Saturday, February 7, 2009

वेलेन्टाइन डे और बाल विवाह

प्रेम और विवाह दो अलग-अलग सामाजिक बंधन हैं। प्रेम जहाँ स्वतः स्फूर्त एक निर्मल झरने की तरह मन से फूटा आवेग है वहीं विवाह झरने को एक धारा में बहने के लिए बनाया गया पुल। प्रेम शाश्वत सत्य है। पुरुष और नारी का आकर्षण उतना ही यथार्थ है जितना आत्मा और शरीर का बंधन। प्रेम का बीज जन्म के साथ ही शरीर में अंकुरित होता है, फलता है और उसकी सुगंध तन से निकलकर मन को सरोबार करती हुई वातावरण में फैल जाती है। जैसे कस्तूरी मृग अपनी ही गंध से बौरा जाता है वैसे ही प्रत्येक इंसान इस प्रेम के सौरभ से मदमस्त हो जाता है। और प्रारम्भ होती है उसके आकर्षण की यात्रा। एक झरना फूटकर बह निकलता है। झरने को मालूम नहीं उसका किनारा कहाँ है, बस वह तो जो भी मौज मिली उसी पर छलका और फिर बह निकला। इसी झरने के छलकने और बह निकलने का पर्व है वेलेन्टाइन डे।
इसके विपरीत समाज ने झरने को देखा, समझा और उसके फूटने के साथ ही उसे एक धारा में बांधने का प्रयास किया। वह झरना एक सम्यक नदी बनकर शान्त गति से बह चला। इसी बंधन का नाम है विवाह। और झरने के फूटने के पूर्व ही उसे एक आकार देने का नाम है बाल विवाह। झरना तो फूटेगा ही, धारा भी बहेगी, पहाड़ियों से टकराकर अपनी सहस्त्र धाराओं में बहे या फिर पूर्ण वेग के साथ एक ही धारा में समाहित हो जाए? बस इसी अंतर को अपने में कैद करने की आवश्यकता है।
आज बाल विवाह पर आपत्ति और वेलेन्टाइन डे के खुले प्रचार ने मुझे चिंतन की ओर धकेल दिया। छोटे-छोटे बच्चों के हाथ में गुलाब और कामदेव के बाण चलाते नन्हे हाथों वाले कार्ड प्रेम के इस झरने को शीघ्रता से प्रस्फुटित होने का आह्नान कर रहे हैं। स्त्री और पुरुष के सहज प्रेम का सूत्र हाथ में लिए यह ‘डे’ प्रेम की धारा को बहने के लिए छोड़ देना चाहता है और इसी के समान बाल विवाह भी झरने के फूटने के पहले ही उसे प्रेम की व्याख्या समझाता हुआ एक निर्मल वेग से बहने की छूट देता है। कहां है दोनों में अंतर? दोनो में ही सौरभ के खिलने से पूर्व का ही प्रवाह है। बस अंतर इतना है कि एक उच्छृंखलता है और एक अनुशासन। यदि हमें बाल्यकाल से ही प्रेम का पाठ पढ़ाना है तो फिर उच्छृखंल प्रेम की जगह अनुशासित प्रेम ज्यादा उपयोगी बनेगा। व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी। यदि बाल्यकाल प्रेम की आयु नहीं है तो फिर जितना विरोध बालविवाह का हो रहा है, कानून बन रहे हैं, उतना ही वेलेन्टाईन डे का भी होना चाहिए। भावनाएं भड़काने की कोई आयु नहीं, लेकिन उन भावनाओं को संयमित करने की आयु निश्चित? यह कैसा सामाजिक विरोधाभास है? हम करें तो आधुनिकता और तुम करो तो अपराध? आज इन्ही प्रश्नों के उत्तर समाज को और नवीन पीढ़ी को तलाशने चाहिएं और उपने मन को टटोलकर देखना चाहिए कि यदि वे सत्य हैं तो दूसरा गलत कैसे हैं?

3 comments:

Smart Indian said...

इस मुद्दे को एक अलग दृष्टिकोण से देखने के लिए बधाई. आपके प्रश्न मौलिक और दमदार हैं. बाल विवाह उस समय की आवश्यकता थी जब विदेशी आक्रमणों की निरंतरता के बीच "अठरह बरस जो छत्री जी ले, ताके जीवन को धिक्कार..." के नियम का पालन करके वीर देश पर अपनी जान न्योछावर कर देते थे और वीरांगनाएं पशुओं के हाथ पड़ने के बजाय ज़िंदा जल जाना पसंद करती थीं. भारत में वेलेन्ताइन्स दे के इस आधुनिक प्रचालन के पीछे इस तरह का कोई बंधन न हो तो भी भावनाओं के अवांछित दमन के प्रति विद्रोह की भावना तो हो ही सकती है.

Ravi Ajitsariya said...

महोदया, सर्वप्रथम, इस मुद्दे को उठाने के लिए धन्यवाद। भौतिक जगत में विदेशी कंपनियो ने अपने सामान बेचने के लिए यह एक अच्छा जरिया बनाया है, और हम भारतीय उस ट्रैप में फँस गए है। अब हम एक दो राहे पर खड़े है, पता नही की किस और जायेंगे। में मधुमती का नियमित ग्राहक हूँ, और आपका सम्पादकीय बड़े गौर से पढता हूँ। आपको बधाई।

रवि अजितसरिया,

गुवाहाटी

K.P.Chauhan said...

mahodya sarvpratham to mai aapkaa dhanywaad kartaa hun ki aapne is mudde par kaafi bariki se chintan kiyaa hai mere vichaaron me to velentine day manaane kaa ham bhartiyon ko koi ochity nahi hai kyonki ye sab hamaare sanskaaron me sammlit nahi hain kyonki ye videshi sanskrti ka ek pahloo hai doosre wo apnaa saman bechne ka jariyaa bhi banaa rahe hain at; meri aapse prarthna hai ki aap kisi tarh apne desh ki kanyaaon ko samjhaao ki wo is prkaar ke yuwaaon se door rahe jo is din ko fijuli tarike se manaate hai ,jan pahchan or mel mulakat ke or bhi kaafi sabhy tarike hain yaa is tarh kaa bhondaa pradarshan jaroori hai dhanywaad sahit