Friday, October 1, 2010

गाँव में भी अभिजात्‍य बनने का शौक और खुलना प्राइवेट स्‍कूल का




आप सभी ने ग्रामीण परिसर के विद्यालय देखे होंगे। सरकारी विद्यालय - खेलने को बड़ा सा मैदान, बड़ी सारी बिल्डिंग और ढेर सारे अध्‍यापकगण। सारे ही अध्‍यापक शिक्षित व निपुण। बिना भेदभाव के ग्रामीण अंचल के सभी बच्‍चे वहाँ पढ़ने आते हुए। शहरों में भी ऐसे ही विद्यालय हैं। शहरों में पहले मिशनरीज ने और फिर अन्‍य व्‍यवसायियों ने प्राइवेट स्‍कूल खोलने शुरू किए। स्‍वयं को अभिजात्‍य वर्ग का बताने के लिए हम सभी ने अपने बच्‍चों को इन स्‍कूलों में पढ़ाया। शायद ये स्‍कूल शहर की जरूरतें भी पूरा कर रहे हों, क्‍योंकि हमारी जनसंख्‍या को देखते हुए सरकारी स्‍कूल आज भी पर्याप्‍त नहीं है। आप सोचिए कि अभी तक भारत में 55 प्रतिशत लोग ही शिक्षित हैं तथा इनके लिए भी सरकारी और गैर सरकारी प्रयास पूरे नहीं है तो जब 100 प्रतिशत शिक्षा हो जाएगी तब कितने विद्यालयों की आवश्‍यकता रहेगी? इसलिए शहरी क्षेत्र में ये गैर सरकारी विद्यालय यदि शिक्षा प्रदान भी कर रहे हैं तो हमारे समाज में अभिजात्‍य और गरीबी की इतनी बड़ी खाई नहीं खिंच पाती है क्‍योंकि यहाँ पहले से ही ऐसी खाइयां हैं। लेकिन अभी तक ग्रामीण अंचल में ऐसी खाइयां बहुत ही कम है। बस कहीं-कहीं दलित समाज की उपेक्षा अवश्‍य होती है।
मेरा इस आलेख के माध्‍यम से यह कहना है कि गैर सरकारी विद्यालय या प्राइवेट स्‍कूल आज अभिजात्‍य वर्ग की पहचान बनते जा रहे हैं। यह पहचान शहरी सीमा तक तो समझ आती है लेकिन यह पहचान या यह खाई गाँव में भी बन जाए तो प्रश्‍न शोचनीय है। कल मुझे एक गाँव में जाना था, एक कार्यक्रम के निमित्त चार विद्यालयों में। मैं यह भी बता दूं कि कुछ लेखकीय शौक से ज्‍यादा मुझे सामाजिक कार्यों में रुचि है और समाज और देश की उन्‍नति के लिए बीस वर्षों से कार्य भी कर रही हूँ। इसके लिए अपनी नौकरी को भी छोड़ा है। बस एक ही इच्‍छा है कि कैसे भी अपना देश संस्‍कारित और उन्‍नत बने। खैर मैं विद्यालयों के बारे में लिख रही थी तो उनमें से तीन सरकारी थे और एक गैर सरकारी। सरकारी तीनों ही विद्यालय साधन सम्‍पन्‍न थे जैसा मैंने ऊपर की पंक्तियों में लिखा है लेकिन प्राइवेट स्‍कूल एक पुराने मकान में ही संचालित था। व़हाँ बेहतर सुविधा देता हुआ प्राइवेट स्‍कूल नहीं था। तब क्‍यों वहाँ प्राइवेट स्‍कूल सफल हो रहा है? मुझे लगता है कि यह अभिजात्‍य की बीमारी हमारे ग्रामीण अंचल तक भी जा पहुंची है और एक ही परिवार और मोहल्‍ले के बच्‍चे अभिजात्‍य की सोच में बंट गए हैं। परिणामत: अभिभावको पर अतिरिक्‍त आर्थिक बोझ। यह मानसिकता कहीं न कहीं हीन भावना और उच्‍च भावना को जन्‍म देती है और हम बच्‍चे का विकास समुचित प्रकार से नहीं कर पाते।
मुझे अपना बचपन ध्‍यान आता है जब हम सब सरकारी विद्यालयों में पढ़ते थे और कभी भी हीन भावना क्‍या होती है दिमाग में आती ही नहीं थी। सारा समाज ही एक था लेकिन जैसे-जैसे प्राइवेट स्‍कूल खुलते गए वैसे-वैसे समाज बँटता चला गया। अब यह प्रक्रिया ग्रामीण अंचलों तक भी जा पहुंची है तो मन में प्रश्‍न जरूर खड़े होते हैं कि यह ठीक है या गलत? शिक्षा प्रणाली को लेकर बहुत सारे मतभेद हैं लेकिन मुझे लगता है कि अभी ग्रामीण अंचलों में अभिजात्‍य मानसिकता का निर्माण होना ठीक नहीं है। हो सकता है कि आपके विचार मुझ से पृथक हों लेकिन मैं सभी के विचारों का स्‍वागत करती हूँ। बस सीधा सा प्रश्‍न यही है कि क्‍या भारत के गाँवों में प्राइवेट स्‍कूल खुलने चाहिए या नहीं? बस एक निवेदन और है कि प्रश्‍न को गाँवों की जाति व्‍यवस्‍था या भारत की दयनीय स्थिति से मत जोडि़एगा। नहीं तो वही होगा कि आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। मेरा और आपका उद्देश्‍य भारत का निर्माण है, इसलिए आपकी राय मेरे लिए मायने रखती है।     
  

