Saturday, March 31, 2018

माँ से मिलती है बुद्धिमत्ता


बहुत दिनों की ब्रेक विद बिटिया के बाद आज लेपटॉप को हाथ लगाया है, कहाँ से शुरुआत करूं अभी सोच ही रही थी कि बिटिया ने पढ़ाये एक आलेख का ध्यान आ गया। आलेख सेव नहीं हुआ लेकिन उसमें था कि हमारी बुद्धिमत्ता अधिकतर माँ से आती है। क्रोमोजोम की थ्योरी को इसके लिये जिम्मेदार बताया गया था। एक किस्सा जो बनार्ड शा के बारे में आता है और अभी इस देश की धरती पर देखें तो धीरू भाई अम्बानी और कोकिला बेन पर फिट बैठता है। बनार्ड शा को एक खूबसूरत महिला ने विवाह का प्रस्ताव रखा और कहा कि आपकी बुद्धि और मेरी खूबसूरती से मिलकर जो संतान होगी, वह सुन्दर और बुद्धिमान होगी। बनार्ड शा ने कहा कि यदि मेरी सूरत और तुम्हारी बुद्धि संतान को प्राप्त हो गयी तो? धीरू भाई अम्बानी ने यह प्रयोग कर लिया लेकिन विज्ञान ने अब सिद्ध कर दिया कि अधिकतर बुद्धिमत्ता माँ से ही आती है, एक्स क्रोमोजोम का जोड़ा ही इसके लिये उत्तरदायी होता है। मैंने जैसे ही आलेख देखा, मेरी माँ के प्रति मेरा आदर एकदम से बढ़ गया, क्योंकि हम तो आजतक यही मानते आये थे कि हमें बुद्धिमत्ता पिताजी से मिली है। माँ को कभी बुद्धिमत्ता दिखाने का अवसर ही नहीं मिला, तो हमने भी सोच लिया कि पिताजी ही अधिक बुद्धिमान थे लेकिन आज मैं तो बहुत खुश हूँ और शायद बहुत लोग इसे पढ़कर खुश हो जाएंगे कि बुद्धिमत्ता माँ से मिलती है।
एक कॉमेडी शो देख रही थी, उसमें आ रहा था कि लड़के का काम होता है केवल पैदा होना बस। उसे कोई काम नहीं सिखाया जाता जबकि लड़की को हर पल होशियार किया जाता है। अब तो यह मजाक की बात नहीं रही अपितु सत्य हो गयी कि वे माँ से बुद्धिमत्ता लेते हैं और अपने तक ही सीमित रखते हैं जबकि बेटियाँ अपनी संतानों को भी हिस्सा बांटती है। जो भी हमारे पास  है वह माँ का दिया हुआ है, कोई बिरला ही होता है जो पिता से ले पाता है। इसलिये जितनी ज्यादा लड़कियां, उतनी अधिक बुद्धिमत्ता। परिवार में बुद्धिमान संतान चाहिये तो सुन्दरता के स्थान पर बुद्धिमान माँ की तलाश करो, बिटिया को अधिक से अधिक ज्ञानवान बनाने का प्रयास करो। स्वामी विवेकानन्द से जब भी कोई कहता था कि आप बहुत बुद्धिमान हैं तो वे हमेशा यही कहते थे कि मेरी माँ अधिक बुद्धिमान है। मोदीजी के बारे में भी मैं हमेशा कहती रही हूँ कि उन्होंने माँ की बुद्धि पायी है तभी वे आत्मविश्वास से पूर्ण है। अब अपने चारों ओर निगाह घुमाओ और जानो की सबकि बुद्धिमत्ता का राज क्या है? माँ की खामोशी पर मत जाओ, उसने खामोश रहकर भी तुम्हें बुद्धिमत्ता दी है और कोशिश करो कि तुम्हारी बेटी भी ज्ञानवान बने जिससे हमारी पीढ़ी उत्तम पीढ़ी बन सके। लड़कियों तुम  भी अपना समय ब्यूटी-पार्लर की जगह पुस्तकालय में बिताओं जिससे जमाना तुम पर गर्व कर सके।

