Thursday, February 3, 2011

कर्म करूं या श्रद्धा से नत हो जाऊँ या फिर मांगने के लिए हाथ फैला दूं? – अजित गुप्‍ता


त्रम्‍बकेश्‍वर (नासिक) और शिरडी की यात्रा का सौभाग्‍य मिला। हजारों ही नहीं लाखों की संख्‍या में दर्शनों की कतार में लगे भक्‍तगण, कोई साष्‍टांग प्रणाम कर रहा है तो कोई हाथ जोड़े श्रद्धा-भाव से खड़ा है। कोई नाच रहा है तो कोई जयकारे लगा रहा है। सब ही तो प्रभु से समृद्धि मांग रहे हैं। मुझे एक विचार आ रहा है कि पूर्व में भारत में अधिकांश लोग खेती करते थे, तब भी शायद प्रभु से समृद्धि की मांग होती थी। भगवान आकाश से पानी बरसा देते थे कि भक्‍तगणों लो अमृत समान पानी, अन्‍न उपजा लो और अपनी भूख-प्‍यास मिटा लो। किसान सारी जनता की भूख मिटाता है शायद इसीलिए भगवान उसे वर्षा-जल देता है। भगवान ने इस देय को कभी बन्‍द नहीं किया। बस कभी-कभार कम-ज्‍यादा करके बता देता है कि ईमानदारी से अपना कर्म करो, नहीं तो मैं सजा दूंगा! लेकिन आज लोगों को प्रभु के दरबार में मांगते देखती हूँ तो समझ नहीं आता कि आखिर इन सबको अब भगवान और क्‍या दे?
भगवान ने इतनी उपजाऊ धरती दी है, रत्‍नों और खनिजों से भरे पहाड़ दिए, समुद्र दिया, नदियां दी, पेड़ दिए, वनस्‍पतियां दी, पशु दिए, पक्षी दिए, सूर्य दिया, चन्‍द्रमा दिया, हवा दी, प्रकाश दिया। कहने का तात्‍पर्य यह है कि उसने मनुष्‍य के लिए इतना अकूत भण्‍डार पहले ही दे दिया तो अब हम क्‍या मांगते हैं? हमारे यहाँ कृष्‍ण हुए और उनको सारी ही दुनिया आज श्रेष्‍ठ मानती है, उन्‍होंने कहा कि कर्म पर ही तेरा अधिकार है। बस तू कर्म कर, फल तो मिल ही जाएगा। अब मुझे यह प्रश्‍न बेचैन करता रहता है कि मैं कृष्‍ण की बात मानूं या फिर मांगने वालों की जमात में जाकर खड़ी हो जाऊँ? जब वो स्‍वयं ही दे रहा है तब कैसा मांगना? आप कहेंगे कि नहीं यह मांगना नहीं है, यह तो श्रद्धा प्रगट करने का तरीका है। यदि श्रद्धा प्रगट करने का ही तरीका है और शायद कुछ हद तक सही भी हो तो फिर यह करोड़ों का चढ़ावा क्‍यों? यह किसी रिश्‍वत की परिभाषा में नहीं आता है क्‍या?
सत्‍य साई बाबा गरीबी में रहे लेकिन आज उनके शिष्‍यों ने करोड़ों रूपये का कारोबार कर लिया है। यहाँ तक की उन्‍हें भी सोने में मढ़ दिया है। बेचारे जो श्रद्धा प्रगट करने जा रहे हैं वे लम्‍बी कतार में फंसे हैं लेकिन जो रिश्‍वत दे रहे हैं या राहुल गाँधी जैसे बड़े पद वाले लोग सीधें ही दरबार में उपस्थित हो जाते हैं। आम जन को तो घण्‍टों कतार में लगे रहो तब जाकर कहीं दर्शन सम्‍भव होंगे! कैसा कारोबार है यह?
मैं इस देश की संस्‍कृति जागरण में रत उन तमाम महापुरुषों को नमन करती हूँ और उनके प्रति श्रद्धा-भाव भी रखती हूँ लेकिन उनके शिष्‍यों द्वारा किए जा रहे व्‍यापार से मन दुखी होता है कि आज गरीबों के मसीहा भी अमीरों के होकर रह गए हैं। अमीरों ने वैसे भी इस देश के राजनेताओं को खरीद लिया, नौकरशाहों को खरीद लिया और अब तो भगवान को भी खरीद लिया। तो बेचारा आम आदमी किस दरबार में जाकर अपनी फरियाद करेगा? या आम आदमी के पास समय बहुत है तो वह कतार में घण्‍टों खड़ा रहेगा और खास आदमी के पास समय की कमी है तो वह रिश्‍वत और रुतबे के सहारे अपनी ईच्‍छा पूर्ति कर लेगा? क्‍या देश को इस बारे में नहीं सोचना चाहिए कि यह धन का प्रदर्शन बन्‍द होना चाहिए। अनावश्‍यक कर्म-काण्‍ड बन्‍द होने चाहिएं और लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। मुझे तो लगता है कि ऐसे स्‍थानों पर कुटीर उद्योग खोल देने चाहिए और प्रत्‍येक भक्‍त को वहाँ निश्चित समय और श्रम-दान अनिवार्य कर देना चाहिए। उन्‍हें कर्म की महिमा बतानी चाहिए फिर भगवान के दर्शन कराने चाहिएं। कितना भी कोई वीआईपी क्‍यों ना हो, सभी पहले श्रम-दान करें फिर दर्शन करें। देश के हित में कार्य। नहीं तो तीर्थ यात्रा भी एक खिलवाड़ बन कर रह जाएगी और देश का पैसा और समय दोनों केवल मांगने में ही खर्च होता जाएगा। हो सकता है आप मेरी बात से सहमत ना हो, लेकिन मुझे जो विचार आए मैंने यहाँ लिखे। आपके विचारों का भी स्‍वागत है। 

