अपने साहित्यिक और सामाजिक जीवन को जीते-जीते
अपना आस-पड़ोस कब दूर चले गया पता ही नहीं चला। लेकिन भगवान ने रास्ता दिखाया और
कहा कि इस आनन्द को अनुभूत करो, यह भी विलक्षण है। जैसे ही घर ही चौखट से पैर बाहर
पड़े और कोई चेहरा आपके सामने होता है, आप
धीरे से मुस्करा देते हैं, छोटी-छोटी बाते होने लगती हैं। कभी घर में आलू-प्याज
समाप्त हो जायें तो यही चेहरा याद आता है और आपकी दरकार पूरी हो जाती है। बस इसे ही आस-पड़ोस कहते हैं। अपने जीवन
में इस सुख को समेटने की चाह पैदा हुई और बस महिलाओं को एक सूत्र में बांधने का
निश्चय कर लिया। दीपावली आ गयी और हम से भी अधिक बच्चों में दोस्ती बनाने की पहल
दिखायी दी। आस-पड़ोस के बच्चे मिठाई लिये हमारे घर आ गये, अब तो बड़ी शर्म महसूस
हुई, हमारे पास इन्हें देने को ऐसा कोई उपहार नहीं था, जो इन्हें पसन्द आता। लेकिन
पहला पाठ इन्होंने मुझे पढ़ा दिया था कि उपहार कितनी जरूरी चीज है। मैं तो उपहार
तले दब चुकी थी इसलिये उपहार बेमानी से लगने लगे थे लेकिन नयी पौध को तो उपहार
अच्छे लगेंगे ही ना। खैर आगे से ध्यान रखा जाएगा।
मन भी क्या है, न जाने कब कैसा देख लेता है और एक नवीन दर्शन उपज जाता है। छोटी सी आम
बात कब मन को छू ले, धीरे से दीमाग में अपना घर बसा ले और सोते-जागते बस लगे कि इस
बात में जीवन का मर्म छिपा है। आप रात-दिन करवटे बदलने लगते हैं, सोच का सिरा
ढूंढने लगते हैं और अकस्मात ही दीमाग की बत्ती जल जाती है कि इस बात में यह दर्शन
मेरे मन को दिखायी दे रहा है। बचपन चाहे कितना ही लाड़-दुलार वाला क्यों ना हो,
लेकिन बच्चे को उपेक्षित ही नजर आता है। अभी तुम बच्चे हो, गाहे-बगाहे उसे सुनने
को मिलता ही रहता है। बड़ो की दुनिया उन्हें परायी सी लगने लगती है, वे अपने लिये
संगी-साथी की खोज शुरू करते हैं। इस दुनिया में उनके अपने फैसले होते हैं, वहाँ
उनको कोई नहीं कहता कि चुप रहो – अभी तुम बच्चे हो। वे घर से दूर भागते हैं और अपने संगी-साथियों की एक दुनिया बसा
लेते हैं।
नन्हें बच्चों को जब हाथ में हाथ डाले मस्ती
में घूमते देखती हूँ तो बचपन याद आता है, हम भी तब अपनी दुनिया ऐसे ही बना रहे थे।
किशोर और युवा होने तक तलाश जारी रहती है, घर से मिली उपेक्षा इन्हें घर के बाहर
संगी-साथियों से मिला विश्वास इनकी अपेक्षा बन जाता है। बचपन में खेल के अलावा कुछ
नहीं होता और लेकिन उनके हर खेल में बड़े होने का अहसास होता है। खेल-खेल में वे माता-पिता बनते हैं और अपने
बड़प्पन को जीते हैं। उस खेल में बच्चे भी होते हैं और वहाँ भी उन्हें यही सुनने
को मिलता है कि तुम चुप रहो, तुम अभी बच्चे हो। मतलब कि बच्चे हमसे अधिक संगी-साथी
बनाते हैं। हम तो अपनी दुनियादारी में
दुनिया ही भूला देते हैं लेकिन ये अपनी दुनिया बसाने की पहल करते रहते हैं।
बच्चे बड़े
होने का नाटक खेलते हैं और हम बड़े, बच्चे होने का सुख इन बच्चों में तलाशते
हैं। ये हमें जीवन का पाठ पढ़ा जाते हैं और हम सोचते हैं कि हम बच्चों को कुछ सिखा
देंगे। ये हमें सम्पूर्ण बना जाते हैं और
हम सोचते हैं कि हम इन्हें बड़ा कर रहे हैं। ये हमें सिखा जाते हैं कि संगी-साथी
कैसे बनाते हैं और हम सोचते हैं कि हम इन्हें जीना सिखा रहे हैं। छोटी सी चिड़िया
जब घर की मुंडेर पर चहचहाती है तब फूल खिल उठते हैं, ऐसे ही घर की चौखट पर जब कोई
बच्चा दस्तक देता है तब बचपन लौट आता है। बच्चों के हम कह देते हैं कि तुम चुप
रहो, तुम अभी बच्चे हो और अब हम बड़ों को भी सुनने को मिलता है कि आप चुप रहो,
आपको इस नयी दुनिया का कुछ पता नहीं। तो
हम भी तलाश रहे हैं उस दुनिया को जहाँ कोई हमें नासमझ ना कहे और बच्चे भी
ढूंढ रहे हैं इसी दुनिया को। तुम भी नासमझ
और हम भी नासमझ! ये युवा तुम्हें भी चुप करा देते हैं और हमें भी! अब हम तो दोस्त हो गये ना भाई!
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3 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "व्हाट्सएप्प राशिफल - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आभार।
बच्चों से देस्ती कर जहाँ मन प्रफुल्लित होता है वहीं (उनके)बड़ों से भी सद्भाव -संवेदना का रिश्ता जुड़ने लगता है.बड़े फ़ायदे की चीज़ है ये दोस्ती. बहुत सी नई बातें जानने को भी मिलती हैं.
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