Friday, September 17, 2010

हम अपनी पुस्‍तकें किसे भेंट करते हैं? कद्रदान को या नामचीन को?

इस पोस्‍ट को लिखने की प्रेरणा आज सुबह हुई, जब हमारे घर की विद्युत व्‍वस्‍था को देखने वाला मेकेनिक अहमद सुबह हमारे घर की घण्‍टी को दुरस्‍त करने के लिए आया। टेबल पर मेरी कल ही प्रकाशित होकर आयी नयी पुस्‍तक लघु-कथा संग्रह पड़ी थी। उसने पुस्‍तक को देखा और बोला कि एक किताब मुझे भी चाहिए। मैंने अभी तक किसी को भी यह पुस्‍तक नहीं दी थी  लेकिन उसे कहा कि अवश्‍य ले जाना।
तभी मुझे एक और वाकये का स्‍मरण आ गया, जब मैं एक टेक्‍सी लेकर कहीं गयी थी और मेरी एक पुस्‍तक जो काव्‍य-संग्रह थी, टेक्‍सी में रखी हुई थी। मैं जब कार्यक्रम में गयी तब पीछे से उसे ड्राइवर ने पढना शुरू किया और मेरे वापस आने पर उसने कहा कि आपकी यह पुस्‍तक मुझे चाहिए। मैंने उसे दी। तब भी मेरे दिमाग ने यह प्रश्‍न किया था कि एक ड्राइवर को किताब देना कितना उचित है और आज भी यही हुआ लेकिन उसका उत्तर तब भी दिल ने दिया था और आज भी दिल ने ही दिया। और मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर हम अपनी पुस्‍तकें किस को भेंट करें और किसे नहीं? मेरे पास भेंट स्‍वरूप आयी हुई इतनी पुस्‍तकें हैं कि मेरे घर की समस्‍त अल्‍मारियां उनसे अटी पड़ी हैं, रखने को जगह नहीं हैं। मैं उन सबको पढ़ भी नहीं सकती, जैसे हम सारी ही पोस्‍टों को नहीं पढ़ सकते। लेकिन जो निम्‍न आय वर्ग का तबका है जिसे पढने के प्रति रुचि है हम उसे अपनी पुस्‍तकें नहीं देते। यदि हम ऐसे व्‍यक्तियों को अपनी पुस्‍तकें पढ़ने को दें जो वास्‍तव में उनके पाठक बन सकते हैं तो हमारी पुस्‍तकों का मूल्‍यांकन भली-भांति होगा। समाज हमारे बारे में जानेगा।
मैं अभी ग्‍वालियर एक मीटिंग में गयी थी, मैं अपने साथ चार पुस्‍तकें भी ले गयी थी। उस मीटिंग में लगभग 100 से अधिक राष्‍ट्रीय स्‍तर की महिलाएं थी, मैं अपनी पुस्‍तक सभी को नहीं दे सकती थी क्‍योंकि मेरे पास कुल चार थीं। मैं अनुमान लगाने लगी कि इनमें से ऐसा कौन है जो वास्‍तव में मेरी पुस्‍तक को पढ़ेगा और उसका मूल्‍यांकन करेगा? मैंने एक पुस्‍तक हम सबमें वरिष्‍ठ और विचारवान विदुषी को दी, वो भी इसलिए कि मुझे मालूम था कि मेरी पहली पुस्‍तक को भी इन्‍होंने बड़े मनोयोग से पढ़ा था। वहाँ पास में ही एक राजनैतिक विदुषी महिला भी बैठी थीं, मैंने उन्‍हें पुस्‍तक नहीं दी। उन्‍हें कुछ अजीब सा लगा, क्‍योंकि लोग तो राजनीतिज्ञों को अपनी पुस्‍तक भेंट करने में अपनी शान समझते हैं। उन्‍होंने प्रकरान्‍तर में यह बता भी दिया कि मैं साहित्यिक रुचि की हूँ। मैं उन्‍हें पुस्‍तक दे भी सकती थी लेकिन मुझे पता था कि ये अपनी राजनैतिक व्‍यस्‍तताओं में पुस्‍तक को नहीं पढ़ेगी। खैर मेरा यह लिखने का अर्थ केवल इतना है कि हम अपनी पुस्‍तकों को उन्‍हीं हाथों में सौंपे जहाँ उनका सम्‍मान हो। बहुत बड़े व्‍यक्तित्‍वों के पास इतना समय नहीं होता है कि वे आपकी पुस्‍तक को पढ़े। लेकिन आज निम्‍न मध्‍य वर्ग ऐसा वर्ग है जिसे साहित्‍य में गहरी रुचि है लेकिन वे पुस्‍तके खरीद नहीं सकते और ना ही पुस्‍तकालय में जाकर पढ़ सकते हैं। यदि हमने अपनी पुस्‍तके उन्‍हें भेंट की तो निश्‍चय मानिए कि वे उसे ना केवल पढ़ेंगे अपितु आपके विचारों को जीवन में उतारने का भी प्रयास करेंगे। क्‍योंकि जब-जब मैंने अपनी पुस्‍तक ऐसी जगह दी है तो उन्‍होंने बेहद खुशी व्‍यक्‍त की है और जब भी ऐसी जगह दी हैं जहाँ मेरे विचार या मेरी पुस्‍तक की आवश्‍यकता ही नहीं है वहाँ वो ना जाने कौन सी गुमनाम अल्‍मारी में रखी गयी है? इसलिए मैं तो इस तथ्‍य को भली-भांति समझ गयी हूँ। मेरा अनुभव यदि आपके भी काम आए और आप भी ऐसे ही किसी अनुभव से मुझे परिचित करा सकें तो इस पोस्‍ट की सार्थकता होगी। 

