Friday, February 26, 2010

दोहती का जन्‍मदिन है, आशीष दीजिए

दिनांक 28 फरवरी को हमारी दोहिती 'मिहिका' उर्फ चीयां का प्रथम जन्‍मदिन है। हम तो उसे आशीष देने आज ही पुणे जा रहे हैं। उसके लिए एक गीत लिखा है आप भी पढ़िए और हमारे साथ उसे  आशीष दीजिए। इस बार होली भी पुणे की ही रहेगी। होली पर भी हमारी ओर से सभी को शुभकामनाएं। आपके जीवन में जब कभी भी हिरण्‍यकश्‍यप जैसी महत्‍वाकांक्षा जन्‍म ले, साथ ही प्रहलाद रूपी संयम का भी अवतरण हो। इन्‍ही शुभकामनाओं के साथ होली की राम-राम। लीजिए गीत - 

खुशबू जैसे मन में बस गयी
जब तू आयी थी
होठों पर मुस्‍कान खिल गयी
जीवन दे गयी थी।

कलियों जैसे पलके खुलती
आँखों में तू मेरे बसती
पहले-पहले छूना तुझको
अधरों से तू गुनगुन करती
गोदी मेरी जन्‍नत बन गयी
खुशियां दे गयी थी।

पलटी जब तू डाली थिरकी
बैठी जब तू फूल खिला हो
घुटनों पर दौड़ी तू ऐसे
तितली उड़ती झूम रही हो
खिल-खिल तेरी घर में बस गयी
रौनक हो गयी थी।

उतराती चढ़ती तू ऐसे
चिड़िया जैसे फुदक रही हो
नन्‍हें पैरों से इठलाती
डाली जैसे झूम रही हो
रुन-झुन तेरी मन में बस गयी
जब तू चलती थी।

पल-पल जैसे बढ़ती थी तू
मन मुसकाता था
हर पल तुझको देख सकू मैं
मन यह कहता था
एक साल की आज हो गयी
मन्‍नत मेरी थी।

- नानी

Wednesday, February 24, 2010

जब कोई प्‍यार में हो तब वह सही होता है

एक फिल्‍म आयी थी ‘जब वी मेट’ उसके नायिका एक संदेश देती है कि जब कोई प्‍यार में हो तो वह बिल्‍कुल सही होता है। फिल्‍म देखने के बाद यह संदेश गले नहीं उतरा, बहुत चिंतन-मनन हुआ। फिर एक दिन अचानक ही दिमाग की बत्ती जली, ज्ञान का प्रकाश फैल गया। मुझे सुनायी देने लगी गाय के जोर-जोर से रम्‍भाने की आवाजें। बचपन में बहुत सुनी थी क्‍योंकि घर पर गाय थी। लेकिन तब समझ नहीं आता था कि गाय के रम्‍भाने की आवाज से घर वाले विचलित क्‍यों हो जाते हैं? वे उसे जंगल में छोड़ देते थे, दूसरे दिन उसका रम्‍भाना या चिल्‍लाना बन्‍द हो जाता था। कोई नहीं कहता था कि गाय को क्‍या हुआ है? बस सब उसकी चिन्‍ता करते थे और उसकी शारीरिक और मानसिक क्षुधा को पूरा करने का प्रयास।

ऐसा ही मनुष्‍यों के साथ होता है, प्‍यार में पड़ने पर आवेश जन्‍म लेता है। अब मनुष्‍य सामाजिक प्राणी है तो कुछ कायदे-कानून के साथ मनुष्‍य को जीना पड़ता है। वह पशु नहीं कि उसको आवेश आया और उसकी पूर्ति कर दी गयी। वो अलग बात है कि बेचारे पशु को आवेश छठे-चौमासे ही आता है। लेकिन मनुष्‍य को तो ऐसा आवेश प्रतिदिन ही आ जाता है। अब मैं उस फिल्‍म की नायिका की बात मानूं या अपने समाज के कानून की। वो तो मनुष्‍य को पशु के समान तौलकर अपना निर्णय सुना रही थीं जबकि हम कानून से बंधे हैं। फिल्‍म के नायक को बात समझ आ गयी और उसने अपनी माँ को माफ कर दिया। बात माफी की हो तब तक तो ठीक है, लेकिन जब कानून तक चले जाए तब क्‍या करें? किसी का परिवार टूट जाए तब क्‍या करें? जैसे मटूकनाथ वाले केस में बेचारी पत्‍नी का परिवार टूट गया। मैं आप सब से और उस फिल्‍म के निर्देशक से जानना चाहती हूँ कि क्‍या वो वाक्‍य मनुष्‍यों के लिए सही है? यह फिल्‍म बहुत पहले आ चुकी लेकिन मेरी बत्ती कुछ देर से जली इसके लिए भी क्षमा चाहती हूँ। आप भी सोच रहे होंगे कि गड़े मुर्दे उखाड़ दिए। लेकिन क्‍या करूं विचार बहुत दिनों से परेशान किये था कि क्‍या वो विचार सही है या फिर हमारा भारतीय विचार कि मनुष्‍य अपना आवेश पशुवत नहीं निकाल सकता।

Tuesday, February 23, 2010

ग्‍वालियर किला जो कैदखाने में बदल दिया गया

 दिनांक 20 फरवरी को हमारी गाड़ी ग्वालियर की सड़कों से होती हुई एक पहाड़ी पर चढ़ने लगी। एक सुदृढ़ किले की दीवारे दिखायी देने लगी और उन दीवारों पर बनी हुई जैन तीर्थंकरों की खंडित प्रतिमाएं हमारे मन में वेदना जगाने लगी। हम क्‍यों इतने असहिष्‍णु हो जाते हैं कि दूसरों की आस्‍था को खण्डित कर देते हैं? एक कलाकार अपनी कला का माध्‍यम मूर्तिकला को जीवन्‍त करके सिद्ध करता है और कुछ आततायी धर्मांध होकर उस कला पर ही अपना हथोड़ा चला देते हैं। लेकिन मन विचलित होता इससे पूर्व मजबूत किले की दीवारे हमारे सामने थी। शाम का धुंधलका फैल चुका था और किले के पट बन्‍द हो चुके थे। अन्‍दर जाना नामुमकिन था लेकिन हमें पता था कि अभी लाइट एण्‍ड साउण्‍ड का कार्यक्रम होगा और यहाँ का इतिहास जीवन्‍त हो उठेगा।


