Thursday, December 27, 2018

पधारो म्हारा देश या?


आखिर हमारे छोटे शहर सैलानियों का बढ़ता आवागमन क्यों नहीं झेल पाते हैं? अब आप मेरे शहर उदयपुर को ही ले लीजिए, शहर में बीचों-बीच झीलें हैं तो झीलों से सटी पहाड़ियों पर भी बसावट है। पुराने शहर में सड़के संकरी भी हैं और पार्किंग की जगह ही नहीं है। उदयपुर के पैलेस तक जाना हो तो शहर के संकरे से रास्ते से गुजरना पड़ता है, झील तक जाने के लिये भी रास्ते संकरे ही हैं, ऐसे में सैलानियों की एक ही बस रास्ता जाम करने में काफी है। अभी दीवाली पर मैंने जैसलमेर के बारे में लिखा था कि वहाँ किले तक पहुँचना हमारे लिये नामुमकिन हो गया था और ऐसा ही नजारा उदयपुर का हो गया है। कल पैदल चलते हुए फतेहसागर जा पहुँचे, वहाँ फूलों की प्रदर्शनी लगी थी तो उसे भी देख लिया लेकिन अब लगा कि वापसी भी पैदल नहीं की जा सकती है तो उबर की सेवा लेने के लिये केब बुक की लेकिन भीड़ और शिल्पग्राम जाती गाड़ियों के कारण टेक्सी को आने में 45 मिनट लग गये। उदयपुर के लिये यह सैलानियों का मौसम है, दीवाली पर भी था और शायद फरवरी तक तो रहेगा ही। सारे रास्ते गाड़ियों, बसों से जाम रहेंगे, होटल की कीमते आसमान छूने लगेगी, दुकानदार भी आपको घास नहीं डालेंगे। यदि एक किलोमीटर के रास्ते को पार करने में आपको आधा घण्टा लगने लगे तो समझ सकते हैं कि रोजर्मरा के काम करने में कितनी कठिनाई का सामना करना पड़ता होगा।
मेरे जैसे ना जाने कितने लोग अब गाड़ी नहीं चला पाते, क्योंकि एक तो भीड़ और फिर पार्किंग की समस्या। केब लो और चल दो, लेकिन जब केब मिलना भी मुश्किल हो जाए तो खीज होने लगती है। झील के चारों तरफ बढ़ते जा रहे ठेले, फूड-ट्रक आदि भी पार्किंग की समस्या को बढ़ा रहे हैं। पैदल चलने वाले, घूमने वालों के लिये कोई पगडण्डी भी सुरक्षित नहीं है। या तो वहाँ कोई भुट्टे वाला आकर बैठ गया है या फिर किसी ने अपनी गाड़ी ही खड़ी कर दी है। सैलानी बढ़ रहे हैं लेकिन शहर का वासी घरों में कैद होकर रह गया है। प्रशासन भी सड़कों को विस्तार नहीं दे सकता है, क्योंकि जगह ही उतनी है। शहर के कुछ होटल बहुत प्रसिद्ध हैं, उनके रूफ-टॉप रेस्ट्रा से पिछोला झील का नजारा बेदह खूबसूरत होता है, लेकिन वहाँ तक पहुंचने के लिये 10 फीट की संकरी गली को पार करना होता है। इसका कोई इलाज प्रशासन के पास नहीं है, सिवाय इसके की पैदल जाओ और मस्त रहो। सैलानी तो पैदल चले जाएगा लेकिन जो बाशिन्दे उन गलियों में रह रहे हैं, उनके लिये तो मुसीबत आ जाती है। हम शहर के बाहर रहते हैं लेकिन हमारे चारों तरफ फाइव स्टार होटलों का जमावड़ा है, ऐसे में सारे रास्ते गाड़ियों और बसों की आवाजाही से जाम रहते हैं। सड़क पार करना तो भारी मशक्कत का काम है।
जहाँ भी कुछ चौड़े रास्ते हैं, वहाँ घरों के बाहर लोगों ने 6-6 फीट घेरकर रोक रखा है, इसे देखने वाला कोई नहीं है। यहाँ तक की फाइव स्टार होटलों तक ने पूरे रास्ते घेर रखे हैं। हमारे पास के एक होटल ने तो सड़क को आधी कर दिया है। चालीस फीट से चली सड़क, होटल आते-आते बीस फीट से भी कम रह गयी है। सैलानी भी परेशान होते हैं और शहर के बाशिंदे भी। सैलानी रोज बढ़ रहे हैं लेकिन शहर तो अपनी सीमा में ही रहेगा, इसलिये कम से कम गैरकानूनी कब्जों पर तो प्रशासन को अनदेखी नहीं करनी चाहिये। सारा व्यवसाय सड़क पर करने की छूट तो नहीं मिलनी चाहिये। एक दिन ऐसा आएगा जब शहर ही बदरंग होने लगेगा और फिर रात-दिन बढ़ते होटल खाली रहने पर मजबूर हो जाएंगे। कम से कम बसों को शहर में दौड़ने पर पाबन्दी तो लगानी ही होगी, उसके लिये वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी। उदयपुर जैसे शहरों को बचाना तो होगा ही नहीं तो पधारो म्हारा देश कहने की जगह पर कहना पड़ेगा कि मत पधारों म्हारा देश।   

