Tuesday, January 18, 2011

लघुकथा – शाकाहारी हाथी – अजित गुप्‍ता

 घात, प्रतिघात, आक्रमण! कभी आपके मन पर और कभी आपके तन पर। लेकिन क्‍यों होते हैं घात? कभी शेर के पीछे सियारों को बोलते हुए सुना है? या बिल्‍ली के सामने चुहों को? आप सज्‍जन है और प्रतिघात नहीं करते तो आपके सामने हर कोई आक्रमण की मुद्रा में आ जाता है लेकिन यदि आप स्‍वयं आक्रामक हैं तो कोई नहीं आता आपके समझ पंगा लेने। कहावत है कि हाथी के पीछे कुत्ते भौंकते हैं लेकिन हाथी को परवाह नहीं होती। मुझे लगता है कि कुत्तों की हिम्‍मत इसीलिए है कि हाथी शाकाहारी है, कभी शेर के पीछे भौंककर दिखाएं। अपनी बात को लम्‍बी नहीं खेंचूंगी बस एक लघुकथा प्रस्‍तुत है -
लघुकथा - शाकाहारी हाथी

एक हाथी अपनी ही मस्ती में मगन चले जा रहा था। उसकी सूंड में गन्ना था, उसे वह मनोयोग से खा रहा था। उसके पीछे तीन-चार कुत्तों का दल चल रहा था। वे सब उसके पीछे-पीछे चलते हुए भौंक रहे थे। एक चिड़िया हाथी के कान के पास जाकर बैठ गयी।
चिड़िया ने हाथी से कहा कि ये कुत्ते क्यों भोंक रहे हैं?
हाथी बोला कि वैसे ही अपने आप में प्रसन्न हो रहे हैं कि हम हाथी जैसे विशाल जीव पर भी भौंक सकते हैं। ये सब जानते हैं कि मैं शाकाहारी हूँ।
विशेष नोट - दिनांक 20 जनवरी को दस दिनों के लिए नासिक, त्रम्‍बकेश्‍वर, शिरड़ी, पुणे, महाबलेश्‍वर जा रही हूँ इसलिए इसके बाद आपकी पोस्‍टों पर टिप्‍पणी करने में असमर्थ रहूंगी। क्षमा करेंगे। 

