Sunday, March 19, 2017

नरेन्द्र से विवेकानन्द की भूमि को नमन

जिस धरती ने विवेकानन्द को जन्म दिया वह धरती तो सदैव वन्दनीय ही रहेगी। हम भी अब नरेन्द्र ( विवेकानन्द के संन्यास पूर्व का नाम) की भूमि को, उनके घर को नमन करना चाह रहे थे। हम जीना चाह रहे थे उस युग में जहाँ नरेन्द्र के पिता विश्वनाथ दत्त थे, उनकी माता भुवनेश्वरी देवी थीं। पिता हाई-कोर्ट के वकील थे और माँ शिक्षित एवं धर्मानुरागी महिला थी। स्वामीजी के घर को हम मनोयोग पूर्वक देखना चाह रहे थे, लेकिन कोलकाता में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि सभी भवनों में प्रवेश का समय निश्चित है, अक्सर दिन में बन्द भी रहते हैं। हमने भी दो चक्कर लगाये तब कहीं जाकर हम स्वामीजी के घर को देख पाये। हमें एक छोटी सी डाक्यूमेन्ट्री भी दिखायी गयी, जिसमें इस घर को जीर्णोद्धार के बारे में जानकारी थी। कैसे इस खण्डित भवन को पुन: उसी के शिल्प में बनाया गया और शिल्पकारों ने कैसे इस कठिन कार्य को सम्पादित किया, सभी कुछ बताया गया। विश्वनाथ दत्त का कक्ष, भुवनेश्वरी देवी का पूजा-कक्ष सभी कुछ संजोकर रखा है। किस खिड़की से नरेन्द्र ने साधुओं को वस्त्र दिये थे, किस कक्ष में ध्यान लगाते हुए सर्प आया था, सभी संरक्षित हैं। यह स्थान भारतीयों के लिये श्रद्धा-केन्द्र है, यहाँ आकर स्वत: ही गौरव का अनुभव होता है। यदि विवेकनन्द ने 1893 में शिकागो की धर्म-संसद में हिन्दुत्व को परिभाषित नहीं किया होता तो आज शायद हिन्दुत्व संरक्षित धर्म के स्वरूप में होता।
रामकृष्ण परमहंस नरेन्द्र के गुरु थे, कहते हैं कि नरेन्द्र को आध्यात्मिक शक्तियां अपने गुरु से ही मिली थीं। लेकिन यह भी आनन्द का विषय है कि शिष्य ने गुरु को नहीं ढूंढा अपितु गुरु ने शिष्य को ढूंढ लिया था, दक्षिणेश्वर का काली-मन्दिर इस बात का गवाह है। दक्षिणेश्वर का काली मन्दिर हमेशा से ही श्रद्धालुओं का केन्द्र रहा है, यहीं के पुजारी थे परमहंस। यहीं पर वे नरेन्द्र को प्रभु से साक्षात्कार करा सके थे और इसी मंदिर में नरेन्द्र ने काली माँ के समक्ष जाकर अपने परिवार की सुरक्षा की मांग के बदले में ज्ञान और भक्ति की मांग की थी। जब नरेन्द्र परमहंस के कहने पर काली-माँ से कुछ नहीं मांग पाये तो यहीं पर परमहंस ने उनके सर पर हाथ रखकर कहा था कि तेरे परिवार को मोटे कपड़े और मोटे अन्न की कमी नहीं आएगी। इसी मंदिर ने गुरु-शिष्य परम्परा का उत्कृष्ठ स्वरूप देखा है, इसी मन्दिर ने माँ शारदा को देखा है। इसलिये आज यह मन्दिर लाखों-करोड़ों लोगों का श्रद्धा-केन्द्र है। कोलकाता शहर में काली मन्दिर भी है लेकिन इस मन्दिर और उस मन्दिर की व्यवस्थाओं में रात-दिन का अन्तर है। काली-घाट मन्दिर में पैर रखते ही पण्डे लूटने को तैयार रहते हैं, पता नहीं हमारा समाज कब इस ओर ध्यान देगा? लेकिन दक्षिणेश्वर के काली मन्दिर में सभी कुछ अनुशासित है। तसल्ली से दर्शन कीजिये, कोई पण्डा आपको लूटने नहीं आएगा।
हमारा मन बार-बार बैलूर मठ में अटक जाता था, यात्रा के अन्त में दर्शन मिले वह भी लम्बी इंतजार के बाद। हम दक्षिणेश्वर से सीधे बैलूर मठ देखने गये लेकिन जाते ही पता लगा कि दिन में 1 बजे दर्शन बन्द हो जाते हैं, अब साढ़े तीन बजे प्रवेश मिलेगा। ढाई घण्टे का लम्बा समय निकालना कठिन काम था, लेकिन उसके बिना तो कोई चारा भी नहीं था। हमने पूछताछ की तो पता लगा कि सड़क के दूसरी तरफ एक विश्रामालय बनाया गया है। हम वहीं पहुंच गये। यहाँ भोजन भी था और विश्राम की अति उत्तम व्यवस्था भी। साढ़े तीन बजते ही हम प्रवेश द्वार पर थे। टिकट लेकर हम अंदर पहुँचे और विवेकानन्द को पूरी तरह से जी लिये। उनसे जुड़े जीवन के सारे ही प्रसंग वहाँ जीवन्त थे। जब रामकृष्ण परमहंस को कर्क रोग हुआ तब नरेन्द्र और उनके अन्य शिष्यों ने निश्चित किया था कि उन्हें कलकत्ता में किसी घर पर रखा जाये जिससे उन्हें चिकित्सकीय सुविधा में आसानी रहे। उनकी मृत्यु के बाद नरेन्द्र ने मठ स्थापना की बात रखी और एक घर को मठ का स्वरूप दे दिया गया। तभी नरेन्द्र ने संन्यास लिया था और शिकागो की धर्म-संसद में प्रसिद्धि के बाद उनका पहला कदम मठ की स्थापना ही था। अपने अन्तिम दिनों में विवेकानन्द यहीं रहे। जिन्हें विवेकानन्द में श्रद्धा है, उनके लिये यह तीर्थ से कम नहीं है, लेकिन हमारे  पास समय का अभाव था तो हमें शीघ्रता करनी पड़ी। वैलूर मठ से लगी हुई हुगली नदी परम आनन्द देती है, बस यहाँ बैठे रहो और अमृत पान करते रहो।