40 comments:

Anita kumar said...

सही कहा

प्रवीण पाण्डेय said...

एक कद्रदान को भेंट करने से ही उसका मूल्य है।

honesty project democracy said...

बिलकुल सही कहा आपने .....असल जरूरतमंद और सही उपयोग करने वाले को ही कोई भी चीज भेंट करनी चाहिए ..चाहे वह पुस्तक ही क्यों ना हो ...

डॉ टी एस दराल said...

सही फ़रमाया आपने । पुस्तक का निरादर नहीं होना चाहिए ।

ताऊ रामपुरिया said...

आपके विचार बहुत ही उतकृष्ट और अनुकरणीय हैं, बहुत शुभकामनाएं.

रामराम.

प्रतुल वशिष्ठ said...

पुस्तक का मूल्य उसको निरंतर पाठक मिलने से ही है. मैं इसका ता-उम्र अनुसरण करूँगा.

आपका अख्तर खान अकेला said...

bhn ajity ji aapne dil ki aavaaz se pustk bhent ki he or yeh post bhi dil ki ghraayi se aek sch ko ujagr krte hue likhi he jo sch he hm hmari koi bhi chiz qdrdaan se zyaadaa prbhavshaali logon ko denaa psnd krte hen isliyen hmaari koi bhi chiz kisi apaatr vykti ko dena saarthk nhin hoti he . akhtar khan akela kota rajsthan

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

आप ठीक ही करती हैं। सुन्दर विचार।
अपन तो इस चिंतन से मुक्त हैं :)

हास्यफुहार said...

कद्रदान को।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।

अनामिका की सदायें ...... said...

आपके दिल ने जो आपको फैसला दिया सही दिया...अच्छा लगा आपका ये फैंसला. एक पुस्तक आपने मुझे भी दी थी...और उम्मीद करती हूँ आपको मुझे वो पुस्तक दे कर निराशा नहीं हुई होगी.

आप ऐसे खयालो को इतनी सुंदरता से शब्दों में ढाल देती हैं की आपके इस हुनर पर मैं अचरज करने के साथ साथ मुग्ध भी हो उठती हूँ..क्युकी ये ऐसे ख्याल होते हैं जो हम सब के मन में तो उमड़-घुमड़ करते हैं पर, किन्तु, परन्तु...हम शब्द देनें में अपना स्टोर खाली ही पाते हैं. :)

सुंदर अभिव्यक्ति.
आभार.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

"वहाँ पास में ही एक राजनैतिक विदुषी महिला भी बैठी थीं, मैंने उन्‍हें पुस्‍तक नहीं दी। उन्‍हें कुछ अजीब सा लगा, क्‍योंकि लोग तो राजनीतिज्ञों को अपनी पुस्‍तक भेंट करने में अपनी शान समझते हैं।"
yah sabse achchha kaam kiyaa aapne !

dhratrashtra said...

