Monday, November 28, 2016

"मैं कौन हूँ"

बहुत पहले एक मलयालमी कहानी पढ़ी थी, यह मेरे जेहन में हमेशा बनी रहती है। आप भी सुनिए –
एक चींटा था, उसे यह जानने की धुन सवार  हो गयी कि "मैं कौन हूँ"। उसे सभी ने राय दी कि तुम गुरुजी के पास जाओ वे तुम्हारी समस्या का निदान कर देंगे। वह गुरुजी के पास गया, उनसे वही प्रश्न किया कि "मैं कौन हूँ"। गुरुजी ने कहा कि यह जानने के लिये तुम्हें शिक्षा लेनी होगी। वह चींटा गुरुजी की पाठशाला में भर्ती हो गया, अब वह वहाँ अक्षर ज्ञान सीखने लगा लेकिन कुछ दिन ही बीते थे कि उसने फिर वही प्रश्न किया - "मैं कौन हूँ"। गुरुजी ने कहा कि इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास नहीं है तुम दूसरे गुरुजी के पास जाओ, वे रामायण, महाभारत आदि के बारे में ज्ञान देंगे। अब वह वहाँ पहुँच गया और पाठशाला में भर्ती हो गया। कुछ दिन अध्ययन किया लेकिन फिर वही प्रश्न उसे मथने लगा और गुरुजी से पूछ लिया कि राम और कृष्ण के बारे में तो मैं जान गया हूँ  लेकिन "मैं कौन हूँ", इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा है। इस बार गुरुजी ने वेदों के ज्ञाता गुरुजी के पास भेज दिया। वहाँ वह वेदों का ज्ञान लेने लगा लेकिन फिर वही प्रश्न "मैं कौन हूँ", सामने आकर खड़ा हो गया। गुरुजी ने हाथ जोड़ लिये और वह चींटा भी थक-हार कर अपने घर लौट आया।
घर में नजदीक आते  ही देखा कि हजारों-लाखों चींटे खड़े हैं और चिल्ला रहे हैं। उसे नजदीक आता देख वे खुश होने लगे, उसे सभी ने घेर लिया। वे सभी बोले कि हमारे घर में एक अजगर ने कब्जा कर लिया है, अब तुम आ गये हो, तुम पढ़े-लिखे हो तो तुम अजगर से हमें मुक्ति दिलवा दो। चींटा अपनी अकड़ में घर में गया और विशाल अजगर को देखकर बोला कि जानते नहीं मैं कौन हूँ! अजगर ने उसे ऊपर से नीचे की ओर देखा और कहा कि तुम एक चींटे हो। मैं चींटा हूँ? चींटा चिल्लाया। हाँ तुम इन जैसे ही एक साधारण चींटे हो, अजगर ने लापरवाही से कहा। अब चींटे को ज्ञान हो गया था। वह बाहर आया और सारे चींटों से कहा कि भाइयों मेरे साथ चलो, वह सभी चींटों को घर में अन्दर ले गया और कहा की टूट पड़ो इस अजगर पर। पलक झपकते  ही अजगर का नामोनिशान मिट गया।

अब आते हैं वर्तमान पर। मोदीजी ने कहा कि भ्रष्टाचार रूपी एक अजगर हमारे घरों में घुस गया है, तुम सब अपनी ओर देखों और पहचानो खुद को कि तुम कौन  हो? तुम 125 करोड़ भारतीय हो, तुम खुद को खोज रहे हो – किसी जात में, किसी वर्ग में, किसी धर्म में, लेकिन तुम यह नहीं देख पा रहे कि तुम्हारे पूर्वज एक थे, तुम्हारा डीएनए एक है, तुम्हारी संस्कृति एक है। इसलिये आओ मेरे साथ और भ्रष्टाचार रूपी जो अजगर हमारे घर में घुस गया है, उसे एक साथ मिलकर मार गिरायें। आएंगे ना?

Sunday, November 20, 2016

क्या पता इतिहास के काले अध्याय भी सफेद होने के लिये मचल रहे हों!



मुझे रोजमर्रा के खर्च के लिये कुछ शब्द चाहिये, मेरे मन के बैंक से मुझे मिल ही जाते हैं। इन शब्दों को मैं इसतरह सजाती हूँ कि लोगों को कीमती लगें और इन्हें अपने मन में बसाने की चाह पैदा होने लगे। मेरे बैंक से दूसरों के बैंक में बिना किसी नेट बैंकिंग, ना किसी क्रेडिट या डेबिट कार्ड के ये आसानी से ट्रांस्फर हो जाएं बस यही प्रयास रहता है। मुझे अन्य किसी मुद्रा की रोजमर्रा आवश्यकता ही नहीं पड़ती लेकिन यदि ये शब्द कहीं खो जाएं या फिर प्रतिबंधित  हो जाएं तो मेरा जीवन कठिनाई में पड़ जाएगा।
मुझे कुछ ऐसी घटनाएं भी चाहिएं जो मेरी संवेदना को ठक-ठक कर सके, मेरी नींद उड़ा दे और फिर मुझे उन्हें शब्दों के माध्यम से आकार देना ही पड़े। घटनाएं तो रोज ही हर पल होती है, अच्छी भी और बुरी भी, लेकिन किसी घटना पर मन अटक जाता है। उस अदृश्य मन के अंदर सैलाब सा ला देता है और फिर वही मन अनुभूत होने लगता है। दीमाग सांय-सांय करने लगता है और तब ये शब्द ही मेरा साथी बनते हैं।
पहले मुझे कलम चाहिए होती थी, कागज चाहिए था लेकिन अब अदद एक लेपटॉप मेरा साथी बन जाता है। अंगुलिया पहले कलम पकड़ती थी और अब की-बोर्ड पर ठक-ठक करती हैं और मन बहने लगता  है। शब्द न जाने कहाँ से आते हैं और लेपटॉप की स्क्रीन पर सज जाते हैं। मन धीरे-धीरे शान्त होने लगता है।

