Sunday, September 29, 2019

जन्मतारीख का गड़बड़झाला!


हमारा जमाना भी क्या जमाना था! बचपन में पाँच साल तक घर में ही धमाचौकड़ी करो और फिर कहीं स्कूल की बात माता-पिता को याद आती थी। स्कूल भी सरकारी होते थे और बस घर में कोई भी जाकर प्रवेश करा देता था। हमारे साथ भी यही हुआ और हमारी उम्र के सभी लोगों के साथ कमोबेश यही हुआ है। पिताजी ने एक भाई को कह दिया कि इसका भी स्कूल में नाम लिखा दो, भाई की अंगुली पकड़कर हम चल दिये स्कूल। हेडमास्टर/मास्टरनी ने कहा कि फार्म भरो। फार्म में पूछा गया कि जन्मतारीख क्या है? अब भाई को कहाँ याद की जन्मतारीख क्या है! पहले की तरह हैपी बर्थडे का रिवाज तो था नहीं बस माँ ने बताया कि फला तिथि पर हुई थी। भाई को जो याद आया वह लिखा दिया गया। तारीख भी और वर्ष भी। आपके साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा! हमारी पढ़ाई शुरू हो गयी, एक जन्म तारीख हमारी भी लिख दी गयी, कागजों पर। लेकिन जब दसवीं कक्षा में पहुँचे तब पता लगा कि हम दसवीं की परीक्षा नहीं दे सकते क्योंकि उम्र कम है। पिताजी पढ़ाई के प्रति जागरूक थे तो आनन-फानन में नए कागजात मय जन्मपत्री बनाई गयी और अब हमारी जन्म तारीख बदल गयी।
माँ कहती कि तुम्हारा जन्म देव उठनी ग्यारस को हुआ है और स्कूल कहता कि सितम्बर में हुआ है। जैसे-जैसे हम बड़े हो रहे थे, जन्मदिन मनाने की प्रथा भी बड़ी हो रही थी। हमें लगता कि हम तो माँ ने जो बताया है उसे ही जन्मदिन मानेंगे लेकिन स्कूल में जो दर्ज था लोग उसी दिन बधाई दे देते। इतना ही नहीं तिथि तो अपनी गति से आती और अंग्रेजी कलेण्डर से आगे-पीछे हो जाती, अब तिथि और तारीख में भी झगड़ा होने लगा! हमने फिर पंचांग को सहारा लिया और असली तारीख ढूंढ ही डाली। वास्तविक जन्मपत्री भी मिल गयी तो तारीख पक्की हो गयी।
लेकिन कठिनाई यह है कि सरकारी कागजों में जन्म तारीख कुछ और है और हमारे मन में कुछ और! सरकारी कागजों की तारीख याद रहती भी नहीं, लेकिन कभी-कभी अचानक से कोई कह देता है कि जन्मदिन की बधाई! तो हम बगलें झांकने लगते हैं कि आज? आपके साथ भी होता ही होगा। कल ऐसा ही हुआ, चुनाव आयोग का बीएलओ आया, उसने कहा कि मतदाता सूची आनलाइन हो रही है तो आप बदलाव कराने हो वे करा सकती हैं, जन्म तारीख की जब बात आयी तो ध्यान आया कि यहाँ तो सरकारी ही लिखवानी है। मैंने बताया कि 30 सितम्बर तो वह युवा एकदम से बोल उठा कि अभी से जन्मदिन की बधाई दे देता हूँ। मैं चौंकी, लेकिन मुझे ध्यान आ गया और उसकी बधाई स्वीकार की।
ऐसी ही एक  बार अमेरिका के इमिग्रेशन ऑफिसर के सामने हुआ। उसने आने का कारण पूछा, मैंने कहा कि बेटे से मिलने आयी हूँ। फिर वह बोला कि ओह आपका जन्मदिन सेलीब्रेट होने वाला है, मैं एक बार तो चौंकी लेकिन दूसरे क्षण ही मुझे ध्यान आ गया और उसकी हाँ में हाँ मिलाकर आ गयी। यदि मुझे तारीख का पता नहीं होता तो शायद वह मुझे वापस भेज देता कि कागजों में गड़बड़ है।
लेकिन ठाट भी हैं कि मैं जब चाहे बधाई स्वीकार कर लेती हूँ, ज्यादा सोचने का नहीं। कौन से जन्मदिन पर तीर मारने हैं! ना तो हम अनोखे लाल हैं जो हमने धरती पर आकर किसी पर अहसान किया है और ना ही हमारे जाने से धरती खाली हो जाएगी! लेकिन जन्मदिन मनाते समय एहसास जन्म लेता है कि चलो एक दिन ही सही, कोई हमें विशेष होने का अवसर तो देता है। नहीं तो हमारे आने की सूचना थाली बजाकर भी नहीं दी गयी थी और ना ही किन्नर आए थे नाचने। लेकिन माँ बहुत खुश थी, पिताजी भी खुश थे। हम उन्हीं की खुशी लेकर बड़े होते रहे और अब अपने जमाने की रीत के कारण दो-तीन जन्मदिन मना लेते हैं। सोच लेते हैं कि क्या कुछ अच्छा कर पाए या यूँ ही बोझ बढ़ाते रहे। अभी बधाई मत देना, अभी जन्मदिन दूर है।

Sunday, September 22, 2019

बात इतनी सी है


हमारे राजस्थान का बाड़मेर क्षेत्र बेटियों के लिये संवेदनशील नहीं रहा था, यहाँ रेगिस्तान में अनेक कहानियों ने जन्म लिया था। बेटियों को पैदा होते ही मार दिया गया, या फिर ढोर-डंगर की तरह ही पाला गया। जैसे-तैसे बड़े हो जाओ और शादी करके चूल्हे-चौके में घुस जाओ। ना कोई शिक्षा और ना ही कोई ज्ञान। रेगिस्तान का जीवन दुरूह था तो नाजुक जीवों के लिये संघर्ष कठिन था, इसलिये ये घर की चारदीवारी में ही रहीं और पुरुष बाहर संघर्ष करता रहा। लेकिन आज परिस्थिति बदल गयी है। महिला ने संघर्ष करना सीख लिया है और वे भी शान से अपना वजूद लिये खड़ी हैं। एक ऐसी ही महिला की कहानी अभी केबीसी में देखने को मिली – रूमा देवी की कहानी। चार जमात पढ़कर, 17 साल की उम्र में विवाह करके बाड़मेर में घूंघट की आड़ में जीवन काट रही थी लेकिन उसके आत्मविश्वास ने कहा कि मुझे कुछ करना है और आज फैशन जगत का चमकदार सितारा बनकर खड़ी है और अपने साथ 22 हजार महिलाओं के जीवन को भी रोशन कर दिया है।
20 सितम्बर को केबीसी में जो हुआ उसे दुनिया ने देखा। रूमा देवी कम पढ़ी-लिखी थी, उसके जीवन में ज्ञान नहीं था। रेगिस्तान में बेटियां जैसे बड़ी होती हैं, वैसे ही वह भी बड़ी हुई थी अर्थात शिक्षा और अल्प ज्ञान के साथ। बस दादी का सिखाया हुनर हाथ में था – कसीदाकारी। कसीदाकारी को आधार बनाकर उसने कार्यक्षेत्र में प्रवेश किया और संघर्षों के बाद सफलता अर्जित की। केबीसी में जाने का अवसर मिला लेकिन आवश्यक ज्ञान नहीं था। केबीसी ने उनके सहयोग के लिये एक सेलिब्रिटी को चुना जो ज्ञानवान भी हो। लेकिन बस यहीं पोल खुल गयी, हमारे फिल्मी सेलिब्रिटी की। खूब आलोचना हुई की रामायण के सम्बन्धित सरल सा प्रश्न भी उसे नहीं आया! प्रश्न यह नहीं है कि उत्तर क्यों नहीं आया, प्रश्न यह है कि रूमा देवी और सोनाक्षी सिन्हा में अन्तर क्या है? एक के पास हुनर था, शिक्षा नहीं थी और ज्ञान भी नहीं था लेकिन कठिन  परिस्थितियों में  भी जीवन की राह बना ली, मतलब बुद्धिमत्ता के कारण यह सम्भव हुआ।
सोनाक्षी सिन्हा को शिक्षा भी मिली, ज्ञान भी मिला और दुनिया को देखने समझने का व्यावहारिक अवसर भी मिला। आम जनता ने और यहाँ तक की सोनी टीवी ने भी उन्हे ज्ञानवान मानकर रूमा देवी का सहयोगी बना दिया। लेकिन पहले प्रश्न से लेकर अन्तिम प्रश्न तक सोनाक्षी बगलें ही झांकती रही। ज्ञान-शून्य सोनाक्षी। केवल पिता के नाम के सहारे से फिल्म जगत में नाम बनाने वाली सोनाक्षी क्या रूमा देवी की पासंग भी हैं? रूमा देवी को भी रामायण से सम्बन्धित प्रश्न आना ही चाहिये था लेकिन जैसे मैंने कहा कि बाड़मेर जैसे रेगिस्तानी ईलाकों में बेटियों को भी ढोर-डंगर की तरह ही पाला जाता था। रूमा देवी सुन नहीं पायी रामायण और ना ही दुनिया का ज्ञान ले पायी। सोनाक्षी ने तो दुनिया देखी है फिर इतनी ज्ञान-शून्यता?
देश बदल रहा है, कल तक जो मापदण्ड थे वे भरभरा कर बिखर गये हैं। 5 साल पहले मोदी जी अमेरिका जाते हैं, टीवी एंकर जनता से पूछ रहे हैं कि आप मोदी को कैसे देखते हैं? क्या वे शाहरूख से भी ज्यादा लोकप्रिय हैं? जनता एंकर की मट्टी पलीद कर देती है। आज भी मोदी अमेरिका में हैं और उनकी सभा में ट्रम्प तक बैठे रहेंगे। यह है परिवर्तन! देश में अभिनेताओं को, खिलाड़ियों को भगवान बना दिया गया था! वे ज्ञान शून्य थे लेकिन सुनहरी पर्दे  पर दिखने के कारण वे सर्वस्व बने हुए थे। चुनावों में तो यह स्थिति थी कि किसी भी टुच्चे से अभिनेता या खिलाड़ी को खड़ा कर दो, सामने कितना ही विद्वान राजनेता हो, जनता उसे हरा देगी! लेकिन अब स्थिति बदल गयी है। इस  बार भी चुनाव में कई अभिनेता और कई खिलाड़ी जीते हैं लेकिन उनका महिमा मंडन अब नहीं हो रहा है। वे चुपचाप संसद आते हैं और काम करते हैं। धीरे-धीरे चुनाव जीतना उनकी योग्यता पर निर्भर करेगा।
इसलिये बात इतनी सी है कि ये ग्लेमर के मारे लोग केवल कागजी फूल हैं, इनमें खुशबू मत ढूंढिये। इनकी योग्यता को देखकर ही इनकी मूल्यांकन कीजिये। कल की घटना से सोनी टीवी और अन्य टीवी भी समझ गये  होंगे कि इनकी बुद्धि का पैमाना क्या है और इनकों कितना सम्मान देना है! हम  भी इस बात को समझे कि इनकी चकाचौंध से खुद को बचाएं और वास्तविक ज्ञान को महत्व  दें। काश रूमा देवी का सहयोगी किसी शिक्षिका को ही बना दिया होता! ऐसी फजीहत तो नहीं होती! लेकिन जो हुआ अच्छा ही हुआ, देश को पता लगा कि ये सेलिब्रिटी कितने ज्ञान शून्य होते हैं।

