Thursday, March 31, 2011

दुनिया में बहुत रास्‍ते हैं बेईमानी के अलावा – अजित गुप्‍ता


इस ब्‍लाग जगत के जाने माने ब्‍लागर श्री अनुराग शर्मा ( स्‍मार्ट इंडियन) की अभी एक पोस्‍ट आयी थी शिक्षा और ईमानदारी।
मेरी टिप्‍पणी निम्‍न थी -
 ajit gupta said...
सच तो यह है कि कुछ बेइमानों ने सारे भारत को बदनाम कर रखा है। वे ही प्रचारित करते हैं कि बिना बेईमानी कुछ नहीं होता। यह सत्‍य भी है लेकिन इतना सत्‍य भी नहीं है। मुझे स्‍मरण नहीं कि मैंने अपने जीवन में कभी बेईमानी से समझौता किया हो। आज यदि ईमानदारी प्रदर्शित होने लग जाए तो तस्‍वीर का उजला पक्ष सामने आएगा।
श्री अनुराग शर्मा जी ने मुझे लिखा है कि मैं इसे उदाहरण सहित बताऊँ कि कैसे बेईमानी से लड़ा जा सकता है?
आज यह पोस्‍ट इसी विषय पर है। जीवन जीने के दो मार्ग है, एक मार्ग है जिस पर सभी लोग चलना चाहते हैं और वो है अभिजात्‍य वर्ग वाला मार्ग।
1 अर्थात् मेरा बच्‍चा नामी गिरामी स्‍कूल में पढ़े, जिस विषय से समाज में प्रतिष्‍ठा बढ़ती हो बच्‍चों को वही विषय में शिक्षा दिलायी जाए।
2 सरकारी नौकरी में मुझे इस शहर में ही नौकरी करनी है, ऐसी प्रतिबद्धता हो।
3 मुझे यथाशीघ्र प्रमोशन मिलें।
4 मेरे पास भौतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हो।
लगभग एक आम भारतीय इन्‍हीं विषयों पर चिन्‍ता करता है। लेकिन इसके विपरीत एक मार्ग और है, वो है कि -
1 मेरा बच्‍चा ऐसे स्‍कूल में पढ़े जहाँ ज्ञान मिलता हो। चाहे वह स्‍कूल सरकारी या छोटे स्‍कूलों में शामिल क्‍यों ना हो।
2 यदि सरकारी नौकरी करनी है तो कहीं भी नौकरी हो, उसे सहज स्‍वीकार करना।
3 प्रमोशन आपकी योग्‍यता के अनुसार होगा, उसके लिए छोटे मार्ग नहीं अपनाएंगे।
4 मेरे पास जितनी भी समृद्धि है वह भी प्रभु की कृपा से बहुत है।
अब जो पहले मार्ग को अपनाता है वह अपने बच्‍चों की शिक्षा के लिए ऐसे स्‍कूल का चयन करता है जहाँ उसे या तो सिफारिशी पत्र का सहारा चाहिए या फिर डोनेशन का। जब मेरा बेटा तीन वर्ष का हुआ तब उसके लिए स्‍कूल चयन की बात आयी। मेरी प्रतिबद्धता भारतीय शिक्षा प्रणाली के प्रति है और मैं चाहती रही हूँ कि बच्‍चों पर ऐसा कोई प्रभाव नहीं पड़े जिससे उसकी चिन्‍तनधारा किसी एक वर्ग के लिए प्रभावित होती हो। ऐसे स्‍कूल शहर में मिलने दुर्लभ थे। लेकिन मुझे झूठी प्रतिष्‍ठा का कोई लालच नहीं था। मैंने उन्‍हीं दिनों अपना घर भी बदला था तो सारे ही स्‍कूल कुछ दूरी पर हो गए थे। मेरा मानना है कि बच्‍चे का घर के पास वाले स्‍कूल में ही पढ़ाना चाहिए। मैंने देखा एक स्‍कूल का बोर्ड मेरी कॉलोनी में ही लगा है। अभी खुलने की तैयारी में है, बेहद छोटा सा। संचालक कौन है, मालूम पड़ा कि जाने माने शिक्षाविद इसे चलाएंगे। मैंने मेरे बेटे का तुरन्‍त प्रवेश करा दिया और मेरा बेटा उस स्‍कूल का प्रथम छात्र था। आज वह स्‍कूल उदयपुर के श्रेष्‍ठ स्‍कूलों में गिना जाता है।
