Thursday, August 30, 2018

इन मेहंदी से सजी हथेलियों के लिये

कभी आपने जंगल में खिलते पलाश को देखा है? मध्यम आकार का वृक्ष अपने हाथों को पसारकर खड़ा है और उसकी हथेलियों पर पलाश के फूल गुच्छे के आकार में खिले हैं। गहरे गुलाबी-बैंगनी फूल दप-दप करते वृक्ष की हथेली को सुगन्ध से भर देते हैं। एक मदमाती गन्ध वातावरण में फैल जाती है। जंगल के मन में दावानल जल उठता है, इससे अधिक सुन्दरता कोई चित्रकार भी नहीं उकेर सकता जितनी प्रकृति ने उकेर दी होती है। मैंने कई बार देखी है यह सुन्दरता। बचपन में देखी थी और इन टेसू के फूलों से होली के रंग बना लिये थे। ! (यह टेसू और पलाश एक ही है।) युवावस्था में देखी तो लगा कि जंगल में दावानल दहक रहा है, साक्षात कामदेव ने अपने सारे ही सर-संधान कर दिये हैं। भला ऐसी प्रकृति को छोड़कर कौन शहर की ओर दौड़ना चाहेगा! मन करता कि यही बस जाएं। हर पलाश का वृक्ष निमंत्रण देता सा लगता। लेकिन शहरी जीवन कब जाकर बसा है जंगलों में! इसने तो शहर में ही पलाश की सुन्दरता खोजने का काम कर लिया है। 
मेरी नजर महिलाओं की हथेली पर पड़ी, सुन्दर-गुलाबी सी हथेली और उसपर रची मेहंदी। जब फोटो खिंचवाने के लिये हाथ ऊपर किये तो लगा कि पलाश के वृक्ष ने अपने तने को ऊपर किया है। मुझे हथेली पर पलाश के फूल खिलते दिखायी दिये। लाल-पीली सी मेहंदी और महकती मेहंदी, क्या किसी टेसू के फूल की उपस्थिति से कम है त्योहार पर अनेक हाथ जो मेहंदी से रच गये हैं, जंगल के पलाश-वृक्ष की अनुभूति करा रहे हैं। यह मेहंदी का रंग हथेली के साथ मन में भी रचता है, इस मेहंदी की खुशबू से हाथ ही नहीं महकते अपितु मन भी महकता है और अपनी हथेली में रची मेहंदी से दिल किसी ओर का डोलता है। जैसे जंगल पलाश के खिलने से जादुई हो जाता है, लगता है कि किसी तांत्रिक ने वशीकरण मंत्र से बांध दिया है सभी के मन को, वैसे ही मेहंदी से रचे हाथों में यह ताकत आ जाती है। खुमारी सी छाने लगती है और लगता है हर घर में वसन्त ने दस्तक दे दी हो।
महिलाओं ने मेहंदी का भरपूर प्रयोग किया है, जैसे प्रेम की रामबाण औषधि यही हो। बस कोई भी त्योहार हो, बहाना चाहिये और रच जाते हैं मेहंदी के हाथ। घण्टों तक मंडते हैं फिर घण्टों भर की देखभाल लेकिन घर में कहीं कोई उतावलापन नहीं। अपने हाथ से पानी भी नहीं पीने वाले पुरुष पत्नियों को पानी लाकर पिलाने लगते हैं। सब काम खरामा-खरामा होता है लेकिन घर का धैर्य बना रहता है। बिस्तर की चादर लाल हो जाती है, घर के आँगन में मेहंदी का चूरा बिछ जाता है, वाँशबेसन चितकबरे हो जाते हैं लेकिन कोई शिकायत नहीं। मेहंदी का जादू घर के सर पर चढ़कर बोलता है, उसकी खुशबू से सभी मदमस्त रहते हैं, बस इस इंतजार में कि कब मेहंदी सूखेगी और कब हथेली निखरेगी। जैसे ही हथेली से मेहंदी ने झरना शुरू किया, एक ही चाहत आँखों में बस जाती है कि कितना रंग चढ़ा? इस रंग को प्यार का नाम भी दिया गया कि जिसकी ज्यादा रचे, उसे प्यार अधिक मिले। प्रकृति ने हमें जहाँ टेसू के फूल में भरकर रंग दिये हैं वहीं मेहंदी के अन्दर भी रंग घोल दिये हैं। कुछ लोग मेहंदी के बहाने प्रकृति को घर में न्योत देते हैं और कुछ दूर से ही निहारते रहते हैं। जिसने भी प्रकृति के इस प्रेम की ताकत को पहचाना है उसने प्रेम को भी पहचान लिया है और जिसने इन रंगों को अपने जीवन से दूर किया है, उससे प्रेम भी रूठ गया है। हमारे जीवन में मेहंदी ऐसे ही रची-बसी रहे जैसे जंगल में पलाश। जंगल भी महकेंगे और घर भी महकेंगे। घर भी महकेंगे और मन भी महकेंगे।
विशेष - यह सावन-भादो का महिना हम महिलाओं के लिये विशेष होता है और फेसबुक पर मेहंदी से रची हथेलियों के फोटोज की भरमार है, यह पोस्ट उन्हीं के लिये।
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Monday, August 27, 2018

