Wednesday, September 28, 2011

दो प्रश्‍न - लोकार्पण क्‍या हैं? लेखन का उद्देश्‍य क्‍या है?



अपनी पुस्‍तक का लोकार्पण के अर्थ क्‍या हैं? कोई कठिन प्रश्‍न नहीं हैं, बहुत‍ सरल सा उत्तर है कि अपनी पुस्‍तक को लोगों को समर्पित करना। अर्थात अपने विचारों को पुस्‍तक के माध्‍यम से समाज में प्रस्‍तुत करना। ये विचार अब समाज प्रयोग में ला सकता है। लेकिन कई बार विवाद होता है या यूँ कहूँ कि अक्‍सर विवाद होता है कि मेरे विचार को समाज ने कैसे उद्धृत किया? यदि मेरा विचार था तो उसे मेरे नाम से ही उद्धृत करना चाहिए था। लेकिन समाज का कहना है कि जब आपने इसे लोकार्पित कर ही दिया है या सार्वजनिक कर ही दिया है तो ये विचार सभी के हो गए हैं। यह किसका विचार है उद्धृत करना बहुत अच्‍छी बात है लेकिन यदि कोई नहीं भी करे तो क्‍या यह गैरकानूनी की श्रेणी में आएगा? वर्तमान लेखकों या विचारकों के विचारों को हम उद्धृत भी कर देते हैं लेकिन प्राचीन विचारकों को तो हम अक्‍सर भुला ही देते हैं और सीधे ही उस विचार का प्रयोग करते हैं। कितनी लघुकथाएं, बोधकथाएं, मुहावरे, चुटकुले समाज में प्रचलित हैं लेकिन हम उनके लेखकों को नहीं जानते। इसलिए मैं सभी सुधिजनों से जानना चा‍हती हूँ कि क्‍या लोकार्पित विचार आपकी निजि सम्‍पत्ति हैं? क्‍योंकि मुझे किसी विद्वान ने कहा था कि जब तक आपकी पुस्‍तक लोकार्पित नहीं है तभी तक आपकी है, जिस दिन इसका लोकार्पण हो गया यह पुस्‍तक सबकी हो गयी है। जैसे कोई भवन, पुल आदि लोकार्पण के बाद सार्वजनिक हो जाते हैं।
लेखन के बारे में एक और प्रश्‍न है, हमारे लेखन का उद्देश्‍य क्‍या है? क्‍योंकि मेरा मानना है कि शब्‍द ब्रह्म है और इसे नष्‍ट नहीं किया जा सकता है। यह अपना प्रभाव समाज पर अंकित करता ही है। आपके लिखे गए शब्‍द से समाज प्रभावित होता ही है। बोले गए शब्‍द में और लिखे गए शब्‍द में भी अन्‍तर होता है। बोले गए शब्‍द का व्‍याप छोटा होता है लेकिन लिखे गए शब्‍द का व्‍याप भी बड़ा होता है और वह साक्षात सदैव उपस्थित भी रहता है। इसलिए जिसके शब्‍दों या विचारों से समाज को सकारात्‍मक ऊर्जा मिलती है वह लेखक या विचारक उतना ही महान होता है। जिस लेखन से नकारात्‍मक ऊर्जा मिलती है उसे समाज तिरस्‍कृत करता है। आज भी हम रामायण और महाभारत से ऊर्जा लेते हैं लेकिन ऐसे लेखक भी आए ही होंगे जिन्‍होंने समाज में नकारात्‍मकता की उत्‍पत्ति की हो, लेकिन वह शायद स्‍थापित नहीं हो पाए। परिष्‍कृत समाज की हमारी कल्‍पना है। मनुष्‍य और प्राणियों में बस इतना ही अन्‍तर है कि मनुष्‍य सदैव परिष्‍कृत या संस्‍कारित होता रहता है जबकि अन्‍य प्राणी प्रकृतिस्‍थ ही रहते हैं। लेखन इसी संस्‍कार की प्रवृत्ति को विस्‍तारित करने के लिए ही है।

