Friday, February 11, 2011

उदण्‍ड युवा भी सिद्धान्‍तों का सम्‍मान करते हैं – अजित गुप्‍ता


क्‍या आप कभी ऐसी समस्‍या में घिरे हैं, जब कोई उदण्‍ड या शैतान युवा आपका नजदीकी बन जाए? आप समाज के ताने सुन रहे हों लेकिन समझ नहीं आता हो कि इस परिस्थिति में क्‍या किया जाए? आखिर ऐसे उदण्‍ड बच्‍चे मुझ जैसे सीधे-सादे इंसान के पास ही क्‍यों चले आते हैं? मजे की बात यह भी है कि मुझे उनमें कोई खराबी भी दिखायी नहीं देती, जबकि लोग कितनी ही तो बुराइयां मुझे गिनाते रहते हैं। किस्‍मत से ऐसे युवा मेरी बात मान भी लेते हैं।  
एक घटना का स्‍मरण हो रहा है। जब मैं आयुर्वेद कॉलेज में प्राध्‍यापक थी, यह घटना काफी पुरानी हो चली है। मैं फाइनल इयर के विद्यार्थियों को पढ़ाती थी। इसलिए मुझे सीनियर छात्रों से ही साबका पड़ता था। कॉलेज का एक उदण्‍ड छात्र जो उसी वर्ष अंतिम वर्ष में आया था ने कॉलेज के प्राचार्य के नाक में दम कर रखा था। उसका प्रतिदिन एक ही काम था कि वह प्रिंसीपल कक्ष के बाहर बैठकर प्रिंसीपल को गाली देता था और उसके घर की पोल खोलता था। कभी-कभी वह कक्ष में भी जाकर धमका आता था। इस बात की चर्चा पूरे कॉलेज में चटखारे लेकर होती थी।
एक दिन मैं भी प्राचार्य-कक्ष में थी और वो उदण्‍ड छात्र आ गया और उसने अच्‍छी खासी ऐसी की तैसी कर दी प्राचार्य की। मुझे बड़ा बुरा लगा, मैंने बाहर निकलकर स्‍टाफ को कहा कि यह क्‍या मजाक है? इस छात्र को कोई समझाता क्‍यों नहीं है? सभी का कहना था कि यह प्रिंसीपल ही ऐसा है। वैसे वो प्रिंसिपल ऐसा ही था, बिना रीड की हड्डी का। खैर हम भी रोज का तमाशा देखते रहे। कुछ दिनों बाद ही परीक्षाएं आ गयी और अब वो छात्र मेरे सामने था। उसने कभी कोई क्‍लास अटेण्‍ड नहीं की थी तो उसे कुछ भी नहीं आता था। बाह्य परीक्षक ने उसे जीरो नम्‍बर दिए और मैंने भी साइन कर दिए। अब तमाशा शुरू हुआ जब परीक्षा परिणाम आया। उस छात्र ने जयपुर स्थित विश्‍वविद्यालय के बाहर धरना दे दिया कि मेरा सेंटर उदयपुर के स्‍थान पर जयपुर कर दिया जाए। जब प्राचार्य विश्‍वविद्यालय गए तब उसने उनके साथ मारपीट भी की। अखबार-बाजी भी होनी ही थी। कॉलेज भर में तूफान आ गया और लोग मुझे कहने लगे कि आपने उसे फैल क्‍यों कर दिया? प्राचार्य भी बिगड़ने लगे कि आपने उसे फैल क्‍यों कर दिया? मैंने उनसे कहा कि मैंने तो आपके अपमान को देखते हुए उसका फेवर नहीं लिया और आप मुझे ही भला-बुरा कह रहे हैं!
कई दिनों बाद वह छात्र उदयपुर आया और कॉलेज के गलियारे में खड़ा हो गया। मैं अपने कक्ष से निकलकर गलियारे से होकर बाहर जाने लगी तब मुझे स्‍टाफ ने रोका कि मेडम आप उधर से मत जाइए। मैंने विचार किया कि यदि आज मैं डर गयी तो यह मुझे भी हमेशा डराता रहेगा। मैंने सभी के रोकने के बावजूद भी वही मार्ग चुना। गलियारे की सारी खिड़कियां बन्‍द हो गयी थी लेकिन सभी छिपी निगाहों से तमाशा देखने को तैयार थे। मैं आगे बढ़ी तो देखा वो छात्र भी मेरी तरफ बढ़ा। मेरे कदम डगमगाए नहीं, मैं दृढ़ता के साथ आगे बढ़ती रही। वह छात्र भी आगे बढ़ा। अब हम एक-दूसरे के आमने-सामने थे। सारे ही कॉलेज की साँसे रूकी हुई थी। लोगों को  लग रहा था कि आज मेरा कुछ भी हो सकता है। लेकिन यह क्‍या? वह छात्र नीचे झुका और उसने मेरे पैरों को छुआ, मैंने उसे आशीर्वाद दिया और मैं आगे निकल आयी।
अब खिड़कियां खुलने लगी थी। लोगों ने उस छात्र को घेर लिया और कहा कि साले जिसने तुझे फैल किया उसके तू पैर छूता है और जिसने कुछ नहीं किया उसे तू मारता है?
वह छात्र बोला कि इसमें मेडम कि क्‍या गलती थी? वे तो सिद्धान्‍त वाली महिला हैं इसलिए उन्‍हें तो मुझे फैल करना ही था। मैं तो उस प्रिंसिपल के बच्‍चे को इसलिए धमका रहा हूँ कि उसका कर्तव्‍य बनता था कि वो मुझे पास कराए।
इसलिए जिस के पास सिद्धान्‍त हैं उसके पास ऐसे उदण्‍ड युवा भी चले आते हैं, वे भी सिद्धान्‍तों के समझ नतमस्‍तक होते हैं। आज हमारा दुर्भाग्‍य है कि समाज सिद्धान्‍तहीन होता जा रहा है। युवाओं के लिए आदर्श बचे नहीं है और हम युवाओं को दोष दे रहे हैं, उनसे डरकर भाग रहे हैं। आप क्‍या विचार रखते हैं सिद्धान्‍तों के लिए? क्‍या मुझे ऐसे उदण्‍ड युवाओं से दूरी बनाकर चलना चाहिए? क्‍या ये मेरे लिए हानिकारक हो सकते हैं? या ये मेरे कारण और उदण्‍ड हो सकते हैं? आपके विचारों का स्‍वागत है। 