बहन की मुठ्ठी में सम्मान रख दो


कई बार आज का जमाना अचानक आपको धक्का मारता है और आप गुजरे हुए जमाने में खुद को खड़ा पाते हैं, कल भी मेरे साथ यही हुआ। बहने सज-धज कर प्रेम का धागा लिये भाई के घर जाने लगी लेकिन भाई कहने लगे कि आज तो बहनों को कुछ देना पड़ेगा! कुछ यहाँ लिखने भी लगे कि बहनों की तो कमाई का दिन है आज। मुझे मेरी माँ का जमाना याद आ गया। जैसे ही गर्मियों की छिट्टियां होती और माँ के पास भाई का बुलावा आ जाता और माँ हमें लेकर अपने मायके चले जाती। ना भाई कभी कारू का खजाना लुटाता और ना ही माँ कभी उलाहना देती, बस मुठ्ठी में जो भी प्यार से रख देता, माँ के लिये साल भर के प्रेम की सौगात होती। मामा माँ को इतना सम्मान देते कि कभी मामी के स्वर ऊँचे नहीं होते। जब हमारे घर किसी भाई का विवाह होता तो मामा सबसे पहले आकर खड़े होते और वे मायरे में क्या लाए हैं यह कोई नहीं पूछता बस माँ के खुशी के आँसू ही उनका खजाना बता देते। राखी पर तो कोई आने-जाने का बंधन कभी दिखायी ही नहीं दिया। बस माँ की आँखों में हमेशा विश्वास बना रहा कि मेरी हर जरूरत पर मेरे भाई सबसे पहले आकर खड़े होंगे और हमारे मामा ने कभी उनके विश्वास को टूटने नहीं दिया। भाई-बहन का सम्मान वाला प्रेम मैंने अपने घर देखा है। माँ का जमाना बीता फिर हमारा जमाना आया, सम्मान तो अटल खड़ा था लेकिन उसकी बगल में चुपके से पैसा भी आकर खड़ा हो गया था। जैसे ही पैसा आपका आवरण बनने लगता है, रिश्तों से आवाजें आने लगती हैं जैसे यदि आपने बरसाती पहन रखी है तो उससे आवाज अवश्य होगी ही। लेकिन फिर  भी रिश्ते में सम्मान  बना रहा और हमारी आँखों में भी वैसे ही आँसू होते थे जैसे माँ की आँखों में होते थे, विश्वास के आँसू।
लेकिन ....... आज वैसा प्यार कहीं दिखायी नहीं देता है, सब ओर पैसे से तौल रहे हैं इस अनमोल प्यार को। बहन क्या लायी और भाई ने क्या दिया, बस इसी पड़ताल में लगे दिखते हैं। कोई कह रहा है कि आज तो बहनों का दिन है, आज तो बहनों की चाँदी है। त्योहार भाई का और पैसे के कारण हो गया बहनों का! बहन रात-दिन इसी में लगी रहे कि मेरा भाई हमेशा खुश रहे, वह मेरे ससुराल के समक्ष मेरा गौरव और सम्मान  बनकर खड़ा रहे और भाई रिश्ते को पैसे से तौल रहा है! कल राखी थी, मेरी ननद को अचानक बाहर जाना पड़ा, मेरे पैर के नीचे से धरती खिसक गयी कि राखी कौन बांधेगा? लेकिन वह आ गयी। तब पता लगा कि जिनके बहने नहीं होती वे भाई इस प्यार को पाने से कितना वंचित होते होंगे! यह धागा प्रेम का है इसे पैसे से मत तौलो। यदि आज भी तराजू के एक पलड़े में राखी रख दोगे और दूसरे में तुम्हारा सारा धन तो भी पलड़ा हिलेगा नहीं, लेकिन यदि तुमने सम्मान का एक पैसा ही रख दिया तो पलड़ा ऊपर चले जाएगा। बहनें सम्मान के लिये होती हैं, इनसे पैसे का हिसाब मत करो, ये ऐसा अनमोल प्यार है जो दुनिया के सारे रिश्तों के प्यार से बड़ा है। इस रिश्ते पर किसी की आंच भी मत आने दो, भाई का सम्मान ही इस रिश्ते को किसी भी उलाहने से बचा सकता है। भाई का बड़प्पन भी इसी में है कि वह अपनी बहन को कितना सम्मान देता है।
मखौल में मत उड़ाओ इस रिश्ते को, यह भारत भूमि की अनमोल धरोहर है। जहाँ दुनिया अपनी वासना में ही प्रेम को ढूंढ रही है, वहीं भारत में यह अनमोल प्यार आज भी हम भाई-बहनों के दिलों में धड़कता है। पैसे को दूर कर दो, बस प्यार से बहन की मुठ्ठी में सम्मान रख दो, जैसे मेरी माँ के हाथ में रखा जाता था। इतना सम्मान दो कि आने वाली पीढ़ी भी उछल-उछलकर कहे कि आज हमारी बुआ आयी है, जैसे हम कहते थे। मुँह से बोले शब्द ही कभी मिटते नहीं तो भाई लोग तुम तो धमाधम लिखे जा रहे हो, बहनों के प्यार को पैसे से तौल रहे हो! हम बहनें तो नहीं तौलती पैसे से, हमें तो प्रेम का ही धागा बांधना आता है, हमने इसी धागे को राखी का रूप दिया है। जो सबसे सुन्दर लगता है बस हम वही धागा खरीद लेते हैं क्योंकि हम मानते हैं कि हमारा भाई भी इतना ही सुन्दर है।
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Friday, August 24, 2018

#कुम्भलगढ़ जब बोल उठा

एक सुन्दर सी पेन्टिंग मेंरे सामने थी, लेकिन मुझे उसमें कुछ कमी लग रही थी। तभी दूसरी पेन्टिंग पर दृष्टि पड़ी और मन प्रफुल्लित हो गया। एक छोटा सा अन्तर था लेकिन उस छोटे से बदलाव ने पेन्टिंग में जीवन्तता भर दी थी। खूबसूरत मंजर था, हवेली थी, पहाड़ था, बादल था, सभी कुछ था लेकिन किसी जीवित का चिह्न नहीं था। दूसरे चित्र में कलाकार ने पैर के निशान बना दिये थे बस मेरी नजर में वह चित्र बोल उठा था। अचल प्रकृति को हम कितना भी सुन्दर चित्रित कर दें लेकिन मुझे उसमें खालीपन ही दिखायी देता है लेकिन जब कभी भी उसमें एक नन्ही चिड़िया ही आकर बैठ जाए, मेरे लिये वह दृश्य जीवन्त हो उठता है। अभी 15 अगस्त को कुम्भलगढ़ जाना हुआ, इसके पूर्व भी कई बार देखा है उस भव्य किले को लेकिन कभी उसकी बोली सुनाई नहीं दी। उस दिन रात को 7.30 बजे जब ध्वनी और प्रकाश का शो शुरू हुआ और पहाड़ों से टकराती आवाज गूंज उठी की मैं कुम्भलगढ़ हूँ तब लगा कि आज पूर्णता के दर्शन हो गये हैं। 
मौन तपस्वी सा खड़ा कुम्भलगढ़ उस दिन अचानक बोल उठा, 2000 वर्ष पूर्व का इतिहास अचानक ही जीवन्त हो गया। कल्पना में सारे पात्र आकार लेने लगे। सम्राट अशोक के पौत्र ने इस पहाड़ पर आकर किसी मानव के पैरों को प्रतिष्ठित किया था, मुझे अशोक के काल का स्मरण हो आया कि किस सोच के साथ उनका यहाँ पदार्पण हुआ होगा! समय बीत गया और राजा हमीर का जीवन सामने आ खड़ा हुआ। फिर किला बोल उठा, बधाई गीत सुनायी दिये। लेकिन महाराणा कुम्भा ने सन् 1458 में इसे साकार रूप देकर जीवन्तता का नाम दे दिया – कुम्भलगढ़। किले की प्राचीर से, किले के हर पत्थर से आवाज गूंज रही थी कि मैं कल भी जीवित था और आज भी जीवित हूँ। कल तक मैं जनता की रक्षा कर रहा था और आज जनता मेरा यशोगान कर रही है। मेरे कल के कृतित्व को अपने हाथ से छूकर अनुभव कर रही है और हर कोने में झांककर उस इतिहास को अनुभूत कर रही है, जो उसका वर्तमान नहीं था। हजारों सैलानी आ रहे हैं, हम भी उनमें से एक थे, बेटे ने कहा कि कैसे बनाया होगा उस काल में यह किला! पहाड़ की ऊंची चोटी पर खड़ा होकर यह किला अपनी कहानी खुद कहता है, अपने भी आये और पराये भी आये लेकिन किले ने प्रजा की सदैव रक्षा की।
बस किले के साथ एक दुखद प्रसंग भी जुड़ा हुआ है जो दिल में बने नासूर की तरह लगता है। हमारे इतिहास को कलंकित करता है। किले की जो हवाएं इठला रही थी वे अचानक से स्तब्ध हो जाती है, सन्नाटा छा जाता है, जिस महाराणा कुम्भा ने मुझे अस्तित्व दिया उसी कुम्भा को सत्ता के लालच में बेटे ने तलवार से काट दिया। बेटा कहता है कि कब तक धैर्य धरूं, मेरा यौवन बीत रहा है और आपका अन्त नहीं होता और मन्दिर में ही तलवार उठ जाती है। जिस कुम्भा ने संगीत दिया, नृत्य दिया, वीरता दी, उसी कुम्भा को पुत्र ने अन्त दिया। पुत्र भी नहीं रहा लेकिन दुनिया को इतना कुछ देने वाले का भी ऐसा अन्त भारत के लालच की सच्चाई को दिखाता है। सत्ता का लालच कभी समाप्त नहीं होता, हर मजबूत किला यही कहता है और कुम्भलगढ़ भी यही कह रहा था।
लेकिन फिर कहानी आगे बढ़ती है, इसी किले ने बालक उदयसिंह को शरण दी, यहीं पर प्रताप और उनके पुत्र अमर सिंह का जन्म हुआ, यहीं से हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया, यहीं से दिवेर का युद्ध लड़ा गया। आखिर प्रताप ने विजय पायी और फिर कुम्भलगढ़ छूट गया। उदयसिंह ने उदयपुर बसा लिया और प्रताप ने चावण्ड को राजधानी बना लिया। अमर सिंह भी उदयपुर आ गये। चारों तरफ पहाड़ और एक पहाड़ पर किला, दुश्मन का पहुंचना नामुमकिन। आज भी वहाँ जाकर हमारा मोबाइल खामोश हो गया, नेटवर्क नहीं। लेकिन लोग आ रहे थे, शो के लिये कुछ बैंचें लगी थीं, हमने सोचा कि शायद दर्शक कम ही आते होंगे लेकिन जैसे ही 7.00 बजे, हलचल शुरू हो गयी, पंक्तियों पर कार्पेट बिछने लगे और देखते ही देखते पूरा मैदान भर गया। हम जो पसरकर बैठे थे अब सिकुड़ने लगे थे। चारों तरफ उत्सुकता थी, सभी इतिहास में जाने को उत्सुक थे। चारों तरफ सन्नाटा था और तभी पहाड़ों को चीरती हुई आवाज गूंज उठी कि मैं कुम्भलगढ़ हूँ। कथा आगे बढ़ती गयी और किले पर रोशनी होती गयी। अन्त में पूरा किला जगमगा उठा, आज विद्युत का प्रकाश है कल मशाले जलती होगी, आज मोटर गाड़ी की पीं-पीं है कल घोड़ों की टापे गूंजती होगी। किले और पूरे क्षेत्र को घेरती हुई 34 किलोमीटर की लम्बी दीवार पर जब घोड़े चलते होंगे और दीवार पर बने मोखों में बन्दूक लगाये सैनिक तैनात रहते होंगे तब कैसा मंजर होगा, बस यही कल्पना करते रहे और शौ समाप्त हो गया। 