Friday, March 16, 2018

स्वार्थवाद का जेनेटिक परिवर्तन


कल मुझे एक नयी बात पता चली, आधुनिक विज्ञान की बात है तो मेरे लिये नयी ही है। लेकिन इस विज्ञान की बात से मैंने सामाजिक ज्ञान को जोड़ कर देखा और लिखने का मन बनाया। मेरा बेटा इंजीनियर है और उनकी कम्पनी ग्राफिक चिप बनाती है। कम्पनी की एक चिप का परीक्षण करना था और इसके लिये लन्दन स्थित प्रयोगशाला में परीक्षण होना था। मुझे कार्य की जानकारी लेने में हमेशा रुचि रहती है तो मैंने पूछा कि कैसे परीक्षण करते हो? उसका भी पहला ही परीक्षण था तो वह भी बहुत खुश था अपने सृजनात्मक काम को लेकर। उसने  बताया कि हमारी चिप, कम्प्यूटर से लेकर गाडी और हवाईजहाज तक में लगती है तो इसकी रेडियोधर्मिता के लिये परीक्षण आवश्यक होता है। सृष्टि के वातावरण में रेडियोधर्मिता पायी जाती है इसलिये चिप को ऐसा डिजाइन करना पड़ता है जिससे उसके काम में बाधा ना आए और वह अटक ना जाए। चिप को एटामिक पावर से गुजरना पड़ता है और खुद की डिजाइन को सशक्त करना होता है। जहाँ भी परीक्षण के दौरान चिप में एरर आता है, वहीं उसके डिजाइन को ठीक किया जाता है। खैर यह तो हुई मोटो तौर पर विज्ञान की  बात लेकिन अब आते  है समाज शास्त्र पर। मनुष्य को भी जीवन में अनेक संकटों से जूझना पड़ता है और इस कारण बचपन से ही हमें उन परिस्थितियों का सामना करने के लिये संस्कारित किया जाता है।
हमारा बचपन बहुत ही कठोर अनुशासन में व्यतीत हुआ है, पिताजी अक्सर कहते थे कि सोने के तार को यदि जन्ती से नहीं निकालोगे तो वह सुदृढ़ नहीं बनेगा उसी भांति मनुष्य को भी कठिन परिस्थितियों से गुजरना ही चाहिये। वे हमें अखाड़े में भी उतार देते थे तो घर में चक्की पीसने को भी बाध्य करते थे। हम संस्कारित होते रहे और हमारे इरादे भी फौलादी बनते गये। हमारे सामने ऐसे पल कभी नहीं आये कि जब सुना हो कि यह लड़की है इसलिये यह काम यह नहीं कर सकती, हाँ यह बात रोज ही सुनी जाती थी कि स्त्रियोचित काम में समय बर्बाद मत करो, यह काम पैसे देकर तुम करवा सकोगी। काम आना जरूर चाहिये लेकिन जो काम आपको लोगों से अलग बनाते हैं, उनपर अधिक ध्यान देना चाहिये। ये संस्कार ही हैं जो हमें प्रकृति से लड़ने की ताकत देते हैं, कल एक डाक्यूमेंट्री देख रही थी, उसमें बताया गया कि 5000 वर्ष के पहले मनुष्य ने अपना जीवन बचाने के लिये पशुओं का दूध