tag:blogger.com,1999:blog-55432468667658776572024-03-17T12:50:32.598+05:30अजित गुप्ता का कोनाश्रीमती अजित गुप्ता
प्रकाशित पुस्तकें - शब्द जो मकरंद बने, सांझ की झंकार (कविता संग्रह), अहम् से वयम् तक (निबन्ध संग्रह) सैलाबी तटबन्ध (उपन्यास), अरण्य में सूरज (उपन्यास)
हम गुलेलची (व्यंग्य संग्रह), बौर तो आए (निबन्ध संग्रह), सोने का पिंजर---अमेरिका और मैं (संस्मरणात्मक यात्रा वृतान्त), प्रेम का पाठ (लघु कथा संग्रह) आदि।अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.comBlogger555125tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-38311994838740320972021-02-26T09:04:00.002+05:302021-02-26T09:04:57.471+05:30छायादार पेड़ की सजा<p> </p><p class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;"><a href="http://www.sahityakar.com">www.sahityakar.com</a><br /></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; mso-ascii-font-family: inherit; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: inherit;">मेरे
घर के बाहर दो पेड़ लगे हैं</span><span style="font-family: "inherit",serif; font-size: 12.0pt; mso-bidi-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-font-family: "Times New Roman";">, </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; mso-ascii-font-family: inherit; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: inherit;">खूब छायादार। घर के बगीचे में भी इन पेड़ों की
कहीं-कहीं छाया बनी रहती है। कुछ पौधे इस कारण पनप नहीं पाते और कुछ सूरज की रोशनी
लेने के लिये अनावश्यक रूप से लम्बे हो गये हैं। एक दिन माली ने कहा कि इन पेड़ों
को आधा कटा देते हैं जिससे सूरज की रोशनी सारें पौधों पर आ सकेगी। एक बार तो मन ने
बगावत की लेकिन दूसरे ही पल मन ने स्वीकार कर लिया। पेड़ों को यदि काट-छाँट नहीं
करेंगे तो उनका विकास भी नहीं होगा।</span><span lang="HI" style="font-family: "inherit",serif; font-size: 12.0pt; mso-bidi-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-font-family: "Times New Roman";"> </span><span style="font-family: "inherit",serif; font-size: 12.0pt; mso-bidi-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-font-family: "Times New Roman";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; mso-ascii-font-family: inherit; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: inherit;">पेड़
कट गये। पर्याप्त रोशनी हो गयी। लेकिन मनुष्य के जीवन में क्या यही प्रयोग होता
है! हम छायादार व्यक्तित्व को इसलिये काट देते हैं कि दूसरे उसके समक्ष पनप नहीं
पाते</span><span style="font-family: "inherit",serif; font-size: 12.0pt; mso-bidi-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-font-family: "Times New Roman";">?
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; mso-ascii-font-family: inherit; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: inherit;">पेड़ कट जाता है क्योंकि उसके पास विरोध का साधन
नहीं है लेकिन व्यक्ति संघर्ष करता है। कुल्हाड़ी लेकर तो लोग उसके सामने भी खड़े
हो जाते हैं लेकिन उसके अन्दर विरोध की क्षमता उसे बचा लेती है।</span><span lang="HI" style="font-family: "inherit",serif; font-size: 12.0pt; mso-bidi-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-font-family: "Times New Roman";"> </span><span style="font-family: "inherit",serif; font-size: 12.0pt; mso-bidi-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-font-family: "Times New Roman";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; mso-ascii-font-family: inherit; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: inherit;">लेकिन
बहुत ही कम ऐसे क्षमतावान लोग होते हैं जो सारे आघातों से पार पा लेते हैं। कभी
परिवार की सामूहिक शक्ति हमें काट डालती है को कभी समाज की और कभी राजनैतिक शक्ति।
अक्सर सुनाई देते हैं ये शब्द कि बहुत बढ़ गया है अब थोड़े पर कतरनें चाहिये। जब
सामूहिक आक्रमण होता है तब हम जड़ हो जाते हैं और जड़ हुए व्यक्ति को कोई भी काट
डालता है।</span><span lang="HI" style="font-family: "inherit",serif; font-size: 12.0pt; mso-bidi-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-font-family: "Times New Roman";">
</span><span style="font-family: "inherit",serif; font-size: 12.0pt; mso-bidi-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-font-family: "Times New Roman";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 3.75pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; mso-ascii-font-family: inherit; mso-fareast-font-family: "Times New Roman"; mso-hansi-font-family: inherit;">हम
भी न जाने कितनी बार कटते हैं लेकिन फिर हमारी जिजीविषा हमें वापस पल्लवित करती
है। फिर किसी राहगीर को छाया देने लगते हैं। फिर किसी बगीचे के पनपने में बाधक
लगने लगते हैं। फिर कटते हैं। हम बार-बार कटते हैं और बार-बार पनपते हैं। किसी के
लिये छाया बनते हैं और किसी की धूप में बाधक बन जाते हैं। यही जीवन है। छायादार
पेड़ बनने की सजा मिलती रहेगी। मुझे भी और आपको भी।</span><span style="font-family: "inherit",serif; font-size: 12.0pt; mso-bidi-font-family: "Times New Roman"; mso-fareast-font-family: "Times New Roman";"><o:p></o:p></span></p><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-85174615468705863172021-02-07T08:57:00.000+05:302021-02-07T08:57:00.074+05:30कबाड़ ना बन जाए ज़िन्दगी!<p><a href="http://www.sahityakar.com">www.sahityakar.com</a><br /></p><p> <span style="background-color: white; color: #1e1e1e; font-family: "Noto Serif"; font-size: inherit; white-space: pre-wrap;">मेरी मिक्सी के एक जार में मामूली सी खराबी आ गयी, बेटी-दामाद घर आए हुए थे, वे बोले कि मैं नयी मिक्सी आर्डर कर देता हूँ। मैंने कहा कि इतनी सी खराबी और नयी! एक बार रिपेयर-शॉप पर जाओ, दस मिनट में ठीक हो जाएगी। खैर, मेरे कहने पर वे शॉप पर गये और मात्र २०₹ में और पाँच मिनट में जार ठीक हो गया। आप गुस्सा मत होइए कि मैं क्या पुराण लेकर बैठ गयी हूँ! हमारा जीवन भी अब कुछ इसी तरह का हो गया है। छोटी-छोटी शरीर की टूट-फूट होती है और सब कहने लगते हैं कि बुढ़ापे में अब यह सब होगा ही। नया चोला बदलना ही है! डॉक्टर भी यही कह देता है कि अब उम्र हो गयी है। मैं कहती ही रह जाती हूँ कि एक बार देख तो लो क्या पता खराबी छोटी सी ही हो। लेकिन कोई नहीं सुनता! पुराने को फेंकना ही है, लेकिन कब फेंकना है, यह निश्चित तो करना ही होगा! छोटा सा पेच ढीला हो जाए और पूरी मशीन को ही अत्तू कर दो, यह कैसे सम्भव होगा! मशीन तो बदल जाती है लेकिन शरीर कैसे बदले? उसकी तो उम्र होती है, वह बिना पेच के खड़खड़ाते हुए चलेगा लेकिन चलेगा! हम या तो पेच की खराबी ढूँढ ले या फिर रोज़ की खड़खड़!पुरानी मशीन मानकर ना घर के लोग और ना ही डॉक्टर आपकी चिन्ता करेंगे लेकिन आपको स्वयं चिन्ता करनी होगी। आपको छोटी-मोटी टूट को ढूँढना पड़ेगा और ज़िन्दगी को राहत देनी होगी। बुढ़ापे में केवल आपका स्वास्थ्य ही आपका मित्र है। अच्छी खासी मशीन कबाड़ में फेंक दी जाए, इससे पहले आप स्वयं की चिन्ता कर लीजिए। क्योंकि परिवार में भी हर कोई नयी और चमचमाती मशीनों को ही रखना चाहते हैं, पुरानी कबाड़ में ही फेंकने को तैयार रहते हैं। पुराना जमाना था जब आख़िरी दम तक पुरानी से काम लिया जाता था लेकिन अब नहीं। तो सावधान हो जाइए। आपकी मशीन कोई कबाड़ में ना फेंक दे! ध्यान दें लीजिए अपनी ओर! बस छोटी-छोटी सावधानी आपको घर में बनाये रखेगी नहीं तो कबाड़ की दुकान तो है ही। अब घर भी छोटे हैं तो घर की किसी कोठरी में भी जगह नहीं मिलेगी।</span></p><div><span style="background-color: white; color: #1e1e1e; font-family: "Noto Serif"; font-size: inherit; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div><div style="background-color: white; box-sizing: inherit; color: #1e1e1e; font-family: "Noto Serif"; font-size: 16px; outline: 0px;"><div style="box-sizing: inherit; outline: 0px;"><div style="box-sizing: inherit; outline: 0px;"><div class="block-editor-block-list__layout is-root-container" style="box-sizing: inherit; outline: 0px; position: relative;"><div class="block-list-appender wp-block" style="box-sizing: inherit; margin-left: auto; margin-right: auto; max-width: 580px; outline: 0px; position: relative;" tabindex="-1"></div></div></div></div></div><div style="background-color: white; box-sizing: inherit; color: #1e1e1e; font-family: "Noto Serif"; font-size: 16px; outline: 0px; position: fixed;" tabindex="0"></div><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-4724032962522490702021-02-03T09:18:00.001+05:302021-02-03T09:18:27.128+05:30बजट के बहाने यूँ ही<p><a href="http://www.sahityakar.com">www.sahityakar.com</a><br /></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"> मेरा बजट भगवान बनाता है। कितना सुख और कितना दुख का लेखा-जोखा उसी के हाथ है। मेरी सारी संचित समृद्धि का बजट भी भगवान ही बनाता है। इस साल तुम इस व्यक्ति के लिये अपना अर्थ का उपयोग करोगी और उस व्यक्ति से वसूल करोगी! सभी कुछ तो भगवान के हाथ में है। मेरी इच्छाएं मुझे अपनी ओर खींचती हैं लेकिन तभी भगवान बताता है कि अपनी इच्छाओं से परे भी दुनिया है। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">पिछले साल तो सारे ग़ैर ज़रूरी ख़र्चों तक पर कटौती कर दी गयी और रोटी-कपड़े तक की ज़रूरतों पर बजट केन्द्रित कर दिया गया। भगवान ने बताया कि सुख इसी में खोजो। सभी कुछ देने पर और कुछ नहीं होने पर सुख में क्या अन्तर आया, इसे खोजो! भीड़ से भरी दुनिया में और एकान्त में क्या अन्तर है, इसका भी आकलन करो। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">कभी हम किसी वस्तु का प्रयोग ही नहीं करते तो भगवान उसे जीवन से हटा लेता है। रिश्ते कभी बेमानी से हो जाते हैं, हमारे भी हुए, तब भगवान ने कहा कि इनके बिना ज़िन्दगी का अनुभव करो। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अपने सात समन्दर पार जाकर बैठ गये, भगवान ने कहा कि इस बिछोह का दर्द भी सभी को अनुभूत करने दो। हमारे बजट से उसने रिश्ते के नाम का व्यय ही हटा दिया। अब देखो कौन है तुम्हारे आसपास! कौन तुम्हारे लिये चिंतित होता है? बस वहीं पर बजट में ध्यान दो। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">भगवान ने सब कुछ अपने हाथ में ले लिया। मैं सोचती ही रह गयी कि यह करना है और वह करना है लेकिन कौन सा सुख देना है और कौन सा दुख, भगवान ने ही तय कर दिया। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अब लोग मांग रहे हैं, मुठ्ठी भर राहत सरकार से, मैं तो भगवान की ओर देख लेती हूँ! इतना होने पर भी सुख की दो बूँद का प्रसाद देते रहना। अपनों से ना सही अपने आप से ही सुख की अनुभूति करा देना। जो मिला उसे भी सम्भाल नहीं पाए, तब भगवान ने कहा कि अकेले रहकर देख लो, शायद अकेलापन ही रास्ता दिखा दे! </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">खैर, सभी का लेखा-जोखा होता है, सरकार भी बनाती है और आम आदमी भी। मैं नहीं बनाती। ज़िन्दगी को संघर्ष मानकर चलती हूँ। संघर्ष करते हुए जब लम्बी सांस लेने का अवसर मिल जाता है तो उसे सुख मान लेती हूँ और चलती रहती हूँ। मेरा को बजट यही है, कितना सुख समेटा और कितना दे दिया बस।