Monday, December 19, 2016

कस्तूरी-सुगंध को हर दम महसूस करूंगी


बहुत खो दिया मैंने, ऐसे सुख को, जिसमें अपार सृजन और कला का वास है। जिसमें प्रेम-प्यार-आत्मीयता को एक ही शब्द में समेटने का जन्मजात गुण है। जिसमें बाहुबल के स्थान पर अपने आँचल में परिवार को समेटने की असीमित शक्ति है। जिसके एक इशारे पर दुनिया का चलन बदल जाता है। जो माँ के रूप में ममतामयी है, पत्नी के रूप में भी प्रेममयी है, बहिन के रूप में भी स्नेहमयी है, बेटी के रूप में भी प्यारभरी है। जो जन्म से लेकर मृत्यु तक परिवार को बांधकर रखती है, ऐसा सुख दुनिया का सबसे बड़ा सुख है। महिला होने का सुख महिला को जी कर  ही जाना जा सकता है।
बचपन से पिता ने पुरुष बनाने की दौड़ में शामिल करा दिया, बहुत सारे सुख अनजाने ही  रह गये। उम्र के इस पड़ाव पर पूरे जतन से महिला बनने का प्रयास कर रही  हूँ, जैसे-जैसे महिला होने के करीब जाती हूँ, मेरा सुख बढ़ता जाता है। दुनिया का सबसे बड़ा सृजन महिला के पास ही है। कला का प्रगटीकरण तो हर क्षण ही होता है, दरवाजे के बाहर रंगोली दिख जाती है तो हाथ में मेंहदी रच जाती है। रसोई से आती सुगंध टेबल पर नाना रूप में सज जाती है। शरीर का आकर्षण कभी वस्त्रों सें झलकता है तो कभी गहनों में खनकता है। बस सृजन ही सृजन और कला ही कला।
साधारण सी दिखने वाली महिला भी असाधारण बनकर सामने खड़ी हो जाती है। तभी तो अच्छे से अच्छे धुरंधर भी उनके समक्ष नतमस्तक से खड़े दिखायी देते हैं। ममता की सत्ता – प्रेम-प्यार-आत्मीयता से बड़ी बन जाती है। परिवार उसका साम्राज्य बन जाता है और साम्राज्यों के अधिपति परिवार के इस साम्राज्य के समक्ष बौने हो जाते हैं। सारी ही भाषाओं के ज्ञान को मन की भाषा निरूत्तर कर देती है। तभी तो शंकराचार्य से उभय भारती जीत जाती है।

सब गड्डमड्ड कर दिया हैं हमने। अपना सुख खुद ने ही छीन लिया है हमने। अपने आकाश को मोदी की तरह विस्तार चाहे कितना ही दे दो लेकिन एक कोना ममतामयी सी सुषमा के जैसा भी रहने दो। मोदी भी मोदी बनकर सफल तब होते हैं जब उनकी आँखों से ममता टपकने लगती है, जब वे अपने अंदर ममता का वास रखते हैं तो भला हम अपनी ममता से कैसे किनारा कर लें। दृढ़ता की कितनी ही प्राचीर बन जाओ लेकिन उस प्राचीर के हर छिद्र में स्नेह की आपूर्ति हमेशा रहनी चाहिये। जो महिला होकर भी इस सुख से अनजान हैं वे ऐसे ही हैं जैसे फूल बनकर भी सुगंध से कोसों दूर हों। अपनी मुठ्ठी में अब अपने आपको रखूंगी, अपने अन्दर इस आनन्द को समेट कर रखूंगी और कस्तूरी मृग के समान कहीं नहीं भटकूंगी बस अपने अन्दर की कस्तूरी-सुगंध को हर दम महसूस करूंगी।

Friday, December 16, 2016

काहे को टेन्शन मौल लेना?


कमाने से ज्यादा खर्च करने का संकट हैं। कभी सोचा है कि - आपने बहुत ज्ञान प्राप्त कर लिया, आप इसका उपयोग करना चाहते हैं लेकिन कैसे उपयोग करें, मार्ग सूझता नहीं। सारा दिन बस इसी उधेड़-बुन में लगे रहते हैं कि कैसे अपना ज्ञान लोगों तक पहुंचे? यहाँ सोशल मीडिया पर भी यही मारकाट मची रहती है कि मेरी बात अधिकतम लोगों तक कैसे पहुंचे? घर में भी अपने ज्ञान को देने के लिये बीबी-बच्चों को पकड़ते रहते हैं, लेकिन सफलता दूर  की कौड़ी दिखायी देती है। बस यही हाल आपके धन का भी है। एक फिल्म आयी थी – मालामाल, कल भी किसी चैनल पर प्रसारित हो रही थी। उस में नायक को तीस दिन में 30 करोड़ रूपये खर्च करने की चुनौती मिलती है, यदि उसने यह कर लिया तो वह 300 करोड़ का मालिक होगा, नहीं तो जय राम जी की। शर्त यह है कि वह अपने नाम से एक पैसे की भी सम्पत्ती नहीं खरीद सकता।
अब आज के परिपेक्ष्य में देखते हैं, एक अधिकारी या व्यापारी प्रति माह लाखों रूपये रिश्वत, टेक्स चोरी आदि से एकत्र करता है, लेकिन यहाँ भी शर्त लगा दी गयी है कि इस धन से सम्पत्ती नहीं खरीद सकते। जमीन, सोना आदि अचल सम्पत्ती के लिये पेन कार्ड चाहिये या चेक से भुगतान करना है। हर माह जमा होने वाले इन लाखों-करोड़ों रूपयों को कैसे खर्च करें, यह कमाने से भी बड़ी समस्या हो जाती है! रात-दिन देश-विदेश का पर्यटन करने लगते हैं, मंहगे कपड़े पहनने लगते हैं, होटलों में पार्टी करने लगते हैं, शादियों में बेहिसाब पैसा बहाने लगते हैं। फिर भी इस कुएं का पानी रीतता नहीं, जितना निकालते हैं, उतनी तेजी से वापस भर जाता है। दिन का चैन और रात की नींद उड़ जाती है, दिल धडकते-धड़कते बन्द होने की कगार पर पहुंच जाता है। लेकिन आदत छूटती नहीं, पैसा एकत्र करने की लालसा समाप्त होती ही नहीं।

आप भूलभुलैय्या में फंस चुके हैं, बाहर निकलने का एक ही रास्ता है, वह बैंक होकर जाता है। अपनी  कमाई को बैंक में जमा कराओ और आसानी से इस भूलभुलैय्या से बाहर निकल जाओ। खर्च करने का तनाव शरीर और मन को मत दो। भ्रष्टाचार के बिना भी आप इतना कमा रहे हैं कि उसे भी खर्च नहीं कर सकते, तो फिर काहे को टेन्शन मौल लेना?

Thursday, December 8, 2016

ज्यादा बाराती नहीं चलेंगे


हमें आपकी लड़की पसन्द है, विवाह की तिथि निश्चित कीजिये, लेकिन एक शर्त है विवाह हमारे शहर में ही होगा। वर पक्ष का स्वर सुनाई देता  है। राम-कृष्ण-शिव को अपना आदर्श मानने वाले समाज में यह परिवर्तन कैसे आ गया! स्वंयवर की परम्परा रही है भारत में। कन्या स्वंयवर रचाती थी और अपनी पसन्द के वर को वरण कर जयमाल उसके गले में डालती थी। इसके बाद ही वर जयमाल वधु के गले में डालता था। यहीं से प्रारम्भ हुआ बारात का प्रचलन। हमारी परम्परा में कन्या वर का चयन करती है लेकिन वर्तमान में वर, वधु का चयन कर रहा है और उसे ही आदेशित कर रहा है कि मेरे शहर में आकर विवाह सम्पन्न करो। विवाह में वर पक्ष के सैकड़ों और कभी-कभी हजारों बाराती कन्या के द्वार पर बारात लेकर आते हैं। कन्या पक्ष के लिये इतना बड़ा खर्च करना कठिन हो जाता है लेकिन विवाह की पहली शर्त तो यही है। न जाने किसने प्रारम्भ की थी यह परम्परा लेकिन अब तो रिवाज ही बन गया है।
कल याने 9 दिसम्बर की अनेक शादियां हैं, मेरे पास भी कई निमंत्रण हैं, लेकिन आश्चर्य का विषय यह है कि इस बार बारात का एक भी निमंत्रण नहीं है। सभी लोग संगीत में निमंत्रित कर रहे हैं, बारात में तो केवल घर वाले ही रहेंगे। सुखद परिवर्तन है। परिवर्तन का कारण बना है – नोट बंदी और कालाधन। कन्या पक्ष को अपनी बात कहने का अवसर मिला है, उन्होंने दृढ़ता से कहा है कि ज्यादा बाराती नहीं चलेंगे।

शादियों में पहले कन्या पक्ष को सहयोग करने के लिये समाज आर्थिक सहयोग  करता था और समाज के लोग एक निश्चित राशि कन्या को देते थे, जिसे किसी मुखिया द्वारा लिखा जाता था, लेकिन अब लिफाफे में बंद राशि का प्रचलन चल गया है। नोटबंदी पर इस प्रथा में भी बदलाव आएगा और एक निश्चित राशि ही देने की परम्परा पुन: बनेगी। अभी लोहा गर्म है इसलिये चोट अभी ही करनी चाहिये, परम्पाराएं बदलने का सुनहरा अवसर है, बस कन्या पक्ष को दृढ़ रहने की आवश्यकता है।

Wednesday, December 7, 2016

यौन कुण्ठा से उपजा वहशीपन


जिस के फटी ना पैर बिवाई, वो क्या जाने पीर परायी। पुरुष-युवा मन की यौन कुण्ठा क्या है? भला मैं महिला होकर  कैसे जान सकती हूँ? क्या यह प्यास से भी भयंकर है? क्या यह भूख से भी अधिक मारक है? प्यास और भूख में तड़पता इंसान धीरे-धीरे शक्तिहीन होता जाता है लेकिन यौन पीड़ा से तड़पता पुरुष मारक होता जाता है। वह वहशी बनता जाता है और अपनी भूख समाप्त करने के लिये कुछ भी कर गुजरता है। ऐसा ही कुछ अभी उदयपुर में हुआ। 22 साल का लड़का यौन-कुण्ठा में इतना वहशी हो गया कि दो बच्चों की माँ को बेरहमी से खत्म कर दिया।
जैसे ही यौवन फूटने लगता है, मन के जज्बात निकलने के लिये कितने ही मार्ग तलाश लेते हैं। कभी माँ का सहलाना काम आ जाता है तो कभी घर की भाभी, चाची या अन्य रिश्तेदार का स्पर्श उसे राहत दे देता है। लेकिन जब परिवार में कोई ना हो, पढ़ाई की दीवार चारों तरफ खेंच दी गयी हो तब लावा एकत्र होने लगता है और कोई ना कोई विस्फोटक घटना को जन्म देता है। युवा या किशोर मन अक्सर आसान शिकार की खोज करता है, वह घर की या आसपास की उस महिला को चुनता है जहाँ महिला  पर आरोप लगाना सरल हो। सामूहिक परिवारों में यह समस्या रोज सामने रहती है, युवा मन की यौन कुण्ठा को निकलने का कोई ना कोई मार्ग मिल ही जाता है लेकिन एकल परिवारों में पढ़ाई के बोझ तले युवा कुण्ठा का शिकार हो जाते हैं।

