Tuesday, March 21, 2017

हमारी फरियाद है जमाने से

कोई कहता है कि मुझसे मेरा बचपन छीन लिया गया कोई कहता है कि मुझसे मेरा यौवन छीन लिया गया लेकिन क्या कभी आपने सुना है कि किसी ने कहा हो कि मुझसे मेरा बुढ़ापा छीन लिया गया है। लेकिन मैं आज कह रही हूँ कि मुझसे मेरा बुढ़ापा छीन लिया गया है। सबकुछ छिन गया फिर भी हँस रहे हैं, बोल नहीं रहे कि हमारा बुढ़ापा छिन गया है। समय के चक्र को स्वीकार कर हम सत्य को स्वीकार कर रहे हैं। मेरे  बचपन में मैंने माँ को कभी रोते नहीं देखा और कभी भी नहीं देखा। पिता की सारी कठोरता को वे सहन करती थी लेकिन रोती नहीं थी, हमने भी यही सीख लिया कि रोना नहीं है। अब इतनी बड़ी चोरी हो गयी या डाका पड़ गया लेकिन फिर भी हँस रहे हैं, क्योंकि माँ ने रोने के किटाणु अन्दर डाले ही नहीं।
मैं अपने आस-पड़ोस में रोज ही देखती हूँ कि बुढ़ापे में लोग या 50 वर्ष की आयु के बाद ही सारे घर को कामों से निवृत्त हो जाते हैं। घर को बहु सम्भाल लेती है और आर्थिक मोर्चे को बेटा। बस माता-पिता का काम  होता है सुखपूर्वक समाज में अपने सुख को बांटना। पोते-पोती को अपनी गोद में खिलाने का सुख लेना। जीवन सरलता से चल रहा होता है। हमारे बड़ों ने यही किया था, हमने भी यही किया और हमारी संतान भी यही करेगी। लेकिन यह क्रम शिक्षा के कारण अब टूट गया है। इक्कीसवीं शताब्दी में यह क्रम मृत प्राय: हो गया है। हमने अपनी संतान के बचपन को जीने का पूरा अवसर दिया, उन्हें उनके यौवन को जीने का भी पूरा अवसर दिया लेकिन जब हमारी बारी आयी तब वे खिसक लिये। अपने उज्जवल भविष्य के लिये उन्होंने हमारे सारे अधिकार ही समाप्त कर दिये।

कल अपने मित्र के निमंत्रण पर उनके घर गये, निमंत्रण भोजन का था लेकिन उन्होंने पेट को तो तृप्त किया ही साथ ही मन को भी तृप्त कर दिया। तीन माह का उनका पोता  हमारी गोद में था, यह होता है बुढ़ापे का सुख, जो हम से छीन लिया गया है और उसकी शिकायत हम समाज के सम्मुख कर रहे हैं। यदि मैंने मेरी संतान के बचपन को छीन लिया  होता तो आज मुझे कितनी गालियां पड़ रही होतीं लेकिन किसी ने मेरे बुढ़ापे को छीन लिया  है तो उसका संज्ञान समाज लेता ही नहीं। हँसकर कह दिया जाता है कि अपने भविष्य के लिये बच्चे को ऐसा करना ही पड़ेगा। उल्टा मुझे ही तानों का दण्ड मिलेगा, इसलिये त्याग की अपनी महान छवि बनाने के लिये हँसना जरूरी हो गया है। लेकिन बुढ़ापा तो छिन ही गया है, अब जो भी है उसे कुछ और नाम दे दो, यह बुढ़ापा नहीं है, बस जीवन की सजा है। इसलिये हमारी उम्र के लोग कहने लगे हैं कि किसलिये जीना, हमारी संतान कहती है कि खुद के लिये जीना। लेकिन यदि हम यौवन में ही खुद के लिये जीते तो तुम्हारा बचपन क्या होता? अब हमसे कहते हो कि खुद के लिये जिओ, यह ईमानदारी तो नहीं है। हाँ यह जरूर है कि हम तुम्हारी बेईमानी को भी हँसकर जी लेंगे क्योंकि हमारे अन्दर तुम्हारे लिये प्रेम है, बस अब इस प्रेम का आवागमन रूक गया है। बुढ़ापा तो छिन ही गया है। जिस बुढ़ापे ने नयी पीढ़ी को गोद में नहीं खिलाया  हो, उसे संस्कारित नहीं किया हो, भला उस बुढ़ापे ने अपना कार्य कैसे पूरा किया? इसलिये हमने अपना बचपन जीया, यौवन भी जीया लेकिन बुढ़ापा नहीं जी पा रहे हैं। बुढ़ापे का मतलब दुनिया में एकान्त  होता होगा लेकिन भारत में कभी नहीं था लेकिन अब हमें एकान्त की ओर धकेला जा रहा  है तो यही कहेंगे कि हम से  हमारा बुढ़ापा छीन लिया गया है। हमारी फरियाद है जमाने से। फरियाद तो हम करेंगे  ही, चाहे हमें न्याय मिले या नहीं। हम भारत में नागरिक हैं तो हमें हमारी परम्परा चाहिये। हमें भी हमारा बुढ़ापा चाहिये। जैसे पति-पत्नी के अलग होने पर संतान का सुख बारी-बारी से दोनों को मिलता है वैसे ही संतान का सुख दादा-दादी को  भी मिलने का अधिकार होना चाहिये। मैं लाखों लोगों की ओर से आज समाज के सम्मुख मुकदमा दायर कर रही हूँ। हमारी इस फरियाद को जमाने को सुननी ही होगी।