अमिताभ बच्‍चन की आवाज में इतिहास के पन्‍नों की गरज हमारे कानों को सुनायी देने लगी। कभी घोड़ों की टापों की आवाज आती और कभी संगीत की स्‍वर लहरियां वातावरण में गूंज जाती। गालव ॠषि की तपोभूमि पर राजा सूरज सेन का आगमन उनका कुष्‍ट रोग का निवारण और फिर गालव ॠषि के नाम पर ही ग्‍वालियर के निर्माण का इतिहास सुनायी देता रहा। राजा मानसिंह और मृगनयनी के प्रेम के किस्‍से भी सुनायी दिए और उन द्वारा बनाया गया महल पर भी रोशनी डाली गयी। जब तानसेन की स्‍वर-लहरियां वातावरण का सरस बना रही थी तभी आतताइयों ने किले के जीवन को समाप्‍त कर दिया और विशाल और भव्‍य किले को कैदखाने में बदल दिया। जिस किले की नीचले भाग में रानी मृगनयनी और राजा मानसिंह का प्रेम परवान चढ़ा था जिसे वृन्दावन लाल वर्मा ने अपनी लेखनी से हम तक पहुंचाया था उसी किले में न जाने कितने लोगों को तहखाने में फाँसी पर लटका दिया गया और न जाने कितने लोगों को विवश मरने के लिए छोड़ दिया गया। सिखों के छठे गुरु हर गोविन्‍द साहब भी इस कैदखाने में बन्‍द रहे लेकिन जहागीर की कृपा से वे छूट गए और उनका दामन पकड़कर 51 अन्‍य कैदी भी मुक्‍त हुए। उन्‍हीं की स्‍मृति में वहाँ गुरुद्वारा भी बना है।

म‍हाराष्‍ट्र के सतारा जिले से आए सिंधिया परिवार ने फिर से ग्‍वालियर की गद्दी की सम्‍भाला और एक नवीन ग्‍वालियर जनता को दिया। अन्‍य भारतीय शहरों की तरह ग्‍वालियर के भी दो स्‍वरूप हैं – एक वही पुरातन स्‍वरूप जो तीन भागों में विभक्‍त है एक कण्‍टोंमेंट दूसरा लश्‍कर और तीसरा मुरार। और अब नवीन ग्‍वालियर बड़ी-बड़ी मॉल और शॉपिंग सेंटरस की चकाचौंध लिए खड़ा है। शहर में वही ठेलों की रेलपेल है, सवारियों को ढोते टेम्‍पों हैं जो कहीं से भी घुसकर अपना रास्‍ते बना लेते हैं। वही रेलवे स्‍टेशन और वही बस स्‍टेण्‍ड। ग्‍वालियर में देखने को कई स्‍थान हैं लेकिन मीटिंग की व्‍यस्‍त दिनचर्या में इतना ही देखा जा सका। हमारे मेजबान श्रेष्‍ठ थे या फिर ग्‍वालियर की परम्‍परा ही है कि आतिथ्‍य सत्‍कार पूरा होता है। स्‍वादिष्‍ट भोजन के साथ स्‍वादिष्‍ट चाट भी परोसी गयी। तीन दिन ग्‍वालियर आँखों और मन में बसा रहा फिर ट्रेन ने कहा कि आज आप हमारे मेहमान है आपकी सीट हमारे यहाँ आरक्षित है तो चले आइए, कल पर भरोसा मत कीजिए। हम केवल वर्तमान में ही यात्रियों को ससम्‍मान उनके गंतव्‍य तक पहुंचाते हैं और हम भी ग्‍वालियर से चले आए वापस अपनी दुनिया में। अपनी ब्‍लाग की दुनिया में अपनी लेखकीय दुनिया में।

Thursday, February 18, 2010

माफ करना टिप्‍पणी नहीं कर पाएंगे

तीन दिन के लिए ग्‍वालियर जा रहे हैं, आपके ब्‍लाग पर नहीं आ पाएंगे और ना ही टिप्‍पणी कर पाएंगे। आने के बाद एक-एक की खबर लेंगे। सच आप लोगों की बहुत याद आएगी। आप लोगों से भी गुजारिश है कि इन दिनों सारी बेकार पोस्‍ट ही डालिए, न पढ़ने का गम रहें ही नहीं। बढ़िया से रहिए, आपस में झगडा मत करिए। घर में बड़ों का कहना मानना, समय पर खाना खा लेना यह नहीं कि सारा दिन कम्‍प्‍यूटर पर ही लगे रहो। मुझसे कोई भी काम हो तो मेरे मोबाइल 94141 56338 पर बात कर लेना। अपना भी ध्‍यान रखना और पडोस का भी। बाय।

Wednesday, February 17, 2010

बाराती चलाते हैं एक दिन चमड़े के सिक्‍के

आज कई शादियों में जाना था लेकिन एक शादी पारिवारिक मित्र के यहाँ थी तो सोचा कि आज बस उन्‍हीं की शादी में रहेंगे बाकि सभी में जाना केंसिल। कार्ड में बारात आने का समय देखा, लिखा था नौ बजे। दूसरे शहर से बारात आनी थी और बारात सुबह ही शहर में आ गयी थी, तो सोचा कि समय पर ही आ जाएगी बारात तो हम आठ सवा आठ तक जा पहुंचे। घूम-फिरकर भोजन का भी जायजा ले लिया गया और दाल रोटी कहाँ उपलब्‍ध है यह भी देख लिया गया। सोचा कि बारात का स्‍वागत करने के बाद ही खाना खाएंगे लेकिन कहीं बाजे-वाजे की आवाज सुनाई ही नहीं दे रही थी तो लगे हाथ खाने का काम भी निपटा लिया। दस बज गए लेकिन बैण्‍ड-बाजों की आवाज फिर भी सुनाई नहीं दी। अब क्‍या करें? बहुत देर तक परिवार वालों के साथ स्‍वागत करने वालों की कतार में भी खड़े रहे लेकिन आखिर बुढापे की टांगे कब तक साथ देती? पतिदेव ने चुपके से आकर कहा कि चाहो तो यहाँ कुर्सियों पर आकर बैठ जाओ। वैसे तो उनका सुझाव रास नहीं आता है लेकिन आज कुछ अच्‍छा लगा। हम भी पण्‍डाल में सजी-धजी और बारातियों की इंतजार करती कुर्सियों पर बैठ गए। हमने क्षमा भी मांग ली कि भाई आप लोग इन्‍तजार तो बारातियों का कर रही हो लेकिन अब सर्दी में आप भी अकेली बैठी हो तो हम ही आपका साथ निभा देते हैं। सुख-दुख देखकर हमारा ही साथ निभा लो। दो-तीन दोस्‍तों और सहेलियों की मण्‍डली भी जुट गयी।

