Wednesday, November 29, 2017

ब्लेक फ्राइडे पर खरीददारी

थैक्स गिविंग गुरुवार को और ब्लेक फ्राइडे दूसरे दिन। पता नहीं ब्लेक क्यों कहा गया, शायद उस दिन भारी छूट के साथ बाजार खुलता है इसलिये या कुछ और पता नहीं। हम भी बाजार गये, दिन में 10 बजे निकले और उस मॉल में गये जहाँ कम भीड़ की सम्भावना थी। कम भीड़ कहाँ होगी, जहाँ छूट कम होगी। खैर हम भी जा पहुंचे एक मॉल में। गाडी को पार्किंग के लिये जगह चाहिये और हमारी गाडी घूमती रही, घूमती रही। आधा घण्टा बीता, फिर पोन घण्टा भी बीत गया लेकिन पार्किंग नहीं। गाडी को दूसरी ओर लेकर गये तब जाकर किस्मत का दरवाजा खुला और आखिर पार्किंग मिल ही गयी। इससे आप समझ गये होंगे कि कितनी भीड़ का सामना हम करने वाले थे! हमें डायमण्ड खरीदने का शौक चर्राया, देख ही लें कि यहाँ और हमारे देश में क्या अन्तर है। हमारे देश में तो दीवाली पर जौहरी की दुकानों पर कुछ ना कुछ ऑफर रहते हैं तो सोचा यहाँ भी होंगे लेकिन यहाँ कुछ नहीं था। सामान भी ज्यादा कुछ नहीं और छूट भी नहीं तो क्या खाक खरीददारी करें! हमारे दुकान से बाहर निकलते ही बेटे ने राहत की सांस ली होगी कि चलो मम्मी को कुछ पसन्द नहीं आया। हम फिर कपड़ों की दुकान की ओर मुड़े, देखा कुछ दुकानों पर बाहर ही लम्बी लाइन लगी है, यहाँ तो जाना सम्भव नहीं, आगे बढ़ गये। एकाध दुकान ऐसी थी जहाँ कतारे नहीं थी, हम वहीं गये। कहीं 50, कहीं 40, कहीं 30 तो कहीं 20 प्रतिशत की छूट थी। सारी ही मॉल गर्म कपड़ो से भरी थीं। कुछ समझ आया और कुछ नहीं, बस थोड़ा समय व्यतीत किया और लौट आए। दो चार स्वेटर खऱीदे बस।
वापस लौटते समय देखा कि घर लौटने  वाली सड़क खाली और बाजार की तरफ जाने वाली सड़क ठसाठस भरी हुई। यहाँ इस दिन से ही क्रिसमस की खरीददारी शुरू हो जाती है और क्रिसमस पर परिवार में सभी को उपहार देने की परम्परा है तो भारी छूट के साथ सभी खरीददारी करना पसन्द करते हैं। कुछ लोग तो साल भर की खरीददारी इन्हीं दिनों कर लेते हैं। हमारे भारतीय भी इन्हीं दिनों का इंतजार करते हैं कि देश के लिये उपहार अभी खरीदें। सारा बाजार चाइना के सामान से भरा था, ब्राण्ड कोई भी हो, सामान तो चाइना का ही था। हमने जितने भी स्टोर पर स्वटेर देखे, सारे ही एक से थे। लग रहा था कि मॉल चाहे किसी नाम के हो लेकिन एक ही फेक्ट्री से बना सामान यहाँ है। भारत में सर्दी के दिनों में बाजार शॉल से अटे पड़े रहते हैं लेकिन यहाँ इनका नामोनिशान नहीं था, हाँ कुछ स्टॉल जरूर थे। मफलर और केप खूब थे। भारी-भारी कोट जिसमें बर्फिली सर्दी भी थम जाए, खूब बिक रहे थे, लेकिन भारत जैसी जगह के लिये पतले-पतले स्वेटर ही काफी थे।