Wednesday, August 22, 2018

यह भी बलात्कार का ही मामला है


अमेरिका में मैंने देखा कि वहाँ पर हर प्राणी के लिये नियत स्थान है, मनुष्य कहाँ रहेंगे और वनचर कहाँ रहेंगे, स्थान निश्चित है। पालतू जानवर कहाँ रहेंगे यह भी तय है। मनुष्यों में भी युवा कहाँ रहेंगे और वृद्ध कहाँ रहेंगे, स्थान तय है। भारत में सड़क के बीचोंबीच बैठी गाय और सड़क पर चलती भैंस मिल जाएंगी, कुत्ते तो हर कोने में अपना राग बजाते दिख ही जाएंगे। हर घर में बिल्ली सेंध मारने की फिराक में रहेगी और कबूतर आपके घर में घौंसला बनाने के फेर में। गाँव में चले जाइए, बकरी रात को घर के अन्दर बंधी मिलेगी। भारत में हमारी दुनिया एक है। मनुष्यों में भी बच्चे-बूढ़े सब साथ हैं। ना बच्चों के लिये होस्टल को पसन्द किया जाता है और ना ही वृद्धों के लिये ओल्ड एज होम। घर में माँ का शासन चलता है और माँ सबकी पालनहार होती है। हम भोग-विलास के लिये गृहस्थी नहीं बसाते अपितु माता-पिता की सेवा और संतान को संस्कार देने के लिये गृहस्थी बसाते हैं। लेकिन जब से दुनिया एक गाँव में बदल गयी है हम सारी ही व्यक्तिगत-सुखकर परम्पराओं को अंगीकार करते जा रहे हैं। कभी सशक्त हाथ अशक्त हाथ को थामने के लिये होते थे लेकिन आज सशक्त हाथ अशक्त हाथों को धकेलने के लिये काम आने लगे हैं। पूर्व में हम घर का फालतू सामान भी नहीं फेंकते थे, उसके दोबारा उपयोग के बारे में सोचते थे लेकिन आज अपने ही माता-पिता को फेंकने के बारे में सोच लेते हैं।
कल एक तस्वीर वायरल हो गयी, दादी और पोती की। पोती वृद्धाश्रम देखने जाती है और दादी वहीं मिल जाती है। अचानक मिलने की खुशी की जगह समाज का दर्द और शर्म निकल आयी। पोती समझ नहीं पा रही थी कि मेरी दादी यहाँ क्यों है! मुझे तो लगता है कि उस परिवार में कुछ भारतीय संस्कार शेष रहे होंगे जो पोती को बताया गया कि दादी रिश्तेदारी में गयी है। नहीं तो ऐसे परिवारों में नफरत इतनी भरी होती है कि पोती दादी को पहचानती ही नहीं। स्कूल की सहेलियां उसके साथ थी, उसके परिवार का सम्मान जुड़ा था, लेकिन पोती ने दादी को पहचाना और गले मिलकर रोने लगी। अभी तो हम अनेक परिवारों में देख रहे हैं कि बच्चों को दादा-दादी से दूर रखा जाता है, उनके अन्दर प्यार पनपने की जगह नफरत पनपती है और ऐसे बच्चे कभी दादा-दादी को पहचानते तक नहीं।
अब प्रश्न यह है कि क्या बेटा माँ को वापस घर ले जाएगा? क्या माँ वापस जाएगी? क्या बेटे को अक्ल आएगी? क्या माँ को वापस जाना चाहिये? जब हम गृहस्थी बसाते हैं तब पूर्ण समर्पण का भाव रखना होता है जैसे फसल लगाने से पहले दाने को जमीन में समर्पित होना ही पड़ता है। खुद को समर्पित करने पर ही नयी पौध आती है और तभी घर बसता है। हिन्दू परिवार में लड़की को लड़के के घर जाना होता है और लड़के के परिवार को अपना परिवार मानने की सौगंध खायी जाती है। लेकिन इसके विपरीत आज लड़की अपने ससुराल याने लड़के के परिवार को अपना परिवार नहीं मानती, वह कहती है कि यदि तू मेरे परिवार को अपना परिवार माने तो मैं भी मान लूंगी। आजकल स्वार्थ की परम्परा ने जन्म ले लिया है, हम सौगन्ध कुछ लेते हैं और आचरण कुछ करते हैं। जिस प्रकार से लड़कियों का व्यवहार बदल रहा है, उसमें गलत कुछ नहीं है, बस इतना ही है कि यदि आपको लड़के के परिवारजन के साथ नहीं रहना है तो आप विवाह के समय सौगन्ध से मना कर दो। लड़के के साथ अपने घर से विदा होने के बाद ससुराल मत जाओ। लेकिन यह दोहरा रवैया चरित्र हीनता है। आप सौगन्ध किसी बात की खा रही हैं और काम कुछ और कर रही हैं! इसलिये ही आज घर-घर में माता-पिता पर संकट आया हुआ है। वृद्धावस्था सभी की आनी है और इन अशक्त हाथों को सशक्त हाथ की जरूरत पड़ने ही वाली है। क्या हम सभी वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर कर दिये जाएंगे? घर से यदि माता-पिता को रद्दी के सामान की तरह उठाकर कबाड़ी को दे दिया जाएगा तो कैसे परिवार चलता रहेगा! पुत्र आँखे बन्द कर केवल अपने भोगविलास की ही सोचता रहे और उसकी पत्नी घर के माता-पिता को उठाकर बाहर फेंक दे तो क्या यह मनुष्यता की श्रेणी में आएगा? यह भी मानवाधिकार का मामला है यह यूँ कहूँ कि यह भी बलात्कार का ही मामला है, तो ज्यादा ठीक होगा।
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Monday, August 20, 2018

