Monday, March 29, 2010

लधुकथा - नकली मुठभेड़

डी.आई.जी. सुधांशु अपने कक्ष में आज अकेले बैठे हैं। तभी डी.वाय.एस.पी. शर्मा ने उनके कमरे में प्रवेश किया। शर्माजी आज बहुत खुश थे। उनकी प्रसन्नता छिपाए नहीं छिप रही थी। वे उत्साह में भरकर डी.आई.जी को बता रहे थे कि सर! आज हमें बहुत बड़ी सफलता हाथ लगी है। हमारी टीम ने दो आतंककारियों को पकड़ने में सफलता हासिल की है। इतना ही नहीं हमने उन्हें सारे सबूतों के साथ पकड़ा है।

सुधांशु एकदम से अपनी कुर्सी से खड़े हो गए। वे इतनी जोर से चिल्लाए जैसे एकदम ही फट पड़ेंगे। तुमने कैसे सिद्ध कर दिया कि वे आतंककारी हैं? किसी आतंककारी के चेहरे पर लिखा होता है क्या कि वो आतंककारी है?

लेकिन वो सर कुख्यात है और उसकी हमें कई दिनों से तलाश थी। शर्मा ने विनम्रता से अपनी बात कही।

मैं कहता हूँ कि उन्हें अभी तत्काल छोड़ दो, यह मैं तय करूंगा कि कौन आतंककारी है और कौन नहीं।

शर्मा ने फिर अपनी बात कहनी चाही लेकिन उनकी लाल सुर्ख आँखों के सामने वे कुछ नहीं बोल पाए और कक्ष से बाहर आ गए। श्रीवास्तव ने उन्हें धीरज बंधाया और कहा कि सर छोड़ दीजिए आप भी उन आतंककारियों को। क्या पता उनके पास किसी बड़े नेता को फोन आ गया हो या फिर पेटी पहुंचा दी गयी हो। सभी का यहाँ दोगला चारित्र है। दिखते कुछ है और अन्दर से कुछ और होते हैं। हम तो हमेशा सर की ही कसमें खाते थे और आज इनका भी असली चेहरा देख लिया।

अभी कुछ ही समय व्यतीत हुआ था कि पड़ौसी प्रान्त के दो अधिकारी शर्मा और श्रीवास्तव के कक्ष में उपस्थित हुए। उन्होंने पूछा कि क्या मि. सुधांशु अपने कक्ष में हैं।

शर्मा ने कहा कि वे अपने कक्ष में ही हैं लेकिन आप लोग कैसे आए हैं?

हम उन्हें गिरफ्तार करने आए हैं।

शर्मा और श्रीवास्तव दोनों ही अवाक उन अधिकारियों का मुँह तकने लग गए। वे समझ नहीं पा रहे थे कि ऐसा क्या हुआ है? फिर उन्होंने अपने आपको सम्भालते हुए प्रश्न किया कि किस कसूर में आप उन्हें गिरफ्तार करने आए हैं?

उन पुलिस अधिकारियों ने बताया कि अभी एक महिने पहले ही हमारे प्रांत की पुलिस के साथ मिलकर आपके इन डीआईजी ने दो कुख्यात आतंककारियों को एक मुठभेड़ में मार गिराया था।

तो?

उस मुठभेड़ को आतंककारियों के वकील ने नकली मुठभेड़ सिद्ध कर दिया है। अब हम क्या सुधांशु को भगवान भी नहीं बचा सकते।

Wednesday, March 24, 2010

अपराधी को सजा हुई और सारा परिवार ही भूख की चपेट में आ गया

कानून और इंसाफ की हम सभी प्रतिदिन दुहाई देते हैं। लेकिन जिसे न्‍याय करना है उसके सामने कई बाद चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। एक तरफ कानून कहता है कि अपराधी को सजा दो, तो दूसरी तरफ उसकी सजा सारे परिवार की सजा बन जाती है। कई बार हम समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि महिला ने अपराध किया, उसे जेल की सजा हुई और उसके साथ उसके गोद का बच्‍चा भी जेल गया। चोरी या अन्‍य अपराध में एक व्‍यक्ति को सजा हुई और सारा ही परिवार भूख की चपेट में आ गया। तब हमारे समाज के कानून पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगता है। क्‍या केवल कानून से ही समाज को सही मार्ग दिखाया जा सकता है? या कोई ऐसा भी मार्ग है जिससे अपराधी व्‍यक्ति का अपराध भी समाप्‍त हो और समाज और परिवार की समस्‍या भी सुलझ जाए। कई बार ऐसी ही समस्‍याएं पुलिस वालों के सामने और न्‍यायालय में आती हैं, उनके साथ मानवीय व्‍यवहार करने पर वे बदनाम भी होते हैं और समाचार पत्र उनके चरित्र को बदनाम करने का अवसर नहीं छोड़ते। ऐसे में क्‍या अन्‍य मार्ग भी है कानून के पास? इसी समस्‍या से जन्‍मी है मेरी यह लघुकथा। आप इसे पढ़िए और अपना परामर्श दीजिए।