हमने सारे ही किस्‍से भी सुना डाले, लेकिन जैसे ही हमारा एक किस्‍सा खत्‍म होता मैं देखती कि हमारे मित्र लोग हँस भी लेते लेकिन फिर मुड़कर दरवाजे की ओर देख लेते शायद अब आ जाए? लेकिन राजस्‍थान में बरसात की तरह बारात को भी देरी होती जा रही थी। हमारे किस्‍से भी खतम हो रहे थे। शादी गार्डन में थी, तो नीचे हरी दूब और ऊपर खुला आसमान दोनों से ही ठण्‍ड बरसने लगी थी। मैं तो एक पति में ही विश्‍वास रखती हूँ, तो शॉल वगैरह पहनकर ही जाती हूँ लेकिन आज की महिलाएं दूसरे चांस की जगह रखती हैं तो गरम कपड़ों से कुछ परहेज ही रखती हैं। कहीं ऐसा न हो कि हमें उम्रदराज समझ लिया जाए? तो मेरे अलावा सभी महिलाएं कुड़कती जा रही थीं। मैं भी एक शॉल के सहारे तो कब तक रहती, इसलिए मेरी हड्डिया भी खनकने लगी थी। कॉफी की तलाश शुरू की गयी जिससे शायद कुछ गर्मी का अहसास हो जाए। लेकिन पता नहीं मेजबान को क्‍या सूझी कि कॉफी को नाकाफी सिद्ध करके उसके साथ बेइंसाफी कर डाली। जब कॉफी नहीं मिली तो घड़ी पर ध्‍यान गया, अरे क्‍या साढे ग्‍यारह बज गए? लेकिन शुक्र था कि तब बारात आने की सुगबुगहाट होने लगी थी और बारात दरवाजे पर हाजिर थी। राम-राम करते दूल्‍हा 12 बजे स्‍टेज पर आया। अक्‍सर देखते हैं कि दूल्‍हा बहुत देरे तक स्‍टेज पर अपने दोस्‍तों के साथ बैठता है फिर बड़े सलीके से दुल्‍हन आती है लेकिन यहाँ तो दूल्‍हा स्‍टेज पर चढ़े उससे पहले दुल्‍हन तैयार थी स्‍टेज पर चढ़ने को। आनन-फानन में वरमाला हुई और हम आखिर खिसक ही लिए।

कन्‍या पक्ष ने विवाह का बड़ा भव्‍य आयोजन किया था, लगभग तीन-चार हजार लोग विवाह में सम्मिलित होने आए थे लेकिन बारात आयी जब केवल घर वाले और इष्‍ट-मित्र ही रह गए थे। ना किसी ने दूल्‍हा देखा और ना ही दुल्‍हन। ना किसी ने आशीर्वाद दिया और ना ही स्‍टेज पर जाकर फोटो खिंचवाए। लेकिन एक दिन के हम बादशाह हैं, लड़के वाले हैं। हम जितनी खरामा-खरामा आएंगे उतने ही लड़के वाले लगेंगे। भइया एक दिन चमड़े के सिक्‍के चला लो बाकि तो वही होगा जो दुल्‍हन चाहेगी। क्‍या आप भी एक दिन के सिक्‍के चलाने में विश्‍वास करते हैं?

Monday, February 15, 2010

विवाह के बारे में फोकटी सलाह

मैं पढ़-लिखकर डिग्री-विग्री लेकर शादी के लिए तैयार थी। जैसे ही पढ़ाई पूरी होती है, बस एक ही काम बचता है वह है शादी। पिताजी ने कहा कि तुम अब नौकरी भी करने लगी हो तो तुम्‍हें किसी कम पढ़े और बेरोजगार लड़के से विवाह कर लेना चाहिए। मैं एकदम से चौंक गयी। पिताजी कैसी सलाह दे रहे हैं? लेकिन उनकी सलाह आज ठीक ही लग रही है, काश ऐसा ही किया होता? मेरी एक मित्र ने लम्‍बा-चौड़ा पहलवान जैसा पति ढूंढ लिया, कारण बताया कि सुरक्षा करेगा। लेकिन कुछ दिन बाद खबर आयी कि वह पत्‍नी से ही दो-दो हाथ कर रहा है।

एक मेरी अन्‍य मित्र एम बी बी एस डाक्‍टर, मैंने उसे एक डॉक्‍टर पति ही बताया लेकिन वो बोली कि नहीं मुझसे ज्‍यादा पढ़ा होना चाहिए। ढूंढ शुरू हुई, और एक पी.जी. डाक्‍टर मिल ही गया। अब पत्‍नी ग्रेजयूट और पति पोस्‍ट-ग्रेजुएट। बात-बात में पत्‍नी को कहे कि तुम्‍हारी बुद्धि तो चोटी के पीछे रहती है। तब मुझे पिताजी की बात का मर्म समझ आया। ना रहे बांस और ना बजे बांसूरी। अरे किसने कहा कि पहलवान टाइप लड़के से शादी करो या फिर किसी बड़ी डिग्रीधारी से। ये बड़ी डिग्रीधारी मुझे अक्‍सर बड़े फन-धारी लगते हैं, हमेशा फुंफकारते ही रहते हैं। और फिर कोढ़ में खाज जैसा ही एक और फार्मूला है विवाह करने का, कि लड़का उम्र में भी बड़ा होना चाहिए। जिससे आपको हमेशा छोटा होने का अहसास दिलाया जा सके। आज नारियों ने कितनी ही उन्‍नति कर ली लेकिन अभी भी वे अपने सर को ओखली में डालने से बाज नहीं आती।

मैंने एक दिन हरियाणा की एक लड़की से कहा, जो पांच फीट आठ इंच थी, कि तू किसी पूर्वांचल के लड़के से शादी कर ले। अब वो बोली कि दीदी आप क्‍यूं मजाक कर रही हैं? क्‍या मुझे उसे गोद में उठाकर चलना है? अरे मारपीट का किस्‍सा एकदम से ही खत्‍म हो जाएगा बल्कि तू ही कभी एकाध हाथ जड़ सकती है, मैंने उसे समझाने का निरर्थक प्रयास किया। तू क्‍यों सुरक्षा ढूंढ रही है, तू स्‍वयं ही समर्थ बन ना। उसने कहा कि नहीं दीदी कुछ मजा नहीं आएगा। तब मैंने कहा चल पूर्वांचल का तो तुझे ज्‍यादा ही छोटा लग रहा है, तू ऐसा कर कि मध्‍यप्रदेश आदि का चुन ले कोई पांच फीट पांच इंच वाला। यहाँ भी मारपीट का खतरा नहीं रहेगा।

अब एक आई पी एस लड़की मिली, चौबीस घण्‍टे की नौकरी। कभी इस गाँव तो कभी उस गाँव। मैंने उससे कहा कि तू बेरोजगार किसी बिना पढ़े-लिखे से शादी कर ले। लेकिन उसने भी मेरी नहीं सुनी। उसने सीनियर आई पी एस से शादी कर ली। अब साहब की अटेची भी पेक करनी और खाना भी बनाकर देना। हो गयी न आई पी एस की ऐसी की तैसी? मैंने क्‍या बुरा कहा था? अरे पति चाहिए या आस-पड़ोस में रौब दिखाने के लिए बड़ी डिग्री? पड़ोस में तो दिखा लिया रौब लेकिन घर में?