यहाँ का सबसे बड़ा त्योहार है – क्रिसमस और यह थैंक्स गिविंग के दूसरे दिन से ही शुरू हो जाता है। सारा शहर रोशनी से सजने लगता है। घरों के बाहर तरह-तरह की आकृतियां सजने लगती हैं। ऐसा कोई घर नहीं जहाँ रोशनी ना हो। यह रोशनी सवा महिने तक बनी रहेगी। घर-परिवार, रिश्तेदार और सभी मिलने वालों के लिये उपहार खरीदे जाएंगे और एक महिने का यहाँ समय फुल मस्ती के साथ व्यतीत करेंगे। ऑफिसों में छुट्टी का माहौल बना रहता है और अक्सर भारतीय भी अपने देश आने के लिये इन्हीं दिनों में छुट्टियां लेते हैं। लेकिन परिवार सहित हम अमेरिका में रहने वाले हैं और रोज का आँखों देखा हाल आपको सुनाने वाले हैं। बस एक बात का ध्यान रखिये की हम संजय की भूमिका में है, जो सामने है, उसे बता रहे हैं, इसे हमारी पसन्द और नापसन्द से ना जोड़े। जब अवसर अएगा हम वह भी विश्लेषण करेंगे। अभी तो केवल रनिंग केमेण्ट्री। 

Friday, November 24, 2017

थैंक्स गिविंग और परिवार का एकत्रीकरण

आज नवम्बर मास का चौथा गुरूवार है और अमेरिका में इस दिन त्योहार का मौसम होता है। पूरे अमेरिका में छुट्टी का दिन। कल तक हर व्यक्ति यात्रा कर रहा था, उसे आज के दिन अपने परिवार के साथ रहना है। सारा परिवार एक साथ रहेगा, शाम का डिनर साथ करेगा और फिर बाजार करेगा। बाजार में भारी छूट मिलेगी और इसी कारण कल के शुक्रवार को ब्लेक-फ्राइडे कहा गया है। सारी दुनिया में फसल का ही महत्व है, फसल नहीं तो मनुष्यों के लिये खाने को कुछ नहीं। फसल जब पक जाती है तब सारी दुनिया में त्योहार मनाया जाता है और अमेरिका में भी थैंक्स-गिविंग के रूप में मनाया जाता है। भारत में सारे त्योहार ही फसल के कारण है लेकिन अमेरिका में फसल के कारण आभार जताने का त्योहार है, जो प्रकृति की देन को प्रणाम करने जैसा है। आज यहाँ पूरा बाजार बन्द है लेकिन रात 12 बजे बाजार सजेगा और भारी छूट के साथ सामान बिकेगा। बाजारों में रात 12 बजे से ही कतारें लग जाएंगी, कहीं-कहीं तो पहले आने वालों को भारी छूट भी मिलती है तो रात से ही अफरा-तफरी रहती है।

सबका मन करता है परिवार में रहने को, सब आज के दिन अपने परिवार के साथ रहना चाहते हैं, मुझे दीवाली की याद आने लगी है, जब श्रीराम अपने परिवार के पास लौटे थे और फिर परिवार में इस दिन साथ रहने की परम्परा ने जन्म लिया। हमारे यहाँ की रेले, बसे, हवाई-जहाज सारे ही पेक होकर चलते हैं दीवाली के दिन और यहाँ भी इत दिन हवाई-जहाज में टिकट नहीं मिलती और लोग अपनी गाड़ियों से ही अपने घर आते हैं। रास्ते की सड़के ठसाठस हो जाती हैं। हर घर में जश्न रहता है। थैंक्स देना अच्छी  परम्परा है और इसकी शुरुआत यूरोपियन्स ने की थी, जब वे अमेरिका आए थे और यहाँ के निवासियों ने उन्हें रहने को स्थान और खेती के लिये जमीन दी थी, तब उन्होंने थैंक्स गिविंग मनाया था। वो अलग बात है कि फिर इन्होंने लाखों अमेरिकन्स का कत्लेआम किया और यहाँ पर राज किया। लेकिन अब खेती और फसल के साथ यह त्योहार जुड़ गया है। सारा परिवार एकत्र होकर त्योहार मनाता है, बस यह परम्परा अच्छी है। यही कारण है कि परिवार का एकत्रीकरण सभी लोगों में प्रचलन में आ गया है। कल भारी छूट के साथ बाजार खुलेगा तब सारा अमेरिका बाजार में होगा, हम भी देखते हैं कि  जाएं और उस नजारे को देख लें। कल के समाचार कल देंगे, अभी इतना ही। 