</div></div><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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display: block; font-family: inherit; font-size: 0.9375rem; line-height: 1.3333; max-width: 100%; min-width: 0px; overflow-wrap: break-word; word-break: break-word;"><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="font-family: inherit; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">फेसबुक पर एक कहानी चल रही है – एक दिन भगवान के साथ। एक युवक के पास एक दिन भगवान पहुँच जाते हैं और पूरा दिन उसके साथ रहते हैं। युवक के व्यवहार में पूर्णतया परिवर्तन आ जाता है क्योंकि उसे लग रहा था कि भगवान मुझे देख रहे हैं। ना गाली दी गयी, ना काम के लिये रिश्वत ली गयी और ना ही घर में भोजन में कमियाँ निकाली गयी। सारा परिवार आश्चर्यचकित था कि यह परिवर्तन कैसे!</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">आपका बचपन याद कीजिए। आप एक परिवार का हिस्सा होते थे, आपके साथ दसों आँखें होती थी, जो आपको समाज के नियमों के विरूद्ध जाने को रोकती थी। परिवार में नवदम्पत्ती को नौकरी के लिये दूसरे शहर में जाना है, साथ में परिवार के एक बच्चे को साथ चिपका दिया जाता था। वह बच्चा परिवार की आँख होता था, नवदम्पत्ती समझते थे कि कुछ भी मनमानी की तो इस बच्चे के माध्यम से बात परिवार के बड़ों तक पहुँच जाएगी। परिवार में बामुश्किल ही गलत बातों का प्रवेश होता था। एक छोटे से बच्चे का साथ भी भगवान का साथ ही होता था।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">विदेशों में संतान के युवा होते ही उनका अधिकार होता है कि वे अपना अलग घर बसा लें। बस बच्चे 16 साल का इंतजार करते हैं। उनके साथ परिवार का बच्चा तक नहीं होता है। पूर्ण स्वतंत्रता! समाज के कैसे भी नियम हो, सारे ही टूट जाते हैं। देश में भी यह चलन आ गया है, लेकिन यहाँ 16 साल के बाद नहीं! अपने पैरों पर खड़ा हुए नहीं की अलग घर बसाने का रिवाज चल पड़ा है। इसका प्रारम्भ भी बॉलीवुड की ही देन है। बॉलीवुड इसके परिणाम भुगतने भी लगा है, न जाने कितने कलाकार आत्महत्या तक कर लेते हैं। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">परिवार में वैसे ही बात चली, पता लगा कि गाली-गलौज की भाषा ही बाहर की भाषा है! मैंने पूछा कि घर में क्यों नहीं है? घर में तो सभी है, वहाँ भला असभ्यता कैसे दिखायें! मतलब अकेले हैं तो असभ्यता और साथ हैं तो सभ्यता! </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">कहानी के मर्म को समझो, भगवान के साथ रहने से ही आप सुधरते नहीं हैं, किसी के भी साथ रहने से आप सुधर जाते हैं। जिस दिन घर में अतिथि आता है, आप की भाषा बदल जाती है। किसी का भी साथ हमारे लिये समाज के नियमों की आँखें होती हैं। हमें लगता है कि हमारा आकलन हो रहा है, हमारी असभ्यता बाहर प्रचारित हो जाएगी। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">हमारा आकलन समाज प्रतिक्षण करता है। अब आप कहेंगे कि कैसे करता है? आपके घर में काम करने वाले कर्मचारी आपके लिये भगवान की आँख है, वे आकलन भी करते हैं और निर्णय भी करते हैं कि आप कैसे हैं। घर से बाहर आपके दूसरे कर्मचारी यही आँख बनते हैं। आप चारों तरफ से घिरे हैं। आप कितने भी अकेले रहने का प्रयास करें, आपका आकलन होता ही है। इसलिये इस सत्य को मानिये कि हर क्षण भगवान आपके साथ है। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">परिवार रूपी सदस्यों के साथ यदि आप रहेंगे तो आपका जीवन सुखद होगा क्योंकि आपको हरपल सुधरने का और सम्भलने का अवसर मिलेगा नहीं तो आप असभ्यता को रोक नहीं पाएंगे। केवल आप ऐश्वर्य के साधन एकत्र करने में ही जुटे रहेंगे फिर वे साधन किसी भी प्रकार से अर्जित क्यों ना हो! क्योंकि भगवान की आँख का डर आपको नहीं है। ना आपके साथ भगवान है और ना ही उसका प्रतिनिधि! फिर एक दिन कोई कहानी पढ़ेंगे और कल्पना करेंगे कि काश मेरे पास भी एक दिन के लिये भगवान आते और मुझे अच्छा बनने का अवसर मिलता। यह अवसर आपके पास हर पल आता है, बस आप इसे समेट नहीं पाते और खो देते हैं। आप अपनी स्वतंत्रता को इतना महत्व देते हैं कि अपने परिवार और अतिथियों से दूर होते चले जाते हैं। पूर्णतया एकाकी। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अजित गुप्ता</div></div></span></div></div></div></div></div><div style="font-family: inherit;"><div class="stjgntxs ni8dbmo4 l82x9zwi uo3d90p7 h905i5nu monazrh9" data-visualcompletion="ignore-dynamic" style="border-radius: 0px 0px 8px 8px; font-family: inherit; overflow: hidden;"><div style="font-family: inherit;"><div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 12px;"><div style="font-family: inherit;"><div class="l9j0dhe7" style="font-family: inherit; position: relative;"><div class="bp9cbjyn m9osqain j83agx80 jq4qci2q bkfpd7mw a3bd9o3v kvgmc6g5 wkznzc2l oygrvhab dhix69tm jktsbyx5 rz4wbd8a osnr6wyh a8nywdso s1tcr66n" style="align-items: center; border-bottom: 1px solid var(--divider); color: var(--secondary-text); display: flex; font-family: inherit; font-size: 0.9375rem; justify-content: flex-end; line-height: 1.3333; margin: 0px 16px; padding: 10px 0px;"><div class="bp9cbjyn j83agx80 buofh1pr ni8dbmo4 stjgntxs" style="align-items: center; display: flex; flex-grow: 1; font-family: inherit; overflow: hidden;"><span aria-label="See who reacted to this" role="toolbar" style="font-family: inherit;"><span class="bp9cbjyn j83agx80 b3onmgus" id="jsc_c_rq" style="align-items: center; display: flex; font-family: inherit; padding-left: 4px;"><span class="np69z8it et4y5ytx j7g94pet b74d5cxt qw6c0r16 kb8x4rkr ed597pkb omcyoz59 goun2846 ccm00jje s44p3ltw mk2mc5f4 qxh1up0x qtyiw8t4 tpcyxxvw k0bpgpbk hm271qws rl04r1d5 l9j0dhe7 ov9facns kavbgo14" style="border-bottom-color: var(--card-background); border-left-color: var(--card-background); border-radius: 11px; border-right-color: var(--card-background); border-style: solid; border-top-color: var(--card-background); border-width: 2px; font-family: inherit; height: 18px; margin-left: -4px; position: relative; width: 18px; z-index: 2;"><br /></span></span></span></div></div></div><div class="ozuftl9m tvfksri0 olo4ujb6 jmbispl3" style="font-family: inherit; margin-left: 12px; margin-right: 12px;"><div class="rq0escxv l9j0dhe7 du4w35lb j83agx80 pfnyh3mw i1fnvgqd gs1a9yip owycx6da btwxx1t3 ph5uu5jm b3onmgus e5nlhep0 ecm0bbzt nkwizq5d roh60bw9 mysgfdmx hddg9phg" style="align-items: stretch; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row nowrap; flex-shrink: 0; font-family: inherit; justify-content: space-between; margin: -6px -2px; padding: 4px; position: relative; z-index: 0;"><div class="rq0escxv l9j0dhe7 du4w35lb j83agx80 cbu4d94t g5gj957u d2edcug0 hpfvmrgz rj1gh0hx buofh1pr n8tt0mok hyh9befq iuny7tx3 ipjc6fyt" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: column; flex: 1 1 0px; font-family: inherit; max-width: 100%; min-width: 0px; padding: 6px 2px; position: relative; z-index: 0;"><div aria-label="Send this to friends or post it on your timeline." class="oajrlxb2 gs1a9yip g5ia77u1 mtkw9kbi tlpljxtp qensuy8j ppp5ayq2 goun2846 ccm00jje s44p3ltw mk2mc5f4 rt8b4zig n8ej3o3l agehan2d sk4xxmp2 rq0escxv nhd2j8a9 pq6dq46d mg4g778l btwxx1t3 pfnyh3mw p7hjln8o kvgmc6g5 cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x tgvbjcpo hpfvmrgz jb3vyjys rz4wbd8a qt6c0cv9 a8nywdso l9j0dhe7 i1ao9s8h esuyzwwr f1sip0of du4w35lb lzcic4wl abiwlrkh p8dawk7l" role="button" style="-webkit-tap-highlight-color: transparent; align-items: stretch; 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font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 12px; margin-bottom: 4px;"><span class="rfua0xdk pmk7jnqg pfx3uekm ay7djpcl ema1e40h q45zohi1" data-html2canvas-ignore="true" style="clip-path: inset(50%); clip: rect(0px, 0px, 0px, 0px); font-family: inherit; height: 1px; overflow: hidden; position: absolute; width: 1px;"></span></div></div></div></div><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-8330641621724459632021-02-01T09:49:00.001+05:302021-02-01T09:49:14.612+05:30झाड़ू-फटके से बचने को काम की तलाश!<p> </p><a href="http://www.sahityakar.com">www.sahityakar.com</a><br />
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">शर्माजी की पत्नी बगुले की तरह एक
टांग पर खड़े होकर घर के काम कर-कर के तपस्या कर रही थी, उसकी एक नजर पतिदेव पर भी
थी कि अब यह नौकरी से सेवानिवृत्त होने वाले हैं तो इनके हाथ में<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>भी झाड़ू-फटका पकड़ा सकूंगी जिससे मेरे काम का
बोझ कम हो सकेगा। लेकिन वह सोचती ही रह गयी और शर्मा जी किसी संस्था में जाकर बैठ
गये। समाज सेवी बन गये थे वे, पत्नी उन्हें परिवारसेवी बनाती उससे पहले ही वे
समाजसेवी बन चुके थे। </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">देश के हर कोने में संस्थाएं खुलने
लगी और शर्माजी जैसे लोग परिवार से छूटकर समाज के काम में व्यस्त हो गये। पत्नियाँ
हाथ मलते ही रह गयी। </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">देश में सबकुछ ठीक चल रहा था, पतियों
को घर से<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>बाहर निकलने के सौ बहाने मिल
चुके थे। बड़े गर्व से कहते भी थे कि हम तो समाजसेवी हैं लेकिन अचानक ही उल्कापात
हो गया। देश क्या दुनिया ही सात तालों में बन्द हो गयी। सभी को घर बैठना था और
पत्नियों के काम में हाथ बँटाना था। नौकर-चाकर सभी तालाबन्दी का शिकार थे तो घर का
काम कराना ही पड़ेगा। लेकिन हमारे देश के खालिस मर्द फिर भी निठल्ले बैठे रहे और
बोर होते रहे। </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">घर का काम नहीं करना तो लोगों की
आँखों में खटकने भी लगे, लोगों के क्या खुद की आँखों में भी खटकने लगे! उन्हें लगा
कि जल्दी ही किसी काम का बहाना नहीं मिला तो घर के काम हाथ में ना आ जाएं! कभी इधर
फोन तो कभी उधर फोन, अरे कोई संस्था तो खोलो, हम कहीं जाकर मुँह तो छिपाएं लेकिन
कोरोना है कि कुछ खोलने ही ना दे। कोरोना मानो कसम खाकर आया हो कि इन कामचोरों को
घर का काम कराकर ही रहूँगा।</span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अंग्रेजों ने इतने क्लब बनाये थे,
जहाँ शान से लोग जाकर ताश पीटते थे, दारू पीते थे, अब वे भी बन्द हो गये थे। काम
भी गया और शान भी गयी! पत्नी के हाथ का झाड़ू-फटका उनकी ओर टिकटिकी लगाए लगातार
देखता रहता कि कब इनके गले पड़ूं लेकिन शर्माजी बचने की तरकीब निकाल ही नहीं पाते।</span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">काम से बचने के और भी तरीके थे जैसे
मन्दिर जाना और भक्त बनना। हाय री किस्मत मन्दिर भी बन्द हो गये! अब घर में ही
पूजा पाठ कर लो, लेकिन घर में पूजा-पाठ का आनन्द नहीं। एकाध घण्टे में ही समाप्त
और फिर झाड़ू-फटका की नजर! सर्दियों में बुरा हाल था, मटर आ गयी, इसे ही छील लो।
मोगरी को चूंट लो। पालक साफ कर लो। नहीं, यह बहुत कठिन काम है! हमें काम चाहिये,
काम। बस हर घर से यही आवाज आने लगी कि बिना काम के बोर हो जाते हैं! झाड़ू-फटका
इंतजार कर रहा है और ये बोर हो रहे हैं! आश्चर्य है! </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">काम से बचने को काम चाहिये! परिवार
की जिम्मेदारी से बचने को बाहर का काम चाहिये! शर्माजी कुछ तो शर्म कर लो। कोरोना
में हर आदमी घर के काम पर लगने लगा है और आप काम की तलाश बाहर कर रहे हैं! कोरोना