डिजिटल होते स्वर्ग

कोई आपको फोलो करने को कहे और एक के बाद एक आदेश दे कि अब यह करे और अब यह करें! आप क्या करेंगे? मेरी दो राय है, यदि महिला है तो फोलो आसानी से करेगी, फिर चाहे वह किसी भी आयु की क्यों ना हो लेकिन यदि पुरुष है और उम्रदराज हो गया है तो किसी का आदेश कभी नहीं मानेगा। मेरे पति के हाथ में जैसे ही मोबाइल आता है, वह चाहते हैं कि पहले ही झटके में सारे काम हो जाएं। लेकिन मोबाइल है कि वह उन्हें अपनी अंगुली पर नचाना चाहता है। एक क्लिक करी, तो लिखा आएगा कि अब यह करो, फिर वह भी कर दिया तो कहेगा कि अब यह करो। बस इतने में तो मूड उखड़ जाता है। सारी जिन्दगी किसी की नहीं मानी और अब इस उम्र में यह पिद्दी सा मोबाइल लगा है आदेश पर आदेश देने। वह पटक देते हैं इसे और फिर मैं सदा से आदेश मानने की मारी इस पिद्दी से मोबाइल का आदेश मानते हुए उस काम को अंजाम देती हूँ। मेरे सामने जब भी कोई पुरुष होता है तो सबसे पहले यही कहता है कि मुझे इस मोबाइल में केवल लाल और हरा बटन समझ आता है, बाकि के चक्कर में मैं पड़ता ही नहीं। मैंने पुरुष लिख दिया है तो आपकी भौहें तन गयी होंगी, अरे गुस्सा मत कीजिये आप लोग तो लड़के हैं अभी। पुरुष तो मैं 60 साल के बाद कहती हूँ। इसका भी कारण है, जब नयी पीढ़ी को बात करते देखती हूँ तो वे खुद के लिये boys या guys का ही प्रयोग करते हैं और पत्नियों के लिये लड़कियों का। चाहे वे लड़कियाँ चालीस को पार कर गयी हों और खुद पचास को। इसलिये 60 तक आप लड़के हैं और उसके बाद पुरुष। तो मैं बात पुरुषों की कर रही थी कि वे मोबाइल से कैसा बेर रखते हैं! 
अब जमाना है डिजिटल लेन-देन का, सारे ही ऑफिस कम्प्यूटर से लेस हैं तो यमराज के दरबार में चित्रगुप्त के बही-खाते भी बदल दिये गये हैं वहाँ पर भी कम्प्यूटर आ गया है। जैसे ही कोई जीव यमलोक पहुंचता है, चित्रगुप्त उससे उसकी पहचान पूछते हैं। अभी तक तो सब कुछ ठीक ही चल रहा था लेकिन जैसे ही पहचान पत्र कम्प्यूटर में आ गया चित्रगुप्त भी मांगने लगे हैं पहचान-पत्र। अब 90 के बाद के पुरुष जैसे ही चित्रगुप्त के सामने प्रस्तुत हुए, वे उनका हिसाब-किताब निकालने के लिये कम्प्यूटर खंगालने लगे। पूछा कि मोबाइल काम में लेते थे, वे शान से बोले कि हाँ लेते थे। तो बताओ अपना नम्बर। नम्बर तो याद था, बता दिया लेकिन जैसे ही नम्बर से मोबाइल खोला तो वहाँ लाल और हरे बटन के उपयोग के अतिरिक्त कुछ ना आए! चित्रगुप्त भागे-भागे यमराज के पास गये, बोले कि क्या करें, ऐसे केस बहुतेरे आ रहे हैं! यमराज ने कहा कि डालो सभी को नरक में। जीवात्मा अड़ गयी कि यह कैसा न्याय है? मैंने इतने पुण्य कर्म किये और मुझे नरक! यमराज ने समझाया कि बात पुण्य और पाप की नहीं है, बात है डिजिटल स्वर्ग की। यहाँ स्वर्ग में सभी को मोबाइल और कम्प्यूटर दिये गये हैं, वे सारे ही काम इनसे करते हैं, अब अप्सराएं भी ऑनलाइन ही उपलब्ध हैं तो आप अपना जीवन कैसे काटेंगे? स्वर्ग का तो मतलब रह ही नहीं जाएंगा ना! नरक में किसी के पास मोबाइल और कम्प्यूटर नहीं है वहाँ पुराना हिसाब ही चलता है तो आप वही फिट हो सकेंगे ना!
बड़ी दुविधा में फंस गये हैं लोग, फिर यमराज ने एक मार्ग निकाला, कहा कि हम सात दिन का क्रेश कोर्स चलाते हैं, यदि आपने सीख लिया तो आपको स्वर्ग में प्रवेश मिल जाएगा नहीं तो हम कुछ नहीं कर सकेंगे और यह कहकर यमराज ऑफलाइन हो गये। जीवात्मा बड़ी दुविधा में पड़ गये कि सात दिन में कैसे सीख पाएंगे! मन ही मन सोचने लगे कि कितना कहा था पत्नी और बच्चों ने कि सीख लो, थोड़ा तो सीख लो लेकिन तब तो हेकड़ी दिखायी कि नहीं जी हम तो नहीं सीखेंगे लेकिन अब! अब दादाजी मोबाइल की एबीसीडी सीख रहे हैं और चिन्ता इस बात की है कि यदि सात दिन में नहीं सीखा तो नरक के द्वार खुल जाएंगे फिर वही गाँव का 200 साल पुराना जीवन जीना पड़ेगा। चिन्ता यह भी खाए जा रही है कि पत्नी भी साथ नहीं रहने वाली क्योंकि उसने तो सीख लिया था मोबाइल। वह तो व्हाटसएप भी चला लेती थी और फेसबुक भी। यहाँ उसका काम तो चल ही जाएगा। सोचने का समय अब शेष नहीं है, वे पिल पड़े हैं सबकुछ सीखने को। जैसा मोबाइल आदेश देता है उसे फोलो करने में अब गुस्सा नहीं आता, सवाल स्वर्ग का जो ठहरा! जो कल तक समझ के परे था अब जल्दी-जल्दी समझ आने लगा है। पत्नी की आवाज कानों में बजने लगी है कि मैं कहती थी कि सीख लो, मेरी बात नहीं मानते थे, अब! भाई क्या करें स्वर्ग भी डिजिटल जो हो गये हैं! 

