Tuesday, April 7, 2009

लघुकथाएं - छिलके, अपना प्राप्‍य, फिजूलखर्ची

छिलके

शहर से 10 किलोमीटर की दूरी पर बसा एक जनजातीय गाँव। अधिकांश लोग या तो खेती करते या फिर शहर में मजदूरी करने आते। एक दिन वहाँ एक कार्यक्रम के निमित्त जाना था। जाते समय, साथ में बच्चों के लिए केले ले लिए। छोटा सा कार्यक्रम रखा हुआ था गाँव वालों के लिए, सारे ही गाँव वाले एकत्र हुए। कार्यक्रम के बाद हमने बच्चों को केले बाँटे। बच्चों ने केले खाए और छिलके वहीं फेंक दिए।
मैंने बच्चों से कहा कि बेटा ये छिलके उठाओ और पास बैठी गाय के सामने डाल दो।
एक वृद्ध व्यंग्यात्मक रूप से बोला कि गायें केले के छिलके नहीं खाएंगी।
मैंने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? बच्चों तुम ये छिलके गाय के सामने डाल दो।
उन्होंने ऐसा ही किया, लेकिन गाय ने छिलकों की तरफ देखा ही नहीं।
मैं अचम्भित थी, मैंने बच्चों से कहा कि ऐसा करो कि जो वहाँ बकरी बैठी है, उसे डाल दो।
बकरी ने छिलके देखकर मुँह घुमा लिया। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यूँ हो रहा है?
वृद्ध बोला कि गाय छिलकों को पहचानती नहीं हैं।

अपना प्राप्य

सुबह उठकर जैसे ही मैंने वाशबेसिन का नल खोला, देखा कि वहाँ से नन्हीं-नन्हीं चीटियां कतार बनाकर कहीं चली जा रही हैं, उनकी दो कतारे बनी हुई थीं, एक जा रही थी और एक वापस लौट रही थीं। वापस लौटने वाली चीटियों के मुँह में एक दाना था। मेरी निगाहों ने उनका पीछा किया। निगाहें चीटियों के साथ-साथ चल रही थीं। एक जगह जाकर चीटियां रुक गयीं थी, निगाहें भी रुकी। देखा एक छोटा सा मिठाई का टुकड़ा भोजन की टेबल पर पड़ा था, वे सारी चीटियां कतारबद्ध होकर उसका एक-एक कण अपने मुँह से पकड़कर वापस लौट रही थीं। कहीं कोई बदहवासी नहीं, रेलमपेल नहीं, बस था तो एक अनुशासन। तभी घर के बाहर शोर सुनायी दिया। बाहर आकर देखा, एक सेठजी के हाथ में मिठाई का डिब्बा था, उनके चारों तरफ मांगने वालों की भीड़ थी और कुछ बच्चे उनसे छीना-झपटी कर रहे थे। इसी छीना-झपटी में मिठाई का डिब्बा हाथ से छूट गया और सारी मिठाई सड़क पर गिर कर बेकार हो गयी। सेठजी नाराज हो रहे थे और बच्चों पर चिल्ला रहे थे। तभी चीटियों पर नजर पड़ी, मिठाई के टुकड़े का अस्तित्व समाप्त हो चुका था और चीटियां वैसे ही कतारबद्ध लौट रही थीं।

फिजूलखर्ची

पानी की समस्या मेरे शहर में विकराल रूप ले चुकी थी। सरकारी नलों में दो दिन में एक बार, एक घण्टे के लिए पानी आता था वह भी कम दवाब से। घरों के बोरिंग भी सूख चले थे। घर में नजर घुमाती तो चारों तरफ लगे नल मुझे चिढ़ाते। आदतों से लाचार हमें वाशबेसन के नल या टायलेट के नल फिजूलखर्ची करते बच्चे से लगते। लेकिन वे भी हमारी जरूरत थे, हम उन्हें बंद नहीं कर सकते थे। ऐसे ही एक दिन मैं, पानी की समस्या से जूझ रही थी। मुँह में ब्रश का झाग भरा था और वाशबेसन से पानी नदारत। मैं झुंझला उठी। इतने में ही दरवाजे की घण्टी चहक उठी। मैं दरवाजे की तरफ देखती हूँ, बाहर सफाई कर्मचारी खड़ी है। मैं वैसे ही दरवाजा खोल देती हूँ।
वह पूछती है कि क्या पानी गया?
मैं कहती हूँ कि हाँ गया।
वह हँसती है, कहती है कि पानी की समस्या केवल आप लोगों की बनायी हुई है, हम तो इस समस्या से ग्रसित नहीं हैं।
मैं पूछती हूँ कि कैसे?
हम सुबह उठते हैं, पास के तालाब में जाते हैं, वहाँ स्नान करते हैं, कपड़े भी धोते हैं और पास लगे हैण्डपम्प से एक घड़ा पानी पीने के लिए ले आते हैं। न हमारे यहाँ वाशबेसन का चक्कर, ना लेट्रीन का चक्कर।

5 comments:

अक्षत विचार said...

I am not reading anything.
why?

virendra sharma said...

chilke polithene main rakh kar dene the.The bannana skins were to be rapped up in a polithene andthen served to the cow and near by goat.Animals are chaging their nature and religion like polititians,.this is the result of a decaying environment.To dispose off 100ml of urine we are wasting 5litres of water every time.,so the scarcity of water,the little left natural resource.

अजित गुप्ता का कोना said...

वीरू भाई
कथा का भाव यह है कि गाय और बकरी या कोई भी जानवर बिना वस्‍तु को जाने खाते नहीं हैं। शहर के इतने नजदीक बसे गाँव में भी केला जैसा सस्‍ता फल उपलब्‍ध नहीं है, इस कारण गाय और बकरी इन्‍हें पहचानती नहीं हैं इस कारण मुँह फेर लेती हैं।

जयंत - समर शेष said...

"अपना प्राप्य"

Bahut hi sundar hai.
Aanand aa gayaa.

~Jayant

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 03-10 - 2011 को यहाँ भी है

...नयी पुरानी हलचल में ...किस मन से श्रृंगार करूँ मैं