से सबक नहीं सीखा, अब भगवान कौन सा अस्त्र प्रयोग में लाएगा? </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">कुछ लोग अपना कम्प्यूटर खोल कर भी
बैठ गये, पहले ज्योतिष का काम भी कम्प्यूटर पर कर लेते थे लेकिन अब ज्योतिष बहुत
बड़ी रिस्क हो गयी। सारी दुनिया के ज्योतिष चुप होकर बैठ गये। </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">शादी-ब्याह भी कम हो गये या फिर
उनमें भी संख्या सीमित हो गयी तो वहाँ की पटेलाई का धंधा चौपट हो गया! अब शादी में
फूफा को बुलाने का नम्बर ही ना लगे तो रूसना-मटकना दूर की कौड़ी हो गयी। यहाँ भी
काम चौपट! </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मरण-मौत तक में जा नहीं पाते
शर्माजी! कोरोना का डर सर पर चढ़कर जो<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>बोलता है! अब यह काम भी नहीं। बेचारे शर्माजी करे तो क्या करे? घर में
आते-जाते समय चुपके से झांक लेते हैं कि कहीं झाड़ू-फटका उनकी ओर टकटकी लगाए देख
तो नहीं रहा! लेकिन शर्माजी ने अभी हार नहीं मानी है, लगे हैं काम की तलाश में।
शायद कोई काम मिल ही जाए तो इस निगोड़े झाड़ू-फटके की आँख से बच जाऊँ! देखते हैं
किस शर्माजी को काम मिलता है और किसे झाड़ू-फटका अपनी चपेट में लेता है!</span><o:p></o:p></p><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-45174749772323739572021-01-30T09:10:00.002+05:302021-01-30T09:10:25.531+05:30अपनों का वार!<p><a href="http://www.sahityakar.com">www.sahityakar.com</a><br /></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">तथाकथित किसान या दलाल आन्दोलन ने कई भ्रम तोड़ दिये हैं। जब भी कोई नया सम्प्रदाय अस्तित्व में आता है तब वह अपनी संख्या बढ़ाने के लिये तलवार भी उठा लेता है। विश्व में अनेक देशों का उदय तलवार के दम पर ही हुआ। लेकिन जिस सम्प्रदाय का जन्म देश और समाज बचाने के लिये हुआ वह भी अपना देश बनाने के लिये तलवार उठा लेगा ! अपने लोगों की रक्षा के लिये नहीं अपितु अपनों पर वार करने के लिये!</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">हर परिवार से एक पुत्र दिया गया, हिन्दू समाज ने एक-एक पुत्र से सिख समाज की नींव रखी। सभी ने इन्हें अपना रक्षक मानकर सम्मान किया। सेना में भी सिख समाज को अलग से सम्मान मिलता रहा है। ओरंगजेब के काल के बाद इस समाज की रक्षक वाली भूमिका दिखायी नहीं दी फिर भी सारा देश सम्मान करता रहा। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">आजादी के समय लाखों की संख्या में सरदार मारे गये और लाखों की संख्या में पलायन कर गये लेकिन उन्होंने बहादुरी का परिचय नहीं दिया। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">पाकिस्तान निर्माण के बाद लाखों की संख्या में सिख समाज भारत के सम्पूर्ण देश में जा बसा, सभी ने उनका स्वागत किया क्योंकि वे हमारे समाज के बड़े पुत्र से बना हुआ समाज था और हमारा रक्त था। लेकिन जैसे-जैसे समृद्धि आयी ये अपने लिये अलग देश की मांग करने लगे। मांग करते-करते कब अपने पुरखों के समाज के सामने तलवार लेकर खड़े हो गये, पता ही नहीं लगा। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">इस दलाल आन्दोलन ने सारे भ्रम तोड़ दिये। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अब किस संगठन पर विश्वास किया जाए! कौन सा रक्षक समाज हमारे सामने तलवार लेकर खड़ा हो जाएगा यह यक्ष प्रश्न बन गया है। हम एक रक्त का नारा लगाते रहते हैं लेकिन कौन सा रक्त हमें अपना समझता है? हाँ यहाँ के प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर हमारा ही रक्त बहता है लेकिन वे हमारे रक्त के प्यासे कैसे हो जाते हैं? आज समाज को और हमें इस मानसिकता को समझने की जरूरत है। कल किस समाज के हाथ में तलवार होगी, इसका भी आकलन करते रहना चाहिये। पृथकता का जैसे ही अंकुर फूटे, समाज को सावधान होने की ज़रूरत है। पता नहीं यह पृथकतावाद कहाँ जाकर रुकेगा?</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><br /></div></div><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-7955223105334226692021-01-29T09:33:00.001+05:302021-01-29T09:33:15.257+05:30 राजतंत्र की भेड़ें<p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><br /></span></p><p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">जी हाँ हम राजतंत्र की भेड़े हैं, गडरियाँ हमें अपनी मर्जी से हांकता है। विगत 6 सालों से देश में लोकतंत्र को स्थापित करने के प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन हर बार राजतंत्र किसी ना किसी रूप में हम भेड़ों को घेरकर अपनी ओर ले जाता है। सदियों से हम राजतंत्र के अधीन रहे हैं याने राज वंश के अधीन। स्वतंत्रता के बाद हमें लोकतंत्र मिला लेकिन वह भी शीघ्र ही राजतंत्र में परिवर्तित हो गया। हम कभी लोकतंत्र के झूले पर झूलते हैं तो कभी राजतंत्र का झूला हमें अपने पलड़े में बैठा लेता है। चूंकि सामान्य व्यक्ति भेड़ों के समान होता है और वह हर पल किसी नेतृत्व का मुँह देखता है। हमारी बुद्धि जितनी भेड़ों के समकक्ष होगी उतनी ही नकारात्मक होती जाती है। हम विकास के स्थान पर विनाश को पसन्द करने लगते हैं। हमें प्रत्येक नकारात्मक संदेश अपने दिल के नजदीक लगता है और हम जिस ईष्ट को पूजते हैं, एक नकारात्मक संदेश से उसी पर वार कर बैठते हैं और दूसरे ईष्ट को अपना लेते हैं।</span></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">सोशल मीडिया ने इन भेड़ों को भी उजागर कर दिया है। ये भेड़ें केवल पिछलग्गू हैं, जैसा किसी ने कह दिया बस उसे ही मान लिया। हमारे देश में इतनी जाति के लोग रहते हैं और प्रत्येक प्रांत में सभी जाति और सम्प्रदाय के लोग हैं। लेकिन कुछ मुठ्ठी भर लोगों के मन में राजा बनने का ख्वाब जागा और उन्होंने अपनी भेड़ें एकत्र करना शुरू किया। अपने खेत में थोड़ा चारा डाला और अपने पाले में बैठा लिया। बस उपद्रव शुरू। सभी को राजा बनना है, और राजा बनने के लिये कटना भेड़ों को ही है! यह भी तय है कि कोई भेड़ राजा नहीं बन सकती लेकिन वे तो भेड़ें हैं और भेड़े तो पिछलग्गू ही होती हैं!</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">राजा को पता है कि मेरी भेड़े पूरी दुनिया में फैली हैं, एक कुएं में नहीं समा सकती लेकिन फिर भी जिद है कि मुझे मेरी भेड़ों के लिये अलग देश चाहिये। यहीं से लोकतंत्र पर आक्रमण शुरू होता है। हम सोचते हैं कि चारों ओर बस हमारे ही लोग होंगे, अपने ही अपने लोग तो कोई दुख नहीं होगा! लेकिन ये लोग भूल जाते हैं कि हम परिवार में भी एकजुट नहीं रह पाते, भाई-भाई ही सबसे बड़े दुश्मन होते हैं तो एक देश में कैसे खुश हो जाएंगे?</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">एक परिवार को हम बचा नहीं पाते हैं और एक देश की मांग कर बैठते हैं! पाकिस्तान इसी मांग पर बना था, आज वहाँ के क्या हाल हैं? लेकिन जिसमें भी गड़रिये के गुण हैं वे भेड़ों को हांकने लगता है और लोकतंत्र को राजतंत्र में बदलने लगता है। प्रजा कहती है कि हमें तो बस राजकुमार ही चाहिये फिर वह कितना ही अबोध क्यों ना हो! देश में कितने राजकुमार पैदा हो चुके हैं, उनकी नेतृत्व क्षमता भी दुनिया देख रही है लेकिन फिर भी भेड़े कह रही हैं कि नहीं हमें हमारा राजकुमार ही चाहिये। इसलिये मुझे लगने लगा है कि लोकतंत्र की उम्र अधिक नहीं है। किसी ना किसी प्रकार का राजतंत्र स्थापित होकर ही रहेगा क्योंकि हम अधिकांश भेड़ें हैं और हमें एक गड़रिये की ही जरूरत हर वक्त रहती है। हम भेड़े बस यूँ ही कटती रहेंगी और गड़रियां हमें ऐसे ही उकसाता रहेगा। जैसे पहले देश में 565 राजवंश थे, कमोबेश उतने राजा तो भेड़ों को एकत्र करने में आज भी जुटे हैं। शायद यह अच्छा भी हो, क्योंकि हमें तब भेड़ बनकर केवल मिमियाना ही है। देखते हैं कि लोकतंत्र के पर्व से शुरू हुआ ताण्डव लोकतंत्र को कब तक समाप्त कर पाता है! पुराना युग कब लौटकर वापस आएगा जब हम पुन: राज दरबार में हाथ जोड़े खडे रहेंगे! माई बाप जो कुछ हैं बस आप हैं हम तो आपके खेत में बैठकर मींगनी कर देंगी जिससे आपको भरपूर खाद मिल सकेंगा और आप को भरपूर ऊन और मांस दे देंगी। बस राजा शान से रहना चाहिये हमारा क्या है, हम तो कैसे भी जी लेंगे! गड़रियों को भेड़े चाहिये और भेड़ों को गड़रियां, बस इसे ही राजतंत्र कहते हैं, लोकतंत्र तो सभी को बराबर अधिकार देता है, ऐसे में कुछ भी सम्भव नहीं है।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><a href="http://sahityakar.com">sahityakar.com</a><br /></div></div><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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से ही सुनते आए हैं। तिलस्मी दुनिया का तिलस्म हमारे सर चढ़कर बोलता रहा है। चन्द्र
कान्ता संतति सका सबस् बड़ा उदाहरण है। लेकिन कल माया-सभ्यता और नाग-लोक को देखकर
आँखें विस्फारित होकर रह गयी! माया-सभ्यता और नाग-लोक मिला भी तो कहाँ – अमेरिका में!
डिस्कवरी चैनल पर ग्वाटेमाला के घने जंगलों में एक पुरातत्व वैज्ञानिक खोज में लगा
है, वह हजारों की संख्या में बने पिरामिड़ों का अध्ययन कर रहा है, उसे खोज हैं नाग-राजा
के पिरामिड़ की। क्योंकि राजा के पिरामिड़ में ही अकूत खजाना होने का अनुमान है।
बीसियों साल हो गये, खोज निरन्तर जारी है, न जाने कितने पिरामिड़ खोज लिये गये हैं
लेकिन अभी राजा का<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>पिरामिड़ खोजना शेष है।</span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">एंकर<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>बता रहा है कि यह दुनिया का विशालतम साम्राज्य
था, शायद ईसा से 300-400 वर्ष पूर्व। इन जंगलों में हजारों की संख्या में पिरामिड़
हैं। घने वृक्षों के बीच जहाँ भी कोई टीले जैसी ऊँची पहाड़ी दिखती है, वहाँ
पिरामिड़ होता है। इतना बड़ा सम्राज्य आखिर नष्ट कैसे हो गया? कहते हैं कि सभ्यता
के विकास में वृक्षों के संरक्षण का ध्यान नहीं रखा गया और धीरे-धीरे जंगल कटते
चले गये और एक दिन सारा साम्राज्य भरभरा के जमीदोंज होकर समाप्त हो गया! इसे नाम दिया
गया माया सभ्यता। </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हमारे यहाँ भी माया सभ्यता और
नाग-लोक की चर्चा है, महाभारत में तो पूरा कथानक है। शायद भारत की सभ्यता भी यहाँ
से जुड़ी हो! पिरामिड़ों में घूमते हुए पुरातत्व का दल भोजन के लिये आ गया है।
भोजन सजा हुआ है, एक बर्तन में राजमा है, दूसरे में चावल, एक दो व्यंजन और है लेकिन
इनके साथ हैं मक्की की रोटियाँ। बस वे इसे टोटिया कहते हैं। पूरी तरह से भारतीय
थाली। नाग-राजा और रानी की कल्पना भी हमारे पुराणों जैसी ही है। पत्थर<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>पर भी कुछ चित्र नुमा संकेत उभारे गये हैं।</span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">बड़े-बड़े पिरामिड़ आकर्षित करते
हैं, वहाँ के पत्थर को जाँचा-परखा जा रहा है। एक विशाल पत्थर पर चित्र मिल जाते
हैं, वे बताते हैं कि ये संकेत हैं कि यहाँ नाग-राजा का पिरामिड़ हो सकता है।
एक<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>पिरामिड को बिना हानि पहुँचाए, ड्रिल
मशीन से छेद किया जाता है और उस छेद में केमरे से देखा जाता है। वहाँ कमरे जैसा
स्थान होने का अंदेशा होता है। यहाँ खोज जारी रहेगी।</span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इतने घने जंगलों में, जहाँ मौसम भी
पल-पल बदलता है, वहाँ पहुँचना भी चुनौति है। हेलिकोप्टर के सहारे, टीम एक टीले पर
पहुँचती है, अभी जाँच-पड़ताल चल ही रही है कि मौसम बिगड़ने लगता है। तूफान का
संकेल मिलने लगता है और वे झटपट दौड़ पड़ते हैं, हेलिकोप्टर की तरफ! खोज का काम
धीरे-धीरे ही हो पाता है। पिछले दो हजार साल से अनखोजी जगह को खोजने में अभी समय
लगेगा। न जाने इस माया-सभ्यता के कितने पहलू निकलकर बाहर आएं! </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">रोमांचकारी अनुभव था, इस
डोक्यूमेंट्री को देखना। मनुष्य निरन्तर अतीत को खोज रहा है, स्वयं को खोज रहा है!
