Thursday, June 24, 2010

क्या आपका बच्चा potty trained है?

अमेरिका में रहते हुए एक दिन library जाना हो गया। पुस्तकों की एक रेक में दो तीन पुस्तकें बच्चों की पोटी ट्रेनिंग पर ही थी। बड़ा अजीब सा लगा कि इस विषय पर भी पुस्तक लिखी जा सकती है क्या? अभी प्रपोत्र 3 वर्ष का हुआ है तो उसके लिए स्कूल तलाश रहे थे, तब यह प्रश्न मोटे-मोटे अक्षरों में लिखित में पूछा गया था कि क्या आपका बच्चा potty trained है? क्या किसी भारतीय ने इस प्रश्न का सामना किया है? आप स्कूल में अपने बच्चे को भर्ती कराने गए हो और वहाँ यह पूछा गया हो कि क्या आपका बच्चा पोटी ट्रेन्ड है? हमारे जमाने में तो डिस्पोजल डायपर का भी चलन नहीं हुआ था। बस ऐसे diaper आ गए थे जिससे आप सुरक्षित रह सकते है। हम उन्हीं का प्रयोग करते थे लेकिन वे भी जब, जब कहीं बाहर जाना हो। मैं नौकरी करती थी और सुबह 8 बजे ही नौकरी पर जाना होता था। इससे पूर्व बच्चों के सारे ही नित्यकर्मो को निपटाना भी होता था। जब तक बच्चे छोटे थे तब तक सुबह उठते ही उन्हें पोटी करा दी जाती थी और जैसे ही छ:- सात महिने के होने लगे उनके लिए एक छोटी पोटी ले आए थे। क्यों कि पहले अधिकतर भारतीय प्रकार के ही शौचालय हुआ करते थे। बच्चे बहुत ही शीघ्र पोटी जाना सीख गए थे। सब कुछ खेल ही खेल में हो गया था। किसी किताब की तो कभी कल्पना ही नहीं थी कि इसके लिए भी किताब पढ़नी पड़ेगी? लेकिन अमेरिका में ऐसा नहीं है, बच्चों की पोटी माता-पिता का सरदर्द बनी हुई है। पैदा होने के साथ ही बच्चा डायपर का आदी होता है, अजी बच्चा क्या माता-पिता। बच्चें ने पोटी की है और कितने देर पहले की है, इसकी चिन्ता ही नहीं होती बस दो-चार घण्टे बाद ही डायपर अक्सर बदला जाता है। माता-पिता को भी सरलता लगती है कि कुछ नहीं करना पड़ता। बच्चा बड़ा होता रहता है और डायपर नहीं छूटता। आखिर तीन साल बाद स्कूल जाने का नम्बर आ जाता है तब लगता है कि स्कूल में क्या करेगा? फिर किताब पढ़-पढ़कर सीखा जाता है या फिर स्कूर वाले के ही माथे डाल दिया जाता है कि भाई तू ही सिखा दे। ज्यादा पैसे ही तो लेगा ले लेना। हमने तो बिगाड़ दिया अब तू सुधार ले। घर-घर की यह समस्या को कौन हल करे? या तो बेचारा लेखक किताब लिखे या फिर टीचर शिक्षित करे। इस समस्या के लिए दोषी कौन? बच्चा कई घण्टों तक मैल का बोझ लादे घूमता रहता है, उसके लिए किसे दोष दें? कहाँ जाती है स्वच्छ‍ता की बात? आप कहेंगे कि बेचारे माता-पिता के पास समय ही नहीं कि वे आदत सिखाए। सच है कि उन्हें अपने ऐशोआराम से फुर्सत ही नहीं। फिर परिवार भी नहीं, कि कोई नानी या दादी, बुआ या मौसी ही देख ले बच्चों को। लेकिन इसके परे मुझे लगता है कि आदत नहीं डालने का भी फैशन है, यदि बच्चा सुधरा हुआ है तो कोई अच्छी बात नहीं लगती, यहाँ के भारतीयों को। सारे ही बच्चे एक जैसी आदतों से ग्रसित दिखायी देते हैं। डायपर के रहते अब तो यहाँ की देसी माँ यह भी नहीं कह सकेंगी कि बेटा मैंने तुझे सूखे में सुलाया था और मैं गीले में सोयी थी। वैसे बच्चों को अपने पास सुलाने का भी रिवाज ही नहीं है, शायद मोह नहीं पड़ना चाहिए। कुछ लोग इसे अनुशासन कहेंगे लेकिन भाई हम भारतीयों को तो यह अनुशासन से अधिक निर्ममता दिखायी देती है। या फिर केवल अपना ही युवावस्था का मौज-शौक। क्योंकि अनुशासन का क ख ग भी ज्ञात नहीं होता यहाँ के अधिकांश देसी बच्चों को। लेकिन यह बात अभी नहीं, अभी तो केवल पोटी ट्रेनिंग की ही बात पर कायम रहते हैं। हमारे यहाँ आदतों के लिए कहा गया है कि बच्चे को अभिमन्यु् की तरह माँ की कोख से ही संस्कारित करना प्रारम्भ करो लेकिन यहाँ तो पाँच-पाँच साल के बच्चें भी पोटी ट्रेन्ड नहीं हैं। एक मूलभूत शिक्षा जो जन्म के साथ ही देना शुरू हो जाती है यदि हम शिक्षित होकर भी इसे नहीं दे पाते हैं तो बाकि संस्कांरों की तो बात ही क्या करें?