33 comments:

निर्मला कपिला said...

ाजित जी विषय तो बहुत अच्छा उठाया है। मगर मेरा विचार है कि चाहे गाँव हो या शहर पढाई सब जगह एक जैसी होनी चाहिये ताकि लोग प्राईवेट स्कूलों की तरफ न भागे और गाँव का होनहार विद्यार्थी भी शहर मे जा कर खुद को दीन हीन न समझे। अब यहाँ सवाल ये भी है कि अगर गाँव के बच्चे भी शहर के बच्चों की तर्ज़ पर नही पढेंगे तो बराबर कैसे आयेंगे। जरूरत है अपनी शिक्षा प्रणाली मे सुधार की। ताकि सरकारी स्कूलों की और प्राईवेट स्कूलों की पढाई मे अन्तर न रहे । फिर आपने देखा ही होगा आज कल के सरकारी स्कूलों का हाल क्या है? सरकार जितनी भी सुव्धायें दे मगर पडःअना तो हम आप जैसे लोगों ने? क्या पढाते हैं कुछ अपवाद छोड कर। बाकी आपका तज़रुबा अधिक है इस क्षेत्र मे। धन्यवाद

अजित गुप्ता का कोना said...

निर्मलाजी, मैंने लिखा है कि गाँव में सरकारी स्‍कूल ज्‍यादा सुविधा सम्‍पन्‍न हैं और प्राइवेट स्‍कूल जैसे-तैसे चल रहे है। केवल प्राइवेट स्‍कूल में पढाने की मानसिकता के कारण आर्थिक बोझ बढता है और अभिजात्‍य की खाई पैदा होती है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

वैसे तो मैं भी अशासकीय विद्यालय का संचालक हूँ! मगर हिन्दी माध्यम का चलाता हूँ!
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एक बात मुझे भीतर ही भीतर कचोटती रहती है कि भारत में दुरंगी शिक्षा प्रणाली क्यों है?
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क्या निम्न वर्ग को प्राईवेट विद्यालयों में पढ़ने की लालसा नही है! यदि है तो फिर सरकारी और गैरसरकारी स्कूलों में पाठ्यक्रम में अन्तर क्यों है!
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इससे अच्छा तो यही है कि या तो सरकारी विद्यालय बन्द कर दिये जाये या क्षतिपूर्ति सरकार सभी विद्यालयों को देकर समान पाठ्यक्रम लागू करे!
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या सभी सरकारी और गैर सरकारी विद्यालय बन्द कर दिये जाये और ट्यूशन की दूकाने ही हों और परीक्षाएँ हो!
कम से कम योग्यता का तो आभास होगा!
इससे धन का वर्चस्व भी सामने आयेगा!
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यह केवल मेरे व्यक्तिगत विचार हैं!

समयचक्र said...

