Sunday, May 21, 2017

माँ को भी जीने का अधिकार दे दो

इन दिनों सोशल मीडिया में माँ कुछ ज्यादा ही गुणगान पा रही है। हर ओर धूम मची है माँ के हाथ के खाने की। जैसै ही फेसबुक खोलते हैं, एक ना एक पोस्ट माँ पर होती है, उसके खाने पर होती है। मैं भी माँ हूँ, जैसे ही पढ़ती हूँ मेरे ऊपर नेतिक दवाब बढ़ने लगता है, अच्छे होने का। अभी हम जिस जमाने में जी रहे हैं, वहाँ संयुक्त परिवार विदा ले चुके हैं, अब तो एकल परिवार ही दिखायी दे रहे  हैं। शिक्षा के कारण युवा एकल परिवार से भी वंचित हो गया है, अब युवक और युवती दोनों को ही अकेले किसी महानगर या विदेश में जीवन यापन करना होता है। विवाह की भी बात कर रही हूँ, जरा रूकिये। विवाह होने के बाद एक से दो हो जाते हैं लेकिन दोनों ही रसोई से अनजान होते हैं। जैसे-तैसे पेट भरने का जुगाड़ कर लिया जाता है लेकिन भोजन की तृप्ति क्या होती है, वे भूल ही जाते हैं। अब माँ याद आती है, माँ कैसा भी भोजन बनाती थी लेकिन वे जो खा रहे हैं उससे तो लाख गुणा अच्छा ही  होता था। जब ऐसी परिस्थिति अपने घर में भी देखती हूँ तो मेरे ऊपर नैतिक दवाब स्वाभाविक रूप से पड़ने लगता है और मैं कुछ नया और कुछ रुचिकर बनाने की ओर ध्यान देने लगती हूँ।
अब अपनी माँ के बारे में सोचती हूँ, वह सीधा-सादा भोजन बनाती थी, हमें बिना हाथ हिलाये भोजन मिलता था तो परम स्वादिष्ट ही लगता था  लेकिन दुनिया में आने वाले नये व्यंजनों को बनाने की शुरुआत हम ही करते थे। हम से मतलब नयी पीढ़ी है। हमें हमारी माँ के हाथ से बने भोजन की आदत सी हो जाती है और मन करने लगता है कि वही स्वाद हमें मिलता रहे। लेकिन माँ क्या चाहती है, यह कोई नहीं सोचता! जैसे ही नयी पीढ़ी आंगन में अंगड़ाई लेने लगती है, माँ भी सोचने लगती है कि अब मुझे भी कुछ नया व्यंजन खाने को मिलेगा। लेकिन ऐसा होता नहीं है। बस माँ तू अच्छी है, यही गुणगान सुनकर चुप लगा जाती है। भारतीय परिवारों में अभी तक नासमझी बरकरार है कि बेटे का घर बसेगा और बहु आकर सास की सेवा करेगी। माँ पलक-पाँवड़े बिछा देती है कि अब तो मुझे भी कोई भोजन कराएगा। लेकिन यह क्या बहु तो बेटे से भी अधिक कोरी निकल जाती है। उसने भी केवल शिक्षा पर ही ध्यान दिया, पेट कैसे भरा जाएगा चिन्तन ही नहीं किया!
बेचारी माँ, बुढ़ापे में भी रसोई में अपनी टूटी कमर को लेकर साधी खड़ी रहने का प्रयास करती है और माँ के हाथों में जन्नत  है इस बात को पोर-पोर से सुनती हुई खाना बनाने को मजबूर होती रहती है। कोई बेटा नहीं कहता कि माँ मैं तेरी सेवा करना चाहता हूँ, तू मेरे पास चली आ, बस सभी यह कहते सुने जाते हैं कि माँ तेरे हाथ के खाने का मन कर रहा है। माँ महान होती है, पुत्र कपूत हो सकता है लेकिन माता कुमाता नहीं होती है। अरे बस भी करो, सारे भाषण! माँ को भी जीने का अधिकार दे दो। उसकी सेवाओं की भी उम्र तय कर दो। तुम सेवा नहीं कर सकते तो जाने दो लेकिन बुढ़ापे में उनकी उम्र पर तो गाज ना गिराओ।
अन्तिम बात, अब जब हम सारे काम खुद कर सकते हैं तो क्या लड़का और क्या लड़की दोनों को ही पेट भरने के और जीने के सारे ही काम सिखाइये। माँ को अनावश्यक महान मत बनाइये, वह भी जीवित प्राणी है, उसे भी कुछ चाहिये। माँ पर लिखने से पहले यह सोचिये कि क्या किसी माँ ने भी अपने बेटे पर लिखा कि उसने माँ का जीवन धन्य कर दिया हो। जब संतान बड़ी हो जाती है तब माँ का कर्तव्य पूरा हो जाता है, इसलिये परस्पर सम्मान और प्रेम देने की सोचिये ना कि खुद की नाकामी छिपाकर माँ को काम में जोतिए।