Sunday, March 19, 2017

नरेन्द्र से विवेकानन्द की भूमि को नमन

जिस धरती ने विवेकानन्द को जन्म दिया वह धरती तो सदैव वन्दनीय ही रहेगी। हम भी अब नरेन्द्र ( विवेकानन्द के संन्यास पूर्व का नाम) की भूमि को, उनके घर को नमन करना चाह रहे थे। हम जीना चाह रहे थे उस युग में जहाँ नरेन्द्र के पिता विश्वनाथ दत्त थे, उनकी माता भुवनेश्वरी देवी थीं। पिता हाई-कोर्ट के वकील थे और माँ शिक्षित एवं धर्मानुरागी महिला थी। स्वामीजी के घर को हम मनोयोग पूर्वक देखना चाह रहे थे, लेकिन कोलकाता में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि सभी भवनों में प्रवेश का समय निश्चित है, अक्सर दिन में बन्द भी रहते हैं। हमने भी दो चक्कर लगाये तब कहीं जाकर हम स्वामीजी के घर को देख पाये। हमें एक छोटी सी डाक्यूमेन्ट्री भी दिखायी गयी, जिसमें इस घर को जीर्णोद्धार के बारे में जानकारी थी। कैसे इस खण्डित भवन को पुन: उसी के शिल्प में बनाया गया और शिल्पकारों ने कैसे इस कठिन कार्य को सम्पादित किया, सभी कुछ बताया गया। विश्वनाथ दत्त का कक्ष, भुवनेश्वरी देवी का पूजा-कक्ष सभी कुछ संजोकर रखा है। किस खिड़की से नरेन्द्र ने साधुओं को वस्त्र दिये थे, किस कक्ष में ध्यान लगाते हुए सर्प आया था, सभी संरक्षित हैं। यह स्थान भारतीयों के लिये श्रद्धा-केन्द्र है, यहाँ आकर स्वत: ही गौरव का अनुभव होता है। यदि विवेकनन्द ने 1893 में शिकागो की धर्म-संसद में हिन्दुत्व को परिभाषित नहीं किया होता तो आज शायद हिन्दुत्व संरक्षित धर्म के स्वरूप में होता।
रामकृष्ण परमहंस नरेन्द्र के गुरु थे, कहते हैं कि नरेन्द्र को आध्यात्मिक शक्तियां अपने गुरु से ही मिली थीं। लेकिन यह भी आनन्द का विषय है कि शिष्य ने गुरु को नहीं ढूंढा अपितु गुरु ने शिष्य को ढूंढ लिया था, दक्षिणेश्वर का काली-मन्दिर इस बात का गवाह है। दक्षिणेश्वर का काली मन्दिर हमेशा से ही श्रद्धालुओं का केन्द्र रहा है, यहीं के पुजारी थे परमहंस। यहीं पर वे नरेन्द्र को प्रभु से साक्षात्कार करा सके थे और इसी मंदिर में नरेन्द्र ने काली माँ के समक्ष जाकर अपने परिवार की सुरक्षा की मांग के बदले में ज्ञान और भक्ति की मांग की थी। जब नरेन्द्र परमहंस के कहने पर काली-माँ से कुछ नहीं मांग पाये तो यहीं पर परमहंस ने उनके सर पर हाथ रखकर कहा था कि तेरे परिवार को मोटे कपड़े और मोटे अन्न की कमी नहीं आएगी। इसी मंदिर ने गुरु-शिष्य परम्परा का उत्कृष्ठ स्वरूप देखा है, इसी मन्दिर ने माँ शारदा को देखा है। इसलिये आज यह मन्दिर लाखों-करोड़ों लोगों का श्रद्धा-केन्द्र है। कोलकाता शहर में काली मन्दिर भी है लेकिन इस मन्दिर और उस मन्दिर की व्यवस्थाओं में रात-दिन का अन्तर है। काली-घाट मन्दिर में पैर रखते ही पण्डे लूटने को तैयार रहते हैं, पता नहीं हमारा समाज कब इस ओर ध्यान देगा? लेकिन दक्षिणेश्वर के काली मन्दिर में सभी कुछ अनुशासित है। तसल्ली से दर्शन कीजिये, कोई पण्डा आपको लूटने नहीं आएगा।
हमारा मन बार-बार बैलूर मठ में अटक जाता था, यात्रा के अन्त में दर्शन मिले वह भी लम्बी इंतजार के बाद। हम दक्षिणेश्वर से सीधे बैलूर मठ देखने गये लेकिन जाते ही पता लगा कि दिन में 1 बजे दर्शन बन्द हो जाते हैं, अब साढ़े तीन बजे प्रवेश मिलेगा। ढाई घण्टे का लम्बा समय निकालना कठिन काम था, लेकिन उसके बिना तो कोई चारा भी नहीं था। हमने पूछताछ की तो पता लगा कि सड़क के दूसरी तरफ एक विश्रामालय बनाया गया है। हम वहीं पहुंच गये। यहाँ भोजन भी था और विश्राम की अति उत्तम व्यवस्था भी। साढ़े तीन बजते ही हम प्रवेश द्वार पर थे। टिकट लेकर हम अंदर पहुँचे और विवेकानन्द को पूरी तरह से जी लिये। उनसे जुड़े जीवन के सारे ही प्रसंग वहाँ जीवन्त थे। जब रामकृष्ण परमहंस को कर्क रोग हुआ तब नरेन्द्र और उनके अन्य शिष्यों ने निश्चित किया था कि उन्हें कलकत्ता में किसी घर पर रखा जाये जिससे उन्हें चिकित्सकीय सुविधा में आसानी रहे। उनकी मृत्यु के बाद नरेन्द्र ने मठ स्थापना की बात रखी और एक घर को मठ का स्वरूप दे दिया गया। तभी नरेन्द्र ने संन्यास लिया था और शिकागो की धर्म-संसद में प्रसिद्धि के बाद उनका पहला कदम मठ की स्थापना ही था। अपने अन्तिम दिनों में विवेकानन्द यहीं रहे। जिन्हें विवेकानन्द में श्रद्धा है, उनके लिये यह तीर्थ से कम नहीं है, लेकिन हमारे  पास समय का अभाव था तो हमें शीघ्रता करनी पड़ी। वैलूर मठ से लगी हुई हुगली नदी परम आनन्द देती है, बस यहाँ बैठे रहो और अमृत पान करते रहो।

एक मजेदार वाकया हुआ उसे भी लिख ही देती हूँ – हम मठ के बाहरी प्रांगण को देख रहे थे और चित्र ले रहे थे। अंदर तो चित्र लेना मना है तो यहाँ तो जी भरकर लिये ही जा सकते थे। देखते क्या हैं कि पुलिस के अधिकारियों की एक टुकड़ी वहाँ आ गयी, उनका कोई केम्प वहाँ लगा था। हमारे चारों तरफ पुलिस थी, मेरे मुँह से निकला कि – पुलिस ने तुमको चारों तरफ से घेर लिया  है, सरेण्डर कर दो। सुनकर पुलिस अधिकारी भी अपनी हँसी  रोक नहीं पाये। हमने भी इस असहज स्थिति से बाहर निकलना ही उचित समझा और बाहर आ गये। कोलकाता में राजस्थान के मुकाबले एक घण्टा पूर्व सूर्यास्त होता है तो हमें लौटना ही था। लेकिन जितना समय मिला, उसे ही पाकर धन्य हो गये।

