Tuesday, February 22, 2011

छोटी-छोटी खुशियां और बड़े-बड़े गम – अजित गुप्‍ता


भारत में छोटी-छोटी खुशियों को लेकर हम नाच उठते हैं, दूसरों को बताने के लिए धड़ाधड़ फोन मिलाते हैं। यह भी नहीं देखते कि इस समय फोन करना उचित नहीं है। लेकिन हमारे यहाँ खुशियां छोटी-छोटी ही हैं तो हम खुश होने का मौका छोड़ते नहीं। एक मेरी मित्र हैं, अमेरिका गयी थी। वे बता रही थीं कि मैंने अपनी बिटिया से कहा कि हम भारत वाले छोटी-छोटी खुशियों में भी खूब खुश होते हैं लेकिन यहाँ अमेरिका में ऐसी खुशियां का कोई स्‍कोप ही नहीं है। बिटिया ने पूछा क्‍या मतलब? वे बोली की अब देखो, भारत में कभी भी लाइट चले जाती है, सारा घर अंधकार में डूब जाता है। सब तरफ हड़बड़ी सी मच जाती है। कोई कहता है माचिस लाओ, कोई कहता है इमरजेन्‍सी लाइट जलाओ। अभी ढूंढा-ढूंढी चल ही रही होती है कि भक से लाइट आ जाती है। पूरा घर रोशन हो जाता है, हाथ की माचिस और मोमबत्ती हाथ में ही रह जाती है और पूरा घर खुशी से नाच उठता है लाइट आ गयी, लाइट आ गयी। ऐसा सुख अमेरिका में नहीं है। जीवन एक सा चलता रहता है।
आज सुबह की ही बात बताती हूँ, बता भी इसलिए रही हूँ कि हम जब तक अपनी खुशियां बाँट ना ले चैन नहीं आता है। मुझे अभी दो-चार दिन पहले ही बिटिया का फरमान मिला कि आपको पुणे आना है। मैंने कहा कि इतनी जल्‍दी में आरक्षण कहाँ मिलेगा? लेकिन फिर वीआईपी कोटे के सहारे आश्‍वस्‍त हो गए। लेकिन मैंने उससे पूछा कि एक तत्‍काल कोटा भी तो होता है, उसमें नहीं हो सकेगा क्‍या? वह बोली कि आजकल एजेन्‍टों के चक्‍कर में नेट पर विण्‍डो ही बन्‍द रहती है। आप रेलवे स्‍टेशन जाओ तो हो सकता है, वो  लम्‍बी लाइन के बाद में। एक और से पूछा, उसने भी यही कहा। मैंने प्रयोग करने की ठान ली। आज सुबह 8 बजे नेट की विण्‍डो खुलने वाली थी और मैं 10 मिनट पहले ही एकदम तैयार। लेकिन यह क्‍या जैसे ही 8 बजे मैंन क्लिक किया, नेट ने सॉरी बोल दिया। मैं पंद्रह मिनट तक कोशिश करती रही और नेट से सॉरी आता रहा। मैंने उपलब्‍धता जाँचने के लिए