(सारी संतानों से क्षमा मांगते हुए)

Saturday, May 20, 2017

कितने घोड़ों को कुशल सवार मिलता है?

जब में नौकरी में थी और मुझे विश्वविद्यालय की एक मीटिंग में फेकल्टी सदस्य के रूप में जाना था। मेरी वह पहली ही मीटिंग थी और फिर अंतिम भी हो गयी। मीटिंग के दौरान ही मुझे समझ आ गया था कि मेरा अधिकार मुझ से छीन लिया जाएगा। अब आपको अपनी टीम में क्यों रखा जाता है? इसलिये की आप बॉस की हाँ में हाँ मिलाएं। मीटिंग में एक बहस शुरू की गयी जिसका कोई औचित्य नहीं था, औचित्यहीन बहस लम्बी खिंचती गयी आखिर मैंने प्रश्न कर लिया कि हम किस  पर बहस कर रहे हैं? बहस तत्क्षण ही समाप्त हो गयी। मेरे साथी ने कहा कि आप का प्रश्न आपको सदस्य बनाये रखने का औचित्य सिद्ध करता है, लेकिन मैं तब मन ही मन हँस दी थी कि यही प्रश्न मुझे मेरे अधिकार से वंचित कर देगा। यही हुआ! लोग फायदे का मार्ग ढूंढ रहे थे और मैंने बहस पर विराम लगवा दिया, यह तो बड़ा अपराध था। मेरे साथ हर जगह ऐसा  ही होता रहा, मेरी शक्ल  पर ही कुछ ऐसा लिखा है कि पहले तो लोग मुझे अपनी टीम में रखते नहीं और यदि किसी योग्य अधिकारी ने रख भी लिया तो उनके जाते ही सबसे पहले मेरा ही नम्बर आता  है बाहर करने में।
आप सोच रहे होंगे कि कौन सी रामायण लेकर मैं आज बैठ गयी हूँ! मैं आपको बताना चाह रही हूँ कि यदि आप किसी नेतृत्व की पड़ताल करना चाहते हैं तो उसकी टीम को देखें। उसकी टीम में नायाब हीरे हैं तो समझिये की वह व्यक्ति क्षमतावान है और यदि हमारा नेतृत्व ऐसे  हाथों में है जिसकी टीम में स्तरहीन लोग हैं तो समझ लीजिये कि यह हीरो नहीं जीरो है। यदि आपको किसी की टीम में बामुश्किल जगह मिलती है तो समझिये कि आप योग्य  हैं और यदि सभी आपको लेना चाहते हैं तो आप कमजोर व्यक्ति हैं। मैंने इस बात को अच्छी तरह समझ रखा है और हमेशा अव्वल दर्जे के प्रबुद्ध व्यक्ति के साथ जुड़ती  हूँ लेकिन पता नहीं क्या होता है कि मुझे अधिकतर निराशा  ही हाथ लगती है। योग्य व्यक्ति मुझे काम तो करने देते हैं लेकिन हमेशा कमतर सिद्ध भी करते रहते हैं और अयोग्य व्यक्ति तो ऐसा वातावरण बना देते हैं कि मैं स्वयं  ही काम छोड़ दूं।
एक बात पर और विचार करते हैं कि कभी आपने इस बात पर गौर किया है कि एक युवती अपने विवाह के समय कैसा वर चाहती है और एक युवक विवाह के समय कैसी वधु चाहता है? शत-प्रतिशत युवतियाँ अपने से अधिक योग्य व बुद्धिमान युवक से विवाह करना चाहती हैं जबकि शत-प्रतिशत युवक अपने से कम योग्य और कम बुद्धिमती युवती से विवाह करना चाहते हैं। वैवाहिक विज्ञापन में लिख दिया जाता है कि शिक्षित और प्रबुद्ध कन्या चाहिये लेकिन जैसे ही परिचय-पत्र हाथ में आता है तब कहा जाता है कि अरे लड़का तो स्नातक ही है और लड़की स्नातकोत्तर नहीं चलेगी। ऐसा ही कन्या के माता-पिता भी कहते हैं कि लड़की से कम पढा-लिखा लड़का नहीं चलेगा।