उदयपुर की एक अघिवक्ता जो दो बच्चों की माँ थी, अपने कॉम्पलेक्स में पति के साथ रह  रही थी, थोड़ी अनबन दोनों के मध्य थी। उसी कॉम्प्लेक्स में रहने  वाला 22 वर्षीय युवक अपनी यौन कुण्ठा को लेकर सुबह 9.30 पर ही महिला के घर जा पहुँचा। वहाँ उसने महिला की चोटी पकड़कर दीवार पर सर पटक-पटक कर उसे मार दिया। इतनी भयंकर यौन कुण्ठा एक युवा को वहशी बना गयी और पूरे समाज पर एक प्रश्नचिह्न लगा गयी कि हम किस दिशा में अपने बच्चों को ले जा रहे हैं! अपने परिवार के युवाओं पर विचार कीजिये और उनकी यौन कुण्ठा निकालने के लिये परिवार में सहज वातावरण बनाइये। स्वाभाविक प्रेम यौन कुण्ठा को पीछे धकलेता है, खेलकूद शरीर की ऊर्जा को बाहर निकालता है। इसलिये युवक को घर घुस्सू मत बनाइये अपितु उसे अपनी बात निकालने का मौका दीजिये। घर में जितना हो सके बाते कीजिये, खुलकर हँसने की परम्परा बनाइये। चुप रहने से कुण्ठा का जन्म होता है और बोलने से कुण्ठा पनप नहीं पाती।

Saturday, December 3, 2016

और खीर बनती रहेगी

हमारी अम्मा एक कहानी सुनाती थी, उसे सुनने में बड़ मजा आता था, हम बार-बार सुनते थे। वैसे यह कहानी सभी ने सुनी है, कहानी गणेश जी की है। गणेश जी बालक का रूप धरकर, चुटकी में चावल और चम्मच में दूध लेकर घर-घर जा रहे हैं कि कोई मेरे लिये खीर बना दो - खीर बना दो। सब उस बालक पर हँसते हैं कि भला चुटकी भर चावल और चम्मच भर दूध से कैसे खीर बनेगी! लेकिन एक बुढ़िया तैयार हो जाती है। वह भगोने में दूध डालती है तो दूध खत्म ही नहीं होता, चावल डालती है तो खीर के अनुपात में बढ़ जाता है। सारे मौहल्ले, गाँव और दूसरो गाँवों तक को खीर खिला दी फिर भी खीर खत्म ही ना हो।
गणेश जी कहते हैं कि तुम चुटकी भर देना सीखो तो तुम्हारा दिया गया धन समाज के लिये कभी ना खत्म होने वाला धन बन जाएगा। लेकिन हम चुटकी भर भी नहीं देना चाहते। हम टेक्स को सजा मान बैठे हैं। इसलिये यह टेक्स समाप्त कर देना चाहिए। सुविधा शुल्क के रूप में पैसा लेना चाहिए। पानी, बिजली, फोन, नेट, बस, रेल, हवाई जहाज आदि-आदि सभी की रेट तय कर दो। हजार रूपया महीना जो देगा उसे पानी मिलेगा, दो हजार जो देगा उसे बिजली मिलेगी, ऐसे ही सभी की रेट निर्धारित कर दो। जो अमीर लोग प्रतिदिन हवाई यात्रा करते हैं उनके लिये भी रेट बना दो। माह में एक बार यात्रा करने पर यह रेट, रोज करने पर यह रेट। देखिये सारे ही लोग सुविधाएं खरीदने लग जाएंगे।
या तो गणेश जी की तरह चुटकी भर देना सीख लो या फिर रेट तय करा लो। तब समझ आएगा कि सरकार की सुविधा मुफ्त में ही ले रहे थे अभी तक! मुफ्त की सुविधा मिल रही हैं तो उसका मूल्य भी नहीं पता है, बस तोड़ने-फोड़ने को तैयार बैठे रहते हैं। यदि 125 करोड़ भारतीय टेक्स देना शुरू कर दें तो देश अमेरिका से कहीं अधिक धनवान हो जाएगा। आपको चुटकी भर देना हैं और चुटकी भर से ही देश का भगोना भर जाएगा और कभी ना खत्म होने वाली खीर बन जाएगी। गणेश जी सिखा गये थे चुटकी भर देना और घर की बड़ी-बूढ़ी दादी ने बता दिया था कि चुटकी भर से भी कभी ना खत्म होने वाली खीर बन सकती है। बस आप देते रहो और खीर बनती रहेगी।

पंखुड़ी बनते ही बिखर जाएंगे

कल फतेह सागर झील के ऊपर कुछ पक्षी कतारबद्ध होकर उड़ रहे थे, उनका मुखिया सबसे आगे था। मुखिया को पता है कि उसे कहाँ जाना है, उसकी सीमा क्या है। किस पेड़ पर रात बितानी है और कितनी दूर जाना है। सारे ही पक्षी अपने मुखिया पर विश्वास करते हैं। सभी को पता है कि हमारी भी एक सीमा है, हम सीमा के हटकर कुछ भी करेंगे तो जीवन संकट में पड़ जाएगा। हम अपने घर में, समाज में, देश में सीमाएं या नियम इसीलिये बनाते हैं कि सब सुरक्षित रहें लेकिन कुछ लोग अपनी सीमाओं को तोड़ने का दुस्साहस करते हैं। वे स्वयं की सुरक्षा को तो ताक पर रख ही देते हैं साथ ही पूरे परिवार की, समाज की और देश की सुरक्षा को भी ताक पर रख देते हैं। आज कुछ पत्रकार, कुछ साहित्यकार और कुछ सोशल मीडियाकार सीमाओं से परे जाकर सभी की सुरक्षा से खिलवाड़ कर रहे हैं। वे देश के नागरिक को अपने कानून बनाने के लिये उकसा रहे हैं, जिससे वे समूहबद्ध ना रहकर तितर-बितर हो जाएं और फिर किसी का भी आसान शिकार बन जाएं।
पक्षी अपने झुण्ड से यदि बिछुड़ जाता है तो वह अपने जीवन को सुरक्षित नहीं रख पाता, ऐसे ही कोई भी नागरिक अपने देश की पहचान से विलग हो जाता है तब वह आसान शिकार बन जाता है। उसे अपनी पहचान के लिये कुछ राष्ट्रीय प्रतीकों को धारण और सम्मान करना पड़ता है, जैसे राष्ट्रीय झण्डा, राष्ट्र गान, राष्ट्रीय मुद्रा आदि। इनका अपमान देश का अपमान होता है और वह व्यक्ति देश के हित में ना होकर अहित में खड़ा होता है।
हमारे देश में थियेटर में राष्ट्र गान की परम्परा पुरानी है, सुप्रीम कोर्ट ने इसी परम्परा को बनाये रखने का आदेश दिया है लेकिन कुछ सिरफिरे लोग जिन्हें शायद परिवार की भी सीमाओं का ज्ञान नहीं हैं वे राष्ट्रगान का अपमान करके अपनी कलम की धार पैनी करने का ख्वाब देख रहे हैं। ऐसे लोग उस पक्षी की तरह हैं जो झुण्ड से बिछुड़कर खो जाता है। हमारा देश नहीं हैं तो हम भी नहीं हैं। हम विदेश में भी जाकर अपने देश के बलबूते पर ही बस सकते हैं, हमारा अस्तित्व केवल मात्र देश से ही है। इसलिये देश के प्रतीक चिह्नों का सम्मान करना हमारे लिये सुरक्षा की चाबी है। कुरान की आयतें बोलकर आप आतंक के आकाओं से तो बच जाएंगे लेकिन जब देश की पड़ताल होगी तब राष्ट्रगान ही आपको बचा पाएगा। ऐसे बुद्धिजीवियों से बचिये जो आपको गैर जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिये उकसा रहे हों। आप फूल है जब तक सुरक्षित हैं, पंखुड़ी बनते ही बिखर जाएंगे।

Friday, December 2, 2016

तू भी मेहमान - मैं भी मेहमान

पण्डित रामनारायण शास्त्री अपने बेटे के पास शहर आये, उनका परिचय इतना कि ये शिवराज के पिता हैं। सारे ही मोहल्ले में घूम आयें लेकिन कोई ना कहे कि शास्त्री जी आओ बैठो। बस सभी यही कहें कि अरे शिवराज जी के पिता हैं। एक दिन गुजरा दो गिन गुजरे यहाँ तक की एक महीना गुजर गया लेकिन उनकी पहचान ही नहीं, बस टल्ले खाते घूम रहे हैं। बेटा-बहु नौकरी पर चले जाएं और शास्त्रीजी इधर-उधर टहलते रहें। घर पर डाकिया भी आये तो पूछे कि शिवराज जी का घर है? एक दिन पानी सर से ऊपर उतर ही गया और शास्त्री जी ने आव देखा ना ताव बस एक साइन-बोर्ड बना डाला। एक पुठ्ठे का टुकड़ा लिया, उसे एक सा किया और उसपर नाम लिखने के लिये पेन-पेंसिल ढूंढने लगे, नहीं मिली। बहु की ड्रेसिंग टेबल तक गये और लिपिस्टिक उठा लाए। मोटे-मोटे अक्षरों में लिख दिया - पण्डित रामनारायण शास्त्री का मकान। ले अब पूछ कि आप कौन हैं? अब शिवराज कौन? पण्डित रामनारायण शास्त्री का बेटा।
यह तेरा घर - यह मेरा घर, घर बड़ा हसीन है। घर की यही कहानी है। पिता कहते रहे कि यह मेरा घर है, यहाँ मेरे हिसाब से ही पत्ता हिलेगा, जब बेटे ने दूर शहर में घर बसाया तो उसने भी यही कहा कि यह घर मेरा है, यहाँ मेरे हिसाब से ही पत्ता हिलेगा। फिर समय बदला, पिता ने कहा कि यह घर मेरा है, मेरे बेटों का है। बेटे भी आँख दिखाने लगे कि घर में यह होना चाहिये यह नहीं। पिता कैसे भी उनकी मर्जी पूरी करते रहे। आखिर मालिक तो बाद में यही है, कह-सुनकर मन बहलाते रहे। बेटा महानगर या विदेश में जा बसा, उसका घर अलग और पिता का घर अलग हो गया।
बेटा जब पिता के घर आये तो बहुत नाक-भौं सिकुड़े कि मकान में यह नहीं है, वह नहीं है। पिता भी अपनी जमा-पूंजी से बेटे की आवाभगत में कसर नहीं छोड़े। लेकिन जब माता-पिता बेटे के घर जाएं तो रहने को कमरा भी ना मिले, बेचारे ड्राइंगरूम में ही सोकर अपने दिन गुजारें। कई बेटों ने तो माता-पिता के रहते उनका ही मकान बेच दिया और वे सड़क पर आ गये। माता-पिता कहते कि हमारा घर तो तेरा है लेकिन तेरा घर हमारा क्यों नहीं है! बेटा गुर्रा जाता, कहता कि कौन सी किताब में यह लिखा है? लेकिन कल गजब का सूरज निकला, कोर्ट ने कह दिया कि पिता का घर बेटे का नहीं है। अब तू भी गा और मैं भी गाऊं – यह तेरा घर – यह मेरा घर। तू भी मेहमान - मैं भी मेहमान। 

इस शिखर से तिरंगा सारी दुनिया को दिखायी देगा

पहले एक लघु-कथा - पहाड़ की साधी सपाट चोटी पर चढ़ने की प्रतियोगिता हो रही थी, भाग ले रहे थे मेढ़क। कुछ मोटे-ताजे और कुछ कमजोर व नाटे। अभी बर्फ भी पड़ कर चुकी थी तो पहाड़ फिसलन भरे थे लेकिन मेढ़कों में उत्साह की कमी नहीं थी। दर्शक भी चारों तरफ आकर खड़े हो गये थे और पत्रकार भी। चारों तरफ से आवाजें आ रही थीं कि ये मरियल से मेढ़क इस चढ़ाई को पूरा नहीं कर सकते हैं। आखिर रेस शुरू हुई और आवाजों का शोर भी बढ़ने लगा। ये पिद्दी ना पिद्दी का शोरबा, भला कैसे रेस पूरी करेंगे! ये कैसे पहाड़ की चोटी तक पहुँचेंगे! मेढ़क टपकने लगे, शोर बढ़ने लगा लेकिन देखते ही देखते एक मेढ़क चोटी पर जा पहुँचा। सारे ही पत्रकार दौड़ पड़े, उस मेढ़क से प्रश्न पूछने लगे कि तुमने कैसे इस दुर्गम चढ़ाई को पूरा कर लिया? क्या तुमने हार्लिक्स पिया था या कोई और उपाय किया था? ना-ना प्रकार के सवाल किये गये लेकिन जवाब नहीं आया, पता लगा कि मेढ़क बहरा था। उसने हताशा की आवाजें सुनी ही नहीं, बस केवल ध्येय पर ध्यान दिया और लक्ष्य पूरा किया।
आज की राजनीति में भी यही हो रहा है, चारों तरफ से हताशा की आवाजे आ रही हैं, मोदीजी ने अपनी राजनैतिक बुलंदियों के दुर्गम पहाड़ पर चढ़ना शुरू ही किया था कि सारे ही लोग चिल्लाने लगे, यह सम्भव नहीं है, यह काम हो ही नहीं सकता और मोदीजी कान में रूई डालकर बस चढ़ते रहे चढ़ते रहे। पहाड़ चढ़ने के बाद ही उन्होंने कान से रूई निकाली। अब वे पहाड़ की चोटी पर हैं और सारे ही विरोधी नीचे तलहटी में खड़े उन्हें नीचे पटकने की चेतावनी दे रहे हैं। वे देश के दुर्गम पहाड़ पर चढ़ चुके हैं, उन्होंने डर को परास्त कर दिया है अब वे ऊतुंग शिखर पर तिरंगा फहराने जा रहे हैं। इस शिखर से तिरंगा सारी दुनिया को दिखायी देगा।

महिलाएं तो बदनाम हो गयीं पर पुरुषों का क्या?