Thursday, March 16, 2017

नदी के मुहानों पर बसा सुन्दरबन

कोलकाता या वेस्ट-बंगाल के ट्यूरिज्म को खोजेंगे तो सर्वाधिक एजेंट सुन्दरबन के लिये ही मिलेंगे, हमारी खोज ने भी हमें सुन्दरबन के लिये आकर्षित किया और एजेंट से बातचीत का सिलसिला चालू  हुआ। अधिकतर पेकेज दो या तीन दिन के थे। हमारे लिये एकदम नया अनुभव था तो एकाध फोरेस्ट ऑफिसरों से भी पूछताछ की गयी और नतीजा यह रहा कि बिना ज्यादा अपेक्षा के एक बार अनुभव जरूर लेना चाहिये। 390 वर्ग मील के डेल्टा क्षेत्र में बसा जंगल  है, यह ऐसा जंगल या बन  है जो पानी पर  है। यहाँ सर्वाधिक टाइगर हैं जो पानी और दलदल में ही रहते हैं। चूंकि नदियों के मुहाने पर और सागर के मिलन स्थल पर डेल्टा बनते हैं तो नदियों का पानी खारा हो जाता है, इसकारण सुन्दरबन के प्राणी खारा पानी ही पीते  हैं। फोरेस्ट विभाग ने इनके लिये मीठे पानी की भी व्यवस्था की है, जंगल के बीच-बीच में मीठे पानी के पोखर बनाये हैं, जहाँ ये प्राणी पानी पीने आते हैं और पर्यटकों को भी इन्हें देखने का अवसर मिल जाता  है। सुंदरबन खारे पानी पर खड़ा है तो सारे ही वृक्ष फलविहीन है। यहाँ सुन्दरी नामक वृक्ष की बहुतायत है तो इसी के नाम पर यह सुन्दरीबन है जो सुन्दरबन हो गया है। पानी के मध्य होने से यहाँ आवागमन का साधन भी नाव ही है, पर्यटक सारा दिन नावों में भटकते रहते हैं और टाइगर को ढूंढने का प्रयास करते हैं। मीठे पानी के पोखर के पास हिरण तो दिखायी दे गये लेकिन टाइगर के दीदार होना इतना सरल नहीं है।
फोरेस्ट विभाग का गाइड बता रहा था कि अभी कुछ दिन पहले अमेरिका से एक महिला यहाँ आयी थी और यही पर बने फोरेस्ट के गेस्ट-हाउस में पूरे सात दिन रही थी। वह रात-दिन टाइगर के मूवमेंट के बारे में जानकारी रखने का प्रयास करती थी, आखिर उसे केवल एक दिन सुबह 4 बजे टाइगर के दुर्लभ दर्शन हुए। इसलिये आप चाहे तीन दिन का पेकेज लें या दो दिन का, टाइगर तो नहीं दिखेगा। ऐसा भी नहीं  है कि टाइगर गहरे जंगल में ही रहते हैं और वे गाँव की तरफ नहीं आते, वे खूब
आते हैं और गाँव वालों का शिकार कर लेते हैं। साल में 10-12 घटनाएं होना आम बात रही है लेकिन अब वनविभाग सतर्क हुआ है और उसने जंगल में तारबंदी की है। इससे घटनाओं में कमी आयी  है।
हमारा भ्रमण सुबह प्रारम्भ  हुआ और यहाँ तक पहुंचने में तीन घण्टे का समय लगा। कोलकाता से बाहर निकलते ही गाँवों का सिलसिला शुरू हो जाता है, इसकारण गाडी की रफ्तार धीमी  ही रहती है। यहाँ हाई-वे क्यों नहीं बना यह तो पता नहीं, लेकिन यदि बनता तो शायद गाँव भी  समृद्ध होते। हम भी खरामा-खरामा सुन्दरबन क्षेत्र में पहुंच ही गये। अब हमें नाव की यात्रा करनी थी, नाव को हाउस-बोट का नाम दिया गया था तो  हमारी कल्पना कश्मीर की हाउस-बोट सरीखी हो गयी और हमने उसी में रहने की स्वीकृति भी दे दी। लेकिन बोट पर जाते  ही बोट वाले ने बता दिया कि रात तो होटल के कॉटेज में ही काटनी होगी। इस बात पर एजेण्ट को डांटा भी कि कैसे उसने यहाँ रात गुजारने की कल्पना कर ली। लगभग 12 बजे हम बोट पर थे, कुछ नया अनुभव था उसका रोमांच था तो कुछ एजेण्ट के दिखाये सपनों से नाखुश भी थे। भोजन की व्यवस्था बोट पर ही रहती है, लेकिन दाल चावल और सब्जी मात्र ही होता है। आप इसे खुश होकर खा लेते  हैं तो ज्यादा ठीक रहता है नहीं तो सारा दिन कुड़कुड़ाते रहिये। उस जंगल में तो और कुछ मिलेगा नहीं। हम 12 बजे से तीन बजे तक जंगल में चलते रहे बस चलते रहे। पानी ही पानी था और चारों तरफ जंगल था। जंगल के पेड़ों पर पक्षी भी नहीं थे। तीन बजे नदी से पानी उतरना शुरू हुआ और देखते  ही देखते 20 फीट पानी उतर गया। जो पेड़ पानी में डूबे थे अब वे दलदली टीलों पर खड़े दिखायी दे रहे थे। जालबंदी भी दिखायी देने लगी थी। हमारी नाव भी नदी के बीच में चलने लगी थी और फिर 3 बजने  पर एक जगह रोक दी गयी। हमें बताया गया कि अब इन पेड़ों  पर पक्षी आएंगे, उनके कलरव का आप आनन्द ले सकते हैं। पक्षी आना शुरू भी हुए लेकिन बहुत कम तादाद में। इससे कहीं अधिक तो हमारे फतेह-सागर में आते हैं। पक्षी पेड़ो पर आकर नहीं बैठ रहे थे, वे पानी से बाहर निकल आयी जमीन पर ही चहल-कदमी कर रहे थे। कुछ देर बाद समझ आया कि दलदल में मछली आदि जीव थे जिन्हें पाने के लिये उनकी खोज जारी थी।