Friday, September 20, 2019

महिला से हटकर पुरुष की अभिव्यक्ति


मेरा मन करता है कि मैं दुनिया को पुरुषों की नजर से देखूं लेकिन देख नहीं पाती हूँ! क्यों नहीं देख पाती क्योंकि मेरे पास पुरुष की सोच नहीं है और ना ही पुरुष की सोच क्या है, यह किसा किताब से अनुभव मिला है! पुरुष स्वयं को कम ही अभिव्यक्त करते हैं, उनके दर्द क्या है, उनकी सोच क्या है, उनकी चाहतें क्या हैं, पता नहीं चल पाती हैं! उनकी बातें दुनिया जहाँ पर होती हैं लेकिन कभी खुद के बारे में नहीं होती हैं! वे महिला का दर्द खूब उकेर लेते हैं लेकिन पुरुष का असली दर्द कभी नहीं उकेरते। बस अपने हाथ पर लिख देते हैं कि मर्द को दर्द नहीं होता।
यदि मर्द को दर्द नहीं होता तो दुनिया में इतना दर्द किसका है! कोई भी पुरुष जब किसी को दर्द देता है तो उससे पहले वह दर्द लेता है। उसके सीने में दर्द पैदा होता है और उस दर्द को पाटने के लिये दूसरों को दर्द देता है। मैं वही जानना चाहती हूँ कि आखिर यह दर्द क्या है? आखिर वह दर्द क्या है जो एलेक्जेण्डर को सुदूर मेसिडोनिया से लेकर आता है? क्या सत्ता पाना उसका सबसे बड़ा दर्द है? वह कौन सा दर्द है जो चर्च का पादरी महिलाओं को मुक्त नहीं होने देता हैं, तो क्या पुरुष का दर्द यौन पिपासा है? ( महिला मुक्ति आंदोलन चर्च से मुक्ति का था ) वह कौन सा दर्द है जो पुरुष को मृत्यु के बाद भी जन्नत की कल्पना में हूरों की चाहत पैदा करता है!
मैंने कभी किसी पुरुष को नहीं पढ़ा जिसने लिखा हो कि हम तड़प रहे हैं, हम पीड़ित हैं। बस पढ़ा है तो महिला की पीड़ा को शब्द देते पुरुषों को पढ़ा है, मानो वे कह रहे हों कि हम पीड़ा रहित हैं लेकिन बेचारी महिला पीड़ा से मरी जा रही है। जो पीड़ा रहित है वह तो साक्षात ईश्वर ही है ना! बस पुरुष ईश्वर का ही रूप बताने में जुटा रहता है, कभी सत्ता के लिये तलवार लेकर निकल पड़ता है तो कभी भोग को लिये महिला को चंगुल में फांसने की जुगत बिठाता है और कभी जन्नत में भी हूरों के लिये पृथ्वी को रक्तरंजित करता रहता है!
मैं घर के पुरुषों को देखती हूँ, अपने मन को कभी अभिव्यक्त नहीं करते। बाहर की दुनिया के पुरुषों को भी खूब देखा है लेकिन वे भी खुद को अभिव्यक्त नहीं करते और ना ही सोशल मीडिया पर देखा है किसी को अभिव्यक्त होते हुए। वे केवल चुटकुलों में मजाक उड़ाते हुए दिखायी देते हैं, गम्भीर बात कभी नहीं करते। वे समाज के चिकत्सक बने घूमते हैं लेकिन समाज के प्रमुख अंग पुरुष का ही निदान नहीं करते तो समाज को क्या खाक ठीक करेंगे!
दुनिया में मनोरोग बढ़ते जा रहे हैं! स्मृति-भ्रंश भी प्रमुख समस्या बन गयी है। आखिर क्यों बढ़ रहे हैं ये रोग! हम खुद को अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। हमने अपनी दुनिया अलग बसा ली है। पुरुष सामाजिक प्राणी है लेकिन धीरे-धीरे समाज से कट रहे हैं, परिवार से भी कटने लगे हैं और परिवार में भी अक्सर दिखता है कि पुरुषों की दुनिया अलग ही बन गयी है। न जाने कितने घर हैं जहाँ शाम ढलते ही पुरुष गिलास और चबेना लेकर अकेला या दोस्तों के साथ बैठ जाता है या किसी क्लब में या फिर अकेले ही सैर को चल देता है। कभी पुस्तकालय में भी अकेले बैठे मिल जाते हैं लेकिन उम्र के पड़ाव में बहुत ही कम लोग हैं जो परिवार के साथ गप्पे मारते दिखते हैं।
पुरुष शायद सोचता है कि यदि मैंने अपना दर्द बता दिया तो मेरा मूल्यांकन कम हो जाएगा। मैं एक सामान्य आदमी बनकर रह जाऊंगा। अब मैं तो इस बारे में लिख नहीं सकती, बस महिला की नजर से जो समझ पड़ता है उसे लिख रही हूँ। हो सकता है कि पुरुष का नजरियां कुछ और हो! लेकिन जब तक वे महिला को अभिव्यक्त करने के स्थान पर पुरुष को याने की खुद को अभिव्यक्त करना नहीं शुरू करेंगे तब तक समाज का वास्तविक स्वरूप निकलकर बाहर नहीं आएगा। यह पोस्ट आप सभी के दिल  पर लगेगी, आक्रोश भी खूब होगा कि एक महिला की हिम्मत कैसे हो गयी कि पुरुष के बार में लिख सके, लेकिन मैंने लिख दिया है। महिला की अभिव्यक्ति तो हजार तरह से रोज ही होती है लेकिन कभी पुरुष की अभिव्यक्ति भी हो ही जाए! क्या कुछ बुरा किया क्या?

Saturday, September 14, 2019

तिनके का सहारा


कहावत है कि "डूबते को तिनके का सहारा", जीवन का भी यही सच है। हम दुनिया जहान का काम करते हैं लेकिन जीवन में तिनका भर सहारे से हम तिरते जाते हैं, तिरते जाते हैं। हमारे सामने यदि तिनके जितना भी सहारा नहीं होता तो हम बिखरने लगते हैं, इसलिये डूब से बचने के लिये और जिन्दगी में सुगमता से तैरने के लिये तिनके भर का ही सहारा चाहिये।
आप भी किसी का सहारा बनकर देखिये, बस तिनके जितना ही। हम शाम को फतेहसागर पर घूमने जाते हैं, कई बार अकेले होते हैं, पैर बोझिल  होने लगते हैं तभी सामने से कोई हाथ हमें देखकर हिल जाता है और लगता है कि नहीं, हम अकेले नहीं हैं। पैरों में स्फूर्ति आ जाती है, लगता है हम किसी के साथ चल रहे हैं। यह केवल मात्र तिनके का सहारा ही होता है जो हमारा मन बदल देता है।
घर में भी यही होता है, कोई आकर पूछ लेता है कि मैं कुछ मदद करूँ तो मन और हाथ दौड़ने लगते हैं और जब लगता है कि कोई आवाज नहीं, कोई शब्द नहीं तो खामोशी में डूबने जैसा मन होने लगता है। जिन्दगी बोझिल सी हो जाती है। हम चारों तरफ तिनका ढूंढने लगते हैं।
मन बहुत विचित्र है, कब खुश हो जाता है और कब दुखी, कुछ कहा नहीं जाता। बस साथ चाहता है, तिनके भर का साथ चाहता है। तिनका भर साथ तो खुश हो जाता है और तिनके का सहारा नहीं तो दुखी हो जाता है।
आजकल मैं भी तिनके का सहारा ढूंढ रही हूँ, बस तिनके जितना सहारा। यह तिनका ही लिखना सिखाता है, यह तिनका ही मन को बाहर निकालता है और यह तिनका ही कहता है कि अभी हम भी हैं। बस कोशिश करो कि घर में या बाहर तिनका जितना सहारा बनने की शुरूआत होगी। पता नहीं हम कितने लोगों के जीवन में खुशियाँ ला सकते हैं, बस प्रयास जरूर करें।

Thursday, September 5, 2019

छिपे रुस्तम हो गुरु आप!


अहा! ये कॉपी-पेस्ट करने की छूट भी कितनों को ज्ञानी बना देती है! बिना शिक्षक के ही हम ज्ञानवान बनते जाते हैं, नहीं-नहीं, ज्ञानवान नहीं बनते अपितु दिखते ज्ञानवान जैसे ही हैं। लोग भ्रम में जीते हैं कि जो हम पढ़ रहे हैं, वह इसी ने लिखा है! विश्वास नहीं होता लेकिन रोज-रोज के ज्ञान से विश्वास होने लगता है। लेकिन कभी-कभी ऐसी मूर्खता उजागर हो जाती है कि हमारा विश्वास डोल जाता है, शक होने लगता है कि क्या यह विद्वान प्राणी वास्तव में विद्वान है! शीघ्र ही पोल खुलने लगती है लेकिन जब तक पोल खुले तब तक वह व्यक्ति कॉपी-पेस्ट में माहिर हो जाता है। उसे ब्रह्म ज्ञान  हो जाता है, नशा सा सवार हो जाता है और दोनों कानों में रूई ठूसकर निकल  पड़ता है कॉपी-पेस्ट करने। कई बार हम जैसे दुष्ट प्रवृत्ति के लोग टोक देते हैं कि क्या कर रहे हो, तो हमें अपने मार्ग से हटाते हुऐ उनका काम बदस्तूर जारी रहता है। धन्य है ये सोशल मीडिया, जो नये-नये ज्ञानी पैदा कर रही है!
विगत में लोगों ने बहुत लिखा, अपना-अपना ज्ञान लिपिबद्ध किया और फिर कोई ऐसा विद्वान आया कि उसने सारे लिखे को एक पुस्तक का रूप दे दिया। जिसे वेद कहा गया। न जाने कितने लोगों ने लिखा, कितने विषयों पर लिखा, सभी को एकत्रित कर विषयों के आधार  पर पुस्तकों में संकलित कर दिया। आज दुनिया के लिये ये ज्ञान अनमोल विरासत है। वर्तमान में भी कुछ ऐसे ही  प्रयोग हो  रहे हैं, कौन लिख रहा है, कौन उसे कॉपी कर रहा है,  फिर कौन उसे पेस्ट कर रहा है, कुछ  पता नहीं। ज्ञान को अज्ञान भी बनाया जा रहा है, अर्थ का अनर्थ भी किया जा रहा है, लेकिन सब चल रहा है। होड़ मची है, कॉपी-पेस्ट करने की। पुरुष महिला की खिल्ली उड़ा रहा है, महिला भी समझ नहीं पा रही, वह भी तुरन्त कॉपी करके पेस्ट कर रही है। अपनी खिल्ली खुद ही उड़ा रही है। पुरुष भी ऐसा ही कर रहा है। कई साल पहले सरदारों पर चुटकुले आते थे, सरदार भी सुनाते थे। लोग कहते हैं कि देखो कितने  बड़े दिल का आदमी है! ये  बड़े दिल के लोग नहीं हैं, मूर्ख हैं और विद्वान बनने की चाह रखते हैं। कुछ भी फोकट का मिल जाए, हम उसे उड़ा लेंगे और अपने खिलाफ ही प्रयोग कर डालेंगे, फिर कहेंगे की हमें मूर्ख कैसे कहा!
एक कहानी पढ़ी थी, एक बैंक के सामने एक सफाई कर्मचारी सफाई करते समय बोल देता है कि क्या बैंक दिवालिया हो गया है, जो अलग से सफाई कर्मचारी लगाए हैं! बात ही बात में बात बढ़ती जाती है और खबर शहर में पहुँच जाती है कि बैंक दिवालिया हो गया है। फिर क्या था, बैंक के बाहर लम्बी कतारें लग जाती हैं, पैसा निकालने वालों की और शाम तक वास्तव में बैंक दिवालिया हो जाता है। खबरों का कॉपी-पेस्ट होना ऐसा ही है। चुटकुला का भी ऐसा ही है और कहानियों का भी। कुछ शातिर लोग झूठा-सच्चा कुछ भी परोस रहे हैं और लोग दौड़ पड़ते हैं कॉपी-पेस्ट करने के लिये, बिना यह देखे कि यह कितना उचित है और कितना अनुचित! लेकिन लोगों को उचित और अनुचित का ज्ञान  हो जाए तो फिर दुनिया स्यानी ना बन जाए! फिर ढोंगी बाबा, पीर-फकीर के पास लम्बी कतारों में जाने से गुरेज ना करें हम! दुनिया ऐसे ही चलेगी, ज्ञान की दुकानें ऐसे  ही चलेंगी। लेकिन सच यह है कि हम ज्ञानी बनने के चक्कर में मुर्ख सिद्ध होने लगते हैं क्योंकि उधारी का ज्ञान हमें कभी भी ज्ञानी नहीं बना सकता। शिक्षक दिवस पर ऐसे ज्ञानियों को भी नमन, जो अज्ञान की तूती  बजा रहे हैं और खुश हो रहे हैं। चलो किसी बहाने से ही सही, खुशी का इण्डेक्स तो भारत में  बढ़ने की सम्भावना बढ़ ही रही है। आप सभी का वन्दन और जो आज नाराज या गुस्सा हो रहे हैं, मेरी पोस्ट को पढ़कर उससे क्षमा भी मांग लेगे जी,  हमारी क्षमावणी भी आने ही वाली है। हम तो फिर कहेंगे कि अजी आप तो छुपे रुस्तम हैं जी!