अब देखिए उम्र के मामले में मुझे ऐश्‍वर्या की बात समझ आयी, हमेशा आँख दिखाकर कह सकेगी कि बड़ों से तमीज से बात करो। अभी तो बात-बात में छोटा होने का अहसास जताया जाता है।

अब इस देश की बालिकाओं और युवतियों तुम्‍हारे सोचने का समय शुरू होता है अभी। कि तुम अपने लिए बॉडी-गार्ड ढूंढती हो या फिर अपनी बॉडी का गार्ड स्‍वयं बनती हो। मैंने अनेक हल दिए हैं परम्‍परा से चली आ रही इस ...गर्दी के खिलाफ, फैसला आपको करना है। हमारी तो जैसे-तैसे कट गयी लेकिन तुम्‍हारी बढ़िया कटे इसके लिए मैंने फोकट में ही सलाह दी है। मैं जानती हूँ कि मेरी फोकटी सलाह को आप कोई भी नहीं मानेगा लेकिन जब मैं पैसे लेकर सलाह देने लगूंगी तब आप सब अवश्‍य मानेंगी। सीता-सीता।

Saturday, February 13, 2010

अरे आप घर पर ही हैं क्‍या?

हैलो, फोन उठाते ही सामने से आवाज आयी, अरे आप घर पर ही हैं क्‍या? आश्‍चर्य से भरा स्‍वर सुनाई देता है। हाँ, घर पर नहीं होऊँगी तो कहाँ जाऊँगी? मैंने प्रश्‍न कर लिया। अरे आप रोज ही तो बाहर जाती हैं, कभी दिल्‍ली तो कभी मुम्‍बई। बेचारे डॉक्‍टर साहब को अकेला छोड़कर। बड़े ही उलाहने भरे स्‍वर में सामने से आवाज आई। कोई महिला यदि सामाजिक कार्य कर रही है तो ऐसी बातें उसको रोज ही सुनने को मिल जाती हैं। कम से कम मैं तो सुन-सुनकर आदी हो चुकी हूँ। जब मैं नौकरी में थी और प्रायोगिक परीक्षा लेने बाहर जाती थी तब ये स्‍वर सुनाई नहीं देते थे। तब तो मैं कमा रही होती थी। लेकिन सामाजिक कार्य करते समय यह बात किसी को भी नहीं पचती कि आप फोकट में बाहर घूमे। यह भी पूछ लिया जाता है कि आपकी संस्‍था आपको किराया वगैरह देती है या नहीं?

हमारे मित्र शर्माजी एक दिन घर आ गए। मैंने पूछा कि भाभीजी नहीं आयी? वे बोले कि अरे वो तो एक महिने से पीहर गयी है, हमेशा ही ग‍र्मी की छुट्टिया पीहर में बिताती है।

तो आप क्‍या करते हैं? अकेले। खाने की समस्‍या उत्‍पन्‍न हो जाती होगी। अरे कुछ नहीं, खुद बना लेता हूँ या फिर होटल में खा लेता हूँ।

लेकिन शर्माजी की पत्‍नी से कोई नहीं पूछता कि आप इतने दिन शर्माजी को छोड़कर कैसे चले जाती हो?

मेरे एक-दो दिन के बाहर जाने पर भी आपत्ति की जाती है। कई लोग तो मुझे घर की महिलाओं से दूर ही रखना चाहते हैं, वे कहते हैं कि आप हमारी पत्नियों को भी बिगाड़ देंगी।

अब आप ही बताइए कि सामाजिक या साहित्यिक कार्य के लिए बाहर जाना क्‍या इतना बड़ा अपराध है कि आप पर तमगा ही चिपका दिया जाता है कि यह तो अपने पति को अकेला छोड़कर अक्‍सर बाहर चले जाती हैं। मुझे कभी तो इतना गुस्‍सा आता है कि आपको इतनी ही चिन्‍ता हो रही है तो इन्‍हें अपने घर ले जाकर खाना खिला दिया करो। लेकिन उन्‍हें तो बस मुझे ताने मारने हैं क्‍योंकि मैं फोकट का काम कर रही हूँ।

इस समाज में किसी का भी फोकट में काम करना सहन नहीं होता। यह स्थित केवल मेरी ही हो ऐसी बात नहीं है, पुरुषों की भी है। सेवानिवृत्ति के बाद यदि कोई पुरुष सामाजिक‍ कार्य करने की इच्‍छा जाहिर करे तो घर वालों के माथे पर शिकन आ जाती है। उन्‍हें लगता है इसे अभी हमारे लिए और पैसे कमाने चाहिए और यदि पैसे कमाने की शक्ति नहीं है तब घर का काम करना चाहिए। जैसे सुबह थैला पकड़कर सब्जि लाना, पोते-पोतियों को स्‍कूल छोड़ आना आदि-आदि।

अ‍ब आप ही बताइए कि कोई ऐसी उम्र होती है जब व्‍यक्ति अपने मन की करना चाहे और लोग उसे करने दें? वो तो अच्‍छा है कि मेरे पति और मुझमें अच्‍छी समझ है इस बात को लेकर, नहीं तो झगड़ा होते तो एक पल नहीं लगे। बस तब याद आता है कि इस देश में शिवाजी पैदा होने चाहिए लेकिन अपने पड़ोसी के।

Wednesday, February 10, 2010

घूमने जाते समय रिश्‍तेदार की तलाश या होटल की?

इन गर्मियों की छुट्टियों में बच्‍चों ने कहा कि पापा इस बार हम मसूरी घूमने चले। पापा ने कहा कि देखते हैं। लेकिन एक दिन अचानक ही पापा बोले कि बच्‍चों तुम कह रहे थे ना कि मसूरी घूमने जाना है। तो हम ऐसा करते हैं कि मसूरी की जगह कोडयकेनाल चलते हैं। तुम्‍हें तो हिल-स्‍टेशन से मतलब है ना, और फिर मसूरी से अधिक अच्‍छी जगह है कोडयकेनाल। फिर वहाँ फायदा यह है कि वहाँ पर पहाड़ों की खुबसूरती के साथ समुद्र भी है। बच्‍चे खुश हो गए। पत्‍नी ने पूछा कि उस दिन तो आप चुप लगा गए थे लेकिन आज कैसे आप दक्षिण घूमने की बात कर रहे हैं? पति बोले कि वो क्‍या है ना कि अपना हितेश है ना। कौन हितेश पत्‍नी ने कहा? अरे अपने दिल्‍ली वाले चाचाजी का लड़का। वो आजकल केरल में पोस्‍टेट है। कल उसी का फोन आया था कि भैया इसबार छुट्टियों में यहाँ का कार्यक्रम बना लो। अब घूमने का घूमने हो जाएगा और उससे मिलने का अवसर भी। फिर सबसे बड़ी बात की कोई अपना वहाँ है तो मन में सुरक्षा का भाव भी रहेगा। लेकिन वो तो अपने दूर की रिश्‍तेदारी में है। पत्‍नी ने फिर प्रश्‍न कर दिया। अरे तो क्‍या हुआ? हितेश मुझे बड़ा मानता है। एक दो दिन उसके यहाँ रहेंगे और बाकि पूरा समय घूमेंगे। उसका वहाँ परिचय है तो गेस्‍ट-हाउस वगैरह भी वो उपलब्‍ध करा देगा।