"मुझे अपना बचपन ध्‍यान आता है जब हम सब सरकारी विद्यालयों में पढ़ते थे और कभी भी हीन भावना क्‍या होती है दिमाग में आती ही नहीं"
बहुत सही लिखा है आपने....तत्समय और आज में काफी फर्क आ गया है .... शिक्षा को व्यवसायिकता के नजरिये से तौला जाने लगा है ... बढ़िया आलेख...आभार

डॉ टी एस दराल said...

अजित जी , हम तो सरकारी स्कूल में पढ़े --गाँव में भी और शहर में भी । लेकिन अब यहाँ कोई सोच भी नहीं सकता कि बच्चों को सरकारी स्कूल में पढाया जाए । गाँव में सभी लगभग एक ही वर्ग के लोग होते हैं । लेकिन
आधुनिकता की हवा तो वहां भी चल पड़ी है । शायद समय के साथ चलना ही सही है ।

संगीता पुरी said...

बिहार और झारखंड में तो सरकारी विद्यालय किसी काम के नहीं .. वैसे में प्राइवेट विद्यालयों में पढाना अभिभावकों की मजबूरी है .. पर यदि सरकारी सुविधासंपन्‍न स्‍कूल मौजूद हो .. तो सिर्फ अभिजात्‍य बनने के लिए प्राइवेट स्‍कूलों में बच्‍चों को पढाकर अपनी जेबें ढीली करने का क्‍या फायदा ??

राज भाटिय़ा said...

अजित जी मै सरकारी स्कुल मै पढा हुं, मेरे बच्चे भी यहां सरकारी स्कुल मै ही पढते है, मेरे क्या यहां ९९% बच्चे सरकारी स्कुल मे ही पढते है, लेकिन भारत मै आज ही नही पहले भी लोगो को प्राईवेट स्कुल या जिस स्कुल का नाम ईसायो के नाम से हो वहां अपने बच्चो को पढाना एक तरह से सम्मान समझा जाता है, ओर यह हमारी मानसिकाता को दर्शाता है, भारत मै हमारे घर पर एक महिला घर का काम करने आती थी, क्योकि मां से ज्यादा चला नही जाता था, उस के बच्चे सरकारी स्कुल मै ही पढते है, ओर दोनो भाई बहिन पुरे सकुल मै ही नही शहर मे भी पहले ना० पर थे, ओर प्राईवेट स्कुल मै पढने वाले बच्चो के मां बाप अकड से कहते है कि हमारा बच्चा फ़लां फ़लां स्कुल मै पढता है, कई बार फ़ेल हुआ, तो मां बाप बडी बेशर्मी से कहते है तो क्या हुआ १२ वी मै ५००० रुप्ये एकस्ट्रा देगे वो नकल मरवा कर पास करवाने की गारंटी लेते है, हमारी मानसिकात कब बदलेगी?? पता नही

Manoj K said...

यह मानसिकता शहर से होकर गाँव में पहुंची है. टाइ लगाकर जूते मोज़े पहनकर बच्चे स्कूल जाते माँ पिता को बहुत अच्छे लगते हैं... पर पढाई के नाम पर क्या हो रहा है..

वैसे सरकारी स्कूल में अध्यापक और सरकारी हॉस्पिटल में डॉक्टर 'वेल क्वालीफाईड' होते हैं, क्योंकि वहाँ तक पहुँचने के लिए बहुत सी परीक्षाएं और इंटरव्यू पास करने होते हैं, पर सरकारी स्कूल में और प्राइवेट हॉस्पिटल सिर्फ दुकानें भर बन के रह गए...

उम्मीद फिर भी कायम है...

प्रवीण पाण्डेय said...

यदि आर्थिक रूप से वहन कर पायें तो क्यों नहीं।

ताऊ रामपुरिया said...

असल में आज शिक्षा एक व्यापार बन गई है और व्यापारी को जहां फ़ायदा होगा वहां से कमायेगा, आज प्राईवेट स्कूलों के विज्ञापन जिस स्टाईल में आते हैं उसे देखकर गरीब से गरीब आदमी भी अपने बच्चों को इन स्कूलों मे ही भेजना चाहता है.