वहाँ से सूर्यास्त का नजारा अद्भुत था, हम भी उसी में खो गये और नाविक की आवाज आ गयी कि अब रवाना होने का समय  है। अंधेरा छाने से पूर्व हमने वहाँ से प्रस्थान कर लिया। नदी का पानी इतना उतर चुका था कि किस घाट पर नाव को बांधना है, नाविक इसी चिन्ता में दिखायी दिया। हमने भी एक गाँव में कॉटेज में शरण ली, अन्य नावों के यात्री भी आने लगे थे। गाँव में ही छोटा सा बाजार लगा था और गाँव में शान्ति दिखायी पड़ रही थी। रात का खाना भी नाव में ही बना था लेकिन हमने खाया कॉटेज में था। होटल वालों ने हमारे मनोरंजन के लिये बंगला नृत्य की व्यवस्था की थी, उसका भी आनन्द लिया। सुबह फिर यात्रा शुरू हुई, इसबार फोरेस्ट विभाग से आज्ञा-पत्र लेना था, विभाग में गये, औपचारिकताएं पूर्ण की। वहाँ पर ही छोटा सा उद्यान बना रखा है, साथ ही मीठे पानी का तालाब भी। वहाँ एक हिरण पानी पीने आया था, बस उसके दर्शन हो गये। दूसरे तालाब में मगरमच्छ थे, धूप सेंक रहे थे। एक ऊंची मचान भी बना रखी थी जहाँ से दूर-दूर तक देखा जा सकता था। मगरमच्छ के आकार की एक छिपकली भी देखी जो पानी में तैर रही थी। आज्ञा मिलने के बाद हमें एक गाइड दे दिया गया जो हमें जंगल के बारे में बताता रहा। जंगल में वनदेवी की मूर्ति लगी है, गाँव वाले पूजा करते हैं कि देवी टाइगर के दर्शन मत कराना। कैसी विडम्बना है कि वे कहते हैं कि टाइगर दिखना नहीं चाहिये और पर्यटक कहते हैं कि टाइगर दिखा दो। अब हमारी नाव गहरे जंगल में थी, गाँव पीछे छूट चुके थे। हमारी निगाहें हर पल कुछ खोज रही थी, क्या पता टाइगर दिख ही जाये! लेकिन यह भी उतना ही सच था कि हम जंगल के इतने नजदीक थे कि टाइगर दिखने का अर्थ था हम  पर आक्रमण। सभी जानते हैं कि टाइगर ऐसे में नहीं दिखता। लेकिन सुन्दरबन के नाम से पर्यटक आ रहे हैं और भटक रहे हैं। बस हम डेल्टा और पानी में जंगल को समझ सके, इतना फायदा हुआ। जिन लोगों ने तीन दिन का ट्यूर लिया था, वे कुछ और गहरे जंगल में जाएंगे लेकिन परिणाम यही होने वाला है। हम भी तीन बजे सुन्दरबन को छोड़ चुके थे। जिस बिन्दु से यात्रा शुरू की थी वापस वहीं थे। छोटा सा विश्रामालय था, जाते समय यही बैठकर नाव का इंतजार किया था। वापसी में नौजवानों ने वहाँ केरम लगा दिया था, मुझे याद आ गया कि कोलकाता कभी केरम के अड्डों के रूप में जाना जाता था। मैंने ड्राइवर से पूछा कि आज भी केरम के अड्डे चलते हैं, वह बोला की हाँ चलते हैं। कोलकाता का जन-मन नहीं बदला था, एक दुकान पर खड़े होकर ताश खेलते हुए  लोग दिखायी दे गये थे और आज केरम खेलते लोग। सुकून मिलता है जब लोग स्वस्थ मनोरंजन से जुड़े होते हैं।

Tuesday, March 14, 2017

ठाकुर जी को भोग

कोलकाता यात्रा में कुछ यादगार पल भी आए, लेकिन सोचा था कि इन्हें अंत में लिखूंगी लेकिन ऐसा कुछ घटित हो गया कि उन पलों को आज ही जीने का मन कर गया। गंगासागर से वापस लौटते समय शाम का भोजन मेरी एक मित्र के यहाँ निश्चित हुआ था, लेकिन हम दो बजे ही वापसी कर रहे थे तो भोजन सम्भव नहीं लग रहा था। मैंने #reeta bhattacharya को फोन लगाया तो उसने कहा कि आपको अभी कोलकाता पहुंचने में 3 घण्टे लगेंगे, मैं खाना बनाकर रखूंगी, अब मेरे पास मना करने का मार्ग नहीं था। हमने भी सुबह से खाना नहीं खाया था, खाने का मन भी कर रहा था और वह भी घर का खाना, भला कोई छोड़ता है क्या? खैर हम 6 बजे तक उसके यहाँ पहुंच गये थे।
एक दृश्य आपको दिखाने का प्रयास करती  हूँ, शायद मेरी भावना आप तक पहुँचे! अतिथि कक्ष में दीवान लगा था और उस पर एक वृद्ध महिला बैठी थी, उन्हें कुछ दिन पूर्व पक्षाघात हुआ था तो चलने में और बोलने में कठिनाई थी लेकिन उनकी आँखें हमारा स्वागत कर रही थीं और वे बराबर बोलने का प्रयास कर रही थीं। रीता एक प्याली में कुछ व्यंजन लेकर उन्हें बच्चों की तरह खिला रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह लाड़ लड़ाकर ठाकुर जी के भोग लगा रही हो। पीठ थप-थपाकर, मनुहार करके उनके मुँह में दो-चार कौर ठूंसने की प्रक्रिया थी। वे रीता की सास थी, लेकिन लग रहा था कि रीता उनकी माँ  है। वेसे भी मैं हमेशा यही कहती  हूँ कि हमारी पुत्रवधु हमारी माँ ही  होती  है, क्योंकि उसे ही हमारी देखभाल करनी होती  है। यह दृश्य मेरे मन में कभी ना मिटने वाला चित्र बन गया था। रीता ने ढेर सारे बंगाली व्यंजन खिलाये, जब हमने हाथ खड़े कर दिये तब जाकर उसके व्यंजनों का आना बन्द हुआ। भोजन करने के बाद हम फिर से माँ के साथ थे, हम यात्रा में 4 जन थे तो मुझे संकोच भी था कि कैसे हम रीता का भार बढ़ाएं लेकिन शायद इस प्रेम को देखने के लिये ही हमें अवसर प्रदान हुआ था।
हम कोलकाता जाते समय निश्चित नहीं कर पाये थे कि किस से मिल पाएंगे और किस से नहीं तो किसी के लिये उपहार भी लेकर नहीं गये थे। फिर सच तो यह है कि उपहारों की बाढ़ में, मैं उपहारों से ऊब गयी हूँ तो मेरा ध्यान इस ओर जाता भी नहीं है। हम रीता के लिये कुछ लेकर नहीं गये थे, एक तो खाली हाथ, उस पर से चार मेहमान! लेकिन माँ ने हमारा पूरा लाड़ किया, उन्होंने हम सभी को उपहार दिये। हमने एक यादगार फोटो भी माँ के साथ ली जो अब हमारे लिये वास्तव में यादगार ही बन गयी  है।
दूसरे दिन ही हमें सुन्दरबन के लिये निकलना था और वहाँ नेटवर्क ही नहीं था तो रीता से बात नहीं हो पायी। कोलकाता से लौटने  वाले दिन मैंने रीता को फोन किया तो उसने बताया कि माँ आपको याद कर  रही है और वे आपको कुछ और बंगाली व्यंजन खिलाना चाह रही हैं। लेकिन अब तो हमें जाना ही था तो हम जा नहीं पाये, पहले की ही शर्म बाकी थी कि खाली  हाथ खाना खाकर आ गये, अब फिर ऐसी गलती दोहराने का मन नहीं था और समय तो था ही नहीं। खैर हम कोलकाता से वापस लौट आए और उस प्रगाढ़ ममत्व को अपने साथ लेकर आ गये।