मुझे मेरे साथियों ने बहुत कहा कि आप केवल 20 छात्रों की संख्‍या वाली कक्षा में बच्‍चे को पढ़ा रहे हैं, इसका कैसे मूल्‍यांकन होगा? मेरा एक ही उत्तर होता था कि मुझे इसे केवल इंसान बनाना है कोई मशीन नहीं बनाना है। इसके बाद जब उच्‍च कक्षाओं में बच्‍चों को जाने का अवसर मिला तो मैंने केन्‍द्रीय विद्यालय को चुना। जहाँ के अध्‍यापक तक कहने लगे कि अरे आप इतने अच्‍छे स्‍कूल से निकालकर बच्‍चों को सरकारी स्‍कूल में क्‍यों पढ़ाना चाह रहे हैं? मैंने उनसे यही कहा कि अब ये उच्‍च कक्षा में आ गए हैं इन्‍हें श्रेष्‍ठ और योग्‍य अध्‍यापक चाहिए, क्‍या आपसे अधिक योग्‍य अध्‍यापक अन्‍य स्‍कूलों में हैं? आप सच मानिए मेरे बेटे ने बिना किसी ट्यूशन और कोचिंग के इंजीनियरिंग एन्‍ट्रेस टेस्‍ट पास किया था। मेरी बेटी भी मेरिट में थी। जहाँ हमारे साथियों ने अपनी बच्‍चों की पढ़ाई पर न जाने कितने पैसे फूंके थे, मैंने उनके सामने बहुत कम पैसा खर्च किया था।
बेटी ने इंजीनियर और डॉक्‍टर बनने से मना कर दिया, मैंने कभी प्रतिष्‍ठा का विषय नहीं बनाया। उसे कहा कि जो तुम्‍हें करना हो वह करो। उसने फिर एमबीए किया।
हम अक्‍सर सिफारिश और रिश्‍वत का सहारा अपनी नौकरी के लिए करते हैं। मनचाही जगह पोस्टिंग हो। मैंने इसे कभी स्‍वीकार नहीं किया। मैंने कहा कि यदि मुझे राजस्‍थान के सुदूर गाँव में भी नौकरी करनी पड़ी तो करूंगी लेकिन कभी भी सिफारिश का सहारा नहीं लूंगी। परिणाम निकला कि कुछ दिनों बाद ही मुझे उदयपुर महाविद्यालय में लेक्‍चरशिप मिल गयी, जो एक मात्र आयुर्वेद कॉलेज था इसकारण कहीं भी स्‍थानान्‍तरण का अवसर नहीं था।  
प्रत्‍येक व्‍यक्ति प्रमोशन के लिए अनुचित मार्ग अपनाता है। मैंने कहा कि मेरी तो एक ही चाहत थी कि मुझे कॉलेज में प्राध्‍यापक की नौकरी मिले बस वो भगवान ने पूरी कर दी अब कुछ नहीं चाहिए। मुझे वैसे भी बीस वर्ष के बाद सामाजिक कार्य और लेखन के लिए नौकरी छोड़नी थी तो किसी प्रमोशन की वैसे भी इच्‍छा नहीं थी। इसलिए हमेशा बिंदास रहे और सभी लोग इज्‍जत की निगाह से देखते रहे। लेकिन जो अपना स्‍वाभिमान बनाकर चलता है उसका भगवान भी ध्‍यान रखता है। मैंने स्‍वैच्छिक सेवानिवृति ली और उसके बाद भी मुझे प्रोफेसर पद पर प्रमोशन मिला।
ऐसे ही मेरे पास भी गाडी हो बंगला हो कभी सोचा भी नहीं। बस एक ही बात का चि‍न्‍तन था कि मैं अपने परिवार की जिम्‍मेदारियों को सहर्ष पूरा करूं। मैंने ना केवल पारिवारिक जिम्‍मेदारियों को पूरा किया अपितु आज भगवान की दया से सभी कुछ है मेरे पास। बस मुझे इतना ही चाहिए, ज्‍यादा तो मुझे हिसाब करना भी नहीं आता।
पोस्‍ट लम्‍बी हो जाएगी इसलिए इसे यहीं विराम देती हूँ। अभी जीवन के ऐसे बहुत से प्रकरण हैं जिन्‍हें हमने सादगी के साथ ही जीया। अगली कड़ी में उन्‍हें भी लिखने का प्रयास करूंगी। हाँ अन्‍त में एक बात और कि मैंने अपनी इस पोस्‍ट में जगह जगह लिखा है कि मैंने यह किया, असल में बच्‍चों की सारी चिन्‍ताएं मेरी ही हैं, मेरे पति हमेशा से ही मुझसे सहमत रहते हैं।   