34 comments:

केवल राम said...
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केवल राम said...

कर्म की महिमा ..... आपने सही कहा है ..जिन महात्माओं ने कर्म का उपदेश ही नहीं बल्कि जीवन में कर्म करके बताया है ...हम कितना उनका अनुसरण कर पाते हैं ...यह सोचने वाली बात है ....आपका सुझाब प्रासंगिक है .....शुक्रिया
चलते -चलते पर देख लीजिये "ब्लॉगरीय षटकर्म " आपका सुझाब प्रासंगिक रहेगा ...आपका आभार

संजय कुमार चौरसिया said...

कर्म की महिमा .....
आपने सही कहा

anshumala said...

यही हाल हर मनुष्य का है हम बिना कर्म हर तरीके से फल पा लेने की इच्छा रखते है उसके लिए चाहे भगवान के दरबार में जाना पड़े कोई रत्न धारण करना पड़े या किसी की बलि ही क्यों ना देना पड़े ना ही सुख पाने के लिए और ना ही अपनी समस्याओ से छुटकारे के लिए हम कुछ करते है सबसे पहले आसान सा रास्ता खोजते है | और मंदिरों में चढ़ रहे चढ़ावे और उनका हो रहा दुरुपयोग वाकई गुस्सा दिलाता है | जब लोग करोडो का सोना आदि दान करते है तो लगता है की काश इससे गरोबो के लिए अस्पताल स्कुल या कोई रोजगार का काम किया होता तो शायद ये भगवन को सच्चा धन्यवाद होता | आप की हर बात से सहमत हूँ |

kshama said...

Bas ekhee baat kahungee...aankh jo meeti ho gaye darshan....!

shikha varshney said...

आपके विचारों से १००% सहमत ..

निर्मला कपिला said...

ांअजित जी आपने बहुत सही मुद्दा उठाया है हम कर्म की महिमा भूल चुके हैं अब तो ऐसे स्थानो पर केवल चढावा और दिखावा ही रह गया है चाहे वो किसी भी सम्प्रदाय का हो। आपकी ये तज़वीज़ काश कि उन संस्थाओं तक पहुँचे---
ऐसे स्‍थानों पर कुटीर उद्योग खोल देने चाहिए और प्रत्‍येक भक्‍त को वहाँ निश्चित समय और श्रम-दान अनिवार्य कर देना चाहिए। उन्‍हें कर्म की महिमा बतानी चाहिए फिर भगवान के दर्शन कराने चाहिएं। कितना भी कोई वीआईपी क्‍यों ना हो, सभी पहले श्रम-दान करें फिर दर्शन करें।
धन्यवाद।

Satish Saxena said...

आप ठीक कह रही हैं मगर मानेगा कौन ....?
शुभकामनायें आपके संवेदनशील दिल को !!

डॉ टी एस दराल said...

हम तो आपसे पूर्णतया सहमत हैं जी ।
आदमी अपने स्वार्थ में पड़कर मांगता है ।
जो मिला है उससे संतुष्ट नहीं , उसे चाहिए और और और ।
यह तृष्णा कभी पूरी नहीं होती ।

naresh singh said...