हमारे पिताजी लिफाफे के सख्त खिलाफ थे। आप पूछेंगे की लिफाफे ने क्या बिगाड़ दिया? लिफाफे का तात्पर्य होता है गोपनीयता या छिपाकर कुछ करना। हम शादी में शगुन देते थे, सभी पंचों के समक्ष देते थे, लिखे भी जाते थे कि किसने क्या दिया? समाज जो नियम बनाता था उसी के अनुसार शगुन दिया जाता था, लेकिन फिर आया लिफाफे का चलन। लिफाफे में क्या है, पता ही नहीं! गुपचुप तरीके से समाज के नियम को तोड़ा गया। पिताजी तो शादी के निमंत्रण-पत्र को भी लिफाफे में नहीं रखने देते थे। मेरी शादी का कार्ड छपा, लेकिन लिफाफा नहीं, अब बड़ी शर्म लगे कि बिना लिफाफे के कार्ड अपने इष्ट-मित्रों को कैसे दें? सबसे बड़ी दुविधा तो थी कि अपने गुरुजनों को और सहकर्मियों को कैसे दें? अब रास्ता खोजा गया जैसे आज नोट-बदली में खोजा जा रहा है – पिताजी से कहा कि कार्ड तो दूसरे शहर भेजने हैं, लिफाफा तो लगेगा ही। इस बात को उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और हमने लिफाफा लगा ही दिया।
नोट-बदली की जब बात आ रही है तब महिलाओं द्वारा छिपाये धन की भी बात आ रही है। प्रधानमंत्री जी के पास भी यह बात गयी और उन्होंने हमारे पिताजी ने जैसे लिफाफे में छूट दी थी वैसे ही महिलाओं को मोदीजी ने छूट दे दी। लेकिन छिपाकर धन रखने की बात घर में तो बाहर आ गयी और पता लग गया कि महिलाएं धन छिपाती हैं। मेरे जैसी महिला जो पिताजी के नियमों से बंधी थी तो छिपाने की बात तो सपने में भी नहीं सोची जा सकती थी इसलिये मेरे पास कोई छिपा धन था ही नहीं। हमने बड़े गर्व से कहा कि नो लिफाफा बाजी। लेकिन महिलाएं तो बदनाम हो गयीं पर पुरुषों का क्या? कल पतिदेव एक गड्डी लेकर आये कि यह बैंक में जमा करा देना। मैं आश्चर्य चकित की कहाँ से आया यह रूपया! वे बोले कि एक व्यक्ति को जरूरत थी तो लेकर गया था आज वापस दे गया। एक तरफ तो हरीश चन्द्र बने घूम रहे हैं पुरुष लोग कि हम तो सारा पैसा पत्नी को दे देते हैं और एक तरफ बड़ी-बड़ी रकम भी छिपाकर दे दी जाती है! भाइयों और बहिनों केवल महिलाओं को ही बदनाम मत करो, पुरुषों से भी पूछो कि कितना कहाँ छिपाया था? मुन्नी तो बदनाम हो गयी लेकिन मुन्ना भाई भी तो नकली MBBS बने घूम रहे हैं। कहीं डूब गयो हैं और कहीं पुराने वसूल रहे हैं।

कैसी किरकिरी कर दी तूने!

अरे डोकरी के पास खजाना कितना निकला? पड़ोस की काकी मरी और अभी अर्थी उठी भी नहीं थी कि कानाफूसी होने लगी। काकी के जीवन की पूंजी ही यही थी कि मेरे मरने के बाद कितना माल निकलता है, बस इसी शान को बढ़ाने के लिये काकी जीवन भर संचय करती रही। आज घर-घर में ऐसी काकियों के खजाने पर नजर टिक गयी है। एक हम हैं कि दो पैसे भी नहीं है खजाने में! इज्जत को सारा जीवन रोते रहे हम और आज मोदी ने सारी पोलपट्टी खोलकर रख दी, कोई खजाना नहीं! अब काहे की इज्जत! बेगैरत से हो गये हैं हम। अजी तुम्हारी बातें अब रहने ही दो, खीसे में दमड़ी नहीं और देने चले हैं हमको उपदेश। घर वालों ने जैसे लात ही मार दी, कौन दो कोड़ी की औरत की बात पर ध्यान दे! 
हम अपने घर वालों को समझाने में असफल हो गये कि हमारी भी कोई औकात है, लेकिन वे मानने को ही तैयार नहीं। उपेक्षा भरी दृष्टि के पात्र हो गये हैं हम। घर का हर सदस्य अफरा-तफरी में लगा है, कुछ ना कुछ बचाने की जोड़-तोड़ कर रहा है, भागते चोर की लँगोटी ही सही। लेकिन हम निश्चिंतता के साथ शब्दों को तौल रहे हैं, जितना पिटारे से निकालते हैं उतने ही वापस आ जाते हैं, हम स्वयं को अमीर समझ बैठे हैं लेकिन जब घर वाले ही दो कौड़ी का मान बैठे तो आस-पड़ोस, रिश्तेदार तो क्या मान देंगे! हे भगवान! कहीं समधी भी यह ना कह बैठे कि कैसे कंगले घर में बेटी को ब्याह दिया! सारे ही फोन खामोश हो गये हैं, यदि हम कर भी दें तो लोग यह कहकर काट देते हैं कि तुम्हारे पास तो समय ही समय है लेकिन हमें तो बहुत काम है। कई बैंक खातों में कुछ ना कुछ जमा कराना है, अब तुम तो इस लायक भी नहीं कि तुम्हारें बैंक में कुछ डला ही दें।
ऐसे लगने लगा है कि हमारा जनम भी बिगड़ गया है और मरण भी। भला मेरे मरने में किसको रुचि रहेगी! कौन आएगा मिट्टी को ठिकाने लगाने! पोटली को खोलने की बात तो दूर-दूर तक भी सोची नहीं जाएगी, पहले ही पोलपट्टी खुल गयी है। जब धन छिपाकर रखने के दिन थे तब तो एक धैला नहीं मिला अब जब छिपाने की गुंजाइश ही नहीं तो डोकरी ने क्या छिपा लिया होगा? कहीं ऐसा नहीं हो कि चार लोग भी नहीं जुटे हमारी मैय्यत में! हाय मोदी – हाय मोदी कर रही हूँ तभी से, कैसी किरकिरी कर दी तूने! 

ढाई लाख ले लो

ढाई लाख ले लो – ढाई लाख ले लो, की आवाजें घर-घर से आ रही हैं। कुछ दिन पहले इन्हीं घरों से आवाजें आ रही थी – मेरे 15 लाख कहाँ है – 15 लाख कहाँ हैं? अब बाजी उलट गयी है, 15 लाख की मांग की जगह ढाई लाख देने की आवाज लगायी जा रही है। महिलाओं को लुभाया जा रहा है, अरे तुम तो गृहिणी हो तुम्हें तो ढाई लाख की छूट है तो हमारे ढाई लाख ले लो। जो लोग नौकरी करते हैं, जब ये आवाजें उनके घर से भी आना शुरू हो जाए तो मन कसैला सा हो जाता है। रिश्वत खोर है यह जग इतना तो मुझे पता था लेकिन तुम भी, तुम भी कहते हुए दिन निकालने पड़ेंगे यह पता नहीं था।
मेरे बचपन के एक पारिवारिक मित्र थे, हमारे ही शहर में रहने आ गये थे तो हमारे संरक्षक जैसे बन गये थे। रोज ही का आना जाना था एक दिन मेरे ही घर की एक बालिका ने उनकी शिकायत हम से कर दी, हम दंग रह गये। इतना धार्मिक और बड़ा व्यक्ति और ऐसी हरकत! जब मैं नौकरी में थी और चिकित्सा करना मेरा कार्य था, वहाँ भी देखती कि आसपास के रिश्ते या आसपड़ोस के कई किस्से मेरे पास आते, मैं तब भी दंग रह जाती। तब आँख को चौकन्ना रखने की इच्छा होती और पाती की न जाने कितने लोग चरित्र के पायदान पर फिसल रहे हैं, वे अपनों को ही शिकार बना रहे हैं।
समाज का चरित्र जानकर कल तक लोग चौकन्ना रहने लगे थे और आज समाज का रिश्वतखोर या चोर रूप देखकर लोग चौकन्ने हो रहे हैं। कैसे-कैसे मासूम चेहरे ढाई लाख ले लो- ढाई लाख ले लो की रट लगा रहे हैं। सहकारी बाजार में भीड़ भरी है, साल का दो साल का राशन खरीदा जा रहा है, हवाई यात्राएं की जा रही हैं, कहने का तात्पर्य है कि रूपये के रूप में जिन्दगी की गारण्टी ली जा रही है। दानवीर राजाओं के, त्यागी संतों के उदाहरण देते हम थकते नहीं हैं लेकिन जब खुद का नम्बर आता है तब ये उदाहरण चुपके से कोने में दुबक जाते हैं।
वस्तुतः हम सब लालची लोग हैं, दुनिया के सारे ही ऐश्वर्य को भोगना चाहते हैं। कोई इस दुनिया में भोग कर जाना चाहता है तो कोई दूसरी दुनिया में भोगने की इच्छा रखता है। लालची सभी हैं। जब हम स्वर्ग या जन्नत की इच्छा रखते हैं तो लालच को तो अपने अन्दर पनपने का अवसर दे ही रहे हैं। जैसे अपने घर वालों के समक्ष चरित्र उज्जवल रखने की चेष्टा करते हैं और दूसरी दुनिया दिखते ही चरित्र को धता बता देते हैं। अपने घर में चोरी को अपराध बताते हैं और नौकरी में चोरी करने को हक मान लेते हैं। इसलिये लालच इस दुनिया में सुख भोगने का करो या स्वर्ग के लिये करो, लालच तो हैं ही हम में। ढाई लाख की आवाजें आपको भी डिगा रही हैं, क्या पता लगेंगा रख लो। लेकिन आपके मन को तो पता है, आपका मन तो कहेगा ही कि तुमने चोरी नहीं की तो क्या, चोरी के रूपयों का भोग तो किया। कल तक जो लोग अपना कबाड़ आपको थमा रहे थे, उस कबाड़ के कारण आप कबाड़ी तो बनेंगे ही लेकिन कभी ऐसा ही प्रसंग दुबारा आया तो आप भी आवाज लगा रहे होंगे – ढाई लाख ले लो – ढाई लाख ले लो।

Monday, November 28, 2016

"मैं कौन हूँ"

