Saturday, March 20, 2010

पाँच साल की बच्‍ची के गर्दन पर साँप लिपटा था

उई ई ई ई की चीख मेरे कानों में पड़ी और एक धम्‍म की आवाज भी। तभी दूसरी चीख सुनायी दी। मैं लथपथ सी उस ओर भागी। देखा कि बेटी और बहु एक दूसरे को थामें पसीना-पसीना हुए जा रही है। मैंने पूछा कि क्‍या हुआ? लेकिन उनके मुँह से कुछ नहीं फूटा। मैंने अपनी नौकरानी को आवाज लगाई, गीता ऽ ऽ ऽ, लेकिन वो भी एक कोने में खड़ी थरथर कांप रही थी। मैंने अब जोर से पूछा कि क्‍या हुआ है? तो गीता बोली कि वो वो छिपकली। अब मुझे बात समझ आ चुकी थी, मैंने गुस्‍से में आँखे तरेरते हुए कहा तो? अब बेटी बोली की तो क्‍या? आपको यह ‘तो’ लगता है। बहु भी जोर से बोली कि मम्‍मी वो हमें देख रही थी। इसलिए हम पलंग से कूदकर भागे हैं।

चुप करो। मैंने जोर से तीनों को ही डांटा। देखा छिपकली उनके कमरे से जा चुकी थी। अब हम चारों ही हँसते-हँसते लोटपोट हो रहे थे। फिर मैंने सोचा कि यदि मेरे सामने भी छिपकली आ जाती तो मैं शायद ऐसे चीखती नहीं लेकिन अपने कदम पीछे जरूर हटा लेती और धीरे से कमरे से भाग आती। फिर ध्‍यान आया बचपन, तब तो साँप भी सामने आ जाते थे और हम डरते नहीं थे। लेकिन आज इतना डर? चूहे से डर, कोक्रोच से डर, कुत्ते से डर, सभी से केवल डर। आखिर हम इतना डरते क्‍यों हैं?

आप मत सोचिए डर के बारे में, मैं आपको डराना नहीं चाहती बस कल का वाकया सुनाने के लिए ही इतनी कथा लिखी है।

मेरी भान्‍जी अमेरिका में है, अभी फरवरी में ही उसके बेटे का जन्‍मदिन था। कल वह ऑनलाइन मिल गयी। मैंने उससे कहा कि जन्‍मदिन के फोटो भेज। उसने फोटो भेजे। लेकिन यह क्‍या? एक पांच साल की लड़की के गले में तीन-तीन साँप पड़े हैं। कोई कछुवे से खेल रहा है तो किसी के सर पर छिपकली बैठी है। अरे नकली के नहीं सब असली थे। उन्‍होंने जानवरों की थीम पर जन्‍मदिन मनाया था तो एक सज्‍जन ढेर सारे जानवर लाए थे और बच्‍चे क्‍या बड़े सभी उनके साथ खेल रहे थे। साँप तो लोगों ने अपने गले में ऐसे लटकाए थे जैसे मायावती की माला हो। मैं तो फोटो देखकर ही सकते में आ गयी लेकिन वे सारे बेहद खुश थे। एक तरफ हमारे यहाँ का डर है और एक तरफ वहाँ सभी के मन से डर निकाला जा रहा है।

आज भी गाँवों में बच्‍चों के दिलों में इतने डर नहीं है जितने हम शहरवासियों के दिल में है। बचपन में हमारे पास भी नहीं था यह डर। लेकिन जैसे-जैसे हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं हमारा डर हम पर हावी हो रहा है। कभी लगता है कि बन्‍द कमरों में सिमटते जा रहे हमारे जीवन में हम शायद आदमी से भी डरने लगें। वैसे हमने महिला और पुरुष के खांचे तो बना ही दिए हैं। इस कारण एक दूसरे से डर तो लगने लगा ही है। महिला सोचती है पुरुष मेरे शरीर को घायल कर देगा और पुरुष सोचता है कि महिला मेरे मन को घायल कर देगी। इसी डर से वे एक दूसरे पर छिपछिपकर आक्रमण करते हैं और अपना डर भगाने की कोशिश करते हैं। मैं नहीं जानती इस डर का हल क्‍या हो? बस इतना जान पायी हूं कि हम जितना एक दूसरे से दूरी बनाएंगे उतना ही डर को अपने पास बुला लेंगे। फिर आप की राय सर्वोपरि है, आप बताएं।

30 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

Dr. Saahibaa, असहमति के दो कारण होते है १. बेमेल विचार २. आपसी भरोसे की कमी अगर ये दो कारण बाधक न बने, तो मैं नहीं समझता कि कोई misunderstanding ऐसी आये !

Anonymous said...

हम जितना एक दूसरे से दूरी बनाएंगे उतना ही डर को अपने पास बुला लेंगे

बात सही है

प्रकृति से दूर होने का खामियाजा भुगतना तो पड़ेगा ही

डॉ. मनोज मिश्र said...