Saturday, March 26, 2011

नानी दवा खा लो



बाहर अमलताश फूल रहा है, नीम भी बौराया सा है, मन्‍द-मन्‍द समीर के साथ एक मदमाती गंध घर के अन्‍दर तक घुस आयी है। एक गहरे नि:श्‍वास के साथ उस गंध को अपने अन्‍दर समेटने का प्रयास करती हूँ, साथ ही एक नन्‍हीं सी गंध भी नथुनों में भर जाती है। कमरे में पंखा भी अभी ठण्‍डी हवा दे रहा है और इन सारी गंधों ने आँखों की पुतलियों को मदहोश सा कर दिया है। एक खुमारी सी छा गयी है सम्‍पूर्ण तन और मन में। अलसायी सी घड़ी में न जाने क्‍यों पैर अकुला से रहे हैं। जैसे-जैसे हाथों का स्‍पर्श पाते है, उनकी टीस बढ़ सी जाती है। मैंने हौले से पैरों से पूछ लिया कि क्‍यों टीसते हों? इतने आराम में भी यह कैसी टीस है? तभी कानों में एक गूँज गुनगुन कर जाती है नानी दवा ले लो।
मन झूम उठता है, अरे मिहू तुम कहाँ हो? नहीं कोई नहीं है और पैर टीसना चालू रखते हैं। तुम्‍हारे पीछे दौड़ते हुए तो मरे ये पैर कभी शिकायत नहीं करते थे? अभी दो घूंट पानी हलक के नीचे भी नहीं उतरा था कि तुम ठुमकती हुई आ जाती थी नानी सू सू आ रही है। मैं जानती थी कि सू सू का तो बस बहाना है, असल में तो कपड़े खुलवाने की मौज तुम्‍हारी आँखों में तैर रही होती थी। लेकिन यह ऐसा बहाना था कि जानकर भी दौड़कर उठना पड़ता था। तुम्‍हें जल्‍दी से सू सू कराना पड़ता था और वो क्षण? जैसे ही तुम कपड़ों के बंधनों से मुक्‍त हुई और कैसे तो दोनों पैरों को झुकाकर नाच उठती थी। तुम्‍हारी आँखें बोल रही होती थी कि देखो मेरी जीत हो गयी। मैं चड्डी लेकर तुम्‍हारे पीछे दौड़ती थी, कभी बोलती मिहू ------- चलो आओ। लेकिन तुम्‍हें तो मजा आ रहा होता मुझे नचाने में। फिर प्‍यार से बोलती मेरी चीयां आ जा, देख तू कितनी अच्‍छी है, बेटा कपड़े पहनते हैं। जब ये मुए पैर कभी भी इतराते नहीं थे, अहसास ही नहीं होता था कि ये हैं भी।
तुम्‍हारा एक नारा सबसे अनोखा था किचन में चलो। तुम गोद में अट जाती थी और किचेन में न जाने कितने दिन पहले छिपायी हुई चीज तुम्‍हें याद आ जाती थी। मैं खोजती ही रहती कि कहाँ है, लेकिन तुम बता देती कि फ्रिज के ऊपर छिपायी हुई है चाकलेट। अरे ये तो एक महिने पहले छिपायी थी, उसकी माँ बोल उठती। झट से पूरा डिब्‍बा ही मेरे हाथों से छीन लेती और फिर कितनी ही पीछे भागो लेकिन मजाल है जो डिब्‍बा छीन लो। भागना भी कितना होता है, आजकल के फ्‍लेटों में? यहाँ मेरे घर आती तो पता लगता इन इतराने वाले पैरों को? पूरे घर के कितने चक्‍कर लगा देती लगता कि एक बॉल खेलकर ही मानो दौड़कर दस रन बना लिए हों। कैसी अजीब-अजीब जिद थी तुम्‍हारी? बिस्किट खाने है, लो खा लो। नहीं दूध के साथ खाने है। अब दूध तो छंटाक भर और बिस्किट चार खा लिए गए। चम्‍मच में दूध भरा जाता और तुम टुकड़े तोड़-तोड़कर उसमें बिस्किट डालती और जैसे ही चम्‍मच को मुँह में डाला, बिस्किट सुड़ुप और दूध वहीं का वहीं। अरे अरे यह क्‍या है, चलो दूध भी पीओ। नहीं तो यह नन्‍हें पैर कैसे मजबूत होंगे? लेकिन दूध के नाम से तो उसकी आँखों के गोले घूम जाते और बहुत ही शरारती अदा के साथ दुध्‍धू बोलकर माँ के सामने देखती। माँ क्‍या करे, पूरे दो साल तक तो पिलाया है लेकिन दो महिने होने आए मोह छूटता ही नहीं। दूध पीना है तो केवल माँ का, बाकि तो फिर डे-केयर वाले ही पिला सकते हैं। यहाँ तो बस दूध पीने का केवल नाटक भर है। तभी उसकी छोटी-छोटी अंगुलियां घूम जाती और पोरों को गोल-गोल घुमाकर बोलती कि अंगूर। अरे अब बीच में ही अंगूर कहाँ आ गए?