कुछ समय भी चाहिये मुझे, मन की इस उथल-पुथल को जो साध सके और शब्दों को आने का अवसर दे सके। मेरी संवेदनाएं मुझ पर इतना हावी हो जाती हैं कि मैं अपने सारे ही मौज-शौक से समय चुराकर इनको दे देती हूँ। कई मित्र मुझे लताड़ने लगे  हैं, उलाहना देने लगे हैं लेकिन मैं समय को संवेदनाओं के पास जाने से रोक नहीं पाती  हूँ। अब बस मैं हूँ और मेरी संवेदना है, मेरा इतना ही खजाना है। इससे अधिक पाने की लालसा भी नहीं है, इसलिये किसी बैंक की चौखट चढ़ने का मन ही नहीं होता। इन शब्दों के सहारे, घटनाओं से संवेदना को मन में पाने के लिये जो समय  अपने लेपटॉप पर व्यतीत करती  हूँ बस वही तो मेरा है। यह सारा ही, काला या सफेद धन ना मुझे शब्द दे पाते हैं, ना संवेदना जगा पाते हैं। ना मेरा लेपटॉप शब्द उगल पाता है और ना  ही मन समय निकाल पाता है। लोग पाने के लिये बेचैन  हैं और मैं देने के लिये। मैं शब्द  ही कमाती हूँ और शब्द ही खर्चती हूँ। शायद ये भी कभी काले और सफेद की गिनती में आ जाएं! पुस्तकालयों में बन्द लाखों करोड़ शब्द कहीं काले धन की तरह बदलने के लिये बेताब ना हो जाएं! लगे हाथों इन्हें भी बाहर की खुली हवा दिखा दो, क्या पता इतिहास के काले अध्याय कहीं सफेद होने के लिये मचल रहे  हों!

Saturday, November 19, 2016

तीर्थ का पानी अमृत हो गया है


चलिये आपको 70 के दशक में ले चलती हूँ, जयपुर की घटना थी। रेत के टीलों से पानी बह निकला था और शोर मच गया था कि गंगा निकल आयी है। मैं तब किशोर वय में थी। गंगा जयपुर के तीर्थ गलता जी के पास के रेतीले टीलों से निकली थी  और गलताजी जाना हमारा रोज का ही काम था। गलता के मुख्य कुण्ड से यह स्थान तकरीबन एक किलोमीटर रहा होगा। हमारा बचपन जयपुर के टीलों पर धमाचौकड़ी करते  हुए ही बीता है, ये टीले जैसलमेर के सम के समान थे, अब तो बहुत जगह बस्ती बस गयी है तो टीले कम होते जा रहे हैं। रेत के टीलों से गंगा निकलना चमत्कार ही था और सभी ने इसे चमत्कार ही माना भी।
फिर आया 1980, गलता जी पर इन्द्र देव तूफान बनकर टूट पड़े और पलक झपकते ही गलता के सातों कुण्ड रेत से सरोबार  हो गये। दूर-दूर तक एक मैदान दिखायी देने लगा। जिन टीलों से गंगा निकली थी, पानी की आवक वहीं से हुई थी। पता लगा कि यहाँ टीलों पर कच्चा बांध बना था और यहीं से पानी रिसकर जमीन में रेंगता हुआ गलता जी में हर पल आता रहता था। जिस सत्य को कोई भी वैज्ञानिक नहीं पकड़ पाये वह सत्य अब सबके सामने प्रत्यक्ष था। जिस वैज्ञानिक ने इस कल्पना को साकार किया था वह ऋषि-वैज्ञानिक थे – गालव ऋषि। जब उन्होंने इस रचना की कल्पना की होगी तब उनके साथियों ने और जनता ने इसे असम्भव बताया होगा और जब यह मूर्त रूप में परिणित हो गया होगा तब अनेक परामर्श आ गये होंगे कि इस कुण्ड को ऐसे नहीं ऐसे बनाना चाहिये था। कुण्ड की लम्बाई इतनी होनी चाहिये थी आदि आदि।
आज ऐसी ही कहानी दोहरायी जा रही है, जिस समस्या के समाधान की किसी  को कल्पना तक नहीं थी, उसको मोदीजी ने साकार किया। अब लोग राह चलते परामर्श दे रहे हैं कि ऐसे नहीं ऐसे योजना लागू करनी चाहिए थी। कुण्ड में जो मोखे बने हैं उसमें फंसकर लोग मर  जाते हैं इसलिये ये मोखे नहीं होने चाहिये थे। पहाड़ पर चढ़कर जब लोग कुण्ड में छलांग लगाते हैं तब लोग इन मोखों में फंस जाते हैं और मर जाते हैं। नोटबंदी को कारण जब बैंक में पैसा निकालने के लिये लाईन लगती है तो लोग भूखे-प्यासे हो जाते हैं और कोई तो मर भी जाते हैं, इसलिये इसे ऐसे नहीं ऐसे लागू करना चाहिये था। कोई कह रहा है कि सात दिन का नोटिस देना चाहिये था, कोई कह रहा है कि इतने पैसे निकालने की छूट होना चाहिये थी. मतलब की सारे ही ज्ञानी बन गये हैं। रेत के टीलों से होकर पानी कैसे कुण्ड तक पहुँचेगा यह कल्पना गालव ऋषि ने की, किसी वैज्ञानिक को पता भी नहीं चला कि यह  पानी किस मार्ग से कुण्ड तक पहुंचता है और पर पल कुण्ड में जाकर गिरता है। मोदी ने कल्पना की कालेधन को रेत के टीलों पर बांधने की, वहाँ से जमीन के अन्दर से गुजर कर कुण्ड में समाने की और पूरे देश के लिये एक तीर्थ देने की।