अब बोलने की बारी बच्‍चों की थी। बच्‍चों ने कहा कि पापा हम तो होटल में रहेंगे। घूमने तो जाते ही इसलिए हैं कि होटल में रहने को मिले।

अरे होटल में भला घर जैसा सुख मिलता है क्‍या? पापा बोले। हम होटल में भी रहेंगे और घर पर भी। अब देखो साउथ में खाने की कितनी दिक्‍क्‍त होती है? घर का खाना मिल जाएगा।

ये वार्तालाप अमुमन हर घर में होता है। हम जब भी कहीं घूमने जाते हैं पहले किसी रिश्‍तेदार या परिचित को ढूंढते हैं। हमारा स्‍वभाव ही यह बन गया है। लेकिन इसके विपरीत आधुनिकता को अपना रहे बच्‍चे होटल की बात करते हैं। विदेश में कहीं भी किसी परिचित के रूकने की बात अधिकतर नहीं सोची जाती। सगे भाई-बहन भी होंगे तो रुकेंगे तो होटल में ही, फिर चाहे मिलने चले जाएं। इसी कारण हमारे यहाँ समाज जीवित है। परिवार भी रिश्‍तों से बंधे हैं।

लेकिन आधुनिकता और भारतीयता के मध्‍य एक अजीब सी परिस्थिति का निर्माण होने लगा है। मैं जब भी किसी माता-पिता से बात करती हूँ तो वे अक्‍सर कहते हैं कि हम बच्‍चों से कुछ नहीं लेते। माता-पिता अपना सम्‍मान रखने के लिए ऐसा कहते हैं वास्‍तविकता में तो बच्‍चे कुछ देते नहीं। हम जिस देश में रहते हैं, उस देश को चलाने के लिए प्रत्‍येक समर्थ नागरिक टेक्‍स देता है इसी प्रकार परिवार में भी समर्थ संतानों को टेक्‍स देना पड़ता है। यह भारत का कानून है कि हम समर्थ से ही टेक्‍स लेते हैं। परिवार में भी यही होता है कि गरीब और असमर्थ संतान को तो सब मिलकर पालते हैं। आज संतानों के द्वारा परिवारों में यह कहकर टेक्‍स देना या अपना अंश देना बन्‍द कर दिया है कि आपको इसकी आवश्‍यकता ही क्‍या है? परिणाम हुआ है कि आज एक पीढ़ी ही समाज को बनाए रखने का प्रयास कर रही है। यही युवा पीढ़ी जब स्‍वयं कहीं जाती है तब माता-पिता से रिश्‍तेदारों का पता पूछती हैं लेकिन ये रिश्‍तेदारी कैसे बचायी जाती है इसकी चिन्‍ता नहीं करती। कितने भी समर्थ माता-पिता हो लेकिन क्‍या युवा-पीढ़ी को अपना अंश परिवार में नहीं देना चाहिए? क्‍या एक दिन रिश्‍तेदारी का यह सुरक्षा-कवच भारत में भी समाप्‍त हो जाएगा? क्‍या हम भी कहीं घूमने जाएंगे तब बस होटल की ही तलाश करेंगे? हमारा रिश्‍तेदार वहाँ रह रहा होगा लेकिन उससे सम्‍बंध बनाए रखने के लिए कुछ त्‍याग करना पड़ेगा तो हम ऐसा क्‍यों करें, ऐसा भाव क्‍या भारत में भी सर्वत्र छा जाएगा? अपना अंश नहीं देने और होटलों की परम्‍परा को अपनाने से माता-पिता और संतानों के रिश्‍ते तो शायद बचे रह जाएं लेकिन हम रिश्‍तेदारी के रिश्‍ते नहीं बचा पाएंगे। आगे आने वाली पीढ़ी फिर बिल्‍कुल अकेली होगी, बिल्‍कुल अकेली।

Monday, February 8, 2010

साहित्‍यकार माता-पिता का स्‍मरण कौन करता है?

खुशबू हूँ मैं फूल नहीं जो मुरझा जाऊँगा
जब भी मुझको याद करोगे मैं आ जाऊँगा।
ये पंक्तियां रात को टीवी पर सुनी थी, मन से निकल नहीं रही। ऐसे लग रहा है जैसे दिल में समा गयी हों। टीवी पर संगीत का कार्यक्रम चल रहा था, उसमें प्रसिद्ध गायक शान अपने पिता का स्‍मरण करते हुए उनके ही गीत और संगीत को सुर दे रहे थे। आँखों में आँसू लिए और होठों पर मुस्‍कान लिए वे अपनी ही धुन में गाए जा रहे थे। उनकी पत्‍नी भी आँसू बहा रही थी। गुमनामी के अंधेरे में खो चुके अपने अप्रतिम पिता को जब शान ने याद किया तब लगा जैसे मन्दिर में घंटियां बज उठी हों। कोई बड़ी ही पवित्रता से भगवान को पुकार रहा हो।

आज न जाने कितना लिखा जा रहा है? लेकिन कितने बेटे हैं जिनके हाथों का स्‍पर्श उन शब्‍दों को मिलता है? कितने बेटे उन शब्‍दों का स्‍मरण कर पाते हैं और कितनी बहुएं उन शब्‍दों को सुनकर अपने आँसू नहीं रोक पाती? एक फिल्‍म आयी थी ‘यात्रा’ जिसमें नाना पाटेकर मुख्‍य भूमिका में थे। मैं उन दिनों अमेरिका अपने बेटे के पास गयी हुई थी। वहाँ सप्‍ताह में पाँच दिन तो घर पर बैठकर टाइम-पास के साधन ढूंढने पड़ते हैं तो इण्डियन स्‍टोर से किसी फिल्‍म की सीडी लाने का विचार बना। स्‍टोर के मालिक ने एक सीडी पकड़ा दी, नाम था ‘यात्रा’। पहले कभी नाम नहीं सुना था, फिर सोचा कि खाली बैठकर बोर होने से अच्‍छा है कोई अनजानी फिल्‍म ही देख ली जाए। उस फिल्‍म में नाना पाटेकर साहित्‍यकार बने थे, तो फिल्‍म के प्रति रुचि जागृत हो गयी। नाना पाटेकर का पात्र श्रेष्‍ठ साहित्‍यकार होने के बाद भी कहीं दुखी और कुंठित दिखायी पड़ता है। बेटा पूछता है कि भाई यह क्‍यों कुंठित है? मुझे भी समझ नहीं आता, मुझे लगता है कि साहित्‍यकार अधिकतर कुंठित ही रहते हैं तो शायद यही पात्र की मांग है। लेकिन अन्‍त में आभास हुआ कि उसका बेटा उसका साहित्‍य नहीं पढ़ता था शायद यह बहुत बड़ा कारण था उनकी कुंठा का।