पुस्तकें अमूल्य होती हैं अतः किसी कद्रदान को ही दी जानी चाहियें। अब कोई मुझ जैसे अंधे को अपनी पुस्तक दे तो मैं उसका क्या करूँगा। मेरी तो गांधारी भी आँखों पर पट्टी बंधे बैठी है मुझे कौन पढ़कर सुनाएगा....

मनोज कुमार said...

जो कद्र करें उनको ही देना चाहिए।

बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

अंक-9 स्वरोदय विज्ञान, आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

rashmi ravija said...

पुस्तकें आलमारी में सजाने की नहीं पढने की चीज़ हैं....आप साधुवाद की पात्र हैं जो सही हाथों में अपनी पुस्तके दे रही हैं.

राजेश उत्‍साही said...

अजित जी अन्‍यथा न लें आपने सही निर्णय किया है। किताब तो पढ़ने वाले को ही भेंट की जानी चाहिए,केवल अलमारी में रखने वाले को नहीं। क्‍या हमें आपकी किताबें मिल सकती हैं,पढ़ने के लिए। अगर हां तो कैसे,बताएं। यकीन मानिए पढ़कर आपको प्रति्क्रिया जरूर देंगे।

Rohit Singh said...

अरे वाह.... विचार तो मेरे भी हैं। मैं किताब वहीं पहुंचाता रहा हूं उसकी जहां जरुरत है। पर वही किताब जो मेरे पास दो होती है। वरना देने के बाद किताब वापस आ जाए इसका उदाहरण बहुत ही कम है मेरे जीवन में। वैसे हर राजनीतिक किताब को शोभा की वस्तु नहीं समझता। पर वास्तव में कई नेता इतने व्यस्त होते हैं कि चाह कर भी किताब को पढ़ नहीं पाते।

वैसे अपन लोग आपके यहां आ गए तो किताब खत्म होने तक जाने से रहे। मतलब आपका घर ब्लॉगर का परमानेंट अड्डा बन जाएगा।

राजभाषा हिंदी said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
साहित्यकार-महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

Arvind Mishra said...

अधिकारी पाठक अब खोजे से भी नहीं मिलते .

Udan Tashtari said...

कद्रदान की ही बनती है...

अजित गुप्ता का कोना said...

राजे
श उत्‍साही जी,
आप कभी उदयपुर आएं तो मैं मेरी पुस्‍तकें जो मेरे पास उपलब्‍ध हैं वे आपको प्रसन्‍नता से साथ भेंट करूंगी लेकिन जो प्रकाशक के पास है उसके लिए मैं आपको प्रकाशक का पता दे सकती हूँ। आपका आभार।

वाणी गीत said...

बिलकुल सही कदम है आपका ...
मतलब आपकी पुस्तकों की अधिकारी तो मैं भी हूँ ...:):)

विवेक रस्तोगी said...

बिल्कुल सही पाठक ज्यादा हों और प्रतिक्रिया न हो या पाठक का मनोरंजन न हो

अगर सुधी पाठक के पास लेखन चला जाये तो उससे अच्छी कोई बात ही नहीं।

आपकी बात से सौ फ़ीसदी सहमत ।

vandana gupta said...

कद्रदान को ही देनी चाहिये।

Khushdeep Sehgal said...

अजित जी,
ठेठ मेरठी भाषा में कहूं तो कहूंगा...बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद...

पैसे या पद की मारामारी में लगे लोगों को पुस्तक देना पुस्तक का अपमान है...

जय हिंद...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

पुस्तकें कद्रदान को ही देनी चाहियें ...

