Wednesday, April 28, 2010

अमेरिका जा रही हूँ, पता नहीं कितने दिन बाद ब्‍लागिंग करने का सुख मिले

फोन की घण्‍टी बज उठी, मम्‍मी नमकीन रख लिया ना? इतने में ही बहु की आवाज भी सुनाई दे गयी, अचार रख लिया ना? इसके लिए उपहार, उसके लिए मिठाई। दाल, दलिया जो ले जा सको लेकर जाना, वहाँ स्‍वाद नहीं है। तो भाई, आजकल अमेरिका जाने की तैयारी कर रहे हैं। कपड़े भी सिलवा लिये हैं। अटेची पेक होना भी शुरू हो गयी है। एक-एक सामान को तीन-तीन बार चेक किया जा रहा है कि कहीं कुछ रह ना जाए। बस अब तो दिन ही कितने रह गए हैं? तीन तारीख की तो फ्‍लाइट ही है। सोचा आप लोगों को भारत से अन्तिम पोस्‍ट लिख ही दूं। अमेरिका पहुंचने के बाद पता नहीं कितने दिन तक पोस्‍ट लिखी ही नहीं जाए? वहाँ भी तो हिन्‍दी की व्‍यवस्‍था करनी पड़ेगी ना।

मेरा सभी को राम-राम। पूरे दो माह बाद आगमन है। केलिफोर्निया जाना है, यदि वहाँ अपना कोई ब्‍लागर हो तो अवश्‍य बता देना। निर्मला जी वहीं है, उम्‍मीद पक्‍की है मिलने की। जब तक सभी को केवल याद करूंगी। मैं अपना फोन नम्‍बर भी दे रही हूँ जिससे कोई भी अपना हो तो वो मुझसे अवश्‍य बात कर ले। पराये देश में अपने ही तो अपने होते हैं।

 आप सब की पोस्‍ट कई दिनों से ढंग से पढ़ नहीं पा रही हूँ, उसके लिए भी क्षमा। इन दिनों में वैसे आप लोग ज्‍यादा अच्‍छा मत लिखना, बस काम चलाऊ लिखते रहना। जिससे मुझे ना पढ़ने का कोई दुख नहीं हो। चलिए अब बन्‍द करती हूँ सभी को पुन: राम राम।

Friday, April 23, 2010

मैं आज पुरुषों के मन की बात जानना चाह रही हूँ

मैं कल एक कार्यक्रम में भाग लेने छोटी-सादड़ी गयी थी। मेरे साथ हमारे पड़ोसी और सहकर्मी हमारे मित्र भी थे। वे अपने परिवार की निगाह में थोड़े अडियल माने जाते हैं, लेकिन उनके परिवार से ज्‍यादा वे स्‍वयं को अडियल स्‍वीकार करते हैं। शाम को जब कभी एकत्र बैठते हैं तो कई बार अपने मन की बात भी बता देते हैं और हम आपस में परामर्श भी कर लेते हैं। कार्यक्रम पश्‍चात वापस आते समय उन्‍होंने मुझे अपने मन की बात बतायी। शायद उसका कारण भी था कि मैंने परिवार पर अपना उद्बोधन दिया था। इसलिए वे बोले कि अभी दो दिन पहले मैंने स्‍वयं का आकलन किया। मैंने विचार किया कि क्‍या मैं अपने बेटे के साथ कहीं कठोर तो नहीं रहा? ऐसा तो नहीं कि मैंने उसका बचपन छीन लिया हो? वे बोले कि जब मैं कोई फिल्‍म देखता हूँ और उसमें पाता हूँ कि आज की युवा पीढ़ी बहुत मस्‍ती करती है लेकिन मैं तो उसे अनुशासन का पाठ पढ़ाता रहा हूँ, ऐसा तो नहीं है कि उसे आज लग रहा हो कि मैंने यह सब नहीं किया। वे बोले कि मैं अपराध-बोध से ग्रसित होकर अपनी पत्‍नी से पूछ रहा था। पत्‍नी ने कहा कि इस बात का उत्तर तो सोच-समझकर दूंगी। पत्‍नी तो पत्‍नी ही होती है भला पति को हीनभावना का शिकार कभी होने देती है? उसने कहा कि आपकी चिन्‍ता बेकार है, आपने बेटे को सभी कुछ दिया है। पत्‍नी ने अपनी बेटियों से भी बात की कि तुम्‍हारे पापा सेन्‍टी हो रहे हैं। बेटियों ने भी कहा कि नहीं उसने वो सारे कार्य किये है जो एक लड़का अपनी उम्र में करता है, इसलिए आप दुखी मत होइए।