पीना प्रारम्भ किया था। अपनी माँ के अतिरिक्त किसी अन्य पशु के दूध को पचाने के लिये शरीर में आवश्यक तत्व नहीं होते हैं लेकिन हमने धीरे-धीरे शरीर को इस लायक बनाया और हमने जेनेटिक बदलाव किये लेकिन आज भी दुनिया की दो-तिहाई जनसंख्या दूध को पचा नहीं पाती है। इसलिये शरीर को सुदृढ़ करने के लिये मनुष्य भी अनेक प्रयोग आदिकाल से करता रहा है, बस उसे हम ज्ञान की संज्ञा देते हैं और आज विज्ञान के माध्यम से समझ पा रहे हैं।
हमारे अन्दर शरीर के अतिरिक्त मन भी होता है, शरीर को सुदृढ़ करने के साथ ही मन को भी सुदृढ़ करना होता है। हमें कितना प्रेम चाहिये और कितना नहीं, यह संस्कार भी हमें परिवार ही देता है। जिन परिवारों में प्रेम की भाषा नहीं पढ़ायी जाती, वहाँ भावनात्मक पहलू छिन्न-भिन्न से रहते हैं। हमारे युग में मानसिक दृढ़ता तो सिखायी जाती थी लेकिन भावनाओं के उतार-चढ़ाव से अनभिज्ञ ही रखा जाता था लेकिन आज इसका उलट है। अब हम अपनी संतान को भावनात्मक भाषा तो सिखा देते हैं लेकिन शारीरिक और मानसिक दृढ़ता नहीं सिखा पाते, परिणाम है अनिर्णय की स्थिति। हमारे शरीर की चिप इस भावनात्मक रेडियोधर्मिता की शिकार हो जाती है, कभी हम छोटी सी भावना में बहकर किसी के पक्ष में खड़े हो जाते हैं और कभी अपनों के भी दुश्मन बन बैठते हैं। हमारी चिप आर्थिक पक्ष की सहिष्णु बनती जा रही है, जहाँ अर्थ देखा हमारा मन वहीं अटक जाता है। यही कारण है कि हम अपने अतिरिक्त ना परिवार की चिन्ता करते हैं और ना ही समाज और देश की। हमारे देश में परिवार समाप्त हो रहे हैं, जब परिवार ही नहीं बचे तो समाज कहाँ बचेंगे! देश की भी सोच छिन्न-भिन्न होती जा रही है इसलिये चाहे राजनीति हो या परिवारवाद, सभी में हमार स्वार्थ पहले हावी हो जाता है। हम धीरे-धीरे स्वार्थवाद से ग्रसित होते जा रहे हैं और इतिहास उठाकर देखें तो लगेगा कि हजारों सालों से हमने इसी स्वार्थवाद को पाला-पोसा है और हमारे जीन्स में भी जेनेटिक परिवर्तन आ गये हैं। कुछ सालों के परिवर्तन से इस जेनेटिक बीमारी को दूर नहीं किया जा सकता है। जब अन्य पशुओं का दूध पचाने योग्य शरीर भी बनने में 5000 साल से अधिक का समय लग गया और वह भी केवल एक-तिहाई जनसंख्या तक ही बदलाव आया है तो भारतीयों को स्वार्थवाद में परिवर्तन लाने के लिये अभी कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।