रंगीन पतझड़ के नजारे

गाँव के झोपड़े सभी ने देखे होंगे, उनमें खिड़की नहीं होती है और ना ही वातायन। मुझे लगता था कि धुआँ घर में भर जाता होगा लेकिन अमेरिका आकर समझ आया कि नहीं वे झोपड़े सारी गन्दी हवा छत पर लगे केलुओ के माध्यम से बाहर निकाल देते हैं और घर शुद्ध हवा से भर जाता है। हमारे यहाँ घरों में हम एसी चलाते हैं और कुछ देर बाद घुटन सी होने लगती है, मन करता है कि बाहर की हवा अन्दर आने दें, लेकिन अमेरिका में ऐसा नहीं है। पूरा घर पेक है, कहीं से भी हवा आने की गुंजाइश नहीं है लेकिन घर में हमेशा अशुद्ध हवा बाहर निकलती रहती है और अन्दर शुद्ध हवा बनी रहती है। हर घर की छत पर चिमनी है जो घर को शुद्ध रखती है, जबकी हमारे यहाँ खिड़की है लेकिन वातायन की प्रथा बन्द होती जा रही है, इसकारण कमरे में कार्बन डाय ऑक्साइड बनी रहती है। वातायन हैं भी तो पूरी तरह से अशुद्ध हवा बाहर नहीं निकलती है।
घर बनाने में भी लकड़ी का प्रयोग ज्यादा होता है और दीवारों को इस प्रकार बनाया जाता है कि घर सर्दी और गर्मी से बचाव करते हैं। इसलिये यहाँ घर का तापमान समतापी बना रहता है। वैसे कूलिंग और हीटिंग की व्यवस्था तो रहती ही है। यहाँ का तापमान अमूमन न्यूनतम 6 डिग्री बना हुआ है लेकिन घर के अन्दर एक स्वेटर से काम चल जाता है। जबकि भारत में हम कुड़कते ही रहते हैं। यहाँ जिस दिन बारिश होती है उस दिन सूरज देवता पूरा दिन ही नदारत रहते हैं, बाहर कड़ाके की ठण्ड रहती है लेकिन घर के अन्दर गलन नहीं होती। लेकिन जिस दिन सूरज देवता की कृपा होती है, उस दिन पूरी होती है। आराम से धूप खाओ, विटामीन डी का संचय करो और मस्त रहो।

यहाँ पैदल घूमने वालों के लिये बहुत आराम है, खूब ट्रेल बनी हुई हैं, जितना चाहो घूमो, मस्त। मैंने भी एक ट्रेल खोज ली है, पहाड़ी पर है, चढ़ाई और उतार दोनों है। शान्ति से घूमने का आनन्द ले रही हूँ। बामुश्किल दो-चार लोग मिलते हैं, चारों तरफ शान्ति बिखरी रहती है। अभी सर्दी का मौसम है तो पेड़ों पर भी पत्तों ने रंग बदल लिये हैं। कुछ तो सदाबहारी है जो हमेशा हरे बने रहते हैं जैसे हमारे यहाँ नीम, पीपल आदि लेकिन कुछ के पत्ते लाल, पीले हो जाते हैं जो सुन्दर दृश्य बनाते हैं। जैसे हमारे गाँवों में जब पलाश और अमलताश खिलता है तब चारों तरफ पलाश के लाल फूल खिल उठते हैं या अमलताश के पीले फूल। उन्हें देखने का अपना आनन्द है, ऐसे ही यहाँ रंग बदलते पत्तों के देखने का आनन्द है। बस झड़ते पत्तों के कारण सड़क से लगी पगडण्डी अटी पड़ी रहती हैं और सफाई कर्मचारियों की मेहनत बढ़ जाती हैं। जब पत्ते बिखरे रहते हैं तो एकबारगी भारत की याद दिला देते हैं। वहाँ हमें बुहारना पड़ता है और यहाँ सोसायटी के बन्दे बुहारते रहते हैं। पतझड़ सूखी नहीं है अपितु रंगीन बन गयी है। इसे देखने के लिये लोग घर से दूर निकल जाते हैं जहाँ रंग ज्यादा बिखरे हों।  

Thursday, November 16, 2017

क्या युद्ध भी आत्महत्या है?