मोदी ने तो कल्पना को साकार कर दिया, अब तुम नुक्ताचीनी करके अपना ज्ञान बघारलो। तीर्थ का निर्माण तो हो गया अब देश पवित्र जल में डुबकी लगाने को तैयार है। तुम कुण्ड के मोखों की गणना कर-कर के बचाने के रास्ते ढूंढते रहो। मोखे तो गालव ऋषि ने जब बनाये थे तो कुण्ड की सुरक्षा के लिये ही बनाये थे, मौदी ने भी बैंक रूपी मोखों को मजबूत किया है तो कुण्ड की सुरक्षा के लिये ही किया  है। तुम नहीं समझोंगे, इसे कल्पनाकार ही समझ सकता है, तुम अपने दीमाग को मत लड़ाओ। पानी जिस मार्ग से जाना है उसी मार्ग से जाएगा और कुण्ड भरेगा ही। अब यह निर्मल पानी का कुण्ड  होगा, यहाँ के स्नान से सभी के पाप कटेंगे। कल तक जो पानी अनुपलब्ध था, खारा था, लोग प्यासे थे अब वही पानी निर्मल हो गया है। सभी की प्यास अब बुझेगी। अब यह कुण्ड तीर्थ बन गया है और तीर्थ का पानी अमृत हो गया है। 

Friday, November 18, 2016

बस तैल देखिये और तैल की धार देखिये


दीवारों के पार की बाते सुनने की चाह भला किसे नहीं होती?  क्या कहा जा रहा है  इसकी जिज्ञासा हमें दीवारों पर कान लगाने को मजबूर करती हैं। रामचन्द्र जी ने भी यही कोशिश की थी और अपनी पत्नी को ही खो बैठे थे। दीवारों के भी कान होते हैं. यह कहावत शायद तभी से बनी होगी। इमामबाड़ा तो बना ही इसलिये था, दीवारे भी बोलती थी और दीवारों के पार क्या हो रहा है दिखायी भी देता था। कितने ही राजा इस रोग के मरीज रहे हैं, बस रात हुई नहीं कि निकल पड़े वेश बदलकर, प्रजा मेरे बारे में क्या कहती है? प्रजा आपके बारे में सबकुछ कहेगी, अच्छा भी कहेगी और बुरा भी कहेगी। ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसके लिये सारी प्रजा आपको अच्छा ही कहेगी। इसलिये कान अनावश्यक बातों के सुनने के लिये मत लगाइए। लेकिन आज के युग  की कठिनाई है कि आप दीवार पर कान नहीं सटाते तो क्या, आपको सारा दिन चीखने वाले न्यूज चैनल उनकी बतकही कानों में ठूंसकर ही दम लेते हैं। बातों का अम्बार लग गया है, खोज-खोजकर तर्क घड़ने की होड़ मची है। यदि आपने सबकुछ सुन लिया तो आप विक्षिप्त भी हो सकते हैं।
अपने सत्य की खोज आप स्वयं कीजिए, किसी को सुने बगैर। सूरज आपको रोशनी देता है तो आप खुश हो लीजिए, दूसरा यदि कह रहा है कि सूरज मेरी त्वचा को जला  रहा है, तो यह उसका सत्य है। आप उसके और अपने सत्य को मिलाने लगेंगे तो भ्रमित हो जाएंगे। आज यही हो रहा है,  कुछ  लोगों ने भ्रमित करने का ठेका ले रखा है। सारा दिन टीवी पर बैठकर लोगों को भ्रमित करते हैं, इसलिये मत दीजिये उन पर कान। नहीं तो आप भी कुछ न कुछ आपका प्रिय खो बैठेंगे। अपने दीमाग का रिमोट अपने पास ही रखें, दूसरों के  हाथों में नहीं सौंपे। आज विज्ञान का युग है, मेरा कम्प्यूटर जब खराब होता है तो दूर अमेरिका में बैठा मेरा बेटा उसे अपने कंट्रोल में लेकर वहीं से ठीक कर देता है। इसी प्रकार इन टीवी वालों को भी आप अपने दीमाग का कम्प्यूटर ना सौंपे, ये दिल्ली में बैठकर ही आपकी सेटिंग बदल देंगे।