बहुत पहले एक मलयालमी कहानी पढ़ी थी, यह मेरे जेहन में हमेशा बनी रहती है। आप भी सुनिए –
एक चींटा था, उसे यह जानने की धुन सवार  हो गयी कि "मैं कौन हूँ"। उसे सभी ने राय दी कि तुम गुरुजी के पास जाओ वे तुम्हारी समस्या का निदान कर देंगे। वह गुरुजी के पास गया, उनसे वही प्रश्न किया कि "मैं कौन हूँ"। गुरुजी ने कहा कि यह जानने के लिये तुम्हें शिक्षा लेनी होगी। वह चींटा गुरुजी की पाठशाला में भर्ती हो गया, अब वह वहाँ अक्षर ज्ञान सीखने लगा लेकिन कुछ दिन ही बीते थे कि उसने फिर वही प्रश्न किया - "मैं कौन हूँ"। गुरुजी ने कहा कि इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास नहीं है तुम दूसरे गुरुजी के पास जाओ, वे रामायण, महाभारत आदि के बारे में ज्ञान देंगे। अब वह वहाँ पहुँच गया और पाठशाला में भर्ती हो गया। कुछ दिन अध्ययन किया लेकिन फिर वही प्रश्न उसे मथने लगा और गुरुजी से पूछ लिया कि राम और कृष्ण के बारे में तो मैं जान गया हूँ  लेकिन "मैं कौन हूँ", इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा है। इस बार गुरुजी ने वेदों के ज्ञाता गुरुजी के पास भेज दिया। वहाँ वह वेदों का ज्ञान लेने लगा लेकिन फिर वही प्रश्न "मैं कौन हूँ", सामने आकर खड़ा हो गया। गुरुजी ने हाथ जोड़ लिये और वह चींटा भी थक-हार कर अपने घर लौट आया।
घर में नजदीक आते  ही देखा कि हजारों-लाखों चींटे खड़े हैं और चिल्ला रहे हैं। उसे नजदीक आता देख वे खुश होने लगे, उसे सभी ने घेर लिया। वे सभी बोले कि हमारे घर में एक अजगर ने कब्जा कर लिया है, अब तुम आ गये हो, तुम पढ़े-लिखे हो तो तुम अजगर से हमें मुक्ति दिलवा दो। चींटा अपनी अकड़ में घर में गया और विशाल अजगर को देखकर बोला कि जानते नहीं मैं कौन हूँ! अजगर ने उसे ऊपर से नीचे की ओर देखा और कहा कि तुम एक चींटे हो। मैं चींटा हूँ? चींटा चिल्लाया। हाँ तुम इन जैसे ही एक साधारण चींटे हो, अजगर ने लापरवाही से कहा। अब चींटे को ज्ञान हो गया था। वह बाहर आया और सारे चींटों से कहा कि भाइयों मेरे साथ चलो, वह सभी चींटों को घर में अन्दर ले गया और कहा की टूट पड़ो इस अजगर पर। पलक झपकते  ही अजगर का नामोनिशान मिट गया।

अब आते हैं वर्तमान पर। मोदीजी ने कहा कि भ्रष्टाचार रूपी एक अजगर हमारे घरों में घुस गया है, तुम सब अपनी ओर देखों और पहचानो खुद को कि तुम कौन  हो? तुम 125 करोड़ भारतीय हो, तुम खुद को खोज रहे हो – किसी जात में, किसी वर्ग में, किसी धर्म में, लेकिन तुम यह नहीं देख पा रहे कि तुम्हारे पूर्वज एक थे, तुम्हारा डीएनए एक है, तुम्हारी संस्कृति एक है। इसलिये आओ मेरे साथ और भ्रष्टाचार रूपी जो अजगर हमारे घर में घुस गया है, उसे एक साथ मिलकर मार गिरायें। आएंगे ना?

Sunday, November 20, 2016

क्या पता इतिहास के काले अध्याय भी सफेद होने के लिये मचल रहे हों!



मुझे रोजमर्रा के खर्च के लिये कुछ शब्द चाहिये, मेरे मन के बैंक से मुझे मिल ही जाते हैं। इन शब्दों को मैं इसतरह सजाती हूँ कि लोगों को कीमती लगें और इन्हें अपने मन में बसाने की चाह पैदा होने लगे। मेरे बैंक से दूसरों के बैंक में बिना किसी नेट बैंकिंग, ना किसी क्रेडिट या डेबिट कार्ड के ये आसानी से ट्रांस्फर हो जाएं बस यही प्रयास रहता है। मुझे अन्य किसी मुद्रा की रोजमर्रा आवश्यकता ही नहीं पड़ती लेकिन यदि ये शब्द कहीं खो जाएं या फिर प्रतिबंधित  हो जाएं तो मेरा जीवन कठिनाई में पड़ जाएगा।
मुझे कुछ ऐसी घटनाएं भी चाहिएं जो मेरी संवेदना को ठक-ठक कर सके, मेरी नींद उड़ा दे और फिर मुझे उन्हें शब्दों के माध्यम से आकार देना ही पड़े। घटनाएं तो रोज ही हर पल होती है, अच्छी भी और बुरी भी, लेकिन किसी घटना पर मन अटक जाता है। उस अदृश्य मन के अंदर सैलाब सा ला देता है और फिर वही मन अनुभूत होने लगता है। दीमाग सांय-सांय करने लगता है और तब ये शब्द ही मेरा साथी बनते हैं।
पहले मुझे कलम चाहिए होती थी, कागज चाहिए था लेकिन अब अदद एक लेपटॉप मेरा साथी बन जाता है। अंगुलिया पहले कलम पकड़ती थी और अब की-बोर्ड पर ठक-ठक करती हैं और मन बहने लगता  है। शब्द न जाने कहाँ से आते हैं और लेपटॉप की स्क्रीन पर सज जाते हैं। मन धीरे-धीरे शान्त होने लगता है।

कुछ समय भी चाहिये मुझे, मन की इस उथल-पुथल को जो साध सके और शब्दों को आने का अवसर दे सके। मेरी संवेदनाएं मुझ पर इतना हावी हो जाती हैं कि मैं अपने सारे ही मौज-शौक से समय चुराकर इनको दे देती हूँ। कई मित्र मुझे लताड़ने लगे  हैं, उलाहना देने लगे हैं लेकिन मैं समय को संवेदनाओं के पास जाने से रोक नहीं पाती  हूँ। अब बस मैं हूँ और मेरी संवेदना है, मेरा इतना ही खजाना है। इससे अधिक पाने की लालसा भी नहीं है, इसलिये किसी बैंक की चौखट चढ़ने का मन ही नहीं होता। इन शब्दों के सहारे, घटनाओं से संवेदना को मन में पाने के लिये जो समय  अपने लेपटॉप पर व्यतीत करती  हूँ बस वही तो मेरा है। यह सारा ही, काला या सफेद धन ना मुझे शब्द दे पाते हैं, ना संवेदना जगा पाते हैं। ना मेरा लेपटॉप शब्द उगल पाता है और ना  ही मन समय निकाल पाता है। लोग पाने के लिये बेचैन  हैं और मैं देने के लिये। मैं शब्द  ही कमाती हूँ और शब्द ही खर्चती हूँ। शायद ये भी कभी काले और सफेद की गिनती में आ जाएं! पुस्तकालयों में बन्द लाखों करोड़ शब्द कहीं काले धन की तरह बदलने के लिये बेताब ना हो जाएं! लगे हाथों इन्हें भी बाहर की खुली हवा दिखा दो, क्या पता इतिहास के काले अध्याय कहीं सफेद होने के लिये मचल रहे  हों!

Saturday, November 19, 2016

तीर्थ का पानी अमृत हो गया है


चलिये आपको 70 के दशक में ले चलती हूँ, जयपुर की घटना थी। रेत के टीलों से पानी बह निकला था और शोर मच गया था कि गंगा निकल आयी है। मैं तब किशोर वय में थी। गंगा जयपुर के तीर्थ गलता जी के पास के रेतीले टीलों से निकली थी  और गलताजी जाना हमारा रोज का ही काम था। गलता के मुख्य कुण्ड से यह स्थान तकरीबन एक किलोमीटर रहा होगा। हमारा बचपन जयपुर के टीलों पर धमाचौकड़ी करते  हुए ही बीता है, ये टीले जैसलमेर के सम के समान थे, अब तो बहुत जगह बस्ती बस गयी है तो टीले कम होते जा रहे हैं। रेत के टीलों से गंगा निकलना चमत्कार ही था और सभी ने इसे चमत्कार ही माना भी।
फिर आया 1980, गलता जी पर इन्द्र देव तूफान बनकर टूट पड़े और पलक झपकते ही गलता के सातों कुण्ड रेत से सरोबार  हो गये। दूर-दूर तक एक मैदान दिखायी देने लगा। जिन टीलों से गंगा निकली थी, पानी की आवक वहीं से हुई थी। पता लगा कि यहाँ टीलों पर कच्चा बांध बना था और यहीं से पानी रिसकर जमीन में रेंगता हुआ गलता जी में हर पल आता रहता था। जिस सत्य को कोई भी वैज्ञानिक नहीं पकड़ पाये वह सत्य अब सबके सामने प्रत्यक्ष था। जिस वैज्ञानिक ने इस कल्पना को साकार किया था वह ऋषि-वैज्ञानिक थे – गालव ऋषि। जब उन्होंने इस रचना की कल्पना की होगी तब उनके साथियों ने और जनता ने इसे असम्भव बताया होगा और जब यह मूर्त रूप में परिणित हो गया होगा तब अनेक परामर्श आ गये होंगे कि इस कुण्ड को ऐसे नहीं ऐसे बनाना चाहिये था। कुण्ड की लम्बाई इतनी होनी चाहिये थी आदि आदि।
आज ऐसी ही कहानी दोहरायी जा रही है, जिस समस्या के समाधान की किसी  को कल्पना तक नहीं थी, उसको मोदीजी ने साकार किया। अब लोग राह चलते परामर्श दे रहे हैं कि ऐसे नहीं ऐसे योजना लागू करनी चाहिए थी। कुण्ड में जो मोखे बने हैं उसमें फंसकर लोग मर  जाते हैं इसलिये ये मोखे नहीं होने चाहिये थे। पहाड़ पर चढ़कर जब लोग कुण्ड में छलांग लगाते हैं तब लोग इन मोखों में फंस जाते हैं और मर जाते हैं। नोटबंदी को कारण जब बैंक में पैसा निकालने के लिये लाईन लगती है तो लोग भूखे-प्यासे हो जाते हैं और कोई तो मर भी जाते हैं, इसलिये इसे ऐसे नहीं ऐसे लागू करना चाहिये था। कोई कह रहा है कि सात दिन का नोटिस देना चाहिये था, कोई कह रहा है कि इतने पैसे निकालने की छूट होना चाहिये थी. मतलब की सारे ही ज्ञानी बन गये हैं। रेत के टीलों से होकर पानी कैसे कुण्ड तक पहुँचेगा यह कल्पना गालव ऋषि ने की, किसी वैज्ञानिक को पता भी नहीं चला कि यह  पानी किस मार्ग से कुण्ड तक पहुंचता है और पर पल कुण्ड में जाकर गिरता है। मोदी ने कल्पना की कालेधन को रेत के टीलों पर बांधने की, वहाँ से जमीन के अन्दर से गुजर कर कुण्ड में समाने की और पूरे देश के लिये एक तीर्थ देने की।

मोदी ने तो कल्पना को साकार कर दिया, अब तुम नुक्ताचीनी करके अपना ज्ञान बघारलो। तीर्थ का निर्माण तो हो गया अब देश पवित्र जल में डुबकी लगाने को तैयार है। तुम कुण्ड के मोखों की गणना कर-कर के बचाने के रास्ते ढूंढते रहो। मोखे तो गालव ऋषि ने जब बनाये थे तो कुण्ड की सुरक्षा के लिये ही बनाये थे, मौदी ने भी बैंक रूपी मोखों को मजबूत किया है तो कुण्ड की सुरक्षा के लिये ही किया  है। तुम नहीं समझोंगे, इसे कल्पनाकार ही समझ सकता है, तुम अपने दीमाग को मत लड़ाओ। पानी जिस मार्ग से जाना है उसी मार्ग से जाएगा और कुण्ड भरेगा ही। अब यह निर्मल पानी का कुण्ड  होगा, यहाँ के स्नान से सभी के पाप कटेंगे। कल तक जो पानी अनुपलब्ध था, खारा था, लोग प्यासे थे अब वही पानी निर्मल हो गया है। सभी की प्यास अब बुझेगी। अब यह कुण्ड तीर्थ बन गया है और तीर्थ का पानी अमृत हो गया है। 