हम युद्ध क्यों करते हैं? एक देश दूसरे देश से युद्ध क्यों करता है? क्या हमें पता नहीं है कि युद्ध में मृत्यु ही प्राप्य है? यदि कोई ऐसा देश हो या छोटा समाज हो जिसकी सम्भावना जीत हो ही नहीं फिर भी वह युद्ध क्यों करता है? अपने स्वाभिमान को बचाने के लिये हम युद्ध करते हैं, मरना ही हमारी नियति है यह जानकर भी हम युद्ध करते हैं। यह गुण मनुष्य में ही नहीं हैं अपितु हर प्राणी में हैं, इसलिये हर प्राणी युद्ध करता है। अब कोई कहे कि युद्ध करना आत्महत्या है तो उसे क्या कहेंगे? उसे हम कहते हैं गुलामों की तरह जीवित रहना। युद्ध की तरह ही जौहर भी आत्महत्या नहीं है मेरे गुलाम मानसिकता के मित्रों। जौहर जब किया जाता था जब सारे ही प्रयास समाप्त हो जाते थे और पता होता था कि सामने वाला हमारा दुरूपयोग करेगा, हमसे ही ऐसे संसार की रचना कराएगा जो मानवता के लिये घातक हो, तब महारानियां जौहर करती थी। कुछ पैसों के लिये अपनी सोच को गिरवी रखने वाले जौहर को समझ ही नहीं सकते, वे जीवित रहने को ही महान कार्य समझ बैठे हैं। 

रानी पद्मिनी को समझना हो तो राजस्थान आओ और राजस्थान में भी मेवाड़ में आओ, यहाँ के कण-कण में उनके लिये नमन है। यदि उन्होंने जौहर नहीं किया होता और खुद को मुगल सल्तनत के हाथों सौंप दिया होता तो मेवाड़ का इतिहास लिखने और पढ़ने को नहीं मिलता। चित्तौड़ ने कितने युद्ध देखे हैं, क्यों देखे हैं? क्योंकि यहाँ स्वाभिमान था, जीवित रहने की लालसा नहीं थी। आज कुछ लोग या कुछ सिरफिरे लोग कह रहे हैं कि रानी लक्ष्मी  बाई महान थी, हाँ वे महान थी लेकिन जिस दिन कोई फिल्मकार उनके चरित्र को बिगाड़ने के लिये फिर फिल्म बनाएगा तब आप लक्ष्मी बाई के चरित्र पर भी ऐसे ही हमले करोगे और फिर लिखोंगे कि युद्ध करना आत्महत्या होती  है और इनसे अच्छी तो हमारी हिरोइने हैं जो हमेशा शान से जीती हैं। ये कलाकार कुछ पैसों के लिये अपना ईमान बेच देते हैं और हम इन्हें देखने के लिये मरने लगते हैं, क्या ये कलाकार हमारे परिवार पर भी घृणित फिल्म बनाएंगे तब भी हम इनको पसन्द करते रहेंगे? इसलिये जौहर क्या है और युद्ध क्या है. इसे समझो फिर अपनी मानसिकता का सबूत दो। पद्मिनी वह रानी थी जिसने युद्ध से ही रतनसिंह का वरण किया था और खिलजी की कैद से रतनसिंह को आजाद कराया था। इसलिये इस पवित्र इतिहास पर अपनी गन्दी दृष्टि मत डालो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि जीवन का मतलब ही युद्ध होता है और हम हर पल स्वाभिमान को बनाए रखने के लिये युद्ध करते हैं। यदि फिल्मकार घोषित करता कि मैं रानी पद्मिनी की वीरता पर फिल्म बना रहा हूँ तब सभी स्वागत करते लेकिन उसने ऐसा घोषित नहीं किया। इसका अर्थ है कि उसकी नियत ठीक नहीं है और जिसकी भी नीयत ठीक नहीं हो उसको स्वाभिमान का पाठ पढ़ाना आवश्यक है। 

