना लिया है। तभी आकाश में हवाईजहाज गरजने लगता है, न जाने कितने पक्षी दूसरे देश में बसेरा ढूंढने निकल पड़े होंगे! मेरी इस खूबसूरत झील में दुनिया जहान के पक्षी आए हैं अपना सुकून ढूंढने, ये लौटकर नहीं जा रहे हैं और इस जहाज में लदकर न जाने कितने बाशिंदे दूसरे देश में सुकून ढूंढ रहे हैं। तभी लगता है कि जीवन रीतने लगा है, इस पेड़ पर बड़े पक्षी हैं तो नन्हें पक्षी भी है। ये आपस में बतियाते तो होंगे, सारा वातावरण तो गूंज रहा है इनकी बातों से। लेकिन मन खामोश है, न जाने कितने घर खामोश हैं और शहर खामोश हैं। इन घरों की बाते रीत गयी हैं, यहाँ कोई बतियाने नहीं आता। घरों के पक्षियों ने दूसरे देश में सुकून ढूंढ लिया है। बूढ़े होते माँ-बाप पूछ रहे हैं कि किस पेड़ पर जीवन मिलेगा? क्या हमें भी अपना बसेरा उजाड़ना पड़ेगा? क्या हमें भी सात समन्दर पार जाना पड़ेगा? ये पक्षी तो मेरे शहर में आ बसे हैं लेकिन शायद मुझे इनका साथ छोड़ना  पड़ेगा।

मनुष्य क्यों यायावर बन गया है, ये पक्षी शायद इन्हें यायावरी सिखा रहे हैं। अब मुझे क्रोध आने लगा है इन पर, तुम क्यों चले आये अपने देश से? तुमने ही तो सिखाया है मनुष्य को दूसरे देशों में बसना। तुम्हारा जीवन तो सरल  है लेकिन हमारा जीवन सरल नहीं है, तुम्हारें पास लोभ नहीं है, संग्रह नहीं है, तुम छोड़कर कुछ नहीं आते। लेकिन हमें तो जीवन का हिसाब करना होता है। किस-किस माँ को क्या-क्या जवाब दूं कि परिंदों सा जीवन नहीं हैं हमारा। परिंदे जब उड़ते हैं तो आजादी तलाशते हैं, वे किसी झील को अपना मुकाम बना लेते हैं, जहाँ जीवन में सब कुछ पाना हो जाता है। ये परिंदे भी सबकुछ अपने पीछे छोड़कर आए हैं, इनके पीछे कोई नहीं आया। सभी के पेड़ निर्धारित हैं, सभी की झीलें निर्धारित हैं। कोई इस देश की झील में बसेरा करता है तो कोई पराये देश की झील में बसेरा करता है। मनुष्य कब तक स्वयं को दूसरों से अलग मानता रहेगा? घुलना-मिलना ही होगा हमें इन पक्षियों के साथ। इनके जीवन की तरह अकेले रहकर  ही बनाना होगा अपना आशियाना। जब ये पक्षी अकेले ही जीवन जीते हैं तो हम क्यों नहीं! हमने घौंसला बनाया, परिंदों को पाला, लेकिन अब वे उड़ गये हैं। उन्हें उड़ने दो, अपना संसार बसा लेने दो। उनकी गर्मी-सर्दी उनकी है, हम किस-किस को अपनी छत देंगे? कब तक देंगे और कब तक देने की स्थिति में रहेंगे? वे भी हमें कब तक आश्वासन देंगे? यहाँ फतेहसागर की झील में कितने ही पक्षियों का बसेरा है, हम भी हमारे ही देश में इन परिन्दों की तरह बसे रहेंगे। पेड़ बन जाएंगे जहाँ पक्षी अपना बसेरा बना सके। इन जहाजों में जाने दो युवाओं को, उनको दूर देश की झील ने मोह लिया है लेकिन हमें अपनी झील के आकर्षण में बंधे रहना है। 