सदियों पहले साहित्यकार आपको बदलता था,  फिर समाचार पत्र आये, रेडियो से आप बदलने लगे और अब आप टीवी से बदल रहे हैं। कानों को आप दीवार पर नहीं लगाते तब भी आपको अनर्गल बकवास सुनायी पड़ ही जाती है। सतर्क रहें, आपके दीमाग का बदलीकरण हो रहा है और यह बदलीकरण अपको कहीं आपसे ही ना छीन ले। आप हर अच्छे काम में नुक्स निकालने वाले बन जाएंगे और स्वच्छ पानी में भी कीड़े कुलबुलाते हुए दिखायी देंगे। जैसे भगवान पर भरोसा करते हैं, प्रकृति पर भरोसा करते हैं वैसे ही अपने परिक्षित नेता पर भी करिये। ये कुतर्क घड़ने वाले लोग आपके दीमाग की चूलें तक हिला देंगे, इसलिये इनपर कान देकर अपना समय बर्बाद मत कीजिये। जो काम आपके वश का नहीं है उस पर सर क्यों खुजाना? बस तैल देखिये और तैल की धार देखिये।

Wednesday, November 16, 2016

आत्मा की नीयत बदलने वाला नोट ही बदल दिया है मोदी ने


भगवान के दरबार में सभा चल रही थी, भगवान ने बताया कि धरती पर मनुष्य नाम के प्राणी की आत्मा में बहुत विकृति आ गयी है। वे दिखने में तो मनुष्य ही दिखते हैं लेकिन उनका कृत्य कुत्ते, सूअर आदि के समान हो गया है इसकारण इन प्राणियों में काफी रोष व्याप्त है। कुत्ता कह रहा है कि हम सब से अधिक वफादार होते हैं इसलिये हम मालिक की सुरक्षा के लिये भौंकते हैं और जिस व्यक्ति से खतरा होता है उसी पर भौंकते हैं। लेकिन यह मनुष्य सच्चे इंसानों पर ही भौंकने लगे हैं और हमें गाली पड़वाने लगे  हैं। पागल की तरह किसी को भी काट लेते हैं और फिर गाली पड़ती है कि तू कुत्ते की मौत मरेगा। इसी प्रकार सूअर भी शिकायत कर रहे हैं कि हम धरती की गन्दगी को समाप्त करते हैं लेकिन ये धरती को गन्दा कर रहे हैं और सूअर के नाम की इन्होंने गाली बना दी है।
इसलिये मैंने निर्णय किया है कि आत्मा का ही नवीनीकरण कर दूँ। एक बार साफ धो-पोछकर इनका कल्याण कर दूँ।
लेकिन भगवन इससे तो सारे मनुष्य एक जैसे हो जाएंगे!
नहीं इनकी आत्मा का जो बड़ा पुर्जा  है बस उसे ही बदल देते हैं, बाकी छोटे पुर्जें वही रहेंगे। अनावश्यक भौंकना, गन्दगी करना आदि काम एकबारगी बन्द हो जाएंगे। इनका कुत्तापना और सूअरपना कम हो जाएगा।
महाराज इस अदला-बदली में तो बहुत समय लगेगा और जैसे ही इनको पता लगेगा कि हमें सुधारा जा रहा है, ये तो तहलका मचा देंगे। भौंक-भौंक कर धरती को सर पर उठा लेंगे और गन्दगी फैलाकर धरती को बदबूदार कर देंगे।
करेंगे तो सही, लेकिन इससे अच्छे मनुष्य  और बुरे मनुष्य का भेद सभी को लग जाएगा और अच्छे लोग इनके झांसे में नहीं आएंगे।

भगवान ने जैसे ही आत्मा बदली की घोषणा की और धरती का चक्कर लगाया तो देखा कि यहाँ तो पहले ही मोदी नामक जीव ने इनके शुद्धिकरण का कार्य शुरू किया है और भारत देश में जोर-जोर से भौंकने की आवाजें आ रही हैं। जगह-जगह लोग गन्दगी फैलाने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन अधिकांश लोग इस पहल से खुश है। भगवान ने चैन की सांस ली और तथास्तु कहकर अपने धाम को प्रस्थान किया। अब आत्मा बदलने की जरूरत नहीं है क्योंकि आत्मा की नीयत बदलने वाला नोट ही बदल दिया है मोदी ने।

Sunday, November 13, 2016

मैं कब नये कपड़े पहनूंगा?

