Friday, July 7, 2017

चक्कर देता साहित्य

जब मैं नौकरी में थी तब का एक वाकया सुनाती हूँ। कॉपियों का बण्डल सामने था और उन्हें जाँचकर भेजना भी था। लेकिन कहीं से भी आशा की किरण दिखायी नहीं दे रही थी। अब कितनों को फैल करेंगे? आखिर बेमन से जाँच होने लगी, लेकिन यह क्या! एक कॉपी पर कुछ वाक्य पढ़े गये, वही वाक्य बार-बार दोहराए जा रहे थे। लगा कि कुछ ठहरना ही पड़ेगा। छात्र की चालाकी देखिये कि उसने 3-4 वाक्य अनर्गल से ले लिये थे और उन्हें वह बार-बार लिख रहा था। पूरी कॉपी इसी से भरी थी। सच मानिये कि आधा पेज पढ़ते ही चक्कर आने लगे जैसे घुमावदार रास्ते पर चलते हुए आपको चक्कर आने लगते हैं। ऐसा ही कुछ सोशल मीडिया  पर हो रहा है। आप एक-एक शब्द को अच्छी तरह से पढ़ लीजिये लेकिन क्या मजाल जो आपको समझ आ जाए कि बन्दा/बन्दी कहना क्या चाह रही है। आप उसके मन की थाह पकड़ ही नहीं सकते। मैं सारा दिन पेज पलटती हूँ लेकिन बस कुछ लोग ही समझ आते हैं। मैं गैंहू में से कंकर नहीं अपितु कंकर में से गैहूँ निकालती हूँ।
ब्लाग पर वापस आओ कि राम-धुन चल रही है, मैं वहाँ पहले भी जाती थी और अब भी जा रही हूँ लेकिन गोल-गोल घुमावदार पहाड़ियों से  ही सामना होता है। कुछ लोग अभी भी असहिष्णुता के दौर में ही चल रहे हैं और अब गोल-गोल घूमकर अपनी बात कह रहे हैं। इस गोलाई के कारण कोई सिरा पकड़ में ही नहीं आता। साहित्य के जितने आयाम है, उनका उपयोग सभी करते हैं, लेकिन जो सबसे जरूरी वस्तु है, बस वही गायब है। साहित्य में यदि सामाजिक सरोकार ना हो तो वह कुछ भी नहीं है। लेकिन यहाँ का लेखक सबसे अधिक समाज से ही भाग रहा है, वह लिखना ही नहीं चाह रहा है, समाज का सच। उसने कपोल-कल्पित कहानियां गढ़ ली हैं, जो शायद ही किसी समाज की हो, उसे थोपने को ही साहित्य समझ बैठा है। प्रेम तो ऐसे टपक रहा है जैसे इस संसार में नर-मादा के प्रेम के अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं। नर-मादा का प्रेम नहीं होता यह तो प्रकृति जन्य है, प्रेम तो हमारे अन्दर का वह भाव है जो प्राणी मात्र के लिये  होता है। यहाँ एक हिंसक व्यक्ति या हिंसक समूह को भी इंगित नहीं किया जाता अपितु कहा जा रहा है कि तू ही हिंसक नहीं है, देख हम सब भी हिंसक है।

ऐसा साहित्य जो लोगों को दिशा ना दे सके, ऐसा साहित्य जो केवल भ्रमित करे, ऐसा साहित्य जो पाप और पुण्य को एक तराजू पर तौले, उसे कैसे साहित्य कह सकेंगे? मनोरंजन के लिये भी साहित्य  होता है और उसमें भी समाज की मनोदशा झलकती है। लेकिन यहाँ तो उसे भी घुमावदार रास्तों का खेल बना दिया गया है। जो बात पुरुष पर लागू होती है वह स्त्री पर लागू कर दी गयी है और जो स्त्री पर लागू होती है, वह पुरुष पर। सोशल मीडिया ना हुआ, आजादी हो गयी। हर कोई नारे लगा रहा है – हमें चाहिये आजादी। सारा दिन इन गलियों में घूमकर केवल खाक छानी जा रही है, भूसे से सुई ना कल मिली थी और ना आज मिल रही है। क्या इस भीड़ को भी कोई नियन्त्रित कर सकता है? क्या यहाँ भी कोई समीक्षक पैदा हो सकते हैं? या फिर वाह-वाह के समूहों में ही सिमटकर रह जाएगा, सोशल मीडिया का लेखन। 

www.sahityakar.com 

3 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

वर्तमान परिपेक्ष्य में जबकि सामाजिक मिडिया अनियंत्रित सा हो गया है, किसी को भी यहां भूसे के ढेर से सूई निकालने की कोई तरकीब नही मिलेगी, सब अपनी मर्जी के मालिक हैं, फ़िर भी कुछ आशाएं तो रखी ही जा सकती हैं, बहुत शुभकामनाएं.

रामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग

पुन: निवेदन : कृपया कमेंट बाक्स से कैप्चा हटा लिजीये, कैप्चा चार पांच भरना पडता है तब कमेंट हो पाता है.
सादर

vandana gupta said...

बहुत उठा पटक है हर जगह

अजित गुप्ता का कोना said...

Blogger ताऊ रामपुरिया - कल मैंने केप्चा के बारे में विस्तार से जानकारी ली। यह गूगल द्वारा लगाया गया है। सामान्य मानव को यह कोई तकलीफ नहीं देता, बस बताना होता है कि i am not a robot. लेकिन यदि आपके कम्प्यूटर पर व्यक्ति नहीं लिख रहा है और स्वचालित ही लिखा जा रहा है तो ही सिद्ध करना पड़ता है कि आप रोबोट नहीं है, एक इंसान ही हैं। इसलिये आप मानव रूप में अवतरित हो जाइये जिससे आप को कोई ना पूछे कि आप रोबोट तो नहीं?