Saturday, December 22, 2018

रूमाल ढूंढना सीख लो


न जाने कितनी फिल्मों में, सीरियल्स में, पड़ोस की ताकाझांकी में और अपने घर में तो रोज ही सुन रही हूँ, सुबह का राग! पतियों को रूमाल नहीं मिलता, चश्मा नहीं मिलता, घड़ी नहीं मिलती, बनियान भी नहीं मिलता, बस आँखों को भी इधर-उधर घुमाया तक नहीं कि आवाज लगा दी कि मेरा रूमाल कहाँ है, मोजा कहा है? 50 के दशक में पैदा हुए न जाने कितने पुरुषों की यही कहानी है। पत्नी हाथ में चमचा लिये रसोई में बनते नाश्ते को हिला रही है और उधर पति घर को हिलाने लगता है। पत्नी दौड़कर जाती है और सामने रखे रूमाल को हाथ पर धर देती है, सामने ही रखा है, दिखता नहीं है! जिस पुरुष ने सूरज से लेकर धऱती के गर्भ के अनगिनत रहस्य खोज लिये, दूसरी तरफ उसी के भाई से अपना रूमाल भी नहीं खोजा जा रहा। ऐसे पुरुष की सारी खोज बन्द हो गयी और दीमाग में जंग लग गयी। पहले उसने कामचोरी की फिर दीमाग ने कामचोरी शुरू कर दी। पहले रूमाल भूला अब वह खुद को भी भूलने लगा। कभी कहते थे कि पेड़ के सहारे बेल चलती है लेकिन अब बेल पेड़ को खड़े रहने में सहायता कर रही है।
सुबह-सुबह चुगली नहीं खा रही, आप बीती सुना रही हूँ। घोड़ा भी जब तक लौट-पोट नहीं कर लेता, उसमें दौड़ने का माद्दा पैदा नहीं होता, पेट की आंतों को जब तक गतिशील नहीं कर लेंगे अपने अन्दर के मलबे को नीचे धकेलती नहीं। लेकिन पति नामक प्राणी लगा पड़ा है अपने दीमाग को कुंद करने में। पत्नी को नाच नचाने के चक्कर में अपने दीमाग को नचाना भूलता जा रहा है और बुढ़ापा आते-आते दीमाग रूठकर बैठ जाता है, जाओ मुझे कुछ याद नहीं। पहले पत्नी का गुप्त खजाना आसानी से ढूंढ लिया जाता था लेकिन अब दीमाग पर जोर मारने पर भी खुद का खजाना भूल बैठे हैं! न जाने कितनी बार पत्नी के पर्स की तलाशी ली गयी होगी कि कहीं इसमें कोई प्रेम पत्र तो नहीं है लेकिन अब अपना पर्स ही नहीं मिलता! मैं अक्सर कहती हूँ कि खोयी चीज केवल आँखों से नहीं ढूंढी जाती उसके लिये दीमाग को काम लेना होता है और दीमाग का काम लेने की लिये उसे रोज रियाज कराया जाता है। कभी पहेलियां बूझते हैं तो कभी-कभी हाथ में गेम पकड़ा दिया जाता है कि इसे तोड़ों फिर जोड़ो। सारे दिन की अपनी रामायण को हम कभी भाई-बहनों को सुनाते हैं तो कभी दोस्तों-सखियों को। महिलाएं रोज नये-नये पकवान बनाती हैं और पुराने में नया छौंक लगाती हैं। पुरुष कभी अपनी बाइक के कलपुर्जे के साथ खिलवाड़ करता है तो कभी रेडियो को ही खोलकर बैठ जाता है। बस एक ही धुन रहती है कि दीमाग चलना चाहिये।
शिक्षा के कुछ विषय ऐसे होते हैं, जिनमें केवल रटना ही होता है, बस सारी गड़बड़ यहीं होती है, जो भी रटकर पास होते हैं, वे दीमाग को कुंद करने लगते हैं। लेकिन जहाँ दीमाग को समझ-समझकर समझाते हैं, वे दीमाग की धार लगाते रहते हैं। बाते करना, गप्प ठोकना, अपनी अभिव्यक्ति को लेखन के माध्यम से उजागर करना ये सारे ही प्रकार दीमाग की रियाज के लिये हैं, लेकिन जो लोग मौन धारण करने को ही पुरुषोचित बात मान लेते हैं वे अपने दीमाग के साथ छल करने लगते हैं और फिर दीमाग उनसे रूठ जाता है, अब बैठे रहो शान्ति से। मेरी एक मित्र थी, जीवन का उल्लास भरा था उसके अन्दर, सारा दिन बतियाना लेकिन पति महाराज मौनी बाबा। मैं समझ नहीं पाती थी कि कैसा है इनका जीवन लेकिन अब समझने लगी हूँ कि घर-घर में ऐसे स्वनाम धन्य पुरुषों की श्रृंखला खड़ी है। वे मौन रहकर ही खुद को बड़ा मान रहे हैं, रूमाल नहीं ढूंढ पाने को पति मान रहे हैं, उन्हें यह पता नहीं कि यही आदत उन्हें लाचार बना देगी। वे खुद को भी भूल जाएंगे। इसलिये खुद को याद रखना है तो बतियाओ, दीमाग को सतत खोज में लगाकर रखो। दीमाग के सारे न्यूरोन्स को सोने मत दो, बस घाणी के बैल की तरह जोत दो। बुढ़ापा आराम से कटेगा नहीं तो पूछते रह जाएंगे कि कौन आया है! मैंने तुम्हें पहचाना नहीं! चाय पीने के बाद भी पूछते रहेंगे कि मैंने चाय पी ली क्या! सावधान हो जाओ, दीमाग को भी सावधान कर दो और जीवन को जीने योग्य बना लो। जीवन दूसरों पर हुकुमत करने का नाम नहीं है, जीवन खुद पर हुकुमत करने का नाम है। इसलिये एक बार नहीं, बार-बार कहती हूँ कि खुद को साध लो, सारी दुनिया सध जाएगी। दीमाग को गतिशील रखो और खुद का रूमाल ही नहीं पत्नी का रूमाल भी ढूंढना सीख लो।