मैं कब नये कपड़े पहनूंगा?
70 साल से देश रो रहा है, फटेहाल सा दर-दर की ठोकरे खा रहा है। जब सारे ही देश इकठ्ठा होते हैं तब मैं अपनी फटेहाली छिपाते-छिपाते दूर जा खड़ा होता हूँ। कोई भी अन्य देश मेरे साथ भी खड़ा होना नहीं चाहता क्योंकि मेरे अन्दर गन्दगी की सड़ांध भरी है, टूटी-फूटी सड़कों से मेरा तन उघड़ा पड़ा है। मेरी संतानें भीख मांग रही हैं, मेरे युवा नशे के आदी हो रहे हैं। महिला शारीरिक शोषण की शिकार हो रही हैं। मैं न जाने कितने टुकड़ों में बँटा हूँ, मुझे भी नहीं पता कि मैं कहाँ खड़ा हूँ।
सरकारे आती हैं और जाती हैं लेकिन मुझ पर पैबंद लगाने के अलावा कुछ नहीं कर पाती हैं। मेरी जनता मुझे सजा-धजा देखना ही नहीं चाहती, जब भी मैं उससे पैसा मांगता हूँ वह नालायक बेटे की तरह आपना ही रोना रो देती है और मैं एक माता-पिता की तरह सूखी रोटी खाकर  ही गुजारा करने  पर मजबूर हो जाता  हूँ। मैं दुनिया के सामने लाईन में खड़ा रहता हूँ कि कोई मुझे दान में कुछ दे दे, आखिर कब तक मांग-मांग कर अपना पेट भरूंगा!

आज दिन आया  है जब मेरे अन्दर का जहर बाहर निकाला जा रहा है तब कुछ लोग रो रहे हैं कि नहीं जहर मत निकालो, हमे परेशानी हो रही है। हमें दर्द हो रहा है। मेरे अन्दर इतना जहर है कि उसे बाहर निकलने में कुछ दिन लगेंगे ही, तब तक मेरी जनता को सब्र तो करना ही होगा। मेरे अन्दर जब स्वस्थ रक्त बहेगा तो मेरी गंदगी दूर होगी, मेरी टूट-फूट सुधरेगी, इसे होने दो। जब मैं स्वस्थ हो जाऊंगा तब मुझे दुनिया के देशों के सामने लाईन में नहीं लगना होगा, दान के पैसे के लिये। मैं भी अन्य देशों के साथ हाथ मिलाकर खड़ा रह सकूंगा। आज दिन आया है, मेरी दीवाली मनाने का, मुझे भी मना लेने दो। यदि आज भी तुमने इन लुटेरों की ही बात सुनना जारी रखा तो मैं कब नये कपड़े पहनूंगा? अब मुझे सभ्य दिखने दो, मेरे लिये तुम सब सोचो और जब मैं सभ्य दिखूंगा तब तुम भी तो सभ्य दिखोंगे ना। इस जहर को निकल जाने दो, कुछ ही समय लगेगा, फिर तुम सदा स्वस्थ रहोगे।

Saturday, November 12, 2016

तुम मिट गयी सभ्यताओं में शामिल हो जाओंगे


भविष्य की गर्त में छिपा है अमेरिका का भविष्य। ट्रम्प को भारतीय नहीं जानते लेकिन भारतीय एक बात को सदियों से जानते आए हैं और वह है – अपमान। भारतीय अपमान के मायने जानते हैं, वे जानते हैं कि जब चाणक्य का अपमान होता है तो चन्द्र गुप्त पैदा होता है, गाँधी का अपमान  होता है तब भारत स्वतंत्र  होता है, मोदी का अपमान होता है तब भारत में पुनःजागरण होता है। अपमान के किस्से यहाँ भरे पड़े हैं और इस अपमान से निकला सम्मान के उदाहरणों से इतिहास भरा हुआ है।
5 वर्ष पूर्व ट्रम्प व्हाइट हाउस के एक कार्यक्रम में बैठे हैं, उनका ओबामा के सान्निध्य में ही जमकर मजाक उड़ाया जाता है और परिणाम 5 वर्ष बाद निकलकर आता है। जब हम किसी का अपमान कर रहे होते हैं तब  हम उसके मान को रौंद रहे होते हैं, उसके मान को अस्वीकार कर रहे होते हैं। रौंदने और अस्वीकार करने की प्रक्रिया में यह परिलक्षित कर देते हैं कि हमारे अन्दर उस व्यक्ति के मान से उपजा डर है। हम डरे हुए रहते हैं उस व्यक्ति की सम्भावनाओं से, कहीं ये सम्भावनाएं वास्तविकता का रूप ना ले ले। अंकुर फूटने से पहले ही रौंद दो। ट्रम्प में भी कहीं सम्भावनाएं छिपी होगी और जैसे ही वास्तविकता का रूप लेने लगी, अपमान शुरू हो गया। सार्वजनिक अपमान की पीड़ा बहुत होती है, व्यक्ति को हाशिये से खेंचकर बाहर ले आती है। परिणाम दुनिया के सामने हैं। अब अपमान और सम्मान का युद्ध चलेगा, जितना गहरा अपमान होगा उतना ही गहरा सम्मान होता जाएगा। यदि ट्रम्प बर्दास्त नहीं तो शान्त हो जाओ, प्रतिक्रिया से वह और मजबूत होता चला जाएगा। यदि उसमें सम्भावनाएं छिपी हैं तो उन्हें उजागर होने का अवसर दो, जनता का मौन सिद्ध करेगा कि सम्भावनाएं हैं या नहीं। जनता का शोर तो सम्भावनाओं को अक्सर प्रबल ही करता है, कमजोर व्यक्ति में  भी प्राण फूंक देता है। तुम्हारा शोर दुनिया को बता रहा है कि तुम परिवर्तन से चिंतित हो, तुम लीक से हटकर कार्य करने में डरे  हुए हो और सबसे बड़ी बात की तुम पुराने शासन में कहीं न कहीं अपनी सहूलियत तलाश रहे थे और अब तुम्हारी चाहते कहीं पीछे ना धकेल दी जाएं, इस बात से भी डरे  हुए हो।
तुम परिवर्तन से डर रहे हो, तुम आतंकियों की धमकी से डर  रहे हो, तुम्हें डर है कि कहीं आतंक का हमला तेज ना हो जाए।