Friday, November 18, 2016

बस तैल देखिये और तैल की धार देखिये


दीवारों के पार की बाते सुनने की चाह भला किसे नहीं होती?  क्या कहा जा रहा है  इसकी जिज्ञासा हमें दीवारों पर कान लगाने को मजबूर करती हैं। रामचन्द्र जी ने भी यही कोशिश की थी और अपनी पत्नी को ही खो बैठे थे। दीवारों के भी कान होते हैं. यह कहावत शायद तभी से बनी होगी। इमामबाड़ा तो बना ही इसलिये था, दीवारे भी बोलती थी और दीवारों के पार क्या हो रहा है दिखायी भी देता था। कितने ही राजा इस रोग के मरीज रहे हैं, बस रात हुई नहीं कि निकल पड़े वेश बदलकर, प्रजा मेरे बारे में क्या कहती है? प्रजा आपके बारे में सबकुछ कहेगी, अच्छा भी कहेगी और बुरा भी कहेगी। ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसके लिये सारी प्रजा आपको अच्छा ही कहेगी। इसलिये कान अनावश्यक बातों के सुनने के लिये मत लगाइए। लेकिन आज के युग  की कठिनाई है कि आप दीवार पर कान नहीं सटाते तो क्या, आपको सारा दिन चीखने वाले न्यूज चैनल उनकी बतकही कानों में ठूंसकर ही दम लेते हैं। बातों का अम्बार लग गया है, खोज-खोजकर तर्क घड़ने की होड़ मची है। यदि आपने सबकुछ सुन लिया तो आप विक्षिप्त भी हो सकते हैं।
अपने सत्य की खोज आप स्वयं कीजिए, किसी को सुने बगैर। सूरज आपको रोशनी देता है तो आप खुश हो लीजिए, दूसरा यदि कह रहा है कि सूरज मेरी त्वचा को जला  रहा है, तो यह उसका सत्य है। आप उसके और अपने सत्य को मिलाने लगेंगे तो भ्रमित हो जाएंगे। आज यही हो रहा है,  कुछ  लोगों ने भ्रमित करने का ठेका ले रखा है। सारा दिन टीवी पर बैठकर लोगों को भ्रमित करते हैं, इसलिये मत दीजिये उन पर कान। नहीं तो आप भी कुछ न कुछ आपका प्रिय खो बैठेंगे। अपने दीमाग का रिमोट अपने पास ही रखें, दूसरों के  हाथों में नहीं सौंपे। आज विज्ञान का युग है, मेरा कम्प्यूटर जब खराब होता है तो दूर अमेरिका में बैठा मेरा बेटा उसे अपने कंट्रोल में लेकर वहीं से ठीक कर देता है। इसी प्रकार इन टीवी वालों को भी आप अपने दीमाग का कम्प्यूटर ना सौंपे, ये दिल्ली में बैठकर ही आपकी सेटिंग बदल देंगे।

सदियों पहले साहित्यकार आपको बदलता था,  फिर समाचार पत्र आये, रेडियो से आप बदलने लगे और अब आप टीवी से बदल रहे हैं। कानों को आप दीवार पर नहीं लगाते तब भी आपको अनर्गल बकवास सुनायी पड़ ही जाती है। सतर्क रहें, आपके दीमाग का बदलीकरण हो रहा है और यह बदलीकरण अपको कहीं आपसे ही ना छीन ले। आप हर अच्छे काम में नुक्स निकालने वाले बन जाएंगे और स्वच्छ पानी में भी कीड़े कुलबुलाते हुए दिखायी देंगे। जैसे भगवान पर भरोसा करते हैं, प्रकृति पर भरोसा करते हैं वैसे ही अपने परिक्षित नेता पर भी करिये। ये कुतर्क घड़ने वाले लोग आपके दीमाग की चूलें तक हिला देंगे, इसलिये इनपर कान देकर अपना समय बर्बाद मत कीजिये। जो काम आपके वश का नहीं है उस पर सर क्यों खुजाना? बस तैल देखिये और तैल की धार देखिये।

Wednesday, November 16, 2016

आत्मा की नीयत बदलने वाला नोट ही बदल दिया है मोदी ने


भगवान के दरबार में सभा चल रही थी, भगवान ने बताया कि धरती पर मनुष्य नाम के प्राणी की आत्मा में बहुत विकृति आ गयी है। वे दिखने में तो मनुष्य ही दिखते हैं लेकिन उनका कृत्य कुत्ते, सूअर आदि के समान हो गया है इसकारण इन प्राणियों में काफी रोष व्याप्त है। कुत्ता कह रहा है कि हम सब से अधिक वफादार होते हैं इसलिये हम मालिक की सुरक्षा के लिये भौंकते हैं और जिस व्यक्ति से खतरा होता है उसी पर भौंकते हैं। लेकिन यह मनुष्य सच्चे इंसानों पर ही भौंकने लगे हैं और हमें गाली पड़वाने लगे  हैं। पागल की तरह किसी को भी काट लेते हैं और फिर गाली पड़ती है कि तू कुत्ते की मौत मरेगा। इसी प्रकार सूअर भी शिकायत कर रहे हैं कि हम धरती की गन्दगी को समाप्त करते हैं लेकिन ये धरती को गन्दा कर रहे हैं और सूअर के नाम की इन्होंने गाली बना दी है।
इसलिये मैंने निर्णय किया है कि आत्मा का ही नवीनीकरण कर दूँ। एक बार साफ धो-पोछकर इनका कल्याण कर दूँ।
लेकिन भगवन इससे तो सारे मनुष्य एक जैसे हो जाएंगे!
नहीं इनकी आत्मा का जो बड़ा पुर्जा  है बस उसे ही बदल देते हैं, बाकी छोटे पुर्जें वही रहेंगे। अनावश्यक भौंकना, गन्दगी करना आदि काम एकबारगी बन्द हो जाएंगे। इनका कुत्तापना और सूअरपना कम हो जाएगा।
महाराज इस अदला-बदली में तो बहुत समय लगेगा और जैसे ही इनको पता लगेगा कि हमें सुधारा जा रहा है, ये तो तहलका मचा देंगे। भौंक-भौंक कर धरती को सर पर उठा लेंगे और गन्दगी फैलाकर धरती को बदबूदार कर देंगे।
करेंगे तो सही, लेकिन इससे अच्छे मनुष्य  और बुरे मनुष्य का भेद सभी को लग जाएगा और अच्छे लोग इनके झांसे में नहीं आएंगे।

भगवान ने जैसे ही आत्मा बदली की घोषणा की और धरती का चक्कर लगाया तो देखा कि यहाँ तो पहले ही मोदी नामक जीव ने इनके शुद्धिकरण का कार्य शुरू किया है और भारत देश में जोर-जोर से भौंकने की आवाजें आ रही हैं। जगह-जगह लोग गन्दगी फैलाने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन अधिकांश लोग इस पहल से खुश है। भगवान ने चैन की सांस ली और तथास्तु कहकर अपने धाम को प्रस्थान किया। अब आत्मा बदलने की जरूरत नहीं है क्योंकि आत्मा की नीयत बदलने वाला नोट ही बदल दिया है मोदी ने।

Sunday, November 13, 2016

मैं कब नये कपड़े पहनूंगा?

मैं कब नये कपड़े पहनूंगा?
70 साल से देश रो रहा है, फटेहाल सा दर-दर की ठोकरे खा रहा है। जब सारे ही देश इकठ्ठा होते हैं तब मैं अपनी फटेहाली छिपाते-छिपाते दूर जा खड़ा होता हूँ। कोई भी अन्य देश मेरे साथ भी खड़ा होना नहीं चाहता क्योंकि मेरे अन्दर गन्दगी की सड़ांध भरी है, टूटी-फूटी सड़कों से मेरा तन उघड़ा पड़ा है। मेरी संतानें भीख मांग रही हैं, मेरे युवा नशे के आदी हो रहे हैं। महिला शारीरिक शोषण की शिकार हो रही हैं। मैं न जाने कितने टुकड़ों में बँटा हूँ, मुझे भी नहीं पता कि मैं कहाँ खड़ा हूँ।
सरकारे आती हैं और जाती हैं लेकिन मुझ पर पैबंद लगाने के अलावा कुछ नहीं कर पाती हैं। मेरी जनता मुझे सजा-धजा देखना ही नहीं चाहती, जब भी मैं उससे पैसा मांगता हूँ वह नालायक बेटे की तरह आपना ही रोना रो देती है और मैं एक माता-पिता की तरह सूखी रोटी खाकर  ही गुजारा करने  पर मजबूर हो जाता  हूँ। मैं दुनिया के सामने लाईन में खड़ा रहता हूँ कि कोई मुझे दान में कुछ दे दे, आखिर कब तक मांग-मांग कर अपना पेट भरूंगा!

आज दिन आया  है जब मेरे अन्दर का जहर बाहर निकाला जा रहा है तब कुछ लोग रो रहे हैं कि नहीं जहर मत निकालो, हमे परेशानी हो रही है। हमें दर्द हो रहा है। मेरे अन्दर इतना जहर है कि उसे बाहर निकलने में कुछ दिन लगेंगे ही, तब तक मेरी जनता को सब्र तो करना ही होगा। मेरे अन्दर जब स्वस्थ रक्त बहेगा तो मेरी गंदगी दूर होगी, मेरी टूट-फूट सुधरेगी, इसे होने दो। जब मैं स्वस्थ हो जाऊंगा तब मुझे दुनिया के देशों के सामने लाईन में नहीं लगना होगा, दान के पैसे के लिये। मैं भी अन्य देशों के साथ हाथ मिलाकर खड़ा रह सकूंगा। आज दिन आया है, मेरी दीवाली मनाने का, मुझे भी मना लेने दो। यदि आज भी तुमने इन लुटेरों की ही बात सुनना जारी रखा तो मैं कब नये कपड़े पहनूंगा? अब मुझे सभ्य दिखने दो, मेरे लिये तुम सब सोचो और जब मैं सभ्य दिखूंगा तब तुम भी तो सभ्य दिखोंगे ना। इस जहर को निकल जाने दो, कुछ ही समय लगेगा, फिर तुम सदा स्वस्थ रहोगे।