पता तो लगे कि हम आज जिस सभ्यता के दौर में जी रहे हैं, कल की सभ्यता क्या थी? आज
जिस विज्ञान को लेकर हम फूलें नहीं समा रहे, उस युग में कौन सा ज्ञान था? अभी बहुत
कुछ खोजना शेष है। ईसा से पूर्व की दुनिया को खोजना शेष है! हमारे यहाँ तो महाभारत
और रामायण के माध्यम से उन्नत सभ्यता के दर्शन होते हैं लेकिन क्या शेष विश्व में
भी इतनी उन्नत सभ्यताएं थी? मीलों तक फैले इस विशाल साम्राज्य में कितना कुछ छिपा
है अभी शेष है। कहानी बहुत बड़ी होगी शायद महाकाव्य जैसी! मनुष्य के परिश्रम की
कहानी, मनुष्य के ज्ञान की कहानी और मनुष्य के विनाश की कहानी!</span><o:p></o:p></p><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-77949265777664290472021-01-10T10:32:00.002+05:302021-01-10T10:32:47.178+05:30एक पक्षी की कुटिया<p> </p><p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अपने आसपास से इतर आखिर दुनिया क्या
है? हमारी सोच से परे आखिर दुनिया की सोच क्या है? दुनिया देखने के लिये झोला लेकर,
दुनिया की सैर तो नहीं की जा सकती है बस टीवी ही हमें दुनिया दिखा देती है।
मनुष्यों की दुनिया कमोबेश एक जैसी है, वही सत्ता का संघर्ष, वही अहंकार का वजूद! दुनिया
के हर कोने के मनुष्य का यही फलसफा है, बस अधिकार और अधिकार। </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">डिस्कवरी से प्रकृति को देखने की चाहत
बहुत कुछ दिखा देती है, तब लगता है कि मनुष्य को अभी बहुत कुछ सीखना है। प्रकृति
में सामंजस्य है लेकिन जागरूकता भी है। अपने परिवार की रक्षा कैसे करनी है, वे
जानते हैं। प्रणय से लेकर नयी पीढ़ी के पंख आने तक कैसी साधना करनी है, वे जानते हैं।
उनकी साधना का प्रकार बदलता नहीं है, छोटे से जीवन में भी पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही
साधना चली आ रही है, कुछ बदलता नहीं।</span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">एक सुन्दर सा पक्षी, कबूतर से कुछ
बड़ा, घने जंगल में फूल एकत्र कर रहा है। सुन्दर बीजों का ढेर सजा दिया है। तिनकों
से झोपड़ी बना ली है। लग रहा है कि जंगल में किसी तपस्वी कन्या ने घर सजाया है। जब
सब कुछ सज गया है, तब प्रणय निवेदन के लिये पुकार के स्वर गूंज जाते हैं। साथी
पक्षी आता है, प्रणय निवेदन स्वीकार करता है और कुटिया में परिवार का डेरा सज जाता
है। इतना सुन्दर दृश्य, मन कहीं खो सा गया, एक पक्षी का सौन्दर्य बोध सीधे दिल में
उतर गया। अभी तक बया-पक्षी के घौंसले को ही उत्सुकता से देखा है लेकिन इस पक्षी की
कुटिया को देखकर मन रीझ सा गया! </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इतनी सुन्दर कुटिया तो बचपन में भी
नहीं बना पाए थे! बरसात की भीगी मिट्टी, पैरों के ऊपर मिट्टी की तह जमा देना और
फिर आहिस्ता से पैर को बाहर निकाल लेना! फिर फूल चुनकर लाना, उस घरोंदे को सजाना,
एक खूबसूरत अहसास था। लेकिन इस पक्षी की खूबसूरती किसी भी पैमाने से नापी नहीं जा
सकती थी! बेहद खूबसूरत। </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पहाड़ की ऊँची सतह, जहाँ मिट्टी की
पर्त थी, वहीं कोटरों में घौंसले बने थे। बाज पक्षी के छोटे-छोटे बच्चे वहाँ रह
रहे थे। बाज पक्षी अपनी यात्रा<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>पर है,
शायद भोजन की तलाश में गया है। लेकिन उसकी दृष्टि में उसका परिवार है। वह देखता है
कि एक विशालकाय अजगर पहाड़ की ऊँचाई पर चढ़ रहा है. तेजी से आगे बढ़ रहा है।
बाज<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>पक्षी ने उड़ान भर ली है। अभी अजगर
कोटर तक नहीं पहुँच पाया है और बाज उस पर प्रहार कर देता है एक ही झटके में अजगर, हवा
में तैरता हुआ पहाड़ से गिरने लगता है। बाज पक्षी को अभी भी विश्वास नहीं, वह पीछा
करता है। बीच पहाड़ में जहाँ अजगर को जमीन मिलने के आसार दिखते हैं, वह वहाँ से भी
उसे धकेलता है। तब कहीं जाकर निश्चिन्त होता है।</span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अपने परिवार को अपनी नजर में रखना,
प्रकृति सिखाती है। लेकिन मनुष्य भूल गया है। परिवार को छोड़ देता है, समाज को
छोड़ देता है और देश को भी छोड़ देता है। बस अकेला ही दुनिया को जीतने निकल पड़ता
है! कहते हैं कि मनुष्य प्रकृति को जीतने निकला है लेकिन लगता ऐसा है कि वह
प्रकृति को जान भी नहीं<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>पाया है! प्रत्येक
जीव अपनी परम्परा से बंधा है, जो उसके पूर्वज करते रहे हैं, बस वह भी वही कर रहा
है। उसके गुण-सूत्रों में ही समाहित हो गये हैं, उसी से उसकी पहचान है। लेकिन
मनुष्य बस परिवर्तन दर परिवर्तन कर रहा है, उसकी<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>पहचान क्या है? कहीं खो सी गयी है। क्या मनुष्य रक्षक है या भक्षक? वह अपने
युगल के साथ भी ढंग से व्यवहार नहीं कर पा रहा है। जब युगल से ही व्यवहार का<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>पता नहीं है तब अन्य प्रणियों के साथ सामंजस्य
कैसे रख सकेगा? </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 10.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">लगता है मनुष्य को प्रकृति से बहुत
कुछ सीखना है, सामंजस्य<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>बनाकर चलना है। जो
उसके मूल गुण-सूत्र हैं, उन्हीं पर कायम रहना है। अपने सौन्दर्य बोध को जिंदा रखना
है। बहुत उन्नति कर ली है मनुष्य ने लेकिन फिर भी इन छोटे से प्राणियों से हार जाता
है। उस छोटे से पक्षी जैसा सौन्दर्य बोध शायद मनुष्य ने खो दिया है। वह प्रणय
निवेदन करना भी भूल गया है। अपने अधिकार को जगा लिया है, सब कुछ छीनकर प्राप्त
करना चाहता है। शायद प्रकृति का सौन्दर्य बोध उससे दूर होता जा रहा है! सब कुछ
कृत्रिम सा है! प्रकृतिस्थ कुछ भी नहीं! काश हम<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>प्रकृति के साथ चले होते, जैसे हमारे ऋषि-मुनियों की दुनिया थी! किसी पड़ाव
पर तो शान्ति मिलती! जीवन के अन्तिम पड़ाव पर खोज रहे हैं कि कहाँ बसेरा हो? लेकिन
कृत्रिम दुनिया के मकड़जाल में ऐसे फंसकर रह गये हैं कि कहीं मार्ग दिखता नहीं।
फूलों को एकत्र करने की चाहत भी जैसे इस कृत्रिमता के नीचे दब गयी है। काश हम भी
उसी पक्षी की तरह बन पाते, जो अपनी चोंच के सहारे ही इतना सुन्दर घर बना लेती है! <o:p></o:p></span></p><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-61479510184464501642020-08-31T10:27:00.001+05:302020-08-31T10:27:17.472+05:30खिलौनों का संसार<p><a href="www.sahityakar.com">www.sahityakar.com</a><br /></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अमेरिका में हम एक परिवार से मिलने गये, कुछ देर
में ही बात चल पड़ी खिलौनों पर! वे आपस में पूछ रहे थे कि तुम्हारे बच्चे के पास
कौन सा खिलौना है? अभी नया खिलौना जो बाजार में आया है, वह खरीदा है या नहीं! मैं
आश्चर्यचकित थी कि खिलौने भी आपके रहन-सहन की सीमा तैयार करते हैं क्या! बच्चे भी
खिलौनों की जरूरत समझने लगे, यदि उसके पास है तो मेरे पास भी होना ही चाहिये।
दुनिया में जो है या था, उसे खूबसूरत खिलौने में ढाल दिया गया था। डिज्नीलैण्ड तो
खिलौनों की दुनिया ही है। अमेरिका, यूरोप आदि विकसित देशों में सारी दुनिया को
खिलौनों के रूप में बच्चे के सामने ला दिया। अब बच्चा सोते-जागते उसी दुनिया में
जीने लगा। टॉय स्टोरी प्रमुख हो गयी और वास्तविक कहानी पीछे धकेल दी गयी। खिलौना
उद्धोग बढ़ता गया और बच्चा सिमटता गया। उसकी दुनिया केवल मात्र खिलौने हो गये।</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मोदीजी ने मन की बात कही। खिलौनों पर बात रखी।
खिलौने हमारे बचपन को कैसे सृजनात्मक बनाते रहे हैं, यह हम सब जानते हैं। हमने
खिलौने से लेकर ट्रांजिस्टर, पंखे आदि सभी खोलकर देखे हैं कि यह कैसे चलते हैं और
इन्हें कभी वापस जोड़ लिया जाता था और कभी जोड़ नहीं पाते थे। बस वहीं से सृजन की
शुरुआत हुई थी। अब थीम पर आधारित खिलौने बनने लगे हैं, जिससे बच्चे बहुत कुछ सीख
जाते हैं। लेकिन थीम कुछ ही विषय पर बनती हैं। भारत में कहानी की भरमार है, हर
प्रदेश के अपने नृत्य हैं, वेशभूषा है, मन्दिर हैं। यदि हम नृत्य शैली और उनकी
वेशभूषा को आधार बनाकर एक थीम बनाएं तो कितनी सुन्दर खिलौनों की दुनिया होगी! प्रदेश
के मन्दिरों की थीम बनाकर खिलौने बनाएं तो कितनी सुन्दर होगी! हमारे पौराणिक कथानकों
पर कितने डिज्नीलैण्ड बन सकते हैं! दुनिया में लोगों के पास कितनी कहानियां हैं?
भारत के पास अनगिनत कहानियां हैं। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">भारत में ऐसी संस्कृति है जो जीवन के प्रत्येक
पहलू को दिखाती है, गृहस्थी-परिवार से लेकर देश तक के दर्शन कराती है। हमारे यहाँ
खिलौना का संसार बस सकता है। न जाने कितने डिज्नीलैण्ड बन सकते हैं! हमारे यहाँ
कठपुतली के रूप में कुछ प्रयोग हुए हैं, ऐसे ही प्रयोग खिलौनों में होने चाहियें।
न जाने कितने कलाकरों को नवीन सृजन का अवसर मिलेगा! बस आवश्यकता है, खिलौना
व्यवसाय को नया रूप देने की। जब देश का प्रधानमंत्री लोगों का आह्वान करता है तब
लोग इस उद्धोग में रुचि लेंगे ही। बस आवश्यकता है भारतीय दृष्टिकोण की। एक बार
कलाकार को समझ आ जाए कि कैसे भारत की कला का दुनिया को परिचय कराया जा सकता है, बस
तभी बात बनेगी। <o:p></o:p></span></p><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-76669355287956206782020-08-28T11:02:00.000+05:302020-08-28T11:02:08.291+05:30घौंसला बनाता नर-बया<p><a href="www.sahityakar.com">www.sahityakar.com</a><br /></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">शाम को घूमने का एक ठिकाना ढूंढ लिया है, एक ऐसा
गाँव जहाँ पर्याप्त घूमने की जगह है। जहाँ जंगल भी है, और जंगल है तो पक्षी भी
हैं। नाना प्रकार की चिड़ियाएं हैं जिनकी चींचीं से हमारा मन डोलता रहता है। काश
हम इनकी भाषा समझ पाते! हम देख रहे हैं एक पेड़, जहाँ बया के खूबसूरत कई घौंसले
लटक रहे हैं। अभी अधूरे हैं, नर-बया उन्हें बुनने में लगे हैं। मादा बया खुशी से
प्रफुल्लित होकर चींचीं कर रही है। मादा-बया की खुशी से नर-बया उत्साहित होकर
घौंसला बनाने में फुर्ती लाता है। दौड़-दौड़कर तिनके ला रहा है और बहुत ही
खूबसूरती<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>से उन्हें घौंसलों में बुन रहा
है। धीरे-धीरे घौंसला तैयार हो रहा है। मादा बया का निरीक्षण शुरू हो गया है। यह
क्या? एक घौंसला अधूरा छूट गया है! अब नर बया दूसरे घौंसले पर काम कर रहा है! पता
लगा कि मादा बया ने कहा कि यह घौंसला ठीक नहीं बन रहा है, इसमें गृहस्थी नहीं
जमायी जा सकती है। बस मादा बया ने रिजेक्ट कर दिया तो रिजेक्ट हो गया। नर क्या
करता! उसने फिर मादा बया को खुश रखने का प्रयास किया। पेड़ पर ऐसे अधूरे और पूरे
कई घौंसले हो गये। अब मादा बया स्वीकृति देगी तो गृहस्थी बनेगी और फिर अण्डे
सुरक्षित रह पाएंगे। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हम प्रतिदिन देख रहे हैं, नर-बया का कृतित्व।
चित्र लेने का प्रयास भी करते हैं लेकिन चिड़िया आती है और फुर्र हो जाती है। हम
आपस में बया की कहानी कहने लगते हैं फिर किसी पेड़ की जानकारी बताने लगते हैं और
एक घण्टा घूमने का कब पूरा हो गया, खबर ही नहीं लगती! हमारे सामने प्रकृति है, कभी
मोर को उड़ते देखते हैं। नाचते तो सभी ने देखा ही होगा लेकिन मोर उड़कर कैसे
दूरियाँ नाप लेता है, यह भी देख लिया है। प्रकृति को समझने और देखने का जितना सुख
है, यह सुख बहुत प्यारा है। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">कभी इस निर्जन जगह पर कुछ युवक बोतल लिये युवा भी
दिख जाते हैं, साथ में चबेना भी है। वे प्रकृति को देखने नहीं आए हैं अपितु
प्रकृति की गोद में बैठकर छिपने आए हैं। वे प्रकृति को समझ ही नहीं पा रहे हैं।
उन्होंने प्रकृति के बारे में कुछ पढ़ा ही नहीं है। उनमें जिज्ञासा ने जन्म ही
नहीं लिया है। वे तो भोग में लगे हैं, इस निर्जर जंगल में डर पैदा करने में लगे
हैं। यही तो असुरत्व है। डर पैदा करो। कल दो माँ-बेटी भी हमें देखकर यहाँ आ गयीं।
उन्होंने बताया की बस पहाड़ी के उस पार ही हमारा गाँव है लेकिन यहाँ आने की कभी
हिम्मत नहीं की। हमने पूछा क्यों? वे बोली की लोग कहते हैं कि यहाँ लोग शराब पीने
आते हैं, बहुत कुछ हो जाता है यहाँ।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>हमने
कहा कि कुछ नहीं होता, रोज आया करो। अब वे निर्भय हो गयी है, आने लगी हैं। लेकिन
प्रश्न जो मेरे मन में उदय हो रहा था कि लोग यहाँ आकर प्रकृति में क्यों नहीं खो
जाते हैं? क्यों वे यहाँ असुरत्व पैदा करते हैं? शायद इसका कारण है हम पढ़ते ही
नहीं हैं। आज का युवा भोगवाद के पीछे भाग रहा है, वह किताबों को हाथ ही नहीं लगा
रहा है! उसे पता ही नहीं है कि जीवन कैसे बनाया जाता है। क्या अमीर और क्या गरीब
सारे ही सुख के साधनों के पीछे भाग रहे हैं। अपनी हैसियत को धता बताकर माता-पिता
को भी दुत्कार, बस सुख के साधन उनकी जीवन नैया हो गयी है। वे प्रकृति को देख ही
नहीं रहे हैं कि प्रकृति में एक छोटी सी चिड़िया कितना परिश्रम करती है। परिश्रम
करने पर ही उसे गृहस्थी का सुख मिलता है। लेकिन हम बोतल लेकर यहाँ आते हैं। ज्ञान
नहीं है, तभी तो कुछ देख ही नहीं पाते। यदि ज्ञान होता तो बोतल घर पर भी याद नहीं
आती। बस प्रकृति में ही खो जाने का मन करता। काश हम ज्यादा समय वहाँ रह पाते। उस
बया के घौंसले बनाने वाले नर-बया से कुछ और सीख लेते!<o:p></o:p></span></p><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-32390598402769964012020-08-21T10:52:00.001+05:302020-08-21T10:52:30.576+05:30हम ऊर्जा कहाँ से लेते हैं?<p> </p><p class="MsoNormal"><span style="font-family: Mangal, serif; font-size: 12pt;"><a href="www.sahityakar.com">www.sahityakar.com</a><br /></span></p><p class="MsoNormal"><span style="font-family: Mangal, serif; font-size: 12pt;">कल माँ और बेटे के बीच हुई रोचक बात सुनिये।