उन्‍होंने जब ये सारी बाते मुझसे शेयर की तब मेरे मन में एक विचार कौंधा। अभी दो दिन पूर्व ही वे दोनो पति-पत्‍नी घर आए थे और उन्‍होंने बताया था कि बेटे की शादी पक्‍की कर दी है। आज उनका अपने बारे में आकलन करना कहीं बेटे की शादी अर्थात नयी-बहु के आगमन के कारण तो नहीं है? मुझे चार वर्ष पूर्व का काल याद आ गया। जब मेरे घर में भी बहु आने वाली थी। मैं अपने पतिदेव के स्‍वभाव से थोड़ा चिन्तित थी कि कहीं ऐसा ना हो कि वो बहु के सामने भी अपना स्‍वभाव नहीं बदले और एक पति ही बने रहे। लेकिन मेरे लिए परम आश्‍चर्य का विषय था कि मेरे पतिदेव एकदम ही बदल गए। माँ होने के नाते तो मुझे मालूम है कि एक स्‍त्री को उस समय कैसा अनुभव होता है। माँ तो उस समय इतना खुश होती है जैसे उसे कौन सा खजाना मिलने वाला हो? बस बेटे का घर बसेगा, शायद माँ के लिए सबसे बड़ा सुख यही होता है। उसके घर में भी फिर से मेंहदी लगे पैरों की छाप लगेगी। घर में जो यौवन बीत गया था वो वापस लौट आएगा। चारों तरफ बस खुशियां ही खुशियां होंगी।

मैं जब आप सभी पुरुषों से प्रश्‍न कर रही हूँ तब अपनी बात भी ईमानदारी से रखूंगी। माँ के मन में तो बस एक ही डर होता है कि आज जो मेरा घर है, जिसे मैंने बड़े प्‍यार से सजाया है कहीं उसमें कोई ग्रहण ना लगा दे? आज की सास का मन भी मैंने देखा है और अक्‍सर कहते सुना है कि हमारे दिन तो बीत गए लेकिन अब मैं अपनी बहु को हथेलियों पर रखूंगी। सास और बहु के रिश्‍ते में इतना प्‍यार भर दूंगी कि यह रिश्‍ता सबसे अधिक प्रिय हो जाए। लेकिन जब मैंने मेरे पड़ोसी को बदलते देखा और अपने पतिदेव को भी बदलते देखा तो आज स्‍वाभाविक रूप से यह चाहत जागी कि आप सभी से प्रश्‍न करूं कि क्‍या आप भी बदले थे या बदलेंगे? घर में नयी बहु के आगमन के समाचार से आपके मन में क्‍या विचार आए थे?

Tuesday, April 20, 2010

हमारा शौक और बेचारे जानवर की मृत्‍यु

जब-जब भी आइने में खुद को देख लेती हूँ तो रातों की नींद उड़ जाती है। दूसरे दिन से ही मोर्निंग वाक शुरू हो जाता है। लेकिन फिर एकाध प्रवास और घूमना निरस्‍त। कम्‍प्‍यूटर छूटता नहीं और फेट बढ़ने का क्रम टूटता नहीं। लेकिन फिर भी अभी कुछ दिनों से क्रम चल ही रहा है, घूमने का। हमारे घर के पास ही एक सरकारी विभाग का परिसर है, जिसमें काफी जगह है और एकदम शान्‍त हैं। हम जैसे कई लोग वहाँ घूमने आते हैं। एक साल पहले हमने देखा कि एक कुतिया ने बच्‍चे दिए, शायद छ या सात थे। धीरे-धीरे वे बड़े हुए और अब पूरे युवा हैं। कुल मिलाकर वहाँ 10 कुत्ते हैं। पहली बार जब हम गए ( मैं ह‍म का प्रयोग इसलिए कर रही हूँ कि मेरे साथ मेरे पतिदेव भी होते हैं) तो कुत्ते हमें देखकर हमारे पास आ गए और पूछ हिलाने लगे। लेकिन जब हमने हाथ झटका दिए तब वे दूर चले गए। थोड़ी देर में ही देखा कि एक दम्‍पत्ति अपने साथ एक थैला लेकर आए हैं। वे उसमें से बासी डबलरोटी और रोटी निकालकर उन कुत्तों को खिला रहे हैं। मुझे बात समझ आ गयी थी कि ये हमारे पीछे भी क्‍यों लपके थे।