साहित्‍य और पत्रकारिता में एक अन्‍तर दिखायी देता है। पत्रकार प्रतिदिन की घटनाओं को समाज के समक्ष प्रस्‍तुत करते हैं, उसमें विचार नहीं होता लेकिन साहित्‍यकार के लिए आवश्‍यक नहीं है कि वह प्रतिदिन साहित्‍य की रचना करे। जब भी श्रेष्‍ठ विचार उसके अन्‍तर्मन में जागृत हों, उन्‍हें विभिन्‍न विधाओं के माध्‍यम से समाज तक विस्‍तार देने का प्रयास करता है। इसलिए साहित्‍यकार प्रतिदिन नवीन रचना नहीं कर पाता। समाज के मध्‍य जाकर प्रचलित विचारों से उसके नवीन विचार जन्‍म लेते हैं और वे उन्‍हें पुन: प्रांजल कर समाज को लौटाता है। इसलिए एक साहित्‍यकार के लिए  लेखन से भी अधिक आवश्‍यक है उसका समाज के साथ एकाकार होना। या फिर भिन्‍न विचारों का पठन, जो समाज में पुस्‍तकरूप में विद्यमान है। इन्‍हीं संस्‍कारित विचारों को हम समाज को देते हैं।
इसलिए आइए हम इस बात पर चिंतन करें कि हमारे लेखन का उद्देश्‍य क्‍या है और जो लेखन लोकार्पित हो गया है वह क्‍या आपकी निजि सम्‍पत्ति है या फिर सभी के उपयोग के लिए उपलब्‍ध है?