Tuesday, September 3, 2019

तुम हर क़ानून से बड़े हो

बधाई! देश के उन सभी देशवासियों को बधाई जो स्वयं को किसी दायरे में बाँधने को कभी तैयार नहीं है। मोदीजी फ़िट मूवमेंट चलाते हैं और हम रस्सी तोड़कर भागने का जुगत बिठा लेते हैं। मोदीजी क़ानून बना देते है कि सड़क पर ग़ाडी दौड़ाने के लिये नियमों का पालन करना पड़ेगा नहीं तो हर्ज़ाना देना होगा। मेरी जूत्ती देगी हर्ज़ाना, हुंअ! मेरा बच्चा भी गाड़ी दौड़ाएगा और किसी को मारेगा भी, तुम कौन मुझे रोकने वाले! हमने फिर समाधान ढूँढ लिया! पुलिसवालों खा जाएँगे जुर्माना! पुलिसवाले तो जब खाएँगे ना जब आप क़ानून तोड़ेंगे! वाह हम दुनिया के सबसे प्राचीन सभ्यता वाले लोग भला किसी क़ानून में बँधने के लिये है? मैं तो नहीं लगाऊँगा हेलमेट।
बधाई तो बनती ही है, हिम्मत की दिलेरी की। एक कहानी याद आ गयी, एक चोर था, जुलाहे के घर में घुस गया चोरी करने। जुलाहे ने खिड़की के पास अपना ताना-बाना रखा था, चोर की आँख में घुस गया। चोर की एक आँख गयी। चोर राजा के पास पहुँच गया बोला कि न्याय दो। मेरा काम चोरी करना है और इस जुलाहे के कारण मेरी आँख फूट गयी। राजा ने कहा की बात उचित है, जुलाहे की एक आँख फोड़ दी जाए!
बेचारा जुलाहा बोला कि न्याय राजन! मैं जुलाहा हूँ और दोनों आँख से ही ताना-बाना बुनता हूँ, एक बार इधर देखना पड़ता है और दूसरी बार उधर। राजा ने कहा की यह भी उचित बात है। फिर सुझाव आया कि गली के नुक्कड़ पर जो मोची बैठता है वह एक तरफ़ देखकर ही जूती गाँठता है तो उसकी एक आँख निकाल ली जाए! न्याय पूरा हुआ।
चोरी जायज़ है, सड़क पर गाड़ी दौड़ाने में कोई नियम नहीं होने चाहिये इसलिये कैसा जुर्माना! मोदी ने फ़िट करने की सारी कोशिशों को धता बताने के लिये बधाई। हम दुनिया में अनूठे हैं, भला हम किसी क़ानून में बँधने के लिये हैं! नहीं हैं , आप महान संस्कृति के वाहक हैं भला आपके लिये क़ानून! कदापि नहीं। परम्परा जारी रखिये, विरोध की परम्परा टूटनी नहीं चाहिये। यह देश हमेशा आपका ऋणि रहेगा।
हमारे पूर्वज हमेशा जंगलों में रहते आए हैं, हमने कोई नियम नहीं माने और अब मोदी राज्य में नियम! चोरी मत करो, रिश्वत मत लो, कालाधन नहीं चलेगा, गाड़ी ऐसे चलाओ, वैसे चलाओ, अब हम अपनी इच्छा से जिए भी नहीं! तुम सरकार चलाओ और हमें परिवार चलाने दो। हम नहीं मानते क़ानून। देशवासियों क्या कहते हो तुम कि वे क़ानून थोपेंगे लेकिन तुम चोरी पर अड़े रहना। देश के महान नागरिकों, तुम्हें अपने बच्चे से इतना डर लगता है कि तुम उसे गाड़ी की चाबी देने से मना नहीं कर सकते। बिल्कुल ठीक है। आख़िर तुम परिवार वाले हो, वे क्या जाने बच्चे का मोह! तुम तो माँग करो कि हमारे बच्चे से कोई मर भी जाए को इसे पुरस्कार मिलना चाहिये। बधाई आप सभी को। कभी मत बँधना क़ानून से, तुम हर क़ानून से बड़े हो। 

Monday, September 2, 2019

तेरा पैसा + मेरा पैसा नहीं तो मंदी


मेरा पैसा तेरे पास कैसे पहुँचे और लगातार पहुँचता ही रहे, इस चाल को कहते हैं आर्थिक आवागमन। जैसे ही मेरा पैसा मैंने अपने पास रोक लिया तो कहते  हैं कि मंदी आ गयी, मंदी आ गयी। जयपुर में एक बड़ा बाँध हुआ करता था – रामगढ़। सारे जयपुर की जीवनरेखा। जब रामगढ़ भरता था तो सारा जयपुर देखने को उलटता था कि हमारी जीवनरेखा लबालब है लेकिन कुछ साल पहले क्या हुआ कि गाँव-गाँव में एनीकट बनने लगे और गाँव का पानी रामगढ़ तक नहीं पहुँचा, परिणाम रामगढ़ सूख गया। रामगढ़ के रास्ते में न जाने कितने अवरोध खड़े हो गये। ऐसे ही देश में मंदी-मंदी का राग शुरू हुआ है। आर्थिक बातें तो मेरे वैसे ही पल्ले नहीं पड़ती तो जब से आर्थिक मंदी का राग अलापा जा रहा है, मेरे तो समझ नहीं आ रहा कि यह होता क्या है! मैं सीनियर सिटिजन हो गयी हूँ, मुझे लगता है कि बाजार से कुछ भी खरीदने की अब जरूरत नहीं है, जो है उसे ही समाप्त कर लें तो बड़ी बात है। मेरा बाजार जाना बन्द क्या हुआ, देश में मन्दी आगयी! मेरे गाँव में एनीकट से पानी क्या रोक  लिया कि रामगढ़ सूख गया! मेरा पैसा बड़े साहूकारों के पास जाए तो मंदी नहीं लेकिन मेरा पैसा मेरे पास ही रहे तो मंदी हो गयी! यह कैसा गणित है! क्या देश का पैसा कम हो गया जैसे पाकिस्तान का हो गया है? हमारा विदेशी मुद्रा भण्डार लगातार बढ़ रहा है तो मंदी कहाँ से आ गयी?
मैं फिर कह रही हूँ कि मुझे पैसे की बात का ज्ञान नहीं है और मेरे जैसे करोड़ों को नहीं है लेकिन इतना जानते हैं कि हमारा पैसा कम नहीं हुआ है और ना ही हम  बाजार खरीदने की शक्ति भी गवाँ बैठे हैं! हमारा देश मितव्ययी देश है, अनावश्यक खरीदारी नहीं करता है। युवा पीढ़ी जब कमाने योग्य होती है तब उसे खरीदारी का चश्का लगता है लेकिन कुछ दिन बाद वे भी मितव्ययी ही हो जाते हैं। रोज-रोज गाडियाँ बदलने का शौक हमारे देश में नहीं है। देश अपनी रफ्तार से चल रहा है लेकिन कुछ लोग चिल्ला रहे हैं कि मंदी से चल रहा है! आज गणेश चतुर्थी है, देखना कैसे दौड़ लगाएंगे लोग! कितने गणेश पण्डालों में कितना दान एकत्र होता है! तब आंकना मंदी को!
त्योहार मनाने में कहीं भी कृपणता दिखायी दे तो मानना मंदी है। बड़े दुकानदारों के पास कितनी भीड़ आयी और कितनी नहीं आयी, इससे आकलन मत करिये। भारत में चार मास चौमासा रहता है, इस काल में लोग शान्त रहते हैं। शुभ कार्य भी कम होते हैं। जैसे ही चौमासा गया फिर देखना बाजारों की रौनक। आज तो गणेश जी की स्थापना हुई है, मंगल कार्य शुरू होंगे। बाजार भी भरेगा और खूब भरेगा। यह भारत का बाजार है, विदेशी आँख से देखने की कोशिश करोंगे तो कुछ नहीं समझ सकोगे। भारत की नजर से देखो और शान्ति से रहो। हाहाकार मचाने से मन्दी दूर नहीं होगी और ना ही कुछ अन्तर आने वाला है। अभी धैर्य रखो, पाँच साल में न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ेंगे फिर भी कुछ हाथ नहीं आने वाला। तुम्हारा सामना मोदी से हुआ है, तुम मंदी का डर दिखा दो या तेजी का कुछ असर नहीं पड़ने वाला। तुम तो आज गणेशजी का आगमन करो और फिर दीवाली देखना, तुम्हें पता चल जाएगा कि देश कितना खुश है।
यह देश कभी भी मंदी का शिकार हो ही नहीं सकता क्योंकि हम मितव्ययी है, जरूरत होने पर ही बाजार जाते हैं। त्यागी भी हैं, क्योंकि एक उम्र होने के बाद हम त्याग पर ध्यान देते हैं। युवा पीढ़ी को भी हम संयम का पाठ पढ़ाते हैं तो यह देश कभी आर्थिक तंगी या मंदी का शिकार नहीं हो सकता। हम पाकिस्तान जैसे देश नहीं है जो किसी का विनाश करने के लिये खुद को ही कंगाल बना डालें। हम खुद भी उन्नत होते रहते हैं और दूसरों को भी उन्नत होने की कामना ही करते हैं। इसलिये देशवासियों खुश रहो। ये जो लोग हैं मंदी का रोना रोकर खुद की तंगी दूर कर रहे हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं है। मस्त रहो, गणेश जी का वंदन करो और ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करो।

Tuesday, August 27, 2019

मोदी ट्रम्प को धौल जमा रहे हैं!


तुम्हारे पास क्या है? मोदी पूछ रहे थे! हमारे पास स्वर्ग जैसे देश हैं, हम पूर्ण विकसित हैं। अमेरिका, फ्रांस सरीखे विकसित देश बता रहे थे और फिर प्रतिप्रश्न करते हैं कि तुम्हारे  पास क्या है? भारत देश के लोग कहते हैं कि हमारे पास कृष्ण हैं! एक तरफ सात देश साथ खड़े थे, दुनिया को  बता रहे थे कि हमारे देश स्वर्ग हैं, हम दुनिया को बताने एकत्र हुए हैं कि कैसे धरती को स्वर्ग जैसा बनाया जा सकता है। क्योंकि हमारे पास अनुभव है। लेकिन इन समृद्ध लोगों की चिंतन बैठक में भारत जैसे उदीयमान देश के प्रधानमंत्री को सुझाव के लिये बुलाया जाता है, मानो कृष्ण को बुलावा भेजा हो कि आओ और दुनिया को अपने परामर्श से अवगत कराओ।
एक तरफ सात समृद्ध देशों का जमावड़ा था तो दूसरी तरफ गरीब माने जाने वाले देश के प्रधानमंत्री को सादर आमंत्रण था! आमंत्रण भी परामर्श देने के लिये था! मोदीजी बोल रहे थे और सब सुन रहे थे। मोदीजी ताल ठोक रहे थे, ट्रम्प को प्यार से धौल जमा रहे थे और ट्रम्प हँस रहे थे! कितनी विचित्र बात लग रही थी!
मोदीजी के पास ज्ञान का अकूत भण्डार है, यह मोदीजी का ज्ञान शुद्ध भारतीय ज्ञान है। गीता से, पुराणों से लिया हुआ ज्ञान। जब दुनिया सभ्यता के मायने ढूंढ रही थी तब भारत के ऋषियों ने सृष्टि के लिये ज्ञान के भण्डार भर दिये थे और मोदीजी इन भण्डारों को आत्मसात कर लिया था।
पर्यावरण की रक्षा कैसे की जाती है? स्वास्थ्य की रक्षा कैसे की जाती है? शिक्षा कैसी होनी चाहिये? मानवता की ही नहीं अपितु सम्पूर्ण चराचर जगत की रक्षा कैसे हो? इन सारे ही विषयों का ज्ञान हमारे पुराणों में है और मोदीजी इसके मास्टर बन चुके हैं। मोदीजी दुनिया के सामने इस ज्ञान के भण्डार का एक बूंद भी टपकाते हैं तो वे सारे धन्य हो जाते हैं। ज्ञान का यह प्रकार दुनिया के लिये अनोखा है और ज्ञान देने का प्रकार भी अनोखा है इसलिये दुनिया को मोदी कृष्ण लगने लगे हैं। वे कहते हैं कि आओ और प्रबंधन का नवीन ज्ञान हमें बताकर जाओ।
मैं मोदी के आमंत्रण को समझने का प्रयास कर रही हूँ। भला सात समृद्ध देश किसी ऐसे देश को आमंत्रण क्यों देंगे जिसे कल तक गरीब देश कहा जाता था। जिसके पूर्व प्रधानमंत्री अमेरिका के राष्ट्रपति से हाथ मिलाने में भी गौरव का अनुभव करते थे और आज हमारे प्रधानमंत्री धौल जमा रहे हैं! आश्चर्य होता है! ऐसा लग रहा है मानो समृद्धता बौनी हो गयी हो और ज्ञान कृष्ण जितना विशाल बन गया हो! हम कहते रहे हैं कि भारत एक दिन पुन: विश्वगुरु बनेगा! आज इस बैठक में मोदीजी की उपस्थिति इस बात को पुष्ट करती है।
क्या नहीं था हमारे पास! लेकिन हमने अपने मॉडल को नहीं चुना अपितु ऐसे मॉडल को चुना जो विश्व के गरीब देश भी नहीं चुनते! सारे देश को कचरा पात्र बना दिया! सारी जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने की योजनाएं लागू कर दी! हमारी दिनचर्या, रात्रिचर्या दूषित बना दी गयी। जो कहीं नहीं होता, ऐसा फूहड़ प्रदर्शन हमारे देश में होने लगा। मानो हम स्वयं ही खुद को समाप्त करने में जुट गये। सारा देश कचरे का पात्र हो गया। अस्पतालों में लम्बी-लम्बी कतारे लग गयीं। भिखारियों की बाढ़ आ गयी। धरती प्यासी हो गयी, नदियां गन्दगी से पट गयी लेकिन हमारे राजनेता पैसों के ढेर पर बैठ गये। इन राजनेताओं और अधिकारियों ने अपने-अपने किले बना लिये और किले के बाहर गरीबी का ताण्डव होता रहा। कभी आरक्षण के नाम पर टुकड़े फेंक दिये गये तो कभी गरीबी के नाम पर!
लेकिन आज मोदी युग आया है, मानो चन्द्रगुप्त का राज स्थापित हुआ हो, धनानन्द जैसे क्रूर शासक को हटाकर। दुनिया भी देख रही है, इस ज्ञानवान मोदी को जो भारतीय पद्धति से देश को सभ्य बनाने में लगा है। सारी दुनिया आशा भरी नजरों से मोदी को देख रही है और स्वर्ग के इन्द्र कहे जाने वाले नेता भी मृत्यु लोक से कृष्ण को निमंत्रण देने लगे हैं। अब दुनिया का मॉडल बदलेगा। अकेले मानवता को बचाने से मानवता नहीं बचती अपितु प्राणी मात्र की रक्षा करने से मानवता बचती है, यह मोदीजी सिखा रहे हैं और शाकाहार का पाठ पढ़ा रहे हैं। एक तरफ धर्म के नाम पर लाखों-करोड़ों पशुओं का कत्ल हो रहा हो तब मानवता के लिये भी खतरा पैदा हो जाता है, यह बात मोदी समझा रहे हैं। वे मेन वर्सेस वाइल्ड में भी यही संदेश देते हैं कि सृष्टि में हिंसा की कोई जगह नहीं होनी चाहिये। हम रक्षक बने ना कि भक्षक। हमें मोदीजी पर नाज है कि वे भारत के ज्ञान को पुन: प्रस्फुटित कर रहे हैं और दुनिया को बाँट रहे हैं। आभार मोदी जी।

