Monday, April 16, 2018

हर मन में हमने हिंसा को कूट-कूटकर भर दिया है


यह शोर, यह अफरा-तफरी मचाने का प्रयास, आखिर किस के लिये  है? एक आम आदमी अपनी रोटी-रोजी कमाने में व्यस्त है, आम गृहिणी अपने घर को सम्भालने में व्यस्त है, व्यापारी अपने व्यापार में व्यस्त है, कर्मचारी अपनी नौकरी में व्यस्त है लेकिन जिन्हें खबरे बनाने का हुनर है बस वे ही इन सारी व्यस्तताओं को अस्त-व्यस्त करने के फिराक में रहते हैं, कैसे भी दुनिया में उथल-पुथल मचे, बस इनका उद्देश्य यही रहता है। आप दिनभर लोगों से मिलिये, कोई खबरों पर चर्चा नहीं कर रहे होते हैं, बस एकाध बुद्धीजीवी मिल जाएंगे जो ऐसे चिंतित हो रहे होंगे जैसे भूचाल आ गया हो। सारी दुनिया शान्त है लेकिन पत्रकार और कुछ बुद्धिजीवी ता-ता-थैया करते फिर रहे हैं। ये व्यस्त दुनिया जो दिन में एकाध मिनट के लिये समाचार देख लिया करती थी, अब उसने एकाध मिनट को भी बाय-बाय कह दिया है। कुछ तो टीवी ही नहीं खोलते, या खोलते भी हैं तो अपने पसंदीदा सीरीयल देखे और झांकी बन्द। ये पत्रकार सोचते हैं कि हम जनता को भ्रमित कर लेंगे लेकिन जनता भ्रमित नहीं होती। हमें लगता है कि केण्डल मार्च निकालने वाले या धरना देने वाले सैकड़ों लोग थे लेकिन ये दल विशेष के कार्यकर्ता ही रहते हैं, जनता यहाँ नहीं होती है। असल में हम जनता को प्रभावित ही नहीं कर पाते, जनता अपने हिसाब से चलती है। आज देश में सारे वादों को लेकर कई संगठन हैं, जो अपने-अपने जाति और धर्म के लिये बने हैं लेकिन उन सारे ही संगठनों के काम पर दृष्टि डालिये, ये केवल अखबारों में होते हैं या मिडिया की चौपाल पर रहते हैं, बाकि इनका वजूद आम जनता के बीच नहीं है। यदि इन सारे ही संगठनों का एक साल तक मीडिया संज्ञान ना ले तो लोग इनका नाम तक भूल जांएगे।
दस दिन से राष्ट्र मण्डल खेल चल रहे थे, देश के खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन कर रहे थे, देश में इनकी चर्चा होनी चाहिये थी लेकिन अच्छाई के लिये समय नहीं है, जब की जनता के पास अच्छाई के लिये ही समय है। जनता जानती है कि जिन घटनाओं को मुद्दा बनाकर अच्छाई को ढकने का प्रयास किया जा रहा है, वे घटनाएं मनुष्य की मानसिकता से जुड़ी हैं और अनादि काल से चली आ रही हैं, किसी भी देश में ये आज तक नहीं रुकी हैं। इन घटनाओं को मुद्दा बनाकर नहीं अपितु सामाजिक जागरण से रोकथाम सम्भव है। दुनिया के सारे ही देश यौन-विकृति वाली मानसिकता से ग्रसित हैं और कल तक भी थे। हम किसी को भी उपदेश देने में सक्षम नहीं हैं और ना ही किसी को भी सुधारने में, बस पहल स्वयं से ही करनी है। हमारा बचपन भी आम बालिकाओं की तरह ही बीता, जहाँ कदम-कदम पर यौन शोषण का खतरा मंडराता रहता था। यौन शोषण करने  वाले लोग आसपास से भी आते थे और अनजाने लोग और दूरदराज से भी। जैसे ही एक बालिका में समझ आने लगती है, सबसे पहले उसके मन में यौन-हिंसा के प्रति डर पैदा हो जाता है। वह जानती तक नहीं कि यौन-हिंसा होती क्या है लेकिन वह पुरुष का दूषित स्पर्श पहचान लेती है। समाज में शरीफ से शरीफ दिखने वाला व्यक्ति भी मौका मिलने पर दूषित मानसिकता से ग्रसित हो जाता है। इसलिये परिवारों को सावधान रहने की आवश्यकता है। बालिका हमारे लिये उस हीरे के समान है जो कीमती है और जरा सा आघात लगने पर उसकी कीमत का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता है। इसलिये परिवारों को सावधानी की जरूरत है और बालिकाओं को भी सावचेत करते रहने की जरूरत है। परिवार के बालकों में यौन आकर्षण और हिंसा दोनों के अन्तर को भी बताते रहने की जरूरत है। किसी भी बालक को इतनी स्वच्छंदता ना दें कि वह हिंसक तक बन जाए और समाज में हिंसा को बलवती कर दे। इसलिये आज बालिका से अधिक बालकों पर ध्यान देने की जरूरत है।
पत्रकारों के लिये  भी सनसनी बनाने पर रोक लगनी चाहिये, झूठी खबरे तो यौन हिंसा से भी खतरनाक है और इन पर कठोर दण्ड का प्रावधान होना चाहिये। कोई  भी किसी के लिये झूठ प्रचारित करता है तो केवल माफी मांग लेने के न्याय समाप्त नहीं होना चाहिये अपितु यह यौन-हिंसा के समान ही कठोर दण्ड का अधिकारी होना चाहिये। आज शोर मचाने का सिलसिला बनता जा रहा है, अवधि पार होने पर  पता लगता है कि शोर जिस बात पर था, मामला कुछ और था। लेकिन तब तक समाज में वैर स्थापित हो चुका होता है। चारों तरफ से तलवारे खिंच चुकी होती हैं, गाली-गलौच का वातावरण बन चुका होता है फिर चुप्पी होने से भी कुछ नहीं होता है। नफरत की दीवार ऊंची हो गयी होती है। इसलिये जो खुद को बुद्धीजीवी कहते हैं, उन्हें ऐसे शोर से बचना चाहिये। कुछ भी बोलने से बचने चाहिये और कुछ भी लिखने से बचना चाहिये। अपनी वफादारी सिद्ध करने के लिये जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये। आपकी वफादारी किसी एक दल के प्रति ना होकर समाज और देश के प्रति होनी चाहिये और सबसे अधिक मानवता के लिये होनी चाहिए। हमें लिखने की जो आजादी मिली है, उसके दुरुपयोग से बचना चाहिये। यौन-हिंसा से एक व्यक्ति पीड़ित होता है लेकिन झूठ के प्रचार से सारा समाज और देश पीड़ित होता है। कभी हम हिन्दू-मुसलमान करने लगते हैं, कभी सवर्ण-दलित करने लगते हैं, कभी स्त्री-पुरुष तो कभी फलाना-ढिकाना। कोई अन्त ही नहीं है इस हिंसा का। हर मन में हमने हिंसा को कूट-कूटकर भर दिया है, इसपर लगाम लगानी होगी।

5 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (17-04-2017) को ""चुनाव हरेक के बस की बात नहीं" (चर्चा अंक-2943) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Shivam said...

bhut badiya likha hai sir...
dhanyawaad

अजित गुप्ता का कोना said...

आप सभी की आभार।

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

बहुत अच्छे विषय पर सटीक तरह से लिखा है। आभार।

Sudha Devrani said...

बहुत सटीक....