Saturday, November 12, 2016

तुम मिट गयी सभ्यताओं में शामिल हो जाओंगे


भविष्य की गर्त में छिपा है अमेरिका का भविष्य। ट्रम्प को भारतीय नहीं जानते लेकिन भारतीय एक बात को सदियों से जानते आए हैं और वह है – अपमान। भारतीय अपमान के मायने जानते हैं, वे जानते हैं कि जब चाणक्य का अपमान होता है तो चन्द्र गुप्त पैदा होता है, गाँधी का अपमान  होता है तब भारत स्वतंत्र  होता है, मोदी का अपमान होता है तब भारत में पुनःजागरण होता है। अपमान के किस्से यहाँ भरे पड़े हैं और इस अपमान से निकला सम्मान के उदाहरणों से इतिहास भरा हुआ है।
5 वर्ष पूर्व ट्रम्प व्हाइट हाउस के एक कार्यक्रम में बैठे हैं, उनका ओबामा के सान्निध्य में ही जमकर मजाक उड़ाया जाता है और परिणाम 5 वर्ष बाद निकलकर आता है। जब हम किसी का अपमान कर रहे होते हैं तब  हम उसके मान को रौंद रहे होते हैं, उसके मान को अस्वीकार कर रहे होते हैं। रौंदने और अस्वीकार करने की प्रक्रिया में यह परिलक्षित कर देते हैं कि हमारे अन्दर उस व्यक्ति के मान से उपजा डर है। हम डरे हुए रहते हैं उस व्यक्ति की सम्भावनाओं से, कहीं ये सम्भावनाएं वास्तविकता का रूप ना ले ले। अंकुर फूटने से पहले ही रौंद दो। ट्रम्प में भी कहीं सम्भावनाएं छिपी होगी और जैसे ही वास्तविकता का रूप लेने लगी, अपमान शुरू हो गया। सार्वजनिक अपमान की पीड़ा बहुत होती है, व्यक्ति को हाशिये से खेंचकर बाहर ले आती है। परिणाम दुनिया के सामने हैं। अब अपमान और सम्मान का युद्ध चलेगा, जितना गहरा अपमान होगा उतना ही गहरा सम्मान होता जाएगा। यदि ट्रम्प बर्दास्त नहीं तो शान्त हो जाओ, प्रतिक्रिया से वह और मजबूत होता चला जाएगा। यदि उसमें सम्भावनाएं छिपी हैं तो उन्हें उजागर होने का अवसर दो, जनता का मौन सिद्ध करेगा कि सम्भावनाएं हैं या नहीं। जनता का शोर तो सम्भावनाओं को अक्सर प्रबल ही करता है, कमजोर व्यक्ति में  भी प्राण फूंक देता है। तुम्हारा शोर दुनिया को बता रहा है कि तुम परिवर्तन से चिंतित हो, तुम लीक से हटकर कार्य करने में डरे  हुए हो और सबसे बड़ी बात की तुम पुराने शासन में कहीं न कहीं अपनी सहूलियत तलाश रहे थे और अब तुम्हारी चाहते कहीं पीछे ना धकेल दी जाएं, इस बात से भी डरे  हुए हो।
तुम परिवर्तन से डर रहे हो, तुम आतंकियों की धमकी से डर  रहे हो, तुम्हें डर है कि कहीं आतंक का हमला तेज ना हो जाए।

लेकिन खरगोश के आँख बन्द करने से बिल्ली का डर कम नहीं होता। डरो मत, साथ खड़े हो जाओ, साथ रहने से ट्रम्प भी तुम्हारे जैसा भला होने की कोशिश करेगा। आतंक के लिये कहते हो कि बैर से बैर नहीं कटता और अपने व्यक्ति से बैर करते हो! कहीं तुम आतंक को बढ़ावा देने का प्रयास तो नहीं कर रहे? अमेरिका सीरिया बन जाये वह चलेगा लेकिन ट्रम्प नहीं चलेगा। कौन लोग हैं जिनके कहने से तुम ट्रम्प का विरोध कर रहे हो? अपने व्यक्ति पर विश्वास करना सीखो, नहीं तो तुम मिट गयी सभ्यताओं में शामिल हो जाओंगे।

Tuesday, November 8, 2016

मन में रेंगते कीड़े को अनुभूत कीजिए

कल एक फिल्म कलाकार का साक्षात्कार टीवी पर आ रहा था, वे कहते हैं कि मैं जब छोटा था तब मैंने अनेक महापुरुषों की जीवनी पढ़ी और पाया कि सभी लोग दिल्ली में रहकर बड़े बने। मुझे भी दिल्ली जाने की धुन सवार हो गयी और उसी धुन के तहत दिल्ली गया, थियेटर कलाकार बना और फिर मुम्बई जा पहुँचा और आज यहाँ आपके सामने हूँ।
मेरे पिता भी एक छोटे से गाँव के वासी थे और वे भी जिद करके दिल्ली गये। हमारे परिवार का जीवन और हमारे चाचा-ताऊ के परिवार के जीवन में रात-दिन का अंतर है। मेरे पति भी गाँव छोड़कर शहर आए और आज हमारे जीवन और जो गाँव में रह गये उनके जीवन में अंतर है।
जो भी व्यक्ति कुछ नया करना चाहता है वह अपनी परिस्थितियों से समझौता नहीं करता, वह सम्भावनाओं के द्वार तलाशता है। कई बार हम अपना क्षेत्र बदलते हैं तो कई बार कार्य। लेकिन जो ऐसा करने का साहस नहीं जुटा पाते वे सृजन के नवीन द्वार नहीं खोल पाते। मेरे पति ने अपना क्षेत्र बदला था और मैंने अपना कार्य बदल लिया। वे अपने कार्य से खुश हैं और मैं अपने सृजन से।
जीवन का आनन्द सृजन में हैं। यदि हम इच्छित सृजन कर पाते हैं तो जीवन में सफलता का अनुभव करते हैं और यदि जीवन में सृजन नहीं है तो हम इस संसार से रिक्त से चले जाते हैं। अपनी दुनिया का नवीन सृजन करने वाला व्यक्ति हमेशा संतुष्ट रहता है, जो ऐसा नहीं कर पाते वे निराशा का वातावरण बनाते हैं।

लेकिन केवल सम्भावनाओं के द्वार तलाशना ही पर्याप्त नहीं होता, उससे पहले स्वयं को तलाशने की जरूरत होती है। आपके अंदर का रेशम का कीड़ा आपको तलाशना है, वो अंदर नहीं है तो आप कहीं भी चले जाइए, आप उस कीड़े के वगैर सृजन कर ही नहीं सकते। सिल्क का कपड़ा तभी बुन पाएंगे जब आपके पास रेशम का कीड़ा होगा। यदि आपके पास वह कीड़ा है तो आपको वह बैचेन कर देगा और वह बैचेनी आपको इच्छित मंजिल तक ले जाने में सहायक बन जाएगी। यही बैचेनी एक दिन जुनून में बदल जाएगी और आप सृजन के साथ खड़े होंगे। यदि यह कीड़ा आपके अंदर नहीं है तो आप भागकर अमेरिका ही क्यों ना चले जाएं लेकिन आप संतुष्ट नहीं हो सकते। इसलिये मन में रेंगते कीड़े को अनुभूत कीजिए, फिर सम्भावनाओं के द्वार तलाश कीजिए। सृजन के साथ आप संतुष्ट से खड़े दिखायी देंगे।

Friday, November 4, 2016

आप टोकरा भर मित्र बना लेंगे

कल बेटे से फोन पर बात हो रही थी, वह अपनी नौकरी बदल रहा है तो उसे अपना काम सौंपकर जाना है। कल तक वह कह रहा था कि मेरे पास कोई काम ही नहीं है इसलिये नौकरी बदलना जरूरी हो गया है लेकिन आज कहने लगा कि अपना काम जब दूसरों को सौंप रहा हूँ तब मुझे अपने काम का पता चल रहा है और मुझे ही नहीं सभी को पता चल रहा है कि अरे यह काम कितना जरूरी था। अब इसे कौन और कैसे किया जाएगा इसका चिंतन लाजिमी था। बंदा तो छोड़कर जा रहा है तो ऐसा करो कि इसके काम की रिकोर्डिंग कर लो जिससे कठिनाई नहीं आये। जब हम काम छोड़ते हैं तब पता चलता है कि कितना मूल्यवान काम हम कर रहे थे।
हम से भी यदाकदा लोग पूछ बैठते हैं कि आप क्या काम करते हैं? अपना काम समझाना कई बार कठिन सा हो जाता है। फिर मन को लगने लगता है कि नहीं, हम कुछ नहीं कर रहे, निराशा सी मन में छाने लगती है। जीवन का भी ऐसा ही है, एक उम्र के बाद लगता है कि अब हमारा काम खत्म। हिन्दू दर्शन में कहते हैं कि जीवन का उद्देश्य होता है, हम अपना उद्देश्य पूरा करने के  बाद संसार से पलायन की सोचने लगते हैं। यह पलायन यदि कठिन हो तो संन्यासी  ही बन जाते  हैं लोग।
मैं जब भी कुछ देर के लिये घर से बाहर होती हूँ, घर में अफरा-तफरी का माहौल बन जाता है। छोटे-छोटे काम अपना वजूद बताने लगते हैं, लेकिन ना मुझे और ना  ही घर में किसी को उनकी अहमियत पता होती है! हम एक रफ्त में काम करते हैं और फिर उस काम की आदत सी हो जाती है, ना हमें पता लगता है कि हम काम कर रहे हैं और ना ही दूसरों को पता लगता  है कि हम काम कर रहे  हैं। जमाना हमें ताना मारता है कि भला तुम क्या करते हो और हम नजरे चुराये चुपचाप सुन लेते हैं। फिर किसी नये काम की तलाश शुरू करते हैं कि शायद लोगों को और खुद को लगे कि हम काम कर रहे हैं।
मैं एक बार सोचने लगी की मेरे बाद इनका जीवन कैसे चलेगा, सोचकर ही सायं-सायं होने लगी। तभी माँ याद आ गयी, वह कहती थी कि भगवान मुझे पहले मत उठाना, नहीं तो इनका जीवन किसके सहारे कटेगा? अक्सर पत्नियों को कहता सुना था कि हे भगवान! मुझे सुहागन ही उठाना लेकिन पहली बार माँ को उल्टी बात कहते सुना। उनकी तो भगवान ने सुन ली थी और वे साथ-साथ ही चले गये इसलिये उन्हें एकदूजे के काम की महत्ता ही पता नहीं चली। लेकिन जब मैंने अपने जीवनसाथी के काम के लिये चिंतन किया तब मेरी दुनिया भी पंगु नजर आने लगी। यह जो काम नाम की चीज है वह दिखती नहीं है, इसकी कद्र भी हम नहीं करते हैं लेकिन इसका महत्व हमारे जाने के बाद पता लगता है।

इसलिये हमें एक-दूसरे के काम को समझना भी चाहिये और बताते भी रहना चाहिये कि तुम्हारा काम कितना महत्व का है। जब कोई हमें हमारे काम का महत्व बताता है तब हमें भी अपने काम का महत्व पता लगता है। फिर निराशा हमें नहीं घेरती है और ना ही पलायन की सोच दिमाग पर हावी होती है। एक-एक रिश्ते का महत्व बार-बार बताओ, तुम हमारे लिये कितने उपयोगी  हो बताते रहो फिर देखो जीवन कितना खुशहाल हो जाएगा। बस लग जाओ काम पर आज से  ही। बस कहते रहो कि यह काम केवल तुम ही कर सकते थे। छोटे-छोटे कामों को ढूंढो और बताओ अपने आत्मीयों को कि यह काम तुम करते  हो तो हम कितना खुश हो लेते हैं।  सच मानिये आप टोकरा भर मित्र बना लेंगे।
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Wednesday, November 2, 2016

अब हम तो दोस्त हो गये ना भाई!