Sunday, March 11, 2018

अपनी रोटी से ही तृप्ति



कभी मन हुआ करता था कि दुनिया की हर बात जाने लेकिन आज कुछ और जानने का मन नहीं करता! लगने लगा है कि यह जानना, देखना बहुत हो गया अब तो बहुत कुछ भूलने का मन करता है। तृप्त सी हो गयी मन की चाहत। शायद एक उम्र आने के बाद सभी के साथ ऐसा होता हो और शायद नहीं भी होता हो! दौलत के ढेर पर बैठने के बाद दौलत कमाने की चाहत बन्द होनी ही चाहिये और दुनिया को समझने के  बाद और अधिक समझने की चाहत भी  बन्द होनी चाहिये। लेकिन इस चाहत पर अपना जोर नहीं है, जब तक मन चाहत की मांग करता है, हम कुछ नहीं कर पाते लेकिन यदि मन तृप्त हो गया है तब उसे स्वीकार कर लेना चाहिये। रोज ही कोई ना कोई फोन आ धमकता है, यहाँ आ जाओ, वहाँ आ जाओ लेकिन मन कहता है कि भीड़ में जाकर क्या होगा, कहीं ऐसा ना हो कि ढूंढने निकले थे मन का सुकून और गँवा बैठे खुद का ही चैन। अक्सर देखती हूँ कि अधिकतर लोग कोई ना कोई कुण्ठा लेकर बैठे हैं, वही कुण्ठा उनके जीवन का उद्देश्य बन जाती है। आप उनके सामने कितनी ही अच्छी बाते परोस दें लेकिन उनकी सोच अपनी कुण्ठा से बाहर निकल ही नहीं पाती। हम यहाँ भी लिखते हैं तो हर व्यक्ति आपकी हर बात नहीं पढ़ पाता है, बस जो मन माफिक हो वही पढ़ी जाती है। लेकिन लिखना हमारा उद्देश्य बन बैठा है तो स्वयं को प्रकट करना मन की चाहत बन गयी है और जब स्वयं को प्रकट करना ही चाहत बन जाए तब दुनिया की हर बात को जानना अनावश्यक सा लगता है। मैं अपने मन को हरदम कुरदेती रहती हूँ और ईमानदारी से सबको अवगत भी कराती रहती हूँ।
कभी हम भी थोड़ा बहुत राजनीति पर लिख लेते थे लेकिन अब लगने लगा है कि जब हर व्यक्ति सत्ता की तलवार लेकर निकल पड़ा है तो मेरी आवाज तो नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाएगी। सामाजिक मुद्दे भी राजनीति की भेंट चढ़ते जा रहे हैं इसलिये खुद में डूबकर केवल अकेले व्यक्ति की बात करने से ही शायद बीज में ही सृष्टि समायी है का समाधान हो जाएगा। दुनिया का हर आदमी सुख चाहता है लेकिन उसके सुख अलग-अलग रास्ते में खड़े हैं। मेरा रास्ता कहाँ से जाता है और कहाँ तक जाता है, बस यही बात हम समझ नहीं पा रहे हैं, हम कभी किसी रास्ते  पर जाकर भटक जाते हैं और कभी किसी रास्ते पर जाकर लेकिन मेरा रास्ता मेरे अंदर से ही होकर जाता है यह जान नहीं पाते। हम दूसरों के सहारे से सुख ढूंढते हैं, जो कभी नहीं मिलता। यदि हम खुद के सहारे से सुख ढूंढे तो पल भर में सुख मिल जाएंगा, बस मैं यही करने का प्रयास कर रही हूँ। आज मेरा कथन भाषण जैसा हो गया है लेकिन जो शब्द लिखे जा रहे हैं उनपर मेरा जोर नहीं, मैं क्या लिखने बैठती हूँ और क्या लिख बैठती हूँ ये मेरे शब्द ही तय करते हैं, आज यही सही। मैं बीते पाँच-सात दिनों में कई लोगों से मिली, सभी लोग दूसरों के माध्यम से सुखी होना चाहते थे, कोई परिवार से धन चाहता था तो कुछ सरकार से रोजगार, कोई समाज से सम्मान चाहता था तो कोई पुरस्कार। सबकी शिकायते और आशाएं थी लेकिन कोई यह नहीं कह रहा था कि मेरा सुख मैं खुद अर्जित करूंगा! मुझे केवल अपनी बात कहने में सुख मिलता है और इसके लिये मैं दूसरों का माध्यम नहीं चुनती। मेरे सुख से भला दूसरों का क्या लाभ! दूसरे मेरे सुख के लिये क्यों चिंतित हों! मुझे सुखी होना है तो मेरा मार्ग मुझे ही ढूंढना है। मैं केवल सुख की तलाश में खुद तक सीमित रहती हूँ, इस बात से दुखी नहीं होती कि मुझे कौन  पढ़ रहा है और कौन नहीं। बस मैं लिख रही हूँ और सुखी हो रही हूँ। आप भी अपने अन्दर झांककर देखिये, आपका सुख भी आपका इंतजार कर रहा होगा। दूसरों के हाथों सुखी होने की जगह खुद से सुखी होना ही अन्तिम सत्य है। जैसे अपनी रसोई की रोटी खाने से ही तृप्ति होती है ना कि दूसरे की रसोई की रोटी खाने पर। खुद की रोटी थेपिये और खाकर आनन्दित हो जाइए। तब जरूरत ही नहीं पड़ेगी दूसरे के छप्पन भोग को देखने की। इसलिये दुनिया का आनन्द उठाने का मन अब नहीं करता बस खुद का आनन्द ही सच्चा लगता है।
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Thursday, March 8, 2018