क्लिक किया तो कम्‍प्‍यूटर जी बोले कि आपका सेशन एक्‍सपायर हो गया है, रि-लोगिन करे। मैंने दुबारा लोगिन किया तो 2 एसी में आरक्षण पूरा हो चुका था। लेकिन पता नहीं मुझे क्‍या जँचा कि चलते-चलते 3एसी का ही देख लूं। तो देखा कि उसमें अभी आरक्षण हैं। मैंने फटाफट क्लिक किया और मुझे आरक्षण मिल गया। हुर्रे -------। मैं खुशी के मारे उछल पड़ी, पतिदेव ने पूछा कि क्‍या हुआ? मैंने कहा कि मिल गया। मैंने फटाफट बिटिया को फोन लगाया जब कि मुझे मालूम था कि सुबह‍ का समय उसके ऑफिस निकलने का होता है लेकिन अपनी खुशी बाँटनी जो थी। मैं यदि सावधानी रखती तो मुझे 2एसी का भी मिल जाता, जल्‍दी के चक्‍कर में मेरा सेशन एक्‍सपायर हो गया था। तो यह है हमारे देश की छोटी-छोटी खुशियां। इन्‍हें पाकर हमें लगने लगता है कि पता नहीं कौन सा तीर मार लिया है!
लेकिन जैसी हमारी छोटी खुशियां हैं वैसे ही हमारे गम बहुत बड़े हैं। एक उदाहरण देती हूँ। सरकारी नौकरी में व्‍यक्ति नेताओं और अधिकारियों के रात-दिन चक्‍कर लगाता है। क्‍यों लगाता है? इसलिए लगाता है कि मेरा स्‍थानान्‍तरण ना हो जाए। यदि उदयपुर से चित्तौड़ भी जाना पड़े तो कष्‍ट का विषय है। वो भी बहुत बड़े कष्‍ट का। जबकि आजकल प्राइवेट कम्‍पनियों में बेचारे व्‍यक्ति को यह नहीं मालूम होता है कि उसे कल दुनिया के किस कोने में जाना पड़ जाएगा? कितने दिन के लिए और कब? वे इसे बड़ा कष्‍ट नहीं मानते लेकिन हम 100-50 किमी जाने को ही बड़ा कष्‍ट मानते हैं। अब मेरे दामाद है, उन्‍हें दस दिन पहले फरमान सुनाया गया कि आपको तीन सप्‍ताह के लिए लन्‍दन जाना है। जाना है तो जाना है। कोई आगे-पीछे नहीं। यही फरमान मेरे पास पलटकर आ गया कि आपको पुणे आना पड़ेगा। अब जा रहे हैं 24 तारीख को पुणे। पूरे एक महिने के लिए। अब इसे कष्‍ट कहो या पारिवारिक सुख! एक-दूसरे के लिए तैयार। तो अपना मुकाम अब पुणे रहेगा, पूरा एक महिना। वही से दुआ-सलाम होगी। लेकिन शायद इतनी नियमितता नहीं रहे जितनी यहाँ रहती है। परायी जगह, सौ काम। तो अगली पोस्‍ट पुणे से। 