लेकिन खरगोश के आँख बन्द करने से बिल्ली का डर कम नहीं होता। डरो मत, साथ खड़े हो जाओ, साथ रहने से ट्रम्प भी तुम्हारे जैसा भला होने की कोशिश करेगा। आतंक के लिये कहते हो कि बैर से बैर नहीं कटता और अपने व्यक्ति से बैर करते हो! कहीं तुम आतंक को बढ़ावा देने का प्रयास तो नहीं कर रहे? अमेरिका सीरिया बन जाये वह चलेगा लेकिन ट्रम्प नहीं चलेगा। कौन लोग हैं जिनके कहने से तुम ट्रम्प का विरोध कर रहे हो? अपने व्यक्ति पर विश्वास करना सीखो, नहीं तो तुम मिट गयी सभ्यताओं में शामिल हो जाओंगे।

Tuesday, November 8, 2016

मन में रेंगते कीड़े को अनुभूत कीजिए

कल एक फिल्म कलाकार का साक्षात्कार टीवी पर आ रहा था, वे कहते हैं कि मैं जब छोटा था तब मैंने अनेक महापुरुषों की जीवनी पढ़ी और पाया कि सभी लोग दिल्ली में रहकर बड़े बने। मुझे भी दिल्ली जाने की धुन सवार हो गयी और उसी धुन के तहत दिल्ली गया, थियेटर कलाकार बना और फिर मुम्बई जा पहुँचा और आज यहाँ आपके सामने हूँ।
मेरे पिता भी एक छोटे से गाँव के वासी थे और वे भी जिद करके दिल्ली गये। हमारे परिवार का जीवन और हमारे चाचा-ताऊ के परिवार के जीवन में रात-दिन का अंतर है। मेरे पति भी गाँव छोड़कर शहर आए और आज हमारे जीवन और जो गाँव में रह गये उनके जीवन में अंतर है।
जो भी व्यक्ति कुछ नया करना चाहता है वह अपनी परिस्थितियों से समझौता नहीं करता, वह सम्भावनाओं के द्वार तलाशता है। कई बार हम अपना क्षेत्र बदलते हैं तो कई बार कार्य। लेकिन जो ऐसा करने का साहस नहीं जुटा पाते वे सृजन के नवीन द्वार नहीं खोल पाते। मेरे पति ने अपना क्षेत्र बदला था और मैंने अपना कार्य बदल लिया। वे अपने कार्य से खुश हैं और मैं अपने सृजन से।
जीवन का आनन्द सृजन में हैं। यदि हम इच्छित सृजन कर पाते हैं तो जीवन में सफलता का अनुभव करते हैं और यदि जीवन में सृजन नहीं है तो हम इस संसार से रिक्त से चले जाते हैं। अपनी दुनिया का नवीन सृजन करने वाला व्यक्ति हमेशा संतुष्ट रहता है, जो ऐसा नहीं कर पाते वे निराशा का वातावरण बनाते हैं।

लेकिन केवल सम्भावनाओं के द्वार तलाशना ही पर्याप्त नहीं होता, उससे पहले स्वयं को तलाशने की जरूरत होती है। आपके अंदर का रेशम का कीड़ा आपको तलाशना है, वो अंदर नहीं है तो आप कहीं भी चले जाइए, आप उस कीड़े के वगैर सृजन कर ही नहीं सकते। सिल्क का कपड़ा तभी बुन पाएंगे जब आपके पास रेशम का कीड़ा होगा। यदि आपके पास वह कीड़ा है तो आपको वह बैचेन कर देगा और वह बैचेनी आपको इच्छित मंजिल तक ले जाने में सहायक बन जाएगी। यही बैचेनी एक दिन जुनून में बदल जाएगी और आप सृजन के साथ खड़े होंगे। यदि यह कीड़ा आपके अंदर नहीं है तो आप भागकर अमेरिका ही क्यों ना चले जाएं लेकिन आप संतुष्ट नहीं हो सकते। इसलिये मन में रेंगते कीड़े को अनुभूत कीजिए, फिर सम्भावनाओं के द्वार तलाश कीजिए। सृजन के साथ आप संतुष्ट से खड़े दिखायी देंगे।