परिवार की बात नहीं है ना ही सामाजिक है, विज्ञान की बात है। लेकिन आप सभी को पढ़
लेनी चाहिये और अपनी राय भी देनी चाहिये जिससे यह बात आगे बढ़े। तो सुनिये – कल ही
समाचार पत्र में एक समाचार प्रकाशित हुआ था कि धरती पर भार बढ़ रहा है इस कारण
चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन हो रहा है और यदि ऐसा ही रहा तो धरती दो भागों में
विभक्त हो जाएगी!</span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मैंने बेटे को बताया कि यह क्या है? अब वह
इंजीनियर है तो विज्ञान क्षेत्र में कुशल ही है। वह बोला कि मैंने भी पढ़ा था।
प्रश्न यह है कि भार कैसे बढ़ रहा है? पृथ्वी की ऊर्जा से ही सब कुछ बनता है, यहाँ
की ऊर्जा यहाँ ही लगती है तो भार कैसे बढा? </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मैंने कहा कि पृथ्वी तो कण पैदा करती है लेकिन हम
मण हो जाते हैं!</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">उसने कहा यह सब इसी ऊर्जा से होता है। यदि किसी
की मृत्यु होती है तो इसी उर्जा में समा जाती है। मेरी जिज्ञासा बढ़ रही थी, पूछा
कि मतलब पंचतत्व में विलीन हो जाती है? लेकिन हम तो जलकर शीघ्र ही पंचतत्व में विलीन
हो जाते हैं और वे जो दफन होते हैं? </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">वे भी कभी ना कभी पंचतत्व में विलीन होते ही हैं।
मतलब यहीं की ऊर्जा यहीं पर काम आ गयी। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अब मेरा जो प्रश्न था वह ही धमाका था, मैंने पूछा
कि हम तो ऊर्जा सूर्य से भी लेते हैं और सारे ही जीव जगत सूर्य के कारण ही बढ़ते
हैं, तो यह तो पृथ्वी के अतिरिक्त हुआ ना! फिर हमारे इतने ग्रह हैं जिनकी ऊर्जा भी
हम लेते ही हैं! हमारे यहाँ ज्योतिष विज्ञान है जो कहता है कि<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>हमारे जीवन में ग्रहों का प्रभाव होता है, तो
सत्य ही है। हम सभी से ऊर्जा लेते हैं तो सभी से प्रभावित भी होते हैं। इसलिये
ज्योतिष एक बहुत बड़ा विज्ञान है, जिसे समझना अति आवश्यक है। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इस एनर्जी याने की ऊर्जा के सिद्धान्त ने हम
दोनों को ही अवाक कर दिया, उसने कहा इसे मैं विस्तार से पढ़ूंगा। विज्ञान कुछ भी
कहे लेकिन मुझे तो समझ यही आया है कि ज्योतिष ज्ञान है और अब इसे बिन्दू-बिन्दू के
रूप में समझकर विज्ञान की तरह सिद्ध करना होगा। कब मंगल से हम उर्जा लेते हैं, कब
बृहस्पति से और कब बुद्ध से! इसी के अनुरूप<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>हमारा जीवन<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>बनता है। बस यह विज्ञान
समझने की जरूरत है, फिर बहुत सारी गुत्थियाँ सुलझ जाएंगी। शायद यह भी पता लगे कि
कौन सा वायरस किससे ऊर्जा ले रहा है! </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अपने बच्चों से ऐसी रोचक बातें करते रहिये, बहुत
नवीनता मिलती है। वैसे आप सब करते ही होंगे लेकिन थोड़ा कुरदेकर सीखने की दृष्टि
से करेंगे तो सार्थक परिणाम मिलेंगे।</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-20178474130333303172020-07-31T10:19:00.001+05:302020-07-31T10:19:03.502+05:30फेसबुक का कमरा<p class="MsoNormal"><a href="www.sahityakar.com">www.sahityakar.com</a><br /></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हमारे यहाँ कहावत है कि दिन में कहानी सुनोंगे तो
मामा घर भूल जाएगा! यहाँ मामा का रिश्ता तो सबसे प्यारा होता है, भला कौन बच्चा
चाहेगा कि मामा ही घर का रास्ता भूल जाए! माँ जब<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>बच्चों से कहती है, तब बच्चे जिद नहीं करते और रात को ही आकर कहानी सुनते
हैं लेकिन यह जुकरबर्ग ने तो हमें कठिनाई में डाल दिया! फेसबुक की हमारी दीवार पर
लोगों की कहानी चिपका दी। अब दिन उगते ही हमें स्टोरी याने की कहानी पढ़नी पड़ती
है। एक को सरकाओ तो दूसरी तैयार है, कब तक सरकाओगे! जुकरबर्ग कह रहा है कि मैं
मामा का रास्ता<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>बन्द कराकर ही रहूंगा। भला
यह भी कोई बात हुई! तुम्हारा मामा तुम्हें प्यार नहीं करता होगा, हमारे देश में तो
शकुनी मामा तक भानजे से प्यार करता था। हमने जिद ठान ली कि हम कहानी दिन में नहीं
पढ़ेंगे, जुकरवा ने अब हमारे ऊपर एक अदद कमरा तान दिया! यह फेसबुक है या कमरा
बनाने की जगह! कमरा बन्द कर लेंगे और चाबी खो जाएगी तो क्या होगा? कोई जोर
जबरदस्ती है क्या कि कहानी भी पढ़ो और कमरे में भी झांको!</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हमने आजतक किसी के कमरे में ताक-झांक नहीं की। अब
सरेआम कहा जा रहा है कि कमरे में जाओ! अपनी फोटो चिपकाकर कहानी से पेट नहीं भरा जो
कमरा छान दिया हमारी दीवार पर! सुबह उठकर हम प्रभु को प्रणाम तो कर नहीं पाते लेकिन
यहाँ जरूर करना पड़ता है। एक अदद मेसेंजर से ही दुखी थे और ऊपर से यह और लाद दिया
हमारे ऊपर! ऐसा लग रहा है जैसे यूआईटी वाले कह दें कि खाली छतों पर आप अपना कमरा
बना लीजिये। कर लो बात! छत मेरी और कमरा तेरा! किस-किस पर ताला लगाएं, जहाँ भी
खुला रह जाता है, वहीं दूसरे के कब्जे होने का डर बना रहता है। सारे ही हमारी वॉल पर
लिखने को टेग करते ही रहते हैं, अब कमरा और तान दिया! एक कोरोना से परेशान है कि
वह मौका तलाश रहा है, हमारे शरीर में अपना खूंटा गाड़ने के लिये। जरा सी नाक खुली
रह जाए तो वह घुस जाता है,<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>फिर तो उसी का
राज हो जाता है। दूसरी तरफ फेसबुक का आतंक है कि चारों तरफ से आक्रमण हो रहे हैं। किले
को चारों तरफ से घेर लिया है, चारों तरफ की दीवारे देखी जा रही हैं, जाँच पड़ताल
जारी है कि कहाँ से घुसा जाए! एक तरफ मेसेन्जर की दीवार है, यह सबसे कच्ची है.
यहाँ आराम से घुसा जा सकता है, दूसरी टेग की दीवार है, यहाँ थोड़ी सी अड़चन है। अब
स्टोरी की जगह<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>देने से इस दीवार में भी
रास्ता निकल सकता है और कमरे को<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>भी भेदकर
घुसा जा सकता है! याने कि किला चारों तरफ से असुरक्षित<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>है! हे मेरे जुकरबर्ग! हमारी इस मुखपुस्तिका को
थोड़ा सा सुरक्षित कर दो। हम तो अपना कीमती सामान मन्दिर के खजाने में सुरक्षित
समझकर रख रहे हैं और आप हैं कि हमें चारों और से बेपर्दा कर रहे हैं। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हटा दीजिए ना हमारे ऊपर से ये कमरें और कहानी की दीवार।
हम वैसे ही पढ़ाकू टाइप के लोग हैं, पढ़ ही लेंगे। क्यों हमारे घर पर आकर ही
सत्यनारायण की कथा करनी है! ढ़ोल- मंजीरे अपने घर पर ही बजा लीजिये। हमें कुछ
शान्ति चाहिये। हमारी बात आपको समझ आए तो सुन लीजिये, नहीं तो हम भला क्या कर सकते
हैं! </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p><br /><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-91404791777594109952020-07-29T10:32:00.001+05:302020-07-29T10:32:39.202+05:30सूरज को पाने की जंग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal">
<a href="http://www.sahityakar.com/">www.sahityakar.com</a></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हमारे बंगले की हेज और गुलाब के फूल के बीच
संघर्ष छिड़ा है, हेज की सीमा बागवान ने 6 फीट तक निर्धारित कर दी है। इस नये
जमाने में, मैं बंगले और हेज की बात कर रही हूँ, अरे अब तो नया जमाना है, बस फ्लेट
ही फ्लेट चारों तरफ हैं। लेकिन सोसायटी में भी दीवारें हैं और इन दीवारों के सहारे
हेज को जगह मिली हुई है। मैं छोटे शहरों की बात कर रही हूँ, जहाँ अभी भी छोटे-बड़े
बंगलें होते हैं और साथ में होती है हेज। हेज हमें सड़क से पृथक भी करती है और एक
झीना सा पर्दा हमारे और सड़क के बीच डाल देती है। बागवान ने हेज के साथ गुलाब की
डाली भी रोप दी। गुलाब बढ़ने लगा, उसे सूरज की किरणों की चाहत हुई, वह तेजी से बढ़ा।
देखते ही देखते गुलाब की नन्हीं सी डाली हेज के ऊपर निकल गयी। बागवान आए और डाली
को सीमित कर जाए लेकिन गुलाब माने ना! उसे तो सूरज का प्रकाश चाहिये ही, क्योंकि
उसे फूल खिलाने हैं, बगिया में ही नहीं अपितु वातावरण में सुगन्ध फैलानी है। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मुझे रोज लगता है कि मेरी छोटी सी बगिया में मानो
सूरज को पाने के लिये रोज संघर्ष छिड़ता है। एक बार बचपन में मसूरी गये थे, वहाँ
लम्बे-लम्बे देवदार के वृक्ष हैरान कर रहे थे। गहरे जंगल में उगे देवदार सूरज को
पाने के लिये जंग छेड़े हुए थे। बस बढ़ते ही जा रहे थे, जब तक सूरज का प्रकाश ना
मिल जाए! मेरे गुलाब भी बढ़ते ही जा रहे हैं, जब तक सूरज का प्रकाश ना मिल जाए!
गुलाब और देवदार प्रकृति के साथ रहते हैं, अपने रास्ते स्वयं तलाश लेते हैं। गुलाब
नाजुक है और देवदार सुदृढ़, लेकिन दोनों ने ही अपना हित साध लिया है। वे जान गये
हैं कि बिना सूर्य प्रकाश के हमारा जीवन नहीं है! लेकिन इन्हीं देवदार और गुलाब को
गमले में कैद करके घर की दीवारें के बीच सजा दो तो? वे रुक जाएंगे, वहीं थम
जाएंगे। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मेरे बंगले में दो सीताफल के पेड़ भी लगे हैं, हर
साल इतने सीताफल आ जाते हैं कि बाजार से खरीदना नहीं पड़ता लेकिन इस बार सीताफल बहुत
ही कम आए, क्योंकि बारिश ही नहीं है। प्रकृति जो पानी दे रही है, वह नहीं मिला और
जब पानी नहीं मिला तो सीताफल बड़े नहीं हो पाए और गर्मी से पककर नीचे गिरने लगे।
कमजोर सीताफल को फंगस ने आ घेरा और फिर सब कुछ विनष्ट! लाख दवा डाल लो लेकिन प्रकृति
का साथ नहीं है तो कुछ भी नहीं है। संघर्ष तो सीताफल ने भी किया ही होगा लेकिन वह
गुलाब की तरह वर्षाजल नहीं ले पाया। प्रकृति हमें सूर्य का प्रकाश देती है,
प्रकृति हमें वर्षाजल देती है, लेकिन हम लेते ही नहीं हैं, देने वाला दोनों हाथ से
दे रहा है लेकिन हमने हाथ बांध लिये हैं। हम सिमट गये हैं।</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">हमारे बंगले अब सिमटते जा रहे हैं, फ्लेट ने उनकी
जगह ले ली है। सूरज अब वहाँ झांक भी नहीं सकता। हम जो नयी पौध उगाते हैं उन्हें
सूरज को छूने का अवसर ही नहीं मिलता। हमारे बच्चे सूरज के प्रकाश को सीधा पाते ही
नहीं। वे गुलाब की तरह संघर्ष करके हेज से बाहर निकल ही नहीं पाते। वे कमजोर बनकर
रह जाते हैं। सीताफल की तरह उन्हें भी वर्षाजल चाहिये लेकिन हम छुईमुई बनाकर
उन्हें दूर कर देते हैं। ना धूप मिले और ना वर्षाजल! ना मिट्टी के साथ रहें और ना
ही खुली हवा के साथ! तो फिर कब कौन सा फफूंद हमारे जीवन के आ घेरता है, हमें पता
ही नहीं चलता! छोड़ दो बच्चों को प्रकृति के साथ, कुछ पल तो उन्हें दे दो कि वे
स्वतंत्र होकर सूरज के प्रकाश को ढूंढ सकें। उनकी हड्डियां मजबूत होंगी तो वह लड़
सकेंगे हर<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>रोग से नहीं तो फिर कृत्रिम विटामिन
डी3 खाकर काम चलाना पड़ेगा। सीताफल की तरह कृत्रिमता से पक तो जाएंगे लेकिन अपनी
सुरक्षा कितनी कर पाएंगे पता नहीं!</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<br /></div>
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-27414819410504275802020-07-08T10:16:00.003+05:302020-07-08T10:16:40.156+05:30मैं अभिव्यक्ति हूँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<a href="http://www.sahityakar.com/">www.sahityakar.com</a></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">जी हाँ मैं अभिव्यक्ति हूँ। अपने
अन्दर छिपे हुए भावों को प्रत्यक्ष करने का माध्यम। न जाने कितने प्रकार हैं मेरे!
कितने भावों से भरी हूँ मैं! </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मैं प्रेम को बाहर निकालती हूँ, मैं
आक्रोश को बाहर निकालती हूँ, मैं लोभ को बाहर धकेलती हूँ, मैं विरक्ति को बाहर
प्रकट करती हूँ, मैं अहंकार को सार्वजनिक करती हूँ, मैं स्वाभिमान को फूलों की महक
के साथ जिन्दा करती हूँ। मैं मेरे अन्दर की महक हूँ, मैं मेरे अन्दर की दुर्गन्ध
हूँ, मैं कायरता हूँ, मैं ही साहस हूँ, मैं ही घृणा हूँ और मैं ही आसक्ति हूँ। न
जाने मेरे कितने प्रकार है? 64 कलाओं की तरह मेरे 64 रूप हैं। कभी मैं शब्दों से
प्रकट होती हूँ, कभी नृत्य से तो कभी गान से। कभी मैं रंगों से सजती हूँ और कभी
बदरंग में भी दिखायी देती हूँ। कभी किसी वाद्य से झंकृत होती हूँ तो कभी मौन सी
पसर जाती हूँ। कभी मुखर हो जाती हूँ तो कभी अपने ही अहसासों तले दबकर रह जाती हूँ।
मेरी कल्पना लोग वर्तमान में करते हैं, कभी भूत में भी कर लेते हैं और कभी भविष्य
में भी मुझे पा लेते हैं। मेरे पास न जाने कितनी उपमाएं हैं! मैं रोज ही नये की ओर
कदम बढ़ाती हूँ। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">एक कथा याद आ रही है – शंकराचार्य की
कथा! शंकराचार्य बाल ब्रह्मचारी थे, उन्हें गृहस्थी का ज्ञान नहीं और ज्ञान नहीं
तो अभिव्यक्ति भी नहीं! लेकिन यौन सम्बन्ध ज्ञान का विषय नहीं, यह तो शारीरिक गुण
हैं, जो प्रत्येक प्राणी का आवश्यक गुण है। एक शास्त्रार्थ में उभय भारती ने
प्रश्न कर लिया, पति-पत्नी के सम्बन्धों पर! बस फिर क्या था, शंकराचार्य से उत्तर
देते नहीं बना। उनकी अभिव्यक्ति मौन हो गयी। शरीर के अन्दर सुगन्ध है लेकिन
अभिव्यक्ति का मार्ग नहीं! क्योंकि हमने सात तालों में बन्द कर लिया है!