आप सभी ने देखा होगा कि लोग धार्मिक स्‍थानों पर बंदरों को, सड़क पर खड़ी गायों को, कुत्तों को रोटी खिलाते हैं। मैंने एक फोरेस्‍ट ऑफिसर से पूछा कि क्‍या यह ठीक है? वे बोले कि यह जानवरों के प्रति अन्‍याय है। वे अपना स्‍वाभाविक जीवन जीना छोड़ देते हैं और जब ऐसे दानदाताओं के द्वारा उन्‍हें खाना नहीं मिल पाता तो अन्‍य लोगों पर आक्रमण कर देते हैं। मुझे एक घटना अमेरिका की याद आ गयी। हम येशुमेटी (एक पर्यटकीय स्‍थान) गए थे। वहाँ लोगों ने कहा कि यहाँ भालू हैं। लोग देखने के लिए उत्‍सुक हो रहे थे। हम भी उनके पीछे चले गए। एक दो भालू हमने देखे भी। एक तो सेव के पेड़ पर चढ़कर सेव का आनन्‍द ले रहा था। लेकिन हम शीघ्र ही बाहर आ गए। कुछ लोग जंगल में अन्‍दर तक चले गए। तभी वनकर्मियों को इस हरकत का पता लगा और वे वहाँ आ पहुंचे। उन्‍होंने कहा कि आप अपने शौक के लिए जंगल में घुस जाते हैं लेकिन यदि किसी भी भालू ने या अन्‍य जानवर ने आपको नुक्‍सान पहुंचा दिया तब हमें मजबूरन उस भालू को मारना पड़ता है। क्‍योंकि आमतौर पर जानवर मनुष्‍य पर हमला नहीं करते हैं। यदि उसने हमला कर दिया है तो हो सकता है कि उसकी आदत में आ जाए। अर्थात हमारा शौक और बेचारे जानवर की मृत्‍यु। ऐसे ही बंदरों, कुत्तों, गायों को रोटी देने का आप पुण्‍य करे लेकिन दुष्‍परिणाम भुगते अन्‍य व्‍यक्ति या फिर ये जानवर। मैं वहाँ कइयों को टोक देती हूँ लेकिन कुछ इतने बुजुर्ग हैं कि मुझे लगता है कि उन्‍हें केवल पुण्‍य की भाषा ही समझ आ रही है वे मेरी बात को अनसुना कर देंगे। पुण्‍य कमाना है तो अपने घर पर कमाना चाहिए, सार्वजनिक स्‍थानों पर पुण्‍य कमाने के चक्‍कर में हम पाप कर बैठते हैं। आपका इस बारे में क्‍या विचार है?

Monday, April 19, 2010

क्‍या ब्‍लाग-जगत भी चुक गया है?

दो चार दिन से ब्‍लाग जगत में सूनापन का अनुभव कर रही हूँ। न जाने कितनी पोस्‍ट पढ़ डाली लेकिन मन है कि भरा ही नहीं। अभी कुछ दिन पहले तक ऐसी स्थिति नहीं थी। दो चार पोस्‍ट तो ऐसी होती ही थी कि दिन भर की तृप्ति दे जाती थी। किसी को सुनाने का मन भी करता था। कहीं अपनी बात कहनी होती थी तो ब्‍लाग जगत का जिक्र भी हो ही जाता था। लेकिन अब तो ऐसा हो रहा है कि बस ढूंढते ही रह जाओगे। आखिर ब्‍लाग है क्‍या? कुछ पोस्‍ट धर्म-सम्‍प्रदाय को लेकर आ रही हैं। सभी को अपनी बात अपने ब्‍लाग पर लिखने का हक है लेकिन ऐसी बाते कितना असर छोड़ पाती हैं? एकाध बार तो पढ़ी जाती है फिर आत्‍म-प्रलाप सा लगने लगता है और उन पोस्‍टों से स्‍वत: ही दूरी बन जाती है। हमारे यहाँ इतने धार्मिक नेता हैं और उन्‍हीं का काम है अपने धर्म के बारे में बताने का। लेकिन पता नहीं क्‍यों हम ब्‍लाग पर इस बारे में लिख रहे हैं और अपने अल्‍प ज्ञान से एक नयी बहस को जन्‍म दे रहे हैं।