चल उठती हूँ, फ्रिज में से एक गुच्‍छा अंगूर निकाला और उसने थाम लिए। देखा कि अरे अंगूर तो समाप्‍त होने वाले हैं, अब क्‍या करूं? यहाँ कॉलोनी में तो अंगूर मिलते नहीं, अब? मिहू के पापा तो लंदन गए हुए हैं और मैं यहाँ के रास्‍ते जानती नहीं। मम्‍मा भी ऑफिस है और उसके रास्‍ते में भी अंगूर नहीं मिलेंगे। सोच में पड़ जाती हूँ। दिन में जैसे ही उसे डे-केयर छोड़ती हूँ, दौड़कर सब्‍जी वाले की दुकान पर पहुँच जाती हूँ। यह सोचकर कि अंगूर नहीं तो तरबूज तो मिल ही जाएगा। पैरों का खून रेंगने लगता है, लगता है कि जैसे पंख लग गए हों, बस एक ही धुन है कि कैसे भी कुछ मिल जाए। जैसे ही सब्‍जी वाली थड़ी जैसी दुकान के पास जाती हूँ, तो एकदम सकते में! अरे दुकान ही नहीं है, लेकिन बस एक ही क्षण में आँखे बता देती हैं कि चिन्‍ता मत करो, यह दुकान उठकर सामने आ गयी है। नये अंदाज के साथ। जैसे ही दुकान के पास जाती हूँ, एक पेटी भर अंगूर रखे हैं, एकदम ताजा और बेस्‍ट। आह मन पुलकित हो जाता है, बस फटाफट एक किलो तुलवा लेती हूँ। फिर ध्‍यान आता है कि दुकानदारी का तकाजा है कि भाव जरूर पूछना चाहिए तो नियम सा निभाते हुए भाव भी पूछ लेती हूँ। अब मुझे आजतक ही किसी का भाव मालूम नहीं हुआ तो पूछकर भी क्‍या होगा? तभी ध्‍यान आया कि कल ही तो बेटी ने बताया था कि साठ रूपए किलो हैं। बस अब तो मन शेर हो गया। अरे अस्‍सी रूपए कैसे? माना अंगूर बहुत अच्‍छे हैं तो सत्तर ले लो। वो भी एकदम से ही मान गया। मानता भी क्‍यों नहीं, क्‍योंकि मैंने केवल अंगूर का ही तो भाव पूछा था, बस दस्‍तूर निभा दिया और बाकि सारे अन्‍य फल और सब्जियों को तो बेभाव ही खरीद लिया। लेकिन मैं खुश थी, मेरी मिहिका के लिए अंगूर और तरबूज मिल गये थे। आज पहली बार ही पैदल चलकर थैला लटकाकर सब्‍जी लेने जो गयी थी। तभी से पैर भी इठलाते रहते है और आज अकेले बैठे-बैठे न जाने क्‍यों टीस रहे हैं।
तभी फोन की घण्‍टी बज उठती है, भागकर फोन उठाती हूँ, उधर से मिहू बोल रही है, नानी दवा ले ली? बस इन पैरों में जैसे आयोडेक्‍स मल दिया हो, और उस आवाज के साथ ही पिण्‍डलियों की थकान फुर्र हो गयी। घड़ी में देखा छ: बज गए हैं, अरे यह समय तो मिहू को डे-केयर से लाने का होता है। जल्‍दी से तैयार होने लगती हूँ, लेकिन अरे पुणे से तो परसों ही वापस आ गयी थी! जैसे ही मैं डे-केयर जाती और एकदम चहक उठती नानी आ गयी। दिव्‍या बोलती कि मिहू नानी आयी हैं तो झट से प्रतिवाद कर देती, नहीं मेरी नानी है। बस जल्‍दी से जूते पैरों पर डाले और बिना अंगुली पकड़े ही दरवाते के बाहर दौड़ पड़ती। मैं पीछे भागती, अरे रूक, धीरे, गिर जाएगी तो लग जाएगा। लेकिन जब स्‍कूल की छुट्टी होती है तो बस भागने का ही भाव मन में आता