33 comments:

Udan Tashtari said...

बात तो विचारणीय है आपकी.

दीपक 'मशाल' said...

हास्य के पुट के साथ आपने एक गंभीर बात कह दी मैम.. वैसे मैंने भी पहली बार ही सुना कि ये सब भी करना होता है.. :)

राम त्यागी said...

haha, हम तो दो बच्चो के बाप होने के नाते इन चीजों से रूबरू हो चुके हैं, दूसरा वाला अभी पोट्टी trained हो रहा है :)

अजित गुप्ता का कोना said...

दीपक, शादी कर लो तब आटे दाल के भाव मालूम पडेंगे। हा हा हा।

Arvind Mishra said...

कुत्तों के टायलेट ट्रेनिंग पर किताबे हैं तो आदमी की बात ही छोडिये -इसलिए ही अमेरिका अमेरिका है और हिन्दुस्तान हिन्दुस्तान ..दोनों संस्कृतियों का अंतर टायलेट से ही शुरू हो जाता है ....
मैंने अपने बच्चों के जन्म के पूर्व से ही किताबों का सहारा लिया और सच बताऊँ बड़ी राहत मिली ...

अजय कुमार said...

इसके कंसल्टेंट भी होंगे ।

Unknown said...

पोटी ट्रेनड के बहाने दो संस्कृतियों की पङताल करता आपका आलेख बेहद प्रभावी लगा....हर बात में पश्चिम का अन्धानुकरण करने वाले भारतीयों को हीनता ग्रन्थि का त्याग कर अपनी जङो को पहचानने की आवश्यकता है....सुन्दर,सशक्त व सार्थक आलेख हेतु शुभकामनाएं..श्रेष्ठ सृजन अनवरत रखे।

निर्मला कपिला said...

अजित जी यही सब कुछ मेरे मन मे भी था। मै अपनी बेटी को पहले से ही सावधान करती रही हूँ कि डाईपर से कई प्राब्लम्ज़ आती हैं। कम से कम दिन मे तो बच्चे को बिना डाईपर से रखा जा सकता है। विचार्णीय पोस्ट है धन्यवाद।

विवेक रस्तोगी said...

बिल्कुल ये छोटी छोटी बातें बहुत बड़ी होती हैं।

kshama said...

America me lagta hai,har cheez ka atirek hota hai! Aapki bhasha shaili bahut ranjak hai.

शोभना चौरे said...

achha aalekh.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अजित जी ,
आपने बहुत विचारणीय लेख लिखा है....हम भारतीय तो पश्चिम का अंधानुकरण करने में माहिर हैं ना....आज यही स्थिति यहाँ भी हो रही है..घर घर में डाइपर प्रवेश कर रहा है....कभी कभी तो देख कर जलन भी होती है कि आज की मांएं कितनी निष्फिक्र हैं....ज्यादातर होता था कि खाना परोसा ...और बच्चे ने पौटी कर दी .. :) :) बस ..

आपने गंभीर समस्या को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है...

hem pandey said...