Monday, August 26, 2019

नेहरू और पाकिस्तान का हव्वा-हव्वा का खेल


यह जो डर होता है ना, वह हमें चैन से रहने नहीं देता। डर ही है जो हमें ऐसे-ऐसे काम कराता है जिसकी हम कल्पना तक नहीं करते। बच्चे को हम डराते हैं कि चुप हो जा, नहीं तो हव्वा आ जाएगा! हव्वे का डर बच्चे के दीमाग में बैठ जाता है और बड़ो को आराम हो जाता है। जब भी कोई समस्या आए तो बड़े हव्वा को बाहर निकाल लाते  हैं! लेकिन सोचो यदि यह हव्वा समाप्त हो जाए, इसका अस्तित्व ही मिट जाए तो बच्चे आजाद हो जाएंगे। बड़ों के पास डराने को कुछ नहीं रहेगा!
ऐसा ही कश्मीर में हुआ, 370 रूपी हव्वा से हम देश को और कश्मीर को डराते रहे। मोदीजी ने  370 को एक झटके में समाप्त कर दिया और 70 साल के हव्वे का नामोनिशान मिटा दिया। डर समाप्त हो गया तो लोकतंत्र आ गया। लेकिन कुछ लोगों को यह रास नहीं आया, डर तो आखिर डर है ना! यह हमेशा रहना ही चाहिये! इसके समाप्त होने से तो कुछ लोगों की मनमर्जी चल नहीं सकती।
हमारे लोकप्रिय नेता राहुल गाँधी ने एक कुनबा खड़ा किया, सारे ही लोकप्रिय नेताओं को शामिल किया और चल पड़े मुहिम पर हव्वे को स्थापित करने। कश्मीर के लोगों को बताने निकल पड़े कि हव्वा था और हमेशा रहेगा, तुम इससे मुक्त नहीं हो सकते। तुम्हारी भलाई हव्वे के अस्तित्व के साथ ही जुड़ी है। भला वो बच्चा ही क्या जो हव्वे से ना डरे, यह तो ऐसा ही हुआ कि बच्चे से उसका बचपन छीन लो, उसे यकायक बड़ा बना दो। नहीं ऐसा नहीं चलेगा। राहुल गांधी ने कहा कि अभी मेरा बचपन ही अक्षुण्ण है तो कश्मीरियों का भी रहना चाहिये, डर जरूरी है।
एक टोली बनाकर हवाई-जहाज में  बैठ गये कि कुछ भी हो जाए, हव्वे को जीवित करके ही दम लेंगे। अब मोदीजी ने क्या कर दिया की हव्वे को वेंटीलेटर तक पर नहीं रखा, सीधे ही राम नाम सत्य कर दिया! सारे क्रिया-कर्म भी कर दिये। राख में से वापस हव्वे को जीवित करने हमारे जुझारू नेता निकल पड़े। कश्मीर के हवाई-अड्डे पर जा पहुँचे। लेकिन वहाँ जाकर कहा गया कि आप जिस हव्वे की तलाश में आए हो वह तो नाम मात्र का भी यहाँ नहीं है, उसके नाम का डर  भी समाप्त हो रहा है। लोग घर के दरवाजे खुले रखकर आराम से घूम रहे हैं और उन्हे दूर-दूर तक हव्वा दिखायी नहीं दे रहा है। लेकिन यदि आप लोग यहाँ से  बाहर गये तो लोग आपके कपड़े जरूर फाड़ डालेंगे। पूछेंगे कि बता हव्वा कहाँ था? इसलिये भलाई इसी में है कि आप लोग वापस जहाज में बैठ जाओ। जहाज का पंछी पुन: जहाज में आवे, वाली बात कर लो। खैर राहुल जी वापस आ गये, उनके सारे ही शागीर्द भी वापस आ गये लेकिन आकर बोले कि मैंने देखा था कि दूर झाड़ियों के पीछे हव्वा था। आपने कितनी दूर तक देख लिया था? लोग पूछ रहे थे।
असल में वहाँ एक दर्पण लगा था, उस दर्पण में दूर से धुंधली सी तस्वीर खुद की ही दिख रही थी, इन्हें ऐसा लगा कि हो ना हो यही हव्वा है! बस दिल्ली आते ही बोले कि मैंने हव्वा देखा था। हव्वे का डर भी देखा था। पसीने भी पोछते जा रहे थे और डर भी रहे थे कि अब क्या होगा? हव्वा समाप्त तो डर समाप्त और डर समाप्त तो खेल समाप्त! 70 साल से जो पाकिस्तान और गाँधी-नेहरू खानदान मिलकर हव्वा-हव्वा खेल रहे थे, उस खेल का ऐसे बेदर्दी से अन्त पच नहीं रहा है। पाकिस्तान के पास तो इस खेल के अलावा और दूसरा खेल ही नहीं है, सभी लोग बस एक ही खेल रात-दिन खेले जा रहे थे। लेकिन अब?
हव्वा तो उड़ गया लेकिन उसके डर को ये लोग ढूंढ रहे हैं, भागते चोर की लँगोटी की तरह! हव्वा तो अब कश्मीर में वापस आएगा नहीं, उसका डर  भी भाग ही जाएगा लेकिन डर इनके अन्दर घुस गया है वह जाता नहीं। बे फालतू घूम रहे हैं और हव्वे को ढूंढ रहे हैं। अपने साथ झाड़-फूंक वालों को भी लेकर घूम रहे हैं कि हव्वा ना सही डर को तो अभी स्थापित कर ही दें लेकिन डर कश्मीर की जगह इनके दिलों को डरा रहा है कि अब क्या होगा? लगे रहो, तुम्हारा डर ही आमजन के डर को निकालकर बाहर करेगा। तुम अब धूणी रमाओ और कश्मीर को खुली हवा में साँस लेने दो। राम-राम भजने का समय आ गया है तो राम-राम भजो।

Thursday, August 22, 2019

भागते रहो

कल एक पुराने मित्र घर आए, ताज्जुब भी हुआ कि इतने दिनों बाद! लेकिन मित्र कब बिना बात नाराज हो जाते हैं और कब रास्ता भटककर वापस आ जाते हैं, कौन बता सकता है! खैर मेरी पोस्ट का तात्पर्य और कुछ है तो उसी बिन्दू पर चलते हैं। कहने लगे कि फला व्यक्ति पर मुझे तरस आता है। मैंने पूछा कि क्या हुआ? वे कहने लगे कि अभी दो दिन पहले उन से बात हुई है, कह रहे थे कि इतना पैसा कमा लिया है कि इस पैसे को कहाँ रखें, समझ नहीं आता! सारे घर भर गये हैं, जगह नहीं है लेकिन पैसा तो आ ही रहा है। उनके लिये पैसा समस्या बन चुका है लेकिन स्रोत बन्द नहीं किये जाते।
जितना जनता से खेंच सको खेंच लो, जितना सरकार से बचा सको बचा लो, बस यही बात हर पैसे वाले के दिमाग में रहती है। पैसा काला होता रहता है, काले पैसे को छिपाने के लिये राजनीति का सहारा लिया जाता है। फिर उस पैसे को शादी समारोह में फूंकने की कोशिश की जाती है। लेकिन जनता से खेंचना और सरकार से बचाना बन्द नहीं होता। यह हमारे स्वभाव में आ जाता है। किसी दिन पाप की गठरी भर जाती है और फिर ऐसे लोग विजय माल्या बन जाते हैं। सुबह मित्र इस गम्भीर समस्या को बता रहे थे और शाम को यह समस्या चिदम्बरम के भागने से और बड़ी होकर सामने आ गयी।
शरीर में हम जब बहुत ज्यादा शर्करा एकत्र कर लेते हैं तब हम शक्कर से ही भागने लगते हैं, ऐसे ही पैसे का खेल है। अत्यधिक पैसा एकत्र करो और फिर पैसे से ही भागो! अपनी जान बचाने को भागो! पैसे से क्या खरीदना चाहते हो? सम्मान? प्रतिष्ठा? सत्ता? लेकिन क्या मिल पाती है? कुछ दिन मिल जाती है लेकिन फिर सारा सम्मान, सारी प्रतिष्ठा और सारी सत्ता धूल में मिल जाती है। पैसा किसी काम नहीं आता। चिदम्बरम भाग रहा है, कल प्रफुल्ल पटेल भी भागेगा। हो सकता है गाँधी परिवार भी भागे! भारत में भागने की पंचवर्षीय योजना लागू हो चुकी है। यह पाँच वर्ष भ्रष्टाचारियों भारत छोड़ो आन्दोलन के नाम रहेंगे।
मुझे इतिहास को टटोलने का थोड़ा सा शौक है, एक पुस्तक हाथ लगी, लेखक का नाम तो याद नहीं है लेकिन था बड़ा नाम। वे लिखते हैं कि जब गाँधी राजेन्द्र बाबू से मिले तब राजेन्द्र बाबू वकालात करते थे और उस समय उनकी एक पेशी की फीस दस हजार रूपये थी। लेकिन बाद में राजेन्द्र बाबू ने सबकुछ त्याग दिया। सरदार पटेल की भी यही स्थिति थी, उनने भी सबकुछ त्याग दिया। उस काल में न जाने कितने लोगों ने सम्पूर्ण समर्पण किया था। वह काल ईमानदारी को अपनाने का था लेकिन आजादी के बाद बेईमानी को अपनाने का काल प्रारम्भ हुआ। बेईमानी बिना जीवन की कल्पना ही नहीं हो सकती, यह सिद्धान्त गढ़ लिया गया। हम सब बेईमानी से धन एकत्र करने में जुट गये। राजनीति तो मानो खदान थी, जितना चाहो धन निकाल लो और अपने खाते में डाल लो।
लेकिन मोदी ने 65 साल के देश के जीवन का बदलाव किया, बेईमानी की जगह ईमानदारी को स्थापित करने का प्रारम्भ किया। लोग कसमसाने लगे, गाली देने लगे लेकिन धीरे-धीरे यह बात देश में जड़े जमाने लगी कि ईमानदारी से भी आसानी से जी सकते हैं। आज बेईमानी सरदर्द बन गयी है, बेईमानी से कमाया पैसा संकट बन गया है। लोग भाग रहे हैं, चिदम्बरम जैसा व्यक्ति भाग रहा है! पैसे को कहाँ छिपाएं, स्थान खोज रहे हैं!
अब ईमानदारी की रोटी की इज्जत होने की उम्मीद जगी है। बेईमानी की रोटी जहर बनती जा रही है। जिस दिन लोग पैसे और सुख में अन्तर कर लेंगे उस दिन शायद देश सुखी हो जाएगा और जो हम सुख के इण्डेक्स में बहुत नीचे चल रहे हैं, उसमें भी ऊपर आ जाएंगे। लेकिन अभी तो भागमभाग देखने के दिन शुरू हो चुके हैं। देखते हैं कि कितने भागते हैं और कितने बचते हैं! आज का बड़ा सवाल उपस्थित हो गया है कि क्या इस देश में ईमानदारी स्थापित होगी? क्या इस देश से बेईमानी अपनी जड़े उखाड़ लेगी? पहले चौकीदार कहता था – जागते रहो, अब चोर कह रहे हैं – भागते रहो। चिदम्बरम भाग रहा है, पहले दुनिया को अपनी झोली में भरने को भाग रहा था और अब खुद को बचाने को भाग रहा है, बस भाग रहा है। 

Monday, August 12, 2019

आज स्यापा या खामोशी?


