Friday, April 5, 2019

इस बार वोट पकौड़ों के नाम

कहावत है कि दिल्ली दिलवालों की है, जब दिलवालों की ही है तो चटपटी होना लाजमी है। चटपटी कहते ही चाट याद आती है और चाट के नाम से ही मुँह में पानी आता है। मुँह में पानी आता है मतलब आपकी स्वाद ग्रन्थियाँ सक्रिय हो रही हैं। स्वाद ग्रन्थियाँ सक्रिय होती है तो जो भी खाया जाता है उसका पाचन आसान हो जाता है। अब इतिहास देखते हैं – दिल्ली साठ बार उजड़ी और इतनी बार ही बसी। कल एपिक चैनल देखते हुए बताया गया कि जब शाहजहाँ ने वापस दिल्ली को बसाया तो एक मंत्री ने उन्हें कहा कि आपने दिल्ली को बसा तो दिया है लेकिन यमुना का पानी तो पेट के लिये बहुत भारी है। अब! कोई उपाय शेष नहीं था, दिल्ली तो बस चुकी थी, लोगों के पेट भी खराब होने लगे थे। तब अनुभवी लोगों ने कहा कि यमुना के पानी से बचाव का एक तरीका है, हमारे खाने में चटपटे मसालों का समावेश होना चाहिये साथ में ढेर सारा घी। बस फिर क्या था, खट्टी-मीठी चटनियाँ बनने लगी, सब्जियाँ घी में बनने लगी। धीरे-धीरे चाट का स्वाद दिल्लीवालों की जुबान पर चढ़ने लगा। पुरानी दिल्ली चाटवालों से भर गयी, खोमचेवाले आबाद हो गये। यहाँ तक की पराँठेवाली गली तक बन गयी। आलू के पकौड़े, गोभी के पकौड़े, प्याज के पकौड़े, पनीर के पकौड़े, बस पकौड़े ही पकौड़े! हर खोमचेवाला कहता कि मेरी चाट नायाब है, बात सच भी थी क्योंकि सभी की चाट में कुछ ना कुछ अलग था। गली-गली में खोमचें वाले बिछ गये, जहाँ देखो वहाँ ठेले सज गये।
शाहजहाँ के दरबार में यमुनाजी के पानी को लेकर जो चिन्ता थी वह दूर हो गयी थी। लोगों को चाट का स्वाद इतना भा गया था कि अब बिना चाट के गुजारा ना हो। आज की दुनिया में जहाँ पानी के शुद्धिकरण के कई उपाय हैं लेकिन चाट को अपने जीवन के हटाने का कोई उपाय शेष नहीं है। दिल्ली जाइए, आप कितना भी कह दें कि सुबह नाश्ते में पकौड़े नहीं चाहिये लेकिन पकौड़े तो बनेगें ही और आप खाएंगे ही। लेकिन एक दिन अचानक ही एक बात हवा में तैरने लगी कि पकौड़े बनाना तो काम-धंधे की श्रेणी में ही नहीं आता। दिल्ली का वजूद तो पकौड़े के कारण ही है, यहाँ न जाने कितने परिवार इसी धंधे में करोड़पति हो गये, अब कहा गया कि यह तो धंधा ही नहीं है। तो धंधा क्या होता है सिरफिरे भाइयों? राजा द्वारा बांटी गयी मुफ्त की खैरात पर पलने का नाम धंधा है जो अभी तुम्हारे आका ने घोषित किया है कि मेरा राज आएगा तो सभी को खैरात मिलेगी। अरे छोड़िये राजनीति की बात, कहाँ चाट का मजा आ रहा था और कहाँ पकौड़े याद आ गये और पकौड़े याद आते ही लोगों की जहर बुझी बातो याद आ गयी। बस जुबान का स्वाद ही खराब हो गया। अभी कुछ दिन पहले की ही बात है, एक रेस्ट्रा में गये, स्टार्टर देखे, लेकिन कोई भी पसन्द का नहीं था। पूछा कि पकौड़े टाइप कुछ है क्या? मासूम सा मुँह बनाकर मना कर दिया, मुझे लगा कि यह कमबख्त भी पकौड़े को लेकर दुश्मनी निकालने वालों में से दिखता है! अब भारत में तो पकौड़े ही चलते हैं, भाँत-भाँत के पकौड़े, हर मौसम में खिला लो, पसीने बहते जाएंगे लेकिन पकौड़े के लिये कोई मना नहीं करेगा। भारी पानी की ऐसी की तैसी, पकौड़े के साथ खट्टी-मीठी चटनी तो पेट सही ही सही।
अब राजनीति करने वालों देख लो तुम्हारे आका कितने ज्ञानवान हैं! जिस दिल्ली की बुनियाद ही चाट-पकौड़े पर पड़ी हो, वहाँ यह कहना कि पकौड़े बनाना भी कोई धंधा होता है, है ना बेवकूफी की पराकाष्ठा! लेकिन चुनाव आ गये हैं, ऐसे अक्ल के पैदल लोगों को जवाब देने का समय आ गया है। पकौड़े खाइए, पकौड़े को धंधा बनाइए और जो पकौड़ों की खिल्ली उड़ाए उसे लात मारिये। समझ गये ना। दिल्ली दिलवालों की ही है, दिलजलों की नहीं है। यमुनाजी का पानी पीना है तो पकौड़े खाना ही होगा। इस बार वोट पकौड़ों के नाम।