लघुकथा संग्रह‍ - प्रेम का पाठ अजित गुप्‍ता

Monday, January 10, 2011

श्रद्धा और उपहास के बीच झूलता आदमी -अजित गुप्‍ता

पढ़ना और सुनना मेरे दोनों ही प्रिय विषय रहे हैं। परिवार में साहित्‍य पढ़ने का माहौल नहीं था,लेकिन साहित्‍य मेरी रगों मे कैसे घर कर गया मुझे ज्ञात नहीं। जैसी भी पुस्‍तक हाथ लगी, बस एक ही बैठकी में समाप्‍त करके ही चैन पड़ा। पुस्‍तकों का कहीं न कहीं से जुगाड़ हो ही जाता था। पुस्‍तकालय तो सबसे अच्‍छा स्रोत था ही। कभी विमल मित्र हाथ में होते तो कभी शरद चन्‍द्र, कभी बंकिम चन्‍द्र तो कभी ताराशंकर बंदोपाध्‍याय। कभी आशापूर्णा देवी तो कभी शिवानी। गुलशन नन्‍दा भी पढे जाते तो कर्नल रंजीत भी। बस पुस्‍तक मिलनी चाहिए थी। पत्रिकाओं में उन दिनों धर्मयुग और हिन्‍दुस्‍थान आता तो वे तो चट ही जाते थे। कुछ मनोंरंजन के नाम पर पढ़े जाते और कुछ ऐसे साहित्‍य के नाम पर जो दिल पर अपने हस्‍ताक्षर बना जाते। ऐसे कितने ही साहित्‍यकार होंगे जिनके लिए मन आज भी श्रद्धा से भरा हुआ है। कुछ साहित्‍यकार पूर्व परिचित नहीं होते थे लेकिन साहित्‍य हाथ लगा तो फिर यादों में हमेशा के लिए बस गये।
जब कुछ बड़े हुए तो घर से एक आवाज सुनायी दी कि आज फलां व्‍यक्ति का भाषण है और उसे सुनने जाना है। हम भी साथ चिपक लिए और फिर अच्‍छे व्‍यक्तियों को सुनने की भी लत लग गयी। कभी किसी राजनेता का भाषण तो कभी किसी समाज-सेवक का उद्बोधन तो कभी किसी संत का प्रवचन। बस पढ़ते और सुनते ही जीवन निकल गया। मन में अगाध श्रद्धा-भाव भर गया। ऐसे मनीषियों के विचार पर चिंतन भी होता और मनन भी। अपनाने की कोशिश भी यथासम्‍भव रहती। विमल मित्र की खरीदी कौडि़यों के मौल आप लोगों ने भी पढ़ी होगी, दो वोल्‍यूम में पूरा उपन्‍यास है। तीन-चार दिन में ही पूरा कर लिया और कई बार पढ़ा गया। लेकिन पन्‍ने पलटकर समाप्‍त करने वाली मानसिकता कभी नहीं बनी। ऐसे ही कभी एक घण्‍टे का भाषण सुना तो कभी तीन घण्‍टे तक भी सुना लेकिन आनन्‍द में कभी कमी नहीं आयी। ऐसे चिंतकों के प्रति मन के श्रद्धा-भाव में कभी कमी नहीं आयी।
शायद वह पीढ़ी श्रद्धा की ही थी। हम अपने माता-पिता के प्रति श्रद्धा रखते थे, गुरुजनों के प्रति श्रद्धा रखते थे और बड़ों के प्रति भी श्रद्धा रखते थे।  कई बार इस बात पर बहस भी होती थी कि प्रेम क्‍या है? प्‍यार क्‍या है और श्रद्धा क्‍या है? लेकिन आज सबकुछ बदल गया सा नजर आता है। श्रद्धा शब्‍द कहीं चुक सा गया है। आज के आराध्‍य भी बदल गये हैं। अब अभिनेता और खिलाड़ियों के पीछे लोग दौड़ रहे हैं। क्‍यों दौड़ रहे हैं मालूम नहीं? कभी दौड़ते-दौड़ते वे हाथ आ जाते हैं तो समझ नहीं आता कि अब क्‍या करें? तब लगता है कि प्रमाण के रूप में ऑटोग्राफ ही ले लिए जाए! या अधिक सुविधा मिल जाए तो आलिंगन की ईच्‍छा बलवती हो जाती है। लेकिन उनके विचारों को कोई अपनाता नहीं, क्‍योंकि वे विचारवान तो हैं ही नहीं।
अपनी-अपनी पीढ़ी का सत्‍य है। आज श्रद्धा हमारे जीवन से गायब होती जा रही है। बराबरी का जमाना आ गया है। टेलीविजन पर हमेशा देखती हूँ और मन में एक टीस सी उभरती है, जब किसी नौजवान पत्रकार को किसी विचारवान व्‍यक्तित्‍व का उपहास करते हुए देखती हूँ। कैसा भी व्‍यक्तित्‍व सामने हो, वे उसे बौना सिद्ध करने पर तुल जाते हैं। कभी लगता है कि कैसी शिक्षा है आज की, जो ज्ञानवान व्‍यक्ति का उपहास करना सिखाती है! आप कहेंगे कि पहले जैसे आदर्श व्‍यक्तित्‍व आज कहाँ? लेकिन हमारी पीढ़ी तो अशिक्षित माता-पिता का भी सम्‍मान करती थी, उनका उपहास तो कभी नहीं उड़ाती थी। फिर आज क्‍या हो गया? तर्क और वितर्क हमारे जीवन में भी रहे हैं लेकिन किसी विषय के साथ रहे हैं ना कि व्‍यक्ति के साथ। व्‍यक्ति के साथ तो हमेशा श्रद्धा या विश्‍वास ही रहा है। मुझे तो लगता है कि सर्वाधिक सुखी व्‍यक्ति वे ही हैं जिनके मन में श्रद्धा है। इसलिए मैं हमेशा कहती हूँ कि आज भक्ति-मार्गी सबसे अधिक सुखी हैं, क्‍योंकि वे श्रद्धा से लबालब भरे हैं उनमें अविश्‍वास घर करता ही नहीं। जब अविश्‍वास ही नहीं है तब वे कैसे उपहास को माध्‍यम बनाएंगे। इसलिए आज मुझे लगता है कि आज का आदमी श्रद्धा और उपहास के बीच में झूल रहा है। एक हमारी पीढ़ी है जिसके पास अगाध श्रद्धा है और एक आज की नवयुवा पीढ़ी, जिसके उपहास को हम झेल रहे हैं। आपका क्‍या विचार है?  