हम अपने पिता या माता पर कब गर्व करते हैं? जब वे हमें भौतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्‍ध करा सके? उनके आदर्श, उनके वचन, उनका साहित्‍य का क्‍या हमारे जीवन में कोई मौल नहीं? क्‍या ये सब बिना मौल की वस्‍तुएं हैं? हमारे द्वारा लिखा गया साहित्‍य क्‍या अभिमान करने का विषय नहीं है? कितने बेटे/बेटियां हैं जो एक सामान्‍य साहित्‍यकार माता-पिता का बड़े शान से परिचय कराते हैं? मैंने अक्‍सर देखा है कि वे परिचय के अभाव में कहीं खो जाते हैं। वे तरस जाते हैं उन शब्‍दों को सुनने के लिए जिन शब्‍दों को उन्‍होंने दुनिया को दिया है लेकिन जिन्‍हें वे बच्‍चों को शायद दे नहीं पाए। जब उनका परिचय ही नहीं है तो फिर उनके जाने के बाद उनका स्‍मरण तो शायद सपनों की बात होगी। फिर आज तो परिवार भी टूट गए हैं, श्राद्ध भी नहीं होते जो एक दिन ही याद कर लिया जाए। लेकिन फिर भी माता-पिता हमेशा ही कहेंगे कि जब भी मुझको याद करोंगे मैं आ जाऊँगा।

Saturday, February 6, 2010

प्रतिक्रिया करें, सुप्‍त ना रहें

रेल के एसी द्वितीय श्रेणी में अधिकतर सम्‍भ्रान्‍त लोग यात्रा करते हैं, मैंने अधिकतर सम्‍भ्रान्‍त लोग इसलिए लिखा है कि कभी-कभार मुझ जैसे लोग भी यात्रा करते हैं। वहाँ के बेड-रोल अक्‍सर गन्‍दे होते हैं। मैं उदयपुर में निवास करती हूँ तो मेरा उदयपुर से चलने वाली रेलों से ही अधिक सामना होता है, लेकिन कभी-कभी भारत के अन्‍य क्षेत्रों की रेलों से भी रूबरू हुई हूँ। कम्‍पार्टमेन्‍ट में 42-44 यात्री रहते हैं लेकिन मैंने कभी भी मेरे सिवाय किसी और को गन्‍दे बेड-रोल के लिए केयर-टेकर को टोकते नहीं सुना। उदयपुर से ट्रेन दिल्‍ली जाती है तो सुबह होते ही यात्रियों से चद्दरें लेकर केयर-टेकर समेटकर रख देता है और शाम को वापस दूसरे यात्रियों को दे देता है। कम्‍बल तो इतने फटे हुए और गन्‍दे होते हैं कि शायद घर में ऐसे हो तो तत्‍काल पत्‍नी के ऊपर फेंक दिए जाएं। नेपकीन तो मांगने पर भी मिल जाए तो शुक्र कीजिए। लेकिन हम कभी भी प्रतिक्रिया नहीं करते, बस चुपचाप उसी बिस्‍तर पर सो जाते हैं। यह मुद्दा तो ऐसा भी नहीं है जिससे आप किसी संकट में पड़ जाएं। लेकिन उस समय साधु बन जाते हैं कि जो मिला उसी में संतोष। परिणाम क्‍या होता है, रेल के ठेकेदार इसका फायदा उठाते हैं और हमें प्रतिदिन इन गन्‍दे बिस्‍तरों पर सोना पड़ता है।

इसके विपरीत एक और वाकया देखिए। जब मैंने यात्रियों को प्रतिक्रिया करते हुए देखा। मैं हैरान रह गयी देखकर कि लोग कमजारे व्‍यक्ति के सामने कैसे शेर बनते हैं? रायपुर से मैंने ट्रेन पकड़ी, अपनी बर्थ पर बैठ गयी। कुछ ही मिनट में एक व्‍यक्ति को थामे दो व्‍यक्ति आए और एक बर्थ पर सुलाकर चले गए। उसका सामान भी रख गए। जब ट्रेन चल दी, तो पास के सह-यात्रियों ने हल्‍ला मचाना शुरू किया कि इसने शराब पी रखी है और यह बेसुध होकर सो रहा है, हमें इससे खतरा है। पुलिस आ गयी, उन्‍होंने भी समझाने का प्रयास किया कि यात्री सो रहा है, पता नहीं क्‍या बात है? आपको इससे क्‍या परेशानी है? लेकिन लोग नहीं माने और अगले ही स्‍टेशन पर उस यात्री को सामान सहि‍त प्‍लेटफार्म पर डाल दिया गया। मैं खड़ी अवाक देखती रही कि यह क्‍या हो रहा है? उस यात्री की क्‍या मतबूरी थी, हो सकता है किसी ने उसे लूटा हो और ऐसी हालात में उसे यहाँ छोड़ गए हों। उसके पीछे कोई भी कारण हो सकता था। लेकिन भीड़ के कानून ने पुलिस के सामने फैसला सुना दिया था। यह घटना कई वर्ष पुरानी है, लेकिन मेरे मन से जाती नहीं। वह बेचारा व्‍यक्ति पता नहीं किस हालात का शिकार हुआ होगा। आप कहेंगे कि मैं क्‍यों नहीं बोली? मैंने कोशिश की लेकिन नक्‍कार-खाने में तूती की आवाज भला कौन सुनता है?