Thursday, September 22, 2011

हर व्‍यक्ति जरूरी होता है - अजित गुप्‍ता



निर्मम पतझड़ का आक्रमण! हरे-भरे पत्तों का पीत-पात में परिवर्तन! कभी तने से जुड़े हुए थे और अब झड़ के अलग हो गए हैं! वातावरण में वीरानी सी छायी है। सड़कों पर पीत-पत्र फैले हैं। बेतरतीब इधर-उधर उड़े जा रहे हैं। वृक्ष मानों शर्म हया छोड़कर नग्‍न हो गए हैं। भ्रम होने लगता है कि कहीं जीवन तो विदा नहीं हो गया? ठूंठ बने वृक्ष पर कौवा आकर कॉव-कॉव करने लगता है। सूखे श्रीहीन वृक्ष पर कैसा कर्कश स्‍वर है? लेकिन य‍ही नियति है। निर्मम पतझड़ ने सबकुछ तो उजाड़ दिया है। क्‍यों किया उसने ऐसा? यह पतझड़ ही खराब है, चारों तरफ से आवाजें आने लगी हैं। हवाएं भी चीत्‍कार उठी हैं, सांय-सांय बस चलती रहती हैं। माहौल गर्मा गया, हरियाली विलोप हो गयी। आँखों का सुकून कहीं बिसरा गया। प्रकृति का ऐसा मित्र? नहीं हमें जरूरत नहीं ऐसे मित्र की। पशु-पक्षी सभी ने मुनादी घुमा दी, नहीं चाहिए हमें पतझड़।
अभी बवण्‍डर अपना रूप ले ही रहा था कि एक अंकुर फूट गया। वृक्ष पर हरीतिमा छाने लगी। नवीन कोपल मन को उल्‍लास से भरने लगी। देखते ही देखते वृक्ष लहलहा गया। इतनी सुंदरता? इतनी मोहकता? कहाँ थी यह पहले? पतझड़ ने धो-पौंछकर नवीनता ला दी। अब तो राग भी बदल गया, कौवे का स्‍थान कोयल ने ले लिया। चिड़ियाऐं भी फुदकने लगी। मधुमक्‍खी ने भी छत्ता बना डाला। पुष्‍पों से पराग सींच-सींचकर मकरन्‍द बन गया।
बहुत सुन्‍दर है प्रकृति, बहुत जरूरी है इसके सारे ही तत्‍व। सारी ही ॠतुएं। इनमें से एक भी अपना कर्तव्‍य भूल जाए तो चक्र डांवाडोल हो जाएगा। प्रकृति ही विनाश करती है और प्रकृति ही सृष्टि को पुन: रचती है। जब-जब भी विरूपता-कुरूपता का आक्रमण हुआ, प्रकृति ने नवनिर्माण किया। जब प्रकृति डोलती है तब उसकी नाराजी सहन नहीं होती। लेकिन वह तो नव-निर्माण कर रही होती है। मनुष्‍य को सावचेत कर रही होती है कि इस संसार में सभी कुछ नश्‍वर है। पुरातन के बाद ही नवीन का उदय होगा।
हमारे मन में भी अनेकानेक विचार करवट लेते रहते हैं। कभी ये विचार भूचाल ला देते हैं तो कभी सुनामी। एकबारगी तो धरती विषैली सी हो जाती है लेकिन विष के बाहर आने के बाद एकदम शान्ति। आवश्‍यक है विचारो का उर्ध्‍व-वमन, निकल जाने दो इन्‍हें बाहर। प्रकृति में विष विस्‍तार लेगा तो अमृत की भी खोज होगी। समुद्र मंथन शायद हमारे मनों में ही हुआ हो। अमृत और विष दोनों ही बाहर आ सके थे। जिसको जो लेना था, उसने वो ले लिया। य‍ह सृष्टि ऐसे ही विस्‍तार लेती है। आज की युवा-पीढ़ी कहती है सारे ही फेंडस जरूरी है। हम भी यही कहते हैं कि सारे ही व्‍यक्ति जरूरी हैं। भोजन में षडरस। यात्रा पर निकलिए, करेला कितना मधुर लगता है। तीखे अचार का तो कहना ही क्‍या। भोजन के अन्‍त में मीठा ना हो तो? सारे ही रस अपने-अपने स्‍वादों की प्रधानता को स्‍थापित करते रहेंगे। जैसे हम अपने विचारों को स्‍थापित करते रहते हैं। परिवार में सारे ही सदस्‍य भोजन की टेबल पर बैठे हैं, बच्‍चा सबसे पहले करेले जैसी सब्‍जी को बाहर निकालता है, गुस्‍से में बोलता है कि मुझे नहीं खाना करेला। तभी दादाजी घुड़का देते हैं, क्‍यों नहीं खाना करेला? लेकिन अगले ही पल वे भी बोल उठते हैं कि मुझे नहीं खाना आलू-बेसन। सभी के अपने स्‍वाद हैं, सभी की जरूरतें। मत खाइए जो आपको पसन्‍द ना हो, लेकिन दूसरे के खाने को बुरा मत कहिए। आज जो मुझे पसन्‍द नहीं, हो सकता है वही कल मेरी जरूरत बन जाए। इसलिए मित्रों हमें भी सभी की जरूरत है। बस यही कहते रहिए कि सभी मित्र, सभी व्‍यक्ति जरूरी होते हैं।  इस धरती की खूबसूरती बनाए रखने के लिए प्रत्‍येक रंग जरूरी है, कहीं काला फबता है तो कहीं सफेद, कही हरा तो कहीं लाल। कभी कौवा आवश्‍यक होता है तो कभी कोयल का मधुर राग अच्‍छा लगता है। विचित्रता में ही आनन्‍द है। लड़ाई-झगड़े भी हमारे मन के कलुष को निकालने के लिए आवश्‍यक है। सभी का सम्‍मान कीजिए, सभी को जीने का अवसर दीजिए। बस हमेशा कहते रहिए सभी प्राणी जरूरी हैं।  