लघुकथा - चोर

मजिस्ट्रेट कीर्तिवर्धन जी सर झुकाए अपने ड्रांइग-रूम में बैठे हैं। सामने समाचार-पत्रों की सुर्खियाँ उन्हें सर नहीं उठाने दे रही हैं - ‘मजिस्ट्रेट कीर्तिवर्धन ने रिश्वत लेकर एक चोर को छोड़ दिया’, ‘मजिस्ट्रेट कीर्तिवर्धन का कैसा इंसाफ’?, ‘चोर उनका रिश्तेदार तो नहीं’ ऐसे ही अनेक शीर्षकों से समाचार-पत्र रंगे पड़े हैं। उनकी पत्नी चाय का प्याला लेकर आयीं और बोली कि आपने यह क्या किया? बरसों की तपस्या को आखिर आपने क्यों भंग कर दिया? आप और रिश्वत यह बात तो गले ही नहीं उतरती! ये समाचार-पत्र वाले अपकी इज्जत मिट्टी में मिला देंगे। आपकी नौकरी भी खतरे में पड़ सकती है। आखिर आपने उस चोर को क्यों छोड़ दिया?

क्या करता? उसके दो छोटे-छोटे बच्चे थे और कमाई का कोई साधन नहीं था। यदि मैं उसे सजा दे देता और उसे जेल भेज देता तो या तो वे बच्चे भी चोर बन जाते या फिर भिखारी। आज से वह हमारे यहाँ काम पर आएगा।

Saturday, March 20, 2010

पाँच साल की बच्‍ची के गर्दन पर साँप लिपटा था

उई ई ई ई की चीख मेरे कानों में पड़ी और एक धम्‍म की आवाज भी। तभी दूसरी चीख सुनायी दी। मैं लथपथ सी उस ओर भागी। देखा कि बेटी और बहु एक दूसरे को थामें पसीना-पसीना हुए जा रही है। मैंने पूछा कि क्‍या हुआ? लेकिन उनके मुँह से कुछ नहीं फूटा। मैंने अपनी नौकरानी को आवाज लगाई, गीता ऽ ऽ ऽ, लेकिन वो भी एक कोने में खड़ी थरथर कांप रही थी। मैंने अब जोर से पूछा कि क्‍या हुआ है? तो गीता बोली कि वो वो छिपकली। अब मुझे बात समझ आ चुकी थी, मैंने गुस्‍से में आँखे तरेरते हुए कहा तो? अब बेटी बोली की तो क्‍या? आपको यह ‘तो’ लगता है। बहु भी जोर से बोली कि मम्‍मी वो हमें देख रही थी। इसलिए हम पलंग से कूदकर भागे हैं।

चुप करो। मैंने जोर से तीनों को ही डांटा। देखा छिपकली उनके कमरे से जा चुकी थी। अब हम चारों ही हँसते-हँसते लोटपोट हो रहे थे। फिर मैंने सोचा कि यदि मेरे सामने भी छिपकली आ जाती तो मैं शायद ऐसे चीखती नहीं लेकिन अपने कदम पीछे जरूर हटा लेती और धीरे से कमरे से भाग आती। फिर ध्‍यान आया बचपन, तब तो साँप भी सामने आ जाते थे और हम डरते नहीं थे। लेकिन आज इतना डर? चूहे से डर, कोक्रोच से डर, कुत्ते से डर, सभी से केवल डर। आखिर हम इतना डरते क्‍यों हैं?

आप मत सोचिए डर के बारे में, मैं आपको डराना नहीं चाहती बस कल का वाकया सुनाने के लिए ही इतनी कथा लिखी है।

मेरी भान्‍जी अमेरिका में है, अभी फरवरी में ही उसके बेटे का जन्‍मदिन था। कल वह ऑनलाइन मिल गयी। मैंने उससे कहा कि जन्‍मदिन के फोटो भेज। उसने फोटो भेजे। लेकिन यह क्‍या? एक पांच साल की लड़की के गले में तीन-तीन साँप पड़े हैं। कोई कछुवे से खेल रहा है तो किसी के सर पर छिपकली बैठी है। अरे नकली के नहीं सब असली थे। उन्‍होंने जानवरों की थीम पर जन्‍मदिन मनाया था तो एक सज्‍जन ढेर सारे जानवर लाए थे और बच्‍चे क्‍या बड़े सभी उनके साथ खेल रहे थे। साँप तो लोगों ने अपने गले में ऐसे लटकाए थे जैसे मायावती की माला हो। मैं तो फोटो देखकर ही सकते में आ गयी लेकिन वे सारे बेहद खुश थे। एक तरफ हमारे यहाँ का डर है और एक तरफ वहाँ सभी के मन से डर निकाला जा रहा है।