43 comments:

Learn By Watch said...

मुझे तो यह छात्र सनकी लगा, प्रिंसिपल की जिम्मेदारी क्यूँ थी उसको पास करने की? कोई खुद न पढ़े तो प्रिंसिपल क्या करे?

प्रिंसिपल का काम पूरे कॉलेज की व्यवस्था को बनाये रखना होता है न कि किसी को भी पास करते रहना, यहाँ पर उसूलों बाली कोई बात है ही नहीं बल्कि एक बहुत छोटा सा मनोविज्ञान है, आप निडर होकर उसके सामने जाती रहीं इसलिए उसने अंतिम समय में अपना इरादा बदल दिया यदि आप थोडा भी डरती तो वह आपके उसूलों को नहीं देखता|

बन्दर बाली बात है जो डर जाये उसके पीछे पड़ जाता है वरना दुम दबा कर भाग जाता है|

केवल राम said...

आज हमारा दुर्भाग्‍य है कि समाज सिद्धान्‍तहीन होता जा रहा है। युवाओं के लिए आदर्श बचे नहीं है और हम युवाओं को दोष दे रहे हैं, उनसे डरकर भाग रहे हैं।

आपका कहना सही है ....शुक्रिया

सुनील गज्जाणी said...

प्रणाम !
अजित मेम !
आज का युवा BHALI भांति जानता है की अच्छा क्या है और बुरा क्या है मगर आज विवेका नन्द जी जी जैसे कौन युवा है ? अगर हमे किसी को सुधारना होतो स्वयं को याद रखना होगा की मैं क्या हूँ ?
सुधरने को कौन नहीं सुधर सकता बस सही ज्ञान और सही मार्ग दर्शक होना चाहिए , और इस प्रकार के इतहास भारत में बहुत है .चाहे रामायण काल हो या आज का युग . ,
साधुवाद !

Sushil Bakliwal said...