शंकराचार्य हार की कगार पर खड़े थे लेकिन उभय भारती ने कहा कि मार्ग तलाशकर आओ। एक
माह का समय मिला, शंकराचार्य ब्रह्मचारी ठहरे, मार्ग कैसे तलाशें, अनुभव कैसे लें!
एक रूग्ण और मरणासन्न राजा की काया में प्रवेश किया और अभिव्यक्ति के मार्ग को
प्रशस्त किया। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि अभिव्यक्ति नहीं है तो आप ज्ञान
शून्य ही कहलाएंगे और अभिव्यक्ति है तो ज्ञानवान! सृष्टि में न जाने कितने प्रकार
के जीव हैं, कहते हैं कि कोई एकेन्द्रीय है तो कोई दो-इन्द्रीय तो कोई तीन, कोई
चार और कोई पाँच। सभी में अभिव<span class="msoIns"><ins cite="mailto:Ajit%20Gupta" datetime="2020-01-08T09:52">्</ins></span>यक्ति की क्षमता है। मनुष्य </span><span lang="HI" style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पाँच-इन्द्रीय वाला प्राणी है तो
उसके पास नाना<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>प्रकार की अभिव्यक्ति के
साधन हैं। लेकिन यदि मनुष्य भी अपनी अभिव्यक्ति ना कर सके तो उसमें और एकेन्द्रीय
प्राणी में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। ऐसे प्राणी केवल भोग करते हैं, अभिव्यक्त<span class="msoDel"><del cite="mailto:Ajit%20Gupta" datetime="2020-01-08T09:52">ि</del></span>
नहीं होते। इसलिये संसार में इन्हें भोगवादी कहा जाता है। मनुष्य चूंकि कर्म करता
है, स्वयं को अभिव्यक्त करता है इसलिये वह कर्मवादी कहलाता है।</span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">सभी कुछ अभिव्यक्ति में ही निहीत है।
पर्वत ने स्वयं को अभिव्यक्त कर दिया तो रत्न निकल आते हैं, सागर ने अभिव्यक्त
किया तो अमृत और विष दोनों ही निकल आते हैं। नदी ने अभिव्यक्त किया तो <span class="msoIns"><ins cite="mailto:Ajit%20Gupta" datetime="2020-01-08T09:54">पृथ्वी
के साथ मिलकर </ins></span>दुनिया क<span class="msoIns"><ins cite="mailto:Ajit%20Gupta" datetime="2020-01-08T09:54">े</ins></span><span class="msoDel"><del cite="mailto:Ajit%20Gupta" datetime="2020-01-08T09:54">ो</del></span>
लिये धान पैदा कर देती है। मनुष्य अभिव्यक्त होने लगता है तब सारा ही
ज्ञान-विज्ञान-कला प्रगट होने लगती है। कहाँ मनुष्य प्रकृति के बीच खड़ा था और
कहाँ मनुष्य ज्ञान-विज्ञान-कला को अभिव्यक्त करने के बाद अपने ही बनाए स्वर्ग में
खड़ा है! अब जन्नत की कल्पना की जरूरत नहीं, मनुष्य ने धरती पर ही जन्नत बना ली
है, इसे चाहे जन्नत कह लो, इसे चाह स्वर्ग कह लो और इसे चाहे हैवन कह लो। बस सारा
ही अभिव्यक्ति का खेल है। जितने हम अभिव्यक्त होते जाएंगे उतना ही नवीन संसार रचते
जाएंगे। हमारी आँखों में उतने ही सपने बड़े होते जाएंगे, हमारी कल्पना की दुनिया
विशाल होती जाएगी। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इसलिये हमेशा मन को कहते रहिए कि मैं
अभिव्यक्ति हूँ, बिना अभिव्यक्ति मैं सूक्ष्म प्राणी समान हूँ। इस धरती पर ऐसे
प्राणी भी हैं जो जन्म लेते हैं, जन्म लेते ही शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं,
नवीन जीव को जन्म देते हैं और फिर उनका जीवन समाप्त हो जाता है। लेकिन हम मनुष्य
हैं, हम में अपार ऊर्जा है, हम धरती पर परिवर्तन करने में सक्षम हैं और परिवर्तन
के लिये निरन्तर अभिव्यक्ति करते रहिए। स्वयं को रिक्त करना फिर भरना ही कर्म है,
जैसे कुआं खुद को जितना रिक्त करता है, उतना ही जल वापस भर लेता है। जिस<span class="msoDel"><del cite="mailto:Ajit%20Gupta" datetime="2020-01-08T09:58"> </del></span>के
पास भी कला है, वह निरन्तर झरता रहता है, उसके अन्दर प्रवाह भरा है, वह मार्ग
तलाशता है और जैसे ही उचित मार्ग मिलता है, वह निर्झरणी बन जाता है। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<br /></div>
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-38197335104717303542020-06-16T09:12:00.002+05:302020-06-16T09:12:53.358+05:30पीपल की जड़ें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
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<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
हमारी सामाजिक मान्यताएँ पीपल के पेड़ के समान होती हैं, पेड़ चाहे सूख गया हो लेकिन उसकी जड़ें बहुत गहराई तक फैली होती हैं। वे किसी हवेली के पुराने खण्डहर में से भी फूट जाती हैं। छोटे शहर की मानसिकता सामाजिक ताने-बाने में गुथी रहती हैं, हम कई बार महानगरों में पहुँचकर वहाँ की चाल से चलने लगते हैं लेकिन हमारी मान्यताओं वाले पीपल के पेड़ की जड़ हवेली के खण्डहर में से फूट जाती हैं।<br />हमारे समाज में विवाह सात जन्मों का बन्धन है लेकिन जब कोई विवाह को ही नकारता हुआ, खुल्<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों की तर्ज पर लिविंग रिलेशन में रहने लगे तब वह पीपल की जड़ न जाने कहाँ-कहाँ से फूट पड़ती है। मानसिकता साथ नहीं देती और तू तेरे रास्ते और मैं मेरे, कहकर अलग हो जाते है।<br />मानसिक बैलेंस को बनाकर रखना एक चुनौती है। जैसे ही अनैतिक कदम पड़े और हमारी मान्यताएँ हमें आगाह करने लगती हैं, हम नहीं मानते और कब संतुलन गड़बड़ हो जाता है, पता ही नहीं चलता। जहां भी सामाजिक मान्यताओं के पेड़ सुदृढ़ हैं और उन्हीं के वारिस पेड़ को काटने का प्रयास करते हैं तब पेड़ की जड़ हवेली से भी फूटने लगती है। विशाल हवेली जर्जर होने लगती है। मानसिक संतुलन अवसाद की स्थिति में आ जाता है।<br />बॉलीवुड ऐसी जगह है जहाँ सामाजिक मान्यताओं की धज्जियाँ उड़ा दी गयी हैं। कहते हैं कि कलाकार नैतिक होता है इसलिये फक्कड़ होता है लेकिन जब कलाकार अनैतिकता के दलदल में धंस जाये तो कलाकार कहाँ रह जाता है! वह केवल सौदागर बन जाता है। एक तरफ उसकी मर्यादाएँ खड़ी होती हैं तो दूसरी तरफ बाज़ार! जिसके पेड़ की जड़ें जितनी गहरी और विस्तृत होती हैं वही जड़ें कहीं से भी फूट पड़ती हैं!<br />कलाकार और बाजार, में से एक को चुनना होगा। नैतिकता और अनैतिकता में से एक के साथ चलना होगा। सामाजिक मान्यताओं और खुलेपन में से किसी एक के दायरे में रहना होगा। नहीं तो फिर मानसिक अवसाद और स्वयं को समाप्त करने का संकल्प सामने होगा। कब पीपल के पेड़ की जड़ें हमारे अन्दर से फूट पड़ेंगी और हम बेजान हो जाएंगे, पता ही नहीं चलेगा।<br /><a class="_58cn" data-ft="{"type":104,"tn":"*N"}" href="https://www.facebook.com/hashtag/sushantsingh?__eep__=6&source=feed_text&epa=HASHTAG" style="color: #385898; cursor: pointer; font-family: inherit; text-decoration-line: none;"><span class="_5afx" style="direction: ltr; font-family: inherit; unicode-bidi: isolate;"><span aria-label="hashtag" class="_58cl _5afz" style="color: #365899; font-family: inherit; unicode-bidi: isolate;">#</span><span class="_58cm" style="font-family: inherit;">sushantsingh</span></span></a></span></div>
</div>
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-62416154952059019622020-06-16T09:10:00.000+05:302020-06-16T09:10:02.282+05:30रोटी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
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<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अभी कुछ साल पहले की बात है, मैं अमेरिका में थी, भोजन बना रही थी। तभी बेटे का मित्र आ गया, मैंने भोजन के लिये उसे भी बैठा दिया। वह बोला कि मैं केवल एक रोटी खाऊंगा। खैर मैंने उस दिन मिस्सी रोटी बनायी थी, तो दोनों को परोस दी। मैं मिस्सी रोटी कुछ मोटी ही बनाती हूँ और मिट्टी के तवे पर बनाना पसन्द करती हूँ। भारत से जाते समय मिट्टी का तवा मैं लेकर गया थी। अब रोटी सिकती जा रही थी और दोनों प्रेम से खाते जा रहे थे। एक रोटी खाने की बात पीछे छूट गयी थी। मैंने दोबारा आटा लगा लिया था<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">।<br />रोटी का स्वाद केवल भारतीय जानते हैं, बाजरे की रोटी, मिस्सी रोटी, ज्वार की रोटी, मक्की की रोटी आदि आदि। थाली में चार कटोरी लगाकर षडरस भोजन भी हम ही जानते हैं। गर्म रोटी पर चम्मच भर घी लगाना भी हम ही जानते हैं। चूल्हे के पास बैठकर गर्म खाना भी हम ही जानते हैं। रोटी का स्वाद एक तरफ और सारी दुनिया के भोजन का स्वाद दूसरी तरफ! कहीं कोई मुकाबला नहीं। जिसने गर्म रोटी खा ली वह ब्रेड नहीं खा पाता! बस शौक से या मजबूरी से खा लेता है।<br />रोटी में पूरा अन्न होता है जबकि ब्रेड में अन्न का अन्दरूनी भाग! मैदा और सूजी गैंहूं के छिलके उतारकर बनायी जाती है। सारे पोषक तत्व छिलके में होते हैं और हम अपने शरीर रूपी घर में शक्तिहीन व्यक्तियों को भर लेते हैं। जब दुश्मन से लड़ने का समय आता है तब ये चारों खाने चित्त हो जाते हैं। छोटा सा कीटाणु भी हमें आँख दिखाने लगता है और हम बीमार पड़ जाते हैं। हमने स्वयं को शहतूत के फल जैसा नाजुक बना लिया है।<br />हमने अभी देखा कि ६ फीट से ऊंचे विदेशी जवान, देखते ही देखते कोरोना की भेंट चढ़ गये और भारतीय ८० साल के बुजुर्ग बच गये। विदेशी शहतूत बन गये हैं और हम भारतीय मोटी खाल वाले तरबूज।<br />हमारा शरीर सैनिक छावनी है, हर पल युद्ध होता है। जिसमें लड़ने की जितनी क्षमता होती है वह जीत जाता है नहीं तो विषाणु के क़ब्ज़े में आ जाता है। जब हम मैदा और सूजी ही खाते है तो हमारे अन्दर का सैनिक शहतूत की तरह कमजोर हो जाता है लेकिन जब रोटी खाते हैं तब हमारा सैनिक तरबूज की तरह ताकतवर हो जाता है। अब हमें तय करना है कि हमें शहतूत बनना है या तरबूत! रोटी खानी है या पिजा-बर्गर-ब्रेड! कोरोना के कारण सब घर पर हैं और भारतीय रसोई में खूब रोटी बन रही है। सारे ही बच्चे रोटी चाव से खा रहे हैं। यही मौका है सिखा दीजिये उन्हें रोटी खाना। रोटी की सौंधी सुगन्ध और ताजा घी कैसे मन को तृप्त करता है, इसका आभास करा दीजिये। कोरोना जैसे विषाणु कभी हिम्मत नही करेंगे हमारे शरीर की छावनी में दस्तक देने की! बस अपने भोजन में रोटी को जगह दीजिये।</span></div>
</div>
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-45511197469251907162020-06-12T09:06:00.003+05:302020-06-12T09:06:54.203+05:30घाव है तो हँसिये<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
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<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मुँह का एक छाला होता है, जिसे मेडीकल भाषा में Aphthous ulcer कहते है। मैंने इस छाले को बहुत झेला है। कारण ढूंढा तो पता लगा कि मानसिक तनाव से होता है। अब जिसने संघर्षों से ही भाग्य को गुदवाया हो, वह तनाव तो झेलेगा ही! लेकिन मुझे जैसे ही समझ आया कि यह छाला तनाव के कारण है मैंने वैसे ही हँसने के बहाने ढूँढ लिये। एक बार यह छाला हो जाए तो इसके घाव को भरने में दो सप्ताह तक लग जाए और दर्द इतना की हालत पतली कर दे।<br />मैंने प्रयोग किया हँसने का, अन्दर से हँसने का। बस च<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">ुटकी बजाते ही दर्द दूर। मैंने छाले से पीछा छुड़ा लिया था। लेकिन फिर भी कभी-कभी चोर रास्ते से मुझे पकड़ ही लेता है। खाना खाते समय दाँत के नीचे मुँह के अन्दर का कोई भी हिस्सा आ जाए तो समझो कि यह एपथस अल्सर बनकर ही रहेगा। अभी दो-चार दिन पहले ऐसा ही हुआ और कल तक घाव बन गया। दर्द शुरू। कोरोना ने तनाव दे रखा था, हँसने का बहाना ही नहीं था लेकिन कुछ फ़ेसबुक से, कुछ बातों से हँसने के बहाने ढूँढ ही लिये। बस फिर क्या था, लगभग आधे दिन कोशिश रही कि हंसते रहें और सफलता हाथ लग गयी। आज दर्द से छुट्टी!<br />अब सोचो जब हँसने से एक घाव भरता है तो अन्दर के कितने घाव भी भरते ही होंगे। लेकिन हंसना दिखावे का नहीं होना चाहिये, अन्दर तक के हार्मोन सक्रिय होने चाहिये। इसलिये गुनगुनाते रहिये, हंसते रहिये। अन्दर से खुश रहिये। कैसे भी घाव हों, भर ही जाएँगे।</span></div>