Monday, August 6, 2018

मित्र मिला हो तो बताना


दुनिया में सबसे ज्यादा अजमाया जाने वाला नुस्खा है – मित्रता। एलोपेथी, आयुर्वेद, होम्योपेथी, झाड़-फूंक आदि-आदि के इतर एक नुस्खा जरूर आजमाया जाता है वह है विश्वास का नुस्खा। हर आदमी कहता है कि सारे ही इलाज कराए लेकिन मुझे तो इस नुस्खे  पर विश्वास है। तुम भी आजमाकर देख लो। ना मंहगी दवा का चक्कर, ना कडुवी दवा का चक्कर, ना लम्बी दवा का चक्कर, बस छोटा सा नुस्खा और गम्भीर से गम्भीर बीमारी भी चुटकी बजाते ही ठीक। ऐसी ही होती है मित्रता! सारे रिश्तों पर भारी! माता-पिता बेकार, भाई-बहन बेकार, सारे रिश्ते बेकार बस मित्र है विश्वास पात्र! वातावरण में ऑक्सीजन की तरह घुली हुई है मित्रता की दलील। बचपन की याद आ गयी, एक सहेली पास आती है और कहती है कि – तू मेरी सबसे अच्छी सहेली है! मैं उसकी तरफ देखती हूँ और सोचती हूँ कि मुझ पर यह कृपा क्यों! जल्दी ही उसे और कोई मिल गया और मैं किस कोने में गयी, ना उसे पता और ना मुझे पता! फिर कुछ बड़े हुए फिर किसी ने कह दिया कि तुम मेरी सबसे अच्छी सहेली हो। फिर वही अन्त! और कुछ बड़े हुए किसी ने कहा – आप मेरी सबसे अच्छी सहेली हैं। सम्बोधन बदलते रहे लेकिन कहानी एक सी रही। कोई मित्र स्थायी नहीं हुआ। जब मुझसे काम पड़ा मित्रता की कसमें खा ली गयीं और जब काम खत्म तो मित्रता और मित्र दोनों की रफूचक्कर। जब मेरी समझ पुख्ता हो गयी तब मैं कहने लगी कि भाई रहने दो, तुमसे यह नहीं हो पाएगा। मेरे पास देने को कुछ नहीं है, बस मैं विश्वास दे सकती हूँ, तुम्हारी खुशी में खुश हो सकती हूँ और तुम्हारे दुख में दुखी, इसके अतिरिक्त मेरे पास कुछ नहीं है देने को। लेकिन लोग कहते कि नहीं हमें आपका साथ अच्छा लगता है इसलिये आपसे मित्रता चाहते हैं। मैं कहती रही कि यह चौंचले कुछ दिन के हैं फिर वही ढाक के तीन पात। यही होता, उनकी आशाएं धीरे-धीरे जागृत होती, मैं किसी के काम आती और काम जैसे ही होता मित्र और मित्रता दोनों नदारद! लोगों को मिलते होंगे सच्चे मित्र, मुझे तो कोई खास अनुभव नहीं आया।
इसके परे रिश्तों की कहानी ज्यादा मजबूती से खड़ी दिखायी दी। रिश्तों के पन्ने फड़फड़ाते जरूर हैं लेकिन ये अपनी जिल्द फाड़कर दूर नहीं हो पाते, कभी जिल्द फट भी जाती है लेकिन अधिकांश किताब हाथ में रह ही जाती है। जीवन में कुछ भी अघटित होता है, ये रिश्ते ही हैं जो रिश्तों की मजबूरी से चले आते हैं, उन्हें आना ही पड़ता है। मित्रता तो ठेंगा दिखा दे तो आप कुछ नहीं कर सकते लेकिन रिश्ते ठेंगा दिखा दें तो अनेक हाथ आ जाते हैं जो उन्हें आड़े हाथ ले लेते  हैं। हमने मित्रता की आँच को इतनी हवा दी कि वह धू-धू कर जल उठी, उसने आसपास के सारे ही रिश्तों को लीलना शुरू किया, हमने भी ला-लाकर अपने रिश्ते इस आग में फेंकना शुरू किये और बस देखते ही देखते केवल मित्रता की आग हमारे सम्बन्धों की रोटी सेंकने को शेष रह गयी, शेष आग बुझती चले गयी। कुछ दिनों बाद देखा तो हमारे चारों तरफ आग ही आग थी लेकिन मित्र कहीं नहीं थे। रिश्तों को तो स्वाह कर ही दिया था, मित्र तो आहुति चाहते थे, आहुति पड़ना बन्द तो मित्र भी पानी डालकर चले गये। लेकिन मित्रता में एक फायदा जरूर है, जब चाहो तब तक रिश्ता है, एक ने भी नहीं चाहा तो तू तेरे रास्ते और मैं मेरे रास्ते। रिश्तों में यह नहीं हो सकता, कितने भी रास्ते अलग बना लें, कहीं ना कहीं एक दूसरे से टकरा ही जाएंगे! रिश्तों की तो बात ही अलग है लेकिन जिन मित्रता को हम रिश्तों का नाम दे देते हैं वे भी हमारा साथ निभाते हैं और जिनको केवल मित्र कहकर छोड़ देते हैं वे कबूतर के घौंसले ही सिद्ध होते हैं।
कल मित्र-दिवस आकर निकल गया, बाजार में तेजी आ गयी। हर कोई अपने मित्र को उपहार देना चाहता था, इसलिये बाजार में थेंक्स गिविंग की तरह रौनक थी। सोशल मीडिया के कारण कंजूस लोगों का भी काम बन गया था, फूलों का गुलदस्ता सभी तरफ घूम रहा था। कहीं भी विश्वास दिखायी नहीं दिया, कहीं प्रेम दिखायी नहीं दिया, कहीं अनकही बातें सुनायी नहीं दीं! कहीं राजनैतिक मखौल दिखायी दिया, कहीं धार्मिक उदाहरण खोज लिये गये और कहीं सोशल मिडिया की दोस्ती ही दिखायी दी। मेरा मन बहुत करता है कि कोई ऐसा हो जिसके साथ घण्टों मन की बात की जा सके, मिलते भी रहे हैं ऐसे मित्र लेकिन वे समय के साथ बिसरा दिये गये। कहीं समय ने उन्हें पीछे धकेल दिया तो कहीं आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता ने तो कहीं बदलते विचारों ने। मित्रता वही शेष रही जो दूर बैठी थी, नजदीक आने पर तो तू मुझे क्या दे सकता है और क्या नहीं दे पाया, इसका हिसाब ही मन ही मन लगाया जाता है। इसलिये मैं मित्रता की कमसें नहीं खाती, ना ही मित्रता को रिश्तों से ऊपर रखती हूँ क्योंकि मैं जानती हूँ मित्रता के मायने। इसकी उम्र बहुत छोटी होती है। लम्बी उम्र यदि मिल जाती है तो वह दूरियाँ लिये होती हैं। इसलिये बार-बार कहती हूँ कि मित्रता को इतना महान मत बनाओ कि रिश्ते ही दूर चले जाएं। मित्र होते हैं लेकिन उनको बाजार के  हवाले मत करो, जिन रिश्तों को भी हमने बाजार के हवाले किया है उनमें ठहराव अधिक दिन नहीं रह पाया है। मित्रता दिवस भी मनाओ लेकिन अपने अन्दर के सच्चे मित्र को खोजकर। आज ऐसी पोस्ट लिखकर सभी मित्रों को नाराज कर दिया, लेकिन मुझे बताएं जरूर कि किसी को ऐसा मित्र मिला क्या जो हर कटु परिस्थिति में उसके साथ खड़ा था। हम सभी को ऐसे लोगों का अभिनन्दन तो करना ही चाहिये।
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Saturday, August 4, 2018