Wednesday, August 16, 2017

पहाड़ों के बीच बसा अलसीगढ़

#हिन्दी_ब्लागिंग
मनुष्य प्रकृति की गोद खोजता है, नन्हा शिशु भी माँ की गोद खोजता है। शिशु को माँ की गोद में जीवन मिलता है, उसे अमृत मिलता है और मिलती है सुरक्षा। बस इंसान भी इसी खोज में आजीवन जुटा रहता है। बचपन छूट जाता है लेकिन जहाँ जीवन मिले, जहाँ अमृत मिले और जहाँ सुरक्षा मिले, उस माँ समान गोद की तलाश जारी रखता है। प्रकृति की ऐसी गोद जब उसे मिलती है तो वह कह उठता है यह मेरी माँ ही तो है। कभी साहित्याकर की भाषा में जन्नत कह उठता है। मनुष्य कितनी ही भौतिक उन्नति कर ले लेकिन प्रकृति को आत्मसात करने की उसकी फितरत कभी नहीं जाती। वह कभी बर्फिली पहाड़ियों पर पहुंचता है तो अनायास ही कह देता है कि धरती पर यही जन्नत है, कभी मेरे जैसा व्यक्ति हरियाली से लदे पहाड़ों से मध्य जा पहुंचता है तो कह देता है कि अरे इसके अतिरिक्त जन्नत और क्या होगी? हमने तो धरती की इसी जन्नत को बार-बार देखा है, इसी में जीवन को खोजा है, इसी में अमृत ढूंढा है और इसी धरती को सुरक्षित माँ की गोद माना है। इसलिये इसे ही नमन करते हैं, इसी का वन्दन करते हैं।
कल निकल पड़े थे इसी जन्नत की ओर, उदयपुर के जनजाति गाँव की सैर पर। घर से मात्र 20 किमी की दूरी थी लेकिन वहाँ पहुंचने में 40 मिनट का समय लग गया। हमारी गाडी सर्पिली सड़कों पर गुजरती हुई पहाड़ियों को लांघ रही थी, कभी पहाड़ सामने ही आ खड़ा होता था तो कुछ दूर चलने पर ही रास्ता बना देता था। पहाड़ पेड़ों से और हरी घास से लदे थे, बीच-बीच में इनमें जीवन भी दिखायी दे जाता था। कहीं छोटी सी पहाड़ी थी तो उसमें एक झोपड़ी थी, बकरी थी और बच्चे थे। महिला और पुरुष खेतों सें दिखायी दे जाते थे। खेत भी तो पहाड़ी के तलहटी में ही छोटे आकार के थे। चारो तरफ मक्की की खेती लहलहा रही थी। कब 40 मिनट बीत गये, पता ही नहीं चला और गाँव अलसीगढ़ आ गया। हमारे एक मित्र का वहाँ छोटा सा ठिकाना था हमने वहीं अपना सामान रखा और अलसीगढ़ के डेम की ओर चलने को तैयार हो गए। हमारे ठिकाने की महिला चौकीदार से पूछा कि डेम कितनी दूर है, वह बोली पास ही है। हमने कहा फिर पैदल ही चलते हैं फिर युवाओं से पूछा तो बोले की नहीं चार किमी है, गाडी से जाइये, सीधी सड़क वहीं तक जा रही है। हम गाडी उठाकर चल पड़े। कुछ दूर जाकर पूछ लिया कि कहाँ है डेम? अरे वह तो पीछे छूट गया। अब वापस पीछे, कच्चे रास्ते में गाडियां उतार दी, लेकिन कुछ दूर चले थे कि पता लग गया कि गाडी ले जाना सम्भव नहीं है। वापस लौटे, फिर सड़क पर चलते रहे, पता लगा कि फिर काफी दूर निकल आये हैं। वापस लौटे और दूसरे रास्ते पर गाडी उतारी, लेकिन रास्ता फिर भी नहीं मिला। पानी दिख रहा है लेकिन पहाड़ को लांघने का रास्ता नहीं मिल रहा। फिर वापस, अब की बार जवान को साथ लिया और उसने रास्ता दिखाया। गाडियों को खड़ा करके पहाड़ों को लांघना था। पहाड़ के पीछे बांध का पानी था। पहले पहाड़ पर चढ़ना फिर उतरना, तब कहीं जाकर पानी को हाथ लगा सकते थे। हमें पानी में उतरने को भी मना कर दिया गया था, बताया था कि पानी गहरा है, खतरा मत मोल लेना।
चारों तरफ पहाड़े थे और पहाड़ों के बीच में पानी को रोक रखा था, नदी भी थी। कभी सोचो, दिन की चहल-पहल के बाद जब रात ढलती होगी तब प्रकृति क्या बात करती होगी? आकाश में चाँद और तारे झिलमिलाते होंगे और धरती पर पहाड़ों के मध्य बसा यह पानी कभी किसी मछली की छपाक के साथ खामोशी तोड़ता होगा। पहाड़ मद्धिम रोशनी में जगमगाते होंगे, हरी दूब पर शबनम की बूंदे जब तैरती होंगी तो हीरे जगमगाते होंगे! उस अलौकिक सौन्दर्य को पता नहीं किसने देखा होगा या यह सब हमारा ही है, कभी ध्यान नहीं दिया होगा! सुबह पंक्षियों की चहचहाट से होती होगी और खेतों में किसान जब अपने बैलों को ले जाते होंगे तो कैसा समा होगा! लेकिन इतना ही तो नहीं है गाँव! इसके आगे भी बहुत कुछ है, इस जन्नत में लोग रहते हैं लेकिन प्रकृति से आगे बढ़ नहीं पा रहे हैं। गाँव तक स्कूल जा पहुंचा लेकिन बच्चे पढ़ने के शौकीन नहीं, उनका मन लगता ही नहीं। शिक्षा को उन पर थोप दिया गया है। यदि शिक्षा से उन्हें मुक्त कर दिया जाए और जीवन को वहीं के साधनों से सम्पन्न बना दिया जाए तो शिक्षा को अपना लेंगे। थोपी हुई कोई चीज किसी को भी पसन्द नहीं आती, हर व्यक्ति स्वतंत्र रहना चाहता है, अपने तरीके से जीना चाहता है। हम क्यों उन्हें अपना सा बनाना चाहते हैं? उनकी कुटिया को स्वच्छ और सुन्दर बना दीजिये, ग्रामीण पर्यटन शुरू कर दीजिये, वे सम्पन्न हो जाएंगे और शिक्षा की ओर भी मुड़ जाएंगे। तरीके उनकी पहल के होने चाहिये फिर हमारा सुझाव होना चाहिये, ऐसा कर लिया तो वे अपनी तरह से आगे बढ़ेंगे और फिर हमें जा पकड़ेंगे। प्रकृति के पुत्रों को प्रकृति ही रास आती है और प्रकृति स्वतंत्र होती है।