Friday, December 21, 2018

दरबार में कितने रत्न?


बिना घुमावदार घाटियों पर घुमाए अपनी  बात को सीधे ही कहती हूँ, एक टीवी सीरीयल आ रहा है – चन्द्रगुप्त मौर्य, उसमें चाणक्य है, धनानन्द है और हैं चन्द्रगुप्त। इतिहास की दृष्टि से विवादित है लेकिन एक बात जिसने मेरा ध्यान खेंचा और लिखने पर मजबूर किया वह है – चन्द्रगुप्त 15 वर्षीय युवक है, चपल, तीक्ष्ण बुद्धिवान, साहसी आदि सारे गुण उसमें है। चाणक्य की खोज है वह, मगध के सिंहासन के लिये। धनानन्द भी चन्द्रगुप्त को अपने महल में सेवक बना देता है इसपर प्रश्न उठता है कि इस उदण्ड बालक को इतना महत्व क्यों? धनानन्द का उत्तर सुनने और समझने लायक है, धनानन्द कहता है कि मेरे पास दो विकल्प थे, एक इसे मृत्युदण्ड देना और दूसरा अपने समीप रखना। मृत्युदण्ड देता तो मैं देश से प्रतिभा को नष्ट करने का दोषी बनता इसलिये मैंने इसे अपने साथ रखने का मार्ग चुना। क्यों चुना यह मार्ग? क्योंकि यह प्रतिभा सम्पन्न है, यह हीरा है, यदि मैं अपने पास रखूंगा तो यह मेरे लिये कार्य करेगा और यदि नहीं रखूगा तो मेरे शत्रु के लिये कार्य करेगा। क्योंकि इसकी प्रतिभा को तो कोई ना कोई उपयोग में लेगा ही। राजनीति का यह सबसे बड़ा चिन्तन है। प्रबुद्ध लोगों को अपने लिये उपयोगी बनाना और अपने पास सम्मान सहित रखना। यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसकी प्रतिभा को अपने लिये उपयोगी बनाते हैं या फिर उसका सम्मान ना करते हुए उसे शत्रु के लिये सौंप देते हैं।
देश की राजनीति में यही होता आया है, अक्सर धनानन्द जैसे क्रूर शासक ऐसे रत्नों को अपने पास येन-केन-प्रकारेण रख लेते हैं और अमात्य राक्षस की सहायता से सफलतापूर्वक  शासन करते हैं। अकबर के पास नौ रत्न थे, वह भी महान बन गया था। मेरे कहने से पूर्व ही आप समझ गये हैं कि मेरा इशारा किस ओर  है? भारतीय राजनीति का एक दल है जिसके पास 90 प्रतिशत ऐसे प्रबुद्ध लोग  हैं और दूसरे दल के पास मात्र 10 प्रतिशत। लोग आपके कार्य से प्रभावित होते हैं और आपके पास आते हैं लेकिन आप उन्हें सम्मान नहीं देते और ना ही उन्हें कोई उचित कार्य दे पाते हैं। व्यक्ति का हाल यह होता है कि वह मन से तो देश का कार्य करने के लिये सज्ज हो गया लेकिन उसे कोई घास ही नहीं डाल रहा, यदि घास डाल भी दे तो काम नहीं और काम भी दे दें तो सम्मान नहीं। एक बार हमने जनजातीय क्षेत्र में कुछ काम खड़ा किया, अनेक युवक व युवतियाँ निकलकर बाहर आयीं लेकिन अचानक ही काम बन्द करवा दिया गया। देखते क्या हैं कि वे सारे ही युवा मिशनरीज के साथ जुड़ गये। भँवरे ने खिलाया फूल, फूल को ले गया राजकुँवर। मेरे पास ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब केवल शिक्षित करके हमने नौजवान पीढ़ी को उसके हाल पर छोड़ दिया। शिक्षित हम करते हैं और उसका उपयोग हमारे शत्रु करते हैं। इसलिये प्रबुद्ध वर्ग की आजीवन देखरेख करनी पड़ती है, उसकी बुद्धि का उपयोग अपने लिये करते रहना पड़ता है। ढील दी नहीं कि पतंग दूसरे ने काट डाली। आज जो हाहाकार मचा है, वह प्रबुद्ध लोगों की अनदेखी के कारण ही मचा है। मैंने देखें हैं कि लोग हाथ जोड़कर आपके दर पर महिनों तक पड़े हैं लेकिन आपने कहा कि हम ऐसे प्रबुद्ध लोगों को सम्भाल नहीं सकते। धीरे-धीरे सारे ही कमअक्ल लोग आपकी झोली में आ गये और दूसरे की झोली भर गयी। अभी फिर समय आया है, सोशलमीडिया के माध्यम से, जब अनेक प्रबुद्ध व्यक्ति आपके साथ जुड़ना चाहते हैं, तो लपक लीजिये उनको। कहीं ऐसा ना हो कि देर हो जाए और आप संघर्ष ही करते रह जाएं। देश प्रेम की भावना भर देने मात्र से ही कोई व्यक्ति केवल देश के लिये नहीं सोचता है, व्यक्ति पहले अपने सम्मान और उपयोग के लिये सोचता है। यदि ऐसा नहीं होता तो लाखों-करोड़ों लोग विदेश जाकर सम्मानित जिन्दगी का चयन नहीं करते? हम तो आपको सुझाव दे सकते हैं क्योंकि अब केवल सुझाव देने के ही दिन शेष हैं। जो हमारे सुझाव मान लेगा वह चन्द्रगुप्त सरीखे हीरों को अपने पास रख लेगा और उनके प्रकाश से खुद को भी प्रकाशित करता रहेगा और राजनीति को भी। कांग्रेस के लिये गाँधी परिवार केवल एक साधन है, प्रबुद्ध लोग उस परिवार के माध्यम से शासन को चुनते हैं लेकिन भाजपा के लिये मोदी ही एकमात्र सहारा है। मोदी नहीं तो कुछ भी नहीं। इसलिये भाजपा को तय करना है कि उसके दरबार में भी रत्नों का ढेर हो या नहीं? देश के उच्च पदों के लिये हम ऐसे ही खोज जारी रखेंगे या अपनी झोली से हीरे निकालकर देश को देंगे? आज लड़ाई राजनैतिक दल नहीं अपितु प्रबुद्ध वर्ग लड़ रहा है, वह अपने सम्मान का नमक अदा कर रहा है।