प्रेम का यही पुश्तैनी ठिकाना है #fatehsagar

कभी आप उदयपुर में राजीव गांधी पार्क के सामने फतेहसागर को निहारने के लिये खड़े हुए हैं? मुझे तो वह दृश्य दीवाना बनाता है। चारों तरफ अरावली पर्वतमाला की श्रंखला और मध्य में लहलहाता फतेहसागर! फतेहसागर के किनारे जहाँ पानी कम है वहाँ कुछ पेड़ भी अपनी जड़े जमाएं मजबूती से खड़े हैं और इन पेड़ों पर पक्षी बसेरा बनाकर रहते हैं। मैं इस दृश्य को आँखों से पीने लगती हूँ, निगाहें चारों तरफ घूम जाती हैं, कभी पहाड़ की कोई चोटी जिस पर बना मन्दिर अपनी ओर ध्यान खींच लेता है तो कभी किलोल करते पक्षी मन लुभा लेते हैं। लेकिन एक दिन निगाहें एक शिल्पकार द्वारा बनाए शिल्प पर ठहर गयी। वैसे भी फतेहसागर के किनारे शिल्पकारों का सृजन खूबसूरती बढ़ाने में योगदान कर रहा है लेकिन एक शिल्प खड़ा था पानी में, उस पर एक कृत्रिम पक्षी बैठा था और नीचे लिखा था – यह झील हमारा भी पुश्तैनी घर है, इसे नष्ट होने से बचाएं। जहाँ मनुष्य हर उस चीज पर कब्जा करता जा रहा है, जहाँ तक उसकी पहुंच हो गयी है। वहीं पक्षियों के पुश्तैनी घर की बात करना प्रकृति को सम्मान देने का अनूठा प्रकार था। जब यह झील बनी होगी उसके पूर्व यहाँ जंगल ही होंगे, पहाड़ों से आकर पानी यहाँ एकत्र होता होगा और तब झील के लिये यह उपयुक्त स्थान लगा होगा और राजा द्वारा बना दी गयी होगी फतेहसागर झील। झील पशुओं के पानी पीने के लिये बनायी गयी थी, पशु और पक्षी यहाँ निर्भय होकर विचरण करते होंगे लेकिन आबादी बढ़ी, मनुष्य का हर स्थान पर दखल बढ़ा और पशुओं का तो आना ही बन्द हो गया लेकिन भला पक्षियों को कौन सी सरहद रोक सकती है? वे तो साइबेरिया से भी आ जाते हैं! इस झील पर भी ढेरों पक्षियों का डेरा रहता है लेकिन कैसी विडम्बना है जिस मनुष्य को हम सृष्टि के रक्षक के रूप में पहचानते हैं आज उसी मनुष्य से पक्षियों की रक्षा करने का आह्वान करते हैं! 
अभी कुछ दिनों से पक्षियों की संख्या में कमी आयी है, झील सूनी-सूनी लग रही है, जैसे बच्चे विहीन घर हो। लेकिन जैसे ही मौसम का आमंत्रण मिलेगा, पक्षी यहाँ आ जाएंगे। वे लौट आएंगे अपने पुश्तैनी घर में। यहाँ देश-विदेश से हजारों की संख्या में पक्षी आते हैं, कुछ यहीं ठहर जाते हैं और कुछ वापस लौट जाते हैं। जो हमारे लिये कौतुहल है वह उनका घर है। इस कौतुहल को देखने प्रशासन ने जगह बना दी है, एक दीवार भी खड़ी कर दी है और चम्पा के पाँच पेड़ भी लगा दिये हैं। चम्पा खूब फूल रहा है, दीवार पर पूरी आड़ कर दी है चम्पा ने। इसके नीचे प्रेमी युगल आराम से बैठ सकते हैं, एकबारगी तो दिखायी भी नहीं देते लेकिन पास आने पर दिख ही जाते हैं। आजकल यहाँ लड़के-लड़की बैठे हुए मिल ही जाते हैं और उनके हाथ में या तो खाने का कोई सामान होता है या फिर वही से खऱीदे हुए भुट्टे तो होते ही हैं। वे डोली पर बैठते हैं, खाते हैं और कचरे को नीचे फेंक देते हैं। नीचे झील में प्लास्टिक का कचरा एकत्र होने लगता है और जब बड़ा सा बगुला अपनी चोंच को पानी के अन्दर डालकर मछली की तलाश करता है तब मछली के स्थान पर कचरा चोंच में आता है। हम खुबसूरती देखने आते हैं और बदसूरती दे जाते हैं। जो पक्षी निर्मल जल की तलाश में यहाँ तक आए थे, वे निराश होने लगते हैं। लड़के-लड़की प्रकृति के मध्य प्रेम करते हैं लेकिन प्रकृति को ही नष्ट कर देते हैं, यह कैसा आचरण है! होना तो यह चाहिये कि वे यहाँ आते और इसे और भी सुन्दर बना जाते, यहाँ वे भी लिख जाते कि प्रेम का यहाँ पुश्तैनी घर है, झीलों और प्रेम के रिश्तों को बचाकर रखे। कभी तो ऐसा लगता है कि हम मन्दिर जाएं और मन्दिर में ही गन्दगी फैलाकर आ जाएं! क्या ये झीलें किसी भी मन्दिर से कम हैं? जब इनका पीनी रीतने लगता है तब हम दुखी हो जाते हैं और जब यह लबालब होकर छलक जाती हैं तो हम खुशी से झूमने लगते हैं। क्या केवल प्रशासन के भरोसे ही झीलें स्वच्छ रह सकेंगी? क्या ये पक्षी हमें नहीं कह रहे हैं कि हमारे पुश्तैनी घर को गन्दा मत करो! नौजवान पीढ़ी जो प्रेम में है वह प्रेम के मायने ही नहीं समझें तो कैसा प्रेम है? प्रेम तो स्वच्छता चाहता है, पावनता चाहता है, सुरभित वातावरण चाहता है तभी तो हम किसी झील के किनारे या किसी कुंज में अपने प्रेम के साथ आकर बैठते हैं! लेकिन शायद ये प्रेमी नहीं हैं, ये प्रकृति को लूटने आए हैं, अपनी वासना के तले रौंदने आए हैं। ये मदमस्त होकर झीलों को उजाड़ने आए हैं। शायद कोई आ जाए जो लिख जाए कि ये प्रकृति प्रेम के कारण ही है, प्रेम का यही पुश्तैनी ठिकाना है, हम इसे सुन्दर बनाएंगे।
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Thursday, August 2, 2018