है। लेकिन उसे तब घर नहीं जाना होता, वो दौड़ पड़ती पार्क की ओर। नन्‍हें-नन्‍हें दो साल के पैरों को लेकर झट से चढ़ जाती रिसट-पट्टी पर। मैं धीरे-धीरे ही कहती रहती। जैसे ही रिपसने को तैयार होती मैं दौड़कर नीचें रिपसती हुई उसे पकड़ लेती। कितने ही चक्‍कर कटा देती वो लेकिन तब ये पैर नहीं दुखते थे। पूरा एक घण्‍टा खेलकर ही घर जाने का नाम लेती। अब मम्‍मा के आने का भी समय हो जाता। लेकिन अभी दरवाजा खोला भी नहीं कि सामने वाला एक वर्षीय ऑरेक दिखायी दे गया। बस ऑरेक बेबी के साथ खेलना है। उसके खिलौनों के साथ खेलना जायज है लेकिन अपने खिलौने उसे देना गैरकानूनी सा है। पूरा कमरा खिलौनों से भरा पड़ा है लेकिन सब बेकार। सीडी और कम्‍प्‍यूटर का जमाना आ गया है। सीडी में कितनी पोयम है सारी ही याद हैं, और एक के बाद एक लगाते चलो, आप थककर चूर हो जाओ लेकिन उसकी और समाप्‍त नहीं होती।
आजकल पैदा होते ही एबीसीडी सिखा दी जाती है और साथ में वन टू थ्री। लेकिन अ आ इ ई का पता नहीं। मिहू पॉटी में बैठी है, बोल रही है कि एबीसीडी बोलो। मैंने कहा कि बोलों अ से अनार। उसे अचार का खूब शौक है तो बोली कि नहीं अ से अचार। अब मैंने अ से अचार और आ से आम ही सिखाना शुरू कर दिया। दो दिन बाद ही मम्‍मा को बता दिया कि अ से अचार और आ से आम, इ से इमली और ई से ईख। अरे यह कब सीख लिया, मम्‍मा एकदम से खुश हो गयी। बस लेकिन इन पैरों की सारी मशक्‍कत तो रात को होती जब कपड़े पहनने के लिए पलंग के चक्‍कर लगाने पड़ते और सुलाने के लिए न जाने कितनी लोरियां और गाने गाए जाते। अब एक लोरी तो बना दी उसके लिए टिमटिम टिमटिम तारे बोलें, निदियां चुपके जाना। लेकिन गाना तो ऐसे जैसे मरी बिल्‍ली के मुँह से आवाज निकले। उसका फरमाइशी प्रोग्राम चलता ही रहे। लेकिन यह अच्‍छी बात थी कि मैंने लोरी टूटी-फूटी या मरी बिल्‍ली की आवाज में रिकोर्ड कर दी थी तो बस वो चलती ही रहती। जैसे ही बन्‍द होती, उसकी आवाज आ जाती नानी टिमटिम तारे बोले। एक दिन तो एक नया प्रयोग ही कर डाला, गायत्री मंत्र बोलना शुरू किया अरे उसे तो वो भी याद था और बस झट से सुनकर सो गयी। दूसरे दिन भी बोली कि भूर्भव: सुनाओ।
लेकिन अब बस आराम ही आराम हैं, जब एक पैर पर खड़े होकर दौड़ लगानी पड़ रही थी तब ये नालायक कभी नहीं फड़फड़ाते थे लेकिन अब आराम में इन्‍हें अवसर मिल गया है। बस फोन की घण्‍टी पर ही कान लगे हैं कि कब आवाज सुनाई देगी नानी दवा खा लो। दवा भी कैसी, केलशियम और बुढापे में पैर जुड़ा नहीं जाए उसके लिए अमेरिका से एक दवा ले आयी थी, बस वो दो गोली रोज लेनी होती थी। अब रात का खाना खाकर गोली ले लेती थी लेकिन उसे तो मुझे याद दिलाना ही नहीं था बस हाथ पकडकर सूटकेस तक ले जाती और वहाँ से दवा की डिब्‍बी निकालती और फिर दवा को खुद गिनकर मेरे हाथ में रखती। कई बार तो मेरे मुँह में भी वो ही रखती। मैं उससे कहती कि अरे अभी खाना नहीं खाया है। लेकिन उसने कह दिया तो बस ले लो दवा। बड़ी मुश्किल से उसे मनाना पड़ता और उसका ध्‍यान हटाना पड़ता। लेकिन जैसे ही खाना होता उसे फिर ध्‍यान आ जाता और फिर वही नानी दवा खा लो
  

Wednesday, March 16, 2011

जिन्‍दगी का यह कौन सा पाठ है? - अजित गुप्‍ता



आज सुबह रश्मि रविजा जी से चेट पर मुलाकात हो गयी, पूछने लगी कि पुणे में कैसे बीत रही है? मैने कहा कि लग रहा है कि भगवान ने किसी ट्रेनिग पर भेजा है। आप लोग कहेंगे कि एक मॉं अगर अपनी बेटी के घर आकर रहे तो भला इसमें काहे की ट्रेनिंग? लेकिन आप को क्‍या बताएं, हमारी आपबीती? अब देखिए हम ठहरे छोटे शहर के लोग, हमारा दिन ही ठहराव के साथ शुरू होता है, खरामा खरामा। सुबह समाचारपत्र और टीवी के साथ हम पति-पत्‍नी बड़ी तसल्‍ली से चाय पीते हैं और फिर वे अपने क्लिनिक पर और हम अपने नेट पर। लेकिन पुणे जैसे महानगर में यह सम्‍भव नहीं है। यहॉं चाय पीने के लिए समय निकालना पड़ता है। शुरू के कुछ दिन तो मुझे चाय कभी 9 बजे तो कभी उसके भी बाद नसीब हुई लेकिन अब गणित समझ आने लगा है तो उठते ही सबसे पहले अपनी चाय का बंदोबस्‍त करती हूँ। यहॉं जल्‍दी उठना तो महज कल्‍पना ही है क्‍योंकि जल्‍दी सो जो नहीं सकते। अब जब चाय बनाने लगती हूँ तो सबसे पहले काम करने वाली से पूछ लेती हूँ कि चाय पीनी है? कभी तो वह आर्डर सा मारती हुई कह देती है कि हॉं बना लो, तब उसका आर्डर मारना भी चैन की सॉंस बन जाता है। मेरे यहॉं तो हमेशा मेरी कामवाली ही पूछती है कि चाय बनाऊं? लेकिन कोई बात नहीं यहॉं बड़ा शहर है तो कुछ तो बदलाव होगा ही ना? लेकिन यदि वह मना कर दे कि नहीं आज चाय नहीं पीनी है तब कई प्रश्‍न एक साथ मन में आने लगते हैं। नाराज तो नहीं हो गयी? मेरे पूछने में कहीं कोई गड़गड़ तो नहीं थी? आदि आदि। फिर पूछ ही लेती हूँ कि क्‍यों नहीं पीनी? तो वह बड़े ठसके के साथ कहती है कि आण्‍टी क्‍या है ना कि आजकल गर्मी हो गयी है तो ज्‍यादा चाय चलती नहीं है। वह नाराज नहीं है यह सोचकर भगवान को धन्‍यवाद देती हूँ। अब जैसे ही चाय बनाकर पीने लगती हूँ बेटी पूछ लेती है कि आपने मीरा की चाय नहीं बनायी? अरे भाई उसने मना किया था, क्‍या करूं?

मुझे पद्मा सचदेव की याद आ जाती है, उन्‍होंने एक उपन्‍यास लिखा "इन बिन", अरे नहीं समझे? इनके बिना याने कामवालों के बिना आप कितने अधूरे हैं। मुझे लगता है कि मैं तो दो-चार दिन में चले जाऊंगी लेकिन यदि मेरे किसी भी व्‍यवहार से इनकी नौकरानी भाग गयी तो बस भूचाल ही आ जाएगा। नौकरानी भी यदि स्थानीय हो तो समस्‍या अधिक है, क्‍योंकि वह दूसरे को भी नहीं आने देगी। फरमान जारी हो जाएंगा कि इनके यहॉं काम ज्‍यादा है कोई नहीं जाए। बस फिर क्‍या है आप लाख सर पटक लो क्‍या मजाल कोई आपके यहॉं काम कर ले। एक बात का ज्ञान और हुआ मुझे। ये आपकी परीक्षा भी ले लेती हैं कि आपमें कितना दम है? मैं यहॉं आयी ही थी कि दो-चार दिन बाद अचानक ही मेम साहब नहीं आयी। बेटी मेरा मिजाज जानती है उसने पडोस में कहा कि आप अपनी भेज देना, मम्‍मी को आदत नहीं है। अब मुझे लगा कि यहॉं कुछ सीख ही लेना चाहिए तो मैं डट गयी वाशबेसन पर बर्तनों के साथ। पडोस में भी मना कर दिया कि नहीं मैने ही सब कर लिया है। अब जब दूसरे दिन उसे मालूम पड़ा कि मैंने सारा काम कर लिया तो उसे लगा कि ये तो परेशान ही नहीं हुए। शायद मैं उसकी परीक्षा में पास हुई थी।