आज भी गाँवों में बच्‍चों के दिलों में इतने डर नहीं है जितने हम शहरवासियों के दिल में है। बचपन में हमारे पास भी नहीं था यह डर। लेकिन जैसे-जैसे हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं हमारा डर हम पर हावी हो रहा है। कभी लगता है कि बन्‍द कमरों में सिमटते जा रहे हमारे जीवन में हम शायद आदमी से भी डरने लगें। वैसे हमने महिला और पुरुष के खांचे तो बना ही दिए हैं। इस कारण एक दूसरे से डर तो लगने लगा ही है। महिला सोचती है पुरुष मेरे शरीर को घायल कर देगा और पुरुष सोचता है कि महिला मेरे मन को घायल कर देगी। इसी डर से वे एक दूसरे पर छिपछिपकर आक्रमण करते हैं और अपना डर भगाने की कोशिश करते हैं। मैं नहीं जानती इस डर का हल क्‍या हो? बस इतना जान पायी हूं कि हम जितना एक दूसरे से दूरी बनाएंगे उतना ही डर को अपने पास बुला लेंगे। फिर आप की राय सर्वोपरि है, आप बताएं।

Thursday, March 18, 2010

हमारे लेखन का भविष्‍य?

हम रोज ही कितना कुछ लिखते हैं। अपने लिखे को लेकर झगड़ा भी करते हैं। कभी कोई हमारे साहित्‍य की चोरी कर लेता है तो हम उसे धमकाते भी हैं। कभी कोई कागज उड़कर इधर-उधर हो जाता है तो कितना नाराज होते हैं अपने घर वालों पर? एक-एक शब्‍द को सहेज कर रखते हैं। अपनी किताबों को बैठक में सजाते भी हैं। प्रकाशित आलेखों को काट-काटकर फाइल बना देते हैं, उन पत्रिकाओं को भी सहेज कर रखते हैं। कम्‍प्‍यूटर में भी वेबसाइट पर ज्‍यादा से ज्‍यादा अपने लेखन को डालने का प्रयास रहता है। कोई घर का सदस्‍य हमारा लिखे को नहीं पढ़े तो मन कुंद हो जाता है। हमारा परिचय लेखक के रूप में ना हो तो उदासी छा जाती है। लेकिन ... इसी लेकिन पर अटकी है मेरी लघुकथा। आपकी अनुशंसा चाहिए।

लघुकथा - लेखक

पूर्णाशंकर जी श्रेष्ठ साहित्यकार थे, कई पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं और कई पाण्डुलिपियां अभी जिल्द को तलाश रही थी। घर में सर्वत्र पुस्तकों एवं कागजों का साम्राज्य स्थापित था। अधिकारी पुत्र को इन सबसे लगाव नहीं था। प्रतिदिन की खट-पट से ऊकता कर एक दिन पूर्णाशंकर जी ने सारी पुस्तकें और पाण्डुलिपियां बेच दी। कमरा खाली हो चुका था, अब वह कक्ष एक अधिकारी-पुत्र का बैठक-खाना था। पूर्णाशंकर जी कुछ दिनों बाद ही स्वर्ग सिधार गए।

शोक-सभा चल रही थी, एक गाड़ी आकर रुकी, उसमें से एक प्रकाशक उतरा। प्रकाशक ने सर्वप्रथम पूर्णाशंकर जी को श्रद्धांजलि दी, फिर उनके बेटे की ओर उन्मुख हुआ। प्रकाशक ने कहा कि एक दिन पूर्णाशंकर जी अपनी समस्त दौलत मेरे पास छोड़ गए थे, उनकी इच्छा थी कि मैं अपनी जमा-पूँजी को नाम दूं।

अधिकारी पुत्र असमंजस में था, दिल धड़क रहा था, कि पिताजी के पास कौन सी जमा-पूंजी थी?

तभी प्रकाशक ने कहा कि पूर्णशंकर जी ने मुझसे आग्रह किया था कि मैं उनकी शेष पाण्डुलिपियों को प्रकाशित करूं। मेरे लिए यह सौभाग्य की बात थी। लेकिन उन्होंने एक शर्त रख दी थी, जिसे पूरा करना कठिन था। आज उनकी मृत्यु के बाद मैं उनकी अंतिम इच्छा पूर्ण करना चाहता हूँ क्योंकि वे बहुत ही श्रेष्ठ साहित्यकार थे।

सारे ही लोग और अधिकारी पुत्र उनके चेहरे की ओर देख रहे थे। एक अनजाना डर पुत्र के चेहरे पर देखा जा सकता था। पता नहीं अंतिम इच्छा क्या हो? कहीं मुझे समाज के समक्ष स्वीकार करने पर मजबूर तो नहीं होना पड़ेगा?