Friday, November 4, 2016

आप टोकरा भर मित्र बना लेंगे

कल बेटे से फोन पर बात हो रही थी, वह अपनी नौकरी बदल रहा है तो उसे अपना काम सौंपकर जाना है। कल तक वह कह रहा था कि मेरे पास कोई काम ही नहीं है इसलिये नौकरी बदलना जरूरी हो गया है लेकिन आज कहने लगा कि अपना काम जब दूसरों को सौंप रहा हूँ तब मुझे अपने काम का पता चल रहा है और मुझे ही नहीं सभी को पता चल रहा है कि अरे यह काम कितना जरूरी था। अब इसे कौन और कैसे किया जाएगा इसका चिंतन लाजिमी था। बंदा तो छोड़कर जा रहा है तो ऐसा करो कि इसके काम की रिकोर्डिंग कर लो जिससे कठिनाई नहीं आये। जब हम काम छोड़ते हैं तब पता चलता है कि कितना मूल्यवान काम हम कर रहे थे।
हम से भी यदाकदा लोग पूछ बैठते हैं कि आप क्या काम करते हैं? अपना काम समझाना कई बार कठिन सा हो जाता है। फिर मन को लगने लगता है कि नहीं, हम कुछ नहीं कर रहे, निराशा सी मन में छाने लगती है। जीवन का भी ऐसा ही है, एक उम्र के बाद लगता है कि अब हमारा काम खत्म। हिन्दू दर्शन में कहते हैं कि जीवन का उद्देश्य होता है, हम अपना उद्देश्य पूरा करने के  बाद संसार से पलायन की सोचने लगते हैं। यह पलायन यदि कठिन हो तो संन्यासी  ही बन जाते  हैं लोग।
मैं जब भी कुछ देर के लिये घर से बाहर होती हूँ, घर में अफरा-तफरी का माहौल बन जाता है। छोटे-छोटे काम अपना वजूद बताने लगते हैं, लेकिन ना मुझे और ना  ही घर में किसी को उनकी अहमियत पता होती है! हम एक रफ्त में काम करते हैं और फिर उस काम की आदत सी हो जाती है, ना हमें पता लगता है कि हम काम कर रहे हैं और ना ही दूसरों को पता लगता  है कि हम काम कर रहे  हैं। जमाना हमें ताना मारता है कि भला तुम क्या करते हो और हम नजरे चुराये चुपचाप सुन लेते हैं। फिर किसी नये काम की तलाश शुरू करते हैं कि शायद लोगों को और खुद को लगे कि हम काम कर रहे हैं।
मैं एक बार सोचने लगी की मेरे बाद इनका जीवन कैसे चलेगा, सोचकर ही सायं-सायं होने लगी। तभी माँ याद आ गयी, वह कहती थी कि भगवान मुझे पहले मत उठाना, नहीं तो इनका जीवन किसके सहारे कटेगा? अक्सर पत्नियों को कहता सुना था कि हे भगवान! मुझे सुहागन ही उठाना लेकिन पहली बार माँ को उल्टी बात कहते सुना। उनकी तो भगवान ने सुन ली थी और वे साथ-साथ ही चले गये इसलिये उन्हें एकदूजे के काम की महत्ता ही पता नहीं चली। लेकिन जब मैंने अपने जीवनसाथी के काम के लिये चिंतन किया तब मेरी दुनिया भी पंगु नजर आने लगी। यह जो काम नाम की चीज है वह दिखती नहीं है, इसकी कद्र भी हम नहीं करते हैं लेकिन इसका महत्व हमारे जाने के बाद पता लगता है।

इसलिये हमें एक-दूसरे के काम को समझना भी चाहिये और बताते भी रहना चाहिये कि तुम्हारा काम कितना महत्व का है। जब कोई हमें हमारे काम का महत्व बताता है तब हमें भी अपने काम का महत्व पता लगता है। फिर निराशा हमें नहीं घेरती है और ना ही पलायन की सोच दिमाग पर हावी होती है। एक-एक रिश्ते का महत्व बार-बार बताओ, तुम हमारे लिये कितने उपयोगी  हो बताते रहो फिर देखो जीवन कितना खुशहाल हो जाएगा। बस लग जाओ काम पर आज से  ही। बस कहते रहो कि यह काम केवल तुम ही कर सकते थे। छोटे-छोटे कामों को ढूंढो और बताओ अपने आत्मीयों को कि यह काम तुम करते  हो तो हम कितना खुश हो लेते हैं।  सच मानिये आप टोकरा भर मित्र बना लेंगे।
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Wednesday, November 2, 2016

अब हम तो दोस्त हो गये ना भाई!