आजकल शहर के सौ दो सौ किलोमीटर के आसपास के गांवों के पालक छोटे छोटे बच्चों को पेट काटकर भी शहर के प्राईवेट स्कूलों के, बिना सुविधा वाले होस्टल्स में डालकर पढा रहे हैं. इससे ज्यादा घिनौनी और गंदी बात क्या होगी कि आज शिक्षा को व्यापार बना कर बच्चों से भी उनका बचपन छीन लिया गया है.

आज एक डाक्टर इंजीनीयर बनाने के लिये पालकों की जमा पूंजी तो छोडिये बल्कि जमीन भी बिक जाती है. स्कूलों की भी फ़ीस इतनी है कि कैसे बच्चों को पढाया जा सकेगा?

यह दो रंगी नीती है और एक दिन बगावत होकर रहेगी. यह पक्का है. आज के समय शिक्षा का जो पेटर्न है मैं उसकी जमकर निंदा करता हूं और जो भी इसके लिये जिम्मेदार है उसकी हाय हाय,मुर्दाबाद करता हुं.

एक देश, एक शिक्षा निती होनी चाहिये.

रामराम.

Satish Saxena said...

शिक्षा का व्यवसायीकरण तो लगभग हो ही चुका है इस स्थिति के होते स्थिति निराशाजनक ही रहेगी बेहतर होगा कि सरकार आगे आकर कुछ मोडल स्कूल खोले खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में ....
शुभकामनायें .

Rohit Singh said...

कई सरकारी स्कूलों के रिक़ॉड बेहतर हैं। हर बड़ा कॉलेज सरकारी है। पर हमारी मानसिकता अब तक नहीं बदली। मेरे घर से महज चंद कदम की दूरी पर एक सरकारी प्राथमिक स्कूल है। मैं खुद छह महीने उसमें पढ़ चुका हूं। उस वक्त कई बच्चे थे हमारी कॉलोनी के। पर अब एक भी नहीं।
गांव में शिक्षा के लिए अपनी जमीन पर 12वीं तक का स्कूल बना कर पिताजी ने सरकार के हवाले कर दिया था। पूरा गांव साक्षर हो गया था। पर गांव वालो की मानसिकता से आज वो स्कूल दसवीं तक का रह गया है और पिताजी का मोहभंग गांव की मानसिकता से दो दशक पहले ही हो गया था।

वाणी गीत said...

सरकारी और गैरसरकारी दोनों ही तरह के विद्यालयों में पढने या अनुभव रहा है ...जैसा हमने सरकरी विद्यालयों में पढ़ा , वह आजकल निजी विद्यालयों में भी नहीं है ....विद्यार्थियों के प्रति जो निष्ठा शिक्षकों में तब थी , अब बहुत कम है ...
आजकल अभिभावकों को संतुष्टि पैसा खर्च करने में होती है ..गैरजरूरी हो तब भी ...कही न कहीं वे अपने बच्चों को वो सब देना चाहते हैं जो उन्हें अपने जीवन में नहीं मिला ...
आज शिक्षा सिर्फ ऊँची डिग्रियां हासिल करने पर केन्द्रित हो गयी है , नैतिक शिक्षा के कोई मायने नहीं है ...इसके परिणाम हमें नजर आ ही रहे हैं ...बच्चों का दोष नहीं है ...वे वही कर रहे हैं जो हम सिखा रहे हैं ..शायद मैं विषय से भटक रही हूँ !

ASHOK BAJAJ said...

बेहद सुन्दर पोस्ट बधाई .

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अजीत जी ,

आपने सरकारी और निजी विद्यालयों की बात कही है ..दरअसल सरकारी नौकरी मिल जाने पर लोंग अपनी ज़िम्मेदारी निबाहना भूल जाते हैं ...निजी विद्यालयों में शिक्षक पर मालिकों का दवाब बना रहता है और वहाँ पर पढाई ठीक से कराई जाती है ..और फिर आज भी जीविकोपार्जन के लिए अंग्रेज़ी भाषा बहुत महत्त्व रखती है...इसलिए अंग्रेज़ी माध्यम से ही लोंग अपने बच्चों को शिक्षा दिलवाना चाहते हैं ...
सरकार की नीतियों के चलते सरकारी स्कूलों में कैसे अध्यापकों की नियुक्ति होती है यह किसी से छुपा नहीं है ..मैं स्वयं केन्द्रीय विद्यालय में काम कर चुकी हूँ ...साठ प्रतिशत अध्यापक बस टाइम पास करते हैं ..वैसे आज कल काफी बदलाव आया है ...शिक्षा की क्वालिटी पहले से बेहतर हुई है ...सरकारी विद्यालयों के परीक्षा परिणाम भी इस ओर इंगित करते हैं ..
लेकिन निजी विद्यालयों और सरकारी विद्यालयों में पढने वालों के बीच एक खायी तो बन ही रही है ...इसको तब ही कम किया जा सकता है जब पाठ्यक्रम एक ही हो ..