प्रकाशक ने कहा कि वे चाहते थे कि मेरी पुस्तकों पर लेखक के जगह मेरे पुत्र का नाम लिखा जाए। जिससे मेरे कक्ष में पुनः मेरी पुस्तके सज सकें। अतः मैं आपसे आज्ञा प्राप्त करने आया हूँ।

Monday, March 15, 2010

कभी कुटिल व्‍यक्ति भी आपको सफलता दिला देते हैं

कभी आप किसी महत्‍वपूर्ण पद पर कार्यरत हैं और आप अपने कार्य द्वारा मंजिल प्राप्‍त करना चाहते हैं। लेकिन देखते हैं कि कोई एक व्‍यक्ति आपके पीछे पड़ जाता है। सारी कुटिलता लिए वह आपके हर अच्‍छे फैसलों को भी बेकार सिद्ध करने पर उतारू हो जाता है। अधिकतर ऐसा राजनैतिक पदों में होता है। जब राजनैतिक दृष्‍टि से ही हर कार्य को देखा जाता है। उस समय आपका सारा ध्‍यान उस कुटिल व्‍यक्ति पर केन्द्रित हो जाता है। कितनी ही अन्‍य बाधाएं, कितने ही प्रलोभन आपके मार्ग में खड़े होते हैं लेकिन आपका उनपर ध्‍यान नहीं जाता। आपका सारा ध्‍यान उस कुटिल व्‍यक्ति से स्‍वयं को मुक्‍त करने में लग जाता है। अंत में आप देखते हैं कि जो काम बहुत ही दुरुह था, अनेक बाधाओं से भरा था, वो काम आप पूर्ण कर लेते हैं। क्‍योंकि आपका लक्ष्‍य उस कुटिल व्‍यक्ति ने निर्धारित कर दिया था। आप पूर्ण उर्जा के साथ उसके द्वारा उत्‍पन्‍न की गयी बाधाओं को दूर करने में जुट जाते हैं और तब अन्‍य बाधाओं को आप देखते भी नहीं। क्‍या आपके साथ भी कभी ऐसा हुआ है? हम साहित्‍य से जुड़े लोग कुछ न कुछ समाज से प्रेरणा प्राप्‍त करके लिखते हैं। ऐसी ही प्रेरणा से एक लघुकथा का जन्‍म हुआ, आपके लिए यहाँ प्रस्‍तुत कर रही हूँ। आप बताएं लघुकथा उपयोगी है या निरर्थक? क्‍योंकि मैं शीघ्र ही एक लघुकथा-संग्रह प्रकाशित कराना चाहती हूँ तो कुछ लघुकथाओं के बारे में आप सब का विचार जानने के बाद ही इसे प्रकाशक के हाथों में दूंगी।



लघुकथा-गन्दी मक्खी

मुझे शाम तक पहाड़ी पर बने मन्दिर तक पहुँचना था। अभी कदम बढ़े ही थे कि एक गंदगी में बैठने वाली बड़ी मक्खी, सिर के पास आकर भिन-भिनाने लगी। मेरा सारा प्रयास उसे अपने शरीर से दूर रखना था। क्योंकि वो अपने साथ नाना प्रकार के किटाणु लेकर आयी थी। कभी चाल धीमी हो जाती और कभी तेज। आखिरकार मैं अपने गंतव्य तक समय रहते पहुँच ही गयी।

मन्दिर में एक मित्र ने पूछा कि रास्ते का आनन्द कितना आया?

मुझे तो एक मक्खी के कारण रास्ता दिखा ही नहीं, बस केवल मंजिल मेरे सामने थी और मैं यहाँ तक पहुँच ही गयी।

अर्थात् आपने रास्ते में कुछ नहीं देखा?

नहीं।

अच्छा हुआ, क्योंकि रास्ते में जगह-जगह कीचड़ भरे गड्डे भी थे। इस गन्दी मक्खी के कारण आप का ध्यान उस ओर गया ही नहीं और आप उसकी बदबू से बच गयीं।

Friday, March 12, 2010

ना मेल हैं और ना ही फीमेल – संस्‍मरण

हम ट्रेन में अपनी आरक्षित बर्थ पर पसर कर इत्मिनान से बैठ चुके थे। यह उस जमाने की बात हैं जब आरक्षण के लिए स्‍टेशन पर जाकर लाइन लगानी पड़ती थी। आरक्षण मिलने पर ऐसा ही जश्‍न मनता था जैसे आज आईपीएल की टिकट के लिए मनाया जा रहा है। हमने भी हमारे मित्र के कर्मचारी के द्वारा आरक्षण कराया था। अभी हमने दो घड़ी चैन के भी नहीं बिताए थे कि टिकट कलेक्‍टर महोदय आ गए। उन्‍होंने हम चारों की और घूरकर देखा। हम दो दम्‍पत्ति साथ में यात्रा कर रहे थे और हमारा टिकट एकसाथ ही बना था। उनका घूरना मुझे कुछ रहस्‍यमय लगा, मैं कुछ समझू इससे पूर्व वे आराम से हमारी बर्थ पर बैठ चुके थे। अचानक जैसे वज्रपात हुआ हो वे उसी अंदाज में हम से बोले कि इस टिकट में तीन पुरुष और एक महिला हैं। आप यहाँ दो पुरुष और दो महिलाएं हैं? अब तक हमारी भी बत्ती जल चुकी थी। हम पलक झपकते ही सारा माजरा समझ गए। हमने टिकट देखी, हमारे नाम के आगे मेल लिखा था। हमने उन महाशय को समझाने का प्रयास किया कि भाई यह मेल गल्‍ती से लिख दिया गया है और यह गल्‍ती हमारे नाम के कारण हुई है लेकिन वे तो आज मुर्गा काटने की फिराक में थे। शायद मुर्गा होता तो कट भी जाता लेकिन मुर्गी कटने को तैयार नहीं थी। मैं अनुभवी थी, घाट-घाट का या यू कहूं कि रेल-रेल का सफर किया था। उन्‍होंने तब तक रसीद बुक निकाल ली और बोले कि पेनल्‍टी सहित नया टिकट लेना पड़ेगा। हम बोले कि पागल हुए हैं क्‍या? हम तो पैसे नहीं देंगे, तुम्‍हारी इच्‍छा हो वो कर लो। वे बोले कि कोई बात नहीं, आप विचार कर लें, मैं जब तक अन्‍य टिकट देख कर आता हूँ। वे शायद सोच रहे होंगे कि यदि अन्‍य जगह मुर्गे हलाल हो गए तो इस मुर्गी को छोड़ दूंगा नहीं तो आज मेरे हाथों से तो बचकर जा नहीं सकती। कोई बात नहीं झटके का नहीं तो हलाली का ही खाएंगे, जल्‍दी क्‍या है? हम निश्चिंत हो गए, सोचा कि शायद समझ चुके हैं। लेकिन वे एक घण्‍टे बाद वापस आ धमके। अब हमने भी धमका दिया कि जाओ जो करना हो वो कर लो।

कुछ ही देर में चित्तौड़ स्‍टेशन आ गया और तब तक रात्रि के 9 बज चुके थे। रेल का सफर करते-करते हमें कुछ नियम-कायदों का ज्ञान हो चुका था। मैंने अपने पतिदेव से कहा कि स्‍टेशन मास्‍टर से जाकर शिकायत करो कि टीटी परेशान कर रहा है। लेकिन स्‍टेशन मास्‍टर ने तो उन्‍हें ही हिदायत दे दी कि अरे साहब 50 रूपए दे दीजिए, मामला शान्‍त हो जाएगा। उन टीटी ने भी आज पैसा वसूलने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर रखी थी और चित्तौड़ में तो हम क्षत्राणी बन चुके थे। वे एक पुलिस वाले को ले आए, मैंने उनसे पूछा कि कैसे आए? पुलिस वाला बोला कि सुना है कि डिब्‍बे में कुछ गलत हो रहा है। मैंने उसे हड़काया, सुनी सुनायी बात पर घुसे चले आते हो, बाकि तो कहीं जाते नहीं। वो पता नहीं कैसे वापस उल्‍टे पैर ही मुड़ गया। तब तक हमारा धैर्य समाप्‍त हो चुका था और हमारे अन्‍दर की क्षत्राणी जाग चुकी थी। टीटी महाशय आए और वे बर्थ की आड़ में खडे हो गए। हमारे साथी हमें पैसे देकर मामला रफा-दफा करने की सलाह दे रहे थे, हमने अपने साथियों से कहा कि आप तीनों का आरक्षण दुरस्‍त है तो आप प्रेम से सो जाओ। मैंने बर्थ के नेपथ्‍य से उन टीटी महाशय को भजन सुनाने प्रारम्‍भ किए। मैंने कहा कि भैया तुम्‍हारे चार्ट में मेरे नाम के आगे मेल लिखा है तो वो दुरस्‍त है। यह मेरी स्‍वतंत्रता है कि मैं क्‍या वेशभूषा पहनू। और तुम्‍हारी जानकारी के लिए बता दूं कि मैं ना मेल हूँ और ना ही फिमेल। मैं कभी मेल लिखा देती हूँ और कभी फिमेल। कपड़े भी कुछ भी पहन लेती हूँ। अब बताओं क्‍या करोगे। रात को नो बजे बाद तुम किसी महिला यात्री को रेल से उतार नहीं सकते तो अब मस्‍त रहो। आज कोई भी मुर्गा नहीं कटते देख बेचारा टीटी बड़ा निराश हुआ और हम चादर ओढ़कर सो गए।