Thursday, January 6, 2011

सब पूछ रहे हैं कि धूप कब निकल रही? - अजित गुप्‍ता

राजस्‍थान में कड़कड़ाती ठण्‍ड ने सभी को पस्‍त कर रखा है। उदयपुर में जहाँ खुशनुमा सर्दी रहती है इस बार यहाँ भी 3.5 डिग्री तापमान रिकोर्ड किया गया। माउण्‍ट आबू जो राजस्‍थान का एकमात्र हिल-स्‍टेशन हैं वहाँ तो तापमान माइनस 6 डिग्री तक चले गया। सभी की इंतजार में है धूप। धूप निकले और बाहर बैठकर धूप का सेवन किया जाए। कम्‍प्‍यूटर पर की-बोर्ड चलाते हुए भी अंगुलियां ठण्‍डी पड़ जाती हैं और उन्‍हें बार-बार विश्राम देकर गर्म किया जाता है। ऐसे में एक कविता निकल आयी। हल्‍की-फुल्‍की सी, महज सर्दी को ध्‍यान में रखकर लिखी गयी कविता।

धूप कब निकल रही?
बर्फीली ठण्‍ड थी
हवा भी प्रचण्‍ड थी
थर-थर सी हो रही
धूप कब निकल रही?


पात ओस लिप्‍त थे
धुंध भरा व्‍योम था
सूरज को तक रही
धूप कब निकल रही?


चिड़िया भी मौन थी
सड़क तक उदास थी
बदली को कह रही
धूप कब निकल रही?


खेत में किसान था
हाथ में कुदाल था
आज भोर कह रही
धूप कब निकल रही?


छत पर मजदूर था
हाथ में तगार था
साँस भाप बन रही
धूप कब निकल रही? 