मेरे विचार में तो सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस हर जगह होना ही चाहिये, भलें ही इसके तात्कालिक परिणाम अच्छे न लगें किन्तु दूरगामी परिणाम प्रायः सभी के हित में ही होते हैं ।

डॉ टी एस दराल said...

इस छात्र में उदंडता कम और मानसिक विकार ज्यादा नज़र आ रहा है ।
यह अंतर भी करना पड़ेगा ।
वैसे आजकल गांधीगिरी का ज़माना नहीं है ।

कविता रावत said...

आज हमारा दुर्भाग्‍य है कि समाज सिद्धान्‍तहीन होता जा रहा है। युवाओं के लिए आदर्श बचे नहीं है और हम युवाओं को दोष दे रहे हैं.. बिलकुल सही बात कही आपने .. स्कूल और कॉलेज का जिस तरह बहुत बड़े पैमाने पर व्वसायीकरण हुआ है और मैनेजमेंट को सिर्फ पैसा बनाने की जो होड़ सी लगी है वहां आदर्श और सिद्धान्‍त के सर्वथा अभाव के कारण इस तरह की घटनाएँ आम होना बहुत दुखद है ..
सार्थक चिंतनप्रद जानकारी के लिए आभार

अजित गुप्ता का कोना said...

learn by watch & dr. Daral
असल में वो प्रिसिंपल ऐसे लड़कों को पास कराता फिरता था और वो छात्र उसके गाँव का भी था। इसलिए लड़कों ने सीधा रास्‍ता पकड़ लिया था। लेकिन प्रिंसिपल की भी हिम्‍मत नहीं थी कि मुझसे उस छात्र की सिफारिश करे।

Rahul Singh said...

कभी नरम, कभी गरम, कभी शांत से ही निभ पाती है जिंदगी. प्रसंग को प्रेरक तो मान सकते हैं, लेकिन अनुकरणीय मानें और कोई बन्‍दा निपट जाए(निपटने की सच्‍ची घटनाओं/उदाहरणों से भी वाकिफ हूं), फिर.

anshumala said...

नहीं अजित जी वो युवक आज से सालो पहले का है और मुझे लगाता है बन्दर घुड़की ज्यादा देता होगा वरना आज के हमारे उदंड युवा तो अपने प्रोफेसर को पिट पिट कर मौत के घात भी उतार चुके है और प्रिंसपल की पिटाई तो कइयो बार हो चुकि है | मुझे नहीं लगाता की पूरी तरह से उदंड व्यक्ति किसी के आगे भी झुकता होगा वो बस अपने बराबर के या अपने से ज्यादा ताकतवर के आगे ही झुकता है | पर सिद्धांतवादी को भी उसके आगे झुकाने की जरुरत नहीं है यदि वो अपनी उदंडता से डराता है तो उसे अपने पक्के इरादे और व्यवस्था का दिमाग से प्रयोग कर उससे मुकाबला कर सकता है |

vandana gupta said...

उदण्‍ड युवा भी सिद्धान्‍तों का सम्‍मान करते हैं-------ऐसा सिर्फ़ कुछ हद तक ही देखने को मिलेगा और कहीं कहीं हर जगह नहीं……………हाँ हर इंसान मे यदि सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत आ जाये तो शायद सभी के मनो पर अच्छा प्रभाव पडे।

रेखा श्रीवास्तव said...

अजित जी,

मैं आपके विचार से पूरी तरह से सहमत हूँ. अगर हम सिद्धांतविहीन नहीं है और कभी गलत से सहमत नहीं होते तो वे लोग भी सम्मान देते हैं. उद्दंड वे कब होते हैं ? जब उनको सामने वाले में कुछ कमी मिलती है. अपने अध्यापन काल में भी मैंने भी कुछ ऐसे लड़कों को देखा था.

ZEAL said...

सिद्धांतों की ही जीत होती है ।

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत अच्छा संस्मरण।
निश्चित रूप से यदि कोई अपने सिद्धांतों पर डटे रहना आप को इतना मजबूत बना देता है कि आप किसी से भी टकरा सकते हैं। उसे ही झुकना होगा।

Atul Shrivastava said...