Friday, February 11, 2011

उदण्‍ड युवा भी सिद्धान्‍तों का सम्‍मान करते हैं – अजित गुप्‍ता


क्‍या आप कभी ऐसी समस्‍या में घिरे हैं, जब कोई उदण्‍ड या शैतान युवा आपका नजदीकी बन जाए? आप समाज के ताने सुन रहे हों लेकिन समझ नहीं आता हो कि इस परिस्थिति में क्‍या किया जाए? आखिर ऐसे उदण्‍ड बच्‍चे मुझ जैसे सीधे-सादे इंसान के पास ही क्‍यों चले आते हैं? मजे की बात यह भी है कि मुझे उनमें कोई खराबी भी दिखायी नहीं देती, जबकि लोग कितनी ही तो बुराइयां मुझे गिनाते रहते हैं। किस्‍मत से ऐसे युवा मेरी बात मान भी लेते हैं।  
एक घटना का स्‍मरण हो रहा है। जब मैं आयुर्वेद कॉलेज में प्राध्‍यापक थी, यह घटना काफी पुरानी हो चली है। मैं फाइनल इयर के विद्यार्थियों को पढ़ाती थी। इसलिए मुझे सीनियर छात्रों से ही साबका पड़ता था। कॉलेज का एक उदण्‍ड छात्र जो उसी वर्ष अंतिम वर्ष में आया था ने कॉलेज के प्राचार्य के नाक में दम कर रखा था। उसका प्रतिदिन एक ही काम था कि वह प्रिंसीपल कक्ष के बाहर बैठकर प्रिंसीपल को गाली देता था और उसके घर की पोल खोलता था। कभी-कभी वह कक्ष में भी जाकर धमका आता था। इस बात की चर्चा पूरे कॉलेज में चटखारे लेकर होती थी।
एक दिन मैं भी प्राचार्य-कक्ष में थी और वो उदण्‍ड छात्र आ गया और उसने अच्‍छी खासी ऐसी की तैसी कर दी प्राचार्य की। मुझे बड़ा बुरा लगा, मैंने बाहर निकलकर स्‍टाफ को कहा कि यह क्‍या मजाक है? इस छात्र को कोई समझाता क्‍यों नहीं है? सभी का कहना था कि यह प्रिंसीपल ही ऐसा है। वैसे वो प्रिंसिपल ऐसा ही था, बिना रीड की हड्डी का। खैर हम भी रोज का तमाशा देखते रहे। कुछ दिनों बाद ही परीक्षाएं आ गयी और अब वो छात्र मेरे सामने था। उसने कभी कोई क्‍लास अटेण्‍ड नहीं की थी तो उसे कुछ भी नहीं आता था। बाह्य परीक्षक ने उसे जीरो नम्‍बर दिए और मैंने भी साइन कर दिए। अब तमाशा शुरू हुआ जब परीक्षा परिणाम आया। उस छात्र ने जयपुर स्थित विश्‍वविद्यालय के बाहर धरना दे दिया कि मेरा सेंटर उदयपुर के स्‍थान पर जयपुर कर दिया जाए। जब प्राचार्य विश्‍वविद्यालय गए तब उसने उनके साथ मारपीट भी की। अखबार-बाजी भी होनी ही थी। कॉलेज भर में तूफान आ गया और लोग मुझे कहने लगे कि आपने उसे फैल क्‍यों कर दिया? प्राचार्य भी बिगड़ने लगे कि आपने उसे फैल क्‍यों कर दिया? मैंने उनसे कहा कि मैंने तो आपके अपमान को देखते हुए उसका फेवर नहीं लिया और आप मुझे ही भला-बुरा कह रहे हैं!