घरों पर लगते निशान!


बहुत दिनों पहले एक कहानी पढ़ी थी – एक गिलहरी की कहानी। सरकार का नुमाइंदा जंगल में जाता है और परिपक्व हो चले पेड़ों पर निशान बनाकर चले आता है। निशान का अर्थ था कि ये पेड़ कटेंगे। एक गिलहरी निशान लगाते आदमी को देखती है और कटते पेड़ के लिये दुखी होती है। उसे लगता है कि मैं कोशिश करूं तो शायद कुछ पेड़ कटने से बच जाएं! वह पेड़ के निशान मिटाने पर जुट जाती है और अपनी पूंछ से निशान मिटाने लगती है। गिलहरी एक प्रतीक बन गयी हैं इस कहानी में कि यदि छोटा व्यक्ति भी चाहे तो विनाश को रोकने में भागीदार बन सकता है। यह कहानी भला मुझे क्यों याद आयी! कल मैं अपने बराण्डे में बैठी थी, मुझे मेरे पति बताने लगे कि पड़ोस के बुजुर्ग दम्पत्ती तीन माह के लिये बेटी के पास गये हैं और अपनी नौकरानी की छुट्टी कर गये हैं। मैंने कहा कि हाँ, वे अब बुजुर्ग हो चले हैं और शायद ही वापस आएं। मुझे अचानक ख्याल आया कि अब इनके मकान का क्या होगा! इसका तो एक ही हल है कि वह बिकेगा। मेरा ध्यान अब ऐसे मकानों की तरफ मुड़ गया, मेरा मकान भी उसमें शामिल था और जैसे-जैसे में नजर दौड़ा रही थी मेरी गिनती बढ़ती ही जा रही थी। मैं निशान लगाने वाला सरकारी नुमाइंदा बन गयी थी और अब मुझे उस गिलहरी की कहानी याद आयी। न जाने कितने दलालों की नजर हम पर होगी और वे मन ही मन हमारे मकानों पर निशान लगा चुके होंगे। हो सकता है कि कुछ अवांछित तत्वों की निगाह भी हमारे मकानों पर हों और वे हम पर ही निशान लगा चुके हों!  अब मेरा ध्यान गिलहरी पर केन्द्रित हो चला था, मैं उस गिलहरी को ढूंढ रही थी। शायद कोई गिलहरी कुछ मकानों पर लगे निशान मिटाने में जुटी हो! लेकिन मुझे छोटे शहरों के वीरान होते घरों में कोई गिलहरी की पदचाप सुनायी नहीं दी।
बच्चे बड़े शहरों में चले गये, क्योंकि उनकी रोजी-रोटी वहीं थी। कुछ विदेश चले गये, क्योंकि उनके सपने वहीं थे। कल मेरे एक मित्र ने प्रश्न किया कि आखिर युवा विदेश क्यों जाते हैं? मैंने बहुत सोचा, पुराने काल को भी टटोला। मनुष्य जिज्ञासु प्रवृत्ति का होता है, वह नापना चाहता है दुनिया को। नयी जगह बसना चाहता है, नये काम-धंधे चुनना चाहता है। पहले व्यापार के लिये भारतीयों ने सारी दुनिया नाप ली, अब बेहतर जीवन के लिये दुनिया की तलाश कर रहा है। गाँव से आदमी बाहर निकल रहा है, शहर जा रहा है, शहर से महानगर जा रहा है और महानगर से विदेश जा रहा है। जितनी दूर व्यक्ति चले जा रहा है उतना ही उसका सम्मान बढ़ रहा है, वह भी खुश है और लोग भी उसे सम्मान दे रहे हैं। आज गाँव रीतने लगे हैं, खेती के अलावा वहाँ कुछ नहीं है। वहाँ का युवा नजदीकी शहर के आकर्षण से  बंध रहा है। शहर के युवा के पास महानगर के सपने हैं, वह महानगर की ओर दौड़ लगा रहा है। पढ़े-लिखे युवाओं की दौड़ विदेश तक होने लगी है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ महानगरों में जा रही हैं या नगरों को महानगर बना रही हैं इसकारण छोटे शहर पढ़े-लिखे युवाओं से विहीन होते जा रहे हैं। एक दिन मैंने अमेरिका में बसे मेरे पुत्र से पूछा कि आज के पचास साल पहले तुम्हारे इस शहर का नक्शा क्या था? क्योंकि आईटी कम्पनियां तो अभी आयी हैं! वह बोला कि यहाँ कुछ नहीं था लेकिन आज सबकुछ है। बड़ी कम्पनियों ने शहरों के मिजाज को ही बदल दिया है, सब इनके आकर्षण से खिंचे जा रहे हैं। युवाओं का आकर्षण ये बड़ी कम्पनियाँ बनती जा रही हैं। माता-पिता अपनी चौखट से बंधे हैं और उनकी संतान अपनी नौकरी से। नतीजा घर को भुगतना पड़ रहा है, अब वे घर ना होकर मकान में परिवर्तित होते जा रहे हैं। उन मकानों पर निशान लगाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, कोई गिलहरी भी दिखायी नहीं देती जो निशान मिटाने की जिद करे। माता-पिता भी कब तक चौखट पकड़े बैठे रहेंगे आखिर एक दिन तो उन्हें कोई निर्णय लेना ही पड़ेगा नहीं तो भगवान ले लेगा। उन्हें अपनी कोठी खाली करनी ही होगी और इसे दलालों के सुपुर्द करना ही होगा। पहले घरों की उम्र बहुत लम्बी होती थी लेकिन आज छोटी होती जा रही  है, कब किसका आशियाना बिखर जाए कोई नहीं जानता! पुरानी रीत अब बेमानी हो चली है, कहते थे कि जिस घर में डोली आयी है उसी घर से डोली भी उठेगी। अब घर ही घर नहीं रहा, जहाँ की दीवारें हमें पहचानती थी, अब तो नित नये मकानों का बसेरा है। छोटे शहरों के घर निशानों से भर उठे हैं, बदलाव तो होगा ही। अब एक जगह स्थिर  होने का जमाना लद गया शायद हम सभी गाड़िया लुहार बन चुके हैं।
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Wednesday, August 1, 2018