अपने साहित्यिक और सामाजिक जीवन को जीते-जीते अपना आस-पड़ोस कब दूर चले गया पता ही नहीं चला। लेकिन भगवान ने रास्ता दिखाया और कहा कि इस आनन्द को अनुभूत करो, यह भी विलक्षण है। जैसे ही घर ही चौखट से पैर बाहर पड़े और कोई चेहरा आपके सामने होता  है, आप धीरे से मुस्करा देते हैं, छोटी-छोटी बाते होने लगती हैं। कभी घर में आलू-प्याज समाप्त हो जायें तो यही चेहरा याद आता है और आपकी दरकार पूरी हो जाती  है। बस इसे ही आस-पड़ोस कहते हैं। अपने जीवन में इस सुख को समेटने की चाह पैदा हुई और बस महिलाओं को एक सूत्र में बांधने का निश्चय कर लिया। दीपावली आ गयी और हम से भी अधिक बच्चों में दोस्ती बनाने की पहल दिखायी दी। आस-पड़ोस के बच्चे मिठाई लिये हमारे घर आ गये, अब तो बड़ी शर्म महसूस हुई, हमारे पास इन्हें देने को ऐसा कोई उपहार नहीं था, जो इन्हें पसन्द आता। लेकिन पहला पाठ इन्होंने मुझे पढ़ा दिया था कि उपहार कितनी जरूरी चीज है। मैं तो उपहार तले दब चुकी थी इसलिये उपहार बेमानी से लगने लगे थे लेकिन नयी पौध को तो उपहार अच्छे लगेंगे ही ना। खैर आगे से ध्यान रखा जाएगा।
मन भी क्या है, न जाने कब कैसा देख लेता  है और एक नवीन दर्शन उपज जाता है। छोटी सी आम बात कब मन को छू ले, धीरे से दीमाग में अपना घर बसा ले और सोते-जागते बस लगे कि इस बात में जीवन का मर्म छिपा है। आप रात-दिन करवटे बदलने लगते हैं, सोच का सिरा ढूंढने लगते हैं और अकस्मात ही दीमाग की बत्ती जल जाती है कि इस बात में यह दर्शन मेरे मन को दिखायी दे रहा है। बचपन चाहे कितना ही लाड़-दुलार वाला क्यों ना हो, लेकिन बच्चे को उपेक्षित ही नजर आता है। अभी तुम बच्चे हो, गाहे-बगाहे उसे सुनने को मिलता ही रहता है। बड़ो की दुनिया उन्हें परायी सी लगने लगती है, वे अपने लिये संगी-साथी की खोज शुरू करते हैं। इस दुनिया में उनके अपने फैसले होते हैं, वहाँ उनको कोई नहीं कहता कि चुप रहो – अभी तुम बच्चे हो। वे घर से दूर भागते  हैं और अपने संगी-साथियों की एक दुनिया बसा लेते हैं।
नन्हें बच्चों को जब हाथ में हाथ डाले मस्ती में घूमते देखती हूँ तो बचपन याद आता है, हम भी तब अपनी दुनिया ऐसे ही बना रहे थे। किशोर और युवा होने तक तलाश जारी रहती है, घर से मिली उपेक्षा इन्हें घर के बाहर संगी-साथियों से मिला विश्वास इनकी अपेक्षा बन जाता है। बचपन में खेल के अलावा कुछ नहीं होता और लेकिन उनके हर खेल में बड़े होने का अहसास होता  है। खेल-खेल में वे माता-पिता बनते हैं और अपने बड़प्पन को जीते हैं। उस खेल में बच्चे भी होते हैं और वहाँ भी उन्हें यही सुनने को मिलता है कि तुम चुप रहो, तुम अभी बच्चे हो। मतलब कि बच्चे हमसे अधिक संगी-साथी बनाते  हैं। हम तो अपनी दुनियादारी में दुनिया ही भूला देते हैं लेकिन ये अपनी दुनिया बसाने की पहल करते रहते हैं।

बच्चे बड़े  होने का नाटक खेलते हैं और हम बड़े, बच्चे होने का सुख इन बच्चों में तलाशते हैं। ये हमें जीवन का पाठ पढ़ा जाते हैं और हम सोचते हैं कि हम बच्चों को कुछ सिखा देंगे। ये हमें सम्पूर्ण बना जाते  हैं और हम सोचते हैं कि हम इन्हें बड़ा कर रहे हैं। ये हमें सिखा जाते हैं कि संगी-साथी कैसे बनाते हैं और हम सोचते हैं कि हम इन्हें जीना सिखा रहे हैं। छोटी सी चिड़िया जब घर की मुंडेर पर चहचहाती है तब फूल खिल उठते हैं, ऐसे ही घर की चौखट पर जब कोई बच्चा दस्तक देता है तब बचपन लौट आता है। बच्चों के हम कह देते हैं कि तुम चुप रहो, तुम अभी बच्चे हो और अब हम बड़ों को भी सुनने को मिलता है कि आप चुप रहो, आपको इस नयी दुनिया का कुछ पता नहीं। तो  हम भी तलाश रहे हैं उस दुनिया को जहाँ कोई हमें नासमझ ना कहे और बच्चे भी ढूंढ रहे  हैं इसी दुनिया को। तुम भी नासमझ और हम भी नासमझ! ये युवा तुम्हें भी चुप करा देते हैं और हमें  भी! अब हम तो दोस्त हो गये ना भाई!

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