अब एक और है, केवल शाम के लिए खाना बनाने आता है। गिनकर रोटियां बनाता है यदि एक भी रोटी ज्‍यादा हो जाए तो आपका रिकोर्ड बिगड जाएगा। उसमें लिखा जाएगा कि इनके यहॉं मेहमान ज्‍यादा आते हैं। अब हमारे यहॉं तो रोज कोई भी टपक जाता है, कभी कोई शिकायत नहीं। हॉं हम भी पूरा ध्‍यान रखते हैं और बराबर से उसका हाथ काम में बंटाते हैं। थोड़ा भी काम ज्‍यादा हुआ नहीं कि अलग से पैसे दे देते हैं। पैसे तो यहॉं भी देने पड़ते हैं लेकिन काम उतना ही। अब उसे देखते ही मेरा डर फिर बाहर निकल आता है और उससे कहती हूँ कि भैया जितनी रोटी हमेशा बनाते हो उतनी ही बना लो और रही सब्‍जी की बात तो काट के रख दो मैं ही बना लूंगी। अब जब शाम को बेटी आती है तो कहती है कि आप उससे काम क्‍यों नहीं कराती? अब हम ठहरे छोटे शहर वाले अपनी इज्‍जत से बड़ा डर लगता है, क्‍योंकि और तो कुछ हमारे पास होता नहीं तो बस इज्‍जत को लेकर ही बैठे रहते हैं कि कोई यह ना कह दे कि उनके कारण हमारा नौकर छोड़कर चला गया।

अब आप सोच रहे होंगे कि हमने पहली पोस्‍ट में तो लिखा था कि महानगरों में नौकरों के सपने नहीं होते और अब आप लिख रही हो कि इनसे डरकर रहना पड़ता है। तो नौकर भी कई प्रकार के होते हैं। स्‍थानीय नौकरों की पूरी दादागिरी है और जो बाहर से आए हैं वे अपने बेहतर भविष्‍य के लिए चाहे सपने ना देखे लेकिन कामचोरी जरूर सीख लेते हैं। फिर जो लड़के हैं वे तो कमाई के जरिए ढूंढ ही लेंते हैं। यदि ये लोग सपने देखने लगें तो अच्‍छे मालिक और बुरे मालिक का अन्‍तर भी समझने लगेंगे और फिर इनके सपने भी पूरे होंगे। लेकिन ये तो बस चन्‍द पैसों के लिए ही जीते हैं। खैर मैं यहॉं नौकरों की मानसिकता से अधिक अपनी मानसिकता को लिख रही हूँ कि कैसे बदल गयी है यहॉं आकर। मुझे लगने लगा है कि मैं भी सुपर हाउस वाइफ में तब्‍दील होती जा रही हूँ। ना ज्‍यादा पोस्‍ट पढ़ पाती हूँ और ना ही टिप्‍पणी कर पाती हूँ। इसलिए जो हाउस-वाइफ रहकर ब्‍लागिंग की दुनिया में मजबूती के साथ डटी हुई हैं उन्‍हें मैं प्रणाम करती हूँ। यहॉं तो लग रहा है कि दिमाग शून्‍य हो चला है क्‍योंकि यहाँ घरों के अन्‍दर ही करण्‍ट है बाहर तो एकदम शान्ति रहती है। कहॉं से मिले नयी कहानी? चलो अब बन्‍द करती हूँ आप लोग बोर हो रहे होंगे। इतना पढ़ा उसके लिए आभार। अपनी नातिन के जलवों के बारे में अलग से लिखूंगी। बस अभी तो लहरों पर हूँ, जीवन का नया पाठ पढ़ रही हूँ। सोचा आप लोगों से ही सांझा कर लूं बाकि तो बात करने की किसी को फुर्सत नहीं है।



Tuesday, March 8, 2011

सपनों के बिना जीते हैं महानगरों में घरेलू नौकर – अजित गुप्‍ता




कई दिनों से पुणे में हूँ, कुछ दिनों तक नेट उपलब्‍ध्‍ा नहीं हुआ तो ब्‍लाग पर झांकने का भी अवसर नहीं मिला। अब एक दो दिन से नेट के दर्शन हुए हैं, आप लोगों की कुछ पोस्‍ट भी पढने का अवसर मिला है लेकिन अभी टिप्‍पणी नहीं कर पायी। आजकल में व्‍यवस्थित होने का प्रयास रहेगा फिर सबकुछ पहले जैसा।