हमारे समाज ने एक धारणा बना दी है कि लड़की को कमतर रखो और लड़के को सुरक्षित  रखने के लिये प्रयास करो। लड़की योग्य वर पाकर भी राज करती है और लड़का अयोग्य पत्नी पाकर भी दबा  हुआ अनुभव करता है। इसका अर्थ है कि लड़की में वंशानुगत आत्मविश्वास है और उसके अन्दर असुरक्षा का भाव नहीं है। तभी तो वह अनजान परिवार में  भी अपना अधिपत्य बना लेती है और लड़का बेबस दिखायी देने लगता है। लड़कों में वंशानुगत असुरक्षा का भाव शायद होता है तभी तो सारा समाज उसकी चिन्ता करता है और वह अपने कार्यस्थल पर भी अयोग्य व्यक्तियों के सहारे ही काम करता है। ऐसे कितने लोग हैं हमारे समाज में, जिनकी टीम में रत्न भरे हों! लेकिन मैंने अनुभव किया है कि हमारे #प्रधानमंत्रीमोदी जी की टीम में एक से बढ़कर एक रत्न हैं जो उनकी नेतृत्वक्षमता को उजागर करता है। वे स्वयं इतने प्रबुद्ध हैं कि उनके समक्ष दुनिया छोटी दिखायी देने लगी है। हर विषय  पर उनका विश्लेषण अद्भुत होता है, इसलिये वे स्वयं में इतने सुरक्षित हैं कि उनकी टीम में अच्छे से अच्छा प्रबुद्ध व्यक्ति भी काम करने को स्वतंत्र होता है। काश हमें  भी उनके समान या उनका एक अंश-धारक नेतृत्व मिला होता तो हम भी कभी मन लगाकर काम करते और अपना योगदान देश को दे पाते। कितने घोड़ों को कुशल सवार मिलता है? कुछ सवार तो खच्चरों पर ही अपना दांव लगाकर खुश होते रहते हैं और दमदार घोड़े पेड़ की छांव में बंधे रहकर ही बूढ़े हो जाते हैं। 

