Tuesday, April 28, 2009

सफलता का मापदण्‍ड क्‍या?

हम अक्‍सर कहते हैं कि हम सफल हुए या असफल ह‍ुए। लेकिन क्‍या है इस सफलता का पैमाना? धन-दौलत का अम्‍बार या पारिवारिक सुख। शिक्षा से मण्डित या अशिक्षित लेकिन ज्ञानवान। हम यदि श्रेणियों में विभक्‍त करेंगे तो नाना प्रकार मिलेंगे सफलता के फिर भी हम खुश नहीं रहते। हमारी चा‍ही एक सफलता हमें मिल जाती है तो हम दूसरी की ओर दौड़ने लगते हैं। अब आप ही बताइए कि हम एक आम व्‍यक्ति को सफलता के किस तराजू में तौले?

Tuesday, April 14, 2009

लघुकथाएं - महादान, रिश्‍ते और आदत

महादान
कुछ वर्ष पूर्व राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में अकाल पड़ा हुआ था। हमने अपनी संस्था के माध्यम से गाँवों में कुएं गहरे कराने का कार्य प्रारम्भ किया। किसान के पास इतना पैसा नहीं था कि वह स्वयं अपने कुओं को गहरा करा सके। जनजाति समाज के स्वाभिमान को देखते हुए रूपए में से पच्चीस पैसे किसान से भी लिए गए। किसानों के अपना हिस्सा अग्रिम रूप से जमा करा दिया। बारी-बारी से सभी के कुएं गहरे कराने का काम प्रगति पर था। कुएं अधिक थे और समय कम। मनुष्य जब प्रयास करता है तब प्रकृति भी उसका साथ देती है, इसी कारण काम पूरा होने से पूर्व ही वर्षा ने अपनी दस्तक दे दी और रामदीन के कुएं में भी पानी की आवक हो गयी। रामदीन उस दिन बहुत खुश था। क्योंंकि उसके कुएं में पानी आ गया था। अकाल के समय कैसे पाई-पाई जोड़कर उसने पैसे एकत्र किए थे? भगवान ने उसकी सुन ली थी। हमारा काम भी बंद हो गया था। हम उसे पैसे वापस करने के लिए गए।
उसने कहा कि मुझे पानी चाहिए था और प्रभु ने मेरा काम कर दिया। अब मैं इस पैसे का क्या करूंगा? आप इसे कहीं और लगा दे, और उसने पैसे वापस लेने से मना कर दिया।

रिश्ते
एक दिन उदयपुर से आबूरोड की यात्रा बस से कर रही थी। जनजातीय क्षेत्र प्रारम्भ हुआ और एक बीस वर्षीय जनजातीय युवती मेरे पास आकर बैठ गयी। मेरा मन कहीं भटक रहा था, टूटते रिश्तों को तलाश रहा था। मैं सोच रही थी कि क्या जमाना आ गया है कि किसी के घर जाने पर मुझे आत्मीय रिश्तों की जगह औपचारिकता मिलती है और सुनने को मिलता है एक सम्बोधन - आण्टी। इस सम्बोधन से ‘हम एक परिवार नहीं है’ का स्पष्ट बोध होता है। मुझे बीता बचपन याद आता, कभी भौजाईजी, कभी काकीजी, कभी ताईजी, कभी बुआजी, कभी जीजीबाई आदि सम्बोधन मेरे दिल को हमेशा दस्तक देते हैं। लेकिन आज मेरे आसपास नहीं थे ये सारे ही। मेरे समीप तो रह गया था शब्द, केवल आण्टी। इन शब्दों के सहारे हमने दिलों में दूरियां बना ली थी।
मैं किसी कार्यक्रम में भाग लेने जा रही थी और मुझे वहाँ क्या बोलना है इस बात का ओर-छोर दिखायी नहीं दे रहा था। इतने में ही झटके के साथ बस रुकी। एक गाँव आ गया था। नवम्बर का महिना था और उस पहाड़ी क्षेत्र में इस महिने बहुतायत से सीताफल पकते थे। अतः बाहर टोकरे के टोकरे सीताफल बिक रहे थे। मेरे पास बैठी युवती बस से उतरी और हाथ में सीताफल लेकर बस में वापस चढ़ गयी। उसने एक सीताफल तोड़ा और मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली कि ‘बुआजी सीताफल खाएंगी’?