एक झटके में देश कितना बदल गया है! अभी दस-बारह दिन भी नहीं बीते हैं जब देश में स्यापा हो रहा था। मोदीजी की डॉक्यूमेन्ट्री फिल्म - मेन्स / वाइल्ड का ट्रेलर आया था और चारों तरफ शोर मच गया था। गैर जिम्मेदार मीडिया और उनके समर्थक लगे पड़े थे मोदीजी के साहस को कम करने में। मैंने भी एक पोस्ट लिखी थी लेकिन किसी कारण से पोस्ट नहीं हो पायी और तारीख बदल गयी। इतिहास बदल गया। लोगों की सोच बदल गयी। कश्मीर विवाद के घेरे से निकाल लिया गया और साफ-सुथरा सा कश्मीर देश को सौंप दिया गया। मोदीजी क्या कर सकते हैं यह सारी दुनिया ने देखा और समझा। देश से डर निकलने लगा लेकिन विद्रोहियों के मन में घर करने लगा।
आज 12 अगस्त है, मोदी जी की फिल्म डिस्कवरी पर दिखायी जाएगी लेकिन कोई छिछालेदारी नहीं है। वे समझ गये हैं कि इस व्यक्ति में कितना दम है। माननीय न्यायालय पूछ रहा है कि राम का वंशज कौन है? साक्षात मोदी खड़े हैं। राम विष्णु के अवतार थे, उनके हाथ में तीर-धनुष था, फिर कृष्ण का अवतार हुआ और उनके हाथ में सुदर्शन चक्र आ गया लोकिन अब कोई अवतार नहीं, बस कुछ लोगों ने ठान लिया कि हम स्वयं ही इस देश को पाप से मुक्त करेंगे। मोदी के हाथ में कोई हथियार नहीं है, बस वह अभय का मन्त्र देता है और देश भयमुक्त होने लगता है। मोदी ने बिखरी गोटियों का चौसर पर जमा दिया है, किस को कहाँ होना चाहिये यह  बात बता दी है। बस सारी गोटियाँ अपने खाने में रहकर चलना सीख रही हैं।
एक प्रदेश से तीन क्षेत्र जुड़े थे, कश्मीर, जम्मू और लद्दाख। तीनों ही अलग मानसिकता के पोषक थे। तीनों को अपने-अपने अधिकार और कर्तव्य बता दिये गये हैं। जम्मू और लद्दाख दीवाली मना रहे हैं और कश्मीर ईद मना रहा है। कश्मीर ने खामोशी ओढ़ी है, देखना है वे अब देश के लिये कुर्बानी कैसे देते हैं! कल तक उनके हाथ में पत्थर थे, वे भगा रहे थे भारतीय सैनिकों को। आज पत्थर गायब हो चुके हैं, अब राखी हाथ में देने का दिन आ गया है। किसी को हलाल मत करो अपितु रक्षा करो, यह संदेश देने का समय आ गया है।
मोदी ने देश के हर मोहरे को सही स्थान पर बिठा दिया है। कहीं एक परिवार की मनमर्जी चल रही थी तो कहीं दो परिवारों की! सारे देश में ऐसे कितने ही परिवार पनप गये थे लेकिन अब परिवारों की जड़ों में मट्ठा डालने का समय आ गया है। देश समझने लगा है कि लोकतंत्र में परिवार की नहीं जनता-जनार्दन की जय-जयकार होती है।
केरम-बोर्ड के खेल में बोर्ड पर रखी सारी गोटियां चार गड्डों में डाली जाती है, यही देश का हाल हो रहा था। सबकुछ चार गड्डों में डाल दो और जनता के पास कुछ ना रहे। इन दो-चार परिवारों के पास अकूत सम्पदा रहे और सम्पूर्ण शक्ति रहे, यही खेल देश में हो रहा था। कभी काली गोटी और कभी सफेद गोटी, बस हमारी चाल में यही बदलता रहता था।
शासन में कैसे सबकुछ बदलता है, यह मोदीजी ने सिखाया। कल तक जिस बात की कल्पना तक कोई नहीं कर सकता था वह मोदीजी ने चुटकी बजाकर करके दिखाया। बस सोच का अन्तर है, दिशा देने का अन्तर है। कोई दूसरों को कत्ल करके कुर्बानी कहता है और हम राजपाट त्याग कर वन में जाने को भी आज्ञा पालन कहते हैं। इसी अन्तर को मोदीजी ने समझाया है और  देश को इसी दिशा की ओर मोड़ा है। आज डिस्कवरी देखने का दिन है, मोदीजी के साहस से अधिक धैर्य की बात सामने आने वाली है और जो धैर्यवान है बस वही विजेता है। साथ में यह भी देखना है कि गैर जिम्मेदार मीडिया कितनी छिछालेदारी करता है या खामोश रहता है। बस देखना है आज धैर्य कैसे व्यक्ति को महान बनाता है! आज स्यापा होगा या खामोशी?

आप डरना बन्द करिये

हम डरे हुए लोग हैं! क्यों डर रहे हैं! यह बात किसी को नहीं पता, पर डर रहे हैं। कल जम्मू कश्मीर के राज्यपाल का डर निकलकर बाहर आया। हरियाणा के मुख्यमंत्री का बयान विवादित भी माना गया और धमकाने के लिये पर्याप्त भी बना। आखिर ऐसी क्या नौबत आ गयी कि बिना जाँचे-परखे, सीधे ही धमकी दे दी गयी कि प्रधानमंत्री से शिकायत करूंगा! इसका कारण है हमारी रगों में बहता हुआ डर। हमारी बहन-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ हुआ, कोई नहीं बोला। किसी को लगा भी नहीं कि यह क्या हो रहा है। आज भी दर्द नहीं होता। लेकिन जरा सी मजाक क्या हो गयी लोग सहिष्णु बन गये। नहीं कोई मजाक भी नहीं। यह डर है जो हमें एक कौम के प्रति सिखाया गया है। जिन्ना डायरेक्ट एक्शन लेकर लाखों का कत्लेआम करता है, विभाजन के समय लाखों का फिर कत्लेआम होता है। डर पैदा करने की भरपूर कोशिश की जाती है। पुराने इतिहास में भी कत्लेआम के अतिरिक्त कुछ नहीं है, मन्दिरों की एक-एक मूर्ति को तोड़ने का इतिहास है। चेहरे से ही क्रूरता टपकनी चाहिये, जिससे दुनिया डरकर रहे, इसके लिये दाढ़ी बढ़ायी गयी, मूंछे भी काट डाली जिससे डरावनापन ज्यादा उभरकर आए। सिख कौम भी इसी डर को समाप्त करने के लिये अस्तित्व में आयी।
घर में भी देखा होगा, कभी नयी बहु आती है, आते ही तूफान मचा देती है, सब डरने लगते हैं। जब भी उस बहु की बात आए लोग डर जाएं और कहें कि करने दो जो करती है। शरीफ व्यक्ति को कहा जाए कि डरकर रहो, कहीं नाराज ना हो जाए। दामाद भी यही करते रहते थे पहले, डर का वातावरण बनाकर चलते थे ससुराल में। सास-ससुर भी डर का वातावरण बनाकर चलते थे। हमारे देश में एक कौम ने डर का वातावरण बना दिया है। यह डर आज का नहीं है, यह शुरूआती ही है। कोई भी आक्रांता आया इसी डर को साथ लाया और स्थापित करके गया। हमारी देश की माटी में कभी भी किसी ने डर को नहीं उपजाया। हमेशा अभय की बात की। जीवदया की बात की। अनेकान्त की बात कही। स्यादवाद की बात कही। लेकिन इसके विपरीत प्रभु से भी डरने की बात विदेशियों ने की, जबकि हमने कहा कि प्रभु आपसे प्रेम करते हैं, इनसे डरिये मत। हमने मानव के रूप में उन्हें अवतरित किया और कभी बाल रूप में प्रेम किया तो कभी युवा रूप में तो कभी माँ स्वरूप में। बस प्रभु से प्रेम करना सिखाया।
मोदीजी ने इसी डर पर वार किया है। पहले तीन तलाक के रूप में फिर 370 धारा के रूप में। कश्मीर में डरने की जरूरत नहीं है, डर को बाहर करिये। कश्मीर के लोग हमारे ही हैं और जो हमारे होते हैं हम उनसे मजाक भी करते हैं उन्हें छेड़ते भी हैं। आपस में हँसी-मजाक का वातावरण बनाइए ना कि छोटी-छोटी बातों से डर को अपने अन्दर महसूस करने की। हम डराने वाले लोग नहीं हैं लेकिन अब डर को भी बाहर निकाल दीजिये और ना ही हम भोगवादी समाज हैं जो महिला का सम्मान नहीं करेंगे। साथ रहकर कुछ लोगों में भोगवाद घर कर गया है लेकिन हमारा समाज त्याग को ही महत्व देता है। इसलिये सभी को निश्चिंत रहने की जरूरत है, हमारे देश का मूल समाज प्रत्येक महिला के अन्दर अपनी बहन-बेटी और माँ का ही रूप देखता है। डरिये मत, डर को दूर करने का समय आ गया है। जितना आप डरेंगे उतना ही कुछ लोग आपको डराने का प्रयास करेंगे। सहज बनकर रहिये। प्रेम सिखाइये। वे सब अपने हैं, प्रेम सीख जाएंगे, बस आप डरना बन्द करिये। 

Saturday, August 10, 2019

नमन है तुझको कवि!



धारा 370 क्या समाप्त हुई, कवि की कविता ही समाप्त हो गयी! कल एक चैनल पर हरिओम  पँवार ने कहा। वे बोले की मैं चालीस साल से कश्मीर पर कविता कह रहा था लेकिन आज मुझे खुशी है कि अब मेरी कविता भी समाप्त हो गयी है। न जाने कितने कवियों ने कश्मीर पर कविता लिखी, सारे देश में कविता-पाठ किया और हर भारतवासी के दिल में कश्मीर के प्रति भाव जगा दिया। उसी भाव का परिणाम है कि आज धारा 370 हटने के बाद देश में अमन-चैन है। हरिओम पँवार कहते हैं कि मैंने आज तक किसी भी सरकार की प्रशंसा में कविता नहीं लिखी लेकिन आज मजबूर हो गया हूँ कि मोदी और अमित शाह के लिए लिखूं।
मैं अक्सर कहती हूँ कि पहले साहित्यकार सपने देखता है फिर वैज्ञानिक उसे  पूरा करते हैं। चाँद का सपना पहले कवि ने ही देखा था, वैज्ञानिक उनकी कल्पना से ही चाँद तक पहुँचने की सोच को धरती  पर उतार सके। कवि कहता है कि मेरे देश में मुझे यह चाहिये और राजनेता उसे पूरा करते हैं। किसी कवि ने कभी यह कल्पना नहीं की थी कि देश के दो टुकड़े होंगे, देश में कश्मीर समस्या बनेगी! लेकिन यह हुआ, और जो बिना कवि की कल्पना के हो वह दुर्घटना ही होती है।
जो राजनेता देश के सपनों को पंख नहीं देता अपितु दुर्घटना में भागीदार बनता है, उसे देश कभी दिल में नहीं बिठाता। कुछ राजनेताओं ने एक मायाजाल बुना और उसमें केवल अपना नाम लिखा। यह अच्छा ही हुआ। कल तक हम कहते थे कि केवल एक परिवार का नाम! आज कह रहे हैं कि अच्छा किया जो एक परिवार का ही नाम लिखा। तुम ही उत्तरदायी हो, केवल तुम ही। तुमने देश को दो टुकड़ों में बाँटकर, कश्मीर को समस्या बनाकर कवि की कल्पना में विष घोल दिया था, उसके उत्तरदायी तुम अकेले ही हो।
जब देश में आजादी की बयार बह रही थी उस समय कवि ने कितने सपने संजोये होंगे! लेकिन उन सपनों पर तुषारापात कर डाला नेहरू-गाँधी ने। जिन्ना ने डराया और गाँधी डर गया! जिन्ना ने कहा कि हमें पाकिस्तान दो नहीं तो मैं सीधी कार्यवाही करूंगा और गाँधी डर गया! जिन्ना ने सीधी कार्यवाही की और तीन लाख लोगों का बंगाल में कत्लेआम करा दिया और गाँधी डर गया! गाँधी नोआखाली में घूमता रहा, डर कर देश को बचाने आगे नहीं आया लेकिन सोहरावर्दी को बचाने नोआखाली में घूमता रहा!
नेहरू-गाँधी डरते रहे और देश बँटता रहा, समस्याओं से लदता रहा, कवि की कल्पना मरती रही। आज कवि ने कहा कि मेरा दर्द सिमट गया, अब फिर नए सपने बुनूंगा और देश की आँखों में भरूँगा। कवि के शब्दों में बहुत बल होता है, वह बूंद-बूंद से घड़ा भरता है और जब घड़ा भरता है तब चारों ओर पानी ही पानी होता है। सत्तर साल से कवि घड़े को भर रहा था, सारा देश पानी ही पानी हो रहा था लेकिन मोदी ने कहा कि कवि थम जा, अपनी लेखनी की शक्ति को अब विश्राम दे, मैं तेरा दर्द समझ गया हूँ और उसने एक छोटी सी गाँठ को खोल दिया, सभी को आजाद कर दिया।
देश पूर्ण बन गया, देशवासियों के सपने पूरे हो गये और विद्रोहियों के सपने चकनाचूर हो गये। अब कवि को विश्राम मिला है। कवि निहार रहा है अब अपने ही देश को, जो कभी उसे सोने नहीं देता था लेकिन आज वह जागकर देश को निहार रहा है। मैं उन सभी कवियों को नमन करती हूँ कि जिनने देश के दिलों को जगाए रखा, सपने को मरने नहीं दिया और आशा को टूटने नहीं दिया। कवि जानता था कि कोई तो आएगा जो हिम्मत जुटा लेगा और कवि को निराश नहीं करेगा। अब कवि नए जोश के साथ देश को सपने दिखाएगा और अपनी आजादी को कैसे बचाकर रखा जाता है उसके लिये भी हमारे अन्दर जोश भरता रहेगा। नमन है तुझको कवि!