Wednesday, December 19, 2018

काश हम एक नहीं अनेक होते

रोज सुनाई पड़ता है कि यदि एक सम्प्रदाय की संख्या इसी गति से बढ़ती रही तो देश का बहुसंख्यक समाज कहाँ जाएगा? उसे केवल डूबने के लिये हिन्द महासागर ही मिलेगा। फिर तो हिन्द महासागर का नाम भी बदल जाएगा। ऐसे में मुझे इतिहास की एक बड़ी भूल का अहसास हुआ। जब भारत स्वतंत्र हो रहा था तब अंग्रेजों ने देश की 565 रियासतों के राजा-रजवाड़ों को बुलाकर कहा था कि आज से आप स्वतंत्र हैं, आप चाहें तो स्वतंत्र राष्ट्र बन सकते हैं और चाहें तो हिन्दुस्थान या पाकिस्तान के साथ मिल सकते हैं। कल क्या हुआ था यह मत सोचिये, यह सोचिये कि यदि जो हुआ था वह नहीं होता तो क्या होता? 565 रियासतों में से बहुत सारी ऐसी होती जो स्वतंत्रता के पक्ष में होती और भारत एक ना होकर अनेक भारत में विभक्त हो जाता। छोटी-छोटी रियासते हो सकता है कि अपनी नजदीकी रियासत के साथ मिल जाती, जिसकी सम्भावना न के बराबर है। अब देश में ही कितने देश होते? 100? 200? 300? 400? 500? या इससे भी ज्यादा। पाकिस्तान की तर्ज पर कुछ मुस्लिम देश और होते लेकिन कोई तमिल होता तो कोई मलयाली, कोई उड़िया तो कोई बंगाली, कोई राजस्थानी, कोई पंजाबी तो कोई गुजराती। कहीं ब्राह्मण प्रमुख होते तो कहीं वैश्य और कहीं क्षत्रीय। कहीं जाट तो कहीं गुर्जर तो कहीं शूद्र। सभी को अपना देश मिल जाता। किसी देश में लोकतंत्र होता तो किसी देश में राजतंत्र। धर्मनिरपेक्षता का नाम भी होता या नहीं, कह नहीं सकते। ऐसे में मुस्लिम विस्तार की बात बामुश्किल होती और यदि होती भी तो जनता को अनेक हिन्दू राष्ट्र में शरण लेने की जगह होती। 
अभी क्या देखते हैं कि एक सम्प्रदाय विशेष को ही आजादी के बाद से सारे सुख मिले हैं, अन्य सम्प्रदाय के विद्वानों को वह स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिये था। आरक्षण के कारण भी बहुत दमन हुआ। हो सकता है तब आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं पड़ती और समाज में वैसे ही समानता आ जाती। किसी भी जाति वर्ग के विद्वान को यदि अपने देश में सम्मान नहीं मिलता तो दूसरे देश में मिल जाता। देश भी पास-पास होते तो परिवार भी टूटने के खतरे से बच जाते। इतने बड़े देश में आज केवल धर्मनिरपेक्षता से काम नहीं चल सकता। आज जो हो रहा है, वह एक सम्प्रदाय की खेती को तेजी से बढ़ाने का काम हो रहा है। हर वर्ग में असंतोष बढ़ता जा रहा है, वे जायज भी हैं और एक देश की दृष्टि से देखें तो नाजायज भी हैं। लेकिन हम एक देश नहीं होते तो यह समस्या नहीं होती। कोई भी जाति या सम्प्रदाय इस प्रकार सर नहीं उठाते। हम आपस में मित्र राष्ट्र होते और एक दूसरे को सम्मान देते। अब तो देख रहे हैं कि 20 करोड़ की जनसंख्या भी अल्पसंख्यक कहलाती है और बहुसंख्यक के सारे अधिकार छीन रही है। ब्राह्मण से लेकर दलित तक सभी आन्दोलित हैं, सभी को विशेष दर्जा चाहिये।
सरकारें भी पेशोपेश में हैं कि किसे खुश करें और किसे नाराज! यही कारण है कि हर रोज सरकारें बदलती हैं, वादे बदलते हैं और खुश करने का तरीका बदल जाता है। नेता कभी इधर तो कभी उधर का खेल खेलते हैं और जनता भी कभी इसका पलड़ा तो कभी उसका पलड़ा भारी करती रहती है। इन सबके बीच यदि नुक्सान हो रहा है तो सनातन धर्म का हो रहा है। हमारे सनातन मूल्यों का नुक्सान हो रहा है। हमारी संस्कृत भाषा और हमारी संस्कृति का हो रहा है। सर्वकल्याणकारी संस्कृति का विनाश ऐसा ही है जैसे सम्पूर्ण मानवता का विनाश। क्या हम आसुरी काल में प्रवेश करेंगे? क्या राम और कृष्ण मय धरती इनसे विहीन हो जाएगी? प्रश्न बहुतेरे हैं, लेकिन उत्तर कहीं नहीं हैं! हम सब एक-दूसरे को समाप्त करने में लगे हैं लेकिन इसका अन्त कहाँ जाकर होगा, यह कोई नहीं जानता। इसलिये मन में आया कि काश हम एक ही नहीं होते तो कम से कम सुरक्षित तो रहने की सम्भावनएं बनी रहती। अभी भी कुछ टुकड़े हो जाएं तो बचाव का मार्ग बचा रह सकता है नहीं तो सारा हिन्दुस्थान नाम लेने को भी नहीं बचेगा। फिर तो यहूदियों जैसा हाल होगा कि ओने-कोने में बचे हिन्दू एकत्र होंगे और फिर इजरायल की तरह अपना देश हिन्दुस्थान बसाएंगे। वही हिन्दुस्थान शायद अजेय होगा।