@@ एक बात ....आपने लिखा है आपका काव्य संग्रह भी छपा है ....आपकी कविताओं को पढ़ने का कभी सौभाग्य नहीं मिला ...
कृपया कभी अपने ब्लॉग पर भी कविताएँ डालिए ...

आपकी संवेदनाओं से थोड़ा परिचय हो जायेगा :):)

आभार

निर्मला कपिला said...

ाजित जी बिलकुल सही कहा आपने। एक बार मुझे एक लडके का फोन आया कि वो मेरी पुस्तक पढना चाहता हैउसे कहाँ से ले मैने उसे पुस्तक भेज दी। उसने उसमे से कई कवितायें मंच पर मेरा नाम ले कर पढीं और उनकी समीक्षा भी की। इसी तरह एक अनजान व्यक्ति का फोन दूसरे शहर से आया उसने मेरी एक कहानी अखबार मे पढी थी उसने भी पुस्तक माँगी। बहुत अच्छा लगता है जब कोई दिल से आपकी रचनायें पढे। हम कितनी ही पुस्तकें व्यर्थ मे ऐसे लोगों को देते हैं जिनके पास उन्हें पढने का समय नहीं। बहुत अच्छा आलेख है। धन्यवाद।

अजित गुप्ता का कोना said...

संगीता जी, मेरे दो काव्‍य संग्रह प्रकाशित हुए हैं और मैंने पूर्व में कई कविताएं पोस्‍ट में डाली हैं। लेकिन इन दिनों में कोई कविता नहीं डाली। अगली पोस्‍ट में कोई कविता ही डाल देती हूँ।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

sahi kaha aapne!! lekin ham jaiso ke liye kya?? jab chhapegi tab sochenge...:D

राजेश उत्‍साही said...

शुक्रिया अजित जी। आप प्रकाशक का पता मुझे मेल कर दें। अगर उनका ईमेल हो तो वह भी भेज दें। मैं उनसे संपर्क करके पुस्‍तकें बुलवा लूंगा।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

नये कथासंग्रह के लिए बधाई॥

सुज्ञ said...

पुस्तक कद्रदान तक पहूंचे,यही उसका गंतव्य है।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

ममा... यह बात तो आपने सही कही की पुस्तक हमें ऐसे ही इंसान को देनी चाहिए .... जो उसकी इज्ज़त करे... और उसे समझे.... हमें किताबें भी इंसानी ज़हनियत को समझने वाले और ज़रूरतमंद को ही देनी चाहिए... जो कद्र कर सके...

anshumala said...

जो कद्र करें उनको ही देना चाहिए।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

पिछले सप्ताह ही मुझे एक पुस्तक विमोचन समारोह में जाने का मौक़ा मिला. कितावें कांउटर पर बिक्री के लिए उपलब्ध थी. दो तरह के लोगों ने ख़रीदी वह किताब, जिन्हें वास्तव में ही पढ़नी थी या जिन्हें दिखावे के लिए ख़रीदनी थी. मुफ़्त प्रतियां बांटने का कोई विधान नहीं था. मुझे अच्छा लगा. पुस्तक नि:संदेह उन्हें ही देनी चाहिये जो उसमें रूचि रखते हों.

रचना दीक्षित said...

आप ठीक ही करती हैं। जो कद्र करें उनको ही देना चाहिए।

om said...

Really your thinking is a great thinking. Thanks, for visit my blog and suggest me.

mridula pradhan said...

ekdam sahi baat hai aapki .

Manoj K said...

यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे की कोई आपकी बात ना सुने.
किताब भी उनतक पहुंचनी चाहिए जो वास्तव में पढ़ सकें.

Manoj Kumar said...

बहुत ही अच्छे विषय पर आपने यह पोस्ट लिखा है. शुक्रिया. अच्छा लगा पढ़कर.

डॉ० डंडा लखनवी said...

आपके आलेख को पढ़ कर मुझे कवि वॄंद का यह दोहा स्मरण हो आया-
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"सरस कविन के चित्त को, बेधत हैं द्वै कौन।
असमझदार सराहिबो, समझदार को मौन॥
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सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी