बाहर अमलताश फूल रहा है, नीम भी बौराया सा है, मन्द-मन्द समीर के साथ एक मदमाती गंध घर के अन्दर तक घुस आयी है। एक गहरे नि:श्वास के साथ उस गंध को अपने अन्दर समेटने का प्रयास करती हूँ, साथ ही एक नन्हीं सी गंध भी नथुनों में भर जाती है। कमरे में पंखा भी अभी ठण्डी हवा दे रहा है और इन सारी गंधों ने आँखों की पुतलियों को मदहोश सा कर दिया है। एक खुमारी सी छा गयी है सम्पूर्ण तन और मन में। अलसायी सी घड़ी में न जाने क्यों पैर अकुला से रहे हैं। जैसे-जैसे हाथों का स्पर्श पाते है, उनकी टीस बढ़ सी जाती है। मैंने हौले से पैरों से पूछ लिया कि क्यों टीसते हों? इतने आराम में भी यह कैसी टीस है? तभी कानों में एक गूँज गुनगुन कर जाती है – नानी दवा ले लो।
मन झूम उठता है, अरे मिहू तुम कहाँ हो? नहीं कोई नहीं है और पैर टीसना चालू रखते हैं। तुम्हारे पीछे दौड़ते हुए तो मरे ये पैर कभी शिकायत नहीं करते थे? अभी दो घूंट पानी हलक के नीचे भी नहीं उतरा था कि तुम ठुमकती हुई आ जाती थी – नानी सू सू आ रही है। मैं जानती थी कि सू सू का तो बस बहाना है, असल में तो कपड़े खुलवाने की मौज तुम्हारी आँखों में तैर रही होती थी। लेकिन यह ऐसा बहाना था कि जानकर भी दौड़कर उठना पड़ता था। तुम्हें जल्दी से सू सू कराना पड़ता था और वो क्षण? जैसे ही तुम कपड़ों के बंधनों से मुक्त हुई और कैसे तो दोनों पैरों को झुकाकर नाच उठती थी। तुम्हारी आँखें बोल रही होती थी कि देखो मेरी जीत हो गयी। मैं चड्डी लेकर तुम्हारे पीछे दौड़ती थी, कभी बोलती मिहू ------- चलो आओ। लेकिन तुम्हें तो मजा आ रहा होता मुझे नचाने में। फिर प्यार से बोलती मेरी चीयां आ जा, देख तू कितनी अच्छी है, बेटा कपड़े पहनते हैं। जब ये मुए पैर कभी भी इतराते नहीं थे, अहसास ही नहीं होता था कि ये हैं भी।
तुम्हारा एक नारा सबसे अनोखा था – किचन में चलो। तुम गोद में अट जाती थी और किचेन में न जाने कितने दिन पहले छिपायी हुई चीज तुम्हें याद आ जाती थी। मैं खोजती ही रहती कि कहाँ है, लेकिन तुम बता देती कि फ्रिज के ऊपर छिपायी हुई है चाकलेट। अरे ये तो एक महिने पहले छिपायी थी, उसकी माँ बोल उठती। झट से पूरा डिब्बा ही मेरे हाथों से छीन लेती और फिर कितनी ही पीछे भागो लेकिन मजाल है जो डिब्बा छीन लो। भागना भी कितना होता है, आजकल के फ्लेटों में? यहाँ मेरे घर आती तो पता लगता इन इतराने वाले पैरों को? पूरे घर के कितने चक्कर लगा देती लगता कि एक बॉल खेलकर ही मानो दौड़कर दस रन बना लिए हों। कैसी अजीब-अजीब जिद थी तुम्हारी? बिस्किट खाने है, लो खा लो। नहीं दूध के साथ खाने है। अब दूध तो छंटाक भर और बिस्किट चार खा लिए गए। चम्मच में दूध भरा जाता और तुम टुकड़े तोड़-तोड़कर उसमें बिस्किट डालती और जैसे ही चम्मच को मुँह में डाला, बिस्किट सुड़ुप और दूध वहीं का वहीं। अरे अरे यह क्या है, चलो दूध भी पीओ। नहीं तो यह नन्हें पैर कैसे मजबूत होंगे? लेकिन दूध के नाम से तो उसकी आँखों के गोले घूम जाते और बहुत ही शरारती अदा के साथ दुध्धू बोलकर माँ के सामने देखती। माँ क्या करे, पूरे दो साल तक तो पिलाया है लेकिन दो महिने होने आए मोह छूटता ही नहीं। दूध पीना है तो केवल माँ का, बाकि तो फिर डे-केयर वाले ही पिला सकते हैं। यहाँ तो बस दूध पीने का केवल नाटक भर है। तभी उसकी छोटी-छोटी अंगुलियां घूम जाती और पोरों को गोल-गोल घुमाकर बोलती कि अंगूर। अरे अब बीच में ही अंगूर कहाँ आ गए?