जो आपसे बड़ा है उससे माँगा जा सकता है | भगवान हम से बड़े है | आपके विचारों से सहमत है इसलिए मै इस प्रकार की जगह पर जाने से बचता हूँ |

प्रवीण पाण्डेय said...

श्रद्धावत कर्म निरत हों।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

‘मुझे तो लगता है कि ऐसे स्‍थानों पर कुटीर उद्योग खोल देने चाहिए और प्रत्‍येक भक्‍त को वहाँ निश्चित समय और श्रम-दान अनिवार्य कर देना चाहिए।’

पुट्टापर्ति में सत्य साईबाबा के आश्रम में कई वरिष्ठ अधिकारी, डॊक्टर आदि श्रम दान देते हैं और उनका अस्पताल भारत के सर्वश्रेष्ठों में गिना जाता है॥

मनोज कुमार said...

अच्छे भाव लिए प्रेरक पोस्ट।

राज भाटिय़ा said...

अजित गुप्‍ता जी मेरे से ज्यादा तर लोग बस इसी बात से नाराज हो जाते हे, मै कभी मंदिर नही जाता, लेकिन हर रोज भगवान को धन्यवाद देता हुं अपने बीते आज का, बाकी तो कर्म करेगे तभी फ़ल मिलेगा,मुझे तो कई बार लगता हे हम सब एक पाखंड करते हे भगवान के नाम से, अगर सही मे उस को मानते तो सब से पहले उस का कहना मानते, लेकिन हम नालायक बेटे की तरह से अपने सार्टीफ़िकेट मे तो बाप का नाम मजबूरी मे लिखेगे(वर्ना हरामी कहलायेगे) लेकिन उस बाप का कहना नही मानेगे... इस लिये आज के युग मे मुझे मंदिरो मे ना तो यह पुजारी ही श्रद्धालू लगे ना ही यह भीड, बस देखा देखी का मेला हे ओर निकम्मे लोगो का रेला हे, कर्म करने वाले के पास तो समय ही नही इस फ़ालतू बकवास के लिये

Atul Shrivastava said...

कर्म के बिना तो भगवान भी कुछ नहीं देता, लेकिन भगवान के दरबार में फिर भी लोग जाते हैं। शिरडी हो या तिरूपति या फिर वैष्‍णवदेवी। मक्‍का हो या अजमेर शरीफ। स्‍वर्ण मंदिर हो या फिर सोमनाथ। हां इतना जरूर है कि धार्मिक स्‍थलों में जाने वालों को मन भी साफ रखना चाहिए और उस दरबार की देखरेख करने वालों को अमीर गरीब में भेद नहीं करना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। तो क्‍या ये भगवान की मर्जी है, नहीं, ऐसा होता तो भगवान कृष्‍ण सुदामा की कुटिया में नहीं जाते।
बहरहाल, आपने जो मुददा उठाया है मैं उसका समर्थन करता हूं।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बिल्कुल सही कह रही हैं आप ..... इन विचारों से सहमत भी हूँ और हैरान भी हूँ की यात्रा के दौरान भी कितना सुंदर चिंतन चल रहा था आपके मन में..... कर्म की महत्ता सबको समझना जरूरी है....

Sushil Bakliwal said...

शायद आम आदमी जहाँ समृद्धि मांग रहा है वहीं सोने-चांदी व लाखों के चढावे चढाने वाले अपने पापों से मुक्ति मांग रहे हैं । जुदा वात ये है कि जिनके समक्ष ये दो नंबर के धन का ढेर लगाये दे रहे हैं वे सांई बाबा अपनी पूरी जिन्दगी स्वयं निर्धनता में प्रेमपूर्वक गुजारने के साथ ही निर्धन लोगों के बीच ही अपना प्रेम लुटाते रहे जबकि आज एक तरफ ये धर्म के ठेकेदार उनके नाम पर करोडों जमा किये जा रहे हैं तो दूसरी ओर दो नंबरी सामर्थ्यवान इस दान के द्वारा स्वयं को पापमुक्त होने का संतोष वहाँ से बटोरने में लगे हैं । कर्म की प्रधानता तो इन सबमें गौण हो गई लगती है ।

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

आज ४ फरवरी को आपकी यह सुन्दर भावमयी विचारोत्तेजक पोस्ट चर्चामंच पर है... आपका आभार ..कृपया वह आ कर अपने विचारों से अवगत कराएं
आज रूपचन्द्र शास्त्री जी का जन्मदिन भी है..
http://charchamanch.uchcharan.com/2011/02/blog-post.html

DR. ANWER JAMAL said...
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DR. ANWER JAMAL said...