Monday, December 17, 2018

शेष 20 प्रतिशत पर ध्यान दें

40 प्रतिशत इधर और 40 प्रतिशत उधर, शेष 20 प्रतिशत या तो नदारद या फिर कभी इधर और कभी उधर। सत्ता का फैसला भी ये ही 20 प्रतिशत करते हैं, ये सत्ता की मौज लेते रहते हैं। सत्ताधीशों को अपने 40 प्रतिशत को तो साधे रखना ही होता है लेकिन साथ में इन 20 प्रतिशत को भी साधना होता है। कांग्रेस कहती है कि भाजपा ने अपना वोट बैंक मजबूत कर रखा है और भाजपा कहती है कि कांग्रेस ने मजबूत कर रखा है। सम्राट तो अकबर ही था लेकिन उसने नौ रत्न दरबारी के रूप में रख लिये अब आजतक भी अकबर के साथ उन नौ रत्नों का जिक्र होता है। सम्मानित दरबारी नौ ही थे लेकिन हजारों इसी आशा में रहते थे कि कभी हमारा भी नम्बर आ ही जाएगा। सत्ता के साथ यही होता रहा है, आज भी यही हो रहा है। कुछ ऐसे हैं जो जानते हैं कि अपनी योग्यता के बल पर कभी भी सत्ता के लाभ नहीं ले सकते अंत: वे सत्ताधीषों के दरबारी बने रहते हैं कि उनकी झूठन ही सही, कुछ तो मिलेगा। लेकिन कुछ ऐसे होते हैं कि उन्हें अपनी योग्यता पर गुरूर होता है, वे कहते हैं कि हम सर्वाधिक योग्य हैं इसलिये हमारा हक बनता है। चुनावों में बागी उम्मीदवार ऐसी ही सोच रखते हैं, कुछ जीत जाते हैं तो कुछ जमानत भी बचा नहीं पाते। जो जीत जाते हैं वे उदाहरण बन जाते हैं और लोग फिर अपनी योग्यता पर दांव लगाने लगते हैं। 
चुनाव के अतिरिक्त ऐसे ढेर सारे बुद्धिजीवी भी होते हैं, इनमें पत्रकार प्रमुख हैं। ये सत्ताओं को हमेशा धमकाते रहते हैं, ये सत्ता के सारे लाभ लेना चाहते हैं। सत्ता इन्हें लाभ देती भी है लेकिन सभी को लाभ मिले यह सम्भव नहीं और जब सम्भव नहीं तो इनका विरोध झेलना ही पड़ता है। वर्तमान में स्थिति यह है कि भाजपा ने इनके लाभ की प्रतिशत में कटौती कर दी तो असंतुष्टों का प्रतिशत भी बढ़ गया। एक और वर्ग जिसे सोशल मीडिया के नाम से जाना गया, वह भी इस भीड़ में शामिल हो गया। पत्रकार हो या सोशल मीडिया का लेखक पहले किसी दल के पक्ष में लिखता है, उसके करीब आता रहता है, पाठक भी उसे उसी दल का समर्थक मान लेता है और उसके लेखन को पढ़ते-पढ़ते उसके मुरीद बन जाते हैं। जब अच्छी खासी संख्याबल एकत्र हो जाता है तब वह आँख दिखाना शुरू करता है, सत्ता के अपना हिस्सा मांगने लगता है। यदि सत्ता ने ध्यान नहीं दिया तो नुक्सान की धमकी देता है। कितना नुक्सान कर पाते हैं या नहीं यह तो पता नहीं चलता लेकिन समाज में असंतोष फैल जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि इनके कारण हार हुई है, कुछ लोग कहते हैं कि इनका असंतोष का काबू में रखना चाहिये और इन्हें भी सत्ता के लाभ देने चाहियें। इस चुनाव में भी यही हुआ, क्या पत्रकार और क्या सोशलमीडिया का लेखक दोनों ने ही अपनी दावेदारी दिखायी। अनेक समाचार पत्र जिन्हें भाजपा अपनी ही मानती रही थी, उन्होंने जमकर आँख दिखायी, ऐसे ही सोशलमीडिया के लेखक ने भी जमकर आँख दिखायी।
मेरा कहना यह है कि जो भी आँख दिखा रहा है, उसे अपने चालीस प्रतिशत में शामिल मत करिये, वे उन 20 प्रतिशत में हैं जो आपको कभी भी पटकनी दे सकता है। इनसे खतरा दोनों ही दलों को बराबर है। इनपर अपनी ऊर्जा व्यय करने से अच्छा है अपने ही बुद्धीजीवी को सम्मान देना प्रारम्भ करें। यदि दो चार को भी सम्मानित कर दिया तो असंतोष का रास्ता बन्द हो जाएगा। बस हर मोर्चे पर ऐसे लोगों की पहचान जरूर करें, चाहे वे नेता हो, कार्यकर्ता हों, पत्रकार हों या फिर सोशल मीडिया का लेखक। क्योंकि जब लालच उपजने लगता है तब उसकी सीमा नहीं होती, इसलिये लालच को बढ़ावा देने से अच्छा है, उसके सामने दूसरा श्रेष्ठ विकल्प खड़ा कर दें। संघ में बहुत विचारक हैं, उन्हें लामबन्द करना चाहिये और इस क्षेत्र में उतारना चाहिये। आज की आवश्यकता है छोटा और सार्थक लेखन, जिसे आसानी से आमजन पढ़ सके। सनसनी फैलाना या किसी के लिये अपशब्दों का प्रयोग करने से बचना होगा क्योंकि इससे विश्वसनीयता समाप्त होती है। हमें सोशल मीडिया पर ऐसे कोई भी समूह दिखायी नहीं देते जो सारगर्भित लेखन कर रहे हों, या किसी के लेख को समूह रूप में स्वीकार कर रहे हों। बस दोनों तरफ से झूठ और गाली-गलौच का सामान तैयार है, सभी को खुली छूट मिली है कि वह कुछ भी लिखे और कुछ भी कॉपी-पेस्ट करे। संगठन को अपनी जिम्मेदारी लेनी चाहिये कि ऐसी किसी पोस्ट पर एक्शन ले। संगठन की जवाबदेही ही बहुत सारे लोगों को सही मार्ग पर ला सकती है ना कि उनका मौन। यदि संगठन ने अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी और केवल मौन को ही अंगीकार किया तब उनके कार्य पर भी प्रश्नचिह्न लगेगा। 