आप सही कह रहीं हैं,शहरों में समाज से बढ़ती दूरी भी इसका एक प्रमुख कारण है.

Arvind Mishra said...

रेंगेने वाले और रोयेंदर जानवरों के प्रति डर नैसर्गिक है ,विश्व में हर और -मेरी पत्नी छिपकली से इतना डरती हैं की बस कुछ मत पूँछिये ! कुछ बच्चे अपवाद होते हैं या फिर उन्हें बचपन से न डरने को तैयार किया जाता है .

Satish Saxena said...

"हम जितना एक दूसरे से दूरी बनाएंगे उतना ही डर को अपने पास बुला लेंगे "
बहुत बढ़िया सोच है, भय तो भावना है अचेतन मन में बसी कोई ग्रंथि उसे सुलझाने के हर प्रयत्न को बेकार कर देगी ! सबसे बढ़िया दूरियों को घटा दीजिये, भूत से डर हो तो शमशान जाकर लंच करने बैठें, दो बार में सारा डर अपने आप दूर हो जायेगा ! यही संबंधों के बारे में है, आपसी शक और अच्छे प्यार की कमी भय को निकलने ही नहीं देगी ! पास आइये , बैठें ध्यान से एक दूसरे की मदद का प्रयत्न करें, डर का नाम निशान नहीं होगा !

शोभना चौरे said...

apka yh khna bilkul sahi hai ki ham prakrti se dur hote ja rhe hai aur hmara naisrgik cheejo se dar bdhta jata hai .par chipkli se drna mhilao ka krtrim dr bhi hota hai ?

डॉ टी एस दराल said...

अविश्वास ही इस डर का कारण है।
प्रकृति से तो हम दूर हुए ही जा रहे हैं। तभी तो हँसना भी भूल गए हैं।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

सांप से डर नैसर्गिक है.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी पोस्ट के सौजन्य से-
टिप्पणीकारों से बहुत कुछ सीखने को मिला!

अबयज़ ख़ान said...

जितना हम अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं.. उतना ही हमारे बच्चे दुनिया से कट रहे हैं.. ज़ाहिर है, गांव के बच्चों के सामने तो शहर के बच्चे बौने नज़र आते हैं...

ताऊ रामपुरिया said...

बिल्कुल सही कहा है आपने. अविश्वास ही इसका मूल कारण है.

रामराम.

संगीता पुरी said...

प्रतिदिन दिखाई पडनेवाली चीजों से सहज वातावरण बनना स्‍वाभाविक है .. हमलोग अपने घर को सुख सुविधायुक्‍त बनाते हुए सबसे कन्‍नी काटते हैं .. यही कारण है उन चीजों से भय के उत्‍पन्‍न होने का !!

वाणी गीत said...

डर के मनोविज्ञान को खूब समझाया आपने भी ...
हमने महिला और पुरुष के अलग अलग खांचे बना दिया हैं ...
डर का असली कारण यही है ...सही कहा ...
मगर डर इतना बेवजह भी नहीं होता ...
आपकी यह प्रविष्टि सोचने पर मजबूर कर रही है ....!!

स्वप्न मञ्जूषा said...

छिपकिली और साँप से तो बाबा मुझे भी डर लगता है ....
लेकिन आपने जो आपस के डर की बात की है उसका एकमात्र कारण है अविश्वास.....भरोसे का न होना..
जब तक भरोसा न हो डर तो बना ही रहेगा....इसलिए एक दूसरे पर भरोसा होना ज़रूरी है...और के बात याद रखना आवश्यक है ..जब किसी पर भरोसा किया जाता है तो वो इंसान भरोसा नहीं तोड़ता (ज्यादातर) ...
बहुत सुन्दर आलेख ..हमेशा की तरह...

दीपक 'मशाल' said...

aapse sahmat hoon.

Unknown said...

"जैसे-जैसे हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं हमारा डर हम पर हावी हो रहा है।"

सही है, प्रकृति हमें निडर बनाती है।

Khushdeep Sehgal said...

डर सबको लगता है, लेकिन डर से मत डरो...क्योंकि डर के आगे जीत है...