मैं अनुभव कर रही हूँ कि हम अनावश्‍यक स्‍वयं को विद्वान सिद्ध करने में लगे रहते हैं, सहजता से कुछ नहीं लिखते। जबकि ब्‍लाग लेखन सहजता का ही दूसरा नाम है। पूर्व में पत्र-लेखन होता था, आज ब्‍लाग-लेखन है। समाज में जो हम प्रतिदिन देखते हैं, अनुभव करते हैं, जिनके बारे में हमारा मन कुछ कहता है, बस उसे ही यदि ब्‍लाग पर लिखें तो शायद बहुत सारे ऐसे विषय होंगे जिन पर आज तक किसी ने अपनी लेखनी नहीं चलायी होगी। हम रोज ही कुछ न कुछ पढ़ते हैं, ह‍में लगता है कि अरे इस बारे में हमें भी कुछ लिखना चाहिए। ऐसा ही आज मेरे साथ भी हुआ। लेखक रस्किन बॉन्‍ड का एक संस्‍मरणनुमा आलेख समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ। उसमें उन्‍होंने किसी भी कार्यक्रम में जाकर भाषण देने का दर्द बताया। मेरा मन भी हुआ कि इस बारे में लिखना चाहिए कि मुख्‍य अतिथि का क्‍या दर्द होता है? लेकिन फिर सोचा कि उन्‍होंने अपने विचार लिखे, अब यदि इसी विचार को मैं भी लिखूंगी तो नकल जैसा हो जाएगा। लेकिन वो उनके मौलिक विचार थे, पढ़कर एक विषय ध्‍यान में आया। लेकिन मुझे लगता है कि मैं अपनी स्‍लेट को खाली ही रखूं किसी और के विचारों से उसे ना भरूं। क्‍योंकि लेखन के माध्‍यम से मैं अपने आपको जानना चाहती हूँ कि मेरी किन विषयों पर संवेदनाएं जागृत होती हैं और विचार स्‍वत: ही निकलकर बाहर आते हैं? , ब्‍लाग पढ़ना भी इसी जानने की एक प्रक्रिया है। हमें क्‍या अच्‍छा लगता है? लेकिन जब कुछ भी नया नहीं मिले तो लगता है कि क्‍या ब्‍लाग जगत भी चुक गया? हो सकता है मैं गलत हूँ, मेरी खोज अपूर्ण हो और मैं उन पोस्‍ट त‍क पहुंच ही नहीं पा रही जहाँ कुछ नया मिलता है। आप को लगता हो तो मुझे भी बताइए।

Tuesday, April 13, 2010

बेटा बोला कि माँ मैं आपको मिस कर रहा हूँ

ज्‍योतिष को मैं मानती हूँ लेकिन उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने देती। मुझे लगता है कि बस कर्म करो, आपको फल मिलेगा ही। लेकिन पता नहीं क्‍यों इन दो-चार दिनों से मुझे लग रहा है कि दिन अच्‍छे आ गए हैं। इसलिए अच्‍छे दिनों को भी आप सभी से बाँट लेना ही चाहिए। क्‍यों ठीक है ना? अभी चार-पाँच दिन पहले अचानक मेरी पोस्‍ट पर महफूज का संदेश पढ़ने को मिला ‘मम्‍मा मैं आ गया हूँ’ ऐसा लगा कि स्‍त्री को पीछे धकेलकर आज माँ विराजमान हो गयी है। जैसे ही माँ का भाव आता है, ममता तो पिछलग्‍गू सी आ ही जाती है। बहुत अच्‍छा लगा कि मेरा रूखा-सूखा व्‍यक्तित्‍व माँ में बदल गया। अभी मैं इस शब्‍द के नशे में डूब-उतर ही रही थी कि एक चिन्‍ताजनक समाचार भी मिल गया। बेटे के सर्जरी होनी है, बेटा अमेरिका में है और मेरी टिकट मई के प्रथम सप्‍ताह की है। प्री-पोण्‍ड कराने का प्रयास किया लेकिन नहीं हुआ। बेटे ने कहा कि चिन्‍ता मत करो, कुछ दिनों बाद तो आप आ ही रही हैं। वैसे भी विशेष कोई बात नहीं है, सब ठीक हो जाएगा। सर्जरी कल हो गयी और वह घर भी आ गया। जब भारत में रात के चार बज रहे थे तब अमेरिका में दिन के साढे तीन बज रहे थे, इसलिए घर पहुंचकर उसने फोन नहीं किया। अभी सुबह होते ही मैंने फोन लगाया, फोन क्‍या स्‍काई पे पर ही बात की। वेब-केमरा ऑन था तो उसे देख भी लिया। लेकिन इस पोस्‍ट को लिखने का जो मकसद है और जो भूमिका मैंने बनायी थी उसी बात पर मैं आ रही हूँ। मैंने जीवन के 58 बसन्‍त देख लिए हैं। शादी को भी 33 साल हो रहे हैं लेकिन एक वाक्‍य से कभी पाला नहीं पड़ा। मुझे किसी ने नहीं कहा कि मैं तुम्‍हें मिस कर रहा था। लेकिन आज बेटा बोला कि मैं आपको मिस कर रहा था। तो मुझे लगा कि महफूज ने जो मुझे माँ का दर्जा दिया था कहीं उसी ममता की खुशबू तो उस तक भी नहीं जा पहुंची? आप गलत मत समझना, मेरा बेटा मुझे बहुत प्‍यार करता है, बस अभिव्‍यक्ति उसके खून में ही नहीं है तो वो भी क्‍या करे? मैंने उससे कहा कि बेटा आज का दिन तो मेरे लिए इतिहास में दर्ज हो गया है, जब तू बोला तो सही। वो भी हँसने लगा और उसके पिताश्री भी। तो क्‍या वास्‍तव में जब दर्द होता है तब केवल माँ ही याद आती है?

जब आज का युवा ‘महफूज’ से लेकर ‘पुनीत’ तक ( ये दोनों ही मेरे बेटे हैं) माँ के आँचल की तलाश कर रहे है तब हम क्‍यों केवल स्‍त्री ही बनकर अपने दुखों का पिटारा खोल कर बैठ गए हैं? मैं आज आनन्‍दित हूँ कि अब बेटे माँ को मिस करने लगे हैं। उन्‍हें माँ के आँचल की, उसके हाथों की याद आने लगी है। बस मैं इसी भाव को पकड़े रहना चाहती हूँ। आज का युवा स्‍त्री में आनन्‍द ढूंढ रहा है, उसे यदि हम अपने प्‍यार से आनन्‍द की सच्‍ची परिभाषा समझा सकेंगे तब शायद हमारा मातृत्‍व सफल हो जाएगा। निहायत ही निजी बात को मैंने आप सभी से शेयर किया है बस इसीलिए कि शायद हम फिर से माँ बन जाएं? हमारे बेटे एक बार नहीं बार-बार कहें कि माँ मैं तुझे मिस कर रहा हूँ।

विशेष - मैं दो दिन के लिए आज ही जयपुर जा रही हूँ,  समयाभाव के कारण शायद जयपुर में भी आपसे सम्‍पर्क में नहीं रह सकूं। इसलिए दिनांक 16 अप्रेल को ही मिलेंगे।

Saturday, April 10, 2010

हम इतने छुई-मुई से क्‍यों हैं? किसी ने कुछ कहा और हम भाग खड़े होते हैं?

जब लोगों को देखती हूँ कि गुलाब की पत्तियों से भी घाव कर लेते है तो मुझे लगे काटों के घाव सोचने पर मजबूर कर देते हैं। मेरे घाव कहते हैं कि अरे तू तो रोती नहीं? कांटे भी चुभा दिए, तलवारें भी चला लीं, तोप-तमंचे सभी का तो उपयोग कर लिया फिर भी तू स्थिर है? ऐसा क्‍या है तेरे अन्‍दर? कभी मैं कहती कि मैं नारी हूँ, इसलिए सारे ही गरल पीना जानती हूँ, कभी कहती नहीं मेरे अन्‍दर शायद पुरुषत्‍व के गुण हैं जिन कारण मैंने तुम सभी के दंशों को सहा है। लेकिन आज मुझे झूठ सा लग रहा है, पुरुष तो बात-बात में रो पड़ता है, उसे तो बचपन से ही पपोला जाता है और कभी फूल की पंखुड़ी भी लग जाए तो हाय-तौबा कर बैठता है। नहीं-नहीं मेरे अन्‍दर कोई पुरुषोचित गुण नहीं है। तो क्‍या नारी के ही गुण है, जो बचपन से ताने सुन-सुनकर पक जाती है और दृढ़ बन जाती है। लेकिन मन ने इसे भी नहीं स्‍वीकारा। उच्‍च पदस्‍थ महिलाओं को, लाड़-प्‍यार में पली महिलाओं को रोज ही रोते देखती हूँ तो नहीं मुझमें यह विशेषता भी नहीं है।

आप सोच रहे होंगे कि यह क्‍या रामायण है? लोगों को ब्‍लाग जगत में आहत होते देखती हूँ तो बड़ा अजीब सा लगता है, बस इसी बात की यह रामायण है। मेरी टिप्‍पणी पर विरोध कर दिया, टिप्‍पणी नहीं की आदि आदि बातों से हम विचलित हो जाते हैं। आप कल्‍पना करेंगे कि एक अठारह वर्ष की लड़की ऐसे कॉलेज में अध्‍ययन करे जहाँ 300 छात्र हों। 50 से अधिक गुरुजन हों। अधिकांश छात्र और गुरुजन एक ही समुदाय के हों। वे सब मिलकर प्रण कर लें कि किसी छोकरी को यहाँ नहीं पढ़ने देंगे और वो भी बणिए की तो? लेकिन वो छोकरी याने मैं हार नहीं मानती। परिस्थितियों के सामने ना झुकती ना टूटती। घर-परिवार से भी कोई सम्‍बल नहीं। कुछ दिनों तक केवल आँसुओं का साथ रहा। फिर समझ में आया कि इस दुनिया में जीना है तो स्‍वयं को अकेला समझो और उतर जाओ अखाड़े में। मैं उतर गयी और आज यहाँ तक आ पहुंची हूँ।