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

अभिजात्य दौड़ में शिक्षा पिछे रह गई॥

rashmi ravija said...

यहाँ मुंबई में कई सरकारी स्कूल( म्युनिसिपल स्कूल नहीं) हैं,जिनकी फीस आज भी ५,६ रुपये हैं और बहुत अच्छी पढ़ाई भी होती है...मेरे आस-पास के सारे बच्चे चाहे वो GM के हों या क्लर्क के...उस स्कूल में पढ़ते हैं..कई टी.वी. कलाकार, बड़े ऑफिसर भी उस स्कूल के पढ़े हुए हैं. मैं अपने बच्चों को इसलिए उस स्कूल में नहीं डाल सकी क्यूंकि मैं पहले दूसरी जगह रहती थी .

अगर स्कूल में अच्छी पढाई हो तो मुझे नहीं लगता,अधिकाँश अभिभवकों को कोई परहेज़ होगा.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

ममा... हम भी सरकारी स्कूल में ही पढ़े हैं..... पर यह है की हमारा सरकारी स्कूल सेंट्रल स्कूल यानी की केंद्रीय विद्यालय था.... और सेंट्रल स्कूल की बराबरी शायद ही दुनिया का कोई स्कूल कर सकता है.... और फीस भी बहुत कम.... और क्वालिटी वर्ल्ड क्लास की... वैसे कुछ प्राइवेट स्कूल भी अच्छा काम कर रहे हैं...

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

"इस आलेख के माध्‍यम से यह कहना है कि गैर सरकारी विद्यालय या प्राइवेट स्‍कूल आज अभिजात्‍य वर्ग की पहचान बनते जा रहे हैं। यह पहचान शहरी सीमा तक तो समझ आती है लेकिन यह पहचान या यह खाई गाँव में भी बन जाए तो प्रश्‍न शोचनीय है।"

सही मायने मे आरक्षण की जरुरत यहा थी,वह भी कागजी नही बल्कि जो सब्सिदी के नाम पर अरबो रुपये खर्च किये जाते है, सर्कार उस पैसे को यहा इन्की पढाई पर लगाये !

रेखा श्रीवास्तव said...

अभिजात्य वर्ग के सूचक ये प्राइवेट स्कूल गाँव में अधिक सफल हो रहे हैं क्योंकि शहर में तो इनमें भी बहुत प्रतियोगिता है. गाँव में सुविधाभले ही कम ho लेकिन गाँव में भी लोग प्राइवेट स्कूल में पढ़ा कर सोचते हैं की मेरा बच्चा कुछ विशेष सीख रहा है. वहाँ के भोले लोगों को बरगला कर ही ऐसे स्कूल अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं. वैसे राजस्थान में तो मैं नहीं जानती लेकिन यहाँ सरकारी स्कूलों की हालत बेहद ख़राब है.

Khushdeep Sehgal said...

जिस दिन हमारे देश के नीतिनियंताओं को ये बात समझ आ जाएगी कि शिक्षा से बड़ा निवेश और कोई नहीं होता, उस दिन से इस देश की सारी समस्याएं मिटनी शुरू हो जाएंगी...जर्मनी में अमीर-गरीब हर किसी के बच्चे को शिक्षा का पूरा अधिकार है...माता-पिता अगर शिक्षा का खर्च उठाने लायक नहीं है, उन्हें बस लिख कर देना होता है...बच्चे की शिक्षा का सारा खर्च सरकार उठाती है...फिर जब वो बच्चा बड़ा होकर नौकरी करने लगता है तो किश्तों में अपनी शिक्षा पर हुआ खर्च सरकार को लौटाना शुरू कर देता है...फिर उसी पैसे को आगे गरीब बच्चों की पढ़ाई पर खर्च किया जाता है...ये चक्र चलता रहता है...आज भारत को भी ऐसी ही क्रांतिकारी योजनाओं और सोच की ज़रूरत है...

