Monday, August 31, 2020

खिलौनों का संसार

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अमेरिका में हम एक परिवार से मिलने गये, कुछ देर में ही बात चल पड़ी खिलौनों पर! वे आपस में पूछ रहे थे कि तुम्हारे बच्चे के पास कौन सा खिलौना है? अभी नया खिलौना जो बाजार में आया है, वह खरीदा है या नहीं! मैं आश्चर्यचकित थी कि खिलौने भी आपके रहन-सहन की सीमा तैयार करते हैं क्या! बच्चे भी खिलौनों की जरूरत समझने लगे, यदि उसके पास है तो मेरे पास भी होना ही चाहिये। दुनिया में जो है या था, उसे खूबसूरत खिलौने में ढाल दिया गया था। डिज्नीलैण्ड तो खिलौनों की दुनिया ही है। अमेरिका, यूरोप आदि विकसित देशों में सारी दुनिया को खिलौनों के रूप में बच्चे के सामने ला दिया। अब बच्चा सोते-जागते उसी दुनिया में जीने लगा। टॉय स्टोरी प्रमुख हो गयी और वास्तविक कहानी पीछे धकेल दी गयी। खिलौना उद्धोग बढ़ता गया और बच्चा सिमटता गया। उसकी दुनिया केवल मात्र खिलौने हो गये।

मोदीजी ने मन की बात कही। खिलौनों पर बात रखी। खिलौने हमारे बचपन को कैसे सृजनात्मक बनाते रहे हैं, यह हम सब जानते हैं। हमने खिलौने से लेकर ट्रांजिस्टर, पंखे आदि सभी खोलकर देखे हैं कि यह कैसे चलते हैं और इन्हें कभी वापस जोड़ लिया जाता था और कभी जोड़ नहीं पाते थे। बस वहीं से सृजन की शुरुआत हुई थी। अब थीम पर आधारित खिलौने बनने लगे हैं, जिससे बच्चे बहुत कुछ सीख जाते हैं। लेकिन थीम कुछ ही विषय पर बनती हैं। भारत में कहानी की भरमार है, हर प्रदेश के अपने नृत्य हैं, वेशभूषा है, मन्दिर हैं। यदि हम नृत्य शैली और उनकी वेशभूषा को आधार बनाकर एक थीम बनाएं तो कितनी सुन्दर खिलौनों की दुनिया होगी! प्रदेश के मन्दिरों की थीम बनाकर खिलौने बनाएं तो कितनी सुन्दर होगी! हमारे पौराणिक कथानकों पर कितने डिज्नीलैण्ड बन सकते हैं! दुनिया में लोगों के पास कितनी कहानियां हैं? भारत के पास अनगिनत कहानियां हैं।

भारत में ऐसी संस्कृति है जो जीवन के प्रत्येक पहलू को दिखाती है, गृहस्थी-परिवार से लेकर देश तक के दर्शन कराती है। हमारे यहाँ खिलौना का संसार बस सकता है। न जाने कितने डिज्नीलैण्ड बन सकते हैं! हमारे यहाँ कठपुतली के रूप में कुछ प्रयोग हुए हैं, ऐसे ही प्रयोग खिलौनों में होने चाहियें। न जाने कितने कलाकरों को नवीन सृजन का अवसर मिलेगा! बस आवश्यकता है, खिलौना व्यवसाय को नया रूप देने की। जब देश का प्रधानमंत्री लोगों का आह्वान करता है तब लोग इस उद्धोग में रुचि लेंगे ही। बस आवश्यकता है भारतीय दृष्टिकोण की। एक बार कलाकार को समझ आ जाए कि कैसे भारत की कला का दुनिया को परिचय कराया जा सकता है, बस तभी बात बनेगी।