Tuesday, November 14, 2017

मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ


जब से अमेरिका का आना-जाना शुरू हुआ है तब से अमेरिका के बारे में लिख रही हूँ, 10 साल से न जाने कितना लिख दिया है और एक पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है लेकिन जब भी अमेरिका आओ, ढेर सारी नयी बाते देखने को मिलती हैं। मेरा बेटा जब पहली बार अमेरिका आया था तब पहली बात फोन पर सुनायी दी थी - लग रहा है कि स्वर्ग में आ गया हूँ। हमने सदियों से स्वर्ग की कल्पना की है, हम सभी मरने के बाद स्वर्ग पाना चाहते हैं और सारे ही लोग इसी उधेड़बुन में जीवन जीते हैं। कुछ लोग तो इस धरती को ही नरक बनाने पर तुले हैं क्योंकि वे मरने के बाद जन्नत जाना चाहते हैं। सोचकर देखिये कि हम सब एक कल्पना लोक में जी रहे हैं, हमने एक कल्पना की और उसे पाने के लिये प्राणपण से जुटे हैं। लेकिन जब कोई युवा सच में जीता है तो उसे नकार देते हैं। हमने स्वर्ग नहीं देखा लेकिन जाने का प्रयास कर रहे हैं, हमारे युवा ने अमेरिका देखा है, उसे वही स्वर्ग लग रहा है और वह इसी जीवन में इसे पाना चाहता है तो क्या गलत कर रहा है! जैसी कल्पना हम स्वर्ग की करते हैं, वैसा ही अमेरिका है। बस वर्तमान में कुछ लोगों का फितूर देखकर लगता है कि कहीं कल्पना लोक के जन्नत के चक्कर में इसे मटियामेट ना कर दें।

लेकिन मुझे हमेशा एक  बात की शिकायत रही है कि हम किसी को भी आधा-अधूरा क्यों अपनाते हैं! यदि अमेरिका में रहने की चाहत है तो इसे पूरी तरह अपनाओ, यहाँ की सभ्यता को अपनाओ और यहाँ की संस्कृति को भी अपनाओ। लेकिन हमारे जीन्स, हमें ऐसा नहीं करने नहीं देते, बस भारतीय यहीं आकर दुविधा में पड़ जाते हैं। अमेरिका में "शक्तिशाली ही जीवित रहेगा" इस सिद्धान्त पर लोग चलते हैं और बच्चों को ऐसा ही सुघड़ बनाना चाहते हैं। बच्चे मजबूती से खड़े रहे, अपनी प्रतिभा के बल पर आगे बढ़े, सभी इसी बात पर चिंतन करते हैं। यहाँ के स्कूल भी ऐसी ही शिक्षा देते हैं जिससे बच्चों का सर्वांगीण विकास हो और कम से कम स्नातक की शिक्षा अवश्य लें। खेलों का यहाँ के जीवन में बहुत महत्व है। हमारे यहाँ खेल के मैदान खाली पड़े रहते हैं लेकिन यहाँ खेल के मैदानों में भारी भीड़ रहती है। परसो बॉस्केट बॉल के मैदान पर थे, ढेर सारे बच्चों को खेलते हुए देखना, आनन्ददायी था। सारे ही स्कूल-कॉलेज, खेल मैदानों से पटे हुए हैं, इसके अतिरिक्त भी न जाने कितने कोचिंग सेन्टर हैं। अधिकतर बच्चे कोई ना कोई खेल अवश्य खेलता है। भारतीय ही केवल शिक्षा को जीवन का आधार मानते हैं इसलिये यहाँ भी भारतीय कुछ पीछे रह जाते हैं। यहाँ बच्चे के लिये करने और सीखने को दुनिया की हर चीज उपलब्ध है, बस उसकी रुचि किसमें है और वह क्या कर सकता है, यह देखना मात-पिता का काम है। यहाँ की दुनिया एकदम ही बदली हुई है इसलिये इसे जब तक पूरी तरह से नहीं अपनाओगे तब तक संतुष्टि नहीं होती। आधा-अधूरा जीवन विरोधाभास पैदा करता है, यहाँ के सारे ही भारतीय दो नावों पर सवार होकर चलते हैं। दो संस्कृतियों का मेल कैसे सुखदायी बने, इस  बात का पता अभी कम ही है, लेकिन जिसने भी दोनों को तराजू के दो पल्लों में बराबर तौल लिया वह सुखी हो जाता है। नहीं तो लेबल लगा है – एबीसीडी का। मतलब नहीं समझे, मतलब है - अमेरिका बोर्न कन्फ्यूज्ड देसी। हर कोई पर यह गीत लागू होता है – मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं, बड़ी मुश्किल में हूँ, मैं किधर जाऊं। चलिये आज की बात यहीं तक। 