Monday, March 8, 2010

संस्‍मरण – चुड़ैल समझकर लड़के डर गए

रात गहराती जा रही थी। सड़क कब से सुनसान पड़ी थी। एक पीपल का पेड़ था जो बड़े से एक चबूतरे से मढ़ा था। उस चबूतरे पर हम तीन महिलाएं, अपनी ही दुनिया में मस्‍त बस हँसती जा रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे यह हँसी आज ही परवान चढ़ जाएगी। एक महिला कुछ बात कहती और शेष दो ठहाका लगा देती। तभी धीरे से दबे पाँव कोई हमारे पास आकर सहमा सा खड़ा हो गया। मेरी निगाहे उस पर टिक गयीं। डर के मारे उसके बोल नहीं फूट रहे थे। महिलाओं ने उसकी हालात देखी और हँसी का फव्‍वारा फूट चला। पलक झपकते ही माजरा समझ आ गया। लड़का डरा हुआ था, इतनी रात को पीपल के पेड़ के नीचे अट्टहास करती महिलाओं को देखकर। मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी को दबाया और बोली कि डरो मत, हम केवल तीन नहीं हैं, हमारे तीन साथी अन्‍दर हैं। लड़के का डर समाप्‍त होने के स्‍थान पर बढ़ गया, वह वहाँ से खिसक लिया और सड़क किनारे अपनी मोटर-सायकिल और अपने दोस्‍त के साथ जा खड़ा हुआ। तभी एक और मोटर-सायकिल आकर रुकी, उन चारों ने हम पर टार्च का प्रकाश डाला। हम फिर हँस दिए। वे सरपट भाग गए।

यह कोई जासूसी उपन्‍यास की कथा नहीं हैं, अपितु मेरी आप-बीती घटना है। कई वर्ष हो गए इस घटना को घटे। हम तीन दम्‍पत्ति बीकानेर से उदयपुर के लिए कोंटेसा कार में शाम को रवाना हुए। शहर से बाहर निकलते-निकलते शाम ढलने लगी थी। रास्‍ता बहुत लम्‍बा और एकान्‍त वाला था। लेकिन डर कहीं नहीं था। अभी कुछ ही देर चले थे कि गाड़ी ने जवाब दे दिया। तब तक रात भी घिर आयी थी। बस एक काली टूटी-फूटी सी सड़क थी और दोनों तरफ रेत के टीले। मेरा बचपन रेत के टीलों के बीच बीता है तो उन्‍हें देखते ही मन मचलने लगा। जैसे ही हमें सुनायी दिया कि गाड़ी खराब हो गयी है हम तीनों महिलाएं दौड़कर टीलों पर जा बैठे। कुछ देर बाद ही गाँव के दो-चार लोग भी एकत्र हो गए और हमें कहा गया कि गाड़ी को नजदीक के गाँव में ले जाना पड़ेगा। ह‍में एक ट्रेक्‍टर पर बैठने को कहा गया। जीवन में कभी भी ट्रेक्‍टर पर नहीं बैठे थे तो बड़ा डर लगा, लेकिन जैसे-तैसे लटकते-पड़ते बैठकर हम गाँव तक जा पहुंचे। गाड़ी भी ठीक हो गयी और हम अपने सफर पर चल दिए।

लेकिन यह क्‍या, अभी एकाध घण्‍टे भी गाडी नहीं चली थी कि वो फिर बोल गयी। अब क्‍या किया जाए। रात काफी हो चली थी। कोई भी व्‍यक्ति दिखायी नहीं दे रहा था और सड़क एकदम सुनसान थी। बहुत देर इंतजार करने के बाद एक व्‍यक्ति दिखायी दिया और उसने बताया कि पास ही एक गेराज है, वहाँ गाडी को ले जाओ। हमने जैसे-तैसे गाडी को गेराज तक पहुंचाया। तीनों पुरुष गाडी के साथ गेराज में चले गए और हम महिलाओं ने अपना अड्डा उस पीपल के पेड़ के नीचे जमा लिया। मेरी आदत गप्‍प मारने की कुछ ज्‍यादा ही है तो हम तो शुरू हो गए। समय पंख लगाकर उड़ने लगा और रात कब मध्‍य-रात्रि में बदल गयी पता ही नहीं चला। और वे बेचारे लड़के हमें चुडै़ल समझकर डरकर भाग गए। शायद आज भी उस गाँव में हमारा खौफ मौजूद हो?