जिन्‍दगी सतत संघर्ष का दूसरा नाम है। शान्ति कहीं नहीं है। एक संघर्ष समाप्‍त होगा तो दूसरा तैयार है। इसलिए संघर्षों को टालों मत। भिड़ जाओ। नहीं तो एक और दो कर-कर के ये एकत्र होते जाएंगे और आपको दबोच लेंगे? भारत की स्थिति नहीं देखी क्‍या? स्‍वतंत्रता के साथ ही पाकिस्‍तान के साथ कश्‍मीर में युद्ध, हमने निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ी, टाल गए। दुश्‍मन एक से दो हो गए और 1962 में चीन चढ़ आया। हम फिर डर गए। दुश्‍मन ने उत्तर से लेकर पूर्व तक जंग छेड़ दी, 1965 और 1971 में। 1971 में हमने जवाब दिया और दुश्‍मन ने फिर युद्ध नहीं किया, रणनीति बदल ली। आतंक ने जगह ले ली। मेरे कहने का तात्‍पर्य इतना सा ही है मेरे दोस्‍तों, संघर्षों से डरों मत, उनका मुकाबला करो। जीवन है तो विरोधाभास भी हैं। आपके विचार और मेरे विचार एक नहीं हो सकते। हमारा कार्य है समाज में प्रेम का संदेश देना, एकता पैदा करना। साहित्‍यकार अपनी विभिन्‍न शैलियों से समाज को संदेश देता है, विवाद नहीं करता। यदि आपका संदेश और आपका कार्य समाजहित में है तो निश्चित मानिए कि आपके विचार के विरोधी भी उत्‍पन्‍न होंगे और वे आपके लिए रोड़ा बनेंगे। आप डर गए, भाग गए तो उनका श्रम फलीभूत हो गया। तो क्‍या आप ऐसे लोगों के सपनों को सच होने देना चाहते हैं, जो यह चाहते हैं कि आपका संदेश दुनिया तक नहीं पहुंचे? लोग तो क‍हते हैं कि मर्द बनो लेकिन मैं कहती हूँ कि महिला बनो। जिससे गरल पीने की शक्ति आ जाए। यह पोस्‍ट मैं किसी एक व्‍यक्ति के लिए नहीं लिख रही हूँ बस रोज-रोज के आहत मनों के लिए लिख रही हूँ। आप मेरी प्रत्‍येक पोस्‍ट पर खुलकर अपने विचार रख सकते हैं, मैंने कोई मोडरेशन भी नहीं लगाया है। मैं दुनिया के सारे ही विचारों का स्‍वागत करती हूँ। क्‍योंकि मैं मानती हूँ कि जब भारत में अंधेरा होता है तब अमेरिका में उजाला होता है और जब वहाँ अंधेरा होता है तब हमारे यहाँ उजाला। सारे ही विचार रहने चाहिए। हर युग में राम और रावण, कृष्‍ण और जरासंध साथ ही रहे हैं। बस हमें मार्ग चुनना है कि हम किस का मार्ग चुने। और कितनी भी बाधाएं आए अपने कर्तव्‍य पथ पर डटे रहें। उत्तिष्‍ठ जागृत .. . .

Tuesday, April 6, 2010

असली चेहरा तो हमने सात तालों में बन्‍द कर रखा है

हमारे घर के प्रोडक्‍ट बनाते-बनाते आखिरकार भगवान थक गया तो अन्तिम बार थोड़ा टांच-वांच कर हमें छोटा-मोटा रूप दे दाकर धरती पर भेज दिया। अब माँ भी परेशान हो चली थी, बच्‍चों की परवरिश करते-करते, तो उसने भी भगवान द्वारा छोड़ी गयी छोटी-मोटी दरजों को दूर करने में कोई दिलचस्‍पी नहीं दिखायी। जैसा प्रोडक्‍ट आया था वो वैसा ही रहा। बचपन में तो ध्‍यान जाता नहीं क्‍योंकि तब शीशे में शक्‍ल देखने की अक्‍ल होती नहीं। लेकिन जैसे ही बड़े हुए, शीशे में देखने की परम्‍परा शुरू हुई। स्‍वयं को तो अपना थोबड़ा ठीक ही लगता है, क्‍यों आपको भी लगता ही होगा? लेकिन लोगों की निगाहों से लगता था कि कोई चार्मिंग वाली बात नहीं है। बस सारा कुछ काम चलाऊ ही है। तब भगवान की अक्‍ल पर हमें बड़ा गर्व अनुभव हुआ। बन्‍दा चाहे कैसा भी हो लेकिन व्‍यक्ति के स्‍वाभिमान का पूरा ध्‍यान रखता है। उसने सोचा कि मेरे प्रोडक्‍ट कहीं बिदक ना जाएं इसलिए ऐसी व्‍यवस्‍था करो कि ये अपना चेहरा देख ही नहीं पाएं। अब आदमी अपने हाथ देखे, पैर देखे, शरीर भी थोड़ा बहुत देख ही ले लेकिन अपना चेहरा नहीं देख सकता। वाह रे भगवान, तूने तो अच्‍छा इंतजाम कर दिया। जिसे नाक-भौ सिकोड़नी हो वो सिकोड़े हमें क्‍या? अपन तो अपना चेहरा लेकर खुश हैं, जैसा भी है बस सामने वाला भुगते। हम तो दूसरे का सलोना सा चेहरा ही देखेंगे।