Saturday, November 11, 2017

अकेली वृद्ध महिला


बहुत सी बातें दिल में आती है, दिमाग को भी मथने लगती है लेकिन चलन में कुछ और बातें हैं तो समझ नहीं आता कि क्या लिखा जाए और क्या नहीं। कल जन्मदिन बीत गया, कई बाते हमेशा की तरह दिल में आयी और दिमाग को मथने भी लगी लेकिन सभी की बधाइयां स्वीकार की। बस हर बार यह बात याद आती रही कि हमने जन्म लेकर ऐसा कुछ किया है कि हम बधाई के हकदार हों! बच्चों के लिये आज सबसे बड़ा त्योहार है, उनका जन्मदिन। वे अपने जन्मदिन कुछ ना कुछ पाना चाहते हैं और पाने को ही हक मानते हैं। मुझे लगता है कि जब से व्यक्तिगत रूप से जन्मदिन मनाने की रिवाज की शुरुआत हुई है हम सब खुद पर केन्द्रित हो गये हैं और धीरे-धीरे खुद के लिये ही जीने लगे हैं। हम कब से हम की जगह मैं में बदल गये हमें पता ही नहीं चला, अपने लिये जीना, अकेले ही खुश रहना हमारे जीवन का उद्देश्य रह गया। भारत में परिवार के लिये जीना और फिर सोचना की अब सारे काम पूरे हुए तो जीवन का क्या उद्देश्य बचा? लेकिन अब ऐसा नहीं है, सभी उदाहरण से बताते हैं कि देखो अमेरिका में अकेला व्यक्ति कितना खुश है!

कल पोते और बहु का सूरज पूजन भी था तो कुछ सामान लेने बाजार गये, वहाँ एक वृद्ध महिला ट्राली खेंच रही थी, कांपते हाथ से, अकेले सामान लेने आना मुझे जन्मदिन मनाने का कडुवा सच दिखा गया। स्वयं से खुश होते रहो, स्वयं ही जिन्दा रहो और स्वयं ही अपने लिये खुशी का माध्यम बनो। बस सब आपको इस दिन हैपी बर्थ-डे बोल देंगे लेकिन वृद्ध होते हुए आप समझ नहीं पाते कि अकेले ट्राली खेंचते हुए जीने का सुख क्या है? नवीन सोसायटी को देखकर लगता है कि हम एक दायरे में अलग-अलग बन्द हैं, युवा अपने दायरे में हैं और बच्चे अपने। वृद्धों के लिये धीरे-धीरे जगह कम होती जाती है, या वे ही खुद को अलग कर लेते हैं, लेकिन पुराने जमाने में परिवार ही सभी का दायरा होता था, सब मिलकर ही ईकाई बनते थे। अमेरिका में परिवार का सच समझ आने लगा है, भारतीय लोग अब परिवार को साथ रखने में खुश दिख रहे हैं, लेकिन बड़े ही शायद आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं और हमें अकेली ट्राली खेंचती हुई भारतीय वृद्ध महिला जन्मदिन का महत्व दिखा रही है। हम परिवार के लिये उपयोगी बनें, सारा परिवार एक आत्मीय भाव से बंधा रहे और हम उस दिन कुछ देने की परम्परा को पुन: जीवित करें। मैंने अपना जन्मदिन आप लोगों की बधाई लेते हुए और पोते का सूरज पूजन कर, सूरज का आभार मानते हुए बिताया। आए हुए मेहमानों को हाथ से बनाकर भोजन खिलाया तब लगा कि हम अभी देने में सक्षम हैं। आप सभी का आभार, जो एक परिवार की भावना प्रकट करती है, हम एक दूसरे को खुशियां देकर खुश होते हैं और यही भाव हमेशा बना रहे। मैं भी आप लोगों के लिये कुछ अच्छा करूं, अच्छे विचारों का आदान-प्रदान हो, बस यही कामना है।  