एक ऐसी जगह जहां न कोई मूर्ति है और न ही आडम्बर
प्रभु पालनहार से मांगने की सबसे बड़ी चीज़ है उसका मार्गदर्शन । साईं बाबा भक्त हैं भगवान नहीं। आख़िर जब उन्होंने ख़ुद ईश्वर होने का दावा नहीं किया तो फिर उन्हें भगवान किसने और क्यों बना लिया ?
और आप जैसे पढ़े लिखे बुद्धिजीवियों ने भी उन्हें लोगों की ज़रूरतें पूरी करने वाला मान लिया ?
क्या आप नहीं जानतीं कि ईश्वर अजन्मा , अविनाशी और शाश्वत है ?
जिसमें ये गुण न हों वह सत्पुरूष कितना भी बड़ा क्यों न हो लेकिन ईश्वर नहीं हो सकता । जहां ईश्वर की पूजा होती है वहाँ आडम्बर नहीं होता और न ही वहाँ मूर्ति होती है , न पत्थर की और न ही सोने चाँदी की । ऐसी जगह केवल मस्जिद है और यही वह जगह है जहाँ इनसान को उसकी वाणी सुनने का सौभाग्य अनिवार्य रूप से मिलता है जिससे उसे मार्गदर्शन मिलता है जो कि सबसे बड़ी चीज़ है और इसी को पाने के बाद इनसान को वास्तव में पता चलता है कि उसे क्या करना चाहिए , कैसे करना चाहिए और क्यों करना चाहिए ?
इसी ज्ञान के बाद इनसान अपने मन की श्रद्धा का सही इस्तेमाल करने के लायक़ बनता है और नतमस्तक होने की रीति जान पाता है जिसका नाम है 'नमाज़'।
जब आप लोग सच से मुंह फेरकर जाएंगे तो फिर आप आडम्बर के सिवा कुछ और कैसे पा सकते हैं ?
Please think about it.

अजित गुप्ता का कोना said...

आप लोगों के विचारों से अवगत हुई। मैं आज शाम को मुरादाबाद जा रही हूँ इसलिए शेष चर्चा आकर ही सम्‍पन्‍न होगी। मैं सोमवार को वापस आ रही हूँ। आभार।

शोभना चौरे said...

आपने तो जैसे मेरे ही मन की बात कह दी |और आपका सुझाव शत प्रतिशत अनुकरणीय है |आपके विचारो से पूर्णतया सहमत |

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Di agar bhagwan prasad khane lage to koi prasad nahi chadhayega. .waise hi shram daan kar ke koi darshan nahi karega...:)

pichhle saal ham bhi gaye the shani signapur, Sirdi aur Trabakeshwar...:)

Kailash Sharma said...

आप की बात से पूर्णतः सहमत हूँ...अपना कर्म करते रहो ...भगवान से मंदिर में जा कर अपने मुंह से क्या मांगना, वह बिना कहे ही सब जानता है और बिना मांगे ही देता है. मैंने भारत के कोने कोने में बहुत प्रमुख मंदिरों में दर्शन किये हैं, पर कहीं पर कुछ विशेष माँगने का दिल नहीं किया. हमेशा यही कहा कि तुझे पता है मुझे क्या चाहिए, मैं अपने मुख से क्यों कहूँ. और मुझे हमेश सब कुछ मिला है. आज भगवान के मंदिरों को भी व्यापार का अड्डा बना दिया है, यह देख कर दुःख होता है. साईं बाबा ने कभी नहीं चाहा होगा कि उन्हें चांदी के सिंहासन पर बिठाया जाए या सोने का मुकुट लगाया जाए. यह पैसेवालों का अपनी भक्ति दिखाने का एक भोंडा प्रदर्शन है.

Amrita Tanmay said...

इसीलिए हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि ..यह धरती कर्मक्षेत्र है ...कर्म ही सच्ची पूजा है . सुन्दर पोस्ट

डॉ० डंडा लखनवी said...