Friday, May 19, 2017

#तीनतलाक – पुरुषों को पारिवारिक निर्णय से वंचित किया जाए

आज अपनी बात कहती हूँ – जब मैं नौकरी कर रही थी तब नौकरी का समय ऐसा था कि खाना बनाने के लिये नौकर की आवश्यकता रहती ही थी। परिवार भी उन दिनों भरा-पूरा था, सास-ससुर, देवर-ननद सभी थे। अब यदि घर की बहु की नौकरी ऐसी हो कि वह भोजन के समय घर पर ही ना रहे तब या तो घर के अन्य सदस्यों को भोजन बनाना पड़े या फिर नौकर ही विकल्प था। सास बहुत सीधी थी तो वह नौकरानी के साथ बड़ा अच्छा समय व्यतीत कर लेती थीं। कोई कठिनाई नहीं थी। लेकिन हमारी नौकरानी ऐसी नहीं थी कि हम सब उस  पर ही निर्भर हों। घर में सारा काम सभी करते थे। इसलिये कोई यह नहीं कह सकता था कि यहाँ तो नौकरानी के हाथ का भोजन खाना पड़ता है। विशिष्ट व्यंजन तो अक्सर मैं ही बनाती थी। नौकरानी होने से बस मुझे सहूलियत हो गयी थी कि मेरी जगह वह काम को निपटा लेती थी और मैं निश्चिंत हो जाती थी।  उन दिनों रसोई तो सारा दिन ही चलती थी, किसी को 10 बजे भोजन चाहिये किसी को 12 बजे और हमें 2 बजे। लेकिन कुल मिलाकर सब ठीक ही चल रहा था।
लेकिन एक दिन अचानक ही हमारे एक आदरणीय सामाजिक कार्यकर्ता ने मुझे कहा कि मैंने एक प्रतिज्ञा की है, कि मैं घर की गृहिणी के हाथ का बना भोजन ही ग्रहण करूंगा, नौकरानी के हाथ का नहीं। मुझे इस बात से कोई कठिनाई नहीं थी, क्योंकि हमारे यहाँ तो सब मिलजुल कर ही भोजन बनाते थे और जब किसी अतिथि को आना होता था तब तो मैं ही बनाती थी लेकिन मुझे इस बात ने सोचने के लिये बाध्य कर दिया। हम नौकरीपेशा महिला से यह उम्मीद रखते हैं कि वह नौकरी भी करे और सारे घर की सेवा भी करे, क्योंकि वह महिला है। इतना ही नहीं एक प्रबुद्ध महिला से यह उम्मीद भी की जाए कि वह सामाजिक कार्य में भी योगदान करे। मैंने इस मानसिकता के बारे में कई वर्षों तक चिन्तन किया। मैंने कभी  भी किसी भी सामाजिक या धार्मिक कार्यकर्ता को यह प्रतिज्ञा करते नहीं देखा कि वह कहे कि मैं ऐसे पुरुष से अर्थ या धन नहीं लूंगा जो उसकी खरी कमाई का ना हो। लेकिन हम महिलाओं को लिये दायरे बनाने में सजग रहते  हैं।

कहीं न कहीं पुरुष के मन में कुण्ठा का भाव रहता है, वह महिला को सेवा करते देख ही तृप्त होता है। यह तृप्ति यौन-तृप्ति से भी अधिक मायने रखती है। महिला पुरुष की सेवा करती रहे, उसमें हमेशा सेवा भाव बना रहे इसके लिये अनेक perception याने धारणा बना ली गयी हैं। तरह-तरह के मुहावरे घड़ लिये गये हैं। महिला जितनी शिक्षित या प्रबुद्ध होगी उसके प्रति सेवा कराने का भाव उतना ही अधिक जागृत होगा। मानो उसे यह बताने का प्रयास किया जाता है कि तुम महिला हो और तुम्हारा प्रथम कर्तव्य है हम पुरुषों की सेवा करना। अभी दो दिन पहले जब न्यायालय के सामने #kapilsibbal ने यह कहा कि महिलाएं निर्णय लेने में अक्षम रहती हैं इसलिये उन्हें अधिकार नहीं दिये जा सकते। तब मुझे लगा कि यदि मैं वकील होती तो यह कहती कि तीन तलाक के निर्णय हमेशा क्रोध में लिये जाते हैं जिसे हम जल्दबाजी का निर्णय कहते हैं और पुरुष हमेशा अपने अहम् की संतुष्टि नहीं होने  पर महिला को अपमानित करते हैं और तलाक तक की नौबत आ जाती है इसलिये पुरुष जो केवल अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये महिला को अपनी सेवा के लिये मजबूर करता  है उसे तो किसी भी पारिवारिक निर्णय लेने का अधिकार  होना ही नहीं चाहिये। महिलाओं को न्याय दिलाने के लिये जब तक पुरुष न्यायाधीश और पुरुष वकील  होंगे, न्याय की उम्मीद क्षीण ही रहेगी। लेकिन समानता के लिए न्याय का एक कदम भी उठता है तो हम उसका स्वागत करेंगे, क्योंकि जिस असमानता के कारण महिला हजारों वर्षों से अपमानित हो रही है, जिस दुनिया को पुरुषों ने कब्जा कर रखा है, ऐसी परिस्थिति को सामान्य  होने में समय लगेगा। मुस्लिम महिला को न्याय तो मिलकर रहेगा, बस कतरों-कतरों में मिलने की सम्भावनाएं अधिक है।