Thursday, December 13, 2018

भिखारी परायों के दर पर

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आर्कमिडीज टब में नहा रहा था, अचानक वह यूरेका-यूरेका बोलता हुआ नंगा ही बाहर भाग आया, वह नाच रहा था क्योंकि उसने पानी और वस्तु के भार के सिद्धान्त को समझ लिया था, न्यूटन सेव के पेड़ के नीचे बैठा था, सेव आकर धरती पर गिरा और उसने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को समझ लिया था। छोटी-छोटी घटनाओं से वैज्ञानिक प्रकृति के रहस्यों को समझ लेते हैं, ऐसे ही समाज-शास्त्री भी छोटी घटनाओं से मनुष्य की मानसिकता को समझते हैं और तदनुरूप ही अपने समाज को ढालते हैं। सारे राजनैतिक घटनाक्रम के चलते कल एक घटना ने मेरी भी सोच को केन्द्रित किया और हमारे समाज की मानसिकता समझने का प्रयास हुआ। कल मेरी नौकरानी का फोन आया कि वह आज नहीं आएगी, पड़ोस की नौकरानी भी नहीं आयी। दोनों ही आदिवासी थी लेकिन मेरी दूसरी नौकरानी आदिवासी नहीं थी, वह आयी। मैंने ध्यान नहीं दिया कि क्यों नहीं आयी, लेकिन बातों ही बातों में पता लगा कि वह दूसरे शहर की किसी दरगाह पर गयी हैं। मुझे आश्चर्य हुआ कि दरगाह  पर क्यों! पता लगा कि हर साल जाते हैं। हमारे देश का तथाकथित हिन्दू समाज भीख मांगने का कोई भी मौका नहीं छोड़ता फिर वह भीख अपनों से मांगने की बात हो या दूसरों से। उसे  पता लगना चाहिये की यहाँ मन्नत मांगने से कुछ मिल जाता है, फिर वह शर्म नहीं करता। अजमेर दरगाह तो इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। आज हम दूसरों के सामने हाथ पसार रहे हैं, कल उनकी बात मानने लगते हैं और फिर कब स्वयं को बदल लेते हैं पता ही नहीं चलता। यदि बदलते भी नहीं हैं तो उनकी ओर से आ रहे खतरे को तो नजर-अंदाज कर ही देते हैं। हमारे छोटे-छोटे लालच हमें अपने समाज से दूर ले जाते हैं और शनै:-शनै: समाज की शक्ति कम होने लगती है। हम समझ ही नहीं पाते कि राजा कौन हो, इस बात से कोई अन्तर पड़ता है। वे तो स्वयं को भिखारी की श्रेणी में रखते हैं तो कौन राजा हो इससे क्या अन्तर!
इसके विपरीत किसी भी अल्पसंख्यक समाज को किसी दूसरे सम्प्रदाय के दर पर दस्तक देते कभी नहीं देखा गया। क्या गरीबी वहाँ नहीं है? मुस्लिम और ईसाई तो बहुत गरीब हैं, लेकिन क्या मजाल कभी किसी हनुमानजी.