Saturday, September 17, 2011

आजकल लोग बिच्‍छू होते जा रहे हैं - अजित गुप्‍ता



चौंकिए मत। बिच्‍छू ऐसा प्राणी है जो अपने शरीर में डंक ही डंक लेकर चलता है। चलते-चलते बस डंक ही मारता है और अपना जहर सामने वाले के शरीर में उतार देता है। इतना सा जहर की ना आदमी मरे और ना ही दो-चार दिन जी पाए। कुछ लोग बिच्‍छू के जहर को स्‍याणों-भोपों से उतरवाते भी हैं। आदमी की तुलना बिच्‍छू से? लेकिन क्‍या आपको नहीं लगता कि यह सच है। यदि नहीं लगता तो शायद आपके ज्ञान के चक्षु अभी खुले नहीं है। हम तो अनुभव के उस मुकाम पर पहुंच गए हैं जहाँ चक्षु प्रतिदिन नित नया ज्ञान दिखाते हैं। मुझे तो कभी-कभी आशंका होने लगती है कि कहीं ऐसे ही तीव्र गति से ज्ञान की प्राप्ति होती रही तो केवलज्ञान के समीप ही नहीं पहुंच जाए हम!
बिच्‍छू के जहर से एक बात और ध्‍यान में आयी। किसी तत्‍वज्ञानी ने बताया था कि यदि महिला गर्भवती हो और उसे बिच्‍छू काट ले तो बिच्‍छू मर जाता है। एक बार साक्षात मैंने देखा भी है, लेकिन एक बार ऐसा होना संयोगमात्र भी हो सकता है। लेकिन एक सिद्धान्‍त तो बन ही जाता है कि यदि आपके मन में कोई अन्‍य का मन आत्‍मसात हो तो शायद बिच्‍छू का जहर असर ना करे उल्‍टा बिच्‍छू ही मर जाए! इसे यूं भी कह सकते हैं कि जो किसी के प्रेम में अंधे होकर घूमते हैं उन्‍हें शायद ऐसे बिच्‍छुओं के जहर का असर होता ही नहीं हो। अब यह प्रेम कई प्रकार का होता है, व्‍यक्ति का प्रेम, काम का प्रेम, देश का प्रेम आदि आदि। जो धुन का मतवाला है उसे कितने भी डंक मारो, नालायक को असर ही नहीं होता। बेचारे बिच्‍छू जैसे लोग बड़े आहत हो जाते हैं!
डंक मारने के प्रयोग देखिए, एक संत-फकीर टाइप इंसान अनशन करता है तो राजनेता डंक मारते हैं कि इसकी नियत में खोट है, यह स्‍वयं सत्ता पर काबिज होना चाहता है। लेकिन कोई राजनेता ही उपवास पर बैठ जाए तो डंक लगेगा कि नहीं इसे अधिकार नहीं है, ऐसे नाटक करने का अधिकार तो केवल मेरे पास ही है। और बानगी देखिए, आपने घर में जरा भी ऊँची आवाज में अपनी बात पुरजोर शब्‍दों में कह दी तो झट से एक डंक निकल आएगा कि नेतागिरी करते हो? अब आज के नेता की बदनामी का जहर आपके शरीर में इंजेक्‍शन की तरह घुसा दिया गया है और आप कई दिनों तक इस जहर से उबर नहीं पाते। कभी-कभी आपको स्‍याणों की शरण में भी जाना पड़ जाता है। आज शनिवार है, इस देश के करोड़ों लोग आज के दिन व्रत रखते हैं। लेकिन बस आज यही प्रश्‍न डंक की तरह फड़फड़ाता रहेगा अरे आज आपने भी उपवास रखा है