कई दिनों बाद वह छात्र उदयपुर आया और कॉलेज के गलियारे में खड़ा हो गया। मैं अपने कक्ष से निकलकर गलियारे से होकर बाहर जाने लगी तब मुझे स्‍टाफ ने रोका कि मेडम आप उधर से मत जाइए। मैंने विचार किया कि यदि आज मैं डर गयी तो यह मुझे भी हमेशा डराता रहेगा। मैंने सभी के रोकने के बावजूद भी वही मार्ग चुना। गलियारे की सारी खिड़कियां बन्‍द हो गयी थी लेकिन सभी छिपी निगाहों से तमाशा देखने को तैयार थे। मैं आगे बढ़ी तो देखा वो छात्र भी मेरी तरफ बढ़ा। मेरे कदम डगमगाए नहीं, मैं दृढ़ता के साथ आगे बढ़ती रही। वह छात्र भी आगे बढ़ा। अब हम एक-दूसरे के आमने-सामने थे। सारे ही कॉलेज की साँसे रूकी हुई थी। लोगों को  लग रहा था कि आज मेरा कुछ भी हो सकता है। लेकिन यह क्‍या? वह छात्र नीचे झुका और उसने मेरे पैरों को छुआ, मैंने उसे आशीर्वाद दिया और मैं आगे निकल आयी।
अब खिड़कियां खुलने लगी थी। लोगों ने उस छात्र को घेर लिया और कहा कि साले जिसने तुझे फैल किया उसके तू पैर छूता है और जिसने कुछ नहीं किया उसे तू मारता है?
वह छात्र बोला कि इसमें मेडम कि क्‍या गलती थी? वे तो सिद्धान्‍त वाली महिला हैं इसलिए उन्‍हें तो मुझे फैल करना ही था। मैं तो उस प्रिंसिपल के बच्‍चे को इसलिए धमका रहा हूँ कि उसका कर्तव्‍य बनता था कि वो मुझे पास कराए।
इसलिए जिस के पास सिद्धान्‍त हैं उसके पास ऐसे उदण्‍ड युवा भी चले आते हैं, वे भी सिद्धान्‍तों के समझ नतमस्‍तक होते हैं। आज हमारा दुर्भाग्‍य है कि समाज सिद्धान्‍तहीन होता जा रहा है। युवाओं के लिए आदर्श बचे नहीं है और हम युवाओं को दोष दे रहे हैं, उनसे डरकर भाग रहे हैं। आप क्‍या विचार रखते हैं सिद्धान्‍तों के लिए? क्‍या मुझे ऐसे उदण्‍ड युवाओं से दूरी बनाकर चलना चाहिए? क्‍या ये मेरे लिए हानिकारक हो सकते हैं? या ये मेरे कारण और उदण्‍ड हो सकते हैं? आपके विचारों का स्‍वागत है। 