</div>
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-213831668368410642020-06-04T09:05:00.003+05:302020-06-04T09:05:32.431+05:30शाबाश अमेरिकी पुलिस<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
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<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अमेरिकी पुलिस का एक चित्र कल वायरल हो रहा था- घुटने पर बैठकर क्षमायाचना करते हुए। यह चित्र पुलिस का धैर्य और समन्वय प्रदर्शित करता है। सत्ता का मद और शक्ति का प्रदर्शन कभी भी शान्ति स्थापित नहीं कर सकता। श्रेष्ठ शासक हमेशा धैर्यवान होता है, वह प्रत्येक परिस्थिति में समन्वय बैठाकर चलता है। कल पुलिस का अधिकारी बोल रहा था कि आप देश से प्यार करने वाले लोग हैं, सभी से प्यार करने वाले लोग हैं, शान्ति पूर्वक प्रदर्शन करना आपका अधिकार है लेकिन दंगे करना आप भी पसन<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">्द नहीं करेंगे।<br />मुझे मोदीजी याद आ गये, हमेशा सकारात्मक बोलने वाले, दूसरों को श्रेय देने वाले और कठिन परिस्थिति में भी धैर्य नहीं खोने वाले। असल में हम अपने स्वभाव के अनुरूप सरकार से व्यवहार चाहते हैं। हमारा स्वभाव है कि हम बच्चे को थप्पड़ मारकर सुधारना चाहते हैं तो सभी से यहा उम्मीद रखते हैं। यदि हम बच्चे को प्यार से समझाना चाहते हैं तो सरकारों से भी प्यार की भाषा की उम्मीद रखते है। सत्ताधीश अपने स्वभाव के अनुरूप चलता है और विजय प्राप्त करता है। उन्हें धैर्य का मार्ग ही अपनाना होता है लेकिन जनता चाहती है कि सत्ता शक्ति का प्रदर्शन करे। बस हम हमारे प्रिय नेता की भी आलोचना करने लगते हैं। जनता के पास केवल एक पक्ष होता है लेकिन सरकार के पास अनेक पक्ष होते हैं और सभी को ध्यान में रखते हुए स्थिति को क़ाबू करना होता है। मुझे अमेरिकी पुलिस का व्यवहार बहुत अच्छा लगा कि वे अपने ही लोगों के सामने झुके और हिंसा को रोक लिया। नहीं तो वे गोलीबारी भी कर सकते थे और फिर नफ़रत का खेल हमेशा के लिये स्थाई हो जाता। ट्रम्प भी इसी धैर्य के लिये मोदी का प्रशंसक है और वह प्रत्येक प्लेटफ़ॉर्म पर मोदी का साथ चाहता है। शाबाश अमेरिकी पुलिस।</span></div>
</div>
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-69940507109729034252020-06-04T09:00:00.004+05:302020-06-04T09:00:51.638+05:30नफ़रत सौंप रहे हैं हम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
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<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अमेरिका में नफ़रत का बाज़ार गर्म है। रंगभेद की नफ़रत को न जाने कौन-कौन सी ताक़तें हवा दे रही हैं! एक सिपाही आम नागरिक को पैर तले कुचल देता है और आम नागरिक अमेरिका में आग लगा देता है। यह दो रंगों के बीच बोयी गयी नफ़रत है जो सैंकड़ों सालों से पनप रही है। हम गौर वर्ण है तो काले को हेय मानेंगे और काले हैं तो संगठित होकर आक्रमण करेंगे! यह नफ़रत हमारे अन्दर बस गयी है। यहाँ तक की स्त्री- पुरुष के बीच भी युगल भाव के स्थान पर नफ़रत ने जगह बना ली है। रिश्तों का प<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">्रेम कहीं छिप गया है। हम पीढ़ी दर पीढ़ी रिश्तों को दूसरी पीढ़ी को सौंपते जाते हैं लेकिन अब नफ़रत सौंप रहे हैं। कहाँ हमने वसुधैव कुटुम्बकम् की कल्पना की थी और कहाँ अब एक पीढ़ी तक ही परिवार सिमट गया है। बस दूसरी पीढ़ी को तो हम नफ़रत देकर जा रहे है। हम ही श्रेष्ठ हैं यह अहंकार हमें दूसरे को सम्मान और प्रेम देने ही नहीं देता, फिर प्रेम के अभाव में ग़ुस्सा और नफ़रत पनपने लगती है।<br />अमेरिका में जो हो रहा है, वह सारी दुनिया का सत्य है। किसी दूसरे की नफ़रत भी अपनी बन जाती है और फिर सभी अपनी-अपनी नफ़रतों से घिरने लगते हैं। कहीं ज्वालामुखी फूट पड़ता है तो कहीं भूकंप के झटके महसूस किये जाते हैं। अकेले व्यक्ति से लेकर देशों तक की नफ़रत आज देखी जा सकती है, व्यक्ति बस मौक़े की तलाश में है कि कब मौक़ा मिले और मैं आग लगा दूँ। भारत भी ज्वालामुखी के ढेर पर बैठा है, बस एक चिंगारी की देर है। अमेरिका की आग भारत की ओर कब मुँह मोड़ लेगी कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि यहाँ तो हर व्यक्ति में आग है। हम इंच-इंच बँटे हुए हैं तो इंच-इंच बिखरने को तैयार हैं। एक तरफ़ कोरोना हमें निगल रहा है तो दूसरी तरफ़ हमारी नफ़रत हमें कोरोना का ग्रास बनाने को उकसा रही है। समय हमें देख रहा है और हम समय को देख रहे हैं। बस इन्तज़ार ही शेष है।</span></div>
</div>
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<br />
<div class="MsoNormal">
<a href="http://www.sahityakar.com/">www.sahityakar.com</a></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%;">भीड़ में खड़ा हर व्यक्ति साधारण है लेकिन मंच पर
बैठा व्यक्ति असाधारण हो जाता है। साधारण व्यक्ति को हम नहीं जानना चाहते लेकिन
असाधारण व्यक्ति को हम समझना चाहते हैं, उसे जानना चाहते हैं। कल मेरे हाथ में
"अग्नि की उड़ान" पुस्तक थी। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की
जीवनी पर लिखी पुस्तक। स्मपूर्ण पुस्तक पढ़ लीजिए आप को यही लगेगा कि एक साधारण
व्यक्ति की कहानी है। हम में से हर उस व्यक्ति की कहानी है जो शिक्षित होना चाहता
है, कुछ बनना चाहता है! कुछ भी अनोखा नहीं है। फिर कैसे कलाम असाधारण बन गये? दुनिया
में दो तरह के लोग हैं, एक मंच पर बैठे हैं और दूसरे मंच से सामने है। मंच पर जो
हैं वे नेतृत्व कर रहे हैं और वे सार्वजनिक जीवन जी रहे हैं, मंच के सामने वाले
नेपथ्य में जीवन जी रहे हैं, बस। जब हमारा सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ होता है तब हमें
लोग जानना चाहते हैं, वे समझना चाहते हैं कि इसमें ऐसा क्या है, जो यह इस मंच तक
जा पहुँचा! कई बार लगता है कि यह तो हम जैसा ही है, फिर मंच तक कैसे पहुँच गया? लोग
कह उठते हैं कि भाग्य है भाई! </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%;">हो सकता है भाग्य हो लेकिन साधारण और असाधारण
व्यक्तित्व में बस यही अन्तर होता है कि वह नेतृत्व के योग्य ठहराया जाता है और
फिर उसके व्यक्तित्व की परते उघड़ने लगती है जब लगता है कि कुछ तो है! किसी भी क्षेत्र
का भीड़ से अलग व्यक्ति हमेशा जानने योग्य रहता है। लोग उसकी जड़े तक खोद डालते
हैं और फिर कलाम जैसे व्यक्ति असाधारण बन जाते हैं। सोचिये यदि कलाम राष्ट्रपति
नहीं बनते तो क्या वे इतने असाधारण होते? वे अपने क्षेत्र में असाधारण होते लेकिन
आमजन उनके जीवन में रुचि नहीं लेते। एक लड़का छोटे से गाँव में, गरीब परिवार में
जन्म लेता है, पढ़ता है और वैज्ञानिक बन जाता है। सभी की कहानी तो ऐसी ही है। भीड़
से अलग हटने में उसने क्या प्रयास किये बस यही मूल्यवान है। कलाम ने हर कदम पर
स्वयं को भीड़ के अलग रखा, वे सभी की दृष्टि में आते रहे। अपने काम की धुन के
कारण, अपनी सोच के कारण या किसी ओर बात के कारण। बस जैसे ही हम भीड़ से अलग दिखने
लगते हैं, वैसे ही स्वयं मंच पर पहुँच जाते हैं। साधारण से असाधारण बन जाते हैं और
लोग हमें जानने की चाह करने लगते हैं। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%;">कुछ लोग कहते सुने जाते हैं कि क्या है इस
व्यक्तित्व में? हम भी ऐसे ही हैं, इससे ज्यादा शिक्षित हैं लेकिन यह क्यों नेतृत्व
कर रहा है और मैं क्यों नहीं? वे समझ नहीं पाते कि भीड़ का हिस्सा बनकर रहना और
भीड़ से अलग बन जाना ही अन्तर है! कलाम को पढ़ते हुए मुझे यही लगा कि जो भीड़ से
अलग दिखने लगता है वह असाधारण बन जाता है और जो भीड़ में खो जाता है वह साधारण बनकर
रह जाता है। जब भीड़ से पृथक खड़ा व्यक्ति सार्वजनिक जीवन के योग्य बन जाता है तब
उसे असाधारण व्यक्ति मानकर उसे समझने की ललक पैदा होती है। आप या मैं सभी एक पृष्ठभूमि
से आए हैं, सभी भीड़ का अंग हैं, बस कोशिश करिये कि भीड़ से पृथक होकर अपना अलग
व्यक्तित्व बना सकें। इसलिये वैज्ञानिक कलाम और राष्ट्रपति कलाम में बस यही अन्तर
है। किसी भी ऐसे ही व्यक्तित्व की आलोचना करने से पूर्व यह देख लीजिये की वह कहाँ
खड़ा है! मैंने जब अपने पिता पर पुस्तक लिखी तो परिवार के एक सदस्य ने कहा कि एक
साधारण व्यक्ति पर पुस्तक? मैंने तब समझा कि भीड़ से अलग खड़ा व्यक्ति ही असाधारण
बन जाता है और उन्हीं पर लिखने का मन करता है। जब कलाम को<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>पढ़ा तो मैंने जाना कि साधारण और असाधारण में
बस यही अन्तर<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>होता है।<o:p></o:p></span></div>
<br /></div>
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-90180406015195554402020-05-17T10:51:00.000+05:302020-05-17T10:51:07.792+05:30मन की किवड़ियां खोल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal">
<a href="http://www.sahityakar.com/">www.sahityakar.com</a></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">समय काटे से कट नहीं रहा है, एक अनजान भय भी सभी
के सर पर मंडरा रहा है, लोग अपनी जमापूंजी का बहीखाता लेकर बैठ गये हैं।
सोना-चाँदी, बैंक डिपाजिट, रोकड़ा, जमीन, जायदाद सभी सम्भालने में लगे हैं। जीवन
में लाभ-हानि का हिसाब लगा रहे हैं। अपनी शेष आयु को भी हिसाब में सम्मिलित कर
लिया है। कितना उपभोग कर पाएंगे और कितना शेष रह जाएगा? मैं इस आपदा काल में ही
नहीं पहले से करती आयी हूँ। अपने जीवन को सुव्यवस्थित रखने का हमेशा से ही प्रयास
किया है। ऐसा कोई कर्तव्य नहीं जो पूर्ण नहीं किया हो और ऐसी जीवनचर्या का साधन
नहीं जिसे प्राप्त नहीं किया हो! प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में एक स्तर होता है,
समाज के अनुरूप वह स्तर रहता है, उसी स्तर के अनुरूप हम श्रेष्ठ करते रहे हैं।
लाभ-हानि भी बहुत हुई है फिर भी बूंद-बूंद करके घड़ा भरता ही गया। सारी आवश्यकतों
की पूर्ति करने के बाद, संतानों को अच्छा जीवन देने के बाद भी घड़ा भर गया। सोचा
अब इस घड़े का सदुपयोग वृद्धावस्था में होगा। लेकिन किसे मालूम था कि कोरेना काल
उपस्थित हो जाएगा और दुनिया को जीवन का मर्म समझा देगा! </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">जीवन की आवश्यकताएं मुठ्ठीभर अर्थ से पूर्ण हो
जाती हैं, शेष तो प्रतिस्पर्धा है। इस काल में प्रतिस्पर्धा समाप्त हो गयी है,
विलासिता कहीं मुँह ढककर सो गयी है, बस आवश्यकताएं ही शेष हैं। प्रत्येक व्यक्ति
अपने घड़े को टटोल रहा है, किसी के पास एक घड़ा है, किसी के पास दो हैं या फिर
किसी के पास अनगिनत है। रात-दिन हिसाब लग रहा है, सभी आश्चर्य चकित भी हैं कि इतना
वैभव संचित कर लिया! फिर उम्र का गणित देखते हैं, पता लगता है कि यह तो फिसलती जा
रही है! जीवन क्षणभंगुर दिखने लगा है, अब? </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मेरे पास चिंतन के लिये समय हमेशा रहा है, यह समय
और यह चिंतन ही मेरी पूंजी है। लोग कह रहे हैं कि अब समय बहुत मिल रहा है लेकिन
मेरे पास तो पूर्व में भी बहुत समय था। जीवन के प्रत्येक कदम पर मैंने चिन्तन किया
है। मैंने जीवन के सारे ही उपादानों को संतोष पूर्वक जीया है और मन को भी संतुष्ट
किया है। लेकिन अब सभी लोगों को कहते सुन रही हूँ कि यह अर्थ का संचय व्यर्थ गया!