अपने साहित्यिक और सामाजिक जीवन को जीते-जीते अपना आस-पड़ोस कब दूर चले गया पता ही नहीं चला। लेकिन भगवान ने रास्ता दिखाया और कहा कि इस आनन्द को अनुभूत करो, यह भी विलक्षण है। जैसे ही घर ही चौखट से पैर बाहर पड़े और कोई चेहरा आपके सामने होता  है, आप धीरे से मुस्करा देते हैं, छोटी-छोटी बाते होने लगती हैं। कभी घर में आलू-प्याज समाप्त हो जायें तो यही चेहरा याद आता है और आपकी दरकार पूरी हो जाती  है। बस इसे ही आस-पड़ोस कहते हैं। अपने जीवन में इस सुख को समेटने की चाह पैदा हुई और बस महिलाओं को एक सूत्र में बांधने का निश्चय कर लिया। दीपावली आ गयी और हम से भी अधिक बच्चों में दोस्ती बनाने की पहल दिखायी दी। आस-पड़ोस के बच्चे मिठाई लिये हमारे घर आ गये, अब तो बड़ी शर्म महसूस हुई, हमारे पास इन्हें देने को ऐसा कोई उपहार नहीं था, जो इन्हें पसन्द आता। लेकिन पहला पाठ इन्होंने मुझे पढ़ा दिया था कि उपहार कितनी जरूरी चीज है। मैं तो उपहार तले दब चुकी थी इसलिये उपहार बेमानी से लगने लगे थे लेकिन नयी पौध को तो उपहार अच्छे लगेंगे ही ना। खैर आगे से ध्यान रखा जाएगा।
मन भी क्या है, न जाने कब कैसा देख लेता  है और एक नवीन दर्शन उपज जाता है। छोटी सी आम बात कब मन को छू ले, धीरे से दीमाग में अपना घर बसा ले और सोते-जागते बस लगे कि इस बात में जीवन का मर्म छिपा है। आप रात-दिन करवटे बदलने लगते हैं, सोच का सिरा ढूंढने लगते हैं और अकस्मात ही दीमाग की बत्ती जल जाती है कि इस बात में यह दर्शन मेरे मन को दिखायी दे रहा है। बचपन चाहे कितना ही लाड़-दुलार वाला क्यों ना हो, लेकिन बच्चे को उपेक्षित ही नजर आता है। अभी तुम बच्चे हो, गाहे-बगाहे उसे सुनने को मिलता ही रहता है। बड़ो की दुनिया उन्हें परायी सी लगने लगती है, वे अपने लिये संगी-साथी की खोज शुरू करते हैं। इस दुनिया में उनके अपने फैसले होते हैं, वहाँ उनको कोई नहीं कहता कि चुप रहो – अभी तुम बच्चे हो। वे घर से दूर भागते  हैं और अपने संगी-साथियों की एक दुनिया बसा लेते हैं।
नन्हें बच्चों को जब हाथ में हाथ डाले मस्ती में घूमते देखती हूँ तो बचपन याद आता है, हम भी तब अपनी दुनिया ऐसे ही बना रहे थे। किशोर और युवा होने तक तलाश जारी रहती है, घर से मिली उपेक्षा इन्हें घर के बाहर संगी-साथियों से मिला विश्वास इनकी अपेक्षा बन जाता है। बचपन में खेल के अलावा कुछ नहीं होता और लेकिन उनके हर खेल में बड़े होने का अहसास होता  है। खेल-खेल में वे माता-पिता बनते हैं और अपने बड़प्पन को जीते हैं। उस खेल में बच्चे भी होते हैं और वहाँ भी उन्हें यही सुनने को मिलता है कि तुम चुप रहो, तुम अभी बच्चे हो। मतलब कि बच्चे हमसे अधिक संगी-साथी बनाते  हैं। हम तो अपनी दुनियादारी में दुनिया ही भूला देते हैं लेकिन ये अपनी दुनिया बसाने की पहल करते रहते हैं।

बच्चे बड़े  होने का नाटक खेलते हैं और हम बड़े, बच्चे होने का सुख इन बच्चों में तलाशते हैं। ये हमें जीवन का पाठ पढ़ा जाते हैं और हम सोचते हैं कि हम बच्चों को कुछ सिखा देंगे। ये हमें सम्पूर्ण बना जाते  हैं और हम सोचते हैं कि हम इन्हें बड़ा कर रहे हैं। ये हमें सिखा जाते हैं कि संगी-साथी कैसे बनाते हैं और हम सोचते हैं कि हम इन्हें जीना सिखा रहे हैं। छोटी सी चिड़िया जब घर की मुंडेर पर चहचहाती है तब फूल खिल उठते हैं, ऐसे ही घर की चौखट पर जब कोई बच्चा दस्तक देता है तब बचपन लौट आता है। बच्चों के हम कह देते हैं कि तुम चुप रहो, तुम अभी बच्चे हो और अब हम बड़ों को भी सुनने को मिलता है कि आप चुप रहो, आपको इस नयी दुनिया का कुछ पता नहीं। तो  हम भी तलाश रहे हैं उस दुनिया को जहाँ कोई हमें नासमझ ना कहे और बच्चे भी ढूंढ रहे  हैं इसी दुनिया को। तुम भी नासमझ और हम भी नासमझ! ये युवा तुम्हें भी चुप करा देते हैं और हमें  भी! अब हम तो दोस्त हो गये ना भाई!

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Wednesday, October 26, 2016

परशुराम को डिगा दे उसे मन की चाहतें कहते हैं।

मन को परत दर परत खोल दो, पता लगेगा कि न जाने कितनी ख्वाइशें यहाँ सोई पड़ी हैं, जिन ख्वाइशों को हम समझे थे कि ये हमारे मन का हिस्सा ही नहीं हैं, वे तो अंदर ही अंदर अपना अस्तित्व बनाने में जुटी हैं बस जैसे ही किसी ने उन्हें थपकी देकर जगाया वे सर उठाकर बाहर झांकने लगी। अपने अन्दर झांकिये तो सही, दुनिया भर की ख्वाइशों का यहाँ बसेरा मिलेगा। सभी कुछ चाहिये इस तन को और मन को भी। बस बचपन से ही हमने इन्हें खाद-पानी नहीं दिया तो समझ बैठे कि ये अब हमारे अन्दर विद्यमान ही नहीं है, लेकिन ऐसा नहीं है, जैसे ही हम इनके नजदीक जाते हैं ये हमे सुहाने लगती हैं।
बचपन में पिताजी का बहुत सख्त पहरा था, शौक के लिये स्थान नहीं था। बस जीवन एक रस से ही चले जा रहा था। जिन्दगी में छः रस भी होते हैं जीभ को पता ही नहीं लगा, लेकिन जीभ किसी भी रस को भूलती नहीं हैं, उसे सभी का भान है। सारी जिन्दगी मधुर रस को जीभ पर मत रखिये लेकिन जिस दिन भी रखेंगे, वह तत्काल बता देगी कि यह मधुर रस है। जिन्दगी की सारी ही चाहते इस मन को पता हैं, आप कितनी ही दूरी बना लें लेकिन मन जानता है इन चाहतों की दरकार को।
मेहंदी हाथों में जब भी लगी तब चोरी-छिपे ही लगी या कभी कभार शादी-ब्याह के अवसर पर, मन ने मान लिया कि मेहँदी की चाहत रंग नहीं लाती इसलिये गाहे-बगाहे कह भी दिया कि नहीं, मेहँदी लगाने में रुचि नहीं है तो लोगों ने भी मान लिया कि इन्हें मेहँदी की चाहत नहीं। मन की कसक का पता तब लगा जब ससुराल गये और वहाँ यह कहकर हमें मेहँदी वाले हाथों के बिना ही पीहर भेज दिया गया कि इन्हें शौक नहीं है। अरे ऐसा कैसे हुआ, मन ने आखिर पूछ ही लिया और तब जाकर पता चला कि ख्वाइशें मन में अपनी जगह बनाकर रहती ही हैं।
यह सभी मानते हैं कि हमारे पिताजी कठोर स्वभाव के थे, लेकिन प्रेम और सम्मान उन्हें भी हिला ही देता था। हमारा एक चचेरा भतीजा था, वह उनसे कभी कभार पैसे ले जाता था। यह बात किस बेटे-बहु को सुहाती है जो हमारे यहाँ सुहाती। मेरे पास जब बात आयी तो मैंने पिताजी से पूछा कि आप उसे पैसे क्यों देते हैं? तो वे बोले कि वह सम्मान के साथ बाबा-बाबा कहकर बुलाता है। अब बताये कि जो परशुराम को डिगा दे उसे मन की चाहतें ही कहते हैं।

ये चाहते अपना बसेरा तो बना कर रखती ही हैं लेकिन जब खाद-पानी नहीं मिलता है तब धीरे-धीरे रिसती भी हैं और यह रिसाव एकत्र हो जाता है, आँखों के पास। जब भी कहीं ऐसी ही संवेदना सुनायी या दिखायी पड़ती हैं. यह रिसाव अँखों से होने लगता है। जैसे-जैसे उम्र का तकाजा होने लगता है, यह रिसाव छलकने लगता है। रिसाव छलके तो समझो कि चाहतें अन्दर कुलबुला रही हैं और इन्हें धूप देने की जरूरत आन पड़ी है। बे झिझक इन्हें बाहर निकालो, अपनी चाहतों को पूरा करों और सच में सुखी होने का अहसास करो। ढूंढ लो इन्हें, ये चाहे किसी भी कोने में दुबकी क्यों ना हो. आपको ये ही सुखी करेंगी और तभी पता लगेगा कि आपके मन का असली सुख क्या है?
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Saturday, October 8, 2016

शेष स्मृति चिह्न है नाभि

शेष स्मृति चिह्न है नाभि
संतान के जन्म के साथ ही हम माँ से संतान को अलग करने के लिये नाभिनाल को काट देते हैं लेकिन नाभि का चिह्न हमें याद दिलाता है कि हमारा शरीर किसी सांचे में रहकर ही निर्मित हुआ है। नाभि-दर-नाभि पीढ़ियों का निर्माण होता है और अदृश्य कड़ियां विलुप्त होती जाती हे, बस रह जाती है तो यह केवल नाभि। हम अपने माता-पिता की सप्त धातुओं यथा रस, रक्त, मांस, मज्जा आदि से निर्मित होकर अपने व्यक्तित्व को बनाते हैं और फिर नवीन व्यक्तित्व को गढ़ने के लिये कदम बढ़ा देते हैं। यही जीवन है। हम जिन कड़ियों से बने हैं वे हमारे अंदर विलीन हो जाती है, एकरस हो जाती है, केवल हमारे आचरण में ही इनकी झलक मिल पाती है। बस हिसाब शेष रह जाता है कि नाक माँ जैसी है और ठोड़ी पिता जैसी है, बोलता है तो पिता की झलक आती है और हँसता है तो माँ दिखायी देती है। ऐसे ही बनते हैं हम सब।
हम सब का व्यक्तित्व तीन हिस्सों में बंटा होता है और उसका निर्माण भी तीन हिस्सों में ही होता है। एक फल जब पकता है तब हम कहते हैं कि किस बीज से बना है, इसका खुद का निर्माण कैसा हुआ है और क्या इसका बीज फलदायी होगा? इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति तीन तरह से निर्मित होता है। पहला हिस्सा होता है उसके माता-पिता दूसरा होता है स्वयं का निर्माण और तीसरा होता है उसने किस व्यक्तित्व का निर्माण किया अर्थात संतान। हम इन तीनों से यावत्जीवन बंधे रहते हैं। किसी एक को भी अपने से अलग करने पर हमारा जीवन बिखर जाता है। हम पूर्ण तभी रहते हैं जब हमारे अंदर इन तीनों का वास हो।
हमारा व्यक्तित्व हमारे माता-पिता से निर्मित होता है, हमारा स्वभाव का एक हिस्सा उनके जीन्स से ही बनता है, कहीं न कहीं हमारे अन्दर हमारे माता-पिता परिलक्षित होते ही हैं। शिक्षा, काल, परिस्थिति से हमारा वह व्यक्तित्व बनता है जो सर्वसामान्य को दिखायी देता है, जिसे हम अपने बुद्धि से प्राप्त होना बताते हैं। जबकि इसमें भी हमारे माता-पिता का ही अंश रहता है। जब हमारा व्यक्तित्व का निर्माण हो जाता है तब हम अपने जीवन साथी के साथ मिलकर अपनी संतान के व्यक्तित्व को आकार देते हैं। इसलिये जो हमारे अन्दर है उसी अंश को हम अपनी संतान को देते हैं और हमारी संतान में वह परिलक्षित भी होता है।
जीवन की ये तीनों कड़ियाँ जब तक साथ रहती हैं जीवन सुगम बना रहता है। लेकिन कड़िया बिखरने पर जीवन एकाकी हो जाता है। हम कहते हैं कि हमारे माता-पिता और संतान से आत्मीय सम्बंध हैं अर्थात् हमारी आत्मा के समान ही हमें अपने माता-पिता और संतान के दुख-दर्द की अनुभूति होती है। इसलिये ये तीनों अलग-अलग शरीर होते हुए भी एक प्राण होते हैं। इस आत्मीयता की अनुभूति प्रेम के प्राकट्य से होती है, जितना प्रेम और सम्मान हम इन सम्बंधों को देते हैं उतनी ही आत्मीयता की अनुभूति बनी रहती है लेकिन यदि हमने प्रेम और सम्मान के भाव को समाप्त कर दिया तब अनुभूति का भाव भी तिरोहित होता चला जाएगा। जिस दिन आत्मीयता की अनुभूति समाप्त हो जाएगी उसी दिन हमारा व्यक्तित्व भी बिखर जाएगा। हमारे अन्दर मैं का भाव प्रबल होने लगेगा और हम का भाव निर्बल होने लगेगा। मैं किसी से निर्मित हूँ यह भाव खो जाएगा और केवल यह भाव रह जाएगा कि मैंने किसी को बनाया है। अहंकार के आगे सब कुछ तिरोहित हो जाएगा।
हमारे यहाँ हर पल अपने व्यक्तित्व निर्माता को स्मरण किया जाता रहा है हम अपने माता-पिता को अपने नाम के साथ जोड़कर याद करते हैं जैसे – दशरथ नंदन राम, कौशल्या नंदन राम, वासुदैव कृष्ण या देवकी नंदन कृष्ण। वर्तमान में भी कई जगह अपने पिता का नाम संयुक्त करके ही अपना नाम लिखा जाता है, जैसे नरेन्द्र दामोदर दास मोदी। हम अपने व्यक्तित्व से चाहे कैसे भी अपने माता-पिता का नाम हटा दें लेकिन प्रकृति ने इसे अमिट बनाया है। जैसे नाभिनाल काटने के बाद भी नाभि का चिह्न हमेशा हमारे शरीर पर रहता है वैसे ही हमारे व्यक्तित्व में हमारे माता-पिता और हमारी संतान का व्यक्तित्व मिला होता है। हम इनसे दूरी तो बना सकते हैं लेकिन इन्हें समाप्त नहीं कर सकते हैं। अब तो विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि जीन्स हमेशा बने रहते हैं। इसलिये भूत-वर्तमान-भविष्य की तरह है हमारा व्यक्तित्व। 
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Wednesday, September 28, 2016