Wednesday, July 31, 2019

डर पर पहला प्रहार


मैं एक बार महिलाओं के बीच बुलाई जाती हूँ, महिलाएं मुस्लिम थीं। वे अनपढ़ लेकिन कामगार भी थीं। महिलाएं कहने लगी कि हम तलाक-तलाक-तलाक से कब निजात पाएंगे? मेरे पास उत्तर नहीं था लेकिन समझ आने लगा था कि महिलाओं की यह तड़प एक दिन क्रान्ति का सूत्रपात अवश्य करेगी। मैं मूलत: चिकित्सक भी रही हूँ, देखती थी महिलाओं की आँखों में निराशा, उदासी और कहीं-कहीं मानसिक अवसाद। उनके अन्दर डर बढ़ता जा रहा था, वे आवाज नहीं उठा पा रही थीं। जब पहली बार शाहबानो ने आवाज उठाई थी तब राजीव गाँधी को कठमुल्लों ने अपने वोटों की ताकत से डरा दिया था और बेचारी शाहबानो बेचारी बनकर ही रह गयी थी। कैसा समाज है जहाँ पुरुष की चिन्ता की जा रही है लेकिन महिला की आवाज दबा दी जाती है। पुरुष को अल्लाह से बड़ा बना दिया जाता है और औरत गुलाम से बदतर बना दी जाती है। कल फिर संसद में देखा कि लोगों के मन में डर बसा है, कहीं इन पुरुषों के खिलाफ हम बोल गये तो हमें वोट नहीं मिलेंगे। कर दो महिला के प्रति अन्याय, हमारा क्या जाता है! आश्चर्य होता है ऐसे लोगों पर, जो महिला पर होने वाले अत्याचार को अनदेखा कर देते हैं! ऐसे समूह को समाज नहीं कहा जा सकता यह गिरोह मात्र हैं।
लेकिन देश-दुनिया ने जिस डर को हवा दी, उसी डर को मोदी ने नहीं माना। वह महिला के सामने ढाल  बनकर खड़ा हो गया। उसके अपने लोगों ने भी साथ छोड़ने की धमकी दी, परायों ने तो खुली बगावत कर ही दी। वोट ना मिले, सत्ता ना रहे लेकिन भयमुक्त समाज रहना चाहिये। वह राजा ही क्या जिसकी प्रजा भयमुक्त ना हो। भययुक्त करना तो राक्षसों का काम है, मानव तो सदा से भयमुक्त करता आ रहा है। 70 साल से देश का राजा भययुक्त था, वह खुद डरा हुआ था तो भला प्रजा को क्या भयमुक्त रख पाता।
कल मेरी आँखे भी मन थी, लग रहा था कि एक पिशाच जो हम सबकी ओर तेजी से बढ़ रहा था, थम गया है। हो सकता है कि यह पिशाच फिर अपना प्रभाव स्थापित करने के लिये और कोई क्रूरता करे लेकिन अब इस पिशाच के सामने एक महामानव खड़ा हो गया है। इस पिशाच का एक और अड्डा है, जहाँ इसने महिलाओं के साथ बच्चों को भी कैद कर रखा है। जन्नत कहते रहे हैं हम उसको और किताबों में कश्मीर नाम दर्ज है। इस डर को खत्म करने महामानव ने प्रण ले लिया है, इसबार कश्मीर को इस डर से मुक्त कराना है। एक बार कश्मीर से डर विदा हो गया तो मानो डर के पैर उखड़ जाएंगे। फिर पूरा देश भयमुक्त होगा।
यह प्रश्न किसी सम्प्रदाय का नहीं है, यह डर भी किसी विशेष वर्ग का नहीं है। क्योंकि जब शैतान डर को साथ लेकर मानवों को डराने लगता है तब सबसे पहला वार महिला और बच्चों पर ही करता है। इसलिये कल केवल मुस्लिम महिला आजाद नहीं हुई हैं, अपितु दुनिया की सारी महिलाएं भयमुक्त होने लगी हैं। उन्हें एक ऐसा महापुरुष दिखायी देने लगा है जो कह रहा है कि मैं दुनिया को अभय दूंगा।
कल का दिन हम सबके लिये दीवाली मनाने का दिन था, यह डर एक मजहब से दूसरे धर्म तक अपने पैर पसार रहा था। लोग कहने लगे थे कि हिन्दुओं को  भी महिला को बच्चे जनने की मशीन बना दो, उसे पर्दे में रखो, उसे पुरुष की अनुगामिनी बना दो। जहाँ-जहाँ भी शारीरिक  बल दिखाकर डर को समाज में स्थापित किया जाएगा वहाँ-वहाँ कमजोर पर पहला प्रहार होगा।
इसलिये आज का दिन अभय का दिन है। किसी राजनेता ने हिम्मत जुटाई और डर के सामने तनकर खड़ा हो गया। वह जानता है कि यह डर कैसे सम्पूर्ण मानवता को लील जाएगा इसलिये इसके पैर उखाड़ने ही होंगे। आज कोई खुश हो ना हो, लेकिन मैं खुश हूँ, मैंने उन 100 महिलाओं की आँखों में जो खौफ देखा था, बगावत देखी थी, उन्हें अभय का वरदान मिला है। मानो हम सबको अभय का वरदान मिल गया है। राखी का धागा फिर से बाहर निकल आया है, मोदी की कलाई पर सज गया है। महिला कह रही है कि तुम भाई के रूप में आए हो हमारी जिन्दगी में, हमारी रक्षा करने। मोदी ने एक कदम रख दिया है, बस आगे दूसरे कदम के लिये हम तैयार हैं। जैसे ही तीन गज धरती नापेंगे, भयमुक्त समाज का निर्माण हो जाएगा। अभी तो हम सब को बधाइयाँ, डर के आगे जीत की बधाइयाँ, भयमुक्त समाज की नींव की बधाइयाँ।

Saturday, July 27, 2019

ये असली बुद्धीजीवी


इस देश में सदा से ही बुद्धीजीवियों का बोलबाला रहा है, इस पर कुछ लोगों का कब्जा रहता है। हमने भी कभी नहीं सोचा कि हम बुद्धीजीवी हैं लेकिन कुछ संस्थाओं ने यहाँ अपनी नाक घुसड़ने की सोची और करने लगे गोष्ठियाँ। प्रबुद्ध सम्मेलन, बौद्धिक सम्मेलन आदि आदि। जब उसमें बुलावा आता तो हम भी खुशी के मारे उछल जाते लेकिन बाद में देखा कि हम कितने ही विद्वता की बात कर लें लेकिन एक खास वर्ग हमें बुद्धीजीवी मानने को तैयार ही नहीं है। बस उन्हीं का पठ्ठा होना चाहिये। हमने भी मान लिया कि छोड़ों इस आभिजात्य वर्ग को और घर पर ही अपनी बुद्धी का डंका बजाते रहो।
लेकिन कौन हैं ये बुद्धीजीवी और क्या आचरण हैं इसकी पड़ताल तो होनी ही चाहिये। एक बार की बात है, हमें न्यूयार्क जाने का अवसर मिल गया। अवसर भी मिला वह भी ढेर सारे बुद्धीजीवियों के साथ। हम अछूत से एक तरफ बैठे रहे और इनके करतब देखते रहे। एयर इण्डिया की फ्लाइट में हम बैठे थे। हमारी सीट के कुछ ही आगे एक सोफा लगा था और वहाँ इन प्रबुद्ध लोगों का जमावड़ा था। पास ही एयर होस्टेज का केबिन भी था। खैर शराब वितरण का समय हुआ और पूरी बोतल लपक ली गयी। अब शुरू हुआ शेर-शायरी का दौर, कोई 70 का तो कोई 80 का लेकिन चुश्की लेने में कोई कम नहीं। उछल-उछलकर शेर पढ़े गये, दाद दी गयी और जैसे संसद में आजम खान ने वातावरण दूषित किया वैसे ही यहाँ भी होने लगा।
अब एयर होस्टेज बाहर निकली, एयर इण्डिया में तो अनुभवी ही होती हैं सभी! साड़ी भी पहने थी। किस्मत से मैंने भी साड़ी पहन ली थी। जब वही उम्रदराज एयर होस्टेज मेरे पास शराब सेवन के लिये पूछने आयी थी तो मैंने मना कर दिया था। बोल रही थी कि ले लो, थोड़ी तो ले लो। लेकिन यह करतब देखकर उसे लगा कि मैं ही सबसे ज्यादा संजीदा हूँ। एक तो साड़ी, फिर शराब नहीं। वह मेरे पास आयी और बोली कि क्या ये लोग आपके साथ हैं? मैं सोच में पड़ गयी कि क्या उत्तर दूं? वे सारे बुद्धीजीवी थे तो भला मैं उनकी साथी तो हो ही नहीं सकती थी, लेकिन सारे  ही भारत सरकार के प्रतिनिधि थे तो साथ भी थे। मैंने कहा कि आप ऐसा करें कि वे जो थोड़ी दूर बैठे हैं, वे विदेश विभाग के सेकेट्ररी हैं तो उनसे कहिये, वे आपकी समस्या को सुलझा सकेंगे।
मैंने उसे सुझाव देकर आँख बन्द कर ली। कुछ देर बाद आँख खोली तो देखा कि हमारे सचिव महोदय सर झुकाकर खड़े हैं और कुछ बोल नहीं पा रहे हैं। मुझे तब इनका दबदबा समझ आया। आखिर केप्टेन बाहर निकला, डाँट लगाई और सारे पर्दे गिराकर अंधेरा कर दिया। कहा कि चुपचाप सो जाओ। ऐसे लोग बुद्धीजीवी की गिनती में आ सकते हैं, हम तो कभी सपने में  भी इस जाजम पर नहीं बैठ सकते हैं!
भारत सरकार में हो या राज्य सरकारों में, इनका ही दबदबा है। विदेश यात्राओं में इनके शराब के अतिरिक्त बिल, सरकारें चुकाती आयी हैं और ये सरकारों की पैरवी करते आये हैं। इस सरकार में माहौल बदलने लगा है, इनका दबदबा कम होने लगा है तो ये बगावत पर उतर आये हैं। कभी पुरस्कार वापस करके भीड़ एकत्र करते हैं तो कभी पत्र लिखकर। इन बुद्धीजीवियों की मान्यता पक्की है और हम जैसे टटपूंजियों को कोई मान्यता देता नहीं। इनका पद संवैधानिक है, सरकारों को इनकी हर बात माननी ही है। देश में ऐसे दूसरा वर्ग पैदा ही नहीं होता जो दूसरों को भी मान्यता प्रदान कर दे और इनकी लाइन के बराबर बिठा दे। फिल्म उद्योग में दो चार  लोग पैदा हुए हैं, वे टक्कर लेने लगे हैं। लेकिन साहित्य जगत में बस वे ही वे हैं। दो वर्गों में देश बंटता जा रहा है – एक अभिजात्य वर्ग है तो दूसरा अछूत वर्ग। लड़ाई यहीं से शुरू होती है, अभिजात्य वर्ग कहता है कि केवल हम हैं और अछूत वर्ग कहता है कि हम भी हैं। मोदीजी तक अछूत वर्ग में आते हैं। अभिजात्य वर्ग कहता है कि हम तुम्हें प्रधानमंत्री मानते ही नहीं। मोदीजी लगे हैं सारे ही अछूतों का उद्धार करने लेकिन संघर्ष तगड़ा है। अब तो देखना है कि मोदीजी इस अभिजात्य वर्ग पर प्रहार कर पाएंगे या नहीं। मोदीजी हर व्यक्ति को बुद्धीजीवी बनने और मानने की छूट दे पाएंगे या नहीं। राजतंत्र से लोकतंत्र की स्थापना कर पाएंगे या नहीं। मोदीजी ने इन लोगों की उपेक्षा तो कर दी है लेकिन वास्तविक बुद्धिजीवियों को सहयोग नहीं किया है। जब तक अपनी लाइन को बड़ा नहीं करेंगे तब तक ये ही शेर बने रहेंगे और रोज शोर मचाते रहेंगे।