Wednesday, November 8, 2017

मोटी अदरक – पतली अदरक


चाय बनाने के लिये जैसे ही अदरक को हाथ में लिया ऐसा लगा कि किसी भारी भरकम पहलवान के हाथ का पंजा हाथ में आ गया हो। इतनी मोटी-ताजी अदरक! खैर चाय बन गयी, लेकिन अदरक का स्वाद कुछ खास नहीं आया। कल ही कोस्को ( costco) जाना हुआ, वहाँ अपने जैसी पतले पंजों वाली अदरक दिखायी दे गयी और पूरा डब्बा ही उठा लिया। बेटे ने बताया कि यह ऑर्गेनिक है, महंगी भी है और इसका स्वाद अधिक है। घर आकर चाय बनायी, मेहमान आए हुए थे। चाय अदरक के कारण स्वदिष्ट बन गयी थी और तारीफ मुझे मिल गयी। लेकिन असल बात पर आती हूँ, #scmudgal जी ने एक सवाल किया था कि अमेरिका में भुखमरी और गरीबी कैसी है? मैं गरीबी को परिभाषित नहीं कर पा रही थी लेकिन इस अदरक ने मेरी उलझन आसान कर दी। अदरक जैसी सारी ही खाद्य सामग्री का यहाँ खूब विकास हुआ, मोटी बना दी गयी, लोगों ने कहा कि अब खाद्य सामग्री का अभाव नहीं है और अमेरिका भुखमरी वाले देशों में नहीं है। लेकिन स्वाद नहीं है! अब स्वाद की तलाश की गयी तो पाया कि भारत में खाने की चीजों में स्वाद है और वे गोबर खाद से उपजायी जाती हैं। याने की ऑग्रेनिक हैं। फिर उल्टे चले और ऑग्रनिक बाजार सज गया। मोटी अदरक खाने वाले गरीब माने जाने लगे और पतली वाले अमीर।
यदि अपने देश में देखें तो गाँव कस्बों में आज भी ऐसी पतली मकड़ सी सब्जियां खायी जाती हैं और वे बेचारे गरीब कहलाते हैं, जबकि बड़े शहरों में मोटी-ताजी सब्जियां चलन में हैं और वे अमीर समझे जाते हैं। एक बार मैंने एक कृषि वैज्ञानिक से प्रश्न किया था कि हमारा जो पहले पपीता था वह कहाँ चले गया? अब जो आता है वह स्वाद नहीं है। उनका कहना था कि हमारी प्राथमिकता लोगों का पेट भरना है इसलिये अभी स्वाद पर नहीं जाते। यही हाल अमेरिका का है, इन्होंने पहले अदरक से लेकर अंगूर तक को मोटा कर लिया, लोगों का पेट भर गया, भुखमरी नहीं रही और अब वापस स्वाद की तलाश में ऑग्रेनिक खेती की ओर मुड़ गये हैं। भुखमरी तो नहीं है लेकिन गरीबी को कैसे नापे? जो ऑग्रेनिक प्रयोग कर रहे हैं वे अमीर हैं और जो नहीं कर पा रहे हैं वे अभी भी शायद गरीब हैं। लेकिन दो दुनिया यहाँ बनी हुई हैं। भारत में भी बन रही हैं, लेकिन वहाँ एक तरफ भुखमरी मिटाने का संघर्ष हैमोटी अदरक – पतली अदरक तो दूसरी तरफ अमीर बनने की होड़ है। इसलिये खायी गहरी है। 

