Thursday, August 2, 2018

घरों पर लगते निशान!


बहुत दिनों पहले एक कहानी पढ़ी थी – एक गिलहरी की कहानी। सरकार का नुमाइंदा जंगल में जाता है और परिपक्व हो चले पेड़ों पर निशान बनाकर चले आता है। निशान का अर्थ था कि ये पेड़ कटेंगे। एक गिलहरी निशान लगाते आदमी को देखती है और कटते पेड़ के लिये दुखी होती है। उसे लगता है कि मैं कोशिश करूं तो शायद कुछ पेड़ कटने से बच जाएं! वह पेड़ के निशान मिटाने पर जुट जाती है और अपनी पूंछ से निशान मिटाने लगती है। गिलहरी एक प्रतीक बन गयी हैं इस कहानी में कि यदि छोटा व्यक्ति भी चाहे तो विनाश को रोकने में भागीदार बन सकता है। यह कहानी भला मुझे क्यों याद आयी! कल मैं अपने बराण्डे में बैठी थी, मुझे मेरे पति बताने लगे कि पड़ोस के बुजुर्ग दम्पत्ती तीन माह के लिये बेटी के पास गये हैं और अपनी नौकरानी की छुट्टी कर गये हैं। मैंने कहा कि हाँ, वे अब बुजुर्ग हो चले हैं और शायद ही वापस आएं। मुझे अचानक ख्याल आया कि अब इनके मकान का क्या होगा! इसका तो एक ही हल है कि वह बिकेगा। मेरा ध्यान अब ऐसे मकानों की तरफ मुड़ गया, मेरा मकान भी उसमें शामिल था और जैसे-जैसे में नजर दौड़ा रही थी मेरी गिनती बढ़ती ही जा रही थी। मैं निशान लगाने वाला सरकारी नुमाइंदा बन गयी थी और अब मुझे उस गिलहरी की कहानी याद आयी। न जाने कितने दलालों की नजर हम पर होगी और वे मन ही मन हमारे मकानों पर निशान लगा चुके होंगे। हो सकता है कि कुछ अवांछित तत्वों की निगाह भी हमारे मकानों पर हों और वे हम पर ही निशान लगा चुके हों!  अब मेरा ध्यान गिलहरी पर केन्द्रित हो चला था, मैं उस गिलहरी को ढूंढ रही थी। शायद कोई गिलहरी कुछ मकानों पर लगे निशान मिटाने में जुटी हो! लेकिन मुझे छोटे शहरों के वीरान होते घरों में कोई गिलहरी की पदचाप सुनायी नहीं दी।
बच्चे बड़े शहरों में चले गये, क्योंकि उनकी रोजी-रोटी वहीं थी। कुछ विदेश चले गये, क्योंकि उनके सपने वहीं थे। कल मेरे एक मित्र ने प्रश्न किया कि आखिर युवा विदेश क्यों जाते हैं? मैंने बहुत सोचा, पुराने काल को भी टटोला। मनुष्य जिज्ञासु प्रवृत्ति का होता है, वह नापना चाहता है दुनिया को। नयी जगह बसना चाहता है, नये काम-धंधे चुनना चाहता है। पहले व्यापार के लिये भारतीयों ने सारी दुनिया नाप ली, अब बेहतर जीवन के लिये दुनिया की तलाश कर रहा है। गाँव से आदमी बाहर निकल रहा है, शहर जा रहा है, शहर से महानगर जा रहा है और महानगर से विदेश जा रहा है। जितनी दूर व्यक्ति चले जा रहा है उतना ही उसका सम्मान बढ़ रहा है, वह भी खुश है और लोग भी उसे सम्मान दे रहे हैं। आज गाँव रीतने लगे हैं, खेती के अलावा वहाँ कुछ नहीं है। वहाँ का युवा नजदीकी शहर के आकर्षण से  बंध रहा है। शहर के युवा के पास महानगर के सपने हैं, वह महानगर की ओर दौड़ लगा रहा है। पढ़े-लिखे युवाओं की दौड़ विदेश तक होने लगी है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ महानगरों में जा रही हैं या नगरों को महानगर बना रही हैं इसकारण छोटे शहर पढ़े-लिखे युवाओं से विहीन होते जा रहे हैं। एक दिन मैंने अमेरिका में बसे मेरे पुत्र से पूछा कि आज के पचास साल पहले तुम्हारे इस शहर का नक्शा क्या था? क्योंकि आईटी कम्पनियां तो अभी आयी हैं! वह बोला कि यहाँ कुछ नहीं था लेकिन आज सबकुछ है। बड़ी कम्पनियों ने शहरों के मिजाज को ही बदल दिया है, सब इनके आकर्षण से खिंचे जा रहे हैं। युवाओं का आकर्षण ये बड़ी कम्पनियाँ बनती जा रही हैं। माता-पिता अपनी चौखट से बंधे हैं और उनकी संतान अपनी नौकरी से। नतीजा घर को भुगतना पड़ रहा है, अब वे घर ना होकर मकान में परिवर्तित होते जा रहे हैं। उन मकानों पर निशान लगाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, कोई गिलहरी भी दिखायी नहीं देती जो निशान मिटाने की जिद करे। माता-पिता भी कब तक चौखट पकड़े बैठे रहेंगे आखिर एक दिन तो उन्हें कोई निर्णय लेना ही पड़ेगा नहीं तो भगवान ले लेगा। उन्हें अपनी कोठी खाली करनी ही होगी और इसे दलालों के सुपुर्द करना ही होगा। पहले घरों की उम्र बहुत लम्बी होती थी लेकिन आज छोटी होती जा रही  है, कब किसका आशियाना बिखर जाए कोई नहीं जानता! पुरानी रीत अब बेमानी हो चली है, कहते थे कि जिस घर में डोली आयी है उसी घर से डोली भी उठेगी। अब घर ही घर नहीं रहा, जहाँ की दीवारें हमें पहचानती थी, अब तो नित नये मकानों का बसेरा है। छोटे शहरों के घर निशानों से भर उठे हैं, बदलाव तो होगा ही। अब एक जगह स्थिर  होने का जमाना लद गया शायद हम सभी गाड़िया लुहार बन चुके हैं।
www.sahityakar.com

3 comments:

कविता रावत said...


कुछ ज्यादा ही महत्वाकांक्षी हो चला है आज का इंसान, सच आज घर नहीं मकान भर है शहरों में। गांवों में जो घर पुश्तैनी होते थे अब वे खंडहरों में बदल रहे हैं और हम बेवस चुपचाप देखते जा रहे हैं...............
विचारणीय प्रस्तुति

अजित गुप्ता का कोना said...

कविता जी आभार।

अजित गुप्ता का कोना said...

सेंगर जी आभार।