Friday, August 28, 2020

घौंसला बनाता नर-बया

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शाम को घूमने का एक ठिकाना ढूंढ लिया है, एक ऐसा गाँव जहाँ पर्याप्त घूमने की जगह है। जहाँ जंगल भी है, और जंगल है तो पक्षी भी हैं। नाना प्रकार की चिड़ियाएं हैं जिनकी चींचीं से हमारा मन डोलता रहता है। काश हम इनकी भाषा समझ पाते! हम देख रहे हैं एक पेड़, जहाँ बया के खूबसूरत कई घौंसले लटक रहे हैं। अभी अधूरे हैं, नर-बया उन्हें बुनने में लगे हैं। मादा बया खुशी से प्रफुल्लित होकर चींचीं कर रही है। मादा-बया की खुशी से नर-बया उत्साहित होकर घौंसला बनाने में फुर्ती लाता है। दौड़-दौड़कर तिनके ला रहा है और बहुत ही खूबसूरती  से उन्हें घौंसलों में बुन रहा है। धीरे-धीरे घौंसला तैयार हो रहा है। मादा बया का निरीक्षण शुरू हो गया है। यह क्या? एक घौंसला अधूरा छूट गया है! अब नर बया दूसरे घौंसले पर काम कर रहा है! पता लगा कि मादा बया ने कहा कि यह घौंसला ठीक नहीं बन रहा है, इसमें गृहस्थी नहीं जमायी जा सकती है। बस मादा बया ने रिजेक्ट कर दिया तो रिजेक्ट हो गया। नर क्या करता! उसने फिर मादा बया को खुश रखने का प्रयास किया। पेड़ पर ऐसे अधूरे और पूरे कई घौंसले हो गये। अब मादा बया स्वीकृति देगी तो गृहस्थी बनेगी और फिर अण्डे सुरक्षित रह पाएंगे।

हम प्रतिदिन देख रहे हैं, नर-बया का कृतित्व। चित्र लेने का प्रयास भी करते हैं लेकिन चिड़िया आती है और फुर्र हो जाती है। हम आपस में बया की कहानी कहने लगते हैं फिर किसी पेड़ की जानकारी बताने लगते हैं और एक घण्टा घूमने का कब पूरा हो गया, खबर ही नहीं लगती! हमारे सामने प्रकृति है, कभी मोर को उड़ते देखते हैं। नाचते तो सभी ने देखा ही होगा लेकिन मोर उड़कर कैसे दूरियाँ नाप लेता है, यह भी देख लिया है। प्रकृति को समझने और देखने का जितना सुख है, यह सुख बहुत प्यारा है।

कभी इस निर्जन जगह पर कुछ युवक बोतल लिये युवा भी दिख जाते हैं, साथ में चबेना भी है। वे प्रकृति को देखने नहीं आए हैं अपितु प्रकृति की गोद में बैठकर छिपने आए हैं। वे प्रकृति को समझ ही नहीं पा रहे हैं। उन्होंने प्रकृति के बारे में कुछ पढ़ा ही नहीं है। उनमें जिज्ञासा ने जन्म ही नहीं लिया है। वे तो भोग में लगे हैं, इस निर्जर जंगल में डर पैदा करने में लगे हैं। यही तो असुरत्व है। डर पैदा करो। कल दो माँ-बेटी भी हमें देखकर यहाँ आ गयीं। उन्होंने बताया की बस पहाड़ी के उस पार ही हमारा गाँव है लेकिन यहाँ आने की कभी हिम्मत नहीं की। हमने पूछा क्यों? वे बोली की लोग कहते हैं कि यहाँ लोग शराब पीने आते हैं, बहुत कुछ हो जाता है यहाँ।  हमने कहा कि कुछ नहीं होता, रोज आया करो। अब वे निर्भय हो गयी है, आने लगी हैं। लेकिन प्रश्न जो मेरे मन में उदय हो रहा था कि लोग यहाँ आकर प्रकृति में क्यों नहीं खो जाते हैं? क्यों वे यहाँ असुरत्व पैदा करते हैं? शायद इसका कारण है हम पढ़ते ही नहीं हैं। आज का युवा भोगवाद के पीछे भाग रहा है, वह किताबों को हाथ ही नहीं लगा रहा है! उसे पता ही नहीं है कि जीवन कैसे बनाया जाता है। क्या अमीर और क्या गरीब सारे ही सुख के साधनों के पीछे भाग रहे हैं। अपनी हैसियत को धता बताकर माता-पिता को भी दुत्कार, बस सुख के साधन उनकी जीवन नैया हो गयी है। वे प्रकृति को देख ही नहीं रहे हैं कि प्रकृति में एक छोटी सी चिड़िया कितना परिश्रम करती है। परिश्रम करने पर ही उसे गृहस्थी का सुख मिलता है। लेकिन हम बोतल लेकर यहाँ आते हैं। ज्ञान नहीं है, तभी तो कुछ देख ही नहीं पाते। यदि ज्ञान होता तो बोतल घर पर भी याद नहीं आती। बस प्रकृति में ही खो जाने का मन करता। काश हम ज्यादा समय वहाँ रह पाते। उस बया के घौंसले बनाने वाले नर-बया से कुछ और सीख लेते!