उदयपुर और पुणे में बहुत बड़ा अन्‍तर है। कहॉं छोटा सा लगभग 5 लाख की जनसंख्‍या का शहर और कहॉं 50 लाख की जनसंख्‍या को पार करता शहर? उदयपुर में 10 से 15 किमी में पूरे शहर को नापा जा सकता है लेकिन पुणे में कहीं नजदीक भी जाना हो तो 10 किमी तो मामूली सी बात है। उदयपुर में आमतौर पर एक सी जनसंख्‍या है, यदि राजस्‍थान के बाहर के लोगों को ढूंढा जाए तो अन्‍य प्रान्‍तों के लोग छोटे-छोटे समूहों में मिलेंगे। मजदूर और घरेलू नौकर भी आमतौर पर आसपास के क्षेत्र के ही हैं। जहॉं कन्‍सट्रक्‍शन के बड़े काम हो रहे हैं वहॉं पर बिहार और यूपी की लेबर मिल जाएगी, इतना ही बस। लेकिन पुणे में एक बात आम दिखायी देती है। बड़ी-बड़ी सोसायटी में हजारों फ्‍लेट बने हैं, उन में सम्‍पूर्ण देश के लोग रह रहे हैं। एक फ्‍लेट में बंगाली है तो दूसरे में मलयाली और तीसरे में पंजाबी। सब की भाषाएं अलग हैं। लेकिन मुझे जिस बात ने सोच में डाला वो कुछ अलग है। सोचा कि आप सभी से अपनी सोच को सांझा कर लूं?

पुणे कभी सेवानिवृत्‍त लोगों का शहर हुआ करता था, बहुत ही सुन्‍दर और मनोनुकूल मौसम। ना ज्‍यादा सर्दी और ना ही ज्‍यादा गर्मी। घरों में पंखे भी नहीं। लेकिन जब से आईटी सेक्‍टर ने पुणे में प्रवेश किया है तब से ही यहॉं जनसंख्‍या का विस्‍फोट हुआ है। युवा दम्‍पत्‍ती नौकरी के लिए सम्‍पूर्ण देश से पुणे के लिए आना शुरू हुए तो घरेलू नौकरों की समस्‍या भी आन खड़ी हुई। आखिर पुणे शहर से तो लाखों लोगों के लिए घरेलू नौकर उपलब्‍ध कराए नहीं जा सकते। नौकरी पर सुबह 8 से 9 के बीच घर से निकलना ही पड़ेगा और पति-पत्‍नी दोनों ही जब नौकरी में हो तो घरेलू नौकर आवश्‍यक हो जाता है। लेकिन इतनी सुबह कैसे नौकर मिले? रात को घर आने के बाद भी कैसे नौकर मिले? यह यहॉं की आम समस्‍या बनी हुई है। बंगाल से नौकरी के लिए पुणे में हैं, छोटा बच्‍चा भी है, उसे बंगाली खाना और बंगला भाषा भी अनिवार्य है। तो क्‍या करें? बिहार का व्‍यक्ति भी स्‍थानिय नौकर के सहारे खुश नहीं रह सकता। ऐसे में बंगाल, बिहार, केरल, पंजाब, राजस्‍थान आदि सभी प्रान्‍तों से 15 से 25 वर्ष के युवा नौकर आपको घरों में सेवा देते मिल जाएंगे।

मुझे बड़ा अजीब सा अनुभव हुआ जब 25 वर्ष के लड़के को या इतनी ही आयु की लड़की को शाम के समय किसी बच्‍चे को गोद में लेकर पार्क में खिलाते हुए देखने पर। वे बरसों से यहॉं रह रहें हैं, बात करने के लिए उस घर के दो-तीन लोगों से ज्‍यादा नहीं है। वो भी कितना समय? मैं यहॉं एक माह के लिए यहॉं आई हूँ और अकेलेपन का संत्रास को अनुभूत कर रही हूँ तो ये बेचारे युवा? इनके भी तो सपने होंगे? इनकी भी तो शारीरिक ओर मान‍सिक जरूरते होंगी? ऐसा ही एक लड़का मेरे यहॉं भी शाम का खाना बनाने आता है, उसने बताया कि गॉंव में सब लोग हैं, बस वो ही बचपन से घर से दूर है। जिस परिवार के साथ यहॉं पुणे में रह रहा है बस उसे ही अपना परिवार मान रहा है। कभी-कभी छुट्टियों में गॉंव जा आता है। मुझे लगता है कि जैसे पूर्व में महिलाएं अपना शोषण अनुभूत नहीं करती थी और उसे ही अपना जीवन मानकर खुश रह लेती थी वैसे ही ये घरेलू नौकर खुश रह लेते हैं। लेकिन पर्दे के पीछे अनेक कहानियॉं तो जन्‍म लेती ही होंगी? मैंने इस समस्‍या का एक पहलू लिखा है लेकिन न जाने कितने पहलू नेपथ्‍य में हैं? आप जब अपनी प्रतिक्रिया देंगे तब न जाने इस समस्‍या को कितने आयाम मिलेंगे? इसलिए बस अब आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार है जिससे इस समस्‍या के विविध पहलू समाज के समक्ष आ सकें।