Monday, May 15, 2017

पैसे से घर फूंकना

मैंने अपने मोबाइल का प्लान बदलवा लिया है, पोस्टपेड से अब यह प्री-पेड़ हो गया है। 395 रू. में 70 दिन के लिये मेरे पास 2 जीबी डेटा प्रतिदिन हैं और 3000 मिनट कॉल बीएसएनएल पर तथा 1800 मिनट कॉल अन्य फोन पर है। मैं बीएसएनएल का विज्ञापन नहीं कर रही हूँ, बस यह बताने की कोशिश करने जा रही  हूँ कि मेरे फोन के पास बहुत डेटा और मिनट हैं। जब शाम को देखती हूँ कि कितना बचा, तो पाती हूँ कि थोड़ा ही खर्च हुआ है लेकिन सारा दिन चिन्ता यही रहती है कि ज्यादा खर्च ना हो जाए? हमारी सम्पत्ती की भी यही स्थिति है, हर पल खर्चे की सोचते हैं कि ज्यादा खर्च नहीं करना है लेकिन शाम के अन्त में जिस प्रकार मेरे मोबाइल का डेटा बेकार हो जाता है वैसै ही यह बिना खर्चे यह सम्पत्ती भी जाया हो जाती है। सम्पत्ती वही है जो आपने खर्च ली है। जिन्दगी सस्ता तलाशते ही निकले जा रही है, बस कैसे भी चार पैसे बच जाएं सारा दिन इसी चिन्ता में घुले जा रहे हैं।
लेकिन दूसरी तरफ यह भी सोच है कि कुछ डेटा तो काम में ले ही लें। मन करता है कि फ्री मूवी ही डाउनलोड कर लें, जिससे 2जीबी का उपयोग हो जाए। जिस पैसे का भविष्य स्पष्ट दिखायी देता है कि खर्च नहीं किया तो आयकर वालों को देना ही पड़ेगा तब हम बिना सोचे समझे खर्चा कर बैठते हैं। तब यह भी नहीं सोचते कि यह खर्चा हमारी मर्यादा को ही छिन्न-भिन्न कर रहा है, लेकिन हम कर लेते हैं। जैसे अभी कुछ लोगों ने किया बीबर का शो देखने चले गये 75000 रू. की टिकट  लेकर। बस पैसे को ठिकाने लगाना था तो ऐसी जगह पैसा फूंक दिया जहाँ से जहरीला धुआँ हमारे घर की ओर  ही आया। शादी में भी हम यही करते हैं। आयकर से छिपाकर रखे पैसे को फूंकना शुरू करते हैं और सभ्यता व असभ्यता की सीमा ही भूल जाते हैं। उदयपुर में ऐसे तमाशे रोज होते ही रहते हैं, भव्य शादियों में महिला संगीत के नाम पर नृत्यांगनाओं को बुलाने की परम्परा सी बना दी गयी है। ऐसे में असभ्यता की सीमाएं पार होती रहती हैं और परिवार इसके घातक परिणाम को बाद में भुगतता है।