वैसे शहरों के फाइव स्टार स्कूलों की बात है तो वहां बच्चे पेप्सी-कोक के साथ मैकडॉनल्ड के बर्गर और फिंगरचिप्स खाते हुए खूब फल-फू......फू....ल रहे हैं...और बस पढ़ाई को सेलरी-पैकेज से जोड़कर इनसान नहीं रोबोट बनते जा रहे हैं...

जय हिंद...

दिगम्बर नासवा said...

ये और कुछ नही शिक्षा पद्धति का फ़र्क है .... सरकारी नीति को लेकर फ़र्क है ....
१. शहर मे एक प्राइवेट स्कूल के बाद दूसरे का लिसेँसे तभी मिलना चाहिए जब वो गाँव जा कर स्कूल खोलें, देखिए बदलाव होता है या नही .... ... २. शिक्षा का स्तर सब जगह सामान्य होना चाहिए और इस बात को बस सरकार ही नियंत्रित कर सकती है ... ३. सरकारी स्कूल का मेनेजमेंट प्राइवेट करना चाहिए ....

पूनम श्रीवास्तव said...

main aadarniy digambar nasawa ji ki baat se bilkul sahamat hun.
bahut hi vichar niya post.
poonam

पूनम श्रीवास्तव said...

main aadarniy digambar nasawa ji ki baat se bilkul sahamat hun.
bahut hi vichar niya post.
poonam

शोभना चौरे said...

अजितजी
हमारी पीढ़ी के ९९ प्रतिशत लोग सरकारी स्कूलों में पढ़े हुए है और उनमे से कई तो छोटे शहरों से पढ़े है तब उन शहरों में एक य दो मिशनरी स्कूल होते थे जिनका माध्यम अंग्रेजी होता था |धीरे धीरे अंग्रेजी में पढ़ाने कि मानसिकता बढती गई जिसमे हम आप सभी शामिल हो गये तब हम शिक्षा प्रणाली के बारे में नहीं सोचते थे हम चाहते थे थे बस हमारा बच्चा टिप टाप बनकर पढने जाय और गिटिर पिटिर अंग्रेजी बोले आज यही मानसिकता गाँवो में भी आ गई है गाँव क्या ?शहर में कितने लोग सरकारी स्कूलों में पढने भेजते है ?फिर क्या सब सरकारी स्कूलों में साधन उपलब्ध है ?
और आज निम्न वर्ग कि महिलाये घर घर काम कर करके निजी स्कूलों में बच्चो को पढ़ाने भेजती है सिर्फ स्टेट्स के खातिर |
तथाकथित विकास विज्ञापन के द्वारा जब गाँवो में पहुँच गया है है तो तो ये भी तो विकास कि प्रथम सीढ़ी है ?
अगर उच्च शिक्षा के सरकारी संस्थानों में अनिवार्य हो कि सरकारी स्कूल के बच्चो को ही प्रवेश मिलेगा तब देखिये सरकारी स्कूलों कि शिक्षा और निजी स्कूलों कि शिक्षा का अंतर |
पहले विकास का मापदंड तो निर्धारित हो ?
रही अभिजात्य बन्ने कि महत्वाकांक्षा तो उन्हें भी अधिकार है इसका |

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा पोस्ट, सटीक विश्लेषण...

सुनील गज्जाणी said...