एक मजेदार वाकया हुआ उसे भी लिख ही देती हूँ – हम मठ के बाहरी प्रांगण को देख रहे थे और चित्र ले रहे थे। अंदर तो चित्र लेना मना है तो यहाँ तो जी भरकर लिये ही जा सकते थे। देखते क्या हैं कि पुलिस के अधिकारियों की एक टुकड़ी वहाँ आ गयी, उनका कोई केम्प वहाँ लगा था। हमारे चारों तरफ पुलिस थी, मेरे मुँह से निकला कि – पुलिस ने तुमको चारों तरफ से घेर लिया  है, सरेण्डर कर दो। सुनकर पुलिस अधिकारी भी अपनी हँसी  रोक नहीं पाये। हमने भी इस असहज स्थिति से बाहर निकलना ही उचित समझा और बाहर आ गये। कोलकाता में राजस्थान के मुकाबले एक घण्टा पूर्व सूर्यास्त होता है तो हमें लौटना ही था। लेकिन जितना समय मिला, उसे ही पाकर धन्य हो गये।

5 comments:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’राजनीति का ये पक्ष गायब क्यों : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बढ़िया पोस्ट

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-03-2017) को

चक्का योगी का चले-; चर्चामंच 2608
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-03-2017) को

चक्का योगी का चले-; चर्चामंच 2608
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

अजित गुप्ता का कोना said...

सभी का आभार।