अभी होली के एक दिन पहले रीता का मेसेज मिला, हर पल का मेसेज पढ़ने वाली मैं, उस मेसेज को कई घण्टे बाद देख पायी और देखते ही मन धक्क से रह गया। माँ अब हमारे बीच नहीं थीं। ऐसा लगा कि भगवान ने ही हमें वहाँ ऐसे प्रेम के दर्शन करने भेजा था, नहीं तो हम तो ऐसे प्रेम के सपने भी नहीं देखते। मैं उन्हें नहीं जानती थी, बस एक घण्टे का  ही साथ था लेकिन जैसे मैंने जीवन के अमूल्य पल जी लिये हों, ऐसी अनुभूति हुई। उन्हें मेरा प्रणाम,वे जहाँ भी जन्म लें, उनकी आत्मीयता का दायरा और भी बड़ा हो, उन्हें फिर किसी रीता का समर्पण भाव मिले। मेरा अन्तिम प्रणाम।

Sunday, March 12, 2017

गंगासागर एक बार – सारे तीर्थ बार-बार

कोलकाता की यदि जन-जन में पहचान है तो वह गंगासागर के कारण है। गंगोत्री से निकलकर गंगा यहाँ आकर सागर में समा जाती है। गंगासागर की यात्रा कठिन यात्राओं में से एक है। लेकिन जैसै-जैसे आवागमन के साधनों में वृद्धि हुई है, वैसे-वैसे यात्रा सुगम होने लगी है। लेकिन फिर भी मानवीय अनुशासनहीनता के कारण यात्रा सुरक्षित नहीं रह पाती। गंगासागर कलकत्ता से 150 किमी की दूरी पर स्थित  है, यहाँ गंगा, सागर में आत्मसात हो जाती है। कोलकाता से कार, बस या रेल द्वारा डायमण्ड हार्बर तक लगभग 2 घण्टे का समय लगता है। हमने कार द्वारा यात्रा की और प्रात: 6 बजे गंगासागर के लिये निकल पड़े। 27 फरवरी 17 का दिन था तो मौसम सुहावना था लेकिन जैसे ही कोलकाता के बाहर पहुँचे फोग ने हमारा रास्ता रोक लिया। फोग इतना गहरा था कि एक जगह गाडी रोकनी ही पड़ी। इस कारण मार्ग में दो की जगह तीन घण्टे का समय लगा। फेरी लेने के लिये 8 रू. का टिकट था लेकिन भीड़ बहुत थी और भीड़ को नियंत्रित करने के लिये कोई भी साधन या सेवा नहीं थी। एक घण्टे तक लाइन में लगे रहने के बाद कहीं फेरी की सूचना मिली की वह तट पर लग गयी है लेकिन जैसे ही प्रवेश प्रारम्भ हुआ भगदड़ मच गयी। जो देर से आये थे उन्होंने इतनी धक्कामुक्की की कि जरा सी चूक दुर्घटना का कारण बन सकती थी। यह भगदड़ केवल इसलिये थी कि उन्हें फेरी में बैठने को स्थान मिल जाये। खैर हम भी बचते बचाते प्रवेश द्वार से पार हो  ही गये। हमें भी फेरी में खड़े होने का स्थान मिल ही गया।
फेरी गंगा नदी में चलती है और 45 मिनट में गंगासागर-द्वीप पर पँहुचती  है। लाइन में लगे थे तब चिड़ियों और मछलियों के लिये मूंगफली बेचने वाले पीछे पड़े थे साथ  ही गंगा में समर्पित करने के लिये 50 रू में साड़ी भी मिल रही थी। फेरी पर आने पर पता लगा कि यहाँ बड़ी संख्या में पक्षी है, यात्री मूंगफली का दाना पानी में डालते हैं और मछली दाने को लपक लेती है साथ ही पक्षी, दाने और मछली दोनों को लपक लेते हैं। अनोखा दृश्य बन जाता है, झुण्ड के झुण्ड विशाल पक्षी फेरी के साथ चलते रहते हैं, मध्य में जाने पर कम हो जाते हैं और फिर किनारे पर आते ही इनकी संख्या बढ़ जाती है। उन पक्षियों को देखते हुए ही 45 मिनट की यात्रा कट जाती है और शोर मच जाता है कि तट आ गया। द्वीप पर हमारे लिये दूसरी कार तैयार थी लेकिन पास ही गन्ने का ताजा रस निकल रहा था तो हमने भी कण्ठ गीला करना उचित समझा।  अब कार द्वारा पुन: 30 मिनट की यात्रा थी, बसें भी लगी थी और कुछ लोग बस में भी यात्रा कर रहे थे। 30 मिनट बाद हम गंगासागर के किनारे से एक किमी. दूर थे। यहाँ गंगासागर पर यात्रियों के लिये छोटी दूरी पार करने के लिये ठेले लगे हैं, इनपर बैठना ही असुविधाजनक है। मुझे बैठना पसन्द नहीं आया और पैदल चलने का अवसर हाथ से जाने नहीं दिया, बस चल दिये पैदल। सामान और साथी ठेले पर लद गये। कुछ ही देर में हम गंगा सागर के किनारे थे। गंगा और सागर आत्मसात हो गये थे यहाँ तो पानी भी खारा हो गया था। गंगा का मुहाना होने के कारण रेत भी पानी में अधिक थी। डुबकी लगाने जितनी आस्था तो मुझमें नहीं थी बस पानी में अठखेलियां कर ली और बाहर निकल आये। नदी तट पर पण्डों की लाइन लगी थी और लोग पूजा-अर्चन करा रहे थे, हम से तो वे निराश ही  हो गये। ज्यादा समय हमारे पास नहीं था तो हम शीघ्र ही वहाँ से रवाना हुए और सुलभ स्नानघर में नहाकर तरोताजा हो गये। टेक्सी वाला शीघ्रता कर रहा था, उसका कहना था कि यदि देरी की तो फेरी छूट जाएगी और यदि नदी में पानी का उतार हो गया तो फिर फेरी 6 बजे बाद मिलेगी। सामने ही मारवाड़ी ढाबा था लेकिन हमें भोजन का मोह छोड़ना पड़ा। जैसे हीं किनारे पहुंचे गार्ड के कहा कि दौड़ो फेरी छूटने वाली  है। हमने दौड़कर आखिर फेरी पकड़ ही ली। हम 2 बजे ही वापस किनारे लग चुके थे लेकिन हमने देखा कि नदी में पानी उतरना शुरू हो गया था तो दूसरी फेरी पता नहीं कब चलेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता था!
यहाँ गंगा के मुहाने पर पानी का स्तर ज्वार-भाटे के कारण घटता बढ़ता रहता है। जब पानी घटता है तब फेरी चलना कठिन हो जाता है और पानी में ज्वार का इंतजार किया जाता  है। दिन में दो-तीन बजे तक ज्वार रहता  है और फिर भाटा होने लगता है। शाम के 6 बजे बाद फिर ज्वार होता है, इसलिये फेरी के संचालन में कठिनाई  होती है। पानी किनारे से काफी दूर चले जाता है और दलदल दिखायी देने लगता है। इस दलदल में फेरी फंस जाती  है और दुर्घटना की सम्भावना बढ़ जाती  है। गंगा सागर द्वीप काफी बड़ा है  और यहाँ की जनसंख्या 2 लाख  है। द्वीप पर कपिल मुनी का आश्रम हैं। इतिहास में दर्ज है कि मकर संक्रान्ति पर ही कपिल मुनी का आश्रम जल से बाहर दिखायी देता था इसलिये ही यहाँ मकर संक्रान्ति पर सर्वाधिक तीर्थ यात्री पहुंचते हैं लेकिन वर्तमान में एक नवीन आश्रम का निर्माण कर दिया गया है जिससे दर्शन सुलभ हो गये हैं। द्वीप पर भी अब धर्मशालाएं आदि बनने लगी  हैं, जिससे  रात्रि विश्राम की सुविधा हो गयी है। लेकिन सभी यात्रियों के लिये एक ही प्रकार की सरकारी फेरी  है, यदि कुछ सुविधाजनक फेरी और लगा दी जाएं तो वृद्ध लोगों को आसानी हो जाए। ठेले के स्थान पर ई-रिक्शे सुविधाजनक रहते हैं लेकिन प्रशासन शायद चिंतित नहीं दिखायी देता। सारे  ही साधनों की सीमा निश्चित है इसलिये ठेलों ने भी अपना वजूद स्थापित कर रखा है।