रात बारह बजे बाद हमारे साथी गाडी को दुरस्‍त करके बाहर निकले, हमने तब खाना खाया और फिर हमारी छकड़ा गाडी चल दी। लेकिन उस गाडी को नहीं चलना था तो नहीं चली। कुछ दूर जाकर ही फिर अड़ गयी। रात के दो बजे ह‍म कहीं आसरा ढूंढ रहे थे, देखा सामने एक स्‍कूल खड़ा है। खुशी-खुशी दरवाजे तक गए लेकिन वहाँ ताला लगा था। अन्‍दर कैसे जाएं? लेकिन एक टीले ने हमारी मदद की। वो टीला स्‍कूल की दीवार के सहारे अपना वजूद लिए खड़ा था। हम उस पर चढ़ गए और दीवार कूद गए। गाडी में एक दरी भी मिल गयी और हम स्‍कूल के प्रांगण को सुख-शैय्‍या समझकर गहरी नींद में सो गए। जैसे ही सूरज ने दस्‍तक दी, हमारा एकान्‍त भाग गया। सामने ही चाय की दुकान दिखायी दे गयी। हम सबने चाय पी और गाडी को धक्‍का लगाकर चलाने का प्रयास किया। गाडी चल दी, लेकिन जैसे ही ब्रेक लगाए वो फिर बन्‍द हो गयी। हमने गाँव वालों से प्रार्थना की कि आप धक्‍का लगा दीजिए, उन्‍होंने धक्‍का लगा दिया और गाडी भर्र से चल दी। गाडी तो लोगों के धक्‍के से चल दी लेकिन चाय वाले को पैसा तो दिया ही नहीं। अब क्‍या करें? गाडी रोक नहीं सकते। भगवान को उत्तरदायी बनाकर हम निश्चिंतता से आगे चल दिए। परीक्षा अभी बाकी थी। उस साल उस रेगिस्‍तान में भी बाढ़ आयी थी तो सड़के तो माशाअल्‍लाह थी ही, साथ में पानी के साथ नदी के गोल-गोल पत्‍थर भी रास्‍ते में आ गए थे। इतने में ही भेड़-बकरियों के झुण्‍ड ने हमारी गाडी को फिर रोक दिया। किससे धक्‍का लगवाएं? अब पुरुषों ने स्‍वयं ही धक्‍का लगाया और दौड़कर गाडी में बैठ गए। ऐसी प्रक्रिया कई बार करनी पड़ी और गाडी के फाटक भी हाथ में आने को तैयार हो गए। लेकिन विकट स्थिति तो तब पैदा हुई जब एक सूखी नदी रास्‍ते में आ गयी। उसके गोल-गोल पत्‍थरों से गाडी फिर रुक गयी। इस बार बोनट खोलकर जाँच कर ली गयी और धक्‍का लगाकर जैसे ही गाडी ने चार कदम बढ़ाए कि विपक्ष की तरह बोनट खुलकर तन गया। अब गाडी को रोके तो मुश्किल और ना रोके तो बोनट को कैसे नीचे बिठाए? एक साथी ने क्‍लच पर पैर रखा और एक साथी ने अपनी लम्‍बी टांगों को खिड़की से बाहर निकाला और जोर से पैर को बोनट पर पटक दिया। बोनट बन्‍द हो गया और गाडी भी नहीं रुकी। खुशी की लहर दौड गयी। दिन होते-होते इसी प्रकार गाडी से जूझते हुए हम नागौर पहुंचे और वहाँ उसे पक्‍की तौर पर ठीक कराने का प्रण लिया। कई घण्‍टे लगे, लगे तो लगे, लेकिन रात होने से पहले हम कम से कम जोधपुर तो पहुंच जाएं। विधाता ने चाय की कीमत वसूलने की ठान रखी थी। मण्‍डोर पहुंचते-पहुंचते तो हमारी गाडी ऐसी हो गयी थी कि उसे एक थैले में भरकर ले जाया जाए। चारों फाटक लटक चुके थे। मण्‍डोर पहुंचकर तो गाडी ने बिल्‍कुल ही हथियार डाल दिए। अब तो उसे दूसरी गाडी के सहारे खेचने के सिवाय हमारे पास कोई चारा नहीं था। जैसे-तैसे जोधपुर पहुंचे। एक मित्र के यहाँ गए, वे भी अचानक ही छ: लोगों को आया देख घबरा गए। उनकी पत्‍नी ने हँसकर स्‍वागत तो किया लेकिन दबे स्‍वर में बता भी दिया कि आज ही नौकर गाँव गया है। इतने लम्‍बे सफर के बाद भी हमारी जिन्‍दादिली में कोई कमी नहीं आयी थी। हमने उनसे हँसकर कहा कि आप चिन्‍ता ना करें। आपकी सहायता के लिए तीन पढ़ी-लिखी शहरी बाइयां आयी हैं। सब काम फटाफट निबटा देंगी। वे भी दिल खोलकर हँस दी और हमें बड़े ही प्‍यार से रात का खाना खिलाया। हमने बस की टिकट खरीदी और उदयपुर के लिए रवाना हो गए। जिन मित्र की गाडी थी, उन्‍हें अकेला छोड़कर। हाँ चाय वाले के पैसे मेरे पतिदेव ने आखिर भेज ही दिए। उनका एक रोगी उसी मार्ग पर ट्रक चलाता था तो उसने वह जगह पहचान ली और बाकायदा पैसे उस चाय वाले तक जा पहुंचे।