अभी दो दिन पूर्व मेरे मोबाइल पर एक मेसेज आया don’t get upset with people or situation … they are powerless without your reaction. इस वाक्‍य को मैंने अपनी एक टिप्‍पणी में भी उद्धृत किया था। मेरे अनुभव से मुझे यह ज्ञान भी प्राप्‍त हुआ कि जो जितना शिक्षित उसके डंक में उतना ही तीव्र जहर। पत्रकारों को देखा नहीं कैसे-कैसे प्रश्‍न करते हैं! लोग तो कहते हैं कि इनका काटा पानी नहीं मांगता। लेकिन राजनेता इनको झेल जाते हैं। मैं आप लोगों से इतना ही ज्ञान बांट रही हूँ कि लोग कितने ही बिच्‍छू बन जाएं लेकिन आप उन पर ध्‍यान मत दीजिए। मेरा यह अचूक फार्मूला है और मैंने इसी फार्मूले से कई लड़ाइयां जीती हैं। मुझे लोग कहते रहते हैं कि आप प्रतिक्रिया क्‍यों नहीं करती? मैं हमेशा कहती हूँ कि मेरा कार्य है क्रिया करना, प्रतिक्रिया दूसरों के लिए छोड़ रखी है।
एक छोटा सा उदाहरण देती हूँ, मेरे द्वारा आयोज्‍य एक कार्यक्रम में कुछ लोग उपद्रव करने की मंशा से आए थे। मंच से एक विद्वान ने कह दिया कि हमारे जमाने में विश्‍वविद्यालय में रौनक रहती थी। बस फिर क्‍या था, उपद्रव प्रारम्‍भ। प्रश्‍नों के बाण आने लगे कि क्‍या वर्तमान में ताले लगे हैं? कुछ देर तक मैं तमाशे का आनन्‍द लेती रही और अन्‍त में मैंने कहा कि आज आप लोगों की प्रतिक्रिया देखकर मन प्रसन्‍न हो गया क्‍योंकि न जाने कितने बरसों तक एक वर्ग बेचारा प्रतिक्रिया करता था और आप लोग प्रसन्‍न होते थे आज पहली बार हमें अवसर मिला है कि आप हमारी बात पर प्रतिक्रिया कर रहे हैं तो यह प्रसन्‍नता की बात है। शान्ति छा गयी। आज ऐसी ही प्रसन्‍नता फिर हो रही है कि अब तो प्रतिक्रिया में उपवास भी होने लगे हैं। कहीं ऐसा नहीं हो कि गांधी जी की तरह कोई व्‍यक्ति लंगोटी धारण कर ले और ये सरकारी नेता भी कहे कि हम भी अब केवल लंगोटी ही पहनेंगे। जनता तय करे कि असली फकीर कौन? लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता। यहाँ तो होड़ लगी है कि खाई कितनी चौड़ी हो। जनता के पास से खाने के दाने भी छीन लो और इन सरकारी नेताओं का धन हजारों में नहीं और ना ही लाखों में बस करोड़ों में प्रतिवर्ष बढ़ता रहे और जनता और नेताओं के बीच की खाई का विस्‍तार होता रहे।
जनता तो बेचारी हो गयी है, कभी किसी के डंक से आहत होती है और कभी किसी के। अब राजनेताओं के डंकों से आहत हो रही है। कभी पेट्रोल के दाम के माध्‍यम से तो कभी मंहगाई के डंक से। ये सारे डंक भी बिच्‍छू के जहर जैसे ही हैं, दो-तीन दिन रोना-पीटना रहता है फिर आदत सी हो जाती है। जनता निकल पड़ती है अपने काम को फिर नए डंक की तलाश में। हमने तो सरकारी मंहगाई को भी प्राकृतिक आपदा मान लिया है की कभी सूखा और कभी अतिवृष्टि। बस प्रतिक्रिया मत करो और अपना काम करते रहो। पेट्रोल के लिए जेब आज्ञा नहीं देती तो सार्वजनिक वाहन का उपयोग करो और मंहगाई की मार से प्‍याज का तड़का नहीं लगा स‍कते तो केवल जीरा ही बहुत है, पेट भरने को। स्‍वाद में वैसे भी क्‍या धरा है?
विशेष नोट कई दिनों से बाहर प्रवास पर रहने के कारण कोई पोस्‍ट नहीं लिखी गयी थी तो सारी भंडास एक साथ ही निकाल दी गयी है। आप चाहें तो प्रतिक्रिया कर स‍कते हैं।