आदरणीय गुप्ता जी!
प्राय: जो सामने दिखता है उसे ही लोग सत्य समझ लेते हैं किन्तु व्यंग्यकार ऐसा नहीं करता है। वह पर्दे के पीछे झाँक कर वहाँ चल रहे पाखंड को उदघाटित करता है। आप के पास व्यंग्यकार की दृष्टि है जिसके कारण विसंगतियाँ साफ नज़र आ जाती हैं। ध्यान से देखें तो धर्म एक उद्योग / व्यवसाय का रूप ले चुका है। उप- भोक्ता होने के नाते प्रत्येक वस्तु को ह्म आँख-कान खोल कर बरतते हैं परन्तु धर्म की शरण में जाने वाले को अपने आँख-कान-मुख बंद रखने की सलाह दी जाती है। ऐसी सलाह के पालन पर उसे ठगना आसान हो जाता है। संसार में आँख-कान-मुख बंद किए व्यक्तियों की कमी नहीं है। कबीर ने यूँ ही नहीं कहा था-’दुनिया ऐसी बाँवरी, पत्थर पूजन जाय। घर की चकिया कोउ न पूजे. जीका पीसा खाय।’ पूजागृहों धन और पद के दखल पर प्रशंसनीय लेखन हेतु-साधुवाद!
सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी

रचना दीक्षित said...

शोर्टकट भी तो कोई चीज़ है. हर कोई ऐसे मौके की तलाश में रहता है. फिर चाहे वह भगवान के दर्शन ही क्यों न हों, श्रमदान शुरू हो गया तो लाइन ही नहीं बचेगी.

rashmi ravija said...

सचमुच...इस दिशा में कुछ तो करना चाहिए . सबकुछ तो अमीरों की सुविधा के लिए ही है...वे और भी अधिक अमीर होते जा रहे हैं.
लाखो का चढ़ावा भी वे बस स्वार्थवश ही चढाते हैं कि ,ईश्वर इस लाख को दो लाख में...करोड़ को दो करोड़ में बदल दे.
मन दुखी हो जता है यह सब देख सुन....कुछ ऐसे नियम होने ही चाहिए...बढ़िया सुझाव

दिगम्बर नासवा said...

हम सभी, हमारा समाज भी कर्म की प्रधानता को भूलता जा रहा है ... इन स्थानों में जेया कर उन उपदेशों को सुनते तो सभी है ,,,, पर दिल में कोई उतारना नही चाहता ...

सुनील गज्जाणी said...

अजित मेम !
नमस्कार !

बिल्कुल सही कह रही हैं आप , इन विचारों से सहमत भी हूँ और हैरान भी हूँ की यात्रा के दौरान भी कितना सुंदर चिंतन चल रहा था आपके मन में. कर्म की महत्ता सबको समझना जरूरी है!

उपेन्द्र नाथ said...

अजित जी बिल्कुल सही कह रही है आप. इस तरह का लाभ उठाकर तो खुद ही भगवान की नजरों में लोभी बन जाना है.

-सर्जना शर्मा- said...

आप के लेख पर तरह तरह की प्रतिक्रियाएं पढ़ने को मिली नास्तिक भी आस्तिक भी । ये बात तो मैं बी मानती हूं कि ज्यादातर मंदिरों के पुजारी पूरी तरह कर्म कांड में दीक्षित नहीं है संस्कृत आती नहीं है , लोभी है जो ज्यादा चढ़ावा चढ़ाता है उसे लड्डू , बरफी का प्रसाद देते हैं बाकी को कुछ दाने बूंदी के दे देते हैं । लेकिन इसका अर्थ ये तो नहीं कि भगवान के दर पर ही ना जाओ । दुनिया में सभ तरह की किताबें मिलती हैं लेकिन डिग्री लेने के लिए हमें स्कूल कॉलेज ,युनिवर्सिटी जाना पड़ता है । कुछ लोगों के कारण हम परमपिता परमेश्वर के प्रति अपनी आस्था और श्रद्धा कम नहीं कर सकते । सिस्टम में दोष हर जगह है फिर मंदिर उससे अछूते कैसे रह सकते हैं ।

Smart Indian said...

... इसके अलावा भगदड और अव्यवस्था के कारण अक्सर होने वाली मौतें! हे राम!

Dinesh pareek said...

बहुत सुन्दर अच्छी लगी आपकी हर पोस्ट बहुत ही स्टिक है आपकी हर पोस्ट कभी अप्प मेरे ब्लॉग पैर भी पधारिये मुझे भी आप के अनुभव के बारे में जनने का मोका देवे
दिनेश पारीक
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