Wednesday, February 9, 2011

युवा पीढ़ी का अनूठा बदलाव - अजित गुप्‍ता


अपनी बात को यदि उदाहरण देकर प्रारम्‍भ करूं तो पूरी पोस्‍ट उदाहरण से ही भर जाएंगी लेकिन उदाहरण कम नहीं होंगे। कल तक बैठकखाने में सीमित पुरुष आज रसोईघर में दखल रखता है, कल तक बच्‍चों के साथ केवल खेलने वाला पुरुष आज उनके डायपर भी चेंज करता है। कल तक हम पीड़ित थे कि विवाह के पूर्व माँ के आगे-पीछे घूमने वाला पुत्र, अचानक विवाह होते ही शेर कैसे बन जाता है और पत्‍नी को आगे-पीछे घुमाने में ही अपना पुरुषत्‍व क्‍यों समझने लगता है? लेकिन आज स्थितियां बदल गयी हैं। कार्यविभाजन समाप्‍त प्राय: सा हो गया है। नयी पीढ़ी बदलाव की अंगड़ाई ले रही है। अभी यह बदलाव उच्‍च शिक्षित युवा में दिखायी देने लगा है लेकिन इस बदलाव की आँधी का वेग तीव्र है और यह मध्‍यमवर्गीय युवा तक जा पहुंचा हैं। आज की युवा पीढ़ी के लिए न जाने कितनी आलोचनाएं हमारे मन में हैं लेकिन उनकी प्रशंसा के लिए हमारे पास ना तो दृष्टि है और ना ही मन। हो सकता है कि आप भी मेरी इस बात से सहमत नहीं हों, लेकिन मुझे तो बदलाव की क्रान्ति दिखायी दे रही है इसीलिए मैं आज युवापीढ़ी को नमन करती हूँ।
पिता की भूमिका में आज का युवा पूर्णतया उत्तरदायी है, वह सारे ही उन कार्यों का सम्‍पादन करता है जो कल तक केवल माँ के हिस्‍से थे। बच्‍चे के डायपर बदलना, नहलाना, खाना खिलाना, सुलाना सभी कार्य तो आज के युवा कर रहे हैं। कल तक इसी सामाजिक बदलाव के लिए हम तरस रहे थे और आज यह बदलाव कब दबे पाँव हमारे घरों में आ गया हमें पता नहीं नहीं चला! निश्चित रूप से यह बदलाव पश्चिम से आया है, वहाँ कार्य विभाजन समाप्‍त प्राय: सा ही है। जब मैंने अपने परिवार में ही नजदीकी रिश्‍तों में यह बदलाव देखा था तो कुछ अजीब सा लगा, क्‍योंकि हमारा मन पूर्वाग्रहों से ग्रसित है और हमने कार्य के बारे में एक रेखा खेंच दी है। यदि किसी पुरुष को डायपर बदलते देखते हैं तो अजीब सा लगता है। लेकिन अब जब यह स्थिति सार्वजनिक हो गयी है तब अच्‍छा सा लग रहा है।
आज समय की यही मांग है कि हम इस कार्यविभाजन को समाप्‍त कर दें। अभी कुछ दिन पूर्व एक महिला साहित्‍यकार सम्‍मेलन में जाना हुआ। वहाँ एक महिला ने प्रश्‍न दाग दिया कि कौन इस बात पर गर्व कर सकता है कि हमने अपने बेटे को इस योग्‍य बनाया है कि वह अपनी पत्‍नी को बहुत अच्‍छी तरह से रखेगा? मैंने तुरन्‍त अपना हाथ खड़ा कर दिया। उसका कारण भी था कि  मेरा बेटा, अपने चार वर्षीय बेटे को बखूबी रख रहा है। क्‍योंकि मेरी बहु पहले पढ़ाई में और अब नौकरी के कारण ज्‍यादा समय नहीं निकाल पाती और उसे सप्‍ताह में पाँच दिन अलग रहना पड़ता है। मुझे उस पर गर्व होता है कि वह अपने कर्तव्‍य को बखूबी निभा रहा है। लेकिन यहाँ बात केवल मेरे बेटे की नहीं है, मैं सारे ही बेटों को देख रही हूँ कि वे सारे ही कार्यों में अपना हाथ बंटा रहे हैं। हो सकता है अभी यह प्रतिशत कुछ कम हो, लेकिन धीरे-धीरे बदलाव की यह आँधी सुखद होगी, मैं यही विश्‍वास करती हूँ। अपनी पत्‍नी के प्रति जिस निष्‍ठा के साथ आज का युवा जुड़ा है वह प्रशंसा के योग्‍य है। दोनों की आपसी समझ में बढोत्तरी हुई है, उनमें दोस्‍ती का भाव आया है। वे एक दूसरे की कठिनाइयों को समझने लगे हैं। आपने भी इस बदलाव की आंधी का साक्षात्‍कार किया हो तो बताएं। मैं यह जानती हूँ कि अभी परिवर्तन छोटा है लेकिन है तो! 