''अजित मेम
प्रणाम !
इक प्रकार से देखा जाए तो ये यक्ष प्रशन से कम नहीं है हम ही अच्चेयों को बढ़ावा देते है और बुराइयों को भी ,बच्चो को हिंदी कि बजाय इंग्लिश में बात करने का कहेगे , बहस करना आसान है मगर अमल करना थोडा मुश्किल , ये मेरा मानना है ने पता नहीं ,
धन्यवाद

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

अजित जी... हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा है .. और हमें विश्व से भी जुड़ कर देखना है .. ऐसा माता पिता आज सोचते है की बच्चे को हिंदी इंग्लिश दोनों भाषाओ का ज्ञान हो .. अतः वो ऐसे स्कूल में बच्चे को ले जाना चाहते है जहा प्रारंभिक शिक्षा में दोनों भाषाए हों... और अगर गाँवों में कोई व्यक्ति प्राईवेट स्कूल खोलता है.. और बेहतर सुविधा देता है और साथ में १०-१२ लोगो को रोजगार भी देता है तो उसको प्रोत्साहित करना चाहिए... नहीं तो सिर्फ सरकारी तंत्र के भरोसे रहा जाए तो देश की प्रगति संभव नहीं...और कम से कम ५० प्रतिशत लोग बेरोजगार हो जाएँ... आपने बिलकुल सही कहा .. मानसिकता में बदलाव आना चाहिए अभिजात्य वर्ग या वर्गों के हिसाब से शिक्षा का बटवारा ना हो और ना ही बच्चो में इस तरह की दुर्भावनाए आये | इसके लिए माता पिता को कृतसंकल्प लेना होगा की बच्चो को इस तरह की मानसिकता से बचाए... और हां सरकारी और गैरसरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर/ और सेलेबस एक हो...

सदा said...

बहुत ही सटीक एवं सार्थक प्रस्‍तुति, गांवों में कुछ सरकारी स्‍कूलों में पढ़ाई अच्‍छी होती है, और कहीं तो बिल्‍कुल नहीं होती, या फिर कहीं शिक्षक भी लापरवाही करते हैं, और तब छात्र का विकास रूक जाता है, माता-पिता आर्थिक रूप से सम्‍पन्‍न हों या न हों बच्‍चों का भविष्‍य संवारने की चाह में वे निजी स्‍कूलों की शरण में जाने को विवश हो जाते हैं, हालांकि यह विषय ऐसा है कि इस पर सबके अपने-अपने अनुभव हैं, सुन्‍दर लेखन के लिये आभार सहित शुभकामनायें ।

vivek mishra said...

aap humaare group blog par barrabar aakar ladkon ka hausla badha rahee hain iske liye dhanyavaad isee tarah nav patrakaaron ko cavs today par apnee tipaadi se gyaan dete rahiye..aur naye ladke jo thoda sahi thoda galat likhne kee kosish kar rahe hai unkeee hausla afzai kariye ...aapke blog ka content dekhkar kaafi achaa laga..aage shabdon kee duniya me aap yun hee age badhe..vivek mishra prabhat khabar patna

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

निजी स्कूलों का खुलना संभवतः गलत न होगा, यदि उद्देश्य घोर व्यावसायिक न हो कर शिक्षा का प्रसार संस्कार और संस्कृती का परिरक्षण ho तथा we शिक्षा के लिए आवश्यक मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती में सक्षम हो. पता नहीं आपको जानकर कैसा लगेगा कि अधिकाँश छोटे छोटे स्कूलों में शिक्षण सत्र में शिक्षक बदलते रहते हैं. शिक्षकों का वेतन एक हजार रुपयों से भी कम होता है. ऐसे स्कूलों में शिक्षण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अपने आप में एक पृथक प्रश्न है.
शाश्कीय स्कूलों में भी शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता में कमी नज़र आती है. वैसे एक बात पक्की है कि शिक्षा के प्रति हमारे देश के दृष्टिकोण में महती बदलाव की आवश्यकता है. और इस महत्वपूर्ण विषय पर गंभीर विचार मंथन किया जान चाहिए.

hem pandey said...

सरकार ने शिक्षा और चिकित्सा जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से लगभग पल्ला झाड़ लिया है | लोगों में केवल अभिजात्य बनने की होड़ नहीं है , बल्कि विकल्प की भी कमी है | शासकीय स्कूलों और चिकित्सालयों को बेहतर ही नहीं उत्कृष्ट बनाए जाने की आवश्यकता है |

Akshitaa (Pakhi) said...

मैं तो प्राइवेट स्कूल में पढ़ती हूँ. यहाँ अंडमान में सरकारी स्कूल अच्छे नहीं हैं.


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'पाखी की दुनिया' के 100 पोस्ट पूरे ..ये मारा शतक !!