या देवी के मन्दिर में दिखायी दिये हों! वे भी तो मन्नत मांगते ही होंगे! लेकिन वे अपनों से ही मन्नत मांगते हैं इसलिये कभी दूसरों से प्रभावित नहीं होते। उनका लक्ष्य, उनके समाज ने निर्धारित कर दिया है, केवल अपना विस्तार। जबकि हमारे समाज ने हमारा कोई लक्ष्य निर्धारित ही नहीं किया है, सभी ने लंगर लगाकर और मन्नत का धागा बांधना तो सिखा दिया लेकिन स्वाभिमान नहीं सिखाया। तुम्हारे हाथ में ही सारी सम्पत्ती है, यह नहीं सिखाया। हाथ कर्म करने के लिये होते हैं, भीख मांगने के लिये नहीं, यह नहीं सिखाया। भीख भी मांगनी पड़े तो अपनों से मांगों, परायों से नहीं, यह नहीं सिखाया। यही कारण है कि चुनावों में एक पव्वा भारी पड़ जाता है, रसोई गैस-बैंक में खाता-घर-भामाशाह कार्ड के सामने। जैसे लोगों को मूल से अधिक सूद प्यारा होता है वैसे ही स्थायी धन से भीख प्यारी हो जाती है।
ईसा पूर्व का उदाहरण उठाकर देख लें या बाद के, अनगिनत बार ऐसा हुआ है कि दूसरे देश की सेनाएं बिना लड़े ही युद्ध जीत गयी! क्योंकि हम परायों और अपनों में भेद ही नहीं कर पाए। एक छोटा सा लालच हमें अपनी सेना के विरोध में खड़ा कर देता है और फिर सर धड़ से अलग हो जाता है यह जानते हुए भी लालच नहीं छूटता। यही है हमारे समाज की मानसिकता। इसी मानसिकता का लाभ दुनिया उठा रही है, लेकिन हम इस मानसिकता को समझकर भी नहीं समझना चाहते क्योंकि हम भी काम करना नहीं चाहते। समाजों के नाम पर, हिन्दुत्व के नाम पर अनेक संगठन बन गये लेकिन वे अपने नाक के नीचे हो रहे इस मतान्तरण को देख ही नहीं पा रहे हैं, देख भी रहे हैं तो कुछ करते नहीं बस राजनैतिक दाव-पेंच में ही उलझे रहना चाहते हैं कि कौन मुख्यमंत्री हो, जो हमारे कहने से चले। पाँच साल से अभी और पांच साल पहले नजदीक से देखा है एक समर्थ मुख्यमंत्री को इन्हीं ताकतों ने कैसे-कैसे बदनाम किया और उसे हराकर ही दम लिया। जनता तो भीख पर पल रही है, उसे देश के खतरे से लेना-देना नहीं, लेकिन जो देश के खतरे को बता-बताकर लोगों को डराते रहते हैं, वे अपनी मुठ्ठी का व्यक्ति ढूंढते हैं। राजस्थान में तो हँसी आती है, कुछ लोग ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे जिसे कभी संघ ने ही तड़ी पार किया था और ऐसी मुख्यमंत्री को हटाना चाहते थे जो जनता के दिलों में बसती थी। एक ने भीख का लालच देकर सत्ता हथिया ली और दूसरे ने अपनों पर ही वार करके सत्ता खो दी। मुझे पोरवराज को हराना है, इसलिये मैं एलेक्जेण्डर से संधि करूंगा, इसी विद्वेष और लालच की मानसिकता को समझने की जरूरत है। भिखारी मानसिकता को अपने दरवाजे तक सीमित रखने के प्रयास की जरूरत है।