सागर तट पर चहल-कदमी करते  हुए एक मोती और हीरे बेचने वाला भी मिल गया। 600 रू. में दो बड़े हीरे दे रहा था, साथ ही कांच के टुकड़े को भी दिखा रहा था कि देखो कितना अन्तर है दोनों में। शायद कुछ लोग तो भ्रम में खरीद  ही लेते होंगे। ज्वार-भाटे के कारण हम अधिक देर वहाँ टिक नहीं पाये, बस भागते-दौड़ते गये और भागते-दैड़ते ही वापस आ गये। 50 रू. की साड़ी का भी हश्र देखा, गंगासागर को गन्दा करने के काम आ रही थी और तट पर बेतरतीब बिखरी थी। मुझे समझ नहीं आती पुण्य की परिभाषा! गंगासागर देश के करोड़ों लोगों के लिये तीर्थ है और आस्था का केन्द्र है तो हिन्दू समाज को उनकी सुविधा के लिये आगे आना चाहिये। कुछ संस्थाएं काम कर रही हैं लेकिन ये काम ऊँट के मुँह में जीरे के समान है। आस्था के स्थानों को सरकारों के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिये, यह समाज का उत्तरदायित्व है और समाज को ही वहन करना चाहिये। यदि सरकार से सुविधा भी लेनी है तो इसके लिये भी समाज को ही आगे आना होगा। 

Thursday, March 9, 2017

शान्तिनिकेतन – प्रकृति से शिक्षण

जब हम बचपन में तारों के नीचे अपनी चारपाई लेकर सोते थे तो तारों को समझने में बहुत समय लगाते थे। तब कोई शिक्षक नहीं होता था लेकिन हम प्रकृति से ही खगोल शास्त्र को समझने लगे थे। प्रकृति हमें बहुत कुछ सिखाती है, बस हमें प्रकृति से तादात्म्य बिठाना पड़ता है। कलकत्ता के देवेन्द्र नाथ ठाकुर ने भी प्रकृति के वातावरण में ज्ञान प्राप्ति की कल्पना को साकार रूप देने का प्रयास किया और उसे उनके ही यशस्वी पुत्र रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने मूर्त रूप दिया। खुला विश्वविद्यालय की कल्पना को साकार किया। वृक्षों के कुंज में बैठकर ज्ञान प्राप्त करना कितना सहज और सरल हो जाता है, इस बात को शान्तिनिकेतन में आकर ही समझा जा सकता है। देवेन्द्रनाथ जी ने एक गाँव को खरीदा और वहाँ ज्ञान प्राप्ति की नींव रखी, धीरे-धीरे वह स्थान शिक्षा का केन्द्र बन गया। आज वहाँ विश्व प्रसिद्ध विश्वभारती विश्वविद्यालय है। कई एकड़ में फैला है शान्तिनिकेतन लेकिन पर्यटकों के लिये कुछ स्थानों को देखने की  ही ईजाजत है। पर्यटक जाते हैं और जाते ही गाइड चिपक जाते हैं, हमने भी सोचा कि ले ही लिया जाये, समझने में आसानी रहेगी, लेकिन गाईड 10 प्रतिशत भी उपयोगी सिद्ध नहीं हुआ। जहाँ वृक्षों के नीचे कक्षाएं लगती हैं ऐसे कुंज को उसने दिखा दिया और बताया कि यहाँ रवीन्द्रनाथ बैठते थे। इससे अधिक कुछ नहीं। खैर उसने 10-15 मिनट में हमें चलता किया और छोड़ दिया म्यूजियम के पास। म्यूजियम में रवीन्द्रनाथ से सम्बन्धित संकलन था, उनके द्वारा उपयोग में लायी वस्तुएं थी, उनका घर था।
हम शिक्षा के इस मंदिर को समझना चाहते थे लेकिन असफल  रहे। शायद पर्यटकों से हटकर हमने व्यवस्था की  होती तो विश्वभारती को भी देख पाते। लेकिन एक विलक्षण कल्पना के साकार रूप का आंशिक भाग तो हम देख ही सके। छोटा सा गाँव है, विश्वभारती के अतिरिक्त कुछ नहीं है। पर्यटकों की सुविधा के लिये कुछ  होटल भी हैं और सरकारी गेस्ट-हाउस भी। लेकिन हम होटल में ही रुके थे। कलकत्ता से शान्तिनिकेतन का मार्ग बेहद खूबसूरत है। लगभग 150 किमी क्षेत्र में धान और आलू की खेती प्रमुख रूप से हो रही थी। हर खेत में पोखर था, जहाँ मछली पालन हो रहा था। कोलकाता के होटल से निकलते समय वहाँ के एक वेटर ने बताया था कि वहाँ का लांचा बड़ा अच्छा होता है और लूची-आलू की सब्जी भी। रास्ते में दो चार ढाबे आये सभी पर लिखा था लांचा मिलता है। एक साधारण से ढाबे पर अभिजात्य वर्ग की बड़ी भीड़ थी, हमारे ड्राइवर ने भी गाड़ी वहीं रोकी। हमें कोलकाता में लूची-आलू की सब्जी और झाल-मूरी खाने के लिये मेरे दामाद ने बताया था और लांचा की सलाह वेटर ने दे दी थी। उस होटल पर तीनों ही चीज थी। हमारे यहाँ भेल बनाते हैं लेकिन कोलकाता में झाल-मूरी बनाते हैं, इसमें सरसों के तैल का प्रयोग होता है। लूची मैदा की पूड़ी थी और लांचा गुलाब-जामुन का लम्बा स्वरूप।
रस्ते में एक शिव-मंदिर था, भव्य था और शिवरात्रि के कारण भीड़ भी अधिक थी। हमने सोचा की मंदिर का आते समय दर्शन करेंगे। वापसी में हम मंदिर में रूके लेकिन निराशा हाथ लगी। भव्य मंदिर था, दक्षिणेश्वर की तर्ज पर शिव के छोटे-छोटे मंदिर बनाये गये थे जो 108 की संख्या में थे। लेकिन शिवरात्रि पर भक्तों ने ऐसी पूजा की कि मन्दिर का हर कक्ष माला और पूजा सामग्री से अटा पड़ा था। सफाई की कोई व्यवस्था नहीं थी। तालाब का पानी भी बेहद गन्दा था लेकिन भक्तगण उस गन्दे पानी से ही शिव का अर्चन कर रहे थे।  हम स्वर्ग की कल्पना करके उसे पाने के लिये पूजा करते हैं और जिस धरती पर साक्षात रहते हैं उसे गन्दा करते हैं, यह कौन सी मानसिकता है, मेरे समझ से परे हैं!