Friday, August 21, 2020

हम ऊर्जा कहाँ से लेते हैं?

 

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कल माँ और बेटे के बीच हुई रोचक बात सुनिये। परिवार की बात नहीं है ना ही सामाजिक है, विज्ञान की बात है। लेकिन आप सभी को पढ़ लेनी चाहिये और अपनी राय भी देनी चाहिये जिससे यह बात आगे बढ़े। तो सुनिये – कल ही समाचार पत्र में एक समाचार प्रकाशित हुआ था कि धरती पर भार बढ़ रहा है इस कारण चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन हो रहा है और यदि ऐसा ही रहा तो धरती दो भागों में विभक्त हो जाएगी!

मैंने बेटे को बताया कि यह क्या है? अब वह इंजीनियर है तो विज्ञान क्षेत्र में कुशल ही है। वह बोला कि मैंने भी पढ़ा था। प्रश्न यह है कि भार कैसे बढ़ रहा है? पृथ्वी की ऊर्जा से ही सब कुछ बनता है, यहाँ की ऊर्जा यहाँ ही लगती है तो भार कैसे बढा?

मैंने कहा कि पृथ्वी तो कण पैदा करती है लेकिन हम मण हो जाते हैं!

उसने कहा यह सब इसी ऊर्जा से होता है। यदि किसी की मृत्यु होती है तो इसी उर्जा में समा जाती है। मेरी जिज्ञासा बढ़ रही थी, पूछा कि मतलब पंचतत्व में विलीन हो जाती है? लेकिन हम तो जलकर शीघ्र ही पंचतत्व में विलीन हो जाते हैं और वे जो दफन होते हैं?

वे भी कभी ना कभी पंचतत्व में विलीन होते ही हैं। मतलब यहीं की ऊर्जा यहीं पर काम आ गयी।

अब मेरा जो प्रश्न था वह ही धमाका था, मैंने पूछा कि हम तो ऊर्जा सूर्य से भी लेते हैं और सारे ही जीव जगत सूर्य के कारण ही बढ़ते हैं, तो यह तो पृथ्वी के अतिरिक्त हुआ ना! फिर हमारे इतने ग्रह हैं जिनकी ऊर्जा भी हम लेते ही हैं! हमारे यहाँ ज्योतिष विज्ञान है जो कहता है कि  हमारे जीवन में ग्रहों का प्रभाव होता है, तो सत्य ही है। हम सभी से ऊर्जा लेते हैं तो सभी से प्रभावित भी होते हैं। इसलिये ज्योतिष एक बहुत बड़ा विज्ञान है, जिसे समझना अति आवश्यक है।

इस एनर्जी याने की ऊर्जा के सिद्धान्त ने हम दोनों को ही अवाक कर दिया, उसने कहा इसे मैं विस्तार से पढ़ूंगा। विज्ञान कुछ भी कहे लेकिन मुझे तो समझ यही आया है कि ज्योतिष ज्ञान है और अब इसे बिन्दू-बिन्दू के रूप में समझकर विज्ञान की तरह सिद्ध करना होगा। कब मंगल से हम उर्जा लेते हैं, कब बृहस्पति से और कब बुद्ध से! इसी के अनुरूप  हमारा जीवन  बनता है। बस यह विज्ञान समझने की जरूरत है, फिर बहुत सारी गुत्थियाँ सुलझ जाएंगी। शायद यह भी पता लगे कि कौन सा वायरस किससे ऊर्जा ले रहा है!

अपने बच्चों से ऐसी रोचक बातें करते रहिये, बहुत नवीनता मिलती है। वैसे आप सब करते ही होंगे लेकिन थोड़ा कुरदेकर सीखने की दृष्टि से करेंगे तो सार्थक परिणाम मिलेंगे।