'हमारे यहाँ आदतों के लिए कहा गया है कि बच्चे को अभिमन्यु् की तरह माँ की कोख से ही संस्कारित करना प्रारम्भ करो लेकिन यहाँ तो पाँच-पाँच साल के बच्चें भी पोटी ट्रेन्ड नहीं हैं। एक मूलभूत शिक्षा जो जन्म के साथ ही देना शुरू हो जाती है यदि हम शिक्षित होकर भी इसे नहीं दे पाते हैं तो बाकि संस्कांरों की तो बात ही क्या करें?'
-भाई नुराग शर्मा और राज भाटिया जी के ब्लॉग में विदेश की कुछ अच्छी बातों के दर्शन हुए. इस पोस्ट में उनकी कमी और हमारे संस्कांरों की श्रेष्ठता झलकती है.

अन्तर सोहिल said...

हमारे बच्चे तो स्कूल जाना शुरू करने की उम्र से बहुत पहले ही ट्रेण्ड हो गये।

प्रणाम

rashmi ravija said...

माताएं मेहनत थोड़ी कम करना चाहती हैं,वरना समय समय पर बच्चे को टायलेट ले जाया जाए फिर एक डायपर की भी जरूरत नहीं पड़ती...पर हाँ, माँ को चौकन्ना रहना पड़ता है हमेशा...पूरे समय बच्चे को समर्पित.

रंजन said...

मुझे किताब खरीदनी पड़ेगी..:)

डॉ टी एस दराल said...

अजित जी , वहां तो बच्चे क्या ,बड़ों को भी ट्रेंड होना पड़ता है । विशेषकर जो यहाँ से जाते हैं । अब क्या करें कल्चरल डिफ़रेंस है न । आखिर यहाँ ७२ % लोग गाँव में रहते हैं जिनके पास शौचालय की सुविधा कितनों के पास है ,यह सोचने की बात है।

Amit Sharma said...

भाड़ में जाये ऐसी आधुनिकता जहाँ अपने बच्चों को पोटी करवाने का भी सुख नसीब ना हो.
सीईईईईईई ........ कुछ ऐसे ही तो कराते है.

दिगम्बर नासवा said...

आपका कहना सही है .. एक गंभीर विषय को सरलता से उठाया है आपने ... पाश्चात्य लोग तो इस बात को टाल भी सकते हैं क्योंकि वहाँ अलग सामाजिक नियम हैं .. पर भारतीय जो विदेश में रहते हैं ... उनको तो इस बात को समझना ही चाहिए ... विचारणीय है आपका लिखा ...

दिगम्बर नासवा said...

आपका कहना सही है .. एक गंभीर विषय को सरलता से उठाया है आपने ... पाश्चात्य लोग तो इस बात को टाल भी सकते हैं क्योंकि वहाँ अलग सामाजिक नियम हैं .. पर भारतीय जो विदेश में रहते हैं ... उनको तो इस बात को समझना ही चाहिए ... विचारणीय है आपका लिखा ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सब नवयुग की महिमा है!
--
गम्भीर विषय को
आपने बहुत ही रोचकता के साथ प्रस्तुत किया है!

sonal said...

@अजित जी
आप सही कह रही है पर क्या करे ,हम जब पले तो बुआ,चाचा ,दादी ,मासी सब हुआ करते थे परिवार में और माँ की जिम्मेदारी भी घर के कामों तक सीमित थी, खेल खेल में हमने अपने भतीजे भतीजियों को कब पोट्टी ट्रेन किया पता नहीं चला ...
पर एकल परिवार,फ्लैट में बहुत समस्या होती है,इतनी लंगोट कहाँ सुखाये ...कहाँ कहाँ पोछा मारे, घर भी चकाचक रखना है ,बिस्तर गीले हो जाए तो पीले निशाँ शर्मिन्दा करते है ... आप बताओ कैसे manage करे

राज भाटिय़ा said...

