Thursday, October 12, 2017

यही जीवन है, यही सफलता है और यही सुख है


मैं अपनी जिन्दगी की जाँच-परख करती रहती हूँ, कभी दूसरों की नजरों से देखती हूँ तो कभी अपनी नजरों से। आप भी आकलन करते ही होंगे कि क्या पाया और क्या खो दिया। मेरे सोचने का ढंग कुछ बेढंगा सा है, मैं सोचती हूँ कि भगवान ने सुख की एक सीमा दी है, अब मुझे निश्चित करना है कि सुख की परिधि में किसे मानूं या किसे नहीं मानूं। कुछ लोग मिठाई खाकर सुखी होते हैं तो कुछ चटपटा खाकर या मेरे जैसे लोग फल खाकर। जब मैं किसी इच्छित वस्तु को छोड़ती हूँ तो लगता है कि यह छोड़ना ही नवीन सुख को पाना है और मैं छोड़ने से अधिक पाने का सुख भोगने लगती हूँ। लेकिन दुनिया की नजर ऐसी नहीं है, वह आपका आकलन अलग तरह से करती है। आप सत्ता के कितना करीब हैं, वैभव आपके पास कितना है, दुनिया का यह आकलन है लेकिन मेरा आकलन बिल्कुल अलग है।
मैं जब अपने बारे में चिंतन करती हूँ तब देखती हूँ कि मेरी सफलता का पैमाना क्या है? सफलता का मतलब मेरे लिये है कि मैं खुद को अभिव्यक्त कर सकूं। मेरे अन्दर जो कुछ है, उसे बाहर निकाल सकूं, मेरी वेदनाएं, मेरी आशाएं, मेरा विश्वास सभी कुछ बाहर आ पाए और मैं दुनिया के सामने स्वयं को उजागर कर सकूं। सत्ता के करीब या वैभव से परिपूर्ण होने पर असुरक्षा की दीवार से हम घिरे रहते हैं, कुछ भी अभिव्यक्त करने से पहले डरते हैं कि सत्ता से दूरी नहीं बन जाए या वैभव कम ना हो जाए लेकिन जब इन सबसे दूर हो जाते हैं तब बेधड़क स्वयं को अभिव्यक्त कर सकते हैं और मैं इसी अभिव्यक्ति को परम सुख मानती हूँ। मैं जब भी लोगों के चेहरों को देखती हूँ, मुझे डरे हुए, समझौता किया हुए, लाचार से चेहरे दिखायी देते हैं, दुनिया उन्हें सफल भी कहती है और उनका उदाहरण भी देती है। कम से कम मुझे तो कह ही देते है कि तुम क्या थे और वे क्या थे, आज वे क्या हैं और तुम क्या हो! मैं सफलता के इस मापदण्ड से आहत नहीं होती। मैं खुद के बनाए मापदण्डों को ही ध्यान में रखती हूँ और फिर विश्वास से भर जाती हूँ कि आज मैंने जो पाया है, वह शायद मेरी औकात से ज्यादा ही है। मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि मैं स्वयं को अभिव्यक्त करने का साहस जुटा पाऊंगी और हर पल संतोष मेरे अन्दर बिराजमान होगा।

कुछ लोग ताली बजाते हैं कि उन्होंने मुझे धक्का लगा दिया, वे सफल हो गये। लेकिन मुझे लगता है कि मुझे जीवन मिल गया, साधना के लिये समय मिल गया। अपने आपको कुरेदने का वक्त मिल गया। मैं जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तब घबरा जाती हूँ और पल भर में ही अपना ध्यान विगत से हटा लेती हूँ। कैसे दम घोंटू वातावरण में जीना था, अपना वजूद भुलाकर, कुछ पा लेना शायद सबसे बड़ा खोना है। मुझे खुली हवा में सांस लेना अब अच्छा लगने लगा है और पता भी चला है कि खुली हवा क्या होती है? लेकिन जो कल था वह भी अनुभव से परिपूर्ण था और आवश्यक था। आप की बुद्धि कितनी ही कुशाग्र हो या आपके अन्दर ज्ञान का भण्डार हो लेकिन बिना अनुभव के कुछ काम का नहीं है। इसलिये अनुभव से पूर्ण होकर, सबकुछ छोड़कर पाने का जो आनन्द है वह निराला है, अपने आपको तलाशते रहने का आनन्द अनूठा है, अपने को भली-भांती अभिव्यक्त करने का प्रयास अनोखा है। बस मेरे लिये यही जीवन है, यही सफलता है और यही सुख है।  

2 comments:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’सादगी और त्याग की प्रतिमूर्ति राजमाता : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

अजित गुप्ता का कोना said...

आभार सेंगर जी।