यह अब किसी काम का नहीं है। इस अर्थ के कारण ही तो हमने प्रेम की जगह अहंकार को
चुना था, निरन्तर हम प्रदर्शन कर रहे थे। लोग कह रहे हैं कि रिश्तों की हमने कद्र
नहीं की, यहाँ तक की अपनी गृहस्थी तक सुखपूर्वक भोग नहीं पाए! केवल अर्थसंग्रह में
लगे रहे और सारा दिन यायावर बनकर घर से बाहर रहे। किसी के पास एक मिनट का समय नहीं
था जो अपनों को दे सके! आज समय ही समय है, पति-पत्नी के पास इतना समय है कि वह इस
छोटे से काल में ही सात जन्मों का समय व्यतीत कर सकते हैं। जिस संतान के पास
माता-पिता के लिये समय ही नहीं था आज वे भी क्या बात करें, यह ढूंढ रहे हैं! अभी
भी लोग खेलों का सहारा ले रहे हैं, अपने मन को नहीं खोल रहे हैं। अपने जीवन के
आनन्द को नहीं पा रहे हैं। कितने बेटे हैं जो माँ की गोद में लेटकर सर में तैल
लगवा रहे हैं, या कितनी बेटियाँ हैं जो माँ को कुर्सी पर बैठाकर उनकी चोटी बना रही
हैं। सारे ही लाड़ आज भी अधूरे से खड़े हैं। कर लो इन्हें भी पूरा कर लो, जीवन के
ये पल दो क्षण के ही सही लेकिन अमृत की दो बूंद जैसे लगेंगे। घड़े की ओर मत देखो
वह तो इतिहास में किसी अन्य के काम आएगा लेकिन अपना सुख, अपना लाड़-प्यार अपने
लिये ही है, इसे प्राप्त कर सको तो कर लो। बतिया लो अपनों से, जो आपको लाड़ दे
सके, जो आपके अस्तित्व को स्वीकार कर सके। समय व्यर्थ मत करें, जहाँ विष है उसे
जीवन से दूर रखे, बस अमृत की दो बूंद की तलाश करिये।<o:p></o:p></span></div>
<br /></div>
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-47823257357746241722020-05-08T10:11:00.001+05:302020-05-08T10:11:15.241+05:30डर कम होना चाहिए<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
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<div style="background-color: white; color: #1c1e21; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
दो खबरे एक साथ आयी, एक भाई ने बहन के कोरोना होने पर छत से छलांग लगायी और एक पोते ने दादी के कोरोना पोजेटिव होने पर फाँसी का फन्दा लगा लिया! डर हमारे रोम-रोम में समा रहा है, यह डर मृत्यु से अधिक दुर्दशा का डर है। कल ही एक खबर और आयी कि कोरोना पोजेटिव की मृत्यु हो गयी। उसे सीधे ही श्मशान ले गये लेकिन उसके बेटे ने हाथ लगाने की हिम्मत नहीं जुटायी! मृत्यु का यह सत्य सभी को दिखायी देने लगा है, घर से निकलते समय व्यक्ति इतना डरा रहता है कि आधी जंग तो वह वहीं हार जाता<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;"> है। प्रशासन को थोड़ा संयम दिखाना चाहिये और समाज यदि इस देश में कहीं किस कोने में दुबका है तो उसे धीरज बंधाने के लिये आगे आना चाहिये।<br />पूरे देश में जो अफरा-तफरी मची है, वह भी इसी डर से मची है कि कब कौन किस शहर में गुमनाम सी मौत मर जाएंगे! कम से कम अपने घर तो पहुँच जाएं! हिन्दू दर्शन में मृत्यु को संस्कार माना गया है, अन्तिम संस्कार। मृत्यु को भी हमने जीवन की तरह महत्व दिया है इसलिये सम्मानपूर्वक संस्कार का महत्व है। लेकिन समाज का कोई भी अंग ऐसे परिवारों को ढांढस बंधाने आगे नहीं आ रहा है! व्यक्ति का डर समाप्त होना चाहिये, कि वह गुमनाम सी जिन्दगी अस्पताल में जीने को और मरने को मजबूर ना हो। उसे लगना चाहिये कि उसका परिवार और उसका समाज उसके साथ खड़ा है। संक्रमण को देखते हुऐ चाहे रोगी को पास ना जाएं लेकिन रोगी को लगना चाहिये की उसके अपने उसके पास हैं। यह काल ऐसा है कि जब अपने भी दूसरे शहरों में या विदेश में हैं तब समाज को और अधिक ध्यान देने की जरूरत हैं। समाज के लोगों के, लोगों के पास संदेश पहुँचने चाहिये कि कुशलता नहीं होने पर सूचित करें, किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर सूचित करें। नागरिकों की सूची बनाकर कुशलक्षेम पूछना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति को लगना चाहिये कि वह अकेला नहीं है, उसके साथ समाज और देश खड़ा है। भारत में सरकार तो आज विश्वास दिलाने में सफल हो रही है लेकिन समाज अभी आगे नहीं आया है। सामाजिक नेतृत्व को समाज का संरक्षक बनकर आगे आना ही होगा नहीं तो यह डर बढ़ता ही जाएगा। बस डर कम होना चाहिये।<br /></span></div>
</div>
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-51236965280888739672020-04-20T11:44:00.000+05:302020-04-20T11:44:01.493+05:30दोनों जीवन देख लिये<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal">
<a href="http://www.sahityakar.com/">www.sahityakar.com</a></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पुराने जमाने में विलासिता का प्रदर्शन दो जगह
होता था – एक राजमहल तो दूसरा किसी गणिका का कोठा। हर आदमी लालायित रहता था कि कैसे
भी हो एक बार राजमहल देख लिया जाए! इसी प्रकार जैसे ही जवानी की दस्तक हुई नहीं कि
मर्द सोचने लगता था कि इस गणिका के कोठे पर नृत्य देखने तो जाना है! वक्त बदला और
विलासिता ने पैर पसारे। विलासिता के दर्शन सभी के लिये सुलभ होने लगे बस पैसे
फेंको और तमाशा देखो। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">एक जमाना था जब भोजन सादगी लिये होता था लेकिन
भोजन में भी राजमहलों जैसी विलासिता ने घर करना शुरू किया। आम आदमी के पास करने को
दो ही कार्य रह गये, विलासिता पूर्ण वैभव को देखना और ऐसे जीवन का उपभोग करना।
पर्यटन इसका सबसे सुन्दर साधन बन गया। एक सामान्य व्यक्ति से मैंने एक बार<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>पूछ लिया कि बहुत दिनों से दिखायी नहीं दिये,
कहाँ थे? वे बोले कि हम साल में दो बार विदेश यात्रा पर जाते हैं, एक लम्बी दूरी
की और दूसरी छोटी दूरी की। हमने सारा संसार देख लिया है, अच्छे से अच्छे होटल देख
लिये हैं और मंहगे से मंहगा खाना खा लिया है। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मैं अपने शहर के जीवन पर नजर घुमाने लगी, देखा कि
शनिवार-रविवार को कोई भी सभागार और होटल-रेस्ट्रा खाली नहीं है, सभी में कुछ ना
कुछ कार्यक्रम चल रहे हैं। वहाँ भी अच्छे भोजन के लिये जा रहे हैं और मंचों पर
मिलने वाले फूलों के हार का भी लालच है। कहीं पिकनिक है, कहीं किट्टी है, कही
जन्मदिन मन रहा है तो कहीं विवाह की वर्षगाँठ। शहर में विवाह समारोह की तो धूम मची
है, औसतन आदमी साल में 30-40 दिन तो समारोह में चले ही जाता है। याने की हर
व्यक्ति विलासिता में डूब जाना चाहता है। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ऐसे जीवन के चलते अचानक ही हो गया लॉकडाउन। सब
कुछ बन्द। विलासिता के दर्शन बन्द, पकवानों की वजह बन्द! एक तरफ डर पसर रहा था,
जीवन के आनन्द छिन रहे थे तो दूसरी तरफ नई रोशनी भी हो रही थी। घर की मुंडेर पर
चिड़िया चहकने लगी थी, धूल से पटा आंगन साफ रहने लगा था। सड़क के पार वाले घर से
भी आवाजें सुनायी दे रही थीं। घर-घर में सादगीपूर्ण भोजन बन रहा था, सभी के पेट
स्वस्थ हो रहे थे। कपड़ों से अटी पड़ी अल्मारी की ओर सुध ही नहीं थी! पैसे भी
कृपणता से घर छोड़ रहे थे। बच्चों का जिद करना भी कम से कम होता जा रहा था। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पहले हम भाग रहे थे, अब घर में शान्त से बैठे
हैं। विलासिता देखते-देखते हमने घर को भी अजायबघर बना डाला था। सादी दाल-रोटी खाना
पुरातनपंथी लगती थी और विदेशी खाना हमारे लिये फैशन बन गया था। दुनिया की दौड़ में
हम शामिल होकर अपना चैन खो बैठे थे। बस दौड़ रहे थे, दौड़ रहे थे। अपना स्वाद भूल
गये थे, पराये स्वाद के पीछे पागल हो रहे थे! शाम 5 बजे बाद अब घर बसने लगते हैं,
मर्द घर में आने लगते हैं, रात 9 बजे तक सारे घरों में अंधेरा होने लगता है। सड़कें
खामोश हो जाती हैं। झिंगुर की आवाज भी सुनायी दे जाती है। लगता है जीवन का परम सुख
पा लिया हो। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">विलासिता इतनी भी नहीं पैर पसारे कि कोरोना जैसा
विषाणु हमारे अन्दर ही प्रवेश कर लें और वहीं बस जाएं! हम दौड़ना भूलकर घर में कैद
हो जाएं! जीवन ने करवट बदली है, दोनों जीवन हमने देख लिये हैं, बस कौन सा कितना
अच्छा है, यह आकलन हमें करना है। विलासिता के लिये कितनी दौड़ लगानी है और अपने घर
के लिये कितनी हद बनानी है, यह निर्णय हम सबका है।<o:p></o:p></span></div>
<br /></div>
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5543246866765877657.post-83199332930174722942020-04-17T11:12:00.002+05:302020-04-17T11:12:40.944+05:30आते रहा करो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="MsoNormal">
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<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">निंदक टाइप के लोग बड़े कमाल के होते हैं, किसी
की बाल की खाल निकालनी हो तो ये ही याद आते हैं। क्या मजाल ऐसे बन्दे किसी की
तारीफ कर दें, कोई ना कोई अवगुण निकाल ही लेते हैं। आप कहेंगे कि इसमें क्या कमाल
है, मैं कहती हूँ की कमाल ही कमाल है। तभी तो कवि ने भी कह दिया कि निंदक नियरे
राखिय़े। आंगन में अच्छी सी कुटिया बनाकर इन्हें जगह देनी चाहिये। अब कल की ही बात
ले लीजिए, बन्दा लाकडाउन के आंदोलन की निंदा करके चले गया। एण्टी वायरस बनाने में
जितना दिमाग चाहिये उतना ही दिमाग निंदा करने में लगता है, ऐसे ही नहीं कपिल सिब्बल
जैसे लोग रोज उग आते हैं और लोग इन्हें हाथों हाथ लेते हैं। किसी के परचक्खे उड़ता
देख आनन्द आता है लोगों को। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">लेकिन बन्दा सच्चा होना चाहिये, यह नहीं की किसी
ने कागज पर लिख दिया, थोड़ी मशक्कत करा ली और बन्दा आकर बक गया। ऐसे नहीं निंदक बन
जाओगे प्यारे लाल। खुद का दिमाग<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>होना
चाहिये तब जाकर अंगद की तरह पैर जमा पाओंगे! माना कि तुम तुरप के पत्ते के समान
बोल गये कि लोकडाउन दवा नहीं है, लेकिन दवा से कम भी नहीं है! छूत की बीमारी को संक्रमण
से बचा लो तो दवा जैसा ही काम करती है! ढूंढ-ढूंढकर लाते तो बहुत हो लेकिन खुद का
दिमाग नहीं होने से सारा गुड़-गोबर हो जाता है। मेरे हीरालाल खुद को खुरचो, तब
जाकर हीरे में चमक आएगी। कब तक कॉपी-पेस्ट करके काम चलाते रहोंगे! नेता बनना है तो
खुद का ही दिमाग चाहिये नहीं तो ना घोड़ा और ना गधा, कुछ नहीं बन पाओगे। </span><span style="font-size: 12.0pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; font-size: 12.0pt; line-height: 107%; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">खुद को कभी कन्हैया लाल बना लेते हो, कभी कजरी
जैसा तो कभी अहमद पटेल की नकल करते हो, लेकिन सारे ही जतन बेकार हो जाते हैं क्योंकि
ऑरिजिनल नहीं हैं ना! तुम ने कभी भी सुना है कि कोई भी व्यक्ति यह कह रहा हो कि
मैं गाँधी परिवार के कुल दीपक जैसा बनना चाहता हूँ! बस तुम ही लगे पड़े हो, लोगों
के पीछे! कभी यह बन जाऊँ, कभी वह बन जाऊँ! जब तक ऑरिजनल निंदक नहीं बनोंगे तब तक
तुम्हारा कुछ नहीं होने का। कुछ और कुटिल लोगों के साथ रहो, उनको अपना गुरु मानो
और धार पैनी करो। नकल से तो कुछ नहीं मिलने वाला। प्रेस के सामने आओ और मनोरंजन
करके चले जाओ, बस यही काम रह गया है तुम्हारा। अब तो तुम्हारे पास माँ का बेटा
होने के अतिरिक्त कोई आधार-कार्ड भी नहीं है, फिर भी तुम मनोरंजन करने चले आते हों
और हमारी<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>प्रतिभा को भी लिखने को उकसा
जाते हो, इसके लिये तो आभार बनता ही है। कब से सोशल मीडिया खामोश सी थी, तुम्हारे
आने से हलचल तो हुई। आते रहा करो। निंदक तो नहीं बन सकते, हाँ वैसे ही आ जाया करो,
कुछ तो मसाला मिल ही जाता है। <o:p></o:p></span></div>
<br /></div>
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</script></div>अजित गुप्ता का कोनाhttp://www.blogger.com/profile/02729879703297154634noreply@blogger.com5