अजित गुप्‍ता जी हमे इन चोंव्चलो की जरुरत ही नही पडी, हमने बच्चो को करीब एक साल तक कपडे वाले पोतरे मे रखा, तब बच्चो को समझा दिया कि जब भी पोटी आये पापा या ममी को बता देना, अगर नही मन तो य़ह पोतरे बांध देगे, बस दोनो बच्चे समय पर बता देते थे, ओर दोनो बच्चे सोये भी हमारे साथ ही पांचवी कलास तक.
डाईपर से बच्चो के जख्म हो जाते है, ओर उन्हे कठिनाई भी होती है, अच्छा है बच्चे को पोटी के बाद कुछ समय बिना डाईपर के रखा जाये, जिस से बच्चा खुश रहता है ओर फ़िर धीरे धीरे वो खुद ही समझ जाता है की बिना डाईपर के अच्छा लगता है ओर वो पोटी का पहले ही बता देता है, हम भारत गये तो छोटा बेटा १ साल का था, जहाज मै बिना डाईपर के ही रहा, अगर मां बाप के पास समय हे तो बच्चा बहुत सी बाते जल्द सीख लेता है.
आप का लेख बहुत अच्छा लगा

Yogesh Sharma said...

ha ha ha...aapne 15 saal peeche khench diya...jab main joojhtaa thaa apne bachche ke langot ke saath ...

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

हम तो बिटिया (पौने दो साल) के लिए डायपर का उपयोग कम-से-कम ही करते हैं. जितने का एक डायपर आता है उतने में तो लोकल हाट में सूती चड्डीयां मिल जातीं हैं जिन्हें धोकर फिर से इस्तेमाल कर लेते हैं. अब तो बिटिया पहले ही अपनी बोली में पौटी आने का बताने लगी है. बिस्तर पर शू-शू तो उसने लम्बे समय से नहीं की.

सामनेवाले घर में दो साल से भी बड़ी बच्ची है जो पूरे समय डायपर पहने रहती है और शू-शू के बारे में भी नहीं बताती.:)

Mrityunjay Kumar Rai said...

बात तो विचारणीय है आपकी

Smart Indian said...

वक्त बदलने के साथ जीवन बदलता है - फिर धीरे-धीरे समझ में आता है की जिसे प्रगति समझा था वह दरअसल विनाश की और एक कदम था. डब्बा-बंद दूध के साथ भी ऐसी ही कहानी हुई. फैक्ट्रियों से हुए प्रदूषण का नुक्सान हम अभी भी झेल रहे हैं. डायपर ने कामकाजी माता-पिता को अस्थाई सुविधा दी होगी मगर किस कीमत पर? आजकल तो "डायपर-मुक्त बाल" आन्दोलन का ज़माना है.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

ममा....मैं जब छोटा था ना... तो स्कूल में पैंट में ही पोट्टी कर देता था.... जबकि घर से कर के ही जाता था..... लेकिन लग जाती थी.... तो हो ही जाती थी.... ही ही ही ....

Dev said...

Bahut sundar post..apki es post ko padh kar mujhe apne school ki ek bat yaad aa gayi..jab mai 4th me tha mere just bagal me jo ladaka baithata tha..jaise hi hamare Maths ke teacher aate the vaise hi vah shuru ho jata tha..hahaahaha..Regards

The Lines Tells The Story of Life....Discover Yourself....

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

सर्वप्रथम एक विचारणीय पोस्ट के लिए साधुवाद !
बड़े सरल शब्दों में आपने आधुनिक उन्नत समाज में प्राकृतिक मूलभूत कर्मों की जटिलता का हिसाब लिया है. आखिर परिवार के महत्व से कौन इनकार कर सकता है. बच्चे कष्ट न झेलें और परिवार में रहसुखद अनुभूति करें... बस

अबयज़ ख़ान said...

हाहाहा.. अजीता जी.. लंगोट के देश वाले अभी इतने भी आलसी नहीं हैं। कि बच्चे को तीन साल तक गंदा करके डायपर में ही घुमाएं। वैसे मैंने इतनी बढ़िया व्यांगात्मक पोस्ट आजतक नहीं पढ़ी।

कुमार राधारमण said...

pehli baar suna yeh term.

अनूप शुक्ल said...

रोचक अंदाज में आपने आम जीवन की बात लिखी। आपकी इस अमेरिका यात्रा के चलते आपने वहां के जीवन के बारे में सहज रूप में जितना लिखा उतना वहां रह रहे लोगों ने नहीं लिखा। शायद अस्पष्ट लिखकर ज्यादा टिप्पणियां पाना चाहते होंगे। :)