Thursday, February 3, 2011

कर्म करूं या श्रद्धा से नत हो जाऊँ या फिर मांगने के लिए हाथ फैला दूं? – अजित गुप्‍ता


त्रम्‍बकेश्‍वर (नासिक) और शिरडी की यात्रा का सौभाग्‍य मिला। हजारों ही नहीं लाखों की संख्‍या में दर्शनों की कतार में लगे भक्‍तगण, कोई साष्‍टांग प्रणाम कर रहा है तो कोई हाथ जोड़े श्रद्धा-भाव से खड़ा है। कोई नाच रहा है तो कोई जयकारे लगा रहा है। सब ही तो प्रभु से समृद्धि मांग रहे हैं। मुझे एक विचार आ रहा है कि पूर्व में भारत में अधिकांश लोग खेती करते थे, तब भी शायद प्रभु से समृद्धि की मांग होती थी। भगवान आकाश से पानी बरसा देते थे कि भक्‍तगणों लो अमृत समान पानी, अन्‍न उपजा लो और अपनी भूख-प्‍यास मिटा लो। किसान सारी जनता की भूख मिटाता है शायद इसीलिए भगवान उसे वर्षा-जल देता है। भगवान ने इस देय को कभी बन्‍द नहीं किया। बस कभी-कभार कम-ज्‍यादा करके बता देता है कि ईमानदारी से अपना कर्म करो, नहीं तो मैं सजा दूंगा! लेकिन आज लोगों को प्रभु के दरबार में मांगते देखती हूँ तो समझ नहीं आता कि आखिर इन सबको अब भगवान और क्‍या दे?
भगवान ने इतनी उपजाऊ धरती दी है, रत्‍नों और खनिजों से भरे पहाड़ दिए, समुद्र दिया, नदियां दी, पेड़ दिए, वनस्‍पतियां दी, पशु दिए, पक्षी दिए, सूर्य दिया, चन्‍द्रमा दिया, हवा दी, प्रकाश दिया। कहने का तात्‍पर्य यह है कि उसने मनुष्‍य के लिए इतना अकूत भण्‍डार पहले ही दे दिया तो अब हम क्‍या मांगते हैं? हमारे यहाँ कृष्‍ण हुए और उनको सारी ही दुनिया आज श्रेष्‍ठ मानती है, उन्‍होंने कहा कि कर्म पर ही तेरा अधिकार है। बस तू कर्म कर, फल तो मिल ही जाएगा। अब मुझे यह प्रश्‍न बेचैन करता रहता है कि मैं कृष्‍ण की बात मानूं या फिर मांगने वालों की जमात में जाकर खड़ी हो जाऊँ? जब वो स्‍वयं ही दे रहा है तब कैसा मांगना? आप कहेंगे कि नहीं यह मांगना नहीं है, यह तो श्रद्धा प्रगट करने का तरीका है। यदि श्रद्धा प्रगट करने का ही तरीका है और शायद कुछ हद तक सही भी हो तो फिर यह करोड़ों का चढ़ावा क्‍यों? यह किसी रिश्‍वत की परिभाषा में नहीं आता है क्‍या?
सत्‍य साई बाबा गरीबी में रहे लेकिन आज उनके शिष्‍यों ने करोड़ों रूपये का कारोबार कर लिया है। यहाँ तक की उन्‍हें भी सोने में मढ़ दिया है। बेचारे जो श्रद्धा प्रगट करने जा रहे हैं वे लम्‍बी कतार में फंसे हैं लेकिन जो रिश्‍वत दे रहे हैं या राहुल गाँधी जैसे बड़े पद वाले लोग सीधें ही दरबार में उपस्थित हो जाते हैं। आम जन को तो घण्‍टों कतार में लगे रहो तब जाकर कहीं दर्शन सम्‍भव होंगे! कैसा कारोबार है यह?
मैं इस देश की संस्‍कृति जागरण में रत उन तमाम महापुरुषों को नमन करती हूँ और उनके प्रति श्रद्धा-भाव भी रखती हूँ लेकिन उनके शिष्‍यों द्वारा किए जा रहे व्‍यापार से मन दुखी होता है कि आज गरीबों के मसीहा भी अमीरों के होकर रह गए हैं। अमीरों ने वैसे भी इस देश के राजनेताओं को खरीद लिया, नौकरशाहों को खरीद लिया और अब तो भगवान को भी खरीद लिया। तो बेचारा आम आदमी किस दरबार में जाकर अपनी फरियाद करेगा? या आम आदमी के पास समय बहुत है तो वह कतार में घण्‍टों खड़ा रहेगा और खास आदमी के पास समय की कमी है तो वह रिश्‍वत और रुतबे के सहारे अपनी ईच्‍छा पूर्ति कर लेगा? क्‍या देश को इस बारे में नहीं सोचना चाहिए कि यह धन का प्रदर्शन बन्‍द होना चाहिए। अनावश्‍यक कर्म-काण्‍ड बन्‍द होने चाहिएं और लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। मुझे तो लगता है कि ऐसे स्‍थानों पर कुटीर उद्योग खोल देने चाहिए और प्रत्‍येक भक्‍त को वहाँ निश्चित समय और श्रम-दान अनिवार्य कर देना चाहिए। उन्‍हें कर्म की महिमा बतानी चाहिए फिर भगवान के दर्शन कराने चाहिएं। कितना भी कोई वीआईपी क्‍यों ना हो, सभी पहले श्रम-दान करें फिर दर्शन करें। देश के हित में कार्य। नहीं तो तीर्थ यात्रा भी एक खिलवाड़ बन कर रह जाएगी और देश का पैसा और समय दोनों केवल मांगने में ही खर्च होता जाएगा। हो सकता है आप मेरी बात से सहमत ना हो, लेकिन मुझे जो विचार आए मैंने यहाँ लिखे। आपके विचारों का भी स्‍वागत है। 

Tuesday, February 1, 2011

ममता बैनर्जी आप रेल मंत्री भी हैं! क्‍या आपको स्‍मरण है? - अजित गुप्‍ता


ममता जी जब आप रेल मंत्री बनी थी तब ढेर सारी आशाएं जाग गयी थीं। सोचते थे कि आपके तेज तर्रार व्‍यवहार के कारण रेल में यात्रियों को सुविधाएं मिलेगी। साफ-सफाई की व्‍यवस्‍था सुचारू होगी लेकिन देखने में नहीं भुगतने में आ रहा है कि रेल यात्रा में यात्रियों को जो साफ-सफाई मिलनी चाहिए वो धीरे-धीरे समाप्‍त होती जा रही है। यह भी हो सकता है कि आपका ध्‍यान सारा ही पूर्व के प्रान्‍तों तक सीमित हो और हम बेचारे पश्चिम में याने राजस्‍थान में रहते हैं, तो इतनी दूरी तक आपका ध्‍यान ही नहीं जाता हो। वैसे भी आपको बंगाल की ज्‍यादा चिंता है तो हम राजस्‍थान वाले तो उपेक्षित ही रहते हैं। आप सोच रही होंगी कि आखिर मेरी शिकायत का क्‍या कारण है। तो बताए देती हूँ -
मैंने 20 जनवरी 2011 को उदयपुर से मुम्‍बई के लिए द्वितीय श्रेणी एसी में आरक्षण कराया था। सबूत के लिए अपना पीएनआर नम्‍बर भी दे रही हूँ 2642150423
शिकायत यह है कि जैसे ही बेडरोल खोला गया, गन्‍दी चद्दरे और गन्‍दे तकियों से पाला पड़ा। कोच के अटेण्‍डेण्‍ट को बुलाकर चद्दर बदलने को कहा गया तो भी कोई बदलाव नहीं। क्‍योंकि सारी ही चद्दरे उपयोग में ली हुई थीं। इसपर मैंने शिकायत-पुस्तिका की मांग की और उदयपुर स्थित एक सीनीयर अधिकारी से बात भी की। लेकिन शिकायत-पुस्तिका नहीं दी गयी। अटेण्‍डेण्‍ट ने कहा कि उपलब्‍ध नहीं है। आप कहेंगी कि टीसी को कहना चाहिए था, लेकिन इसके बाद टीसी महाशय कहीं भी नजर नहीं आए। खैर जैसे-तैसे हमने उन बेडरोल को ही भुगता। लेकिन सुबह देखा कि टायलेट भी सारे ही गन्‍दे पड़े हैं। ट्रेन में अनधिकृत वेण्‍डर खाद्य पदार्थ बेचने बेरोकटोक आते रहे और यात्रियों से पांच रूपए की चाय के 10 रूपए और 5 रू के बड़ा पाव के 20 रूपए वसूलते रहे लेकिन टीसी को सबकुछ मुफ्‍त।  
गन्‍दगी को ऐसा ही नजारा मुम्‍बई के बांद्रा वेटिंग रूम पर देखने को मिला। रूम अटेण्‍डेण्‍ट का सारा ध्‍यान यात्रियों से पैसा वसूलने पर लगा था। वेटिंग रूम ऐसा लग रहा था जैसे यहाँ कई दिनों से सफाई नहीं हुई हो। यह बात है दिनांक 30 जनवरी 2011 की। मुझे उस दिन मुम्‍बई से उदयपुर के लिए रेल यात्रा करनी थी और मेरा पीएनआर नम्‍बर भी दिए देती हूँ - PNR No: 8536435061
वेटिंग रूम से निकलकर जब ट्रेन में बैठे तो वही राग। वैसे ही गन्‍दे बेडरोल और टायलेट में साबुन तक नदारत। वही अनधिकृत वेण्‍डर, और वही मनमानी। अब आप ही बताएं कि हम अपनी शिकायत कहाँ जाकर करें? द्वितीय श्रेणी एसी में भी यदि यात्री को यही सब भुगतना पड़ेगा तो आपके मंत्री होने का क्‍या फायदा? क्‍या आपका नियंत्रण अधिकारियों और कर्मचारियों पर बिल्‍कुल ही नहीं है या फिर आपने ही इन्‍हें स्‍वतंत्रता दे रखी है कि तुम कुछ भी करों बस मुझे बंगाल की चिन्‍ता में मशगूल रहने दो। मेरी यह शिकायत आज की नहीं है, उदयपुर से चलने वाली सभी ट्रेनों में यही स्थिति हैं। मैं भी आपकी ही तरह सामाजिक कार्यकर्ता हूँ और साथ में थोड़ा लिख भी लेती हूँ तो प्रवास तो करने ही पड़ते हैं और प्रवास में ऐसी व्‍यवस्‍था देखकर महिला और गन्‍दगी का समीकरण कुछ हजम नहीं होता, इसलिए रोज-रोज कि चिकचिक से बचते हुए आज आपको यह पत्र लिख दिया है हो सके तो उदयपुर पर भी अपनी कृपा दृष्टि डाल ही दीजिए।