Friday, November 3, 2017

अजब लोग हैं हम


अजब  संयोग था, 31 अक्तूबर को अमेरिका हेलोविन का त्योहार मनाता है और भारत में इस दिन देव उठनी एकादशी थी। अमेरिका में हर घर सजा हुआ था, कहीं रोशनी थी, कहीं अंधेरा था लेकिन घरों में भूत-पिशाचों का डेरा था। हर घर में डरावना माहौल बनाया गया था, बच्चे भी कल्पना लोक के चरित्रों का निर्वहन कर रहे थे। कोई भूत बना था, कोई स्पाइडरमेन तो कोई सूमो पहलवान भी। सारे ही बच्चे अपने मौहल्ले के घरों में जाकर केण्डी की मांग कर रहे थे, घर वाले भी तैयार थे उन्हें केण्डी देने को। सभी बच्चों के पास एक झोला था, उसमें ढेर इकठ्ठा होता जा रहा था और बच्चे खुश थे अपना खजाना बढ़ने से। धरती पर हम मनुष्यों ने एक कल्पना-लोक बना लिया है, कुछ मानते हैं कि भूत-पिशाच होते हैं और उनका डर हमेशा हमारे जीवन में बना रहता है। हेलोविन के दिन डरावना वातावरण बनाकर बच्चों के मन से डर कम किया जाता है और उनसे लड़ने की ताकत उनमें आ जाती है।

भारत में कहा जाता है कि कल्पना-लोक में देवता वास करते हैं और एक निश्चित तिथि पर ये सब सो जाते हैं और एक निश्चित तिथि पर जग जाते हैं। हमारे सारे ही शुभ कार्य देवताओं की उपस्थिति में होते हैं इसलिये देव उठनी एकादशी का बड़ा महत्व है। इस दिन सारे ही देवता जाग जाएंगे और शुभ काम शुरू हो जाएंगे। इसलिये इसे छोटी दिवाली भी कहते हैं। एक तरफ नकारात्मक शक्तियां हैं और दूसरी तरफ सकारात्मक शक्तियां। एक तरफ डर है तो दूसरी तरफ सुरक्षा। क्या अच्छा है और क्या बुरा है यह तो मनोविश्लेषक ही बता  पाएंगे लेकिन मेरा मानना है कि कल्पना लोक में सकारात्मक शक्तियों का वास हमें सुरक्षा देता है और नकारात्मक शक्तियों के कारण हम डरे रहते हैं। हम ईश्वर से भी प्रेम का रिश्ता रखते है ना कि डर का। लेकिन त्योहारों के मायने तो हम कुछ भी निकाल सकते हैं। शायद डर को आत्मसात करने के लिये ऐसे त्योहार मनाए जाते हों। लेकिन भारत में भी व्यावसायिक हितों के देखते हुए हेलोविन की शुरुआत करना हमारे दर्शन को पलटना ही है। हम देव उठनी एकादशी पर भी विभिन्न देवी-देवताओं का वेश धारण करके त्योहर को मना सकते हैं। इससे व्यावसायिक हित भी सध जाएंगे और दर्शन भी पलटी नहीं खाएगा। ये जो भेड़ चाल है और हम देशवासी किसी भी त्योहार की भावना को समझे बिना मनाने के लिये उतावले हो उठते हैं, उससे भेड़ों का दूसरों के पीछे चलने की सोच ही दिखायी देती है। अपनी सोच को आगे लाओ और नवीनता के साथ मौलिकता बनाए रखते हुए परिवर्तन करो। नहीं तो तुम भेड़ों की तरह अपने आपको मुंडवाते ही रहोंगे। आज भारत के लोग भेड़ बन गये हैं, व्यापारी आते हैं और उन्हें शीशा दिखाते हैं कि देख तेरे शरीर पर कितने बाल है, इन्हें कटा लें और तब तू गोद में खिलाने लायक बन जाएगी, बस भेड़ तैयार हो जाती है और हर बार किसी ना किसी बहाने से खुद को मुंडवाती रहती है। हम फोकट में अपने बाल दे रहे हैं और गंजे होकर खुश हो रहे हैं, एक दिन शायद अपना अस्तित्व ही भूल जाएं कि हम कौन थे! हमने दुनिया को क्या दिया था! लेकिन आज तो हम भूत-पिशाच को अपनाने में भी खुश हैं और अपने देवताओं को केवल मुहुर्त के लिये ही याद करते हैं। अजब लोग हैं हम!