आदत
मेरा नौकर नारायण जनजातीय समाज का था। इस समाज में सुबह काम पर निकलते समय और शाम को काम से वापस आने के बाद ही भोजन करने की आदत है। ऐसी ही आदत नारायण की भी थी। मेरे यहाँ वह सुबह नौ बजे आता और शाम को चार बजे जाता। दिन में हम सब को वह भोजन कराता, लेकिन स्वयं नहीं खाता। मैं उससे हमेशा कहती कि खाना खाले, लेकिन नहीं खाता। एक दिन मैंने डाँटकर उसे कहा कि खाना क्यों नहीं खाता? सारा दिन यहाँ काम करता है और मुँह में दाना भी नहीं डालता, कैसे काम चलेगा?
तब वह बोला कि हम लोग दो समय ही खाना खाते हैं, एक सुबह और एक शाम। सुबह मैं खाना खाकर आता हूँ और शाम को जाकर खाऊँगा। यदि दिन में आपके यहाँ खाना खाने लगा तो मेरी आदत बिगड़ जाएगी।

Tuesday, April 7, 2009

लघुकथाएं - छिलके, अपना प्राप्‍य, फिजूलखर्ची

छिलके

शहर से 10 किलोमीटर की दूरी पर बसा एक जनजातीय गाँव। अधिकांश लोग या तो खेती करते या फिर शहर में मजदूरी करने आते। एक दिन वहाँ एक कार्यक्रम के निमित्त जाना था। जाते समय, साथ में बच्चों के लिए केले ले लिए। छोटा सा कार्यक्रम रखा हुआ था गाँव वालों के लिए, सारे ही गाँव वाले एकत्र हुए। कार्यक्रम के बाद हमने बच्चों को केले बाँटे। बच्चों ने केले खाए और छिलके वहीं फेंक दिए।
मैंने बच्चों से कहा कि बेटा ये छिलके उठाओ और पास बैठी गाय के सामने डाल दो।
एक वृद्ध व्यंग्यात्मक रूप से बोला कि गायें केले के छिलके नहीं खाएंगी।
मैंने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? बच्चों तुम ये छिलके गाय के सामने डाल दो।
उन्होंने ऐसा ही किया, लेकिन गाय ने छिलकों की तरफ देखा ही नहीं।
मैं अचम्भित थी, मैंने बच्चों से कहा कि ऐसा करो कि जो वहाँ बकरी बैठी है, उसे डाल दो।
बकरी ने छिलके देखकर मुँह घुमा लिया। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यूँ हो रहा है?
वृद्ध बोला कि गाय छिलकों को पहचानती नहीं हैं।

अपना प्राप्य

सुबह उठकर जैसे ही मैंने वाशबेसिन का नल खोला, देखा कि वहाँ से नन्हीं-नन्हीं चीटियां कतार बनाकर कहीं चली जा रही हैं, उनकी दो कतारे बनी हुई थीं, एक जा रही थी और एक वापस लौट रही थीं। वापस लौटने वाली चीटियों के मुँह में एक दाना था। मेरी निगाहों ने उनका पीछा किया। निगाहें चीटियों के साथ-साथ चल रही थीं। एक जगह जाकर चीटियां रुक गयीं थी, निगाहें भी रुकी। देखा एक छोटा सा मिठाई का टुकड़ा भोजन की टेबल पर पड़ा था, वे सारी चीटियां कतारबद्ध होकर उसका एक-एक कण अपने मुँह से पकड़कर वापस लौट रही थीं। कहीं कोई बदहवासी नहीं, रेलमपेल नहीं, बस था तो एक अनुशासन। तभी घर के बाहर शोर सुनायी दिया। बाहर आकर देखा, एक सेठजी के हाथ में मिठाई का डिब्बा था, उनके चारों तरफ मांगने वालों की भीड़ थी और कुछ बच्चे उनसे छीना-झपटी कर रहे थे। इसी छीना-झपटी में मिठाई का डिब्बा हाथ से छूट गया और सारी मिठाई सड़क पर गिर कर बेकार हो गयी। सेठजी नाराज हो रहे थे और बच्चों पर चिल्ला रहे थे। तभी चीटियों पर नजर पड़ी, मिठाई के टुकड़े का अस्तित्व समाप्त हो चुका था और चीटियां वैसे ही कतारबद्ध लौट रही थीं।

फिजूलखर्ची

पानी की समस्या मेरे शहर में विकराल रूप ले चुकी थी। सरकारी नलों में दो दिन में एक बार, एक घण्टे के लिए पानी आता था वह भी कम दवाब से। घरों के बोरिंग भी सूख चले थे। घर में नजर घुमाती तो चारों तरफ लगे नल मुझे चिढ़ाते। आदतों से लाचार हमें वाशबेसन के नल या टायलेट के नल फिजूलखर्ची करते बच्चे से लगते। लेकिन वे भी हमारी जरूरत थे, हम उन्हें बंद नहीं कर सकते थे। ऐसे ही एक दिन मैं, पानी की समस्या से जूझ रही थी। मुँह में ब्रश का झाग भरा था और वाशबेसन से पानी नदारत। मैं झुंझला उठी। इतने में ही दरवाजे की घण्टी चहक उठी। मैं दरवाजे की तरफ देखती हूँ, बाहर सफाई कर्मचारी खड़ी है। मैं वैसे ही दरवाजा खोल देती हूँ।
वह पूछती है कि क्या पानी गया?
मैं कहती हूँ कि हाँ गया।
वह हँसती है, कहती है कि पानी की समस्या केवल आप लोगों की बनायी हुई है, हम तो इस समस्या से ग्रसित नहीं हैं।
मैं पूछती हूँ कि कैसे?
हम सुबह उठते हैं, पास के तालाब में जाते हैं, वहाँ स्नान करते हैं, कपड़े भी धोते हैं और पास लगे हैण्डपम्प से एक घड़ा पानी पीने के लिए ले आते हैं। न हमारे यहाँ वाशबेसन का चक्कर, ना लेट्रीन का चक्कर।