Sunday, December 9, 2018

खाई को कम करिये


लो जी चुनाव निपट गये, एक्जिट पोल भी आने लगे हैं। भाजपा के कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवीयों की नाराजगी फिर से उभरने लगी है। लोग कहने लगे हैं कि इतना काम करने के बाद भी चुनाव में हार क्यों हो जाती है? चुनाव में हार या जीत जनता से अधिक कार्यकर्ता या दल के समर्थक दिलाते हैं। इस मामले में कांग्रेस की प्रशंसा करूंगी कि उन्होंने ऐसी व्यवस्था खड़ी की कि कार्यकर्ता-समर्थक और नेता के बीच में खाई ना बने। नेता को यदि सत्ता के कारण सम्मान मिलता है तो बुद्धिजीवी को भी विषय-विशेष के लिये समाज में सम्मान भी मिले और स्थान  भी मिले, तभी यह खाई पट सकेगी। बस भाजपा और उनके प्रमुख संगठन संघ की यही बड़ी चूक है कि वह कार्यकर्ता को सम्मान नहीं दे पाती। दो मित्र एक साथ राजनैतिक क्षेत्र में आते हैं, एक नेता बन जाता है और दूसरा कार्यकर्ता रह जाता है। नेता बना मित्र, अपने ही मित्र से आशा रखता है कि वह उसके दरबार में आए और उसके कदम चूमे। बस यही प्रबुद्ध कार्यकर्ता का सम्मान आहत हो जाता है और वह ना देश देखता है, ना समाज देखता है, बस उसे यही दिखता है कि मैं सबसे पहले इसे गद्दी से कैसे उतारूं! फेसबुक पर सैकड़ों ऐसे लोग थे जिनका सम्मान आहत हुआ था, वे भी कांग्रेस के कार्यकर्ता की तरह समाज में अपना स्थान चाहते थे लेकिन उन्हें नहीं मिला और वे अपमानित सा अनुभव करते हुए, विरोध में आकर खड़े हो गये।
कांग्रेस जब से सत्ता में आयी है, तभी से उसने कार्यकर्ता और प्रबुद्ध लोगों को समाज में स्थापित करने के लिये देश भर में लाखों पद सृजित किये और हजारों पुरस्कार व सम्मानों का सृजन किया। एक पर्यावरणविद, समाज शास्त्री, साहित्यकार आदि का नाम शहर में सम्मान से लिया जाता है, उन्हें हर बड़े समारोह में विशिष्ट स्थान पर बैठाया जाता है। मंच पर राजनेता होता है और अग्रिम पंक्ति में सम्मानित अतिथि। दोनों के सम्मान में समाज झुकता है, बस एक समर्थक को और क्या चाहिये! मैंने संघ के निकटस्थ ऐसे प्रबुद्ध नागरिक भी देखें हैं, जिनने अद्भुत कार्य किया लेकिन उन्हें सीढ़ी दर सीढ़ी उतारकर जमीन पर पटक दिया गया। ऐसे ही हजारों नहीं लाखों कार्यकर्ताओं और समर्थकों की कहानी है। व्यक्ति देश की उन्नति के लिये आकर जुड़ता है लेकिन जब उसे लगता है कि उसे सम्मान नहीं मिल रहा अपितु ऐसी जाजम पर बैठना पड़ रहा है, जहाँ उसके साथ उसी के विभाग का चतुर्थ श्रेणी योग्यता के लिये नहीं अपितु उस विभाग में है, के कारण बैठा है। तब उसे कोफ्त होती है, वह नाराज होता है और अपमानित होकर घर बैठ जाता है। कुछ विरोध में खड़े हो जाते हैं और कुछ मौन हो जाते हैं।
यहाँ सोशल मीडिया पर इन चुनावों को लेकर बहुत रायता फैलाया गया था। सभी चाह रहे थे कि मुख्यमंत्री बदलें, क्योंकि उनका सम्मान अधिक था लेकिन कार्यकर्ता को सम्मान नहीं था। वे कांग्रेस की तरह स्लीपर सेल जैसी व्यवस्था चाहे ना चाहते हों लेकिन सम्मान अवश्य चाहते थे। एक्जिट पोल नतीजे नहीं हैं और मुझे अभी  भी लगता है कि जनता खुश थी, नाराजी थी तो कार्यकर्ताओं की ही थी इसलिये चुनाव में जीत होगी, परन्तु जहाँ भी हार होगी वहाँ केवल कार्यकर्ताओं के कारण होगी। 70 प्रतिशत से ज्यादा पोलिंग भाजपा के पक्ष में है लेकिन इससे कम इनके विरोध में है। एक प्रतिशत का अन्तर ही भाजपा को डुबा सकता है और यह एक प्रतिशत कार्यकर्ताओं का रौष ही है।
लेकिन यदि जीत जाते हैं तो संगठन को सम्मान के इस मार्ग को भाजपा के लिये भी तैयार करना होगा। लोगों को उनकी पहचान देनी होगी, तभी वे सम्मानित महसूस करेंगे और आपके साथ जुड़े रहेगे। बिना सम्मान गुलामी में जीने के समान है और समर्थक ऐसे में परायों की गुलामी स्वीकार कर लेते हैं, अपनों के खिलाफ। इसलिये संघ जैसे संगठनों को चाहिये कि कार्यकर्ता और समर्थकों की प्रबुद्धता को सम्मान दे और उनकी और नेता की दूरी को कम करे। जितनी खाई बढ़ेगी उतनी ही दिक्कतें बढ़ेंगी। यदि इस बार जीत भी गये तो क्या, अगली बार यही समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी। हर विषय-विशेषज्ञ की सूची होनी चाहिये और उन्हें उसी के अनुरूप सम्मान मिलना चाहिये। सूची में गधे और घोड़ों को एक करने की प्रथा को समाप्त करना होगा नहीं तो गधे ही चरते रह जाएंगे और घोड़े आपकी तरफ झांकेंगे भी नहीं।
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