गमले में सिमटी माँ बौन्जाई बनाती है, वटवृक्ष नहीं


आपने कभी वटवृक्ष देखा है, कितना विशाल होता है! उसे जितनी धरती का आँचल मिलता है, वह उतना ही विशाल होता जाता है। लेकिन कुछ आधुनिक लोग आजकल वटवृक्ष को भी गमलों में रोपने लगे हैं और आपने देखा होगा कि उनका आकार सीमित हो जाता है, वे लगते तो वटवृक्ष ही हैं लेकिन उनकी विशालता सीमित हो जाती है। धरती ही उन्हें विशाल बनाती है और धरती ही उन्हें बौना बना देती है। धरती का जितना आकार होता है उतना ही वटवृक्ष का विस्तार होता है, ऐसे ही महिला भी है जो धरती समान है और पुरुष बीज समान है। महिला की सोच जितनी विशाल होती जाती है उतनी ही व्यापकता से वह पुरुष का व्यकित्व बनाती है, यदि वटवृक्ष को गमले में सीमित किया गया है तो वह बौना बन जाएगा और उसे यदि प्रचुर धरती दी है तो वह कभी ना रुकने वाला वटवृक्ष बन जाएगा। महिला हर आयु में माँ स्वरूप रहती है, वह हमेशा पुरुष को विकसित करने का काम करती है, कभी वह गर्भ में धारण कर उस बीज को पौधे का आकार देती है तो कभी पत्नी बनकर उसे पुष्पित-पल्लवित करती है, बहन के रूप में प्रेम रूपी रक्त का संचार करती है तो पुत्री बनकर पुरुष को भी ममता से ओतप्रोत करती है। वह जब भी पुरुष के समक्ष होती है, हर रूप में स्निग्धता भरती है। इसलिये पुरुष को वटवृक्ष के समान विशाल बनना है तो महिला के व्यक्तित्व को व्यापक बनाना ही होगा, यदि महिला को हमने संकुचित सोच में ढाल दिया तब वह गमला बन जाएगी और पुरुष को भी बौन्जाई बना देगी।
हमारे जमाने में बालिका को जन्म के साथ ही दीक्षित किया जाता था, उसे माँ बनने के लिये प्रति पल शिक्षित किया जाता था। पुरुष महिला के साये में पलता था और बड़ा होता था, उसे कभी संकट का सामना नहीं करना पड़ता था, एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी, धरती बीज को धारण करती थी और वही धरती बीज को वृक्ष में बदल देती थी लेकिन आजकल परिवर्तन होने लगे हैं। महिला ने स्वयं को गमले तक सीमित कर लिया है और वह पुरुष को भी बौना बना रही है। महिला ने उस बीज को खुला आसमान देना बन्द कर दिया है, उस के स्थान पर गमले को कमरे की चारदीवारी में कैद कर दिया है। घर-घर में गमलों का चलन बढ़ गया है, न जाने कितने बौन्जाई गमलों में बन रहे हैं और अपने सीमित आकार में गमले की शोभा बढ़ा रहे हैं। आज महिला दिवस है, हम अपनी व्यापकता के बारे में विचार करे, हम में कितनी संभावनाएं है, उन्हें टटोलें, हम पुरुष को कितना विशाल व्यक्तित्व बना सकते हैं, इस पर विचार करें। जब भी कोई महिला माँ बन रही हो, तब उसे ध्यान में रहे कि अपनी पुत्री को गमले में परिवर्तित नहीं करना है अपितु उसकी सोच का दायरा उस खेत के समान करना है जहाँ विशाल वटवृक्ष की सम्भावना बन सके। जब भी हम गमलों में परिवर्तित होंगे तब पुरुष अपने आपको विस्तार देने के लिये गमलों की चारदीवारी को तोड़ने का प्रयास करता रहेगा, इसलिये उसे विस्तार देने में स्वयं की व्यापकता निर्धारित करें। अपने मातृ-स्वरूप को पहचाने और वह पुरुष की विशालता के लिये खुद को विशाल  बनाए। याद रखिये कि राम जब धरती पर अवतार लेते हैं उससे पहले कौशल्या मातृ-स्वरूप में उपस्थित होती है, कृष्ण के लिये देविका का आगमन होता है, शिवाजी के लिये जीजा बाई होती है। हर विशाल व्यक्तित्व के पीछे एक माँ खड़ी होती है, उसका विशाल आँचल होता है। किसी भी गमले में सिमटी माँ ने कभी  भी विशाल व्यक्तित्व को जन्म नहीं दिया है, इसलिये महिला की विशालता में ही पुरुष की विशालता निहित है। महिला दिवस पर सभी माताओं और सभी पुत्रों को बधाई।
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Saturday, March 3, 2018