इसलिये आपके सात्विक खर्च के बूते से बाहर का पैसा सुखदायी के स्थान पर दुखदायी हो जाता है। आज देश की सबसे बड़ी समस्या यही है। मैं जब फतेहसागर के पिछले छोर पर मोटरसाइकिल की अन्धाधुंध दौड़ देखती हूँ तब यही लगता है कि यह माता-पिता का नाजायज पैसा है जिसे अपनी जायज संतान को देकर उसके जीवन को अधरझूल में डाला जा रहा है। कहीं इस नाजायज पैसे से तिजोरी में हीरे-जवाहरात भरे जा रहे  हैं तो कहीं यह  पैसा बीबर जैसे अनर्गल शो में जाया किये जा रहे हैं। पैसा फूंकना अलग बात है और घर फूंकना अलग बात है। पैसे ठिकाने लगाने हैं तो कृत्य और अकृत्य का भान भी हम भुला देते हैं। इसलिये देश में जैसे-जैसे पैसा बढ़ रहा है वैसे-वैसे असभ्यता भी बढ़ रही है। मेरे मोबाइल का डेटा बिना खर्च किये ही बर्बाद हो जाए तो चिन्ता नहीं बस कहीं मैं आलतू-फालतू मूवी डाउनलोड कर अपनी आदतों को गलत राह ना दिखा दूँ. यही चिन्ता है। 

Sunday, May 14, 2017

कस्तूरी मृग है - माँ

कस्तूरी मृग का नाम सुना ही होगा आप सभी ने। कहते हैं कुछ  हिरणों की नाभि में कस्तूरी होती है और कस्तूरी की सुगंध अनोखी होती है। हिरण इस सुगंध से बावरा सा हो जाता है और सुगंध को सारे जंगल में ढूंढता रहता है। उसे पता ही नहीं होता है कि यह सुगंध तो उसके स्वयं के अन्दर से ही आ रही है! माँ भी ऐसी ही होती है। उसके अन्दर भी ममता नामक कस्तूरी होती है। इस कस्तूरी की सुगंध भी सारे जगत में व्याप्त  होती है। माँ को  भी पता नहीं होता कि उसकी ममता अनोखी है, अनमोल है और यह केवल उसी में है। जब कोई भी महिला माँ बनती है तो यह ममता  रूपी कस्तूरी उसके अन्दर बस जाती है, वह महिला कस्तूरी मृग की तरह विशेष हो जाती है। सृष्टि की सारी माताएं फिर चाहे वे पशु हो या पक्षी सभी में ममता का वास है। ये ही ममता संतान का सुरक्षा चक्र है।
हिरण को पता नहीं है कि उसके अन्दर कस्तूरी है और संतान को पता नहीं है कि माँ के अन्दर ममता है। हिरण जंगल में भटकता है और संतान ममता की गंध को नजर अंदाज कर प्यार की गंध के पीछे दौड़ता है, यही प्रकृति है। संतान को समाधान मिल जाता है लेकिन ममता को नहीं। मुझे देवकी का स्मरण होता है, कृष्ण को उससे छीन लिया गया है, वह नन्हें बाल-गोपाल बना लेती है और सारा दिन बाल-गोपाल के साथ कभी स्नान तो कभी भोजन और कभी निद्रा का खेल खेलती है और अपनी ममता को जीवित रखती है। क्योंकि स्त्री की ममता ही उसे सभी से विशेष बनाती है, बस ये ही शाश्वत रहनी चाहिये क्योंकि जो शाश्वत है वही सत्य है।

बुढ़ापे ने दस्तक दे दी है, संतान भी पास नहीं है तब ममता भी कठोरता धारण करने लगती है, ऐसे में विश्व मातृ-दिवस मनाता है और मुझे कस्तूरी मृग का ध्यान हो जाता है। ममता मुझे अमूल्य लगने लगती है और मैं इसके संरक्षण की बात सोचने लगती हूँ। इस एक-तरफा प्यार को बनाये रखने का उपाय ढूंढने लगती हूँ जिससे कस्तूरी की सुगंध जगत में हमेशा व्याप्त रहे। जिस ममता नें माँ को अमूल्य बना दिया वह ममता शाश्वत रहनी चाहिये तभी यह ममता सत्य बनेगी। जो भी माँ है वह अनोखी है और इस अनोखेपन को दुनिया नमन करती है। आज मातृ-दिवस है तो दुनिया में कस्तूरी गंध की तरह व्याप्त ममता को घारण करने वाली माँ को नमन। 