Saturday, January 1, 2011

कौन होगा जो सूरज के रथ को फिर से साधने का मन बनाएंगा? - अजित गुप्‍ता

समय दौड़ रहा है। आज सूरज ने भी अपनी रजाई फेंक दी है। किरणों ने वातायन पर दस्‍तक दी है। हमने भी खिड़की के पर्दे हटा दिए हैं। दरवाजे भी खोल दिए हैं। सुबह की धूप कक्ष में प्रवेश कर चुकी है। फोन की घण्‍टी चहकने लगी है। नव वर्ष की शुभकामनाएं ली और दी जा रही हैं। हम भारतीयों के जीवन में ऐसे अवसर वर्ष में कई बार आ ही जाते हैं। कभी दीवाली पर हम बेहतर जीवन की आशा लगाए दीप जला लेते हैं तो कभी होली पर रंगीन सपने सजाते हुए रंगों से सरोबार हो जाते हैं। कभी कोई पुरुष-हाथ भाई बनकर बहन के सामने रक्षा सूत्र की कामना से आगे बढ़ जाता है। कभी हम बुराइयों का रावण जला लेते हैं। कभी गणगौर की सवारी निकलाते हैं तो कभी शीतला माता को ठण्‍डा खिलाते हैं। ना जाने कितनी बार हम एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं?
बस उस पल में हम अपनों का स्‍मरण कर लेते हैं। न जाने कितने कुनबे बनाकर हम जीते हैं? सारी अला-बला से बचते हुए अपने-अपने सुरक्षा कवचों के साथ जीवन जीने का प्रयास करते रहते हैं। सब कुछ अच्‍छा ही हो इसकी सभी के लिए कामना भी करते रहते हैं। हमारी वाणी में शब्‍द-ब्रह्म आकर बैठ जाता है। सम्‍पूर्ण वर्ष हमें यही शब्‍द अनुप्राणित करते हैं, दिग-दिगन्‍त में गुंजायमान होते रहते हैं। सर्वे भवन्‍तु सुखिन: का दिग्‍घोष भारत की भूमि पर सर्वदा होता रहता है। हम दान को पुण्‍य मानकर ऐसे शुभ अवसरों पर बच्‍चों के हाथों से दान कराते हैं। हम उन्‍हें देना सिखाते हैं, मांगना नहीं। यदि मांगना है तो आशीष मांगते हैं। प्रभु के दर पर भी बस यही कहने जाते हैं कि तेरी कृपा चाहिए प्रभु। वहाँ अपना देय समर्पित करते हैं। बस केवल समर्पण और कोई आकांक्षा नहीं।
लेकिन आज रात को ही रोशनी हो गयी। कृत्रिम रोशनी। मन प्रफुल्लित नहीं हुआ अपितु मदहोश हो गया। सुबह के सूरज के समक्ष हमने आँखें नहीं खोली वरन सुप्रभात को बाय बाय करते हुए लम्‍बी तान कर सो गए। नये साल का सूरज निकला, गाने वाला कोई नहीं, बस सब तो नये साल का चाँद ढला गाने में ही मदहोश थे। मदहोशी के बहाने ढूंढते हुए हम, कैसे जीवन की नई राहों का सृजन करेंगे? कभी सूरज पूरब से निकला करता था लेकिन अब तो हम सूरज को ही भूल गए हैं। भोर क्‍या होती हैं, हमें मालूम नहीं। बस याद है तो रात के बारह बजे का बजर! कब टन हो और कब बोतल से झाग निकलकर वातावरण में फैल जाए? पता नहीं कौन होगा जो सूरज के रथ को फिर से साधने का मन बनाएंगा? हम भी इस मदहोशी से निकलकर नवनिर्माण की कल्‍पना कर सकेंगे? हम गाँवों में शहरों की कल्‍पना करते हैं, मोबाइल से लेकर टीवी तक सभी हमारी ईच्‍छाओं में बसे हैं। लेकिन इस नवीन दिन तो सारे ही शहर गाँवों की गलियों जैसे मदहोश हो जाते हैं। रास्‍ते में झूमते, लड़खड़ाते  लोग, घर जाकर बेसुध बिस्‍तर में पड़े लोग ! मोटर सायकिल पर चीखते-चिल्‍लाते लोगों को डराते लोग ! उत्‍सव में महिलाओं का चीर-हरण करते लोग !
फिर भी हम खुश हैं कि आज हमें एक दिन और मिल गया, मदहोशी में बिताने का। हम खुश हैं कि हम आगे बढ़ रहे हैं। हम खुश हैं कि देश प्रगति कर रहा है। लेकिन हम और भी खुश हैं कि हमें कुछ नहीं करना पड़ा। हमें तो चाहत है कि कोई सांता आए और हमें कुछ दे जाए। देश में सभी कुछ अच्‍छा हो, स्‍वत: ही हो। बस मैं भी देख रही हूँ कि सूरज कह रहा है कि मैं तुम्‍हें प्रकाश देता हूँ, तो बोलो तुम क्‍या देते हो? हवा मुझे झिंझोड़ रही है, पूछ रही है मैं तुम्‍हें जीने की साँस देती हूँ तो बताओ तुम क्‍या देते हो? मेरे घर के सामने का पेड़ भी झूम-झूम कर कह रहा है कि मैं तो तुम्‍हें फल-फूल देता हूँ तो बोलो तुम क्‍या देते हो? तब मैंने भी अपने आप से पूछा कि क्‍या मैं इस धरती को कुछ देती हूँ या केवल लेती ही हूँ? देने का भाव कब बिसरा दिया हमने? तारीखें बदलने से मन के भाव नहीं बदलते। मन के भाव बदलने के लिए सुबह की भोर में जीना सीखना होगा। जब लम्‍बी साँस अपने अन्‍दर लेकर प्राणवायु लेते समय मन में भाव आ ही जाता है कि इतनी अनुपम धरती पर हम क्‍या देकर जाएंगे?