आपको कैसी लगी हमारे भगवान की कारस्‍तानी? लेकिन आदमी भी कम नहीं। उसने एक अदद आईना बना दिया। बोला कि ले साले तू भी देख। अपना थोबड़ा हमें ही दिखाता रहता है कभी-कभी खुद भी देख लिया कर। मैंने एक दिन भगवान से पूछा कि आपकी यह क्‍या व्‍यवस्‍था है?

भगवान बोला कि मैंने तुम्‍हें कई चीजों से बचा लिया। जब तुम गुस्‍से में नाग जैसे फूफ्‍कारते हो तो तुम्‍हारा चेहरा कैसा विकृत हो जाता है? तुम खुद देख लो तो खौफ के कारण मर ही जाओ। जब तुम किसी पर कुटिलता से हँसते हो तब तुम्‍हारा चे‍हरा चालाक लोमड़ी सा हो जाता है। रोने पर तो तुम्‍हारा चेहरा गधे के समान हो जाता है। इसलिए जब अपने विभिन्‍न रूपों को हमेशा ही देखते रहते तो हीनभावना के शिकार बन जाते। तुम्‍हारा स्‍वाभिमान खो जाता। अब तुम आईने में अपना चेहरा कभी-कभी देख लिया करो और खुश हो लिया करो।

मैने भगवान से फिर प्रश्‍न किया कि हे भगवान, हम अपने चेहरे को देख नहीं सकते और दुनिया को देखने की बात करते रहते हैं। क्‍या हम वास्‍तव में दुनिया को देख पाते हैं?

इंसान केवल अपने स्‍वार्थ को ही देख पाता है, भगवान ने टका सा जवाब दे दिया। उसे जो देखना है बस वो वो ही देखता है। उसने अपने दिमाग की घड़ी को सेट कर रखा है कि मैं जितना समय देखना चाहूं तू उतना ही बताना। इसलिए तुम अच्‍छे हो तो दुनिया अच्‍छी दिखायी देती है और बुरे हो तो बुरी। तुम अपने चेहरे को लेकर ज्‍यादा परेशान मत हो, आजकल तो नकली चे‍हरे भी मिलने लगे हैं। फिर फोटाग्राफर नामक जीव ऐसी सुन्‍दर फोटो खेंच देता है कि तुम उसे सारा दिन देखते ही रहते हो। तो हम खुश हैं, फोटो अच्‍छी सी खिचवा ली है और आईने को भी दूर कर रखा है। बस दूसरों के चेहरे देखते हैं और दुनिया कितनी सुन्‍दर है खुश हो लेते हैं। लेकिन आपके दुख से हमें कोई सरोकार नहीं है कि आपको हमारा चेहरा देखना पड़ता है। अरे आपको भी कहाँ असली चे‍हरा देखना है बस आप लोग तो फोटो देखो। असली चेहरा तो हमने सात तालों में बन्‍द कर रखा है। न जाने इस पर कितने पर्दे लगा रखे हैं? इसलिए असलियत में मत जाना बस नकली चेहरों से ही खुश हो लेना।

Friday, April 2, 2010

हमें तलाश है ऐसे कपड़ो की जो . . .

अमेरिका की यात्रा करना भी एक जद्दोजेहद से कम नहीं है। पता नहीं कितनी तैयारी करनी पड़ती है? ऐसा नहीं है कि अटेची उठाओ, चार साड़ी डालों और चल पड़ो। वहाँ जाने का मतलब है भारतीय वेशभूषा से अलग वस्‍त्र। हमारे राजस्‍थान में तो इतने रंगीन कपड़े पहने जाते हैं कि लगता है हमेशा ही त्‍योहार हैं। फिर इन दिनों टीवी चेनलों ने अपने सीरियलस में ऐसी दुनिया बना डाली है कि सारा बाजार ही उनके कब्‍जे में आ गया है। ऐसे में आपको अमेरिका जाना पड़ जाए तब आप क्‍या करेंगे? भागेंगे बाजार कि भाई ऐसे कपड़े खरीदो जिनमें कलर नहीं हों, वा‍शिंग मशीन में धुलने पर खराब नहीं हों। ना तो वहाँ आपकी साड़ी चलेगी और ना ही रंग बिरंगे सलवार सूट।