Friday, May 5, 2017

राग पैदा करो – वैराग्य आ जाएगा

कल अपनी एक मित्र से फोन पर बात हो रही थी, वे बोली की दुनिया की इन्हीं  बातों के कारण मुझे वैराग्य हो गया है। पता नहीं क्यों यह शब्द मुझे कई  पलों तक झकझोरता रहा और आखिर किसी दूसरी बात में लपेटकर मैंने कहा कि मैं तो राग की बात करती हूँ, आज राग ही नहीं है तो वैराग्य कहाँ से आएगा! जब हमारे मन में किसी दूसरे के  प्रति राग उत्पन्न होता है तब अपने से वैराग्य आता है। माँ संतान के जन्म देती है, संसार के सबसे बड़े राग को अपने अन्दर धारण करती है लेकिन इस राग के कारण स्वयं के सुख-दुख से वैराग्य धारण कर लेती है। एक सैनिक जमाव बिन्दु से 40 डिग्री नीचे के तापमान में अपने देश की सीमाओं की सुरक्षा करता है, वह देश से राग करता है और बदले में अपने सारे शारीरिक कष्टों के प्रति वैरागी हो जाता है। विवेकानन्द जैसा सामाजिक उद्धारक अपनी संस्कृति से राग करता है तब परिव्राजक बनकर अपने सारे ही सुखों से वैराग्य ले लेता है। आज हम केवल स्वयं से राग करते हैं, अपने अहंकार से चिपटे हुए हैं। बस परिवार में, समाज में और हो सके तो दुनिया में मेरी ही बात मानी जाए या मेरी ही सत्ता स्थापित  हो जाए। आज सारी दुनिया आतंक के साये में क्यों जी रही है? कारण है अपनी मान्यताओं के  प्रति राग। हम सारी दुनिया को एक ही रंग में रंगना चाहते हैं। आज जितने भी मत-मतान्तर हैं, वे सारे ही विस्तार की चाह रखते हैं। विवेकानन्द ने कहा था कि मैं दुनिया को अपनी संस्कृति के बारे में बताने आया  हूँ ना कि धर्मपरिवर्तन करने।
जब हम दूसरों से राग करते हैं या प्रेम करते हैं तब उसके प्रति झुकते हैं, अपने अहंकार का दमन करते हैं और जब हमारे अहंकार का नाश होता है तभी वैराग्य आता है। संन्यासी अक्सर गृहस्थों को कहते हैं कि त्याग करो और भोजन में कोई भी वस्तु त्याग दो। हम हमारी अप्रिय वस्तु छोड़ देते हैं। संन्यासी कभी नहीं कहते कि तुम संग्रह छोड़ दो या गलत तरीके से अर्जित धन का त्याग कर दो, इसके विपरीत वे ऐसी सम्पत्ति से खुद को बांध लेते हैं। बड़े-बड़े धार्मिक स्थान इस बात की गवाही दे रहे हैं। इसलिये मैं कहती हूँ कि अपनों के प्रति राग करो, अपने समाज के प्रति राग से भर जाओ, अपने देश के प्रति राग में डूब जाओ। अपने देश, समाज या अपनों के प्रति राग करने से अपने मन को समर्पित करना पड़ता है, तन के कष्ट उठाने पड़ते हैं और धन का दान करना पड़ता है, याने अपने से वैराग्य पैदा करना पड़ता है। इसलिये वैराग्य के आडम्बर में मत उलझो, राग के पाश में बंधने का प्रयास करो। जैसे  ही राग आएगा वैराग्य तो स्वयं ही आ जाएगा।

यहाँ मैंने आप सभी से राग में बंधकर अपनी बात कही है, आपके विचार भिन्न होंगे ही, लेकिन यह मेरे विचार हैं। आप अपने विचार भी खुलकर रख सकते हैं।