चल उठती हूँ, फ्रिज में से एक गुच्छा अंगूर निकाला और उसने थाम लिए। देखा कि अरे अंगूर तो समाप्त होने वाले हैं, अब क्या करूं? यहाँ कॉलोनी में तो अंगूर मिलते नहीं, अब? मिहू के पापा तो लंदन गए हुए हैं और मैं यहाँ के रास्ते जानती नहीं। मम्मा भी ऑफिस है और उसके रास्ते में भी अंगूर नहीं मिलेंगे। सोच में पड़ जाती हूँ। दिन में जैसे ही उसे डे-केयर छोड़ती हूँ, दौड़कर सब्जी वाले की दुकान पर पहुँच जाती हूँ। यह सोचकर कि अंगूर नहीं तो तरबूज तो मिल ही जाएगा। पैरों का खून रेंगने लगता है, लगता है कि जैसे पंख लग गए हों, बस एक ही धुन है कि कैसे भी कुछ मिल जाए। जैसे ही सब्जी वाली थड़ी जैसी दुकान के पास जाती हूँ, तो एकदम सकते में! अरे दुकान ही नहीं है, लेकिन बस एक ही क्षण में आँखे बता देती हैं कि चिन्ता मत करो, यह दुकान उठकर सामने आ गयी है। नये अंदाज के साथ। जैसे ही दुकान के पास जाती हूँ, एक पेटी भर अंगूर रखे हैं, एकदम ताजा और बेस्ट। आह मन पुलकित हो जाता है, बस फटाफट एक किलो तुलवा लेती हूँ। फिर ध्यान आता है कि दुकानदारी का तकाजा है कि भाव जरूर पूछना चाहिए तो नियम सा निभाते हुए भाव भी पूछ लेती हूँ। अब मुझे आजतक ही किसी का भाव मालूम नहीं हुआ तो पूछकर भी क्या होगा? तभी ध्यान आया कि कल ही तो बेटी ने बताया था कि साठ रूपए किलो हैं। बस अब तो मन शेर हो गया। अरे अस्सी रूपए कैसे? माना अंगूर बहुत अच्छे हैं तो सत्तर ले लो। वो भी एकदम से ही मान गया। मानता भी क्यों नहीं, क्योंकि मैंने केवल अंगूर का ही तो भाव पूछा था, बस दस्तूर निभा दिया और बाकि सारे अन्य फल और सब्जियों को तो बेभाव ही खरीद लिया। लेकिन मैं खुश थी, मेरी मिहिका के लिए अंगूर और तरबूज मिल गये थे। आज पहली बार ही पैदल चलकर थैला लटकाकर सब्जी लेने जो गयी थी। तभी से पैर भी इठलाते रहते है और आज अकेले बैठे-बैठे न जाने क्यों टीस रहे हैं।
तभी फोन की घण्टी बज उठती है, भागकर फोन उठाती हूँ, उधर से मिहू बोल रही है, “नानी दवा ले ली”? बस इन पैरों में जैसे आयोडेक्स मल दिया हो, और उस आवाज के साथ ही पिण्डलियों की थकान फुर्र हो गयी। घड़ी में देखा छ: बज गए हैं, अरे यह समय तो मिहू को डे-केयर से लाने का होता है। जल्दी से तैयार होने लगती हूँ, लेकिन अरे पुणे से तो परसों ही वापस आ गयी थी! जैसे ही मैं डे-केयर जाती और एकदम चहक उठती – नानी आ गयी। दिव्या बोलती कि मिहू नानी आयी हैं तो झट से प्रतिवाद कर देती, नहीं मेरी नानी है। बस जल्दी से जूते पैरों पर डाले और बिना अंगुली पकड़े ही दरवाते के बाहर दौड़ पड़ती। मैं पीछे भागती, अरे रूक, धीरे, गिर जाएगी तो लग जाएगा। लेकिन जब स्कूल की छुट्टी होती है तो बस भागने का ही भाव मन में आता है। लेकिन उसे तब घर नहीं जाना होता, वो दौड़ पड़ती पार्क की ओर। नन्हें-नन्हें दो साल के पैरों को लेकर झट से चढ़ जाती रिसट-पट्टी पर। मैं धीरे-धीरे ही कहती रहती। जैसे