हमें भी मई में अमेरिका जाना है तो वहाँ के हिसाब से कपड़े तो खरीदने ही पड़ेंगे ना? बाजार गए, एक दुकान, दूसरी दुकान, बस घूमते ही रहे, लेकिन सभी जगह वही सीरियलों वाले कपड़े। चमक-धमक युक्‍त, कहीं सलमा-सितारे का काम तो कहीं जरदोजी तो कहीं स्‍टोन। भाई ये सब तो मशीन में धुल नहीं सकते? बाकी अमेरिका में ना कपड़े धोने की जगह और ना ही सुखाने की। जो कुछ करना है मशीन से ही करना है।

ऐसे ही हम दीवाली पर परेशान हुए। दीवाली पर आम भारतीय अपने घर को सजाता ही है। हमने भी सोचा कि चलो और कुछ नहीं तो सोफा कवर तो बदल ही डालें। नये खरीदे जाएं, दीवाली पर अच्‍छे मिल जाएंगे। वो ही एक दुकान से दूसरी दुकान बस घूमते ही रहे आखिर थक हारकर अपनी एक परिचित दुकान पर ही जा टिके। बोले कि भाई सारा ही रंगबिरंगा है, क्‍या हम जैसों के लिए भी कुछ माल रखते हो? वो हँसकर बोला कि मैं आपको क्‍या बताऊँ? आजकल सीरियल देख देखकर लोग अपने कमरों की चार दीवारे अलग-अलग रंग में पुता लेते हैं और फिर हम से आकर कहते हैं कि पर्दे की मेचिंग बताए।

तो क्‍या हम आउट ऑफ डेट हो गए हैं? क्‍या बाजार में ह‍मारी पसन्‍द का कुछ सोबर सा नहीं मिलेगा? उसने बड़ी मुश्किल से हमारे लिए कुछ जरूरी सामान निकाला और कुछ गैर जरूरी सामान भी हमारे चिपका ही दिया। हमने उसका अहसान माना कि एक प्रतिशत में तो हम हैं। अब साड़ियों की भी राम-कथा सुन ही लो। जयपुर से ही हम अक्‍सर साड़िया खरीदते हैं तो गए जयपुर। सारी दुकान खंगाल डाली लेकिन हमारी पसन्‍द वहाँ से भी गायब। आखिर गुस्‍से में दुकान के मालिक को फोन पर हड़काया, वो रिश्‍ते में हमारा भतीजा ही है। कि कहाँ है तू, तेरे कारिंदे हमें कलरर्स की नायिका बनाने पर तुले हैं। वो अपने थोक के ग्राहक निपटा रहा था तो भागा-भागा आया और बोला कि बुआ आप भी कहाँ देख रही हो? मेरे पास आपके लिए कुछ अलग से है। खैर उसने क्‍लासिक सी साड़ी दिखायी, अब कठिनाई यह कि एक सी साड़ी तो नहीं खरीद सकते है ना? लेकिन फिर भी दो खरीदी। उसने कहा कि अब मैं क्‍या बताऊँ, आपकी पसन्‍द के कुछ ही ग्राहक हैं। उनके लिए सामान रखने लगूं तो मेरे करोड़ो रूपए डेड स्‍टाक में फंस जाएंगे।

तो यह है आजकल के बाजार का हाल। सारा ही बाजार टीवी चेनल के कब्‍जे में आ गया है। आप सादगी से रह नहीं सकते। घर को नहीं रख सकते। मुझे सलाह दी जा रही है कि आप भी फटी-टूटी जीन्‍स खरीदो और अमेरिका की यात्रा पूरी कर आओ। अब आप ही बताइए कि क्‍या भारतीय भद्र महिला ऐसे-वैसे कपड़े पहनेगी? सारा ग्रेस ही खत्‍म कर दिया। कहाँ हम सिफोन, जार्जेट, काटॅन साड़ी पहनने वाले, कहाँ हमें समझौता करना पड़ रहा है फटे पुराने कपड़ों से। हमारी तलाश जारी है सलवार सूट के ऐसे कपड़ों की जो मशीन में धुलकर भी खराब ना हो और हमारा काम चल जाए। अब अमेरिका जाना है तो सारे दुख तो देखने ही पड़ेंगे ना? क्‍योंकि हम भी उन नाक कटो में शामिल हो गए हैं जो नाक कटाकर भगवान देखने की बात करता है। हम भी ऐसे ही स्‍वर्ग में जाने के लिए वस्‍त्रों की तलाश कर रहे हैं। आप भी हँस लीजिए हम पर।