हमने शान्तिनिकेतन को दो दिन दिये लेकिन लोग एक दिन में ही घूमकर चले जाते हैं, शायद ठीक ही है, दो दिन जैसा कुछ है नहीं। हम भी दूसरे दिन 10 बजे ही वापस लौट गये और शिव-मन्दिर देखते हुए दो बजे तक कोलकाता पहुंच गये।

Monday, March 6, 2017

कोलकाता मन का और देखन का

युवा होते – होते और साहित्य को पढ़ते-पढ़ते कब कलकत्ता मन में बस गया और विमल मित्र, आशापूर्णा देवी, शरतचन्द्र, बंकिमचन्द्र, रवीन्द्रनाथ आदि के काल्पनिक पात्रों ने कलकत्ता के प्रति प्रेम उत्पन्न कर दिया इस बात का पता ही नहीं चला। मन करता था कि वहाँ की गली-कूंचे में घूम रहे उन पात्रों को अनुभूत किया जाए। समय कुछ और आगे बढ़ा, अब काल्पनिक पात्रों का स्थान वास्तविक पात्र लेने लगे। विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के कण-कण में रचे-बसे दिखायी देने लगे और कलकत्ता के प्रति प्रेम, श्रद्धा और आस्था में बदल गया। अण्डमान की सेलुलर जेल में बंगाल के सैकड़ों शहीदों के चित्र जब दिखायी दिये, तब लगा कि यह स्थान देश के लिये तीर्थ से कम नहीं है। यहाँ क्रांतिकारी हुए, यहाँ चिंतक और विचारक हुए. यहाँ साहित्य को खाया-पीया और ओढ़ा गया, यहाँ संगीत कण्ठ का आभूषण बना, यहाँ भारत की संस्कृति के दर्शन जन-जन में हुए, ऐसे कलकत्ता को देखने के लिये मन सपने देखता था।
यहीं गंगा, सागर में समा जाती है, यहीं सर्वाधिक टाइगरों का निवास है, यहीं नदियों के मुहानों पर डेल्टाज हैं, यहाँ घर-घर में पोखर है, यहाँ सकड़ी-सकड़ी गलियां हैं, भीड़ है, गरीबी है, मारवाड़ी सेठ हैं, आदि आदि सुनते आये थे। किसी भी शहर को देखने के लिये 3-4 दिन पर्याप्त होते हैं, लेकिन मैंने पूरे 8 दिन का समय लिया लेकिन जब कलकत्ता देखने निकले तो लगा कि ये दिन तो कम हैं। इतना कुछ है यहाँ की समय कम ही पड़ जाता है और बहुत कुछ छूट जाता है। जब आप विवेकानन्द के बचपन को अनुभूत करने लगते हो तब हर गली और मौहल्ला पवित्र लगने लगते हैं और मन करता है कि वहाँ मनभर कर घूमा जाए लेकिन समय आड़े आ जाता है। रवीन्द्रनाथ को यहाँ कण-कण में अनुभूत किया जाता है, लेकिन दो दिन में तो उनके एक कण को भी नहीं छूआ जा सकता है, हम से भी बहुत कुछ छूट गया। ऐसा लगा कि नदी किनारे से प्यासे ही लौट आए।
कल का कलकत्ता और आज का कोलकाता राजनीति का कुरूक्षेत्र भी रहा है। कभी मुगलों के काल में यहाँ नवाबी और जमींदारी के किस्से मशहूर हुए तो कभी अंग्रेजों ने यहाँ देश की राजधानी बनाकर शहर को वैभव प्रदान किया तो गाँवों को कंगाल कर दिया, मारवाड़ी सेठों ने यहाँ पटसन-जूट आदि का साम्राज्य स्थापित किया। यहाँ दो धारायें एक साथ बही, एक तरफ पूर्ण विलासिता तो दूसरी तरफ पूर्ण कंगाली। कंगाली के कारण नक्सलवाद भी परवान चढ़ा तो कम्युनिस्ट सरकारें  भी खूब चली। यहाँ की भौगोलिक स्थिति और वास्तविक स्थिति में ज्यादा अंतर नहीं है। चारों तरफ से नदियाँ आ रही है, कहीं गंगा है तो कही हुगली बन गयी है, सभी सागर में विलीन हो रही हैं। नदी और सागर का मध्य डेल्टा बन गये हैं। कहीं नदी मीठी है तो कहीं खारी हो गयी है, दिन में कभी ज्वार आता है तो कभी भाटा आता है। कभी पानी गाँव तक चले आता है तो कभी तटों को छोड़ देता है। ऐसी ही यहाँ की वास्तविक जिन्दगी है। भारत की सम्पूर्ण संस्कृति - गंगा सदृश्य यहाँ दिखायी देती है, उतनी ही पवित्र और उतनी ही सादगी पूर्ण। नदी के मुहानों पर बने डेल्टा गाँवों के जीवन जैसे हैं, जहाँ सूरज उगने पर ज्वार आता है और शाम पड़ते-पड़ते भाटा आ जाता है, फिर चाँद के साथ ही ज्वार। कभी दलदल हो जाता है तो कभी खारा पानी सभी कुछ खारा कर देता है। चारों तरफ पानी ही पानी लेकिन कुछ-कुछ मीठा शेष खारा। शहर सरसब्ज है तो पानी भी मीठा है लेकिन गाँव गरीबी की चादर ओढ़े है तो खारे पानी की मार भी झेल रहे हैं।