Friday, July 26, 2019

आखिर प्रेम का गान जीत ही गया

एक फालतू पोस्ट के  बाद इसे भी पढ़ ही लें।
लोहे के पेड़ हरे होंगे
तू गान प्रेम का गाता चल
यह कविता दिनकर जी की है, मैंने जब  पहली बार पढ़ी थी तब मन को छू गयी थी, मैं  अक्सर इन दो लाइनों को गुनगुना लेती थी। लेकिन धीरे-धीरे सबकुछ बदलने लगा और लगा कि नहीं लोहे के पेड़ कभी हरे नहीं होंगे, यह बस कवि की कल्पना ही है। आज बरसों बाद अचानक ही यह पंक्तियां मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी। कहने लगी कि कवि को ललकार रही हो! देखो तुम्हारे लोहे के पेड़ की ओर देखो! उस समय मैं अंधे कूप में डूब रही थी, मुझे दिख रहा था इस अंधकार में अपना भविष्य। तभी लोहे के पेड़ से हरी पत्तियां फूट निकली, देखते ही देखते तना हरा हो गया। असम्भव सम्भव बनकर सामने खड़ा था, मैं अन्धे कूप से डर नहीं रही थी अपितु मैंने मजबूती से हरे होते लोहे के पेड़ को थाम लिया था। अब अंधेरे में अकेले होने का संत्रास नहीं था, बस खुशी थी कि मेरा प्रेम जीत गया है, मेरा लोहे का पेड़ हरा हो गया है। कवि की कल्पना ने पंख ले लिये हैं और प्रेम के गान की आखिर जीत हो गयी है। अब गम नहीं, अब शिकायत भी नहीं, बस अब तो अंधेरे में भी जीवन को ढूंढ ही लूंगी।
आप समझ नहीं पा रहे होंगे कि क्या घटित हो रहा है मेरे जीवन में! लेकिन आज अपनी कहने का मन हो आया है। कैसे लोहे के पेड़ को हरे होंगे, कल्पना साकार हो उठी है! कहानी तो बहुत बड़ी है लेकिन एक अंश भर छूने का मन है, अमेरिका में बसे पोते का मन हुआ कि अब बड़ा हो रहा हूँ तो भारत आकर दादी और नानी के पास रहकर देखता हूँ। एक सप्ताह मेरे पास रहा, मैंने उसे मुक्त छोड़ दिया। उपदेश देने की कोई जिद नहीं और ना ही अपना सा बनाने का कोई आग्रह। वह खुश रहा और वापस लौट गया। माता-पिता ने देखा कि बेटा अचानक खुश रहना सीख गया है! मतलब हमारे लालन-पालन में कुछ अन्तर है। इधर मेरा जीवन अंधे कुए की ओर बढ़ने लगा, मैंने देखा की मेरे आंगन में लोहे का पेड़ खड़ा है, सारे प्रेम गीतों के बाद भी कोई उम्मीद नहीं है हरी पत्तियों की। बस सारे संघर्ष मेरे अपने है।
बेटे से बात होती है, वह कहता है कि हम गलत थे, मैं समझ गया हूँ कि खुशियाँ कैसे आती हैं। अपने  बेटे के चेहरे पर खुशियाँ देख रहा हूँ और अपने जीवन में बदलाव लाने का प्रयास कर रहा हूँ। तब मैंने कहा कि तुम्हारी नयी पीढ़ी ने सारे रिश्तों के सामने पैसे की दीवार खड़ी कर दी, रिश्तों को नहीं देखा बस देखा तो पैसे को, इसके लिये इतना और इसके लिये इतना। तुमने माँ से कहा कि तुम बहुत दृढ़ हो, सारे काम तुम्हारे, हमारा कुछ नहीं। घर के सभी ने कहा कि सारे काम तुम्हारे। मेरे ऊपर बोझ लदता चला गया और तुम सब मुक्त होते चले गये। लेकिन मैंने कभी हँसना नहीं छोड़ा, मैंने कभी अपना दर्द किसी पर लादना नहीं चाहा, बस प्रेम देने में कसर नहीं छोड़ी। इस विश्वास पर जीती रही कि लोहे का पेड़ शायद हरा हो जाए! विश्वास टूट गया लेकिन फिर भी जिद रही कि अपना स्वभाव तो नहीं छोड़ना। और एक दिन जब मैं अंधे कुएं में गिर रही थी, मैंने लोहे के पेड़ को थामने की कोशिश की अचानक ही देखा कि लोहे के पेड़ पर हरी पत्तियां उगने लगी हैं। मेरा परिश्रम बेकार नहीं गया है, अब मैं जी उठूंगी, अकेले ही सारे संघर्ष कर लूंगी क्योंकि एक सम्बल मेरे साथ आकर खड़ा हो गया है।
मैं पैसे को हराना चाहती थी, लेकिन हरा नहीं पाती थी। मैं रिश्तों को जीत दिलाना चाहती थी लेकिन दिला नहीं पाती थी। हर हार के बाद भी जीतने का क्रम जारी रखती थी, मन में एक ही धुन थी कि गान तो प्रेम का ही गाना है, पैसे का गान नहीं। जिस दिन मेरे लिये काली रात थी, जिस दिन मैंने देखा कि मैं हार रही हूँ, लेकिन नहीं प्रेम कभी हारता नहीं और पैसा कभी जीतता नहीं। जैसे ही प्रेम जीता, पैसा गौण हो गया। पैसे के गौण होते ही सब कुछ प्रेममय हो गया। व्यक्ति अक्सर कहता है कि मैं क्या करूँ, कैसे करूँ? असल में वह पैसे का हिसाब लगा रहा होता है कि ऐसा करूंगा तो इतना खर्च होगा और वैसा करूंगा तो इतना! फिर वह अपने आपसे भागता है, खुशियों से भागने लगता है। इसी भागमभाग में दुनिया अकेली होती जा रही है, हम हिसाब-किताब करते रह जाते हैं और खुशियाँ ना जाने किस कोने में दुबक जाती हैं। पैसे कमाने के लिये हम  दौड़ लगा रहे हैं, अपनी मजबूरी बता रहे हैं लेकिन यही पैसा एक दिन हमारे लिये मिट्टी के ढेर से ज्यादा कीमती नहीं रह जाता है। सारे वैभव के बीच हम सुख को तलाशते रहते हैं। क्योंकि खुशियों की आदत ही खो जाती है। हरा भरा पेड़ कब लोहे का पेड़ बन जाता है, पता नहीं चलता। लेकिन मैं खुश हूँ कि मेरे लोहे के पेड़ पर हरी पत्तियां आने लगी हैं। आखिर प्रेम का गान जीत ही गया।

Sunday, July 21, 2019

एक फालतू सी पोस्ट


जिन्दगी में आप कितना बदल जाते हैं, कभी गौर करके देखना। बचपन से लेकर जवानी तक और जवानी से लेकर बुढ़ापे तक हमारी सूरत ही नहीं बदलती अपितु हमारी सोच भी बदल जाती है। कई बार हम अधिक सहिष्णु बन जाते हैं और कई बार हम अधीर। बुढ़ापे के ऐप से तो अपनी फोटो मिलान करा ली लेकिन हमारी सोच में कितना बदलाव आया है, इसकी भी कभी गणना करना। मेरा बचपन में खिलंदड़ा स्वभाव था, अन्दर कितना ही रोना छिपा हो लेकिन बाहर से हमेशा हँसते रहना ही आदत थी। कठोर अनुशासन में बचपन बीता लेकिन अपना स्वभाव नहीं बदला। लेकिन जब जिन्दगी के दूसरे पड़ाव में आए तब स्वभाव बदलने लगा। जो काम कठोर अनुशासन नहीं कर पाया वही काम हमारी लकीर को छोटी करने का हर क्षण करते प्रयास ने कर डाला। नौकरी करना ऐसा ही होता है जैसे गुलामी करना, जहाँ गुलाम को कभी अहसास नहीं होने दिया जाता कि तू कुछ काम का है, वैसे ही नौकरी में हर क्षण सिद्ध किया जाता है कि तुम बेकार हो। हमें भी लगने लगा कि वाकयी में हम कुछ नहीं जानते। जैसे ही आपको लगता है कि आप कुछ नहीं जानते, बस उसी क्षण आपका खिलंदड़ा स्वभाव कहीं पर्दे के  पीछे छिपने लगता है। स्वाभाविकता कहीं खो जाती है। हम महिलाओं के साथ स्वाभाविकता खोने के दो कारण होते हैं, एक नौकरी और दूसरा पराया घर। नौकरी तो आप छोड़ सकते हैं लेकिन पराये घर को तो अपनाने की जिद होती है तो अपनाते रहते हैं, बस अपनाते रहते हैं। इस अपनाने में हम पूरी तरह अपना स्वभाव बदल देते हैं।
पराया घर तो होता ही है, हमें बदलने के लिये। तभी तो कहा जाता है कि इस घर में ऐसा नहीं चलेगा। इस संसार में हर व्यक्ति एक काम जरूर करता है और वह है कि दूसरे पर खुद को थोपना। जैसे ही हमें अंश मात्र अधिकार मिलता है, हम दूसरों को बदलने के लिये आतुर हो जाते हैं। बच्चों को हम अपनी मर्जी का बनाना चाहते हैं। पति पत्नी को अपनी राह पर चलने को मजबूर करता है और पत्नी भी पति को बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ती। हमारा प्रत्येक व्यक्ति से मिलना प्रेम और आनन्द के लिये नहीं होता, अपितु दूसरे को परिवर्तन के लिये होता है। हम हर क्षण दूसरे को प्रभावित करने की फिराक में रहते हैं।
हमने अपने जीवन में क्या किया? यदि इस कसौटी पर खुद को जाँचे तो बहुत सारी खामियाँ  हम में निकल जाएंगी। हम मुक्त नहीं कर पाते हैं। अपना अधिकार मान लेते हैं कि इन पर शासन करना हमारा अधिकार है। मैं बचपन को अनुशासन से इतनी संतृप्त थी कि मैंने प्रण लिया कि बच्चों को खुली हवा में सांस लेने दूंगी। वे जो बनना चाहे बने, जैसा जीवन जीना चाहे जीएं, मेरा हस्तक्षेप नहीं होगा। लेकिन फिर भी ना चाहते हुए भी हमने न जाने कितनी बातें उनपर थोपी होंगी। कई बार मैं आश्चर्य में पड़ जाती हूँ जब बच्चों के बीच होती हूँ। उनके पास शिकायत रहती ही है, जिसकी आपको कल्पना तक नहीं होती, वह शिकायत पालकर बैठे होते हैं। तब मैं और बदल जाती हूँ। घर परिवार के किसी सदस्य से बात करके देख लीजिये, उनके पास एक नई कहानी होगी। आप क्या सोचते हैं उसके परे उनकी कहानी है। आपकी करनी  पर उनकी कहानी भारी पड़ने लगती है और बदलने लगते हैं। आप चाहे बदले या नहीं, लेकिन मैं जरूर बदल जाती हूँ।
जिन्दगी भर देखा कि यहाँ हर व्यक्ति को ऐसे व्यक्ति की तलाश रहती है, जिसे वह अपना अनुयायी कह सके, उसे अपने अनुरूप उपयोग कर सके। लेकिन कोई किसी को आनन्द के लिये नहीं ढूंढता है। मुझे यह व्यक्ति अच्छा लगता है, इसकी बाते अच्छी लगती है, इसकारण कोई किसी के पास नहीं फटकता बस उपयोग ढूंढता है। बहुत कम लोग  हैं जो जिन्दगी भर आनन्द का रिश्ता निभा पाते हैं नहीं तो उपयोग लिया और फेंक दिया वाली बात ही अधिकतर रहती है। मैं जब भी किसी व्यक्ति से मिलती हूँ तो मुझे लगता है कि मैं इसके लिये क्या कर सकती हूँ लेकिन मेरा अनुभव है कि अक्सर लोग मुझसे मिलते हैं तो यही सोचते हैं कि मैं इसका उपयोग कैसे ले सकता हूँ। मैं कुछ लोगों से प्रभावित होकर निकटता बनाने का प्रयास करती हूँ तो क्या पाती हूँ कि लोग मुझे अपना अनुयायी बनाने में जुट गये हैं। कुछ दिनों बाद वे अचानक ही मुझसे दूर हो गये! मैं आश्चर्य में पड़ जाती हूँ कि क्या हुआ! पता लगता है कि मुझे अनुयायी  बनाने की कुव्वत नहीं रखते तो किनारा कर लिया। ऐसे में मैं बदलने लगती हूँ।
मैं आज जमाने की ठोकरों से इतना बदल गयी हूँ कि अपना बदला रूप देखने के लिये मुझे किसी ऐप की जरूरत नहीं पड़ती, मुझे खुद को ही समझ आता है कि मेरा खिलंदड़ा स्वभाव कहीं छिप गया है। खो गया है या नष्ट  हो गया है, यह तो नहीं लिख सकती, बस छिप गया है। मन का आनन्द कम होने लगा है। रोज नए सम्बन्ध बनाने में रुचि नहीं रही, क्योंकि मैं शायद अब किसी के उपयोग की वस्तु नहीं रही। लेकिन फिर भी एकान्त में लेखन ही मुझे उस खिलंदड़े स्वभाव को याद दिला देता है, मन के आनन्द की झलक दिखा देता है और कभी कोई महिला हँसती हुई दिख जाती है तो सुकुन मिल जाता है कि अभी हँसी का जीवन शेष है।