Thursday, April 2, 2009

लघुकथाएं : प्रभु की पूजा, बाबा और आम

लघु कथाएं गद्य की वो विधा है जो अपनी बात को संक्षिप्‍त रूप में कह देती है। लीजिए लघुकथाएं नियमित रूप से पढ़िए और अपनी टिप्‍पणी भी दीजिए।

प्रभु की पूजा

अपने घर में बने भगवान के आले में अगरबत्ती जलाकर भगवान को प्रणाम करने के लिए मेरे कदम कक्ष पहुंच जाते हैं। सामने भगवान की मूरत है, भगवान हँस रहे हैं। मैं उन्हें देख ठिठक जाती हूँ, अगरबत्ती की ओर बढ़े मेरे हाथ रुक जाते हैं। मैं क्यों पूजा कर रही हूँ? मन प्रश्न करता है। क्यों इस नन्हें कृष्ण को नहलाती हूँ? क्यों इसे लड्डू का भोग लगाती हूँ? क्यों इसका शृंगार करती हूँ? एक दिन मेरा मन भी इस नन्हें कृष्ण को पुत्र रूप में पाने के लिए नहीं मचल उठेगा? क्या मेरा मन नहीं करेगा कि इसे छू लूँ, इससे बातें कर लूँ? जब भी मन ने किसी रिश्ते को पकड़ना चाहा क्या वह मेरे हाथ लगा? मन उन रिश्तों की टूटन से कितना द्रवित हुआ था तो एक अपेक्षा फिर क्यूँ। मैं केवल प्रभु को मेरे मन के अंदर ही रखूंगी, उनको किसी भी रूप में कैद नहीं करूंगी। पट बंद हो गए और साक्षात दर्शन भी, अब केवल मन की आँखें खुली थीं।

बाबा

बड़े दिनों बाद सपना अपने मैके गयी है, भाई के चेहरे पर प्रसन्नता नहीं है, भाभी के चेहरे पर भी नहीं। वह कारण जानना चाहती है, पूछती है कि कोई विशेष बात हुई है? भाई कुछ नहीं बोलता लेकिन भाभी बताती है कि इन दिनों तुम्हारे पिताजी को न जाने क्या हो रहा है? सपना प्रश्नवाचक चिन्ह सा मुँह बनाकर भाभी की ओर देखती है। भाभी बताती है कि उनके गाँव से उनके एक भतीजे का बेटा आता है, उसे हम जानते हैं कि वह बड़ा चालबाज है। तुम्हारे पिता जो कभी किसी को भी एक पैसा नहीं देते, पता नहीं उसने ऐसा क्या जादू किया है कि वे उसे पैसा दे रहे हैं। सपना पिता के पास जाती है, उनसे पूछती है कि क्या प्रकाश आया था और क्या आपने उसे पैसे दिए हैं? वह कहते हैं कि हाँ दिए हैं। वह पूछती है कि आप तो कभी किसी को भी एक पैसा नहीं देते फिर प्रकाश को क्यों? वे बोलते हैं कि वह आकर मुझे बड़े प्यार से ‘बाबा’ कहकर बुलाता है, मेरे पास आकर बैठता है।

आम

सुनीता के घर नौकर के रूप में एक गाँव का लड़का काम करता है। वह वहीं रहता भी है। गर्मियों का मौसम है, इस बार आम की फसल बहुत अच्छी हुई है। रोज ही फ्रिज आम से भरा रहता। कई बार कुछ आम खराब भी हो जाते। कई बार सुनीता का मन होता कि एक आम लड़के को भी दे दे। लेकिन उसकी सास उसका हाथ पकड़ लेती, बोलती कि कहीं नौकरों को आम खिलाए जाते हैं? लड़का आम की तरफ देखता भी नहीं। एक दिन उसे छुट्टी चाहिए थी, बोला कि गाँव जाना है, सुबह वापस आ जाऊँगा। सुनीता ने उसे छुट्टी दे दी। दूसरे दिन लड़का आ गया, हाथ में उसके एक छोटा थैला था। सुनीता ने पूछा कि इसमें क्या है? वह बोला कि मेरे खेत में एक आम का पेड़ है, उसमें केरियां पकने लगी थी, इसलिए मैं दीदी के लिए कुछ चूसने वाले आम लेकर आया हूँ। दीदी को चूसने वाले आम पसन्द है न?