अजित जी,
आपने गांव की बात की...आज के शहरी माहौल की बात की...दरअसल आज जिस तरह हम बच्चों का पालन करते हैं, समस्या वही हैं...पहले या गांव में अब भी बच्चे मिट्टी में खेलते-पलते-बढ़ते हैं...वहीं से उनका इम्युन सिस्टम इतना ताकतवर हो जाता है कि बीमारियां उनके पास फटकती भी नहीं...और शहरों में हमारे घरों में क्या होता है...बच्चे को मिट्टी तो दूर पलंग से ही नीचे नहीं उतरने दिया जाता....अभी बच्चा रोना शुरू ही करता है, पूरा परिवार उसे चुप कराने के लिए जुट जाता है...छोटे-छोटे बच्चों को ही हेवी एंटीबायोटिक्स खिलाई जाती हैं...उनका इम्युन सिस्टम मज़बूत हो तो हो कहां से...यही बच्चे काक्रोच, छिपकली से इतना डरते हैं, अगर कहीं सांप दिख जाए तो फिर उनकी हालत अपने आप ही समझ आ सकती है...बच्चों की केयर करना अच्छी बात है, लेकिन कभी कभी उन्हें खुले में भी छोड़ना चाहिए...बच्चों को अपने विवेक से फैसले लेने के लिए प्रेरित करना चाहिए...बड़े होकर यही उनका आत्मविश्वास बढ़ाने में काम आएगा...अगर हर बात पर वो आपके फैसलों से ही चलते रहेंगे तो ये उन्हे गलाकाट प्रतियोगिता के माहौल में दब्बू ही बनाएगा...

जय हिंद...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी बात बिलकुल सही है...जिस चीज़ से जितना दूर जायेंगे उतना ही डर अधिक लगता है....

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

गांव में हमारे घर एक बहुत ख़तरनाक दिखने वाला भैंसा था जिसकी सवारी करना हमारे लिए आम बात थी. लेकिन हमारे बच्चे हैं कि मेमने को भी गोद में लेने से डरते हैं.

शायद ऐक्सपोज़र की बात है.

TRIPURARI said...

ek khubsurat posT ke lie shukriya !

TRIPURARI said...

ek khubsurat posT ke lie shukriya !

Dev said...

ओह्ह मुझे तो साप से बहुत डर लगता है .....आपकी बात पूर्णतः सच है

KK Yadav said...

छिपकली और साँप से तो मुझे बहुत डर लगता है ....आपकी पोस्ट कई पहलुओं की पड़ताल करती है. समाज में बहुत कुछ बदल रहा है.

__________
''शब्द-सृजन की ओर" पर- गौरैया कहाँ से आयेगी

rashmi ravija said...

जैसे-जैसे हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं हमारा डर हम पर हावी हो रहा है। कभी लगता है कि बन्‍द कमरों में सिमटते जा रहे हमारे जीवन में हम शायद आदमी से भी डरने लगें।
बहुत सही आकलन किया आपने...अँधेरे से डरते हैं...कॉकरोच,छिपकिली से डरते हैं...एक दूसरे से डरते हैं.....बाद में अपने आप से डरने लगेंगे

अजित गुप्ता का कोना said...

आप सभी ने मेरे इस आलेख पर अपने विचार प्रेषित किए इस‍के लिए आप सभी का आभार। मुझे ऐसा लगता है कि जब मनुष्‍य प्रकृति से दूर होता है तब उसके मन में अन्‍य प्राणियों के लिए स्‍वत: ही डर बस जाता है। इसी प्रकार हमने आपसी सम्‍बंधों में भी दूरियां बना ली हैं और एक अविश्‍वास रूपी डर हमारे मध्‍य पसरता जा रहा है। पुन: सभी का आभार।

Pawan Kumar said...

रेंगने वाले जीवों खासकर सांप से डर स्वाभाविक है.

हरकीरत ' हीर' said...

बहुत ही प्यारी भांजी है आपकी .....गले में सांप ऐसे जैसे मायावती की नोटों की माला हो ......हा....हा....हा.....बहुत खूब ......!!

अजित गुप्ता का कोना said...

हरकीरत जी, यह मेरी भांजी नहीं है। मेरी भांजी के बेटे का जन्‍मदिन था और यह लड़की वहाँ मेहमान बनकर आयी थी। उन्‍होंने जानवरों की थीम पर जन्‍मदिन मनाया था तो एक सज्‍जन बहुत सारे साँप, छिपकली, कछुआ आदि लेकर आए थे और बच्‍चों को उनके बारे में बता भी रहे थे और साँपों को सभी बच्‍चों और बड़ों के गर्दन पर लिपटा रहे थे।

अनामिका की सदायें ...... said...

mai aapki baat se sehmat hu aur sochti hu shayed yahi dar hi karan he jo aaj ham apne padosiyo se bhi baat nahi karte. shahro me to padosi padosi ko nahi jaanta ho sakta he iska karan bhi dar hai...ki kahi vo hamari nizi jindgi k bare me na jaan le...kahi jaan kar vo hame koi nuksaan na pahucha de...

aap hi ki baat sahi lagti he...sharing hi is dar ka hal hai.. jitna ham apne bheetar hi ghuse rah jayenge to auro ko kaise jaan payenge...aur apne vikaro ko kaise hata payenge.

behtar hai...aap-ham ek dusre ko jane-samjhe...

bahud badhiya lekh...badhayi.

शरद कोकास said...

साँप और मायावती की माला के रूपक पर तो मैं अभी तक हँस रहा हूँ ।