Friday, July 19, 2019

सन्नाटा पसर रहा है, कुछ करिये


इतना सन्नाटा क्यों है भाई! आजकल  पूरे देश में यही सवाल पूछा जा रहा है। जिस देश को कॉमेडी शो देखने की लत लगी हो, भला उसके बिना वह कैसे जी पाएगा! हमारे लेखन के तो मानो ताले ही नहीं खुल रहे हैं, सुबह होती है और कोई सरसरी ही नहीं होती! हम ढूंढ रहे हैं, भाई राहुल गाँधी को, राहुल ना सही कोई और ही हो, कोई तो बयानवीर निकले। राज्यसभा तक में बिल पास हो रहे हैं! कल मैंने देखा कि सोनिया गाँधी तक मेज थपथपा रही थी, वह भी जोर-जोर से। मैं उस हाथ को तलाश रही थी कि अब आगे बढ़ेगा और सोनिया मम्मा को रोक देगा। लेकिन इतनी गहरी शून्यता! अब लिखे तो किस पर लिखें! देश मौन हुआ पड़ा है। औवेसी कुछ बोलने की कोशिश कर रहा था कि हमारे अमित शाह जी ने अंगुली दिखाकर कह दिया कि तुम्हें अब सुनना पड़ेगा
मुझे रह-रहकर एक कहानी याद आ रही है। एक व्यक्ति के पिता की हत्या करके अपराधी मुम्बई भाग गया। बेटा हत्यारे के पीछे मुम्बई आ गया। मुम्बई की भीड़ में बेटा घबरा गया, सात दिन हो गये, ना हत्यारे का पता लगे और ना ही कोई बोलने वाला मिले! उसके होंठ सिल गये, जुबान हलक से चिपक गयी, वह बात करने के लिये तड़प गया। अचानक उसे हत्यारा दिखायी दे गया। वह भागा, चाकू उसके हाथ में था, लेकिन जैसे ही हत्यारे के नजदीक गया, चाकू दूर गिर गया और वह हत्यारे के गले लग गया। बोला कि भाई सात दिन से बात करने के लिये तरस गया हूँ। दुश्मनी गयी भाड़ में।
ऐसा ही हाल अपना है, शान्त झील में कंकर फेंककर हलचल मचाने की जुगतकर रही हूँ लेकिन नाकामयाब रहती हूँ। मोदीजी भी चुप है, मानो वह भी राहुल के जाने से गमनीन है! उनके पास नामजादा नहीं है और कोई भी नहीं है, उनका दर्द तो मेरे से भी ज्यादा है। कांग्रेस किसी को अध्यक्ष बना भी नहीं रही है, कलकत्ते से अधीर रंजन चौधरी आए थे, मुझे तो अच्छे लगे थे, उछल-उछलकर भाषण देते थे। बार-बार अपनी रस्सी की पकड़ को देखते भी जाते थे कि कितना उछलना है और कितना नहीं। लेकिन उनकी उछलकूद कुछ कम पड़ गयी है। सर्वत्र उदासी छायी है।
अब मोदीजी आपको ही कुछ करना होगा, ऐसे नहीं चलेगा। देश इस भीषण संकट में ज्यादा देर नहीं रह सकता। आप जानते ही हैं कि देश मतलब सोशल मीडिया है, यदि सोशल मीडिया में मंदी आ गयी तो शेयर मार्केट गिर पड़ेगा! लोगों को कॉपी-पेस्ट करने का मसाला नहीं मिल रहा है। आपको गाली देने का बहाना भी नहीं मिल रहा है। और ये क्या? आप दूसरे दल के बयानवीरों को भाजपा में मिला रहे हो! अब तो खामोशी के अतिरिक्त और क्या बचेगा?
मेरी तो विनती है कि बयानवीर-मंत्रालय बना दीजिये। दिनभर चहल-पहल रहेगी। मीडिया के सूने पड़े मंडी-हाउस में भी बहार आ जाएगी। कोई बकरा खरादेगा तो कोई बछड़ा खरीदेगा। न जाने कितने पहलवान दण्ड पेलते नजर आ जाएंगे। आप सभी की खामोशी ने देश को विदेशियों की तरफ मोड़ दिया है, कभी वे इमरान की और देखने लगते हैं तो कभी ट्रम्प की तरफ। पता नहीं आपने ऐसा क्या कर दिया है जो विदेशी भी सारे आपकी तरफ खड़े हो गये हैं, अब यह भी कहीं होता है कि 15 में से 15 वोट आपको मिल जाए, बस एक वोट इमरान को मिले। फिर ईवीएम फिक्स करने का आरोप लग जाएगा!
अभी राहुल का बयान आता तो कितना मसाला मिलता,  लेकिन उस बेचारे को आपने चढ़ती उम्र में ही संन्यास दिला दिया! कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक खामोशी बरकरार है। बस एक काफिला है जो चला आ रहा है आपकी तरफ। सारी नदियां समुद्र में मिलना चाह रही हैं! कल देखा था मैंने एक नजारा, हजारों पक्षी, लम्बी कतार में चले जा रहे थे, उनका अन्त नहीं था, बस कतार खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी। ऐसी ही कतार चल पड़ी है आप की ओर, लोग आप में समा जाना चाहते हैं। यदि सभी कुछ मोदीमय हो जाएगा तो नीरस हो जाएगी जिन्दगी।
कुछ करिये, राहुल जैसों को वापस लाइए। नहीं तो आप ही कुछ बोल जाइए। देश तो आलोचना में सिद्धहस्त है, वे राहुल की जगह आपकी शुरू कर देंगे, बस उन्हें मौके की तलाश है। देश पहले उस फिल्म की तरह था जहाँ हीरो अलग था, विलेन था, कॉमेडियन था लेकिन अब हीरो ही सबकुछ हो गया है। देश को जब बोरियत होती है तो हीरो को ही विलेन बना देता है और हीरो को ही कॉमेडियन। लेकिन एक से काम नहीं चलेगा, आप मनाकर लाइए हमारे सोशलमीडिया के नेता को।

Wednesday, July 17, 2019

हम किसका दाना चुग रहे हैं!


आज जो हो रहा है, वही कल भी हो रहा था, हर युग में हो रहा था। हम पढ़ते आए हैं कि राक्षस बच्चों को खा जाते थे, आज भी बच्चों को खाया ही जा रहा है। मनुष्य और दानवों का युद्ध सदैव से ही चला आ रहा है। समस्याएं गिनाने से समस्याओं का अन्त नहीं होता अपितु समाधान निकालने से अन्त होता है। जंगल में राक्षसों का आतंक मचा था, ऋषि वशिष्ठ राजा दशरथ से राम को राक्षसों के वध के लिये मांगकर ले जाते हैं और राम राक्षसों का वध करते हैं। ऐसे ही पुराणों में सभी समस्याओं का समाधान है लेकिन हम केवल समस्याओं से भयाक्रान्त होते हैं, समस्या समाधान की ओर नहीं बढ़ते है। वशिष्ठ चाहते तो राजा दशरथ से कहते कि सेना लेकर राक्षसों का वध कर दें लेकिन उन्होंने अपने शिष्य  राम से ही राक्षसों का अन्त कराने का निर्णय लिया। बहुत सारी समस्याओं का अन्त सामाजिक होता है, हम समाज को जागृत करें, समाधान होने लगता है। जब समाज सो जाता है तब समस्याएं विकराल रूप धारण करती हैं। हम मनोरंजन के नाम पर जगे हुए हैं लेकिन अपनी सुरक्षा को नाम पर सोये हुएं हैं।
अमृत लाल नागर का प्रसिद्ध उपन्यास है – मानस का हंस। तुलसीदास जी की कथा पर आधारित है। तुलसीदास जी सरयू किनारे राम-कथा करते हैं लेकिन एक दिन पता लगता है कि आज रामकथा नहीं होगी! क्यों नहीं होगी? राम जन्मोत्सव के दिन औरंगजेब का फरमान निकल गया है कि आज रामकथा नहीं हो सकती। राम जन्मभूमि का विवाद तब भी अस्तित्व में था। तुलसीदास जी दुखी होते हैं लेकिन रामकथा करने का निर्णय करते हैं। गिरफ्तार होते हैं और छूटते भी हैं लेकिन वे समझ जाते हैं कि इस सोये समाज को जागृत करने के लिये कुछ करना होगा। वे रामचरित मानस की रचना करते हैं और गली-मौहल्लों में रामकथा का मंचन करने की प्रेरणा देते हैं। वे जानते हैं कि बिना समाज की जागृति के परिवर्तन नहीं हो सकता।
सोशल मीडिया समाज को जागृत करने का काम कर रहा है लेकिन इसके पास कोई सबल नेतृत्व नहीं है, यहाँ हमारी मुर्गी को कोई भी दाना डाल देता है और मुर्गी दाना चुगने लगती है। उसे पता ही नहीं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है। लेकिन समाधान क्या? सन्त-महात्मा और हिन्दू संगठनों को दायित्व लेना ही होगा। डॉक्टर हेडगेवार जी ने सामाजिक संगठन बनाया था, यदि वे चाहते तो राजनैतिक संगठन बना सकते थे, वे कहते थे कि जब तक हिन्दू समाज संगठित और शिक्षित नहीं होगा, देश की समस्याएं दूर नहीं हो सकती हैं। उन्होंने सबसे पहले सामाजिक समरसता पर ध्यान दिया, वे जानते थे कि भारतीय समाज टुकड़ों-टुकड़ों में विभक्त है और यहाँ ऊँच-नीच की भावना प्रबल है। इसलिये पहले इस भावना को दूर करना होगा। लेकिन आजादी के बाद देखते-देखते 70 साल बीत गये, ऊँच-नीच की  भावना कम होने के स्थान पर बढ़ती चले गयी। वर्तमान में तो यह भावना पराकाष्ठा पर है। किसी भी समाज के महापुरुष ने सामाजिक समरसता के लिये गम्भीर प्रयास नहीं किये। हमारे यहाँ चार वर्ण माने गये हैं – ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रीय, शूद्र। यदि ये चारों एक स्थान पर बैठे हों तो चारों ही खुद को श्रेष्ठ और दूसरे को निकृष्ठ सिद्ध करने में लग जाएंगे। यहाँ तक भी साधु-सन्त भी यही करते हैं। ऐसे में हिन्दू समाज की रक्षा कैसे होगी? हिन्दू तो कोई दिखायी पड़ता ही नहीं! हम अभी तक दलितों को ब्राह्मण क्यों नहीं बना पाए? हमने अभी तक इस वर्ण व्यवस्था का एकीकरण क्यों नहीं किया? साधु-सन्त लखपति बन गये और जनता अनाथ हो गयी। सरकारें तो सेकुलर ही होती हैं लेकिन समाज तो हिन्दू-मुसलमान होते ही हैं ना! तब  हमने अपने समाज को दृढ़ क्योंकर नहीं किया। मुस्लिम समाज अपनी रक्षा के लिये संकल्पित है लेकिन हम बेपरवाह। आज राक्षसों का ताण्डव चारों ओर दिखायी दे रहा है लेकिन हमारा समाज निष्क्रिय सा बैठा है, वह जागता ही नहीं। कभी वह शतरंज में व्यस्त रहता है तो कभी तीतर-बटेर लड़ाने में, कभी कोठों में और आज क्रिकेट और फिल्मों में। इस समाज को जगाना ही होगा नहीं तो यहूदियों जैसा इतिहास हमारा भी होगा। हम भी मुठ्ठीभर बचकर इजरायल की तरह एक छोटे से भारत की स्थापना किसी कोने में कर लेंगे। हम अभी तो बस यह कर सकते है कि हमें दाना कौन डाल रहा है, हम किसका दाना चुग रहे हैं, इसका ध्यान रखें। हमें कोई भी दाना डाल देता है और बस मुर्गी की तरह दाना चुगने लगते हैं। हम कूंकड़ू कूं करने वाली मुर्गी ना बने।