आपका संस्‍मरण पढने के बाद मन में जो विचार आया उसे दिव्‍या जी ने पहले ही कह दिया। सच में आखिर में सिदधांत की ही जीत होती है।

प्रवीण पाण्डेय said...

पुराने डकैत आधुनिक नेताओं से अधिक सिद्धान्तवादी होते थे।

rashmi ravija said...

अजित जी,
बिलकुल सही कहा, आपने...सिद्धांतों से समझौता ना करने पर सामने वाले को झुकना ही पड़ता है. उस छात्र ने आपको निर्भीकता से सामने से आते देखा और समझ नहीं पाया कैसे रिएक्ट करूँ...और झुक कर पैर छू लिए.
छात्र कितने भी उद्दंड हों...उनके अंदर भी एक दिल तो होता ही है...जो सही राह दिखाए जाने पर सही रास्ते पर आ सकता है.

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सिद्धांतों को मानना ज़रूरी है..... युवा भी मानते हैं...पर हर कहीं यह बात लागू नहीं होती .....

राज भाटिय़ा said...

हम घर मे कभी कभी आज के भारत की चर्चा करते हे आज ९०% लोग सिद्धान्‍तहीन हो गये हे, ओर जो बचे हे १०% उन से ही यह सब डरते हे, आप के लेख सहमत हुं कि अगर हम सिद्धान्‍त वादी हे तो दुनिया की कोई ताकत हमे नही हिला सकती, हां कुछ परेशानियां जरुर आ सकती हे, लेकिन हमे गलत को गलत ओर सही को सही कहने की हिम्मत जरुर होनी चाहिये, ओर हमे खुद को भी सिद्धान्‍त वादी रहना चाहिये, इस लडके के गुणऒ ओर अबगुणो के बारे क्या कहे? बहुत मिलते हे ऎसे

प्रतुल वशिष्ठ said...

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आज का उद्दंड युवा नाटकबाजी ज़्यादा करता है. उसपर फिल्मी प्रभाव अधिक रहने लगा है.
— वह डोन होकर जीने में ही तारीफ़ समझने लगा है.
— वह रोबिन हुड के इम्प्रेशन में हर ग़लत और सही की परिभाषा अपनी समझ से करने लगा है.
— वह फिल्मी हीरो [टाइप्ड] हो गया है. क्योंकि अब फिल्मों में बुरे करेक्टर वाले चरित्रों को अधिक मुखर और महिमा मंडित करके दिखाया जाता है इस कारण वह उन्हें आदर्श मानने लगा है.
फिल्म के हर बुरे संवाद को बोल-बोलकर वह अपनी मंडली में तीसमारखाँ बनने की कोशिश में लगा रहता है.
— वह दबंग चरित्र बनाने के फिराक में नैतिकता के बनिस्पत फूहड़ता को तवज्जो देता है.
— अश्लील हरकतों से वह उन सामाजिकों को भयभीत रखता है जो उलझना पसंद नहीं करते और न ही किसी के फटे में टांग फँसाने के हिमायती हैं.
— वे सिद्धांतों के सम्मान करने का क्षणिक दिखावा भर करके अपनी मंडली में ऐसे सिद्धान्तवादियों की जमकर खिल्ली उड़ाते पाए जाते हैं.
उनकी भाषा कुछ ऎसी होती है : [दो-तीन गाली बोलने के बाद, या संवादों के बीच-बीच में गाली तकिया कलाम की तरह प्रयुक्त करते हुए]
"यार, पहले तो मैंने सोचा कि उस ### मेडम की टांग पकड़ कर खींच दूँ, लेकिन जब मैं नीचे झुका तो मेडम ने मेरे सिर पर हाथ पहले ही रख दिया, मैंने भी सोचा कि चलो इस बार शरीफ बनने की एक्टिंग ही कर लेते हैं अपन. मेडम ने भी बहुत दिनों से किसी को आशीर्वाद नहीं दिया होगा. आज खुश हो लेन दो.. इस डायलोग को बोलने के अपने वाचिक ट्रेफिक को वह उद्दंड अपने तकिया कलाम से इतनी जगह मोड़ देगा कि यह पूरा संवाद तीन गुने समय में मंडली के बीच हँसी-ठट्ठा करवाएगा.
आपको भी पता होगा कि जो युवा इस टाइप के होते हैं, जो बकवादी होते हैं. फूहड़ता और गंदी भाषा का इस्तेमाल करते हैं वे सभ्य और उद्देश्यपूर्ती में लगे लोगों में अपना वर्चस्व बना कर रखते हैं. उन्हें आतंकित रखते हैं. वे देखादेखी आतंकित रहते हैं. मुख्य बात होती है वह अपना समय खराब होने के भय से उलझना पसंद नहीं करते.

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Smart Indian said...

अजित जी,
वैसे तो सभी लोग अपना पक्ष रख चुके हैं, परंतु मैं इतना तो कहूंगा ही कि उस युवा को सिद्धांतों का सम्मानकर्ता सिद्ध करने के लिये यह एक उदाहरण काफी नहीं है। अगर आप प्रिंसिपल होतीं तो उस नालायक और बेगैरत युवा से शायद वही व्यवहार झेल रही होतीं जो कि आपके और उसके प्रिंसिपल ने रोज़ाना झेला था।

वाणी गीत said...

सत्य यही है की हम युवाओं को कोई आदर्श दे ही नहीं रहे हैं ...बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाए वाली स्थिति है ...
भय की आँखों में आँखे दाल लेने वाले विजय होते हैं हमेशा ...!

Udan Tashtari said...

आज हमारा दुर्भाग्‍य है कि समाज सिद्धान्‍तहीन होता जा रहा है- मूल तो यही है.

अजित गुप्ता का कोना said...

इस सम्‍पूर्ण बहस में एक बात बता दूं कि मैं ऐसे एक लड़के की बात कर रही हूँ और उसके माध्‍यम से ही ऐसे ही युवाओं की बात कर रही हूँ जो केवल नोटोरियस हैं। टेक्‍नीकल कॉलेज में पढ़ रहे हैं तो गुण्‍डे तो कदापि नहीं हैं। बस सरल रास्‍ते की जुगाड़ में रहते हैं। जब कॉलेजों में देखते हैं कि पास ऐसे भी हुआ जा सकता है तो ऐसे रास्‍ते अपनाते हैं। मैं ऐसे युवाओं की बात नहीं कर रही जो गेंग चला रहे हैं क्‍योंकि मेरा अनुभव वहाँ तक नहीं है। यह उदाहरण मैंने इसलिए दिया था कि मैं बात समझा सकूं। मेरे पास ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो केवल मेरे हैं।

Taarkeshwar Giri said...

कुछ नालायक बच्चे होते ही ऐसे हैं.

ताऊ रामपुरिया said...

जीवन में अपने सिद्धांतो पर टिके रहने में किंचित परेशानियां तो निश्चित ही खडी होती हैं लेकिन अंतत: जीत उन्हीं की होती है. बहुत शिक्षादायक संस्मरण, शुभकामनाएं.

रामराम

naresh singh said...

आप अपनी इमेज खुद बनाते है अगर आप के व्यक्तित्व की छाप उस छात्र पर इस प्रकार कि बनी है तो इसमें आपकी सादगी और सच्चाई का ही हाथ है |

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

आह ! ... जब तक उसने पांव नहीं छुए तब तक तो मेरी भी सांस फूल चली थी कि ये भूतनी का कुछ भी कर सकता है :)

Patali-The-Village said...

आज हमारा दुर्भाग्‍य है कि समाज सिद्धान्‍तहीन होता जा रहा है| बहुत अच्छा संस्मरण।

संजय @ मो सम कौन... said...

मेरी राय में संपर्क में आने वाले ऐसे युवाओं को सही राह दिखाने का प्रयास जरूर करना चाहिये। अब कितनी ऊर्जा और समय किस पर लगानी है, उसके लिये कोई थंबरूल नहीं हो सकता। कुछ जगह सिर्फ़ एक बार समझाना भी बहुत है और कई जगह सारी उम्र भी थोड़ी लग सकती है। बहुत से कारक हो सकते हैं, अपनी क्षमता, जिम्मेदारी और विवेक से निर्णय करना चाहिये।

वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर said...

सच में आज समाज में युवाओं के लिये आदर्श की कमी है।

उअनसे दूर भागना इसका समाधान नहीं है।


डॉ. दिव्या श्रीवास्तव ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर किया पौधारोपण
डॉ. दिव्या श्रीवास्तव जी ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर तुलसी एवं गुलाब का रोपण किया है। उनका यह महत्त्वपूर्ण योगदान उनके प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता, जागरूकता एवं समर्पण को दर्शाता है। वे एक सक्रिय ब्लॉग लेखिका, एक डॉक्टर, के साथ- साथ प्रकृति-संरक्षण के पुनीत कार्य के प्रति भी समर्पित हैं।
“वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर” एवं पूरे ब्लॉग परिवार की ओर से दिव्या जी एवं समीर जीको स्वाभिमान, सुख, शान्ति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के पञ्चामृत से पूरित मधुर एवं प्रेममय वैवाहिक जीवन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।

आप भी इस पावन कार्य में अपना सहयोग दें।


http://vriksharopan.blogspot.com/2011/02/blog-post.html

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

भाग्यशाली रहीं आप :)

Meenu Khare said...

अजित जी,

मैं आपके विचार से से सहमत हूँ.युवाओं से ज्यादा गलती बड़े लोगों की है जिन्होंने उन्हें आदर्शस्वरूप कुछ दिया ही नही है.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

siddhant ajey hai |

Satish Saxena said...

सम्मान एक दिन में नहीं बनता जो अच्छे होते हैं उनकी पहचान कभी न कभी हो ही जाती है ! शुभकामनायें आपको !

ममता त्रिपाठी said...

आदरणीया गुप्ताजी!

आपके इस सस्मरण ने उस समस्या पर प्रकाश डाला है जिससे आज का युवा हर सोपान पर जूझता है।
मुझे वह विद्यार्थी सनकी कदापि नहीं लगता।
आज के युवा के समक्ष कुछ ज्वलन्त समस्यायें हैं, जिन्हें लोग समझकर भी नहीं समझते। कम से कम हमारी शैक्षणिक एवम् प्रशासनिक व्यवस्था तो नहीं ही समझती। एक युवा, जो मेहनत करता है, रात-रात भर पढ़ता है और परीक्षाओं में उत्तीर्ण तो होता है..........परन्तु वह स्थान नहीं पाता जिसका वह स्वयं को हकदार समझता था। फिर उसे पता चलत है कि एक दूसरा विद्यार्थी, जो अपेक्षाकृत बहुत कम मेहनत करता था....उससे अधिक अंक प्राप्तकर उसे चिढ़ा रहा है। तब सोचिये कि किस विद्यार्थी अथवा किस मेहनतकश को बुरा नहीं लगेगा...........किसका रक्त उबाल नहीं खायेगा? किसकी आँखें क्रोध एवम् क्षोभ से आरक्त नहीं होंगी? ऐसी परिस्थिति में विद्यार्थी करो या मरो की स्थिति में आ जाता है। कुछ तो इसे नियति मानकर चुप रहते हैं...कुछ क्रान्तिकारी कदम उठा लेते हैं, एवं कुछ उसी विद्याअर्थी के समान सरलतम शॉर्टकट खोजने लगते हैं, जिसे बिना पे सोर्स, राजनैतिक दबाव आदि के कारण स्थान प्राप्त हुआ है।
आज प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक। एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर एक विश्वविद्यालय के आचार्य, राज्य सेवा आयोग (कुछ राज्यों की) तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। वहाँ वही पहुँच पाते हैं, जिनको किसी बड़ी बैसाखी का सहारा होता है।
विडम्बना इस बात कि है कि समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग इस बात से, इस आन्तरिक बात, व्यवस्था के भ्रष्टाचार से परिचित नहीं है, इतने तह तक वह जाअगरूक नहीं है। इसीलिये विद्यार्थी जब माता-पिता की आशाओं से कम प्रदर्शन, इन कारणों के कारण कर पाता है, तब माता-पिता सहित पूरा समाज, उसी को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखता है किइ इसने अवश्य प्रमाद किया होगा, इसीलिये इसके कम अंक आये। ऐसी परिस्थिति में विद्यार्थी अकेला पड़ जाता है तथा अवसाद, कुण्ठा एवं निराशा का शिकार होता है।

आपके कॉलेज का प्रधानाध्यापक अवश्य भ्रष्ट होगा। उसने किसी को अपने प्रभाव से उत्तीर्ण करवाया होगा।

-सर्जना शर्मा- said...

अजीत जी
आपकी तस्वीर देख कर कह सकती हूं कि आप कड़क लेकिन नरमदिल हैं . सिद्धांतों से किसी कीमत परह समझौता नहीं करती होंगी । हर छात्र बदमाश या गुंडा नहीं है ये बी आप पहचानती और जानती हैं । लेकिन कोई आपको बेवकूफ भी नहीं बना सकता और छात्र आपका दिल से समिमान करते होगें ये भी तय है । आप उन्हें उनके हित के लिए डांटती हैं उनसे कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं रखती ये छात्र जानते होंगें । हर इंसान की उसके कार्य स्थल में एक छवि होती है । आपकी छवि के अनुरूप ही उस छात्र ने एक्ट किया

-सर्जना शर्मा- said...

अजीत जी
आपकी तस्वीर देख कर कह सकती हूं कि आप कड़क लेकिन नरमदिल हैं . सिद्धांतों से किसी कीमत परह समझौता नहीं करती होंगी । हर छात्र बदमाश या गुंडा नहीं है ये बी आप पहचानती और जानती हैं । लेकिन कोई आपको बेवकूफ भी नहीं बना सकता और छात्र आपका दिल से समिमान करते होगें ये भी तय है । आप उन्हें उनके हित के लिए डांटती हैं उनसे कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं रखती ये छात्र जानते होंगें । हर इंसान की उसके कार्य स्थल में एक छवि होती है । आपकी छवि के अनुरूप ही उस छात्र ने एक्ट किया

Dr Varsha Singh said...

बहुत अच्छा संस्मरण।
....... आपसे सहमत हूँ।

वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर said...

श्रीमती कुसुम जी ने पुत्री के जन्म के उपलक्ष्य में आम का पौधा लगाया

श्रीमती कुसुम जी ने पुत्री के जन्म के उपलक्ष्य में आम का पौधा लगाया है।
‘वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर’ एवं सम्पूर्ण ब्लॉग परिवार की ओर से हम उन्हें पुत्री रूपी दिव्य ज्योत्स्ना की प्राप्ति पर बधाई देते हैं।

Rakesh Kumar said...

Aaj ka nav uvak adhiktar vishad se grasit hai.Jab uska vishad badhta jata hai to ya to wo dipression ka shikaar ho jata hai,ya phir udand.
Bachapan se uva-avastha ke madhya
jis prakar ka bhi vaatavaran kisi student ko ghar,school aur college
me milta hai, vaise hi uska vikas hota hai.Yadi koi student vishad se grasit hai to ghar me uske parents aur school/college me teachers ko yeh koshish karni chahiye ki uske vishad ka samuchit
hal ho aur uska vishad vishad na reh kar vishad yog ban jaaye.Jeevan
me vishad yog ki mahatta ko hum sabhi ko samazna chahiye.

निर्मला कपिला said...

पता नही उस लडके ने क्या सोचा होगा लेकिन अगर वो सिद्धान्तों का सम्मान करते हैं तो उद्दंड नही हो सकते। वो जरूर सनकी होगा। शायद उसे केवल प्रिंसीपल को ही तंग करना हो। लेकिन फिर भी ईमानदारी और सिद्धान्तों के आगे नतमस्तक होना ही चाहिये। शुभकामनायें।

ज्योति सिंह said...

dekheye azit ji har insaan ki mano dasha alag alag hoti hai aur us par nirbhar hai ki kis drishtikon se use sweekarta hai ,aapka lekh poora hi nahi padhi balki bahut dhyaan se padhi aur har kisi ke liye aesi ghatnaayo ko jaanna jaroori hai .uttam .

संजय कुमार चौरसिया said...

siddhanton ki hamesha jeet hoti hai

ब्लॉग लेखन को एक बर्ष पूर्ण, धन्यवाद देता हूँ समस्त ब्लोगर्स साथियों को ......>>> संजय कुमार