Thursday, March 4, 2010

हँसी ने मित्र बनाया और हँसी ही गायब हो गयी

उसकी खनखनाती हँसी ऐसे लग रही थी जैसे झरना कलकल बह रहा हो, या सुदूर पहाड़ों के मध्‍य कहीं से मन्दिर की घण्टियां बज उठी हों। मैं उसकी तरफ खिचने लगी। मन कर रहा था कि यह ऐसी ही हँसती रहे और मैं उस निर्मल हँसी का पान करती रहूँ। मैंने अपनी दोस्‍ती का हाथ तत्‍काल ही बढ़ा दिया। उसने भी मेरा हाथ थाम लिया। दोस्‍ती की पींगे बढ़ने लगी, सारा दिन हँसी-ठहाकों में ही गुजरने लगा। लेकिन बस कुछ ही दिनों का यह खेल था, धीरे-धीरे मेरे कंधों पर उसके सर का बोझ बढ़ने लगा और मेरा आँचल उसके आँसुओं से सरोबार हो गया। अब हमारे बीच दोस्‍ती तो थी लेकिन जो हँसी हमारी दोस्‍ती का कारण बनी थी वो गायब हो गयी थी। बस सारा दिन रुदन सुनना ही मेरी नियति रह गयी थी।

ऐसा बहुत ही कम होता है जब कोई महिला खुलकर हँसती हो। मैंने अक्‍सर महिलाओं का रुदन ही सुना है। यदि कभी हँसने का मन हुआ भी तो आँचल को मुँह पर ढापकर दबे स्‍वर में हँसती हैं। झरने की तरह कलकल बहना या फिर मन्दिर की घण्टियों सा बजना कितने लोगों को नसीब होता है? बस मैं ऐसे अवसर पर महिला होकर भी महिला पर फिदा हो जाती हूँ। जिस डाल पर फूल झूम-झूम कर नाच रहा हो, जिसमें जीवन का उत्‍साह झलकता हो, चंचलता और शोखी हवा में बिखर जाती हो, ऐसे फूल को तो हर कोई अपनी बगिया में लगाना चाहता है। बचपन से ही जब भी घर की डाँट-डपट से मन दुखी होता था तब एकाध बार ऐसा भी हुआ कि ऐसी ही निर्मल हँसी कहीं से सुनायी दे गयी, बस मैं उस हँसी को देखती ही रहती थी। मुझे लगता था कि यहाँ बैठकर कुछ पल हँसी-खुशी से बिताए जा सकते हैं। सारे ही गम यहाँ भुलाए जा सकते हैं।

दोस्‍ती बढ़ने लगती, कुछ दिन बेहद अच्‍छा लगता। मैं बड़ी ही संजीदगी से हर रिश्‍ते को लेती लेकिन बस कुछ दिन ही निकलते और उस हँसी के पीछे का रुदन सामने आ खड़ा होता। सच्‍चा श्रोता जानकार मुझे छिपे हुए सारे ही क्‍लेष सुना दिए जाते और मुझे लगने लगता कि जिस हँसी के पीछे मैंने अपने रुदन छिपाए थे, आज दूसरों के रुदन को भी गले लगाना पड़ रहा है। ऐसा अक्‍सर हुआ, जितनी हँसी, उतना ही रुदन। लोग कहते भी हैं कि अपना रुदन छिपाने के लिए ही यह हँस रहा है। लेकिन यह आकर्षण जो होता है, वह मन का ऐसा भाव है कि बस जिस बात को भी पकड़ले मानता ही नहीं। अब मेरे मन ने इसी भाव को पकड़ा हुआ है। बस जहाँ भी निर्मल हँसी कान में पड़ी और मुझे लगता है कि यह दोस्‍ती के लायक है। लेकिन यह भ्रम बस कुछ ही दिन रहता है, शेष समय तो रुदन सुनने में ही निकलता है।

ब्‍लोगिंग करते समय भी रिश्‍ते तो बन ही जाते हैं। किसी की खनकदार हँसी आकृष्‍ट भी करती है। लेकिन मन डरने लगा है उसके पीछे छिपे रुदन से। क्‍या आपके साथ भी ऐसा ही होता है जब आप किसी जिन्‍दादिल इंसान को अपना मित्र बनाते हो और उसका रुदन आपके जीवन का सत्‍य बन जाता हो? अब तो मैं मित्र बनाने से डरने लगी हूँ लेकिन मन की फितरत कभी मिटती नहीं। क्‍या कुछ मुठ्ठी भर ऐसे लोग हैं दुनिया में, जो बस केवल जीवन को हँसी के सहारे ही गुजार दें? अपने गमों के लिए कंधा नहीं तलाशें। दुख की घड़ी में रो भी लें लेकिन वो स्‍थाई भाव नहीं बने। बस जिन्‍दगी में हर गम को हँसी में उड़ा दे। मैं ऐसा मित्र-मण्‍डल बनाना चाहती हूँ जहाँ केवल हँसी हो, बस हम हँसने के बहाने तलाश करें। कौन साथ देगा मेरा?