चरित्र-नाशिनी इंजेक्शन

चरित्र-नाशिनी इंजेक्शन
बरसों पहले एक कहानी पढ़ी थी, रोचक थी। पहाड़ी क्षेत्र में एक डॉक्टर रहता था, उसने एक इंजेक्शन ईजाद किया। जिसे एक बार लगाने पर ही आदमी नपुंसक हो जाता था। अब उसने एक अभियान चलाया कि जो भी उसके दवाखाने पर आता, उसे वह इंजेक्शन लगा देता। साथ में उसका रजिस्टर में नाम और पता भी नोट कर लेता। दिन गुजरे और उसकी पुत्री विवाह लायक हो गयी, अब योग्य लड़के की तलाश शुरू हुई। डॉक्टर ने घोषणा की कि पहले मैं जन्मपत्री मिलाऊंगा तब विवाह के लिये हाँ भरूंगा। पत्नी ने कहा कि तुम पुरातनपंथी कैसे  हो गये? लेकिन उसने किसी की नहीं सुनी। अब वह जन्मपत्री लेता और रजिस्टर में उस लड़के का नाम खोजता और कह देता कि जन्मपत्री नहीं मिली। लड़की बड़ी होने लगी, अब उसे भी लड़की के विवाह की चिन्ता सताने लगी। लेकिन सारे ही लड़कों के नाम उस रजिस्टर में दर्ज थे, तो वह क्या करता? आखिर एक रिश्ता बड़ी दूर से आया, तब उसे लगा कि यह उपयुक्त वर है और शादी कर दी गयी।
जब पुत्री-दामाद पहली  बार उनसे मिलने आये और बातचीत में दामाद ने बताया कि एक बार मैं घूमने आया था और बीमार होने पर आपसे ईलाज कराने आया था। डॉक्टर के पैरों तले की जमीन खिसक गयी और भागकर दवाखाने पहुँचा, तेजी से रजिस्टर पलटने लगा कि शायद उसके दामाद का नाम इसमें दर्ज ना  हो, लेकिन होनी को कौन टाल सका है! मुँह लटकाये वह घर लौट आया।

नौ सो चूहे खाय बिल्ली हज को चली, वाली कहावत चरितार्थ करते हुए लड़के के परिवारजन अपने लड़के के लिये सती-सावित्री वधु तलाश करते हैं। लड़कियों में आक्रोश भर गया कि जिन के कारण हमारा चरित्र बिगड़ा आज वो ही हमसे चरित्र का सर्टिफिकेट मांग रहे हैं तो उन्होंने भी चरित्र-नाशिनी इंजेक्शन लगवा लिया। अब लड़के वालों की स्थिति उस डॉक्टर जैसी हो गयी है जो उस लड़की को तलाश रहे हैं जिसने इंजेक्शन नहीं लगवाया हो। सारे ही होटल और क्लबों के रजिस्टर चेक किये जा रहे हैं लेकिन सफलता हाथ नहीं आ रही। सोचो ऐसा हो जाएगा तो क्या होगा? जो समाज केवल लड़की के चरित्र को देखता है और लड़के को पवित्र मानता है, ऐसे समाज में तेजी से परिवर्तन आ रहा है, इसलिये चरित्र की ऐसी दोहरी व्याख्या करना बन्द कीजिये नहीं तो परिणाम घातक होंगे।

Friday, September 23, 2016

शिकारी और शिकार

बंदरों पर एक वृत्त-चित्र का प्रसारण किया जा रहा था – ताकतवर नर बन्दर अपना मादा बन्दरों का हरम बनाकर रहता है और किसी अन्य युवा बन्दर को मादा से यौन सम्बन्ध बनाने की अनुमति नहीं है। यदि युवा बन्दर उस मठाधीश को हरा देता है तो वह उस हरम का मालिक हो जाता है।
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Sunday, September 18, 2016

कितना गोपनीय जीवन बना लेते हैं कुछ लोग

अभी-अभी एक sms आया – 13 दिन शेष हैं, अपनी छिपी सम्पत्ती उजागर करने के लिये। अपनी जेब पर निगाह गयी, कहीं कुछ छिपा है क्या? यहाँ तो जिसे सम्पत्ती कहें ऐसा भी कुछ नहीं है लेकिन खुद को धनवान तो हमेशा से ही माना है। एक खजाना है जो मन के किसी कोने में दुबका बैठा है, जैसे ही कोई अपना सा मन लेकर आता है, वह खजाना बांध तोड़ता सा बाहर निकल आता है।
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Saturday, September 17, 2016

आदत नवाबी की और सफर रेल का

अब वे सुबह 6 बजे से ही चाय वाले की बाट जोहने लगे कि चाय वाला साहब के लिये ट्रे सजाकर चाय लाएगा। मैं लगातार यात्रा और काम के कारण थकी हुई थी तो नींद पूरी कर लेना चाहती थी, इसलिये जब उदयपुर आने लगा तब मेरी आँख खुली। मेरे जगते ही उन्होंने पूछा कि यहाँ चाय नहीं आती।
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Saturday, September 3, 2016

श्मशान में पसरी गन्दगी – क्या यही मृत्यु संस्कार है?

शव को ले जाने का मार्ग कैसा हो, क्या यह हमारे लिये चिन्तनीय नहीं  होना चाहिए? जिस मार्ग पर नालियों का गन्दा पानी एकत्र हो, गन्दगी का ढेर लगा हो, क्या ऐसे मार्ग से हम अपने प्रियजन को विदाई देने जाते हैं? समाज बड़े-बड़े आयोजन करता है, लेकिन इस अन्तिम सत्य को नजर-अंदाज कर देता है, यह मेरे लिये तो बहुत ही कष्टकारी होता है, जब इस दृश्य को रोज ही देखना पड़ता है।
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Wednesday, August 31, 2016

प्रेम की सूई दिखायी देती नहीं

हर व्यक्ति के पास इतना ज्ञान आ गया है कि वह ज्ञान देने के लिये लोग ढूंढ रहा है, बस जैसे ही अपने लोग मिले कि ज्ञान की पोटली खुलने लगती है और बचपन मासूम सा बनकर कोने में जा खड़ा होता है।
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Wednesday, August 24, 2016

हम से अब पराया केक खाया नहीं जाएगा

अपने गाँव-देहात में कभी रसोइये के हाथ में 500 रूपये धरती तो कभी मेहतरानी के हाथ में पचास रूपये धर कर खुश हो लेती और दान के भाव को बनाकर अपने स्वाभिमान को सहेजकर रख लेती घर की दादी अब उलझन में झूलने लगी। क्या-क्या बिसरा दूँ?
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Tuesday, August 16, 2016

क्या सच में गाँव बदल रहे हैं?

इन लड़कियों की अल्हड़ता क्या ऐसी ही बनी रहेगी? इन लड़कों का नृत्य क्या ऐसे ही देश प्रेम को सार्थक करता रहेगा? क्या इन नन्हें बच्चों में से कोई गाँव की कमान सम्भाल लेगा? स्वतंत्रता दिवस की यह साफ-सफाई क्य़ा हमेशा ही गाँव को स्वच्छ बना देगी? क्या महिलायें पूरी शक्ति के साथ ऐसे ही घर-परिवार और देश के झण्डे को लहराती रहेंगी?
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Friday, August 5, 2016

उदयपुर का सौन्दर्य – उभयेश्वरजी के पर्वत

इस प्रकृति की अनुपम देन को जितना देखो उतना ही अपनी ओर आकर्षित करती है लेकिन दिन तेजी से ढल रहा था और अब जंगल कह रहे थे कि हमें एकांत चाहिये। किसी शहंशाह की तरह जंगल ने भी कहा एकान्त! और हम वापस चले आये, उस खूबसूरती को आँखों में संजोये, फिर आने की उम्मीद के साथ।

Friday, July 29, 2016

गुलाम बन रहे हैं हम

आज दुनिया का अधिकांश व्यक्ति गुलामी का जीवन जी रहा है, वह किसी भी दिन सड़क पर आ सकता है। इसमें खुद को राजा समझने वाले लोग भी हैं और सामान्य प्रजा भी। आज राजा भी तो वोट के सहारे ही जिन्दा है! वोट के लिये उसे क्या-क्या नहीं करना पड़ता! अपना धर्म तक गिरवी रखना पड़ता है। जिस कलाकार को हम मरजी का मालिक मानते थे आज वह भी गुलामी का जीवन जीने लगा है।
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Sunday, July 24, 2016

मूर्ख दुनिया सड़ा आटा खाती है

20 रूपये किलो का गैंहूं, सड़ने के बाद 2 रूपये किलो में मिल जाता है। अब इस सड़े गैंहूँ का मैदा आसानी से बन जाता है जो 30 रूपये किलो बिकता है। बिना मेहनत के जो चापड़ निकलता है उसे भी मंहगे दाम पर बेच दिया जाता है।
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Tuesday, July 19, 2016

मन तड़पत गुरु दर्शन को आज

महिला का व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा ही होता है। उसकी महिला पहचान इतनी बड़ी है कि उसे इससे अधिक की पहचान के लिये गुरु मिलना कठिन हो जाता है। कहीं वह बहन-बेटी के रूप में देखी जाती है तो कहीं भोग्या के रूप में।
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Tuesday, July 12, 2016

नो त्याग – नो आग

त्याग का ठेका मोदीजी के साथ किसी दूसरे देश में भेजो अब। वे आसानी से इसे दूसरे के चिपका भी आएंगे, उनसे कहो कि योग दिवस से बाद त्याग दिवस मनाने की पृथा शुरू करा दें जिससे इस त्याग के देवता का ध्यान भारत से कुछ कम हो सके। हमारे यहाँ भी ठण्डी बयार बह सके।
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Saturday, July 9, 2016

जय हो स्मार्ट फोन

इन सारे लिख्खाड़ों को हम झेल रहे हैं जी। जैसे भूसे के ढेर में सुई ढूंढी जाती है वैसे ही असली लेखक को ढूंढा जाता है। सारा दिन मोबाइल को घुमाते रहते हैं और बामुश्किल दो-चार लेखक हाथ लगते हैं। जय हो स्मार्ट फोन।
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