मेरे देश में साम्प्रदायिकता कहीं खो गयी है, मैं
उसे हर बिल में खोज चुकी हूँ, गली-मौहल्ले में भी नहीं मिली, आखिर गयी तो गयी
कहाँ? यह तो छिपने वाली चीज थी ही नहीं, देश की राजनीति में तो यह शाश्वत बन गयी
थी! भला ऐसा कौन सा चुनाव होगा जब यह शब्द ही ब्रह्मास्त्र ना बनो हो! सारे ही मंचों
से चिल्ला-चिल्लाकर आवाजें आती थी कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ हमें एकत्र होना है। एक तो नारा हमने सुना था – इस्लाम खतरे
में हैं, एकत्र हो जाओ और दूसरा सुना था कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ एकत्र हो जाओ।
साँप-नेवले सारे ही एक छत के नीचे आ जाते थे। लेकिन इस बार तो यह नारा सिरे से ही
खारिज हो गया! हमने आजादी के पहले से ही इस नारे को गढ़ लिया था और संगठनों पर
प्रतिबन्ध की परम्परा को जन्म दे दिया था। आजादी के बाद भी यह नारा खतरे की घण्टी
की तरह चला, जैसे ही सरकारों पर खतरा मंडराता, साम्प्रदायिकता का नारा जेब से निकल
आता और फिर प्रतिबन्ध की आँधी के कारण लोकतंत्र के दरवाजे बन्द
हो जाते।
हम जैसों ने इस नारे का ताण्डव खूब झेला, हम
सरकार का हिस्सा नहीं थे तो झेलना पड़ा। लेकिन जो खुद को सरकार का हिस्सा मानते थे वे हमारे खिलाफ कभी भी इस
बिच्छू को निकाल देते थे और एकाध डंक लगाकर वापस जेब में रख लेते थे। लेकिन अचानक
ही इस चुनाव में यह बिच्छू जैसा नारा गायब हो गया। बस हाय तौबा सी मची रही कि मोदी
हटाओ, मोदी हटाओ। हमारे लिये तो दोहरी खुशी लेकर आया यह चुनाव। एक तो बिच्छू गायब
हो गया, हम डंक से बच गये, दूसरी तरफ मोदीजी ने राष्ट्रवाद का परचम लहरा दिया।
कहाँ हम पीड़ित होते रहे हैं और कहाँ अब इस राष्ट्रवाद के परचम को लपेटे हम,
इतराकर चल रहे थे। सामने वाले कह रहे थे कि नहीं हम भी राष्ट्रवादी हैं। जैसे पहले
हम कहते थे कि हम साम्प्रदायिक नहीं हैं लेकिन वे कहते थे कि नहीं तुम हो, हमारी
सुनते ही नहीं थे। अब वे कह रहे हैं कि हम भी राष्ट्रवादी हैं लेकिन उनकी कोई नहीं
सुन रहा है। वे कहते थे कि तुम साम्प्रदायिक नहीं हो तो लो यह टोपी पहनो! जैसे ही
हमने मना किया कि नहीं टोपी तो नहीं पहनेंगे, वे झट से उछल पड़ते, ताली बजाकर
चिल्लाते कि देखो तुम साम्प्रदायिक हो। इस बार उनकी भी टोपी उतर गयी। अब हम कह रहे
हैं कि बोलो – भारतमाता की जय, वे चुप हो जाते हैं और हम ताली बजा लेते हैं कि
नहीं, तुम नहीं हो राष्ट्रवादी।
सारे ही धर्मनिरपेक्षता की चौकड़ी वाली चादर ओढ़े
नेता, बिना चादर के ही घूम रहे हैं, कोई तिलक लगाकर घूम रहा है तो कोई सूट के ऊपर जनेऊ
दिखा रहा है! राम नवमी धूमधाम से मनी, रोजे पर दावतें दिख नहीं रही हैं! हम तो
बेहद खुश हैं कि हमारे ऊपर लगा साम्प्रदायिकता का दाग, राष्ट्रवाद की साबुन के
एकदम धुल गया है। अब हमारी चादर झकाझक चमक रही है। मैं अक्सर कहा करती हूँ कि परिवर्तन
की प्रकिया में समय लगता होगा लेकिन परिवर्तन पलक झपकते ही आ जाता है। गुलाब के
पौधे पर फूल जब लगता है, तब ना जाने कितना समय लगता होगा लेकिन जब फूल खिलता है तो
पलक झपकते ही खिल जाता है। मोदीजी ने पाँच साल तक कठोर तपस्या की, हमें पता ही
नहीं चला की यह साम्प्रदायिकता वाला जहरीला बिच्छू कब बिल में चला गया, लेकिन जब
इस चुनावी बरसात में बाहर नहीं आया तब पता लगा कि हमने क्या पाया है! मोदी-काल का
सबसे बड़ा परिवर्तन यही है। साम्प्रदायिकता का दंश गायब और राष्ट्रवाद का परचम
हमारे हाँथ में। कल तक हम सफाई दे रहे थे, अब वे सफाई दे रहे हैं। मैं हमेशा से
कहती हूँ कि प्रतिक्रिया मत करो, हमेशा क्रिया करने के अवसर ढूंढो। प्रतिक्रिया
सामने वाले को करने पर मजबूर कर दो। मोदीजी आपको नमन! आपने इतनी बड़ी गाली से हमें
निजाद दिला दी। अब हम साम्प्रदायिक नहीं रहे अपितु राष्ट्रवादी बन गये हैं। साम्प्रदायिकता
बिल में चले गयी है और राष्ट्रवाद परचम में लहरा रहा है।
7 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (15-05-2019) को "आसन है अनमोल" (चर्चा अंक- 3335) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 14/05/2019 की बुलेटिन, " भई, ईमेल चेक लियो - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत अच्छा लिखा है आपने
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sorry
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