नगर की सड़के चौड़ी-चौड़ी हैं, साफ-सुथरी हैं, दो सड़कों को जोड़ने को इन्टर सेक्शन भी हैं। गलियाँ भी इतनी सकरी नहीं है। बड़ा बाजार के लिये सुनते थे कि सकरी गलियां हैं लेकिन जैसे जयपुर में कटला है वैसे ही बड़ा बाजार है, मुख्य सड़क पूरी चौड़ी है। अमेरिका की तरह ही सड़क के साथ-साथ ट्राम की पटरी  है जो आपकी गाड़ी के साथ चलती दिखायी दे जाती  है। बिजली से चलने  वाली दो-तीन डिब्बों की ट्राम अब पुरानी हो चली है, सवारी भी बहुत कम देखने में आती है, शायद कुछ दिनों बाद बन्द ही  हो जाये। हाथ से खेचनें वाले रिक्शे भी हैं लेकिन ई-रिक्शों की भीड़ ने उन्हें एकाकी कर दिया  है। शहर के चारों तरफ गंगा का वास  है जो यहाँ हुगली नदी के नाम से विख्यात है। लम्बी-चौड़ी हुगली शान्त भाव से बहती है और उस पर छोटी नाव, स्टीमर आदि चलते हुए हर तरफ दिखायी देते हैं। रात को यह दृश्य अद्भुत होता है। कभी हावड़ा ब्रिज यहाँ की शान हुआ करता था लेकिन आज विद्यासागर ब्रिज ने उसका स्थान ले लिया है। शहर की मुख्य सड़कें एकदम साफ-सुथरी हैं, सुबह 6 बजे भी साफ थी तो शाम को भी साफ थी, अन्दर गलियों में कहीं-कहीं गन्दगी देखी जा सकी।  गाँव भी लगभग साफ ही थे। गरीबी के पैबन्द मखमल पर दिखायी देते हैं, जैसे ही चौड़े रास्तों से गलियों में जाते हैं, गरीबी झांकने लगती है। बाजार इतने चौड़े हैं कि पगडण्डी  पर भी हाट-बाजार लग गये हैं फिर भी जाम की स्थिति नहीं रहती। पीले रंग की टेक्सियां दूर से ही दिखायी देती  हैं और उन सभी पर लिखा है नो-रिफ्यूजल, कोई भी टेक्सी कहीं जाने से मना नहीं कर सकती है। पुलिस बहुत कम दिखायी देती है, लेकिन जब दिखायी देती है तो  पूरी चाक-चौबन्द। लगा की अनुशासन वहाँ के जीवन में है।

अब खान-पीन और पहनावे की बात कर लें। खाना सादा है, तीखापन कम है। यहाँ के रसगुल्ले, संदेश और मिष्टी दही बहुत प्रसिद्ध है। खासियत क्या है? रसगुल्ले गुड़ से बने हैं और गुड़ खजूर से। दही में भी खजूर का गुड़ है। गोलगप्पे याने की पुचके हर 100 कदम पर मिल जाएंगे और झाल-मूरी वाले भी। खीरा ककड़ी खूब बिक रही थी, छिली हुई और नमक के साथ। लूंची और आलू की सब्जी भी प्रसिद्ध है और हींग की कचौरी भी। बाकि तो दाल-चावल ही है। मछली को भूली नहीं हूँ, वो तो यहाँ का जीवन है। हम जैसे शाकाहारी लोगों को बार-बार याद दिलाना पड़ता था कि मछली नहीं चलती। सड़क पर गाड़ी चल रही है और आप गली में या गाँव में आ गये हैं तो शीशे से दाएं या बाएं देखने  पर मछली ही मछली कटती-पिटती दिखायी देगी। खेतों में धान और आलू की फसल बहुतायत से दिखायी देती है तो भोजन में भी चावल और आलू का बोलबाला  है। बैंगन और परवल को पकाने का तरीका पसन्द आया। इन्हें काटकर नमक और हल्दी लगाकर सरसों के तैल में तवे पर भूना जाता है और ऐसे ही खाया जाता है। बहुत स्वादिष्ट था। पहनावे ने तो मन ही मोह लिया। पहले पुरुषों की ही बात करें क्योंकि अक्सर पुरुष महिला के वस्त्रों को लेकर चिंतित दिखायी देते हैं लेकिन स्वयं के कपड़ों का जिक्र नहीं करते। यहाँ धोती पहने पुरुष खूब दिखायी दिये, यहाँ आकर लगा कि अभी भी कहीं ना कहीं हमारी धोती इज्जत पा रही है, नहीं तो सारे ही पुरुषों ने विलायती पेंट धारण कर ली है। महिलाएं साड़ी में ही नजर आयीं, सूती तांत की साड़ी, माथे पर बड़ी सी बिन्दी और गहरी भरी हुई मांग। आज भी स्कूल का परिधान साड़ी है या सलवार-सूट। बच्चियों को स्कूल से निकलते देखा और सभी साड़ी में या सलवार सूट में थी तो प्राचीन भारत दिखायी देने लगा। रास्ते चलते आदमी माँ कहकर सम्बोधित करते मिले तो लगा कि विवेकानन्द का कलकत्ता आज भी वैसा ही है। खूब भालो – खूब भालो – खूब भालो।