ही रिपसने को तैयार होती मैं दौड़कर नीचें रिपसती हुई उसे पकड़ लेती। कितने ही चक्कर कटा देती वो लेकिन तब ये पैर नहीं दुखते थे। पूरा एक घण्टा खेलकर ही घर जाने का नाम लेती। अब मम्मा के आने का भी समय हो जाता। लेकिन अभी दरवाजा खोला भी नहीं कि सामने वाला एक वर्षीय ऑरेक दिखायी दे गया। बस ऑरेक बेबी के साथ खेलना है। उसके खिलौनों के साथ खेलना जायज है लेकिन अपने खिलौने उसे देना गैरकानूनी सा है। पूरा कमरा खिलौनों से भरा पड़ा है लेकिन सब बेकार। सीडी और कम्प्यूटर का जमाना आ गया है। सीडी में कितनी पोयम है सारी ही याद हैं, और एक के बाद एक लगाते चलो, आप थककर चूर हो जाओ लेकिन उसकी “और” समाप्त नहीं होती।
आजकल पैदा होते ही एबीसीडी सिखा दी जाती है और साथ में वन टू थ्री। लेकिन अ आ इ ई का पता नहीं। मिहू पॉटी में बैठी है, बोल रही है कि एबीसीडी बोलो। मैंने कहा कि बोलों अ से अनार। उसे अचार का खूब शौक है तो बोली कि नहीं अ से अचार। अब मैंने अ से अचार और आ से आम ही सिखाना शुरू कर दिया। दो दिन बाद ही मम्मा को बता दिया कि अ से अचार और आ से आम, इ से इमली और ई से ईख। अरे यह कब सीख लिया, मम्मा एकदम से खुश हो गयी। बस लेकिन इन पैरों की सारी मशक्कत तो रात को होती जब कपड़े पहनने के लिए पलंग के चक्कर लगाने पड़ते और सुलाने के लिए न जाने कितनी लोरियां और गाने गाए जाते। अब एक लोरी तो बना दी उसके लिए – टिमटिम टिमटिम तारे बोलें, निदियां चुपके जाना। लेकिन गाना तो ऐसे जैसे मरी बिल्ली के मुँह से आवाज निकले। उसका फरमाइशी प्रोग्राम चलता ही रहे। लेकिन यह अच्छी बात थी कि मैंने लोरी टूटी-फूटी या मरी बिल्ली की आवाज में रिकोर्ड कर दी थी तो बस वो चलती ही रहती। जैसे ही बन्द होती, उसकी आवाज आ जाती नानी टिमटिम तारे बोले। एक दिन तो एक नया प्रयोग ही कर डाला, गायत्री मंत्र बोलना शुरू किया अरे उसे तो वो भी याद था और बस झट से सुनकर सो गयी। दूसरे दिन भी बोली कि भूर्भव: सुनाओ।
लेकिन अब बस आराम ही आराम हैं, जब एक पैर पर खड़े होकर दौड़ लगानी पड़ रही थी तब ये नालायक कभी नहीं फड़फड़ाते थे लेकिन अब आराम में इन्हें अवसर मिल गया है। बस फोन की घण्टी पर ही कान लगे हैं कि कब आवाज सुनाई देगी – नानी दवा खा लो। दवा भी कैसी, केलशियम और बुढापे में पैर जुड़ा नहीं जाए उसके लिए अमेरिका से एक दवा ले आयी थी, बस वो दो गोली रोज लेनी होती थी। अब रात का खाना खाकर गोली ले लेती थी लेकिन उसे तो मुझे याद दिलाना ही नहीं था बस हाथ पकडकर सूटकेस तक ले जाती और वहाँ से दवा की डिब्बी निकालती और फिर दवा को खुद गिनकर मेरे हाथ में रखती। कई बार तो मेरे मुँह में भी वो ही रखती। मैं उससे कहती कि अरे अभी खाना नहीं खाया है। लेकिन उसने कह दिया तो बस ले लो दवा। बड़ी मुश्किल से उसे मनाना पड़ता और उसका ध्यान हटाना पड़ता। लेकिन जैसे ही खाना होता उसे फिर ध्यान आ जाता और फिर वही “नानी दवा खा लो”।