ये दो उदाहरण हैं, ऐसे कितने ही उदाहरण हमारी रोजमर्रा के जीवन में आते हैं लेकिन जहाँ कमजोर व्‍यक्ति होता है, वहाँ हम शेर बन जाते हैं और जहाँ व्‍यवस्‍था सुधारने की बात होती है वहाँ हम सहन करते जाते हैं। फिर कहते हैं कि भ्रष्‍टाचार है। हम बात-बात में नेताओं को गाली देते हैं लेकिन कभी नहीं सोचते कि हम कितना चुप रहते हैं? केवल अपना फायदा देखते हैं। यदि हम ऐसे अव्‍यवस्‍थाओं के खिलाफ प्रतिक्रिया करना प्रारम्‍भ कर दें तो बहुत कुछ सुधार सम्‍भव हो सकता है। प्रतिक्रिया करने पर ही सुधार होगा, सुप्‍त समाज मृत समान है।

Thursday, February 4, 2010

अमेरिकी-गरीब के कपड़े बने हमारे अभिनेताओं का फैशन

अमेरिका के एक मॉल में घूम रहे थे। कुछ किशोर बच्‍चे अजीबो-गरीब ड्रेस पहने हुए थे। किसी ने अपनी आयु से काफी बड़ा टी-शर्ट, किसी ने फुल टी-शर्ट पर हॉफ शर्ट और फटी जीन्‍स पहन रखी थी। वे बच्‍चे मेक्सिन, साउथ अफ्रिका आदि देशों के थे। गरीब थे और छोटे-मोटे धंधे करके अपना गुजारा करते थे। मैंने बेटे से पूछा कि ये बच्‍चे क्‍या ऐसी ही अजीबो-गरीब और फटी-टूटी ड्रेस पहनते हैं। उसने कहा कि हाँ ये ऐसी ही पहनते हैं। खैर हम भी मॉल में एक कपड़ों की दुकान में गए। बेटे ने कहा कि कुछ खरीदना हो तो खरीद लो। वहाँ फटी हुई जीन्‍स लटकी हुई थीं, मुसी-तुसी शर्ट पड़ी थीं। मैंने कहा कि क्‍या हम किसी कबाड़ी की दुकान में आ गए हैं? बेटा हँसा और बोला कि यही फैशन है।

दूसरे दिन शहर के अन्‍दरूनी हिस्‍से में थे, लोग बड़े करीने से सूट पहने थे, महिलाएं भी अच्‍छे वस्‍त्र पहने हुई थीं। मैंने फिर बेटे से पूछा कि तुम तो कहते थे कि वो फैशन है, पर ये सम्‍भ्रान्‍त लोग तो बड़े सलीके से कपड़े पहने हैं। बेटा बोला कि ये तो बड़े लोग हैं। हम देशी तो यही पहनते हैं। एक बार मेरा तो बेटे से झगड़ा भी हो गया। बाजार जाना था वो बरमूडा पहनकर आ गया कि चलो। मैंने कहा कि यह क्‍या? कपड़े तो ढंग के पहनकर चलो। वह बोला कि अरे यहाँ तो सभी ऐसे ही जाते हैं। मैंने गुस्‍से में कहा कि नहीं तुम कपड़े बदलो। वह गुस्‍से में भुनभुनाता हुआ कपड़े बदलकर आया, वो भी कोई अच्‍छे नहीं थे।

मैंने भारत आकर जब अपनी बहन से कहा कि अरे ये युवा फैशन के नाम पर क्‍या पहनते हैं? उसने बताया कि मेरा किस्‍सा सुनो। वह बोली कि मेरा बेटा जब भारत आया तो अपनी एक जीन्‍स छोड़ गया। मैंने उसे देखा, वो फटी हुई थी। मेरे नर्सिंग होम में जो सफाई कर्मचारी था, उसे मैंने वो जीन्‍स दे दी। कुछ महिनों बाद बेटा जब वापस आया तब उसने पूछा कि मम्‍मी आपने मेरे कपड़े किसी को दिए हैं क्‍या? मेरी एक नयी जीन्‍स नहीं मिल रही। मैंने बड़ा याद किया लेकिन कुछ याद नहीं आया। फिर अचानक से याद आया कि अरे एक जीन्‍स जो फटी हुई थी वो मैंने राजू को दी थी। अब बेटा भड़क गया, बोला कि अरे मम्‍मी आप क्‍या करती हैं? मेरी नयी जीन्‍स उसे दे दी। मैं अभी वापस लाता हूँ।

मैंने कहा कि उसकी पहनी हुई वापस लाएगा क्‍या? लेकिन वो बोला कि मुझे कोई फरक नहीं पड़ता। वो गुस्‍से में तमतमाया हुआ राजू के पास गया। उसने कहा कि तूने मेरी जीन्‍स ली है क्‍या? वह बोला कि मैं फटी हुई जीन्‍स नहीं पहनता, मेडम ने दी थी, तो मैं मना नहीं कर सका, लेकिन वो उस अल्‍मारी में रखी है। मैंने उसे हाथ भी नहीं लगाया है। आखिर उसे जीन्‍स वापस मिल गयी।

अभी टीवी पर एक कार्यक्रम आ रहा था, उसमें शाहिद कपूर ने एकदम फटी हुई जीन्‍स पहन रखी थी। फिर दूसरे कार्यक्रम में और भी हीरोज ने ऐसी ही घुटनों से और पीछे से फटी हुई जीन्‍स पहन रखी थी। कुछ ने लम्‍बी टी-शर्ट और ऊपर से हॉफ शर्ट पहन रखी थी। तब मन में एक विचार आया कि अमेरिका के गरीब की तो मजबूरी है, फटे हुए कपड़े पहनना और शायद जो भारतीय वहाँ रह रहे हैं वे भी अपनी धुलाई की समस्‍या और गरीबी के कारण ऐसे ही कपड़े पहन लेते हों। लेकिन ये अभिनेता, जिनसे भारत का फैशन बनता है, क्‍या इतनी हीनभावना से ग्रसित हैं जो अमेरिका की गरीब जनता जैसे कपड़ों को फैशन के नाम पर पहनते हैं? यह तो आप सब जानते ही हैं कि जीन्‍स तो वहाँ काउ-ब्‍वायज अर्थात ग्‍वाले पहनते हैं। वो भी हमने फैशन बना लिया और अब फटे-टूटे कपड़ों को फैशन बना रहे हैं। क्‍या ये अभिनेता वहाँ के अभिनेताओं के फैशन को नहीं अपना सकते? कितनी हीनभावना से भरा हुआ हैं हमारा अभिजात्‍य वर्ग भी?

Wednesday, February 3, 2010

नायक/लायक/नालायक – अमिताभ/राखी सावंत/राहुल महाजन

एनडीटीवी के रवीश जी ने कल अमिताभ को महानालायक कहा। इसके विपरीत यही चैनल राखी सावंत और राहुल महाजन को नायक बनाने में तुले हैं। मैं कांच के टुकड़े को भी हीरा कहूं तो मेरी मर्जी, यदि मुझे हीरे को भी कांच का टुकड़ा सिद्ध करना पड़े तो यह है मेरी शक्ति। अमिताभ नायक हैं, लायक हैं या फिर नालायक हैं, यह आज के तथाकथित तानाशाह सामन्‍त तय करते हैं। इनकी एक नायिका सरे आम अपनी माँ को गाली देती है और दूसरा नायक पिता की अस्थि कलश को गोद में रखकर जमकर नशा करता है। दोनों का ही ये स्‍वयंवर कराते हैं।