अपने जीवन को जीने का मौका दें

"क्लब 60" यह फिल्म का नाम है, जो कल हमने टीवी पर देखी। जो लोग भी 60 की उम्र पार कर गये हैं उनके लिये अच्छी फिल्म है। इस फिल्म में अधिकतर पुरुष थे और उनकी संवेदनाओं पर ही आधारित थी लेकिन मैंने अपने शहर में महिलाओं के ऐसे ही समूह देखे हैं, जो अकेली हैं लेकिन अपने जीवन को जिंदादिली से जी रही हैं। मेरे घर में कुछ गुलाब के फूलों की झाड़ियां हैं, उसमें जैसे ही फूल खिलखिलाने लगते हैं, उन्हें देखकर मन खुश हो जाता है। मैं बार-बार उन्हें देखती हूँ, ऐसे ही जब कोई बुजुर्ग हँसता है तो मन को सुकून मिलता है और लगता है कि कांटों के बीच भी फूल खिलखिला रहे हैं। हमने अपने जीवन को एक दूसरे के साथ बाँध लिया है, बंधना अच्छी बात है लेकिन फूल के गुच्छे का भी अस्तित्व है तो एक फूल का भी है। फिल्म में एक संदेश था कि आपके साथ अब बच्चों की यादें भर हैं, चाहे वे इस दुनिया में हैं या नहीं हैं। यदि दुर्भाग्य से नहीं हैं तो भी उनकों याद कीजिये और हर पल को जिन्दादिली से जीएं और यदि होकर भी आपसे दूर हैं तो भी जिंदादिली से जीवन बिताएं। क्योंकि दोनों ही स्थितियों में बच्चे आपके साथ नहीं हैं, बस उनके साथ बिताए पल हैं। अकेले रहना गुनाह नहीं है, जिसे सजा के तौर पर काटा जाए। आज भारत में कितनी बड़ी संख्या में बुजुर्ग अकेले रहते हैं और कितनी बड़ी संख्या में महिला या पुरुष अकेले रहते हैं, यदि ये स्वयं में खुश नहीं होंगे तो समाज पर बोझ बन जाएंगे। इसलिये खुश रहिये। अकेले व्यक्ति का खुश रहना बहुत जरूरी है और समाज को भी उन्हें खुश होने का अधिकार देना चाहिये ना कि उनपर किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाना चाहिए।

महिला से तो बहुत सारे अधिकार छीन लिये जाते हैं, लेकिन अब दुनिया बदल रही है। महिला ने भी जीना सीख लिया है और बुजुर्गों ने भी जीना सीख लिया है। हम संतान के बड़ा करते हैं, अपना सुख-दुख भूल जाते हैं लेकिन जब संतान हम से दूर चले जाती है तब तो कम से कम अपने जीवन का मौल समझ लें। इसी प्रकार महिला को तो संतान के साथ-साथ पति की जिम्मेदारी भी उठानी होती है और वह तो अपने बारे में कभी सोच ही नहीं पाती, इसलिये जब अकेलेपन का शिकार हो जाएं तो उसमें भी अपना जीवन तलाश करें। भगवान कहता है कि कभी अपना जीवन भी अकेले गुजारकर देखो और अपने संघर्षों को खुशी-खुशी स्वीकार करो। दुनिया की सोच बदल रही है और वह अकेलेपन की ओर बढ़ रही है, हमें अकेलेपन को भी हँसकर जीना है और सभी के साथ भी हँसकर जीना है। परिवार का स्थान दोस्ती ने ले लिया है, तो हम सब भी दोस्ती की राह पर चलें। साथी हाथ बढ़ाना साथी रे, गाने का अर्थ व्यापक कर दें। लाफिंग क्लब से नकली हँसी को दूर कर दें और असली हँसी को जीवन में जगह दें दे। बस अपने जीवन को जीने का मौका दें और देश के खुशी का इंडेक्स ऊपर कर दें। कभी मौका लगे तो फिल्म जरूर देख लें, अच्छी और प्रेरणादायी फिल्म है।