सौंठ-अजवाइन खाने का प्रबन्ध खुद करो


कभी कुछ प्रश्न ऐसे उठ खड़े होते हैं जिनसे मन छलनी-छलनी हो जाता है। कुछ दृश्य सजीव हो उठते हैं लेकिन समाधान कहीं नहीं मिलता। कल ऐसा ही एक प्रश्न मेरी सखी Rashmi Vyas ने कर दिया। प्रश्न ही प्रश्न चारों तरफ से निकल आए लेकिन समाधान तो कहीं नहीं था। मेरे पास भी नहीं, क्योंकि मैं खुद उस पीड़ा से गुजर रही हूँ। कहाँ से लाऊँ, ममता को बिसराने का समाधान! यह प्यार जैसा तो नहीं जिसकी महिमा शाश्वत होने की गायी जाती है लेकिन है क्षणभंगुर। यह तो ममता है, सृष्टि का शाश्वत सत्य। ममता भी कैसी! भारतीय माँ की ममता। कोई मुझसे पूछे कि भारतीय माँ और विदेशी माँ में क्या अन्तर होता है? माँ तो माँ होती है! मेरा उत्तर होगा नहीं, भारतीय माँ स्वयं से प्रेम नहीं करती जबकि विदेशी माँ स्वयं से प्रेम करती है और जो स्वयं से प्रेम करता है उसकी ममता स्व: प्रेम के नीचे दब जाती है। हम केवल अपनी संतान से प्रेम करते हैं, इस  प्रेम के आगे हम खुद कहीं नहीं टिकते। संतान कितना ही सता ले, दुख दे दे लेकिन माँ की ममता वैसी ही बनी रहती है। हमारी माँ की पीढ़ी में और कहीं-कहीं हमारी पीढ़ी में भी 50 वर्ष की आयु होने पर एक माँ को विश्राम मिल जाता था, उसके सामने भोजन की थाली ससम्मान परोसी जाती थी। लेकिन आज 60 क्या 70 साल होने पर भी माँ को विश्राम नहीं है, वह खुद के लिये भी काम कर रही है और संतान के लिये भी काम कर रही है। दोनो घुटने काम नहीं करते, कमर टूटी पड़ी है लेकिन संतान के लिये विदेश जाना जरूरी है! विदेश में नौकर नहीं तो जो काम कभी देश में नहीं किये वे भी इस आयु में करने पड़ते हैं। माँ ने ममता लुटा दी लेकिन संतान सम्मान भी नहीं दे पाए! यदि सम्मान याने खुद के बराबर मान होता तो स्वतंत्र ही क्यों होती संतान!
विदेशी माँ ने ममता को कैसे पैरों के तले रौंद दिया? यह उसने अकेले नहीं किया अपितु उसके समाज ने ऐसा कराया। विदेश में समाज का कानून है कि खुद से प्रेम करो, तुम्हें अकेले ही जीवन में खुश रहना है। विवाह करना है तो करो नहीं तो अकेले रहो, कोई टोका-टोकी नहीं। 16 साल के बाद माता-पिता के साथ रहना जरूरी नहीं, अपितु स्वतंत्र रहने को बाध्य करता है समाज। संतान से कहा जाता है कि तुम कब बड़े होंगे, तुम कब तक माँ का पल्लू पकड़कर रहोगे? छोड़ो घर और अकेले रहना सीखो। माँ से कहा जाता है कि क्या तुम्हारी कोई जिन्दगी नहीं जो अभी तक संतान को पाल रही हो, उसे मुक्त करो। संतान पैदा होने पर, उसे प्रथम दिन से ही अलग सोना सिखाया जाता है, ममता पनपनी नहीं चाहिये। विवाहित संतान माँ के साथ नहीं रहती। इतने सारे जतन करने पर ममता बेचारी कैसे मन में डेरा डाले रहेगी! जब एक लड़की को पैदा होने के साथ ही तैयार किया जाता है कि इसे पराये घर जाना है तो लड़की और माँ दोनों तैयार हो जाती है ऐसे ही विदेश में माँ को तैयार किया जाता है। लेकिन भारत में उल्टा है, ममता जरूरी है। विवाह होने पर भी संतान माँ के साथ ही रहेगी यदि नहीं रहती है तो ताने सुनने पड़ते हैं।
अब यह समस्या भारत में आयी कैसे? जब दो विपरीत संस्कृति का साथ हुआ तो यह समस्या पैदा हुई। संतान विदेश में रहना पसन्द करे तो वहाँ की संस्कृति को मानना ही होगा। वे खुद से प्रेम करने लगे और माँ का प्रेम पीछे धकेल दिया गया। विदेश में माँ गौण है और पत्नी प्रमुख है तो पत्नी के प्रति पूर्ण समर्पण कानूनन जरूरी हो गया। आज अमेरिका में भारतीय जीवन पद्धति के प्रति जिज्ञासा उमड़ रही है और भारतीयों के अतिरिक्त सभी मानने लगे हैं कि प्रसव के समय अजवायन-सौंठ आदि अवश्य खाने चाहियें। अब पुत्रवधु के प्रसव होने वाला है तो उसे सौंठ-अजवायन कौन खिलाएगा? एक माँ ही खिलाएंगी ना! अब उसकी उम्र क्या है, उसके शरीर का क्या हाल है, यह देखा नहीं जाता क्योंकि पत्नी को खुश रखना उनकी कानूनन मजबूरी है। उन्हें यह भी पता है कि हमारी माँ ममता की मारी है इसलिये भावानात्मक शोषण करते हुए उनका उपयोग ले लिया जाएगा। ममता की मारी भारतीय माँ जब विदेश की धरती पर खड़ी होती है तब उसके हाथ से तोते उड़ जाते हैं। भारत में तो एक  प्रसव के समय तीन महिलाएं रहती हैं और नौकर-चाकर तो जितने मन में आए रख लो। वहाँ बेचारी अकेली! तब ममता को धता बताकर पीड़ा मुखर होने लगती है और प्रश्न बनकर फूट पड़ती है। लेकिन समाधान तो उसके पास नहीं है! समाधान बस यही है कि हमें भी विदेशी जीवन-शैली अपनानी होगी, ममता को पहले दिन से ही दूर रखना होगा। संतान को बता देना होगा कि तुम्हारे जीवन में हमारा हस्तक्षेप नहीं होगा तो हमारे जीवन में भी तुम्हारा हस्तक्षेप नहीं होगा। तुम्हें प्रसव के समय सौंठ-अजवायन खानी है तो उसका स्वयं से प्रबन्ध करो, यह एक माँ का कर्तव्य नहीं। हमारी पीढ़ी को तो निजात नहीं मिल सकती है लेकिन आने वाली पीढ़ी दर पीढ़ी अवश्य ही इस समस्या से निजात पा लेगी।