इस देश की जनता का आदर्श कौन बने, यह आज टीवी चैनल तय करते हैं। एक बार शाहरूख खान ने अपने साक्षात्‍कार में कहा था कि ‘हम तो भांड हैं, केवल अभिनय करते हैं’। अब अभिनय करने वाले लोग इस देश के नायक कैसे हो जाते हैं? फिर महानायक भी बन जाते हैं। कौन बनाता हैं इन्‍हें? यही टीवी चैनल। इस देश की युवा-शक्ति आज इन्‍हीं अभिनेताओं के पीछे पागल है। वे इन्‍हें अपना आयडल मानते हैं। विज्ञान का विद्यार्थी जिसे डाक्‍टर या इंजिनीयर बनना है भला उसका आयडल ये अभिनेता कैसे हो सकते हैं? वे इनके पसन्‍दीदा अभिनेता हो सकते हैं लेकिन जिनके पदचिन्‍हों पर या जिनके समान हमें बनना है उनको हम आयडल नहीं कहते। लेकिन ये टीवी वाले युवाशक्ति को भ्रमित करते हैं। उन्‍हें ऐसा ग्‍लेमराइज करते हैं कि सब उनके पीछे पागल हो जाते हैं।

मेरा रवीश जी से या जिनको मक्‍खन लगाने के लिए उन्‍होंने अमिताभ को महानालायक कहा, क्‍यो वे राहुल महाजन को अब नायक बनाने में तुले हैं? उन्‍होंने क्‍यों राखी सावंत को नायिका बनाकर पेश किया? ह‍म तो किसी भी अभिनेता को चाहे वो अमिताभ हो या फिर और कोई, कभी भी नायक या महानायक नहीं मानते। वे केवल एक अभिनेता हैं, बस। यदि वे अपने अभिनय द्वारा किसी ऐसे मुद्दे को उठाएं जिससे सारा देश एकता के सूत्र में बंध जाए तब हम उन्‍हें नायक कहेंगे। जैसे पूर्व में मनोज कुमार देश भक्ति का जज्‍बा जगाने के लिए फिल्‍में बनाते थे। वे नायक थे। लेकिन यदि आज के ये नायक जो कभी किसी फिल्‍म के नायक बनते हैं और कभी खलनायक, उन्‍हें कैसे हम अपना नायक मान लें। स्‍वांग भरने वाले इस देश के नायक कैसे हो गए? मीडिया आज जितना चरित्र हरण कर रहा है उतना तो शायद किसी तानाशाह राजा ने भी नहीं किया होगा। आज जो भी मीडिया की कमाई का जरिया बनता है वो नायक हो जाता है और जो उनके विरोधी के पक्ष में जा खड़ा होता है वो नालायक बन जाता है। यह दोहरा चरित्र अब जनता समझने लगी है, बस देश का दुर्भाग्‍य तो तब समाप्‍त होगा जब युवा पीढ़ी समझदार बनेगी। कौन नायक है, कौन लायक है और कौन नालायक है, यह मीडिया तय नहीं करती। मीडिया का काम है जो सत्‍य है उसको दिखाना, बस। अपनी राय थोपना मीडिया का काम नहीं है।

Monday, February 1, 2010

ब्‍लागवाणी से हम पल्‍टी खा गए

आजकल फुर्सत में हैं, तो सारा दिन इधर-उधर ताक-झांक करते रहते हैं। कभी किसी की रसोई में और कभी किसी की रसोई में। देखते हैं कि किस ने आज क्‍या पकाया है और क्‍या परोसा है? थोड़ा-थोड़ा चख भी लेते हैं, लेकिन चखते ही सामने लिखा बोर्ड दिखायी दे जाता है ‘पसन्‍द का’, लिखा होता है कि पसन्‍द है तो चटका लगाएं। अब वहाँ चटका लगाना जरूरी हो जाता है। लेकिन तभी एक खिड़की खुल जाती है कि अब इस पर टिप्‍पणी भी करो। कई बार मन में आता है कि लिख दें कि नहीं करेंगे तो क्‍या करोगे? तभी दिख जाते हैं पतिदेव, चुपचाप बिना प्रतिक्रिया के खाना खाते हुए। हम गुस्‍से में भुनभुनाते हुए कहते हैं कि सब्‍जी और लोंगे? हाँ लेंगे, लेकिन इतने गुस्‍से में क्‍यों बोल रही हो? पति मुस्‍कराकर बोले। अरे आप कोई प्रतिक्रिया ही नहीं कर रहे, बस ठूसे जा रहे हैं, खा लिया तो टिप्‍पणी भी करो कि अच्‍छा लगा। यह सीन ध्‍यान आते ही झट की-बोर्ड पर अंगुलिया चल पड़ती है और तड़ातड़ टिप्‍पणियां लिख दी जाती हैं। सारा दिन यही क्रम चलता रहता है। इस बीच अपनी रसोई में भी झांक लेते हैं, अपने पकवान पर भी किसी ने टिप्‍पणी की है क्‍या? या फिर पसन्‍द है ऐसा छौंक लगाया है क्‍या? लेकिन क्‍या बताऊँ भाईसाहब और बहनजी कुछ लोग तो बड़े ही नुगरे होते हैं, हम तो उन्‍हें अच्‍छा है अच्‍छा कह-कह कर थक गए लेकिन वे कभी हमारे पकवान की ओर झांकते तक नहीं। हम ठहरे राजस्‍थान के लोग बड़ा सीधा-सादा भोजन बनाते हैं, ना तो हमारे यहाँ उत्तर भारतीयों की तरह ज्‍यादा चाट-पकौड़ी चलती हैं और ना ही दक्षिणी भारतीयों की तरह डोसे वगैरह हम तो अधिक से अधिक बाटी-चूरमे तक ही बना पाते हैं। ज्‍यादा से ज्‍याद चटनी बना ली, पापड़ तल लिया। राजस्‍थान में हरियाली भी कम ही है, तो हमारे पकवानों को हम हरा-भरा भी नहीं बता पाते, आप लोगों की तरह। चलो कोई बात नहीं, आप मत चखिए राजस्‍थानी चूरमा, हम तो आप लोगों के भाँति-भाँति के व्‍यंजन चखते रहेंगे और पसन्‍द है इसका छौंक भी लगाते रहेंगे। हमें तो अभी फुर्सत है। लेकिन कल बड़ा मजेदार वाकया हो गया, हम अपने पकवान पर सबसे पहले पसन्‍द का छौंक लगा देते हैं। एक रसोइए ने हमें बताया था कि आप दुबारा भी छौंक लगाएंगे तो तड़का दिखेगा। हमने ऐसा कर दिया, अरे यह क्‍या संख्‍या तीन की जगह दो हो गयी। भैया ब्‍लागवाणी को मेरा प्रणाम। मेरी रसोई और मेरा पकवान ही उन्‍हें मिला ऐसी ठिठोली करने को। पहली बार किया और पहली बार ही हम पल्‍टी खा गए। चलिए मेरा पकवान तो तैयार हो गया, आपके भी चख लूं। सीता-सीता।